शहीद खुदीराम बिहार के लिये
अपरिचित नाम नहीं है । मुजफ्फरपुर शहर में उनकी तथा उनके क्रांतिकारी सहकर्मी शहीद
प्रफुल्ल चाकी की युगल प्रतिमा तथा मुजफ्फरपुर कारागार में जहाँ उन्हे रखा गया था
या फाँसी दी गई थी वे जगहें दर्शनीय क्रांतिपीठ हैं । इन जगहों पर आज भी देश के
नौजवान पहुँचते हैं, बच्चे पहुँचते हैं अपने अभिभावकों का हाथ थामकर, और शहीदों का
नमन करते हैं, देश को बेहतर बनाने का संकल्प लेते हैं ।
खुदीराम का जीवनकाल बहुत छोटा था
और वह छोटी सी उम्र बंगाल से बिहार प्रान्त के अलग होने के काफी पहले ही अंग्रेज
सरकार द्वारा समाप्त कर दी गई । इसलिये यह सवाल बेमानी है कि उन्हे हम बिहार के
स्वतंत्रता सेनानियों में याद करें या बंगाल के ! और फिर सारे स्वतंत्रता सेनानी
तो इस देश के थे और देश की आज़ादी के लिये ही अपने प्राण दिये ।
सवाल से अधिक, बल्कि एक भावनात्मक
जुड़ाव खुदीराम को हम आज के बिहारवासियों के दिल के करीब ला देता है कि जन्म चाहे
उनका मेदिनीपुर जिला (आज के पश्चिम बंगाल के अन्तर्गत) में हुआ हो, तिरहुत की धरती
पर उनकी अन्तिम साँस आज भी खेतों, बगीचों में चिकनी सफेद बलुआई हवाओं में घूम रही
है ।
मेदिनीपुर का वह शरारती बालक
हाँ, उनका जन्म 1889 इसवी के 3
दिसम्बर को मेदिनीपुर जिले के केशपुर थानान्तर्गत मौबनी गाँव में हुआ था । उनके
पिता त्रैलोक्यनाथ बोस नाड़ाजोल स्टेट के सदर तहसीलदार थे। माँ, लक्ष्मीप्रिया देवी
धर्मप्राणा गृहिणी थीं । खुदीराम से बड़ी उनकी तीन बहनें थीं अपरूपा, सरोजिनी एवं
ननीबाला । खुदीराम के पहले जन्मे उनके दो भाई कम उम्र में मर जाने के फलस्वरूप,
तत्कालीन अंधविश्वास के अनुसार खुदीराम की बड़ी दीदी अपरूपा ने खुदीराम को उनकी माँ
से तीन मुट्ठी खुद्दी (चावल के टूटे दाने) के बदले खरीद लिया । इसी कारण से उनका
नाम पड़ा खुदीराम ।
जब खुदीराम छ: साल के थे तभी उनकी
माँ का निधन हो गया । तब उनके पिता उन्हे अपनी कर्मस्थली मेदिनीपुर शहर ले आये और
उन्हे डोगरा तालाब के किनारे मौसी के घर पर रख दिया । फिर कुछ दिनों के बाद शिशु
खुदी को वे अपने घर हबीबपुर ले आये । माँ लक्ष्मीप्रिया के निधन के एक साल के बाद
खुदी के पिता त्रैलोक्यनाथ का भी निधन हो गया । तब बड़ी दीदी अपरूपा खुदी को अपने
साथ ले आई । दीदी चाहती थी कि अकेला भाई खुदी खूब पढ़े लिखे, हाकिम बने । अपरूपा के
पति अमृतलाल राय तमलुक अदालत में सेरेस्तादार के पद पर कार्यरत थे। घर था दासपुर
थाना के हाटगाछा गाँव में । खुदी की दीदी ने उन्हे वहीं पाठशाला में भर्ती कर दिया
। पाठशाला की पढ़ाई खत्म होने के बाद खुदी को उनके बहनोई ने तमलुक शहर स्थित
हैमिल्टन हाईस्कूल में भर्ती करवा दिया । साल था 1901 । दो साल के बाद अमृतलाल की
बदली मेदिनीपुर शहर में ही हो गई । सन 1904 में खुदीराम मेदिनीपुर शहर स्थित
कॉलेजियेट स्कूल में भर्ती हुये । ऐसा नहीं कि खुदी का दिमाग अपनी दीदी की इच्छा
पूरी करने लायक तेज़ नहीं था । बल्कि कुछ मामलों में तो शरारती भी था । भूत-वूत से
डर या अनेकों अंधविश्वास के खिलाफ शरारती कार्रवाई के लिये बालक खुदीराम ने अपने
नेतृत्व में क्लास के बच्चों को लेकर टोली बना रखी थी । पर पढ़ाई लिखाई की बातें
उसमें अँटती ही नही थी । जैसे कि जन्म से ही देशभक्त हो, खूदीराम का दिमाग वैसे ही
सवालों का जबाब ढूंढ़ता फिरता था – अगर भारत हजारों सालों से ज्ञान का पीठ रहा है
तो ये ललमूँहे अंग्रेज क्या कर रहे हैं यहाँ ? लोग तो यहाँ अपने इच्छानुसार जी भी
नहीं पा रहे हैं ! उसकी दीदी और बहनोई चिन्तित रहते थे कि क्या सोचते रहता है यह
लड़का दिन भर । उन्हे लगता था कि शायद माँ की यादेँ सता रही हैं बालक को । अत: उसे
वे और अधिक प्यार देने लगे । पर खुदीराम को तो भारतमाता की चिन्ता सता रही थी । और
बालक के भीतर का क्षोभ बढ़ रहा था दिन प्रति दिन ।
एक बार खुदीराम एक मन्दिर में गये
। सुना जाता है कि उन्होने मन्दिर के सामने जमीन पर लोगों को लेटे हुये देखा तो
पूछा कि वे उस तरह क्यों वहाँ लेटे हैं, और जबाब मिला कि वे किसी बीमारी से पीड़ित
हैं । संकल्प के साथ अन्न-जल त्याग कर वहाँ पड़े हैं कि भगवान उनके सपने में आयेंगे
और उनसे उनकी बीमारी दूर कर देने की वादा करेंगे । तो खुदीराम ने थोड़ा सोचा और कहा
कि तब तो उन्हे, यानि खुदीराम को भी एक दिन अन्न-जल ग्रहण करने की चिन्ता तक को भी
त्याग कर इनके बगल में लेट जाना पड़ेगा । “क्यों, आपको क्या बीमारी है?” पूछे जाने
पर खुदीराम ने हँसते हुये पलट कर पूछा, “गुलामी से बुरी कोई बीमारी हो सकती है
क्या ?”
तत्कालीन बंगाल की स्थिति
यहाँ पर थोड़ा रुक कर तत्कालीन
बंगाल की स्थिति की ओर नज़र डालनी जरूरी होगी । सन 1905 के केंद्रीयकृत अक्तूबर को
अंग्रेज सरकार द्वारा बंगाल का विभाजन किया जाता है और देखते ही देखते पूरे बंगाल
में आग धधकने लगता है । हज़ारों की संख्या में युवा, किशोर क्रान्तिकारी गतिविधियों
में कूद पड़ते हैं । उन्ही किशोरों में से एक थे खुदिराम ! क्या थी उस विभाजन की
पृष्ठभूमि ? किस तरह का था वीसवीं सदी के शुरुआती दिनों में बंगाल का जीवन ?
अंग्रेजी शासन के अधीन भारत की
सम्पदाओं की लूट होती रही और जनता का जीवन बदहाल होता रहा – इस सामग्रिक यथार्थ को
स्वीकारते हुये भी अगर हम 1895 – 1905, यानि बंगाल के विभाजन के ठीक पहले के दस
वर्ष की पड़ताल करें तो कुछ और, विशद में तथ्य उभर कर आयेंगे ।
वह समय आज के जैसा सूचना की
सुविधाओं से लैस नहीं था और देश ब्रिटिश साम्राज्य का उपनिवेश, उन्नीसवीं की सदी
के पिछड़े हुये महादेशों का हिस्सा था । इसलियें आँकड़ें बिलकुल अचूक तो शायद नहीं
होंगे । फिर भी रुझान देखे जा सकते हैं । समझी जा सकती है कि बदहाली किस कदर बढ़
रही होगी ।
कृषि उत्पादन के आँकड़े देखे:-
अवधि (30 जून को वर्षशेष) |
सभी अनाजों के उत्पादन में औसत वार्षिक प्रतिशत बृद्धि |
खाद्यान्नों के उत्पादन में औसत वार्षिक प्रतिशत बृद्धि |
1891-1892 से 1895-1896 |
5.3 |
5.0 |
1895-1896 से 1900-1901 |
0.9 |
0.8 |
1900-1901 से 1905-1906 |
-0.8 |
-1.2 |
शिल्प-निर्माण के आँकड़ो में भी, जो
इस अवधि में रेलमार्ग आदि के विस्तार के कारण तेजी से बढ़ने चाहिये थे, गिरावट के
बड़े झटके थे।
अवधि (31 मार्च को वर्षशेष) |
शिल्प-निर्माण में रोजगार की औसत वार्षिक प्रतिशत
बृद्धिदर |
शिल्प-निर्माण मे उत्पादन की औसत वार्षिक प्रतिशत
बृद्धिदर |
1885-86 से 1890-91 |
8.2 |
16.7 |
1890-91 से 1895-96 |
5.9 |
5.8 |
1895-96 से 1900-01 |
4.1 |
उपलब्ध नहीं |
1900-01 से 1905-06 |
7.6 |
6.0 |
1905-1906 से 1910-11 |
4.0 |
1.5 |
सन्दर्भ सुत्र : THE
GROWTH OF THE INDIAN ECONOMY: 1860-1960 BY KRISHAN G. SAINI, The
University of Texas
उन्नीसवीँ सदी खत्म होने से पहले
प्लेग की महामारी ने भी एक अवधि तक जनजीवन को तबाह किया ।
स्वाभाविक तौर जीवन अशान्त हो रहा था । मध्यवर्ग के शान्त,
सामान्य जीवन जीने वाले हिस्सों में भी क्षोभ बढ़ रहा था । भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस के अन्दर जो खलबली मची दो वर्षों के बाद, अंग्रेजों के साथ समझौता-परस्ती
रखने वाले नेतृत्व के खिलाफ एक जुझारू रुख पैदा हुआ लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर
तिलक एवं बिपिन चन्द्र पाल के नेतृत्व में, उसकी पूर्वाभासी घटनायें घटने लगी थीं
महाराष्ट्र, बंगाल, पंजाब एवं अन्य प्रांतों में । बंगाल में एक तरफ अगर
सुरेन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय जैसे ओजस्वी लोकप्रिय नेता जनसेवा और राजनीति की ओर
युवाओं को आकर्षित कर रहे थे तो दूसरी तरफ सन 1902 मे स्वामी विवेकानन्द के निधन
से भावना का एक प्रवाह आया था – गीता की वाणी से प्रेरित होकर गरीब जनता
(दरिद्र-नारायण) की सेवा के लिये युवा संगठित होने लगे थे । और सन 1904 में बड़ौदा
से दूसरी बार बंगाल वापस आकर अरबिन्द घोष के भाई बारीन्द्र कुमार घोष, इन दोनों
धाराओं को समेटते हुये गीता की वाणी से प्रेरित क्रांतिकारी स्वदेशचिन्तन तथा
गतिविधियों की ओर बढ़ने लगे ।
उन्ही घटनाओं, विकासक्रमों के
खुफिया रिपोर्टों के आधार पर क्रांतिकारी आन्दोलनों को कुचलने के लिये अंग्रेज
सरकार ने बंगाल के विभाजन की योजना बनाई एवं उसे क्रियान्वित किया ।
बन्देमातरम
खैर, इधर मेदिनीपुर स्थित कॉलेजियट
स्कूल के आठवीं कक्षा में बालक खुदीराम बसु को पढ़ाई लिखाई में खास मन नहीं लग रहा
था । उम्र थी 15 साल और बाहर की दुनिया में बहुत कुछ हो रहा था प्रति दिन जो बालक
के दु:साहस भरे हृदय को चुनौती दे रहा था । खुद उसी स्कूल के शिक्षक बहुत कुछ कर
रहे थे । ऊँचे क्लास के लड़कों में से कुछ कुछ शामिल हो रहे हैं उसमें ऐसी
जानकारियाँ कानोकान तैर रही थीं । रोज खबरें आ रही थीं । अंग्रेज सरकार बंगाल को
बाँटने जा रही है ! लॉर्ड कर्जन प्रस्ताव बना कर भेज चुके हैं लन्दन, बस वहाँ से
मुहर लग कर आने की देर है। कलकत्ता के टाउनहॉल में विशाल जनसभा का आयोजन किया गया था
जिसमें महाराजा मणीन्द्रचन्द्र नन्दी को अध्यक्ष बनाया गया था । राष्ट्रगुरु सुरेन्द्रनाथ
बन्दोपाध्याय स्वयंसेवकों की सेना के साथ नंगे पैर पहुँचे थे और ऐसा ओजस्वी,
मर्मस्पर्शी भाषण दिया कि लोग आप्लावित हो उठे । और फिर वह ऐतिहासिक दिन,
राखीबन्धन का दिन – बंगाल विभाजन के खिलाफ कविगुरु रबीन्द्रनाथ ठाकुर खुद सड़कों पर
आ गये और जनता के हाथों में राखी बांध कर बंगाल को बँटने नहीं देने का संकल्प लिया
…।
बालक खुदीराम अपने ही स्कूल के
शिक्षक सत्येन बसु की गुप्त समिति के कामकाज में शामिल हो गये । स्कूल की पढ़ाई
लिखाई का वहीं उन्होने अन्त कर दिया और नये जीवन में रत हो गये । खुदीराम अब गुप्त
समिति के नियमानुसार प्रतिदिन व्यायाम कर अपने शरीर को बलशाली बना रहे थे, प्रति
दिन गीता का पाठ कर उसका मर्म समझने का प्रयास कर रहे थे और अपने दल के
क्रियाकलापों में अधिकाधिक शामिल होते जा रहे थे । दल के क्रियाकलापों में खास कर
अंग्रेजों के नमक की गाड़ी और चीनी की गाड़ियों को लूटना उनका काम था । पूरा
मेदिनीपुर जिला ही उनके काम का क्षेत्र था । मेदिनीपुर जिला की सीमा पर बाँकुड़ा के
बेल पहाड़ी के करीब उलफ्राम खदानों के
इलाकों में कुछ दिनों तक खुदीराम ने घुमक्कड़ी का जीवन भी व्यतीत किया एवं
ऐसे जीवन की जरूरतों के बारे में खुद को प्रशिक्षित किया । साथ ही साथ, हथियारों –
लाठी, छुरी, बम एवं पिस्तौल चलाने का अभ्यास भी चलने लगा। और जारी रहा पढ़ाई ।
विद्यालयी शिक्षा तो पूरी नहीं कर पाये पर क्रान्तिकारी पुस्तकें वे बड़े चाव के
साथ पढ़ने लगे ।
सच पूछा जाय तो उनके द्वारा पढ़े
गये पुस्तकों का नाम गिनाना सिर्फ कल्पना के आधार पर ही हो सकता है । पर उस समय
उनके जैसे बंगाल के लाखों किशोर, नवजवान अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में उग्र
क्रान्ति के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिये जिन विचारों से खुद को लैस कर रहे थे एवं
जिन किताबों को पढ़ रहे थे उनमें नि:सन्देह प्रमुख था एक उपन्यास, बंकिमचन्द्र का
आनन्दमठ । दूसरा था गीता । ‘युगान्तर’ के कार्यालय से प्रकाशित लोकप्रिय
पुस्तिकायें थीं, भवानीमन्दिर, वर्तमान रणनीति, मुक्ति किस पथ पर । साथ ही लोग
श्रीश्री रामकृष्ण के कथामृत, अश्विनी कुमार कृत भक्तियोग आदि से भी प्रभावित थे ।
बंगाल के विभाजन के खिलाफ आन्दोलन
चरम पर था । सन 1906 के फरवरी महीने में प्रशासन के द्वारा मेदिनीपुर शहर में एक
भव्य प्रदर्शनी का आयोजन किया गया । प्रदर्शनी का उद्येश्य था अंग्रेजों के
अन्यायपूर्ण शासन एवं उनके द्वारा किये जा रहे कूकृत्यों पर पर्दा डालना ।
प्रदर्शनी में ऐसी तस्वीरें एवं पुतले प्रदर्शित किये जा रहे थे जिससे प्रतीत हो
कि अंग्रेजों की सरकार एवं उनके नुमाइन्दे भारत की जनता के मददगार हैं । बड़ी भीड़
उमड़ पड़ी प्रदर्शनी को देखने के लिये । उसी भीड़ के बीच 16 साल का एक लड़का भी घुस
पड़ा । उसके हाथों में पर्चा था जो वह दर्शकों के बीच बाँट रहा था । पर्चे का
शीर्षक था ‘सोनार बांग्ला’ (सोने का बंगाल) । बन्देमातरम का नारा भी लिखा हुआ था ।
पर्चे में अंग्रेज सरकार द्वारा इस प्रदर्शनी के लगाए जाने के वास्तविक उद्येश्य
का भंडाफोड़ किया गया था । अंग्रेजों के अन्याय एवं अत्याचार के भी वर्णन थे ।
प्रदर्शनी के दर्शकों में से कुछ अंग्रेजों के विश्वस्त भी थे । वे अंग्रेजों के
अन्याय का भंडाफोड़ करने वालों के विरोधी थे । बन्देमातरम, स्वतंत्रता, स्वराज्य
जैसे शब्द से वे घबड़ाते थे । उन्होने लड़के को पर्चा बाँटने से रोका । गुस्से से
लाल होकर उन्होने लड़के को डाँटा और डराया । लेकिन उनकी धमकियों की उपेक्षा करते
हुये लड़का शान्त भाव से पर्चा बाँटने के काम में मगन रहा ।
आखिर में एक सिपाही ने लड़के को पकड़
लिया । लड़के के हाथ में रखे पर्चों को उसने छीनना चाहा । लेकिन इतना आसान नहीं था
कि लड़का उसके गिरफ्त में आ जाये । एक झटके में लड़के ने सिपाही की मुट्ठी से अपना
हाथ छुड़ा लिया और फिर जबर्दस्त एक घूँसा मारा पुलिसवाले के नाक पर । पर्चों को
दोबारा अपने हाथों में समेटते हुये उसने चेतावनी दी, “खबरदार ! हाथ मत लगाओ बदन को
! देखूंगा कैसे तुम मुझे बिना वारंट के गिरफ्तार करते हो !” घूँसा खाया हुआ सिपाही
फिर दौड़ा उसे पकड़ने के लिये, लेकिन तब तक वह लड़का वहाँ से गायब होकर भीड़ में समा
चुका था । अचानक भीड़ से वन्देमातरम के नारे उठने शुरू हुये । पुलिसवालों के साथ
साथ अंग्रेजों के विश्वस्त लोग भी अचरज में थे । वे अपमानित भी महसूस कर रहे थे ।
वहाँ से गायब हो जाने के बावजूद बाद
में पुलिस ने खुदीराम को पकड़ लिया । एक दूसरी कहानी है कि खुदीराम वहाँ से भाग
पाने में सफल हुये और एक रिश्तेदार के घर में कुछ दिनों तक छुपे रहे । लेकिन छुप
कर रहना उने जँचा नहीं । शर्म आने लगी । तो मेदिनीपुर के अलीगंज मोहल्ला स्थित
तांतशाला में आकर खुद पुलिस के पास अपनी गिरफ्तारी दी । जो भी हो, अदालत में उनकी
पेशी हुई पर उम्र कम होने के कारंण वह रिहा कर दिये गये यह बात दर्ज है । यह भी सच
है कि इस मामले के कारण खुदीराम पूरे बंगाल में क्रांतिकारियों की नज़र में आ गये ।
खुदीराम की क्रान्तिकारी
गतिविधियाँ बढ़ती गई । सन 1908 के आसपास काँथि (मेदिनीपुर) के ठाकुर नगर इलाके में
कुछ बड़ी गिरफ्तारियाँ हुईं । एक पत्रिका के सम्पादक व उनके सहयोगियों को गिरफ्तार
कर तीन महीने की वामशक्कत कैद की सज़ा दी गई । गोया इन कार्रवाइयों को चुनौती देने
के लिहाज से खुदीराम ने कांथि के इलाके में अपना आना जाना बढ़ा दिया । वरिष्ठ नेता
वीरेश्वर राय से भेंट करने के बाद मुगबेड़िया, कलागेछिया आदि कई स्थानों पर उन्होने
अखाड़े खोले और अन्य युवकों के साथ लाठी और छुरे का खेल सीखने और अभ्यास करने लगे ।
समय बीतता था भगवानपुर थाना के किशोरपुर गाँव के आशुतोष के घर । बलागेड़िया में
रहते हुये मुगबेड़िया के जमीन्दार दिगम्बर नन्द के साथ खुदीराम का सम्पर्क हुआ।
उनके यहाँ भी खुदीराम ने अखाड़ा बनाया । गंगाधर नन्द के घर पर क्रान्तिकारियों के
साथ लाठी, छुरा और बन्दूक चलाना सीखा । इसी समय मैजिस्ट्रेट जे के पैडी ने इनके
खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी किया । पर खुदीराम भागने में कामयाब रहे ।
इसके बाद दासपुर के चेँचुआ हाट में
बहन के घर पर खुदीराम ने कुछ दिन समय बिताया ।
बंगाल के क्रान्तिकारी संगठनों की नज़र मे
जैसा कि पहले ही कहा गया है कि
बंगाल, राज्य के विभाजन के विरोध में उद्वेलित था । वह घटना सभी जानते हैं, कि
कविगुरू रबीन्द्रनाथ ठाकुर खुद निकल आये थे सड़क पर एवं बंगाल की एकता को बनाये
रखने की अपील के रूप में राखी बांधी थी राहगीरों की कलाइयों में । उद्वेलन इतनी
अधिक थी कि राष्ट्रगुरू कहे जाने वाले सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने शुरू में ही
सम्भावना जाहिर कर दी थी कि सरकार के फैसले को ‘अनसेट्ल’ किया, यानि वापस कराया जा
सकता है ।
स्वाभाविक तौर पर आन्दोलनात्मक
गतिविधियाँ जोर पकड़ रही थीं । उधर बारीन्द्र कुमार घोष या बारीन घोष (बाद मे ॠषि
अरबिन्द हुये क्रान्तिकारी अरबिन्द घोष के छोटे भाई) एवं अन्य कई शीर्षस्थ
क्रान्तिकारी नेता जिनका सामान्य शान्तिपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों से
मोहभंग हो चुका था, अपने ढंग से किशोर/युवाओं को प्रशिक्षित व संगठित कर रहे थे ।
अनुशासित जीवन, नियमित व्यायाम, भक्ति व कर्मयोग से सम्बन्धित पुस्तिकाओं खास कर
गीता का पाठ, मंत्रोच्चारण, छोटे पारम्परिक हथियार मसलन लाठी, छूरा एवं आवश्यकता
पड़ने पर पिस्तौल चलाने का अभ्यास, भूमिगत जीवनयापन और फिर अंग्रेजों के खिलाफ
गुरिल्ला कार्रवाईयाँ – माल ले जाते हुये गाड़ियों एवं नावों को लूटना, खास तौर पर
अत्याचारी के रूप में चिन्हित अंग्रेज अधिकारियों की हत्या इन सभी अनुभवों से
प्रशिक्षित हो रहे थे युवा । उन नेताओं की नज़र में पूरे बंगाल में चल रही इस तरह
की गतिविधियों का खाका था एवं उनसे सम्पर्क करते हुये वैसे तरुणों/युवाओं की सूची
को वे अद्यतन करते रहते थे जो निडर व साहसी हों, गुप्त गुरिल्ला कार्रवाईयों में
अपनी दक्षता साबित कर चुके हों एवं अंग्रेज पुलिस के खाते में जिनका नाम अभी तक,
भले ही छोटे मोटे ‘अपराधों’ के लिये चढ़ा हो लेकिन खतरनाक ‘राजद्रोही’ के रूप में न
चढ़ा हो । और इस तरह के युवाओं की सूची में खुदीराम बोस का नाम मेदिनीपुर से चढ़
चुका था ।
दूसरी ओर इन क्रान्तिकारी नेताओं
की नजर में अत्याचारी अंग्रेज अधिकारी के रूप में मुज़फ्फरपुर में पदस्थापित
मैजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड का नाम भी चढ़ चुका था ।
देशनेता बिपिनचन्द्र पाल
(‘लाल-बाल-पाल’ ख्यात) ‘बन्देमातरम’ नाम से एक पत्रिका प्रकाशित करते थे । उस
पत्रिका में अंग्रेजों द्वारा किये जा रहे अन्याय एवं अत्याचार के खिलाफ एक लेख
प्रकाशित हुआ । लेख सामान्य था, उग्रवादी नहीं था फिर भी लेखक का नाम नहीं रहने के
कारण अंग्रेज पुलिस के खुफिया विभाग को लगा कि लेख मशहूर क्रान्तिकारी नेता
अरबिन्द घोष (जो उस समय पुलिस की निगाह से बचने के लिये बड़ौदा में प्रवास कर रहे
थे) का लिखा हुआ है । बस, पुलिस ने ‘राजद्रोह’ के अपराध में विपिन चन्द्र पाल को
गिरफ्तार कर लिया ।
विपिन चन्द्र पाल पूरे देश में
ख्यातिप्राप्त, सर्वमान्य नेता थे । जब उन्हे अदालत में लाया गया तो बाहर बड़ी
तादाद में जनता ने अदालत को घेर लिया ।
बन्देमातरम के नारे लग रहे थे । अदालत के अन्दर न्यायाधीश किंग्सफोर्ड ने
विपिन चन्द्र पाल को दो महीने के कारावास की सजा सुनाई । बाहर जनता पर पुलिस ने
हमला बोला । बैटन से पीट पीट कर लहुलुहान कर दिया । इस दृश्य को देखते देखते खून
खौल उठा 16 साल के एक लड़के का । सुशील सेन नाम का वह लड़का दौड़ कर घोड़े की पीठ पर
सवार एक सर्जेन्ट के हाथों का चाबुक छीन कर उसे ही पीटना शुरू किया और बेहोश कर
दिया । अगले दिन उसी किंग्सफोर्ड के अदालत में इस किशोर को पकड़ कर लाया गया । बदले
की भावना से लड़के को बेंत से पीटने की सजा दी गई । इतनी बेरहमी से उसे पीटा गया कि
लोगों का दिल दहल उठा । बाद में सुशील को उसकी वीरता के लिये जनता की ओर से
सम्मानित भी किया गया था ।
तो ऐसी ही घटनाओं के कारण कोलकाता
के चीफ प्रेसिडेन्सी मैजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड क्रान्तिकारियों के घोर विरोधी, बदले
के भाव से काम करने वाला एक अत्याचारी, अन्यायी ब्रिटिश राजप्रतिनिधि अधिकारी के
रूप चिन्हित हुआ एवं उसकी हत्या की योजना बनने लगी । एक योजना के तहत दो क्रान्तिकारी
युवा हेमचन्द्र एवं उल्लासकर ने मिल कर एक पुस्तक-बम तैयार किया । एक बड़ी किताब के
बीच में जगह बना कर बम को इस तरह से रखा गया था कि किताब खोलते ही फट जाय । उस समय
किंग्सफोर्ड कोलकाता के टालीगंज इलाके में रहता था । एक फीते से बांध कर किताब
उसके हाथ तक पहुँचाने की व्यवस्था भी की गई । लेकिन संयोग था कि उसने किताब को
खोला नहीं, फीते बंधी हालत में अलमारी में उठाकर रख दिया ।
किंग्सफोर्ड को मारने की लगातार
कोशिश हो रही है यह बात अंग्रेजों को मालूम पड़ गई और प्रशासन ने किंग्सफोर्ड का
मुजफ्फरपुर में स्थानान्तरण कर दिया गया । अब क्रान्तिकारी दलों के सामने चुनौती
थी किंग्सफोर्ड को मुजफ्फरपुर पहुँच कर मारना । इसके लिये योजना बनी । जिस सभा में
योजना बन रही थी वहाँ युवाओं में प्रफुल्ल चाकी मौजूद थे और उन्होने आगे बढ़ कर
किंग्स्फोर्ड की हत्या करने का कार्यभार खुद लेने का आग्रह व्यक्त किया । वह
अनुभवी भी थे । फिर भी नेतृत्व को लगा कि एक और व्यक्ति साथ में होना चाहिये । मेदिनीपुर
में खुदीराम के गुरु एवं अभिभावक सत्येन बोस से बात की गई । सन 1908 के 7 या 8
अप्रैल को खुदीराम बोस कोलकाता आये ।
दो क्रान्तिकारियों की पहली मुलाकात
खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी की
पहली मुलाकात कोलकाता के रेलवे स्टेशन पर हुई । दोनों को अलग अलग नाम भी दिये गये
थे - प्रफुल्ल चाकी को दिनेश चन्द्र राय एवं खुदीराम बोस को दुर्गादास सेन । यहीं
पर इन दोनों में पहली बार परिचय हुआ । बारीन घोष, अपने संगठन भवानीमन्दिर (जहाँ
युवाओं को प्रशिक्षण दिया जाता था) एवं युगान्तर दल (क्रान्तिकारियों का तत्कालीन
एक राजनीतिक दल) की ओर से यहीं पर इनसे मिले । कुछ बम दिये गये उन्हे । रिवाल्वर
खरीदने के लिये रुपये एवं मुजफ्फरपुर पहुँचने के नक्शे दिये गये । पहली बार मिले भारतमाता
के दो सपूतों ने कोलकाता के रेलवे स्टेशन पर किंग्सफोर्ड को मारने का संकल्प लिया
।
स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलने के
बावजूद यह तो तय है कि अगर दोनों के पास रिवाल्वर और पिस्तौल थे (पकड़े जाने के
वक्त खुदीराम के पास दो रिवॉल्वर, एक बड़ा एवं एक छोटा, और 30 गोलियाँ थीं,
प्रफुल्ल चाकी ने भी खुद पर पिस्तौल ही चलाई थी) तो इसकी खरीद उसी दिन हुगली नदी
के उस पार जाकर कोलकाता में हथियारों के गैरकानूनी बाज़ार में की गई होगी ।
शाम के वक्त ट्रेन पर सवार होकर
दोनों मुजफ्फरपुर के लिये रवाना हो गये । उस समय पटना का गांधी सेतु क्या, मोकामा
का राजेन्द्र सेतु भी नहीं बना था । कोलकाता से जमालपुर, फिर जमालपुर से बरौनी और
फिर बरौनी से समस्तीपुर होकर मुज़फ्फरपुर पहुँचा जा सकता था । दूसरा रास्ता था
मोकामा, फिर मोकामाघाट, फिर नाव से सिमरिया घाट, बरौनी, आगे… (इसी रास्ते से लौटने
को सोचे थे प्रफुल्ल चाकी, इसलिये मोकामाघाट स्टेशन पर पकड़े गये; खुदीराम किस
रास्ते से लौटने को सोचे होंगे पता नहीं – बेशक तत्काल ट्रेन पर चढ़ना उन्हे अधिक
असुरक्षित महसूस हुआ होगा तभी पैदल चलते हुये भी एक छोटे से स्टेशन पर पकड़े गये थे)
।
दोनों यह पूरी दुरी या तो ट्रेन से
या फिर कुछ पैदल चलते हुये पार किये होंगे । अधिक संभावना है कि दोनों अलग अलग,
इन्ही दो रास्तों से मुज़फ्फरपुर पहुँचे हों एवं फिर वहीं मिले हों ।
मुजफ्फरपुर
उस समय भी मुज़फ्फरपुर एक
महत्वपूर्ण शहर था । तिरहूत सबडिविजन का मुख्यालय होने के साथ साथ व्यापार का एक
प्रमुख केन्द्र था । अंग्रेजों की सिविल लाइन्स, जो मोतीझील के इर्दगिर्द रही
होगी, के अलावे जिसे आज कम्पनीबाग का इलाका कहा जाता है वहाँ उनके प्रशासनिक
परिसर, हाकिमों के दफ्तर, अदालत आज भी जगह पर हैं, जिन परिसरों में स्वतंत्र भारत
का जिला प्रशासन, अदालत एवं अन्य विभागीय कार्यालय आदि कार्यरत हैं । स्टेशन से
थोड़ी ही दूरी पर जहाँ आज भारत वैगन का कारखाना है, उस समय वहाँ मूल कम्पनी अर्थर
बटलर भी नहीं आई थी । उधर बसावट भी कम रहे होंगे । लेकिन जो आज पुराने मोहल्ले कहे
जाते हैं, वे सब पहले के बसे हुये थे क्योंकि अंग्रेजों के आने के पहले भी
मुजफ्फरपुर उत्तर बिहार में व्यापार का महत्वपूर्ण केन्द्र था । उन मोहल्लों में
नये बड़े मकान उग आये थे, क्योंकि प्रशासनिक केन्द्र बनने के कारण एवं रेलमार्ग से
जुड़ने के कारण भारतीय राजकर्मचारी, रेलकर्मचारी, वकील, डाक्टर, शिक्षक एवं स्थानीय
ग्रामीण धनाढ्यों का एक हिस्सा इन मोहल्लों में आकर बस गये थे ।
10 या 11 अप्रैल 1908 को शाम के
वक्त हरेन सरकार, या दूसरी जानकारी के अनुसार दुर्गादास सेन (खुदीराम बोस) एवं
दिनेश चन्द्र राय (प्रफुल्ल चाकी) नाम से दो नवयुवक दो अलग ट्रेन से मुज़फ्फरपुर
पहुँचे । एक जगह लिखा है कि दोनों ने किशोरीमोहन बन्दोपाध्याय के धर्मशाला में
आश्रय लिया । बाद में, खुदीराम बोस के खिलाफ अंग्रेजों की अदालत में जो मुकदमा चला
उसमें धर्मशाला के कर्मचारियों ने गवाही दी थी कि दोनों 10 या 11 अप्रैल से
धर्मशाला के कमरे में रुके थे ।
उस दिन से 30 अप्रैल की शाम के
पहले तक विभिन्न सरकारी दफ्तरों में कामकाज के बहाने अपनी गतिविधियाँ बनाते हुये
दोनों ने अपने शिकार की दिनचर्या पर नज़र रखी होगी । नोट किया होगा कि किंग्सफोर्ड
घर से कब निकलकर दफ्तर को जाता है और शाम को कब लौटता है । फिर शाम को दोबारा
निकलता है या नहीं । देखा होगा कि शाम को किंग्सफोर्ड दोबारा निकलता है घर से थोड़ी
ही दूर पर स्थित योरोपीयन क्लब जाने के लिये । और लगभग एक निश्चित समय पर, साढ़े आठ
बजे, किंग्सफोर्ड की बग्घी निकल आती है योरोपीयन क्लब के गेट से, घर जाने के लिये
।
उस रात
30 अप्रैल की रात को दोनों ने अपने
कार्यभार को पूरा करने के उत्तम समय के रूप में तय किया । शाम की धुंधली रोशनी रात
के अंधेरे में ढलने के बाद दोनों धर्मशाला से अपने सामान के साथ निकल कर मोतीझील आ
गये । उस वक्त सड़क पर बिजली के खंभे नहीं थे । बड़े शहरों में सड़कों पर गैस की
बत्ती के खंभे होते थे । लेकिन मुज़फ्फरपुर जैसे शहर में वह भी नहीं था । फिर
अंग्रेजों के सारे ऐश आराम का इन्तजाम करने वाले कारिन्दे, नौकर-चाकर तो
हिन्दुस्तानी ही होते थे । इसलिये धोती के उपर साफ काला धारीदार कोट (प्रफुल्ल
चाकी ने सफेद कोट पहन रखा था) और पैरों में चमचमाते जूते पहन कर, हाथ पर तह किये
गये चादर लेकर इन दोनों किशोरों को, पुलिस की नजर बचाकर मोतीझील स्थित योरोपीयन
क्लब के करीब तक पहुँचने में दिक्कत नहीं हुई । खुदीराम के हाथ में एक टीन का
बक्सा भी था । बल्कि खुदीराम ने थोड़ी और हिम्मत दिखाई । घूमने आये भोले भाले किशोरों
की तरह साथी को लेकर बढ़ चले किंग्सफोर्ड के घर की ओर जहाँ दो पहरेदार सिपाही खड़े
थे । यूँ गये जैसे पहरेदार को देखकर ही करीब जा रहे हों । करीब पहुँच कर खुदीराम
ने गेट पर खड़े पहरेदार से पूछा, “क्या है वहाँ ? (योरोपीयन क्लब की ओर उंगली उठाते
हुये) कुछ हो रहा है क्या ? नाच-गाना ? हम अन्दर जा सकते हैं क्या ?”
पहरेदार ने बाद में अदालत में
गवाही दी थी, “दोनों में से एक हमारे पास आया था मिलॉर्ड ! अन्दर जाना चाहता था ।
हमने उसे डरा धमका कर खूद ले जा कर क्लब की पूर्बी गेट से आगे छोड़ आया था ।”
सड़क से उतर कर दोनों पेड़ों की कतार के पीछे झाड़ियों में छुप
गये । जूते झाड़ियों में खोल कर रख दिया ताकि भागने में सुविधा हो । टीन के बक्से
से बम निकाल कर पॉकेट में डाल लिया और बक्से को भी फेंक दिया ।
रात की जिस घड़ी में किंग्सफोर्ड की
गाड़ी को इन्होने हर दिन निकलते देखा था ठीक उसी घड़ी में किंग्सफोर्ड की गाड़ी निकली
। क्लब की गेट से बाहर निकल कर इनके करीब आते ही दोनों ने कुशल हाथों से गाड़ी के
बीच में, सवारी बैठने की जगह पर बम फेंका । दोनों बम जोरदार धमाके के साथ फटे । इन
दोनों ने तत्काल तेज चलते हुये थोड़ी दूर जाकर बाजार के करीब सड़क पकड़ लिया और
धर्मशाला की ओर चल दिये । धर्मशाला में कुछ सामान छोड़ दिया । हथियार और पैसे आदि
लेकर बाहर निकले और स्टेशन की ओर चले । धर्मशाला के बगल में था नि:शुल्क
चिकित्सालय या दवाखाना । उसके कर्मचारी ने बाद में अदालत में गवाही के दौरान कहा
था कि उसने दोनों को तेज कदम स्टेशन की ओर जाते हुये देख कर पूछा था, “कहाँ जा रहे
हो बच्चो ?”
- एक
मित्र आने वाला है । उसी को लाने जा रहा हूँ स्टेशन ।…
प्रफुल्ल चाकी या ‘दिनेश चन्द्र
राय’ ने मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन से मोकामा जाने का ट्रेन पकड़ लिया (आप जानते हैं
कि अगले दिन मोकामा स्टेशन पर पकड़े जाने से बचने के लिये उन्होने खुद पर गोली दाग
दी थी) ।
इधर खुदीराम ने उल्टी दिशा में
चलते हुये रेलवे स्टेशन से समस्तीपुर की ओर जाने का मार्ग पकड़ लिया । रेलवे लाइन
पकड़ कर चलते रहे । कोट में दिक्कत हो रही थी । धर्मशाला से निकलते वक्त एक और रेशम
का कोट भी उसने रख लिया था । हाथ के चादर को कमर में लपेट कर दोनों कोट, दो
रिवाल्वर, 30 कार्तूज और पैसे उसी में बांध लिया । धोती को घुटना तक उठा कर बन गये
किसान । अंधेरे में रात भर रेल की पटरियों के किनारे किनारे वह सामान्य तेज,
किसानी कदमों से चलते रहे ।
खबर आदमी के कदमों से ज्यादा तेज
चलती है । पुलिस अधिकारियों के घटनास्थल पर पहुँचने के पहले ही यह खबर चलते हुये
दोनों के कानों तक पहुँच चुकी थी कि गाड़ी किंग्सफोर्ड की गाड़ी जैसी ही देखने में
थी पर वह एक वकील केनेडी की गाड़ी थी जो उसकी पत्नी और बेटी को घर पहुँचाने निकली
थी । बम के विस्फोटों से गाड़ी जल उठी; बेटी की घटनास्थल पर ही मौत हो गई जबकि
पत्नी गंभीर रूप से घायल थी, उनकी मौत घंटे भर बाद अस्पताल में हुई । गाड़ीवान घायल
हालत में थोड़ी दूर पर बेहोश पड़ा मिला था, उसे भी अस्पताल पहुँचा दिया गया है ।
पूसा रोड स्टेशन
मुज़फ्फरपुर से समस्तीपुर जाने वाले
रेलमार्ग पर 39 किलोमीटर पर है पूसा रोड स्टेशन । इस स्टेशन का आज कल खुदीराम बोस
पूसा स्टेशन नामाकरण हो गया है । लेकिन पूसा रोड नाम पड़ने से भी पहले, यानि जिस
समय की बात की जा रही है उस समय इस स्टेशन का नाम था वैनी । खुदीराम रात भर चलते
हुये सुबह इस वैनी स्टेशन तक पहुँच गये थे ।
थकान तो थी ही । साथ ही अफसोस भी
रहा होगा अपना कार्यभार सही ढंग से पूरा नहीं कर पाने का । बहुत प्यास लगी थी
उन्हे । इसलिये स्टेशन के प्लैटफॉर्म पर उठ आये । नल पर भरपेट पानी पी कर देखा बगल
में एक चाय के स्टॉल के पास कुछ बैठे कुछ खड़े लोग अखबार पढ़ रहे हैं । उनकी बातचीत
में ‘किंग्सफोर्ड’ शब्द सुनाई पड़ा । खुदीराम उत्सुक हो उठे और करीब चले गये ।
शायद यही उनकी बालसुलभ गलती थी ।
हालाँकि कुछ इतिहासकारों का कहना है कि खुदीराम को रात में पता नहीं चल पाया था कि
किंग्सफोर्ड के बजाय उस गाड़ी में थी दो महिलायें और उनकी मौत हो गई है । इसलिये
वैनी स्टेशन पर अखबार पढ़ रहे लोगों के करीब जाकर उन्होने पूछा, “क्या हुआ ?
किंग्सफोर्ड नहीं मरा क्या ?”
इस भाष्य का पहला हिस्सा सही हो
सकता है । हो सकता है वैनी स्टेशन पर पकड़े जाने के पहले ही उन्हे मालूम पड़ा हो कि
किंग्सफोर्ड की मृत्यु नहीं हुई है, बल्कि दो अंग्रेज महिलायें मारी गई हैं ।
लेकिन “किंग्सफोर्ड नहीं मरा क्या” या “क्या हुआ” पूछने वाला कच्चा काम खुदीराम
जैसे अनुभवी क्रांतिकारी नहीं कर सकते थे, भले ही उनकी उम्र मात्र 18 साल रही हो ।
दूर से ही भीड़ में खड़े दो
वर्दीधारी सिपाही को देख कर सतर्क हो जाने के बजाय करीब जाने की गलती उन्होने की
और तभी उन दोनों सिपाहियों की नज़र उन पर पड़ी । इलाके के लिये अजनबी घुंघरैला बालों
वाला जवान चेहरा, चेहरे और कंधों की भारी थकान, धोती, कमीज, खाली पैर सब धूल सने,
कमर में चादर लपेट कर बांधी गई भारी मोटरी… सिपाहियों का सन्देह तुरन्त जग गया ।
पूछताछ शुरु करते ही लड़के के शरीर और आँखों का हलचल सिपाहियों को हरकत में ला दिया
और एक सिपाही ने मजबूती से लड़के को पीछे से गले पर हाथ डाल कर जकड़ लिया ।
इस मजबूत जकड़ को ढीला कर पाना
खुदीराम जैसे दुबले कदकाठी के नौजवान के बस की बात नहीं थी । किसी तरह दाहिना हाथ
कमर पर बंधी मोटरी के अन्दर डालने की कोशिश करने लगा ताकि पिस्तौल हाथ में आ जाये
।
उस समय तक भी सिपाहियों को एहसास
नहीं था कि यह लड़का कौन हो सकता है । कमर में बंधी भारी मोटरी में कहीं चोरी की गई
कीमती सामान हो, इस लालच में सिपाहियों ने उसे पकड़ा था । ज्यों ही खुदीराम मोटरी
में हाथ डालने लगा सामने वाले सिपाही ने मोटरी को खींचा और …!
भड़भड़ा कर गिरे सामानों को देख कर
आसपास जमा लोगों और सिपाहियों के होश उड़ गये । एक धारीदार कोट, एक रेशम का कोट और
फिर्… दो पिस्तौल और तीस कार्तूज ! एक लमहे में सारी बातें साफ हो गईं । यह उन्ही
दोनों में से एक लड़का है, कल रात मुजफ्फरपुर के मोतीझील में योरोपीयन क्लब बमकांड
के स्थल से जिनके भागने का जिक्र है अखबारों में – धर्मशाला में पुलिस की तहकिकात
से पता चला है कि दोनों कलकत्ता से आये थे !
- दूसरा
कहाँ है जी ?
- (चुप)
दोनों सिपाही खुशी से फूले नहीं
समा रहे थे । क्या भगोड़ा हाथ आया है ! लख टके का । अब तो दोनों का प्रमोशन बस रखा
हुआ है । दारोगासाहब बखशीश भी कम नहीं देंगे । उन्हे भी तो प्रमोशन मिलेगा ।
लड़के को बढ़िया से बांध कर सिपाहियों ने स्टेशन मास्टर के
माध्यम से मुजफ्फरपुर खबर भिजवाया और मुजफ्फरपुर की ओर जाने वाले ट्रेन के आने का
इन्तजार करने लगे ।
मुजफ्फरपुर के अदालत में
दिन था 1 मई । लेकिन सन 1908 में
हिन्दुस्तान में यह जानकारी किसी को नहीं थी (कुछेक विद्वान, योरोपीय या अमरीकी
मज़दूर आन्दोलन के इतिहास के ज्ञाता को छोड़ कर) कि योरोपीय या अमरीकी श्रमजीवियों
के लिये यह खास दिन है और ‘मई दिवस’ के रूप में चर्चित है । दोपहर तक पूरा मुजफ्फरपुर
रेल स्टेशन भीड़ से खचाखच भर गया ।
2 मई का स्टेट्समैन लिखा, “रेलवे
स्टेशन भीड़ से पटा हुआ था लड़के को देखने के लिये । मात्र 18 साल का लड़का लेकिन दिख
रहा था उसका दृढ़निश्चय । पहले दर्जे के डिब्बे से उतर कर वह एक बेफिक्र,
प्रफुल्लचित्त लड़के की तरह, उसके लिये बाहर रखे गये फिटनगाड़ी तक चल कर गया । अन्दर
बैठने के बाद जोरदार आवाज में नारा लगाया ‘बन्देमातरम’…”
मुजफ्फरपुर के सत्र अदालत में
खुदीराम बोस का मुकदमा 21 मई को खुला । दो महीनों तक चलने वाले इस मुकदमें खुदीराम
ने अपनी ओर से कोई वकील नहीं रखा था । पर कई वकील स्वेच्छा से आये एवं नि:शुल्क
उन्होने खुदीराम को मौत की सजा से बचाने की भर सक कोशिश की । लेकिन अंग्रेजों की
अदालत में क्रान्तिकारी नौजवानों को मौत की सज़ा ही मिलती रही । खुदीराम से उसी
सिलसिले की शुरुआत हुई ।
उसके बाद अपील भी किया गया कलकत्ता
उच्च अदालत में । उच्च अदालत ने भी निचले अदालत के फैसले को बहाल रखा ।
बाद के दिनों में इतिहासकारों एवं
कानून के ज्ञाताओं ने पूरी अदालती प्रक्रिया में कई खामियाँ दर्शाई है । उन्होने
यह भी दिखाया है कि उस समय भी अदालत को इन खामियों की जानकारी थी एवं खुदीराम के
वकीलों ने अदालत में इन विन्दुओं पर चर्चा भी की थी । पर किसे परवाह था !
अंग्रेजों के हुकूमत में पहले से ही तय था कि इस लड़के को मौत की सजा देनी है और
खुदीराम भी, माथे पर कफन बाँध कर ही मुजफ्फरपुर आया था ।
11 अगस्त 1908
खुदीराम बोस की फाँसी के लिये दिन
तय किया गया 11 अगस्त । फाँसी मुजफ्फरपुर जेल में ही होनी थी क्योंकि वहीँ वह रखे
गये थे । कलकत्ता उच्च अदालत में अपील खारिज किये जाने के बाद तय हो गया कि फाँसी
होगी ही ।
मुजफ्फरपुर शहर में खुदीराम बोस के
परिवार के लोग या घनिष्ट मित्र तो कोई था नहीं । और रहता भी तो अंग्रजी हुकूमत की
ओर से ‘खतरनाक आतंकवादी’, ‘मौत की सजा के हकदार’ के रूप में चिन्हित इस युवा की
फाँसी के दिन भोर से जेल के बाहर बैठने शायद ही आता । फिर भी कुछ लोग तो थे ही जो
एक लगभग बालक को फाँसी दिये जाने के कारण व्यथित थे । उन्ही में से कुछ लोग जिनके
रोजगार वगैरह का सम्बन्ध जेल के कर्मचारियों व अंग्रेज साहबों के घरों से था शायद
शामिल भी हुये होंगे फाँसी के बाद जेल प्रशासन द्वारा की गई खुदीराम की
अन्त्येष्टि में । शायद उन्ही में से कईयों के भीतर स्वतंत्रता और क्रांति की
ज्वाला भड़की होगी आगे । वैसे बंगाल में उस दिन विरोध आन्दोलन, सभा तथा घर घर में
व्रत और उपवास का दिन था ।
12 अगस्त को अमृत बाजार पत्रिका
में फाँसी के समाचार का शीर्षक था – “खुदीराम का अन्त: प्रसन्नचित्त और मुस्कुराते
हुये मरा। एक शांत अंत्येष्टि” । आगे लिखा था, “आज सुबह छ: बजे खुदीराम की फाँसी
हुई । फाँसी के मंच तक वह दृढ़ता और प्रसन्नता के साथ गया । यहाँ तक कि जब उसके
चेहरे को टोपी से ढका जाने लगा तो वह मुस्कुराया भी ।”
वीर बालक खुदीराम की कहानी बंगाल
के घरों में एक दंतकथा की तरह फैलने में देर नहीं लगी । कई लोकगीत लिखे गये और
गाये जाने लगे । पर जो गीत अमर हो गया उसका हिन्दी सारानुवाद नीचे प्रस्तुत है ।
हालाँकि कई शोधकर्ताओं ने गीत के लेखक के रूप में किसी न किसी लोककवि का नाम लिया
है पर अभी तक प्रामाण्य कुछ नहीं है । इसलिये कवि को हम अनाम ही मान कर चलें ।
एक बार विदा करो माँ, जरा घूम आऊँ ।
हँसते हुय [गले में] डालुंगा फाँसी
का फन्दा, देखेंगे दुनिया के लोग ।
चाभी वाला बम तैयार कर
खड़े थे रास्ते के किनारे, माँ
बड़े लाट को मारने में
दूसरे इंग्लैन्डवासी को मार दिया
एक बार विदा करो माँ, जरा घूम आऊँ…
शनिवार को सुबह दस बजे के बाद
जजकोर्ट में आदमी के अँटने की जगह
नहीं थी माँ
हुआ अभिराम का द्वीप-चालान
[अंदमान की जेल]
माँ, और खुदीराम को फाँसी
दस महीना दस दिनों के बाद
जन्म लूंगा मौसी के घर में माँ
तब अगर पहचान न सको तो देखना गले में
फाँसी का दाग
एक बार विदा करो माँ, जरा घूम आऊँ…
-:: समाप्त ::-
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