Sunday, October 18, 2020

साइकिल पर कन्याकुमारी

नगाड़े का पूर्वाभ्यास

1970 के मार्च महीने की शुरुआत तक हम पूरी तरह तैयार हो चुके थे । हम मतलब, मैं, चपल बनर्जी, बिष्टुपद दत्ता, असीत पर्वत और आशीष आयकत। हमारी साइकिलें तैयार थीं, 14 छेद वाले रेंच, रबड़ चिपकाने के सल्युशन, ट्यूब के टुकड़े, कैंची, सरेस कागज आदि के साथ किट भी तैयार कर लिये थे लेकिन छोड़ना पड़ा क्योंकि हैन्डपम्प खरीदने के पैसे नहीं जुट पाये। मेरे पास थे पचीस रुपये, चपल के पास भी लगभग उतने ही थे, बिष्टु बताया तो था कि उतने ही उसके पास भी हैं, पर बाद में शक के घेरे में आ गया था । असीत के पास नि:सन्देह ज्यादा रहा होगा; थोड़ा शौक रखता था बेचारा । आशीष निश्चिन्त था कि आधा रास्ता जाते जाते उसके वापसी की बुलाहट आ जायेगी – उसके बीमार पिता की जगह उसे नौकरी पर रखने के लिये औपचारिक अनुशंसायें हो चुकी थीं । फिर भी इन्हे लेकर पाँच लड़कों की टीम बनाने का कारण थे हमारे प्रिन्सिपल सर एवं हमारे परिवार । हम सब वाणिज्य महाविद्यालय के छात्र थे एवं हमारे प्रिन्सिपल सर, पी॰ एन॰ शर्मा - जिनसे हम सभी डरते थे - को खुश करना था कि एक बड़ी टीम को उन्हे कॉलेज के गेट से रवाना करना है । दूसरी ओर, परिवार को तसल्ली देना था कि हम सब अपने अपने घरों के अकेले सिरफिरे नहीं हैं। हमारा छोटा सा दस्ता है । खैर सब कुछ तैयार था । घरों पर अपनी माँओं को भी हम, जहाँ तक मजबूरी थी रुला चुके थे । तारीख तो याद नहीं पर इतना याद है कि निकलने के बारह दिन बाद होली आई थी । वह भी एक खास कारण से याद है ।

घर से निकल कर पाँचों कॉलेज में जुटे और फिर कुछेक दर्जन छात्रों की उपस्थिति में प्रो॰ पी॰ एन॰ शर्मा ने हमें विदा किया । आखरी वक्त तक सुझाव देने वालों में ‘तैराक मिहिर सेन के एक्स्प्लोरर्स क्लब से स्पॉन्सर करा लेने’ से लेकर ‘साथ में रिवॉल्वर रख लेने’ को कहने वाले शामिल रहे पर हमने उनमे से किसी की नहीं सुनी । हाँ, दो साल पहले साइकिल से राजगीर जाते वक्त बख्तियारपुर से आगे हमने रास्ते में खजूर का ताजा ‘वैसक्खा’ (ताड़ का नहीं भई) उतार कर ले जाने वालों को पकड़ा था, उन्ही के टिफिन का डब्बा भर कर पिया था, इस बार भी पीना है, ये बात याद थी ।

लेकिन वे रास्ते में मिले नहीं । पहला दिन पैर सबका खुल नहीं रहा था । हम में से किसी का कोई परिचित भी था बिहारशरीफ में । वहीं हम खाना खाये और रात को रुक गये । किस तरह रुके, यानि कहाँ सोये बिल्कुल याद नहीं । लेकिन उनके एक सुझाव पर हमने तत्काल अमल करना शुरु किया जो बहुत काम आया पूरी यात्रा में । बल्कि जहाँ तक याद है उन्होने यानि, घर के जो अभिभावक थे, खुद ही शुरुआत करवा दी । एक मोटी कॉपी मंगवाई और बिहारशरीफ थाने पर हमे ले जा कर लिखवा लिया, “अमुक, अमुक (पाँच जनों का नाम) आज (तारीख) को पटना से शाम 7 बजे बिहारशरीफ पहुँचे । कल सुबह वे यहाँ से आगे के लिये गया के रास्ते रवाना होंगे ।” थाने का मुहर लगवा दिया उस पर । हिदायत भी दी कि जहाँ भी रात को रुकना हो पहले थाने पर जाकर इस डायरी पर इसी तरह लिखवा लें। बाद में, खास कर आंध्र प्रदेश में श्रीकाकुलम वगैरह का इलाका पार करते समय, यहाँ तक कि त्रिवन्द्रम (आज का तिरुअनन्तपुरम) पहुँच कर भी यह डायरी बहुत काम दिया । बल्कि कई जगह तो सिपाहियों से दोस्ती भी हो गई उस डायरी के कारण ।

अगले दिन सुबह राजगीर होते हुये गया पहुँचे और वहाँ भी रुक जाना पड़ा । किसी का कोई परिचित था वहाँ भी । फिर अगली सुबह आगे बढ़े तो बोध गया होते हुये डोभी पहुँचे । जी॰ टी॰ रोड पर चढ़ कर रोमांचित हुये । अब शुरु हुआ नैशनल हाइवे का सफर ।

रात में बरही रुक गये । और फँस गये । यानि लगा कि गये । सरकारी बंगला बिलकुल खाली था । चौकीदार को पटिया कर घुस गये एक कमरे में । रात के दस बजे गाड़ी की आवाज हुई । चौकीदार ने खबर दी कि दिल्ली से कलकत्ता जा रहे हैं सीआइडी या सीबीआई के कोई बड़ा अफसर । थोड़ी देर में बुलाहट भी आ गया । उस वक्त नक्सलवाद का आन्दोलन बिहार में युवाओं को रोमांचित कर रहा था । पर उस वक्त हमें एक दम ही रोमांच नहीं हो रहा था सोच कर कि झूठमुठ इन्टेरोगेशन के नाम पर अगली सुबह रोक लिये जायें । यह तो तय था कि दिल्ली से कलकत्ता यह बड़ा अफसर नक्सलवाद से ही सम्बन्धित काम से जा रहा था । … खैर, हम उनके कमरे में गये । जान बची जब लगा कि कल सुबह रुकना नहीं पड़ेगा । बल्कि उन्होने हमें शाही कप (जो सरकारी मेहमान के लिये रखा रहता था) में चाय पिलाया, विलायती सिगरेट 555 का पैकेट आगे बढ़ाया जिसमें से मैंने और शायद असीत ने एक एक सिगरेट लिया । हमारी साइकिल यात्रा की योजना के बारे में जानकारी ली और फिर हमें शुभकामना देते हुये गुडनाइट कहा ।

अगली शाम गोविन्दपुर से धनबाद के लिये मुड़ गये । जाना ही था, आशीष की फुआ (शायद) रहती थी और वहीं खबर को ‘इन्तजार’ करने के लिये भेजा गया था कि ‘आशीष आयेगा’ । नौकरी की खबर । आशीष को मिल गई और अगली सुबह हम आगे बढ़े चार ।

रात को दस बजे पहुँचे इसलामपुर, जिला बर्द्धमान । थाने पर लिखवाने काम तो हो गया पर कहीं जगह मिल नहीं रही थी ठहरने की । धरमशाला अगर था भी तो कोई बता नहीं पा रहा था । सड़क पर लोग भी कम थे । तभी किसी ने दिखाया कि वो सामने एक अनाथ आश्रम है, वहाँ पूछिये, शायद वे जगह दे दें, रात भर ठहरने की । हम पहुँचे तो एक बुढ़ीमाँ गेट में ताला लगा रही थी । हमारी बातें सुन कर, साथ में साइकिलें और सामान देख कर उन्हे भरोसा हुआ । रात में ठहरने के लिये उन्होने एक कमरा दे दिया । भूख लगी थी । बुढ़ीमाँ को कह कर हम निकले कि बस कुछ खा कर आ जायेंगे । वाह ! थोड़ी दूर आगे एक मोड़ पर पहुँचे तो दिखा कि बाज़ार पूरा रौशन है । हालाँकि सिर्फ मिठाई की दुकानें हैं, और उसमें भी, रात के ग्यारह बजे कड़ाही भर भर के समोसे छाने जा रहे हैं । पता किया तो मालूम हुआ कि अगले दिन कलकत्ता मैदान में समावेश है - लोग ट्रकों पर रवाना हो रहे हैं और साथ में समोसे से भरी टोकरियों जा रही हैं । हम भी समोसे खाये और लौट गये अनाथ आश्रम के उस घर में । हमें एहसास हो रहा था कि हमारे चारों तरफ कमरों में बच्चे हैं जो कुछ कुछ हमारे बारे में ही फुसफुसा रहे हैं । अगली सुबह दो-चार ने हमें उत्सुकता भरी नज़रों से देखा पर ज्यादा बातें नहीं हुई । हम भी निकल गये । हमारा लक्ष्य था कलकत्ता ।

कलकत्ता में कुछ हमारा इन्तजार कर रहा था । रात को आठ बजे हावड़ा का पुल पार करते हुये इतना तो पता चल गया था कि कलकत्ते में जोरदार बारिश हुई है । वह बारिश कितना था यह पता चला पुल से उतरते हुये । दूर से दिखाई दिया कि पानी जमा है । कितना होगा ! घुटना भर ! कमर तक ! इतना तो पटना में हर साल झेलते हैं । ब्रेक छोड़ कर साइकिल को हमने अपने मोमेन्टम में उतरने दिया । दुर्घटना की खास गुंजाइश नहीं थी क्योंकि सामने का मोड़ सूना था । … जब हम रुके तो सीना पानी के नीचे । हड़बड़ाकर साइकिल से उतरे तो ठुड्डी पानी छू रहा था और पैर जमीन ढूँढ़ रहा था । हालाँकि थोड़ी ही दूर तक यह स्थिति रही । उस वक्त फ्लाई ओवर नहीं थे । इसलिये कहीं घूमना नहीं था । स्ट्रैन्ड रोड पर चढ़ते चढ़ते पानी चलने लायक हो गया ।

चपल बनर्जी के भैया खिदिरपुर बन्दरगाह में नौकरी करते थे । हम वहीं ठहरे । और चार दिन ठहरे । मुझे भी बड़ी चाची के यहाँ जाना था और डाँट सुनना था । डाँट मिली और साथ में सख्त हिदायत कि वापस पटना ही लौटना है, आगे नही बढ़ना । बड़ी चाची लम्बी चौड़ी हुआ करती थी । पिताजी कहते थे ढाका में जब थी तो घोड़े पर चढ़कर पोलो खेलती थी । मानिकतल्ला में तीसरी मंजिल के उस फ्लैट में जब हम सारे बच्चे जुटते थे तो एक बड़ी थाली के चारों ओर हमें बिठाकर वह खाना खिलाती थी । … पैसे भी मिले पटना के टिकट के लिये । दिमाग में बात आई कि चलो आगे का जुगाड़ हो गया ।   

अगले दिन हम सब एक साथ गये राइटर्स । उस वक्त इतनी सख्ती भी नहीं थी । युनाइटेड फ्रॉन्ट सरकार के खेल मंत्री थे राम चटर्जी । उन्ही से मिले, आशीर्वाद बटोरे लेकिन अन्त में झिड़की खानी पड़ी । नेताजी से मिलना है सोच कर हाफ पैन्ट, गंजी उतार कर बैग में सलीके से रखा हुआ कुर्ता पाजामे का अकेला सेट पहन लिया था । मंत्रीजी जब नीचे उतर कर आये हमारे साथ एक तस्वीर के लिये तो डाँट दिया। “ये कौन सा ड्रेस है तुम लोगों का ? स्पोर्ट्समैन का ड्रेस पहन कर आना था, बाराती का ड्रेस पहन लिये !”

चारों रात जो हम कलकत्ते के खिदिरपुर मोहल्ले के उस छोटे से घर में बिताये, नगाड़ों के आवाज से गूंजती रही । पीछे मोहमेडन स्पोर्टिंग का क्लब या फैन क्लब था । एक सप्ताह के बाद शील्ड का फाइनल होना था मोहमेडन के साथ किसी और – मोहन बागान या इस्ट बेंगॉल - के साथ । मोहमेडन स्पोर्टिंग फाइनल जीतेगा यह भरोसा था उनको । विजय जुलूस के लिये नगाड़ा बजाने का अभ्यास चल रहा था हर रात । उन्ही दिनों यह सच्चाई दिमाग में कौंधी थी, कि लड़ाई में जीतें या हारें, मेहनत सिर्फ विजय के लिये नहीं, विजय के उत्सव के लिये भी करनी पड़ती है ! कहीं भी, लड़नेवालों के मन के किसी भी कोने शक की गुंजाइश नहीं रहती है कि वे शायद नहीं भी जीतें ! …

कलकत्ता से आगे बढ़े तीन । असीत पर्बत थक चुका था, वह वापस लौट आया । जिस दिन सुबह को विदा हुये उस दिन बंगाल बन्द या आम हड़ताल का आह्वान था । हमें जल्दी हाइवे पर – एनएच6 – पर पहुँच जाना था । खिदिरपुर के रास्ते पर बच्चे निकल चुके थे कांटी (कील) का थैला और हथौड़ी लेकर । बीच सड़क पर कील ठोके जा रहे थे कि गाड़ी गुजरे और बुम, फुस्स …!

       

चिलका के किनारे रात, गर्म दूध

एन॰ एच॰ 6 यानि कलकत्ता-मुम्बई हाइवे पर थोड़ी दूर के बाद एन॰ एच॰ 5 यानि कलकत्ता-मद्रास हाइवे अलग हो जाता है । कांथी या कॉनटाइ थाने के ओसी द्वारा किया गया स्वागत याद है । भर तश्तरी मिठाइयाँ । और बहुत सारा उत्साह । रात को हम खड़गपुर से थोड़ा आगे एक कस्बे में रुके । क्या सोच कर रुके याद नहीं । एक आवासीय विद्यालय के परिसर में पहुँचे रात को और लड़कों ने हमे सर पर उठा लिया । हमारे लिये खाना बनाया, अपने हाथ से बिस्तर बिछाया मच्छरदानी के साथ । सामने अंधेरे में तालाब था । उसी में हम नहाये, फिर खाना खाये और सो गये । सुबह विदा होते वक्त बच्चे हाथ हिला हिला कर चिल्लाते रहे, “हम भी आ रहे हैं”! इस वाक्य के पीछे का परिदृश्य यह था कि उस समय इस तरह के यात्राओं की धूम मची थी, खास कर बंगाल में । कोई साइकिल पर, कोई पैदल तो कोई हिच-हाइकिंग करते हुये । रास्ते में कई बार हम मोतिहारी के एक लड़के को पार किये जो हिच-हाइकिंग कर रहा था । प्लानिंग पूरे भारत का था जैसा हमारा । हमारा तो पूरा हुआ नहीं, उसका हुआ कि नहीं हम नहीं जान पाये । एक और टीम मिला पाँच लोगों का, वे पैदल कन्याकुमारी जा रहे थे चावल, हँड़िया, नमक बांध कर । कहीं दोपहर हुआ, सूखी लकड़ी जुटाई, ईँटा जोड़ा कर चुल्हा बनाया और भात बना लिया । भात और नमक । एक दोपहर हम भी उनके साथ भात खाये थे तमिल नाडु में । फिर हमारी अगली भेँट तिरुचिरापल्ली में हुई थी क्योंकि चेन्नई में हम चार दिन रुक गये थे । खैर ये सब आगे की बातें हैं ।

उस रात को हम शायद बालेश्वर में रुके थे या भद्रक में, स्पष्टत: याद नहीं । भद्रक ही होगा । शायद थाने के ही परिसर में एक खुली जगह पर उन्होने बिस्तर लगाने की इजाजत दे दी थी । कुछ दे भी दिया था बिछाने को ।

भद्रक तक पहुँचने में और भद्रक से आगे कटक होते हुये भुवनेश्वर तक पहुँचने में कई नदियाँ आपको मिलती है । हमारे साथ उन नदियों के मुलाकात की खासियत यह थी कि हम उनकी धारा में नहाते हुये आगे बढ़े । कोई पुण्य-वुण्य की बात नहीं थी । हम महसूस कर रहे थे कि नहाने से स्फूर्ति मिलती है । पैर का भारीपन मिटाने के लिये तो हम किसी पेड़ के तने के पास गमछी बिछाकर लेट जाते थे और पैर चढ़ा देते थे तने पर । पैसे कम थे । बचा बचा कर खर्च करते थे । निपट भी जाता था क्योंकि जिस किसी पुलिस थाने में रिपोर्ट करने के लिये डायरी फैलाते थे वहीँ एक पहर के भोजन या नाश्ते का इन्तजाम हो जाता था । लेकिन बार बार नहा कर स्फूर्ति लाना अपने हाथ में था । नदी देखी, बांध देखा, बस उतर गये ।

कभी कभी बहुत छोटा सा तथ्य भी बहुत देर से जानने को मिलता है । जैसे दाँतन (मेदिनीपुर) में पहली बार जाना कि भात, दाल, मछली का झोल मील-प्लेट के हिसाब से खाने के लिये जो भोजनालय हैं वे पाइस होटल कहे जाते हैं । उसी तरह भद्रक से आगे जिस कस्बे के मोड़ पर हमने नाश्ता किया, वहीं हमने जाना कि ग्रामीण, धोती में मुढ़ी बांध कर लाते हैं और नाश्ते की दुकान पर सिर्फ एक प्लेट सब्जी खरीद लेते हैं साथ खाने के लिये । यानि सब्जी अलग से खरीदने को मिलता है ! जबकि पटना में हम जानते थे कि दाम सिर्फ कचौड़ी का होता है ! सब्जी फ्री मिलती है चाहे जितनी बार मांगो ! ज्यादा सब्जी मांगने वाला कोई दल पहुँच गया तो चुपके से सब्जी में मिर्ची का पाउडर मिला देता है दुकानदार !     

रात को कटक होते हुये भुवनेश्वर पहुँचे । मेरी चचेरी दीदी रहती थी उत्कल विश्वविद्यालय के परिसर में । उनके पति वहाँ पढ़ाते थे । दीदी बहुत खुश हुई । रात को गर्मागर्म पराठे खाने को मिले । लेकिन लगा कि रहने की बात होगी तो फँस जायेंगे । इसलिये बहाने बना कर रात को ही निकल लिये पुरी की तरफ ।

पुरी पहुँचे नहीं । एक तो रास्ता पूरा अंधेरा था । और नींद तो थी ही आँखों मे । पीपली के पास एक चौड़े कलभर्ट पर दोनो तरफ, साइकिल लगा कर सो गये । कलभर्ट पर नींद क्या आती, हमेशा पानी भरे नाले में गिरने का डर सताता रहा । सुबह उठे और पुरी की ओर बढ़े ।

यहीं वह घटना होनी थी । पुरी की तरफ बढ़ते ही बच्चे दिखने लगे रास्ते पर रंगों से भरी पिचकारियाँ लिये । समझ गये की होली का दिन है । साइकिल चलाते हुये अगर आँखों में रंग पड़ जाय तो स्थिति खतरनाक भी बन सकती है । हालाँकि होली के कारण रास्ते पर ट्रक वगैरह नहीं थे । बसें और गाड़ियाँ कम चलती थी उन दिनों । फिर भी पिचकारियों की वार से बचते हुये आगे बढ़ रहे थे । अचानक एक पिचकारी का रंग सीधे मेरी आँखों पर पड़ा । मैंने आँखें बन्द कर ली । लेकिन साइकिल रोकते रोकते घड़ा लिये एक बुढ़िया मेरे साइकिल के चपेट में आ गई । मैं काफी जोर से गिरा, बुढ़िया भी गिर गई । उसका घड़ा चकनाचूर हो चुका था । मेरे केहुनी, कंधा, चेहरा छिला गया था । फिर भी मैं उठ कर भागा बुढ़िया की ओर, उसे न कुछ हो गया हो । लो, वह तो मेरे से पहले उठ कर खड़ी थी ! मैं बंगला/हिन्दी में उसकी खैरियत पूछ रहा था और वह उड़िया में गरज कर अपने घड़े का दाम मांग रही थी । कुछ लोग और आगे बढ़ आये । बाकि दोनों मित्रों ने बीचबचाव किया । घड़े का दाम देकर छुटकारा मिला ।

साक्षीगोपाल के पास एक पंडा मिला रास्ते पर । वह भी साइकिल से जा रहा था । उसने प्रस्ताव दिया कि पाँच रुपये देने पर वह मंदिर के बाहर वाले भगवान का दर्शन करा देगा । “और, भीतर वाले भगवान का?” “दस रुपये”। मन तो किया उसे पीटूँ पर उसे अपने रास्ते भगा कर हम बढ़ गये । दूर से तोप दागने जैसी आवाज आ रही थी । वह पुरी के समुद्रतट पर लहरों (ब्रेकर्स) के गिरने की आवाज थी ।

अगले दिन दोपहर तक हम वापस भुवनेश्वर लौट आये ।

भुवनेश्वर में ए॰ जी॰ बिहार-ओड़िशा का दफ्तर ढूंढ़ने में दिक्कत नहीं हुई । माँ को खुश करने का यह एक तरीका था कि हिम्मत जुटा कर ए॰ जी॰, बड़े मामा के चेम्बर में घुस जाऊँ, पैर छूऊँ, और दाँत, 32 ऑल आउट करके बोलूँ, “बड़े मामा, मैं अमुक, पटना से…”

बोलना था और फिर क्या । मामा अपने भगीना से पन्द्रह साल बाद मिल रहे थे । सीधा हम सभी बड़े मामा के बड़े से क्वार्टर पहुँचा दिये गये । अगले तीन दिनों तक भोजभात होता रहा, मामी डाँटती फटकारती और ठूँस ठूँस कर खाना खिलाती रही । अपनी छोटी ममेरी बहन से होश में पहली बार मिला, उसके गाने सुने । मामा ने पैसे दिये और सीधा पटना वापस जाने को कहा । वही पैसे आगे काम आये ।

भुवनेश्वर से आगे बढ़ने वाले बचे दो । कुछ कारणों से बिष्टुपद दत्ता वहाँ से वापस पटना आ गया । मैं और चपल उस दिन देर से भुवनेश्वर छोड़ कर चिलका के किनारे किनारे चलते हुये रात में पहुँचे रम्भा । बाँये दूर तक मद्धिम चमकता हुआ चिलका का विशाल झील । थोड़ी चढ़ाई थी सड़क पर । दाहिने अकेली रोशनी दिखी एक बरामदे पर । अन्दर गया तो दिखा कि भरा पूरा राजस्थानी घरवार है । गाय है बथान में, अनाज के कोठे हैं, कारोबार भी है … अच्छा स्वागत हुआ, बड़े बड़े गिलास में दूध मिला पीने के लिये और रात को सोने का बन्दोबस्त बरामदे में ही हुआ । यही मैं भी चाहता था कि रात भर झील और उस पर झुके हुये अनगिनत तारे देखने को मिले । 

 

अमरूद

अगली रात हम कहाँ रुके थे यह याद नहीं । इतना याद है कि अगली सुबह हम बरहमपुर पहुँचे थे और बरहमपुर विश्वविद्यालय के कुलपति से भी मिले थे । फिर उसके आगे की सुबह हम श्रीकाकुलम थाना पहुँचे थे । अभी गुगल मैप देख कर लगा कि हम नरसन्नपेट या उसके आसपास कहीं रुके थे । बेशक पुलिस थाने में ही हमने रात बिताने की जगह मांगी होगी, यह तरीका हमने तब तक ढूंढ़ लिया था पुलिस के शक वगैरह से बचने के लिये ।

बरहमपुर विश्वविद्यालय के कूलपति से उनके आवास पर मुलाकात हो जाना एक बड़ी घटना थी । उन्होने दो किताबें भेँट की हमारे कॉलेज के लिये ।    

आंध्र प्रदेश में प्रवेश करते ही कुछ बातें आँखों में बरबस चुभ गई । शायद इछापुरम पहुँचते ही एहसास हुआ होगा । एक तो अब हिन्दी नहीं चल पा रही है और गाँवों में तो अंग्रेजी भी नहीं चल पा रही है । मोपेड पर सवार एक शिक्षक मिले थे आगे कहीं । उन्होने बल्कि थोड़ा जोर डाल कर कहा कि हिन्दी जानने पर भी वे हिन्दी नहीं बोलेंगे । दूसरी बात जो चुभी वह थी पीने के पानी की किल्लत । कई जगह लोग उसी नहर से पानी लाकर भोजन/नाश्ते की दुकानों में पिला रहे थे जहाँ कपड़े धोये जा रहे थे । और तो और, एक बार मेढ़क का बच्चा भी तैरता हुआ मिला । तीसरी बात थी गरीबी और पिछड़ापन । बूढ़ी औरत बीच सड़क पर साड़ी घुटने तक उठा कर पेशाब कर रही है – कई साल बाद आयमे सेज़ार की कविता पढ़ कर एहसास हुआ था कि यह दृश्य तीसरी दुनिया में विश्वजनीन है – उस वक्त हमारे लिये नया था । चौथी बात थी, खास कर गाँवों में, एक विरोधाभास – गरीब, आम लोग इतने अच्छे और धनाढ्य उतने ही बुरे ! इनमें से कुछ बातों का अनुभव आंध्र प्रदेश प्रवेश करते ही हो गया और कुछ बातों का अनुभव आगे, गोदावरी जिले में हुआ, पर आंध्र प्रदेश में देखा गया हर दृश्य, आगे चल कर देश के बारे में अध्ययन करते हुये आवश्यक परिदृश्य बना ।

दोपहर का वक्त था । मैं और चपल हाइवे से एक छोटे से कस्बे के रास्ते पर उतर गये । आगे बाँई ओर एक अमरूद का बगीचा दिखा । सारे पेड़ों में अमरूद लदे हुये थे । बाँस का गेट खोल कर एक बड़े से फूस के घर का दरवाजा खटखटाया । एक जवान लड़का निकल आया । दिख रहा था कि यह पारिवारिक घर नहीं है । अमरूद के बगीचे के साथ एक बड़ा कमरा खड़ा कर दिया गया है मालिक के बेटे के लिये, पढ़ाई भी करेगा, मौजमस्ती भी करेगा जब जी चाहे । हमने इशारों से समझाने की कोशिश की कि हम साइकिल यात्रा पर निकले हैं । भूख लगी है, प्यास भी लगी है । एक दो अमरूद अगर वह दे दे तो राहत मिलेगी । लगभग भीख मांगने के तेवर थे हमारे । पर एक भी अमरूद नहीं मिला । उल्टे (जो समझ में आया) गालीगलौज मिला और मुंह पर दरवाजा बन्द कर दिया गया । वापस लौट रहा था । हाइवे के ठीक पहले धूल भरी चढ़ाई पर छे-सात औरतें मिलीं जो कहीं से घड़े में पीने का पानी लेकर आ रही थीं । हमें साइकिल के साथ देख कर रोकीं । न उनका पूछना हमें समझ में आ रहा था न हमारा बताना उन्हे समझ में आ रहा था । फिर भी जो समझना था वो समझ गईं । हमें ले गईं आगे हाइवे के बगल में खड़ी एक झोपड़ी में । चाय की दुकान थी वह पर चुल्हा बुझा हुआ था और दुकानदार नींद में था । वे अपने पैसे जोड़ीं, साड़ी के खूंट से निकाल कर – कुल दो चाय के दाम निकल आये । वे तब दुकानदार को जगाईं, जबर्दस्ती उससे चुल्हा जोड़वाकर दो गिलास चाय बनवाई । हम चाय पिये । फिर हमे आशीर्वाद देकर उन्होने विदा किया ।

एक घटना आगे भी हुआ था दो दिनों के बाद । गन्ने के खेत के बगल से गुजर रहे थे । गन्ने तैयार थे और किसान (या खेत मजदुर, इतनी समझ नहीं थी उन दिनों) खेत से निकाल कर बड़े बड़े बन्डल बना रहे थे । फिर बैल गाड़ियों पर चढ़ाये जा रहे थे । हम आगे बढ़ कर दो गन्ने मांगे । उन्होने ने इशारा किया, यहाँ नहीं, नजरदारी है, आगे बढ़ कर इन्तजार करो । हम थोड़ा आगे बढ़ कर इन्तजार करने लगे । कुछ ही देर में एक, कटे हुये गन्नों का बड़ा सा गठरी लेकर आया । खुद हमारी साइकिल के रॉड के साथ बांध दिया । हमने पूछा, ‘इतना क्या होगा’ । ‘आह, खाते हुये जाना रास्ते में’ उसने इशारा किया ।

फिलहाल, नरसन्नपेट या आसपास किसी कस्बे में रात गुजारने के बाद लगभग सुबह दस बजे हम श्रीकाकुलम पहुँचे । सुबह में, वह भी ऐसे शहर में जहाँ हम रात को रुकनेवाले नहीं थे, थाना ढूंढ़ कर पहुँचने का कोई कारण नहीं था । फिर भी, चुँकि हम सुन रखे थे कि श्रीकाकुलम नक्सलवाद का महत्वपूर्ण केन्द्र है, हम थाना पहुँच कर डायरी पर लिखवा लिये ताकि कहीं कोई समस्या न हो । और संयोग देखिये कि उसी वक्त थाने के हाजत में किसी की जबर्दस्त पिटाई चल रही थी । यह तो पता नहीं था कि वह कोई नक्सलवादी युवक था या आम आरोपित, पर उसकी चीख से हमारी सिट्टी पिट्टी गुम हो चली थी । डायरी लिखवा कर जल्दी से खिसक लिये ।

उस दिन के सफर का आखरी हिस्सा बहुत खूबसूरत था । पता नहीं कब शाम होने लगी और सुनसान सड़क पहाड़ी पर चढ़ने लगी । कहीं कोई शहर या कस्बे की रोशनी दिख नहीं रही थी कि रात को वहीं रुक जाने को सोचें । पहाड़ी भी पहाड़ी नहीं पहाड़ है, यह हम सोच नहीं पाये थे । पूरा अंधेरा हो गया और हम चढ़ते जा रहे थे । काफी देर बाद चढ़ाई खत्म हुई । ढलान के शुरु होते ही सामने एक बहुत बड़ा जगमग शहर दिखने लगा । कौन सा शहर है यह ? यही विशाखापतनम है क्या ? स्पष्ट जानकारी तो नहीं थी पर लगने लगा कि जरूर विशाखापतनम होगा । हम ढलान पर साइकिल को मुक्त छोड़ देना चाह रहे थे कि वह मोमेन्टम पकड़े और गति तेज होती जाय । पर ऐसा करना खतरनाक हो गया । सामने की जगमग रोशनी आँखों को चौंधिया देने के कारण आसपास का अंधेरा और घना हो गया । साइकिल फ्री छोड़ने का मतलब था सड़क से बाहर जाना और खाई में गिरना । इसीलिये ब्रेक लेते हुये धीरे धीरे हम पहाड़ से उतरने लगे ।

शहर तो बिल्कुल अजनबी था । वह भी रात के दस बजे । याद नहीं कौन वह भलेमानुस था जो हमारे पूछने पर समझ गया कि हम बंगलाभाषी हैं और मित्राबाबु के होटल का रास्ता दिखा दिया ।

मित्राबाबु के होटल, होटल मतलब भात की दुकान पर आखरी बैच खा रहा था । हम भी पहले तो खाना खा लिये । फिर मित्राबाबु से हमने अनुरोध किया कि हमें एक रात ठहरने की जगह दी जाय ।

तभी एक जादु हुआ । एक जवान आदमी सींढ़ी पर खड़ा होकर मित्राबाबु से बतिया रहा था । उसने हमारी पैरवी की । हमें भोजन के हॉल के दाहिनी तरफ बने भंडार वाले कमरे के दरवाजे के पास फर्श पर बिस्तर बिछाने की अनुमति मिल गई । उस आदमी ने हमसे दोस्ती भी कर ली । मनोमय नाम था उसका । सीआरपी का जवान था । सीआरपी कैम्प में ही रहता था । उसकी दोस्ती के बदौलत अगले तीन दिनों तक मित्राबाबु के होटल में खाना, सोना फ्री हो गया । एक दिन वह रात्रिभोजन का आमन्त्रण देकर कैम्प में हमें ले गया । उसके खाट पर बैठ कर हम गर्मागर्म आलु की सब्जी और एक एक दर्जन घी लगी रोटी खा गये अचार के साथ ।

साइकिल से खूब घूमे हम विशाखापतनम या वाइजैग या वालटेयर । … पर उसके बाद की घटनायें सिलसिलेवार याद नहीं हैं । काकीनाड़ा कब पहुँचे, राजामुन्द्री कब पहुँचे, विजयवाड़ा कब पहुँचे, कब हमने पार किया गोदावरी और उसके पानी में नहाया !…

बस टाडेपल्लीगुडेम का एक सुबह याद है । हम नाश्ता करके नहर पर बने पुल पार कर रहे थे कि एक वयस्क आदमी, बुश शर्ट और लुंगी पहने हुये, ने हमें छेंक लिया । नहर के किनारे किनारे चल कर उनके घर पहुँचे तो दिखा कि एक डाक्टर का घर है । वह खुद ही डाक्टर थे । पर वह ऑटोग्राफ के शौकीन भी थे । उन्होने हमें काफी पिलाई और एक ऑटोग्राफ बुक पर हमारे दस्तखत लिये । हम तो फूल के कुप्पा हो गये । ऑटोग्राफ बुक में अशोक कुमार और लता मंगेशकर का भी ऑटोग्राफ दिख रहा था । …            

 

मेरी जो-नही-बनी तमिल बीवी

पता नहीं तमिल नाडु की स्मृति की मेरी पहली कड़ी यही क्यों है । …एक रेलवे क्रॉसिंग पार कर नेल्लोर बाजार पहुंचना था । शाम का वक्त था । थोड़ी ही देर पहले पुलिस की हिदायत मान कर हम साइकिल के सामने किरासन वाला लैम्प लगवा लिये थे और भरपेट गाली दे रहे थे प्रशासन को इस फालतू खर्च के लिये । और अब आफत के लिये भी क्योंकि सड़क की मरम्मत हो रही थी – टूटी सड़क पर उछल उछल कर लैम्प उलटने ही वाली थी । साइकिलों पर लगे लैम्पों के सिवा कोई रोशनी भी नहीं थी सड़क पर । सामने एक साइकिल पर लगे लैम्प को उलट कर आग पकड़ते देखा । हम खूब जोर से हँस रहे थे पुलिस को दिखा दिखा कर कि देखो, तुम्हारे पागलपन के चलते किस तरह आफत भोग रहें हैं लोग ! … अचानक हम बाजार में थे और बाल में लगे गेरुआ-लाल-सफेद फूलों की गदराई लड़ियाँ थी हमारे बहुत करीब । हम साइकिल से उतर गये । …तमिल नाडु की यह मेरी पहली स्मृति, बाद की यात्राओं से अधिक तमिल नाडु को लेकर मेरे बाद के सम्मोहन के नीचे दब गई है । पिछले बीस वर्षों से मैं संगम साहित्य, उस युग की युद्ध कवयित्रियों की कवितायें, फिर शिलप्पदिकम की कथा, काव्य एवं नैसर्गिक सौन्दर्य को लेकर इतना अधिक मोहित रहा हूँ कि 1970 के मार्च महीने में हम किन किन जगहों को छूते हुये तमिल नाडु से गुजरे थे, याद नहीं आता । बस …।

यही पहला दृश्य याद आता है नेल्लोर बाजार पहुँचने का और बालों में फूल लगाई हुई उतनी सारी लड़कियों को देख कर यह खयाल, कि इन्ही में से कोई मेरी दोस्त होती तो हम शादी करते और यहीं बस जाते । धीरे धीरे मेरी पहचान तमिल ही रह जाती । … या हो सकता है यह खयाल भी बाद का आरोपन हो ! पर, शायद नहीं ।

चेन्नई पहुँच कर शहर के बाहरी छोर पर किसी रेस्तराँ में हम नाश्ता कर रहे थे । वे हमारे आखरी पैसे थे जो नाश्ते में खर्च हो रहे थे । तभी एक लड़का कुर्सी टेबुल में बैठे ग्राहकों पर नज़र दौड़ाते हुये भीतर के अन्तिम टेबुल पर बैठे हमारे करीब आया और खालिस हिन्दी में पूछा, “आप बिहार से आ रहे हो ?” कैसे समझा वह ? तब याद आया कि खिदिरपुर में हमने टीन की नीली पट्टी बनवाई थी साइकिल के सामने लगवाने के लिये, खास कर मंत्रीजी के साथ फोटो खिँचवाने के लिये, वो अब भी टंगी है साइकिल के सामने । छोटी सी पट्टी पर अंग्रेजी में लिखा हुआ था अखिल भारतीय साइकिल यात्री - पटना, कलकत्ता, भुवनेश्वर … पूर्वतटीय सारे बड़े शहरों का नाम कन्याकुमारी तक । तय था कि उसके आगे बढ़ेंगे तो लिखवा लेंगे । दरअसल उसके आगे के शहरों का नाम सिलसिलेवार हम जानते भी नहीं थे । तो, हमने उस लड़के का सवाल सुन कर सर हिलाया । फिर वह खाली कुर्सी खींच कर बैठ गया, हम गपियाने लगे और वह दोस्त बन गया । मालुम हुआ कि वह भी मोतिहारी का ही लड़का (‘भी’ मतलब उस हिच-हाइकिंग करने वाले लड़के जैसा) था । जहाँ तक याद है उसने कहा था कि मद्रास इन्स्टीट्युट ऑफ टेक्नॉलॉजी में टेक्सटाइल इंजिनियरिंग कर रहा था । नाम याद नहीं । वह हमें ले गया किसी मजदूर बैरक की तरह मकान में, कतार से एक एक घर और सामने कॉमन बरामदा … हर घर में एक परिवार । बरामदे में रसोई, भोजन और शौच कॉमन शौचालयों में । वहीं उसके एक भैया या मुँहबोला भैया सपरिवार रहते थे । उसी घर के बरामदे में हमारे सोने की जगह बनी । वह लड़का भी चार दिनों तक हॉस्टल छोड़ कर हमारे साथ पड़ा रहा । दिन रात का खाना एक बहुत ही अच्छी भावीजी के हाथों ।

सुबह सुबह हम निकल जाते थे एलियट समुद्र तट पर । वह करीब था । उस वक्त वह पूरी तरह मछियारों का समुद्र तट था । सुबह होते ही समुद्र से नावों का वापस आना शुरु हो जाता था । जाल में से मछलियाँ उँड़ेली जाती थी और फिर बोली लगती थी । कुछ खुदरा के लिये बच जाता था । उसी में से हम खरीदते थे । एक दिन वह मछली पकड़ाई, बंगला में ‘शंकर’ कह्ते हैं, पतंग जैसा वदन और पूंछ पतंग की पूंछ जैसी ही, लम्बी । बचपन से सुनते आये थे कि उस पूंछ से चाबुक बनते हैं । उसी मछली का एक हिस्सा खरीद कर ले आये, भावी बनाई और हम मजे से खाये । बढ़िया स्वाद था उसका ।

एक दिन मद्रास आइआइटी ले गया वह लड़का हमें । हमारी आगे की यात्रा के लिये चंदा इकट्ठा करने । यह एक बहुत बड़ी जरूरत थी । एक पैसे भी नहीं थे हमारे पास । उस लड़के के कुछ मित्र थे वहाँ । उसी लिये हमें वहाँ लेकर गया । पहली बार हम किसी आइआइटी परिसर में प्रवेश कर रहे थे । क्या खूबसूरत था परिसर ! भवनों तक पहुँचने के लिये गेट से शुरु होता था लम्बा, घुमावदार रास्ता जिसके दोनों ओर कहीं बगीचे, कहीं जंगल – जंगल में हिरनें – कहीं टेनिस कोर्ट… !

बहुत अच्छा तो नहीं फिर भी ठीकठाक रेस्पॉन्स मिला । उस लड़के के एक मित्र, एक बंगाली लड़के ने पहल की । बाइस-तेइस रुपये जुटे । आखिर कन्याकुमारी तक का खर्च तो इतने ही निभ गया था ! आइआइटी में ही हमने उस दोपहर को खाना खाया ।

मद्रास छोड़ने के दिन सुबह से पहले उठ कर भावीजी ने हमारे लिये ‘निम्बु-भात’, और ‘दही-भात’ बनाया । रस्सी से बंधे, कागज और फिर पत्तों के दो बड़े पैकेट में उसे डाल कर हमें दे दिया ।

हम तब तक नहीं जानते थे कि यह लगभग पूरे दक्षिण भारत का पारम्परिक नाश्ता या भोजन है और चावल काफी देर तक रह जाता है बिना महके हुये । हमें लगा कि कहीं खराब न हो जाये इस लिये मद्रास छोड़ने के दो घन्टे बाद ही हम दोनों वह भात पूरा खा गये ।

फिर चल पड़े पॉन्डिचेरी की ओर । छोटे, चमकते नारियल के पेड़ों के पत्तों और फलों को छूते छूते दिन ढलने के पहले ही हम पॉन्डिचेरी पहुँच गये ।

अच्छे लोग मिल ही जाते हैं । पॉन्डिचेरी प्रवेश करते ही हम पूछते पूछते पहुँचे श्रीमाँ के आश्रम के गेट पर । सीधा स्वार्थ था । मुफ्त का खाना और रात को सोने का बन्दोबस्त । खाने का समय खत्म हो चुका था । कोई दिख नहीं रहा था । तभी एक सज्जन निकले अन्दर से बाहर । वह रुक गये और हमसे बातचीत हुई । वह बंगलाभाषी थे । बंगाल में या उधर ही कहीं किसी कॉलेज में वाणिज्य के प्राध्यापक रह चुके थे । वह अपने घर ले गये हमें । वहाँ हमे काली सख्त बनरोटी खाने को मिली आश्रमवासियों के अपने हाथों से बनाई हुई । चाय पीने के बाद उन्होने भी हमें दो किताबें दी एकाउन्टेन्सी और ऑडिटिंग के । एक शायद उनकी अपनी लिखी हुई थी । फिर वह हमें ले गये समन्दर किनारे आश्रम का ही या फिर सरकारी गेस्ट हाउज में । घर की तो जरूरत ही नही थी । बाहर बगीचे में ही दो चार खाट लगे हुये थे । हम दो खाटों पर अपनी जगह बना लिये । लेटने पर बस सर से पाँच फूट आगे गेस्ट हाउज की, कमर तक उँची दीवार जिसके बाद रात भर लहरों का फॉस्फोरस । रात को खाने के लिये उन्होने आश्रम आ जाने को कहा । अगले दिन ऑरोविल घूम आने को भी कहा जो हम नहीं गये ।          

 

मक्खन

पॉन्डिचेरी से निकल कर हम किधर गये ? याद नहीं । विरलीमलई कितना आगे था । पता नहीं । लेकिन स्मृति का यह आखरी हिस्सा विरलीमलई के एक कहवाघर से शुरु होता है । आधे बने मकान के दुमंजिले पर बने कहवाघर में हम लोगों ने शाम से थोड़ा पहले काफी पी और जब निकले तो वह घुंघरैले बालों वाला युवक भी हमारे साथ अपनी साइकिल पर निकला जो उस दुकान में दूध पहुँचाने आया था । यह कहवाघर शायद उसका आखरी ग्राहक था क्योंकि उसके साइकिल के पीछे बंधा दूध का ड्रम खाली था, ढनढना रहा था ।

घन्टों हम साथ साथ साइकिल चलाते रहे और बातें करते रहे । न हम एक अक्षर उसकी तमिल समझ रहे थे न वह एक अक्षर हमारी हिन्दी समझ रहा था । उसका न समझना भी बनावटी नहीं था क्यों कि वह विशुद्ध रूप से ग्रामीण था । उसकी वह न-समझ-में-आने-वाली बातों और शरीर की भाषा से जो समझ में आ रही थी कि वह आगे करीब ही (करीब का मतलब लगभग 50 किलोमीटर) अपने गाँव में अपने मालिक की कोठी में रहता है । मालिक के घर का सारा काम, गायों को सानी देना, आंगन बुहारना, पानी भरना आदि कामों के बाद दिन चढ़ते ड्रम भरे दूध लेकर शहर पहुँचता है, जहाँ जहाँ महीनवारी ग्राहक बंधा है वहाँ वहाँ दूध देता है फिर आखरी ग्राहक इस कहवाघर में दूध देकर एक काफी पीता है फिर घर के लिये चल देता है ।

हाइवे पर कहीं वह रुका । हम भी रुक गये । उसने सड़क की बाँई ओर उतरती हुई एक कच्चे रास्ते के अन्तिम छोर पर दूर टिमटिमाती रोशनी दिखाकर कहा, “वही, मेरा गाँव” । हमने उससे हाथ मिलाया और विदा कहा । पर वो गया नहीं । कुछ कहना चाह रहा था । शाम के उस धुँधलके मे हमारे शरीर और चेहरे की भाषा भी एक दूसरे के लिये अस्पष्ट होती जा रही थी । थोड़ी देर के बाद समझ में आई उसकी बात कि वह हमें कुछ देना चाह रहा था ताकि यह मुलाकात यादगार रहे । उसकी स्थिति को समझते हुये हमने काफी जोर से मना किया । फिर भी वह सोचते रहा । पॉकेट से पैसे निकाले । जो पैसे मालिक के हिसाब के थे उस हिस्से को अलग कर बाकि गिने तो बहुत कम निकले । फिर अचानक उसे कुछ याद आई । उसने दूध के खाली ड्रम को खोला और ढक्कन बाँई हाथ में रख कर दाहिने हाथ से भीतर काछना शुरु किया । ड्रम सुबह में दूध से भरा रहा होगा । फिर इतने लम्बे सफर में हिलते हुये उससे काफी मक्खन निकले होंगे । जब उसने ढक्कन बढ़ाया तो आधा ढक्कन से ज्यादा मक्खन जमा हो चुका था । हमें खाने के लिये अनुरोध करते हुये उसने यह भी अफसोस जताया कि चीनी नहीं है उपर से छिड़कने के लिये । पता नहीं वह ड्रम अगर मक्खन के साथ घर पहुँचता तो किस तरफ जाता ! कोठी के किनारे उसके कमरे की ओर या मालिक की रसोई की ओर ! शायद किसी बच्चे के निवाले में जाता ! मैं और मेरे साथी ने मिलकर वह मक्खन खाया । फिर उस लड़के ने कमर से बीड़ी निकाली । उसने दो हमारी ओर बढ़ाये । मेरा साथी बीड़ी नहीं पीता था । वह था भी ऐथलीट । चैम्पियन तैराक था कॉलेज में । मैं और उस लड़के ने एक एक बीड़ी सुलगाये । बीड़ी पीने के बाद हम अलग हुये । वह कच्चे रास्ते पर उतर गया । हम भी आगे की ओर चल दिये । बीच बीच में पीछे मुड़ कर बाँये खेतों के फैलाव से आगे वह कच्चा रास्ता और साइकिल पर उसे ढूँढ़ लेते रहे । फिर वह पूरी तरह ओझल हो गया ।

उसी रात को या अगली रात को हम तिरुचिरापल्ली पहुँचे थे याद है ।  

तिरुचिरापल्ली की याद में बहुत कुछ खास नहीं है, बस्र यही की रात का खाना खाने के बाद हमें बाजार में रोशनी दिखाई पड़ी थी । करीब पहुँचे तो दिखा की भीड़ लगी है, पारम्परिक कोई नृत्य हो रहा है, और उसी भीड़ में अचानक मिल गये वे पाँचों जो कुलटी से पैदल जा रहे थे कन्याकुमारी, जिनके साथ कुछ दिनों पहले हमने सड़क किनारे एक सूने अहाते में चुल्हा जोड़ कर नून-भात खाया था ।

नागेरोकोयेल के बाद ही कन्याकुमारी का एहसास होने लगा था । जब पहुँचे तो सबसे अधिक आकर्षित किया उस जगह पर धूप की एक खास चमक । खाड़ी की धूप जो पूरे पूर्वतट पर छाई मिलती है उसमें एक धूंधलापन है । यहाँ धूप बिल्कुल साफ, पता नहीं अरब सागर के कारण या भारत महासागर के कारण । रात को हम किसी सड़े हुये होटल में रुके क्यों कि थाना के परिसर में जगह नहीं थी । शाम और सुबह को देखने और तीनों समन्दर के अलग अलग रंग के पानी के मिलनस्थल को छूकर रोमांचित होने के सिवा बहुत कुछ वहाँ करने को नहीं था । पैसे खत्म हो गये थे और त्रिवन्द्रम पहुँचे बिना पैसे का जुगाड़ नहीं हो सकता था ।

त्रिवन्द्रम पहुँचे रात को । सड़कों पर काफी चहल पहल थी । पुलिस भी थे बहुत सारे । मैने विश्वविद्यालय और उसमें छात्रावासों का पता पूछा तो बुरी खबर मिली । मोर्चा सरकार गिर गई है, शहर में 144 है, विश्वविद्यालय बन्द कर दिये गये हैं साइन डाई, छात्रावासों में छात्रों का होना मुश्किल है । पुलिस थाना पहुँचे डायरी लिखाने के लिये तो प्रभारी थे नहीं, रात को सोने की जगह के लिये पूछे तो झिड़की मिली । बाहर आये तो किसी सज्जन ने कहा छावनी थाना में जाने के लिये । रास्ता पूछ पूछ कर छावनी पहुँचे, फिर थाना के अन्दर प्रवेश किये । बड़ी राहत मिली । डायरी लिखा गया और रात को सोने की जगह भी मिल गई ।

सुबह उठते उठते हमने फैसला ले लिया था । एक साइकिल कम से कम बेचना पड़ेगा । दिन चढ़ते चढ़ते वह फैसला दोनो साइकिल बेचने का हो गया । दाम की मांग नीचे उतरती जा रही थी । अंतत: रेलवे का ही एक कर्मचारी दोनों साइकिल को खरीद लेने का प्रस्ताव दिया । पर दाम बहुत कम दे रहा था वह । उसे समझ में आ गया था कि हम बेचैन हो गये हैं । फिर उसी के दाम, दोनों साइकिल के लिये कुल 80 रुपये, पर बेचना पड़ा ।

इसके आगे कुछ बचा नहीं, हम दोनों के किसी तरह पटना लौटने के कुछ हास्यास्पद वृत्तान्त के सिवा । फिर भी एक माँ का जिक्र करते हुये खत्म कर रहा हूँ ।

जो पैसे मिले थे उससे दोपहर के खाने की कीमत चुकाने के बाद भुवनेश्वर तक का टिकट हो पाया था । वेटिंग रूम में बैठे हुये थे । एक पंजाबी औरत जो उधर अपने परिवार के साथ थी हमें ध्यान से देखते हुये सामने आकर खड़ी हो गई । हम कुछ खास बताना नहीं चाह रहे थे कि वह क्या समझेंगी । लेकिन दबाव डाल डाल कर वह आखिर जान ही गई कि उतरे हुये चेहरों के साथ हम क्यों बैठे हैं । वह गईं अपने सामान के पास और दो डिब्बे उठा के ले आईं, “यह रख लो बेटे । एक में चूड़ा है और दूसरे में चीनी । भूखे मत रहना । यह चूड़ा, चीनी खाकर पानी पीना । बताओ, इस तरह भी कोई निकलता है घर से ?”



 

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