Tuesday, January 15, 2019

अन्त के बहाने ; “सिर्फ हिन्दू?”


बंगाल के नवजागरण, उस नवजागरण के शीर्षस्थ सांस्कृतिक प्रतिभाओं या समाज सिधारकों की चर्चा करते हुये आम तौर पर हम शहरी मध्यवर्ग की बात तो करते ही हैं, साथ ही, हम सिर्फ हिन्दू समाज की बात करते हैं। जबकी बंगाली समाज सैंकड़ों वर्षों से हिन्दू, मुसलमान और बौद्ध तीनों धर्मावलम्बियों का समाज तो था ही, योरोपीय लोगों के आने के बाद उसमें इसाई धर्मावलम्बी भी शामिल हो गये। देश के बँटवारे के पहले जो पूरा बंगाल प्रांत था, उसमें मुसलमान आबादी बहुत बड़ी संख्या में थी। यह कोई संयोग नहीं है कि बंगला काव्य में क्रांति लाने वाले तीन श्रेष्ठतम कवि तीन धर्म के हैं – माइकल मधुसूदन दत्त, रवीन्द्रनाथ ठाकुर एवं काजी नजरुल इसलाम। जबकि, बंगला काव्य की शुरुआत जिस काव्य से माना जाता है, ‘चर्यापद’ का वह काव्य बौद्ध साहित्य का हिस्सा है एवं उत्तरकालीन-बौद्ध नाथ-योगी सम्प्रदाय के कवियों का रचा हुआ है।
बंगला भाषा एवं बंगाली जीवनधारा के बारे में एल सटीक मन्तव्य करते हैं ढाका बंगला अकादमी के भूतपूर्व महानिदेशक शम्सुज्जमान खाँ।
“ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि बंगालियों के सोचविचार की धारा का रुपान्तरण पिछले कुछेक वर्षों में एक खास नक्शे के अनुसार हुआ है। स्थानीय नाथ-योगी, तांत्रिक, बाउल-वैष्णव, साधकों के गुप्त साधना के पंथ, चैतन्यदेव का गौड़ीय वैष्णव धर्म-संस्कृति-दर्शन, इसलाम का सूफीमत एवं मूल धर्मसमूह के भीतर से चुने गये लौकिक बोध व मानव-ष्रेष्ठता की वाणी ही विशाल ग्रामीण जनपद के ग्रहण-वर्जन-समन्वय के द्वारा एक जीवनधारा के रूप में विकसित हुई है। मध्ययुग तक राज्य के केन्द्रीय नियंत्रण व प्रभाव क्षेत्र से बाहर रहकर आम लोगों ने, अपनी लौकिक हितबुद्धि व समाज निर्माण की जरूरत से इस धारा को चुन लिया। और इस धारा की अभिव्यक्ति का माध्यम बनी हमारी मातृभाषा, बंगला।
“समज व व्यक्तिजीवन के साथ भाषा के इस ओतप्रोत सम्बन्ध के बीच से ही बनती है बंगाल की अपनी, जीवनघनिष्ठ व गहन मानविक एक प्राणवान संस्कृति। यह संस्कृति बंगाली हिन्दुओं का नहीं है, बौद्धों का नहीं है, इसाई या मुसलमानों की नहीं है – यह संस्कृति सभी बंगालियों की समन्वित संस्कृति है।” [भाषा संग्रामेर मध्ये दिये जाति ओ राष्ट्र गठन, शामसुज्जामान खाँ, उत्तरपूर्व24॰कॉम, दिनांक 22॰2॰2016]
तो फिर ऐसा क्योंकर हुआ कि नवजागरण का पूरा विमर्श हिन्दू समाज के भीतर होता हुआ दिखने लगा? कैसे आया यह परिदृश्य?
हम इस परिदृश्य के नेपथ्य पर संक्षिप्त ही चर्चा करेंगे, क्योंकि फिलहाल हमें सिर्फ विद्यासागर के कर्मजीवन एवं उनके नजरिये पर सीमित रहना है।
दो बात पहले ही स्पष्ट कर देना चाहते हैं।
पहला यह, कि किसी भी सामाजिक आह्वान में जनता के अलग अलग तबकों का नाम लेकर जिक्र करना, जैसे ‘महिलाओं’, ‘युवाओं’, ‘पिछड़ों’, दलितों’, ‘मुसलमानों’ आदि… सामाजिक अन्याय के प्रतिकार के आन्दोलन के पनपने एवं आगे बढ़ने के बाद शुरू हुआ है। बाद में पहचान की राजनीति का पुट भी उसमें जुड़ गया हैं। जिस समय की हम चर्चा कर रहे हैं उस समय बंगाल के ग्रामीण समाज में ‘हिन्दू’ और ‘मुसलमान’ बस पड़ोसियों के बीच का धार्मिक-सांस्कृतिक फर्क था, विवाद नहीं था। वह फर्क भी शताब्दियों तक साथ जीने के क्रम में बहुत कुछ मिट चुका था। बहुत सारी लोक-धार्मिक परम्पराओं में दोनो समुदाय एक दूसरे के हिस्सेदार बन चुके थे। ऐसे उदाहरण भी मिलते थे कि दोनों समुदाय के लोग साथ बैठ कर एक ही हुक्के से तम्बाकु भी पीते थे कहीं कहीं। समाज के तत्कालीन मध्यवर्ग़ीय या उच्चवित्त नेताओं में भी, ‘हिन्दू’ और ‘मुसलमान’ पहचान के बनाये रखने की, मेल-मिलाप को रोक कर, पहचान की स्वतंत्रता को आगे बढ़ाने की कोशिश जरूर थी, लेकिन विवाद शुरु नहीं हुआ था। दूसरी ओर, धर्म के अन्दर जातियों का फर्क भी सामान्यत: सर्वमान्य था, कुछेक कूप्रथाओं को दूर करने हेतु जारी बहस के अलावे बाकी अत्याचार और दमन के सवाल जमीन्दार और रैयत, मालिक और नौकर, अमीर और गरीब के सम्बन्धों के अन्तर्गत थे।
दूसरा, बेशक हिन्दू कॉलेज प्रेसिडेन्सी कॉलेज बनने से पहले तक सिर्फ हिन्दुओं के लिये था और मुसलमानों के लिये कलकत्ता मदरसा था (जैसा कि पहले कहा गया है उस समय के कॉलेज आज के जैसे नहीं थे। उनमें निचली कक्षायें भी शामिल होती थीं। इसलिये कलकत्ता मदरसा और हिन्दू कॉलेज के पाठ्यक्रम में दर्जे का अन्तर नहीं था, हाँ, बनावट का अन्तर था)। और, संस्कृत कॉलेज तो बनाया ही गया था प्राचीन हिन्दू शास्त्रों के अध्ययन को सक्षम पंडितों को तैयार करने के लिये।
लेकिन, विद्यासागर द्वारा खोले गये आदर्श बंग विद्यालय या अंग्रेज सरकार के ‘मॉडल स्कूल’ सभी के लिये थे। सभी धर्मों के लिये एवं सभी जातियों के लिये। उनके अपने पैसे से पैत्रिक गाँव वीरसिंहो में खोले गये विद्यालय या चरवाहों एवं अन्य श्रमजीवियों के लिये खोले गये रात्रि-विद्यालय में भी जाति या धर्म आधारित कोई भेदभाव नहीं था; बल्कि वे पूर्णत: नि:शुल्क थे, जबकि सरकारी आदर्श बंग विद्यालयों में शुल्क लगता था। हाँ, ये आदर्श विद्यालय दो मायनों में अलग थे। उसके पहले से चले आ रहे मिशनरी या निजी विद्यालयों में पठन का माध्यम अंग्रेजी था, आदर्श बंग विद्यालयों में पठन का माध्यम था मातृभाषा। दूसरी ओर, कभी सरकार द्वारा स्वीकृत ‘पाठशालाओं’ का पाठ्यक्रम निचले दर्जे का था। बंग विद्यालयों का पाठ्यक्रम, विद्यासागर द्वारा बनाया गया एवं उच्च दर्जे का था।
एक उद्धरण से शायद स्थिति स्पष्ट होगी:
“सरकार द्वारा प्रत्यक्षत: प्रबन्धित विद्यालयों के वर्ष 1856-57 के प्रतिवेदन में दिये गये आँकड़ों का अगर विश्लेषण किया जाय तो दिखेगा कि बंगाल में कुल 5303 विद्यार्थियों में 4612 हिन्दू थे, 689 मुसलमान और औरंगज़ेब इसाई थे। सरकारी निरीक्षण के अन्तर्गत एवं अनुदान प्राप्त करन्र वाले विद्यालय दो किस्म के थे – एक, अंग्रेजी और बंगला पढ़ाने वाले और दूसरे, सिर्फ बंगला पढ़ाने वाले। पहले किस्म के 70 विद्यालयों में 8175 विद्यार्थी थे जिनमें 7806 हिन्दू थे, 349 मुसलमान और 20 हिन्दू या मुसलमान से अलग। दूसरे किस्म के, सिर्फ बंगला पढ़ाने वाले, 114 विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या थी 7169, जिनमें 6559 थे हिन्दू, 548 मुसलमान एवं 62 मुसलमान या हिन्दू से अलग। यह गौरतलब है कि अनुदान की व्यवस्था के अन्तर्गत चलने वाले 184 विद्यालयों में आधे से अधिक कलकत्ता के अन्दर या आसपास में बने हुये थे। इस तरह, बंगाल में इन तमाम किस्म के विद्यालयों में विद्यार्थियों की कुल संख्या थी 20,647, जिनमें हिन्दू थे 18,977, मुसलमान थे 1586 एवं 84 इन दोनों समुदायों से अलग।” [British Policy and the Muslims in Bengal 1757 – 1856, Azizur Rahman Mallick, 2nd Edition, June 1977, Bangla Academy, Dhaka, P. 373]
यानि, अंग्रेज सरकार के शिक्षा प्रशासन के अन्दर चलते विचारधाराओं की बहस तथा हिन्दू मुसलमान दोनो तबकों के सम्पन्न वर्गों की अलगाववादी पेशकश के नतीजे में बनी शिक्षा प्रणाली में सस्कृत शास्त्र पढ़ाने वाले सिर्फ हिन्दू छात्रों की संस्थायें भी थी, अरबी-फारसी पढ़ाने वाली सिर्फ मुसलमान छात्रों की संस्थायें भी थीं, और इन दोनों से अलग तीन तरीके के आम विद्यालय थे, मिशनरी विद्यालय, निजी (सरकारी अनुदान प्राप्त या अप्राप्त) विद्यालय एवं पूर्णत: सरकारी विद्यालय जहाँ, पढ़ाई चाहे अंग्रेजी में हो या बंगला में, थे सबके लिये।
बल्कि हिन्दू और मुसलमान दोनों तबके के शिक्षाविदों की संयुक्त कोशिशें भी थीं, शिक्षा को आम जनता तक पहुँचाने के लिये। प्रख्यात इतिहासविद अमलेन्दु दे अपने शोधग्रंथ ‘द रूट्स ऑफ सेपरेटिज्म इन नाइन्टिंथ सेन्चुरी बेंगॉल’ में लिखते हैं:
“उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में शिक्षा के क्षेत्र में भी कुछ हिन्दू-मुसलमान संयुक्त प्रयास हुये थे। मृत्यजय विद्यालंकार एवं राधाकान्त देव के साथ मौलवी करम हुसैन, मौलवी अब्दुक वाहेद एवं मौलवी मुहम्मद अमिनुल्लाह भी कैलकाटा स्कूल बुक सोसायटी (1817) से जुड़े हुये थे; यह सोसायटी छात्रों को बंगला एवं अंग्रेजी में पाठ्यपुस्तकों मुहैया कराने के लिये स्थापित किया गया था। … इस सोसायटी के अलावा चार मुसलमान कैलकाटा स्कूल सोसायटी (1818) के प्रबंधन समिति में भी शामिल किया गया था। बेशक वे अंग्रेजी नहीं जानते थे। इस सोसायटी के पहल पर जो पाठशालायें स्थापित किये गये थे वहाँ हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्म के छात्र पाठ लेते थे, हालांकि हिन्दुओं की संख्या मुसलमानों से अधिक थी।” [Amalendu De, Roots of Separatism in Nineteenth Century Bengal, Ratna Prakashan 1974, P.3]
तो फिर, बात क्या थी? क्यों बंगाल के नवजागरण पर चर्चा में सिर्फ हिन्दू समाज सुधार, हिन्दू समाज सुधारक, ल्र्खक, पत्रकार, शिक्षाविद या साहित्यकारों के नाम आते हैं? क्यों मुसलमान आबादी, बंगाल की पूरी आबादी (बँटवारे से पूर्व) का आधा (कभी कभी आधा से अधिक) होने के बावजूद न तो समकालीन कोई मुसलमान समाज सुधारक, विद्वान, शिक्षाविद या लेखक का नाम नवजागरण के विमर्श में शामिल होता है और न ही मुसलमान छात्रों की संख्या उनकी आबादी का समानुपात होते हुये दिखता है?
इसका उत्तर इतिहास में है। कुछ तो उन्ही किताबों में है जिनसे उपर की उद्धृतियाँ ली गई हैं और कुछ अन्य किताबों में हैं।
संक्षेप में, इन प्रश्नों के उत्तर 19वीं सदी से पहले के दो घटनाक्रमों से जुड़े हैं। पहले घटनाक्रम का थोड़ा लम्बा इतिहास है। उपर में शम्सुज्जमान खाँ के जिस निबंध से उद्धरण लिया गया है उसी निबंध में वह आगे चल कर कहते हैं:
“… सोलहवीं सदी में ही बंगला भाषा एवं बंगालियों का समन्वित राष्ट्रनिर्माण का प्रयास फिर से राज्यसत्ता के कारण वाधित हुआ। … सम्राट अकबर के समय बंगाल का इलाका ‘सूबे बंगला’ के नाम से केन्द्रीय शासन के अधीन में आ गया। अकबर के जमाने की भूमिनीति कॉर्नवालिस के स्थाई बन्दोबस्त के ही अनुरूप थी। इस नीति के कारण जिस अभिजात वर्ग का जन्म हुआ उसके मुसलमान हिस्से ने उत्तर भारतीय संस्कृति के प्रभाव में बंगाल के मुसलमानों को अशरफ एवं अतरफ दो भागों में बाँट दिया। और कहा गया कि अशरफ बंगाली मुसलमानों की मातृभाषा है उर्दू।”
ऐसी ही एक परिस्थिति में आई इस्ट इन्डिया कम्पनी और कायम हुआ अंग्रेजों का शासन। मुसलमान शासक सत्ता से बाहर हो गये। सेना और प्रशासन से नियंत्रण हट गया। धीरे धीरे प्रशासन में अंग्रेजी ने अरबी, फारसी की जगह ले ली। दूसरी ओर, जो हिन्दू अधिकारी पूर्व के बादशाही प्रशासन में, खास कर  फिर आया स्थाई बन्दोबस्त। नये बने जमीन्दारों के अधिकांश थे हिन्दू। अमलेन्दु दे लिखते हैं कि नब्बे प्रतिशत जमींदार हिन्दू थे जबकि आबादी बराबर बराबर की थी (सन 1881 के मर्दुमशुमारी के अनुसार तो मुसलमान जनसंख्या हिन्दुओं से कुछेक हजार अधिक थी)। व्यापार और बैंकों की मिल्कियत हिन्दुओं के हाथों में थी। नागरिक प्रशासन में भी हिन्दू थे। उन पर बादशाही शासन जाने और कम्पनी शासन के आने का कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा।
ऐसी परिस्थिति में जब कम्पनी शासन और नई जमीन्दारी या सामन्ती शोषण के खिलाफ किसानों/रैयतों, कारीगरों और बादशाही फौज से बड़ी तादाद में बेरोजगार हुये (उपरोक्त पुस्तक में अमलेन्दु दे यह संख्या बीस लाख की बताते हैं) फौजियों ने जगह जगह बगावत शुरू किया तो उन बगावतों में बड़ी संख्या में मुसलमान ही थे। जिस सन्यासी विद्रोह पर बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने आनन्दमठ लिखा वह सन्यासी विद्रोह भी वास्तव में सन्यासी-फकीर विद्रोह था और भवानी पाठक और उनके दल से पहले और अधिक बड़े पैमाने पर थे मजनू शाह, उनके चेले और उनका दल (देखिये अयोध्या सिंह रचित ‘भारत का मुक्तिसंग्राम’)। अंग्रेजों के विरोध में हो रहे बगावतों में आम मुसलमान इतनी अधिक संख्या में थे कि सन 1871 में डब्ल्यु॰ डब्ल्यु॰ हन्टर की जो किताब आई ‘द इन्डियन मुसलमान्स’, उसके पहले संस्करण का उपशीर्षक ही था ‘आर दे बाउन्ड इन कॉनसायन्स तो रिबेल अगेन्स्ट द क्वीन?’ (क्या वे रानी के खिलाफ बगावत करने को अपने विवेक से प्रतिबद्ध हैं?)
दूसरी ओर, इन बगावतों के नेतृत्व में स्वाभाविक तौर पर जैसे हिन्दू सन्यासी आये, मुसलमान फकीर आये उसी तरह इसलामी कट्टरता की ओर ले जाने वाली ताकतें भी बड़ी तादाद में आ गई। फराइजी आन्दोलन कुछ भी गैर-इसलामी को छोड़ने का निर्देश दिया और अंग्रेजी सीखना या बंगला को मातृभाषा मानना दोनों उनके लिये गैर-इसलामी था। दूसरी ओर वहाबी आन्दोलन धार्मिक कट्टरता के रास्ते पर चलते हुये भी सन 1857 के गदर को देखते हुये अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद का आह्वान कर दिया। शहरी मध्यवर्ग या सम्पन्न वर्ग के मुसलमानों का बड़ा हिस्सा खुद अंग्रेज-विरोध में हिस्सा न लेते हुये भी अध-मने कदम से आगे बढ़ रहे थे। जिस रास्ते पर वे खुद चल रहे हैं, इसी रास्ते पर जनता भी चले, ऐसा खुला आह्वान वे दे नहीं पा रहे थे। शायद कुछेक को यह भी लग रहा होगा कि जो गाँव गाँव में विरोध व वगावत हो रहे हैं, ये शायद अंग्रेजों के साथ लेनदेन में उनकी तकत को बढ़ायेंगे। बस दो चार मुसलमान विद्वानों की आवाजें मिलती हैं उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध या मध्य में  जो आधुनिक शिक्षा को मुसलमान जनता के बीच फैलाने की बात करते हैं, अंग्रेजी शिक्षा की बात करते हैं, आधुनिक पाठ्यक्रम की बात करते हैं या, अपनी मातृभाषा को बंगला बताते हुये मातृभाषाई शिक्षा-प्रणाली (वर्नाकुलर एजुकेशन) में सब को शामिल होने के लिये आह्वान करते हैं।    
यही कारण थे कि आधुनिक शिक्षा, आधुनिक ज्ञान, आधुनिक मूल्यों के आधार पर सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक सुधार के के रास्ते पर बंगाल के मुसलमान हिन्दुओं से पिछड़ते चले गये। उनमें यह जागरूकता उन्नीसवीं सदी के अन्त में दिखाई पड़ी। मुसलमान नारी की शिक्षा और सामाजिक जड़ता से मुक्ति की दिशा में बीसवीं सदी की शुरुआत में बेगम रोकेया सखावत हुसैन ने जो आत्मत्याग और संघर्ष का उदाहरण पेश किया उसे देखते हुये आज हम उन्हे ‘रोकेया माता’ की संज्ञा देते हैं; उन्हे ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की सबसे महान शिष्या मानते हैं।
बांग्लादेश के प्रख्यात विद्वान अहमद शरीफ ने लिखा:
“बंगाली मुसलमान समाज में एक भी, राममोहन की तरह संशयवादी, अन्तरराष्ट्रीय चेतना से लैस कर्मयोगी या विद्यासागर की तरह मानवहितवादी, नास्तिक, जुझारू पुरूष का जन्म नहीं हुआ। शायद जिस प्रकार के समय की जरूरत पर राममोहन-विद्यासागर का आविर्भाव हुआ, प्रतीच्य-चेतना से विमुख मुसलमान समाज को उस प्रकार के समय का एहसास नहीं हुआ। या, राममोहन-विद्यासागर ने समाज के लिये जो कुछ किया, उन कामों ने, जागरण का पल आने पर, प्रतीच्य ज्ञानप्राप्त मुसलमान समाज को भी दिशा दिखाया था। कौन अस्वीकार करेगा कि अनुगामियों के लिये चलने का रास्ता मार्गनिर्माताओं से अधिक स्वच्छंद होता है। बंगाली मुसलमान अपने पड़ोसी के पीछे चलने वाला था इसीलिये अनायास ही कई समस्याओं समाधान अनुकरण द्वारा पा गया था। फिर भी, शायद सवाल रह जाता है – राममोहन एवं विद्यासागर की तरह काल-प्रत्याशित, मुक्तचित्त-द्रोही एवं नास्तिक-मानववादी की अनुपस्थिति, मुसलमान समाज के लिये सौभाग्य था या दुर्भाग्य?” [विद्यासागर, अह्मद शरीफ, पथिकृत पत्रिका, ईश्वरचन्द्र विशेष संख्या, अक्तूबर 1991]    



॥ 17 ॥ उद्यमिता के क्षेत्र में


संस्कृत के प्रखरतम विद्वान, शिक्षक, पाठ्यक्रमों के निर्माता, पाठ्यपुस्तकों के रचयिता, बांग्ला गद्य को साहित्य के लायक बनाने वाला, वर्णमाला का सुधार करने वाला, अंग्रेज सरकार की मदद से एवं कुछ मदद के बिना सौ से उपर बालक विद्यालयों एवं चालीस के उपर बालिका विद्यालयों के संस्थापक, एक महाविद्यालय के संस्थापक, आजीवन जनसेवा व जनकल्याण को निवेदित प्राण तथा सर्वांगीण नारीमुक्ति के लिये संघर्षकारी व्यक्तित्व थे विद्यासागर। इसके आगे फिर उद्यमिता की ओर कदम बढ़ाने वाली बात अचरज पैदा करती है। और, जरूरत भी क्या बनती है इस पुस्तक में जिक्र करने की? क्या आज के सन्दर्भ में इस क्षेत्र में उनके काम को रेखांकित करने की कोई आवश्यकता है?
बेशक। हम मानते हैं कि आवश्यकता है। आज उद्यमिता का अर्थ तक बदल गया है। लेकिन युवाओं में उद्यमिता के उत्साह का बढ़ना जरुरी है।
संस्कृत प्रेस डिपोजिटरी
सन 1847 के अप्रैल महीने में विद्यासागर ने संस्कृत कॉलेज की अपनी पहली दफा की नौकरी से इस्तीफा दिया। कारण था प्रशासन से मतविरोध। उसी समय, शायद नौकरी छोड़ने की संभावना को देखते हुये, अपने अग्रज मित्र (उम्र में तीन साल बड़े) मदन मोहन तर्कालंकार के साथ मिल कर आधा-आधा के मिल्कीयत पर उन्होने एक छापाखाना खोला, नाम था संस्कृत प्रेस। इसके लिये उन्होने 600 रुपये का कर्ज लिया जो बाद में चुकता किया गया। आगे, उस छापाखाना में छपे पुस्तकों के भंडारण के लिये एक ग्रंथ-भंडार या डिपोजिटरी भी खोला गया। यह डिपोजिटरी धीरे धीरे पुस्तकों का दुकान बन गया जिसमें संस्कृत प्रेस में छपे लेखकों के अलावा अन्य लेखकों के पुस्तक भी रखे जाते थे। पूरा छापाखाना एवं भंडार एक ही नाम से परिचित हुआ, ‘संस्कृत प्रेस ऐन्ड डिपोजिटरी’ या ‘संस्कृत प्रेस डिपोजिटरी’। पाठक विकिपिडिया में ढूंढ़ेंगे इस छापाखाना का लगभग पूरा वृत्तांत मिल जायेगा। लेकिन विकिपिडिया के उस पृष्ठ पर छापाखाने का तत्कालीन पता नहीं मिलेगा। शायद किसी जीवनीग्रंथ में यह पता दिया हो, लेकिन हमें वह पता फेसबुक पर गौतम बसुमल्लिक द्वारा 9 जून 2011 को किये गये पोस्ट से मिला। बाद में दिखा कि बंगला ‘एइ समय’ अखबार ने इस सम्बन्धित एक खबर के लिये तथ्यों का स्रोत गौतम बसुमल्लिक को ही दर्शाया है। गौतम बसुमल्लिक अपने पोस्ट में, कलकत्ता निवास के दौरान विद्यासागर के आवासों की चर्चा करते हुये लिखते हैं, “मित्र मदनमोहन तर्कालंकार के साथ विद्यासागर जिस घर में संस्कृत प्रेस एवं संस्कृत प्रेस डिपोजिटरी के नाम से छापाखाना एवं प्रकाशन संस्था खोले थे, उस संस्था का कार्यालय 63, अमहर्स्ट स्ट्रीट वाले मकान में भी विद्यासागर कुछ दिनों तक जीवन व्यतीत किये हैं। वह मकान अब ध्वस्त हो चुका है।”
इस छापाखाने में छपे पहले पुस्तक का नाम है ‘अन्नदामंगल’। बंगाल के तत्कालीन प्रख्यात कवि भारतचन्द्र (या भारतचन्द्र राय गुणाकर: 1712 - 1760) द्वारा रचित इस काव्य को बंगला साहित्य के इतिहास में ऊँचा स्थान प्राप्त है। भारतचन्द्र मध्ययुग के अंतिम कवि एवं आधुनिक काल के अग्रदूत माने जाते हैं।
इस पुस्तक का एक दुर्लभ पाण्डुलिपि कृष्णनगर के जमींदारों के पास सुरक्षित था। विद्यासागर ने उनसे इस पाण्डुलिपि को संग्रह किया। इस बारे में एक कहानी विद्यासागर के जीवनीकार इन्द्र मित्र यूँ बताते हैं:
“संस्कृत प्रेस के लिये कर्ज लेना पड़ा है। छ: सौ रुपयों का कर्ज।
“बात बात में एकदिन विद्यासागर ने मार्शल साहब को कहा – हमलोगों ने एक छापाखाना खोला है। अगर कुछ छपवाने की जरूरत पड़े तो कहियेगा।
“मार्शल साहब ने कहा - फोर्ट विलियम कॉलेज के छात्रों को भारतचन्द्र का ‘अन्नदामंगल’ पढ़ाना पड़ता है। जो किताब पढ़ाया जाता है उसका कागज और छपाई दोनों खराब है। बहुत सारी गलतियाँ भी हैं। तुम अगर कृष्णनगर के राजमहल से असली ‘अन्नदामंगल’ की पाण्डुलिपि ला कर उसकी अशुद्धियाँ दूर कर जल्द से जल्द किताब छाप सको तो फोर्ट विलियम कॉलेज के लिये मैं सौ किताबें लूंगा, कीमत में छ:सौ रुपये दूंगा।
“वही किया विद्यासागर ने।”
उसी छ: सौ रुपये से कर्जा चुकाने के बाद संस्कृत प्रेस से दूसरा पुस्तक छपा विद्यासागर का अपना ही लिखा हुआ ‘बेताल पचविंशति’। मूल पारम्परिक संस्कृत लोक-आख्यान के तत्कालीन हिन्दी संस्करण पर आधारित। फोर्ट विलियम कॉलेज के प्रबंधन द्वारा इस पुस्तक की सौ प्रतियाँ खरीदी गई। तीन सौ रुपये की कीमत पर। बाकी प्रतियाँ दोस्तों को उपहार में बाँटी गई।
यहाँ बता दें कि ‘बेताल पचविंशति’ विद्यासागर द्वारा रचित दूसरा पुस्तक लेकिन छपा हुआ पहला है। इसके पहले रचित ‘बासुदेव चरित’ उनके जीवनकाल में छपा नहीं। शायद ‘बेताल पंचविंशति’ भी नहीं छपता। फोर्ट विलियम कॉलेज में पहली बार नौकरी करते समय ही कॉलेज के प्रबन्धन ने उन्हे बंगला में छात्रों के लिये उपयोगी, सरल व बढ़िया गद्य-पुस्तक लिखने का अनुरोध किया था। उसी के बाद उन्होने पहले ‘बासुदेव चरित’ लिखा। लेकिन, शायद धार्मिक आख्यान होने के कारण कॉलेज के प्रबंधन ने उसे स्वीकार नहीं किया। बाद में, जब विद्यासागर का अपना छापाखाना हुआ, तब इस पुस्तक की पाण्डुलिपि कहीं गुम हो चुकी थी। उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र ने इस पाण्डुलिपि को ढूंढ़ कर निकाला।
फिर से, पाठ्यपुस्तक लिखने की, मार्शल साहब के अनुरोध पर विद्यासागर ने ‘बेताल पंचविंशति’ का लेखन शुरु किया। ‘बेताल पंचविंशति’ की रचना करते समय आधार-स्वरूप उनके सामने दो पुस्तकें थीं। पहला, शिवदास भट्ट रचित संस्कृत ‘बेताल पंचविंशका’ एवं दूसरा, फोर्ट विलियम कॉलेज के ही हिन्दी शिक्षक लल्लु लाल रचित ‘बेताल पचीसी’। संस्कृत के पंडित होते हुये भी विद्यासागर ने आधार-स्वरूप संस्कृत पुस्तक को न चुन कर हिन्दी पुस्तक को चुना। इसके कई कारण रहे होंगे। पहला तो यही कि उन्होने इसी कॉलेज में योगदान के बाद, शायद लल्लू लाल से ही हिन्दी सीखा था; तो यह गुरुप्रणाम था। दूसरा, हिन्दी उन्होने कितना और कैसा सीखा इसका आत्मपरीक्षण भी था। तीसरा, हिन्दी पुस्तक हाल की रचना होने के कारण जमाने के अनुरूप कई शोधन उसमें हो चुके थे। कॉलेज के प्रबंधन को यह पुस्तक भी स्वीकार्य नहीं हुआ। तब विद्यासागर ने पुस्तक की पाण्डुलिपि को श्रीरामपुर के योरोपीय मिशनरियों के पास भेजा जिनका बंगला भाषा के लिये किया गया काम आज इतिहास है। वहाँ थे मार्शमैन साहब, जोशुआ मार्शमैन, बहुभाषाविद, जिन्होने विलियम कैरी के साथ मिल कर रामायण का अंग्रेजी अनुवाद किया था, बाइबल का कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया था एवं श्रीरामपुर कॉलेज की स्थापना किया था। अंग्रेजी के बजाय स्थानीय भाषा में शिक्षा के वह प्रबल पक्षधर थे। उन्होने विद्यासागर द्वारा रचित ‘बेताल पंचविंशति’ को उस समय तक प्रकाशित बंगला गद्य-पुस्तकों में सर्वश्रेष्ठ कहा। तब जा कर फोर्ट विलियम कॉलेज के प्रबंधन ने उसे पाठ्यपुस्तक के रूप में स्वीकार किया।
विद्यासागर ने बंगला गद्य को इतना सरल व कलात्मक रूप दिया था कि चुटकुला चल पड़ा - एक विद्वान व्यक्ति किसी की गद्य रचना पढ़ कर बोले “अरे, यह तो तुमने विद्यासागरी गद्य लिख दिया है, सब कुछ समझ में आ रहा है!”      
खैर, आगे हम विकिपिडिया से लेते हैं, “सन 1849 में मदन मोहन तर्कालंकार ने ‘शिशुशिक्षा’ के नाम से बच्चों के लिये एक चित्रित पुस्तक माला लिखना शुरु किया [जिसकी छपाई संस्कृत प्रेस में होने लगी – अनु॰] इस पुस्तकमाला का तीसरा पुस्तक था विद्यासागर रचित ‘बोधोदय’ (1850)। ‘बोधोदय’ के साथ, संस्कृत प्रेस को अपने प्रयोगों के प्रयोगशाला के रूप में इस्तेमाल करते हुये, बंगला प्राथमिक शिक्षा के आधुनिकीकरण व सुधार हेतु विद्यासागर की परियोजना शुरू हुई।”
हालाँकि इधर, सन 1981 में प्रकाशित एक संकलन ‘बांग्ला मुद्रण ओ प्रकाशन’ (चित्तरंजन बंदोपाध्याय सम्पादित) में निखिल सरकार रचित एक निबंध है ‘आदिजुगेर पाठ्यपुस्तक’। उक्त निबंध के अनुसार शिशुशिक्षा पुस्तक माला का तीसरा पुस्तक भी मदन मोहन तर्कालंकार का लिखा हुआ था जो 1950 में प्रकाशित हुआ। ‘बोधोदय’ उस पुस्तकमाला का चौथा पुस्तक था और एक पाँचवाँ पुस्तक भी प्रकाशित हुआ था सन 1851 में, जिसके लेखक थे राजकृष्ण बंदोपाध्याय।
सन 1850 में मदन मोहन तर्कालंकार संस्कृत कॉलेज के साहित्य-अध्यापक की नौकरी छोड़ कर ‘जज-पंडित’ का पद ग्रहण कर मुर्शिदाबाद चले गये। विद्यासागर के जीवनीकार यह बताते हैं कि संस्कृत प्रेस कुछ दिनों तक साथ साथ चलाने के बाद मदन मोहन तर्कालंकार के साथ विद्यासागर का मतांतर हुआ। किस बात को लेकर, पता नहीं चलता है। कब हुआ यह भी नहीं पता चलता है। जीवनीकार बिहारीलाल सरकार कहते हैं, “विद्यासागर महाशय एवं मदन मोहन तर्कालंकार महाशय दोनों इस छापाखाना के बराबर के हिस्सेदार थे। कुछ ही दिनों के अन्दर मदन मोहन तर्कालंकार के साथ विद्यासागर महाशय का मतांतर हुआ। विद्यासागर महाशय किसी कारण से तर्कालंकार महाशय पर नाराज होकर उनके साथ सारा सम्बन्ध त्यागना चाहे। स्वर्गीय श्यामाचरण विश्वास एवं स्वर्गीय राजकृष्ण बंदोपाध्याय महाशय ने सुलह कर विवाद समाप्त किया। प्रेस विद्यासागर महाशय की सम्पत्ति बनी।”
बंगला पाठ्यपुस्तक के प्रकाशन में उसके पहले तक अंग्रेजों और खास कर मिशनरियों का ही बोलबाला था, जिसमें प्रमुखतम था स्कूल बुक सोसायटी। अधिकांश पाठ्यपुस्तकें इसी प्रकाशन संस्था से छपते थे। कुछेक देशी छापाखाने तो थे ही पर उन छापाखानों से पाठ्यपुस्तकें कम निकलती थी। साथ ही उन पाठ्यपुस्तकों में और संस्कृत प्रेस में छपने वाले पाठ्यपुस्तकों में गुणात्मक अन्तर था। उपरोक्त निबन्धकार निखिल सरकार लिखते हैं, “खास कर उन्नीसवीं सदी के पाँचवें दशक में स्कूल बुक सोसायटी से अधिक ख्याति थी संस्कृत प्रेस की। एक वर्णन में देख रहे थे कि सन 1857 यानि महाविद्रोह के वर्ष में संस्कृत प्रेस 84,200 प्रति [विभिन्न पुस्तकों का कुल – अनु॰] प्रकाशित किया है जबकि सरकारी अनुदान मिलने के बावजूद स्कूल बुक सोसायटी उस वर्ष महज 32,000 प्रतियाँ छाप पाई है।”  
प्रेस के मालिक थे दो पाठ्यपुस्तक रचयिता, विद्यासागर एवं मदन मोहन तर्कालंकार। लेकिन बंगला पाठ्यपुस्तकों की रचना में क्रांति लाने का श्रेय इन दोनों के साथ एक तीसरे व्यक्ति को भी बराबर मिलना चाहिये। वह हैं अक्षय कुमार दत्त। विद्यासागर के हम-उम्र तथा महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर की पत्रिका ‘तत्ववोधिनी’ के सम्पादन के दिनों से मित्र यह लेखक बच्चों के लिये बंगला में विज्ञान के पुस्तकों के पहले गंभीर रचयिता थे। निखिल सरकार ने पाठ्यपुस्तक के लेखन में इन तीनों को ‘ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर’ का नाम दिया है। एवं संस्कृत प्रेस उनके द्वारा रचित पाठ्यपुस्तकों को भी छापता रहा। सन 1856 में संस्कृत प्रेस ने ही छापा उनका ‘पदार्थविद्या (जड़ेर गुण ओ गतिर नियम), यानि भौतिकविज्ञान (पदार्थ के गुण एवं गति के नियम)। अंग्रेजी में उसका नाम रखा गया था ‘एलिमेन्ट्स ऑफ नैचुरल फिलॉसॉफी (मैटर ऐन्ड मोशन)। पुस्तक की भूमिका में लेखक ने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर एव अमृतलाल मित्र के प्रति आभार व्यक्त किया है।
अक्षय कुमार दत्त द्वारा रचित ‘प्रकृतिर सम्बन्ध विचार’, ‘धर्मनीति, प्रथम भाग’ (प्रिन्सिपल्स ऑफ मोराल्स), ‘भारतवर्षीय उपासक सम्प्रदाय’ आदि पुस्तकें भी लगातार संस्कृत प्रेस डिपोजिटरी से प्रकाशित होती रही।
सन 1855 में विद्यासागर का ‘वर्णपरिचय’ पहला भाग प्रकाशित हुआ। यह पुस्तक बंगला वर्णमाला के साथ साथ बंगला भाषाशिक्षण की पूरी पद्धति को ही बदल दिया। मदनमोहन तर्कालंकार रचित ‘शिशुशिक्षा’ पुस्तकमाला के साथ ‘वर्णपरिचय’ ने मिल कर बंगला पाठ्यपुस्तक मुद्रण में संस्कृत प्रेस की भूमिका को भी बदल दिया। पूर्व-उद्धृत निबन्धकार निखिल सरकार बताते हैं:
“विद्यासागर रचित ‘वर्णपरिचय’ के पहले भाग का प्रकाशन हुआ 1855 ईसवी में। दूसरा भाग भी उसी साल। 1890 ईसवी तक ‘शिशुशिक्षा’ के पहले भाग के 149 संस्करण प्रकाशित हुये। … 1889 तक दूसरे भाग के 84 संस्करण हुये। … 1890 तक ‘शिशुशिक्षा’ तीसरे भाग के 101 संस्करण प्रकाशित हुये। … दूसरी ओर, पहला प्रकाशन के बाद 1890 ईसवी तक ‘वर्णपरिचय’ प्रथम भाग के 152 संस्करण हुये। (1855 से 1857 ईसवी के बीच प्रकाशित हुये 9 संस्करणों में प्रतियों की कुल संख्या थी 53 हजार)। … 1890 तक ‘वर्णपरिचय’ के दूसरे भाग के 140 संस्करण हुये। ‘बोधोदय’ … पहली बार प्रकाशित हुआ 1851 में। 1890 तक इसके 106 संस्करण प्रकाशित हुये। … विद्यासागर रचित एक और पुस्तक ‘कथामाला’ पहली बार प्रकाशित हुआ 1856 ईसवी में। 1890 तक इसके 51 संस्करण हुये।”
इसी से पता चलता है कि उद्यमिता का यह जोखिम भरा कदम उठा कर विद्यासागर किस तरह सफलता के मार्ग पर अग्रसर हुये।
सुबल चन्द्र मित्र रचित विद्यासागर के जीवनी में लिखते हैं कि जब उन्होने सरकारी नौकरी छोड़ दी, तब उन्हे इस व्यवसाय की ओर ध्यान देने का अवसर मिला। प्रेस बड़ा हो रहा था, कई लोग उसमें काम करने लगे थे – उनकी रोजीरोटी थी यह छापाखाना और किताब की दुकान। लेकिन विद्यासागर छापाखाना के “मुख्य अधिकारी के आचरण एवं कामकाज से बहुत असंतुष्ट हुये। बही खातों का रखरखाव सही ढंग से नहीं हो रहा था एवं सब कुछ अव्यवस्थित था। अत: उन्होने अपने मित्र राजकृष्ण से डिपोजिटरी के व्यवसाय का निरीक्षक बनने को कहा। राजकृष्ण उस समय फोर्ट विलियम कॉलेज में 80 रुपयों के मासिक वेतन पर हेड असिस्टैन्ट के पद पर कार्यरत था। वह छ: महीने की छुट्टी लेकर डिपोजिटरी के प्रबन्धन के निरीक्षण में जुट गया। इन छ: महीनों में राजकृष्ण मेहनत और लगन के साथ बही खातों का परीक्षण किया एवं उसे साफसुथरा किया। काफी कोशिशों के बाद वह छापाखाना एवं दुकान को पूरी तरह व्यवस्थित करने में सफल हुये। व्यवसाय जल्द ही तरक्की के रास्ते पर आई और बही खाते ही उसकी अग्रगति को बता रहे थे। विद्यासागर के पिता राजकृष्ण के प्रबन्धन से इतना खुश हुये कि उन्होने राजकृष्ण को फोर्ट विलियम कॉलेज से इस्तीफा दे कर स्थाई तौर पर डिपोजिटरी का सुपरिन्टेन्डेन्ट बन जाने को कहा। विद्यासागर ने भी उन्हे ऐसा ही करने को उत्साहित किया। फलस्वरूप, राजकृष्ण स्थाई तौर पर डेढ़ सौ रुपये की तनख्वाह पर संस्कृत प्रेस डिपोजिटरी के मैनेजर नियुक्त हो गये। डिपोजिटरी बहुत तेजी से विकासमान एवं लाभदायी व्यवसाय बन गया।”
व्यवसाय इतना बढ़ा कि जब सरकारी नौकरी में उनकी तनख्वाह संस्कृत कॉलेज के प्राचार्य का वेतन और विद्यालयों के विशेष इंसपेक्टर का वेतन मिलाकर कुछेक सौ रुपये होता था, पुस्तक मुद्रण व बिक्री के व्यवसाय से आय हजारों में होने लगा। हालाँकि, इस लाभदायी व्यवसाय का ‘लाभ’ विद्यासागर को नहीं मिला। इतने दानी थे कि आगे चलकर अपने दानों के कारण और अपने खर्च से विधवाओं के किये गये विवाह-आयोजनों के कर्ज के कारण संस्कृत प्रेस डिपोजिटरी को बेच देना पड़ा।
सन 1828 के नवम्बर महीने में आठ साल की उम्र में बालक ईश्वर कलकत्ता आये थे संस्कृत कॉलेज में भर्ती होने के लिये। उसके बाद से सन 1891 के 29 जुलाई को हुये उनकी मृत्यु तक के 63 वर्षों में 49 वर्षों तक वह विभिन्न किराये के मकानों में या किसी का अतिथि बन कर बिताये। आखिर के 18 वर्षों में, यानि सन 1872 के बाद वह कर्माटाँड़ के नन्दन कानन में या उसके कुछ वर्षों बाद खरीदे गये बादुड़ बागान के मकान में रहे।
विद्यासागर काम के हर क्षेत्र में नये कदम उठाने वाले व्यक्ति थे। जिस तरह उन्होने वर्णमाला का सुधार किया उसी तरह बंगला छापाखाने का भी सुधार किया। निखिल सरकार लिखते हैं, “कहा जाता है कि पाठ्यपुस्तक के हरफ एवं युक्ताक्षरों के लिपिचित्रों में समानता लाने के लिये वह श्रीरामपुर स्थित अधर टाइप फाउन्ड्री तक पहुँच गये थे।”
सोमप्रकाश एवं हिन्दू पैट्रियट
उद्यमिता और उद्यमिता के जरिये समाज को आगे बढाने के काम का एक और मिसाल है ‘सोमप्रकाश’ पत्रिका की शुरुआत एवं ‘हिन्दू पैट्रियट’ पत्रिका का अधिग्रहण।
सन 1858 के नवम्बर महीने में विद्यासागर विद्यालयों के विशेष निरीक्षक के पद से इस्तीफा दिये। दो महीने तक अंग्रेज सरकार, खास कर लेफ्टेनैन्ट गवर्नर हैलिडे उन्हे मनाने की कोशिश करते रहे पर विद्यासागर नहीं माने, क्योंकि डाय्रेक्टर ऑफ पब्लिक इन्स्ट्रकशन गॉर्डन यंग उद्धत ढंग से पेश आ रहे थे, और साथ ही विद्यासागर द्वारा खोले गये बालिका विद्यालयों का खर्च सरकार देने को राजी नहीं हो रही थी। उधर उनके प्रयासों से सरकार ने विधवाविवाह कानून बनाया था, वह खुद विधवाओं के विवाह खुद खड़ा होकर दे रहे थे, लेकिन वह बंगला अखबार एवं पत्रपत्रिकाओं की दुनिया में एक अभाव महसूस कर रहे थे। महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा प्रकाशित ‘तत्वबोधिनी’ पत्रिका या अन्य पत्रिकायें तब पहले वाली स्थिति में नहीं थी। अंग्रेजी में हरीशचन्द्र मुखर्जी द्वारा सम्पादित ‘हिन्दू पैट्रियट’ तो शानदार तरीके से अंग्रेजी पत्रकारिता की दुनिया में सामाजिक सुधार एवं प्रारंभिक राष्ट्रवादी विचारों के प्रसार में अपनी जगह बना रहा था। बंगला में खालीपन था। बालविवाह, कुलीन प्रथा यानि बहुविवाह आदि सवालों को लेकर जनमत तैयार करने के लिये एक अखबार या सामयिकपत्र की आवश्यकता थी।
दूसरी ओर, दिमाग के किसी कोने में एक दूसरा सवाल भी कुरेद रहा था। कुछ दिनों पहले शारदा प्रसाद गांगुली नाम के एक व्यक्ति विद्यासागर से मिलने आये थे। वह कभी संस्कृत कॉलेज के ही अच्छे छात्र थे, संस्कृत एवं हिन्दी के ज्ञान के कारण छात्रवृत्ति भी मिलती रही थी। लेकिन दुर्भाग्य से उनकी श्रवणशक्ति लुप्त हो चुकी थी। विद्यासागर से उन्होने अनुरोध किया था कि उनकी रोजीरोटी की कुछ व्यवस्था कर दी जाय।  
ईश्वरचन्द्र, संस्कृत कॉलेज के एक सहकर्मी, अध्यापक द्वारकानाथ विद्याभूषण के साथ बातचीत करने लगे कि एक साप्ताहिक समाचारपत्र प्रकाशित किया जाय। द्वारकानाथ भी राजी हो गये। विद्यासागर के पास अभी पुस्तकों की बिक्री आदि से इतना पैसा आ रहा था कि साप्ताहिक पत्र निकल सकता था। सन 1858 के 15 नवम्बर को ‘सोमप्रकाश’ का प्रकाशन शुरू हुआ। जीवनीकार सुबल चन्द्र मित्र कहते हैं कि शारदा प्रसाद गांगुली ‘सोमप्रकाश’ के प्रकाशक बनाये गये ताकि उन्हे इसका लाभ मिल सके। हालाँकि, आगे के सुचना-स्रोतों से यह प्रतीत होता है किसी कारणवश शारदा प्रसाद गांगुली इससे जुड़े नहीं रह सके और समाचारपत्र का पूरा भार द्वारकानाथ विद्याभूषण पर पड़ गया। द्वारकानाथ विद्याभूषण ब्राह्मोसमाज के यशस्वी नेता व समाज-सुधारक शिवनाथ शास्त्री के मामा थे। अपने ‘आत्मचरित’ में, बचपन के कुछ दिन मामा के घर में बिताने का संस्मरण सुनाते हुये शिवनाथ शास्त्री लिखते हैं, “यहाँ ईश्वरचन्द्र विद्यासागर हमेशा ही आते थे, और मेरे मामा के साथ कुछ सलाह-मशविरा करते थे। बाद में सुनने को मिला, ‘सोमप्रकाश’ नाम से एक अखबार प्रकाशित होगा उसी की बातचीत चल रही है। सन 1858 में ‘सोमप्रकाश’ अखबार प्रकाशित हुआ।”
‘आत्मचरित’ सन 1918 में पहली बार प्रकाशित हुआ था। कई वर्षों बाद साधारण ब्राह्मोसमाज द्वारा प्रकाशित एक संस्करण में सम्पादक ने मूल ग्रंथ के साथ कुछ संयोजन जोड़ा है। ‘सोमप्रकाश, द्वारकानाथ विद्याभूषण एवं शिवनाथ शास्त्री’ शीर्षक दूसरे संयोजन में ‘द हिन्दू पैट्रियट’ अखबार के 9 जनवरी 1865 संख्या में प्रकाशित किसी लेख से ‘सोमप्रकाश’ के पहले वर्ष की पहले संख्या के बारे में लिखी गई बातें उद्धृत की गई है, “The Shome Prokash was first projected by Pundit Eswar Chunder Vidyasaghar, and we believe the first number was written by him।” आगे उसी संयोजन में स्वतंत्रता संग्रामी बिपिन चन्द्र पाल रचित ‘मेमॉयर्स ऑफ माइ लाइफ ऐन्ड टाइम्स’ के पृ॰ 306-307 से उद्धृत किया गया है, “Somprakash was, however, a professedly political newspaper and it had always been absolutely outspoken in its criticism of public policies and measures.”
शिवनाथ शास्त्री अपने दूसरे ग्रंथ ‘रामतनु लाहिड़ी ओ तत्कालीन बंगसमाज’ में उस समय के बंगाल अखबारों की स्थिति की चर्चा करते हैं। ‘तत्वबोधिनी’ पत्रिका मुख्यत: धर्मतत्व की चर्चा करती थी जबकि आपसी गाली-गलौज, भोंडे मजाक आदि की ही प्रधानता थी दूसरे अखबारों या पत्रिकाओं में। “ऐसे माहौल में सोमप्रकाश का आविर्भाव हुआ। उस दिन की बात हमें अच्छी तरह याद है। इस अखबार को किसने निकाला, इस अखबार को किसने निकाला का शोर मच गया। जितनी ललित भाषा, उतनी ही विषय की गंभीरता। समाचारपत्र के लिये यह एक नया रास्ता था, बंगसाहित्य में एक नये युग का प्रारंभ हुआ। … अखबार साप्ताहिक था, वार्षिक शुल्क था दस रुपया, वह भी अग्रिम में देय। फिर भी देखते देखते सारी प्रतियाँ उठ गईं। … सोमप्रकाश के बाद और कई बंगाल साप्ताहिक पत्रिका प्रकाशित हुई है। भाषा की चमक और रचना की निपुणता और अधिक हुई है, राजनीति की चर्चा कई गुणा बढ़ी है, लेकिन तत्कालीन सोमप्रकाश की जगह कोई नहीं ले पाया है।”
नि:सन्देह इस साप्ताहिक पत्र की ऐतिहासिक भूमिका का सारा श्रेय इसके सम्पादक द्वारकानाथ विद्याभूषण को जाता है लेकिन इसकी पूरी प्राथमिक परिकल्पना ईश्वरचन्द्र विद्यासगर की थी। सिर्फ आर्थिक नहीं बल्कि लेखकीय सहयोग भी उन्होने किया।
14 जून 1861 तारीख को हिन्दू पैट्रियट अखबार के योग्य सम्पादक व मालिक एवं भारतीय पत्रकारिता जगत के प्रारम्भिक यशस्वियों में से एक हरीशचन्द्र मुखर्जी का निधन हो गया। अखबार पर आये संकट को देख कर बाबु कालीप्रसन्न सिंहो, जो अमीर बाबू होते हुये भी बंगाल के नवजागरण के प्रमुख नामों में से एक हुये, ने ‘हिन्दू पैट्रियट’ को छापाखाना सहित पाँच हजार रुपये में खरीद लिया। उपरोक्त कालीप्रसन्न सिंहो की कालजयी कृति है व्यंगात्मक सामाजिक शब्दचित्रों का संकलन ‘हुतोमपेंचार नक्शा’ एवं व्यासकृत ‘महाभारत’ का पूर्णांग बंगला अनुवाद, जिसके कारण उनका नाम बंगाल के साहित्यिक महकमों में आज भी लोकप्रिय है।  
कालीप्रसन्न सिंहो कुछ दिनों तक इसके घाटे सहे। उसके बाद उन्होने विद्यासागर से बात किया। विद्यासागर इसे चलाने का जिम्मा लिये और एक सक्षम आदमी कृष्टोदास पाल को इसका सम्पादक बनाया। कृष्टोदास पाल भी इसके योग्य सम्पादक निकले और आगे इसे चलाते रहे। विद्यासागर के जीवनीकार सुबल चन्द्र मित्र ने सी॰ई॰बकलैन्ड रचित ग्रंथ ‘बेंगॉल अन्डर लेफ्टेनैन्ट गवर्नर्स’ से उद्धृत किया है, “जब हरीश चन्द्र मुखर्जी, हिन्दू पैट्रियट के संस्थापक, का दिनांक 14 जून 1861 को निधन हो गया, इसके नये मालिक बाबु कालीप्रसन्न सिंहो, कुछ दिनों तक घाटे सहते हुये इसका प्रबन्धन चलाने के उपरांत इसे पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर को सौंप दिये। विद्यासागर ने 1861 में कृष्टोदास पाल को इसका सम्पादकीय दायित्व निभाने का आमंत्रण दिया और बाद में, जुलाई 1862 में इस अखबार का मालिकाना एक ट्रस्टी संस्था को सौंप दिया। उक्त ट्रस्टियों ने अखबार का प्रबन्धनभार भी कृष्टोदास पाल को दिया जो अपने मृत्यु तक इसके सम्पादक रहे तथा अखबार को प्रभावशाली बनाने के साथ साथ आर्थिक लाभ की ओर ले गये।”
सुबल चन्द्र मित्र आगे लिखते हैं, “कृष्टोदास का उस समय तक लेखक के रूप में कोई ख्याति नहीं थी। किसी को यह एहसास नहीं था कि आगे चल कर ये इतने बड़े लेखक बनेंगे। इसलिये, विद्यासागर द्वारा ऐसे आदमी को सम्पादकीय दायित्व दिया जाना सबको आश्चर्यचकित किया था। लेकिन जल्द ही उन्होने अपनी गलती महसूस की और एक योग्य व्यक्ति के चयन के लिये बुद्धिमान विद्यासागर की भूरी भूरी प्रशंसा की।” (हालाँकि, आगे चल कर विद्यासागर ने कुछ कारणों से हिन्दू पैट्रियट से खुद को पूर्णत: अलग कर लिया था)।





॥ 16 ॥ वैज्ञानिक व तर्कपूर्ण सोच


विद्यासागर सामान्य अर्थों में विचारों के प्रचारक नहीं थे। जूझे गये सामाजिक संघर्षों के लिये आवश्यक युक्तियों और तर्कों के अलावा उन्होने वैचारिक बातें नहीं के बराबर की। चाहे किसी विद्वान आदमी के साथ हों या अनपढ़ के साथ, वह या तो काम की बात करते थे या नहीं तो निर्मल हास्य की बातें।
रामकृष्ण परमहंस के दैनिक जीवनचर्या (जिसे भक्तलोग लीला कहते हैं) के कुछ प्रसंगों पर आधारित सुविख्यात पुस्तक ‘रामकृष्ण कथामृत’ के रामकृष्ण परमहंस का विद्यासागर के साथ मुलाकात का प्रसंग है। श्रीरामकृष्ण परमहंस के यह कहने पर कि ‘आज सागर के पास आया हूँ। अब तक तो नहर, झील और नदियों के पास गया था। अब सागर को देख रहा हूँ।’ विद्यासागर ने कहा, “अब आये हैं तो थोड़ा नमकीन पानी ले जाइए।”   
कभी कभी उस हास्य में तीव्र श्लेष हुआ करता था। कहा जाता है कि जब विधवाविवाह के सवाल पर आन्दोलन का नेतृत्व देने के कारण वह कर्ज में डूब रहे थे (यहाँ तक कि सरकारी नौकरी त्याग देने के बरसों बाद उन्हे दोबारा सरकारी नौकरी के लिये व्यक्तिगत अनुरोध करना पड़ा था, जो संयोगवश हो नहीं पाया), एवं उन पर जानलेवा हमले भी हो रहे थे, तब, अधिक उम्र की एक व्यक्ति के साथ एक कन्या के विवाह में निमंत्रित के तौर पर पहुँच कर उन्होने कन्या को आशीर्वाद देते हुये कहा, “…… आयुष्मति होवो, विधवा होवो, ताकि मैं दोबारा तुम्हारा विवाह दे सकूँ!”    
पुलिस के एक अधिकारी ने व्यक्तिगत समस्या से घिर कर उनसे रुपये कर्ज में लिये थे। घर में रुपये न होने के बावजूद उन्होने रुपये जुगाड़ कर दिये। बाद में, जब वह अधिकारी रुपये लौटाने के लिये पहुँचे तो विद्यासागर नकली क्षुब्ध भाव चेहरे पर लाकर बोले, “तुम मेरे साथ इतना बड़ा अन्याय कर सके? तुम तो पुलिस के आदमी हो!” वह अधिकारी को भौंचक देख कर विद्यासागर ने कहा, “आज तक तो कोई मेरा दिया हुआ कर्ज वापस करने आया नहीं! मैं तो समझता था कि यही न्याय है!”
अगर किसीने कहा कि विद्यासागर, अमुक आपकी निन्दा में यह यह बोल रहा था, तो विद्यासागर कहते थे, “जरा याद करने दो कि मैंने उसका कब क्या उपकार किया था।”
साहित्य में भी, तार्किक विचारों या सैद्धान्तिक प्रसंगों से बाहर उनकी भाषा हास्यमय होती थी। खास कर यह भाव उन पुस्तकों में दिखता है जो, विधवाविवाह या बहुविवाह के खिलाफ आवाज उठाने के कारण, उन पर पंडितों द्वारा हो रहे साहित्यिक आक्रमण के खिलाफ लिखे थे।
रवीन्द्रोत्तर काल के प्रसिद्ध लेखक प्रमथनाथ बिशी लिखते हैं, “ईश्वरचन्द्र सिर्फ विद्यासागर या करूणासागर नहीं, रससागर भी थे। बंगाल के सर्वश्रेष्ठ wit थे वे एवं polemics की रचना के वह राजा थे यह बात तो शायद आज कोई अस्वीकार नहीं करेगा।”
खैर, हम विषय पर आयें। एक पारिभाषिक शब्द के रूप में ‘वैज्ञानिक’ या ‘तर्कपूर्ण’ सोच आधुनिक काल की उत्पत्ति है। लेकिन जीवन के विकास के चरणों के अनुरूप, सोच व काम में ‘वैज्ञानिकता’ एवं ‘तर्कपूर्णता’ मानवसभ्यता के साथ साथ आगे बढ़ी है। प्रौद्योगिकी का ज्ञान भी उसी तरह आगे बढ़ा है। किसी भी नया काम के बारे में सोचते हुये व्यक्तिमानव को सामान्यत: दो पहलुओं पर पुरानी सोच को अस्वीकार करना पड़ा होगा, (1) बाधक रूढ़ियों व रिवाजें और (2) यथास्थिति की शाश्वतता एवं नियति या भाग्य। साथ ही, एक पहलू पर नये सोचों को भी अस्वीकार करना पड़ा होगा - (3) उपरोक्त दोनों के विरोध में उच्छृंखलता या उच्छृंखल वैचारिक प्रहार।  
विज्ञान में जो तीव्र विकास हुये आधुनिक काल में, उसके कारण यह पृथ्वी, उस पर जीवन एवं वस्तुजगत काफी दूर तक नजर आने लगा और हम वैज्ञानिक सोच की बात करने लगे। लेकिन उसके मूल तत्व आज भी उपरोक्त ही हैं। बस नई भाषा में हम कहते हैं, तमाम अंधविश्वासों, कूप्रथाओं रूढ़िवाद का विरोध, जीवन को बेहतरी की ओर ले जाने में सामूहिक सहकार्य एवं अतिवाद या उग्रवाद का विरोध आदि आदि।
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का वैज्ञानिक एवं तर्कपूर्ण सोच तो सबसे पहले इसी में दिखाई पड़ता है कि मातृभाषा में आधुनिक ज्ञान-आधारित शिक्षा एवं नारीशिक्षा को उन्होने अपने जीवन का प्रथम ध्येय बनाया। शिक्षण में सुधार हेतु लगातार संघर्ष करते रहे – पाठ्यक्रम में सुधार, पाठ्यपुस्तकों में सुधार, गाँव गाँव में आधुनिक विद्यालय का प्रसार, उन विद्यालयों के लिये प्रशिक्षित शिक्षक की व्यवस्था, शिक्षकों के बेहतर वेतन एवं छात्रों को पाठसामग्री हेतु अधिक राशि के अनुदान की स्वीकृति …। लेकिन साथ ही, जब श्रीमती कार्पेन्टर के एवं ब्राह्मो समाज के कहने पर शिक्षिकाओं के लिये नॉर्मल स्कुल की व्यवस्था, बिना सामाजिक ताकतों की सहमति प्राप्त किये होने लगी, उन्होने तत्काल विरोध किया और कहा कि यह व्यवस्था असफल होगी। हुआ भी यही, तीन साल के अन्दर वह स्कूल बन्द हो गया। सिर्फ यही नहीं, जब संस्कृत कालेज में विद्यासागर नया रास्ता निकालने के लिये शास्त्रों का अध्ययन कर रहे थे और शास्त्रज्ञों तथा सामाजिक नेताओं से लोहा ले रहे थे, दीवार के उस पार हिन्दु कालेज के छात्र एवं डिरोजिओ के क्लासों की प्रेरणा से लैस भूतपूर्व छात्र पुराने हिन्दु समाज की ऐसी की तैसी कर रहे थे। उन से विद्यासागर की अच्छी मित्रता थी। बंगला के महाकवि माइकल मधुसूदन दत्त को जिस तरह से उन्होने मदद किया एवं जीवन बचाया वह आज एक दंतकथा है। लेकिन उस उच्छृंखलता के नक्शेकदम पर विद्यासागर चले ही नहीं।
बांग्लादेश के विख्यात विद्वान अहमद शरीफ कहते हैं, “दर असल हिन्दु कॉलेज में शिक्षाप्राप्त यंग बेंगॉल [युवा बंगाल] ने ही अशिक्षा, बालविवाह, बहुविवाह, एवं विधवाविवाह के मुद्दों पर मौखिक तथा लिखित चर्चा के माध्यम से आन्दोलन का प्रारंभ किया। लेकिन उनके लिये ये बातें सुरुचि व संस्कृति से सम्बन्धित समस्याओं की तरह राष्ट्रीय शर्म जैसी थीं। यंग बेंगॉल के ये शौकीन द्रोही हिन्दू व  हिन्दू चालचलन के सभी बातों की निन्दा करते थे और उपरोक्त मुद्दे भी उन्ही के अन्तर्गत थे। ये लोग चालीस की उम्र पार कर जाने के बाद खुद कट्टर हिन्दू बन गये या निष्ठावान ब्राह्म बन गये और उसी में तुष्ट रहे। बल्कि शायद पहली जवानी के उद्धत आचरणों के लिये लज्जित एवं अनुताप ग्रस्त भी हुये थे। फलस्वरूप, जो विद्यासागर के लिये उनके खुद के अस्तित्व जैसा ही सत्य था, डिरोजिओ की दीक्षा से गुजरे यंग बेंगॉल के लिये वह उम्र के तकाजे से जन्मा शौकीन सांस्कृतिक तेवर था। वे विद्वान थे, बुद्धिमान थे; उनमें से कई विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता एवं लेखक भी थे, लेकिन विद्रोही नहीं रहे। मानवतावादी विद्यासागर मानव के कल्याण में, ‘जरूरत पड़ने पर प्राण त्यागने भी पीछे हटने वाले नहीं’ थे। इसी लिये विद्यासागर श्रेष्ठ, महान एवं अनन्य थे।”  
सन 1853 में बैलेन्टाइन साहब के एक पत्र के जबाब में उन्होने लिखा, “जनता में शिक्षा का प्रसार – यह हमारी मुख्य आवश्यकता है। हमें कुछ बंगला विद्यालय स्थापित करने होंगे। इन सब विद्यालयों के लिये आवश्यक एवं शिक्षाप्रद विषयों पर कुछ पाठ्यपुस्तकों की रचना करनी होगी, शिक्षकों का दायित्वपूर्ण कर्तव्य का भार ले सके ऐसे कार्यकर्ताओं का एक दल का सृजन करना होगा – तभी हमारा उद्येश्य सफल होगा। मातृभाषा का पूरी जानकारी, तथ्यों का यथेष्ट ज्ञान, देश में व्याप्त अंधविश्वासों के कब्जे से मुक्ति – शिक्षकों में ये गुण रहने चाहिये। इस तरह के आवश्यक आदमियों का निर्माण ही मेरा उद्येश्य एवं संकल्प है।”
उसी तरह, उनकी वैज्ञानिक व तर्कपूर्ण सोच विधवाविवाह जैसे समाजसुधार के कामों को आगे बढ़ाने के तरीके में भी दिखाई पड़ती है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि खुद जातिगत भेदभाव की भावना से ग्रसित न होकर भी उन्होने यह कह कर शुरुआत नहीं की कि जब 74% को विधवाविवाह से कोई समस्या नहीं तो 26% को क्यों? जातिप्रथा के अन्तर्गत पूरे समाज पर ब्राह्मणवाद के सांस्कृतिक वर्चस्व को वह जानते थे। इसीलिये सबसे पहले उस सांस्कृतिक वर्चस्व का प्रमुख हथियार, शास्त्रों का ही उन्होने अध्ययन किया एवं उसी का इस्तेमाल भी किया गिद्ध बने बैठे ढोंगी शास्त्रज्ञों के खिलाफ। फिर उन्होने समर्थन में खास कर वैसे लोगों को जुटाया जो नामचीन और पैसे वाले होने के कारण सरकार को प्रभावित करने की क्षमता रखते थे। फिर उन्होने सरकार को आवेदन किया। आवेदन की भाषा भी पूरी तरह कार्यनीतिक है, भावनात्मक नहीं। उसके आगे उन्होने एक तरफ वो मुहिम चलाया जिसे आज की भाषा में हम हस्ताक्षर अभियान कहते हैं। दूसरी तरफ अपनी कलम से वह लगातार उन कुतर्कों और व्यक्तिगत लांछनाओं का जबाब देते रहे जो उन्हे रोकने के लिये बरसाये जा रहे थे। आज भी एक व्यक्ति नागरिक, खास कर बुद्धिजीवी के लिये किसी सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दे पर लड़ने, आवाज को आगे बढ़ाने का यह तरीका उतना ही प्रासंगिक और शिक्षणीय है, जितना कल था। आज तो कई संगठन हैं, मंच हैं, उन्नीसवीं सदी के मध्य में तो कुछ भी नहीं था।
पिछले अध्याय में तड़ित कुमार बंदोपाध्याय द्वारा लिखित ‘चिकित्सक विद्यासागर’ शीर्षक लेख लेखक के जिस पुस्तक से लिया गया था, उसी पुस्तक, ‘विद्यासागरेर विज्ञानमानस’ के एक और लेख की हम मदद लेंगे। लेख का शीर्षक है ‘विज्ञानमनस्कतार अनुशीलने विद्यासागर’ [वैज्ञानिक सोच के अभ्यास में विद्यासागर]। इस लेख में लेखक ने प्रख्यात वैज्ञानिक-चिंतक जुलियन हक्सले के विचारों को उद्धृत करते हैं:
“The conflict between science and human nature can only be reconciled in an attitude and a temper of mind which may fittingly be called scientific humanism.”
आगे लेखक वैज्ञानिक मानवतावाद के गिनाये गये कई विशेषताओं में से दस विशेषताओं को चुनते हैं, एवं उन दस विशेषताओं की कसौटी पर विद्यासागर के कर्मजीवन एवं चरित्र की व्याख्या भी करते हैं।
संस्कारों से मुक्त चेतना – जब आज भी जातिगत, धार्मिक एवं लैंगिक भेदभाव इतना अधिक व्याप्त है कि संस्कारमुक्त चेतना की पहली शर्त होती है उनसे मुक्त होना, तो उस समय क्या स्थिति रही होगी यह सोचा जा सकता है। जबकि, विद्यासागर का पूरा जीवन ही संस्कारमुक्त चेतना का उदाहरण है। धर्म एवं जाति पर आधारित भेदभाव को वह कभी भी नहीं माने। मुसलमान का घर हो या चमार का घर हो, उन्हे देखभाल, सेवा, दवा-भोजन आदि की जरूरत हो तो विद्यासागर बेझिझक उनके यहाँ पहुँच जाते थे और अपने हाथों से उनकी सेवा करते थे। उन परिवारों के बच्चे विद्यासागर के गोद में खेलते रहते थे।
व्यक्तिगत बातचीत में विद्यासागर कहते थे कि कोई अगर उन्हे ब्राह्मण पंडित समझता है तो उन्हे अत्यंत अपमान का बोध होता है।
नारीशिक्षा एवं नारीजीवनस्थिति में सुधार के कामों को वह बिल्कुल आधुनिक सन्दर्भों में, स्त्री-पुरुष बराबरी तक पहुँचने के चरणों के रूप में देखते थे।  पूरी उन्नीसवीं सदी के भारत में नारीमुक्ति के पुरोधा व्यक्तित्वों में बंगाल के दो नाम सबसे अधिक जाने जाते हैं, राममोहन राय एवं ईश्वरचन्द्र विद्यासागर।
वह संस्कृत शास्त्रों के ज्ञाता विद्वान थे। उनके ज्ञान का लोहा उनके शिक्षक मानते थे। संस्कृत कॉलेज के लिये नये पाठ्यक्रम के निर्माण के समय उन्होने अंग्रेजी भाषा, आधुनिक विज्ञान एवं मातृभाषा के साथ साथ प्राचीन भारतीय ज्ञान के पठन को भी अहमियत दिया था। लेकिन, उस ज्ञान को लेकर कोई अंधश्रद्धा नहीं थी उनमें। सन 1853 में, उनके पाठ्यक्रम सम्बन्धी प्रस्तावों में कुछ रद्दोबदल कर अंग्रेज सरकार के प्रतिनिधि बैलेन्टाइन साहब ने उन्हे वापस भेज दिया। उन रद्दोबदल को मानने से इन्कार करते हुये विद्यासागर ने काउन्सिल ऑफ एडुकेशन को जो पत्र लिखा, उसमें उन्होने कहा, “यह अब विवाद का मुद्दा नहीं है कि वेदान्त एवं सांख्य, दर्शन की भ्रामक प्रणालियाँ हैं।”
बाद में, रवीन्द्रोत्तर युग के प्रख्यात बंगला साहित्यकार प्रमथनाथ बिशी ने कहा, “मुझे तो लगता है कि खुलेआम वेदान्त को भ्रांत दर्शन घोषित करना ही दु:साहसी विद्यासागर का सबसे दु:साहसिक कार्य है। इसकी तूलना में विधवाविवाह का समर्थन या बहुविवाह का विरोध आदि तो बच्चों का खेल है! उस एक वक्तव्य के द्वारा उन्होने भारत के, युगों से संचित संस्कार एवं अहंकार की जड़ पर चोट किया है।”  
राष्ट्रीयता का बोध – राष्ट्रीयता का बोध विद्यासागर में कितना था वह तो उसी वाकया से पता चल जाता है जिसका जिक्र इस पुस्तक के प्रारंभ में किया गया है, कि अंग्रेज साहब के जूता समेत पैर टेबुल पर रख कर विद्यासागर से बात करने के जबाब में विद्यासागर का भी टेबुल पर चप्पल समेत पैर रख कर अंग्रेज साहब से बात करना। चाहे हैलिडे साहब का व्यक्तिगत निमंत्रण हो या एशियाटिक सोसायटी का संस्थागत निमंत्रण – वह अपना धोती, चादर और चप्पल नहीं छोड़े। जब एशियाटिक सोसायटी ने उनके लिये नियमों में छूट दिया तब भी नहीं। उन्होने साफ कहा कि सिर्फ मेरे लिये नहीं सबके लिये नियम बदलना पड़ेगा आपको। नियम नहीं बदला तो फिर कभी गये ही नहीं एशियाटिक सोसायटी के ग्रंथागार में।
हालाँकि हैलिडे के व्यक्तिगत निमंत्रण पर एवं उनके अनुरोध पर, जैसा कि विद्यासागर के जीवनीकार इन्द्र मित्र कहते हैं, विद्यासागर दो-एक बार पैंट, चोगा, पगड़ी वगैरह पहन कर गये थे। लेकिन उन्हे यह सब पहन कर स्वांग जैसा लगता था, लगता था कि वह चोरी किये हुये हैं। लोगों की नजरें बचा कर जाते थे। एक दिन हैलिडे को उन्होने कहा कि यही आपसे से मेरी आखरी भेँट है। हैलिडे के पूछने पर विद्यासागर बोले कि इन कपड़ों को पहनना उनके लिये असंभव है। तब हैलिडे बोले कि ठीक है, जो कपड़े आपको पसन्द हों उन्ही कपड़ों में आइयेगा।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा, “जिन चप्पलों में, मोटे कपड़ों की धोती और चादर में ब्राह्मणपंडित को हर जगह सम्मान मिलता है, विद्यासागर राजा के दरवाजे पर भी उन्हे त्यागने की जरूरत नहीं महसूस किये। … हमारे इस अपमानित देश में ईश्वरचन्द्र जैसे अखंड पौरुष के आदर्श का कैसे जन्म हुआ, हम बता नहीं पाते हैं।”
इस बोध में एक और बात भी है। राष्ट्रीयता का बोध तो पारम्परिक हिन्दु या मुसलमान पोशाक में भी उजागर हो सकता था – जैसा राजा या जमीन्दार लोग पहनते थे। लेकिन विद्यासागर के लिये राष्ट्रीयता का बोध देश की गरीबी और बदहाली के प्रति जागरुकता की अभिव्यक्ति थी। इसीलिये उन्होने उस पोशाक को बनाये रखा – अपनी जनता से जुड़े रहने के लिये। यही सोच 75-80 साल के बाद महात्मा गांधी में हमने देखा।
उनके शिक्षादर्शन में राष्ट्रीयता की चेतना को उजागर करते हुये बी॰ आर॰ पुरकाइत ने अपने पुस्तक ‘इन्डियन रेनेशाँ ऐन्ड एडुकेशन’ में जो लिखा है, उसकी चर्चा पूर्व के एक अध्याय में हो चुकी है।
उन्ही के बनाये पाठ्यक्रमों के अनुसार पढ़ाई कर, उन्ही के लिखे प्राईमर व कई पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन कर, उन्ही के द्वारा स्थापित विद्यालयों का छात्र व छात्रायें बन कर बंगाल की अगली पीढ़ी स्वदेशी आन्दोलन सहित भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन की नींव रची।
यह सही है कि भारत में अंग्रेजी राज के बारे में अलग से उन्होने अपने विचार नहीं रखे। लेकिन वह क्या सोचते थे इसकी ओर समाजवैज्ञानिक अशोक सेन ने अपने ग्रंथ ‘विद्यासागर ऐंड हिज इल्युसिव माइलस्टोन’ में पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। और इसकी चर्चा तड़ितबाबु अपने पुस्तक ‘विद्यासागरेर विज्ञानमानस’ में करते हैं:
“पलाशी के युद्ध का वर्णन करते हुये ‘बंगाल का इतिहास’ [विद्यासागर रचित] में विद्यासागर लिखते हैं, ‘अगर मीरजाफर विश्वासघाती नहीं होते और ऐसे वक्त में इस किस्म का धोखा नहीं देते तो क्लाइव [लॉर्ड क्लाइव] के विजयी होने की कोई सम्भावना नहीं होती।’ फिर नन्दकुमार [महाराजा नन्दकुमार] की फाँसी की घटना की चर्चा करते हुये लिखते हैं, ’सही है कि नन्दकुमार दुराचारी थे, लेकिन नि:सन्देह, इम्पी एवं हेस्टिंग्स इससे अधिक दुराचारी थे।’”
एक वाकया तो हिन्दी के पाठक भली भाँति जानते हैं। दीनबंधु मित्र रचित ‘नीलदर्पण’ नाटक का मंचन चल रहा था। विद्यासागर पहुँचे नाटक देखने। नाटक में किसानों पर अंग्रेज साहब का अत्याचार देख कर वह इतने विचलित हुये कि अपने पैर का चप्पल खोलकर मंच पर खड़े अंग्रेज की भूमिका में अभिनय करने वाले अभिनेता को फेंक कर मारे। (यह अलग प्रसंग है कि बंगाली नाट्यमंच का वह प्रख्यात अभिनेता उस चप्पल को माथे पर उठा लिया और कहा कि यह उनके अभिनयजीवन का श्रेष्ठतम पुरस्कार है।)   
सन 1872 में हितकारी उद्येश्य से ‘हिन्दु फैमिली ऐनुइटी फन्ड’ की स्थापना की गई थी। विद्यासागर इस योजना की स्थापना काल से ही घनिष्ठ तौर पर इसे विकसित करने के काम में शरीक थे। लेकिन बाद में इस फन्ड को चलानेवालों ने फन्ड के प्रबन्धन में जो अनियमिततायें कीं एवं फन्ड के नियमों का जो उल्लंघन किया उसके कारण विद्यासागर ने सन 1876 में फन्ड से अपना सारा सम्बन्ध तोड़ लिया। इस्तीफे का कारण पूछे जाने पर जो पत्र उन्होने भेजा उस पत्र के अंत में लिखा:
जो व्यक्ति जिस देश में जन्म लेता है, उस देश का हित साधने के लिये अपने साध्य के अनुसार प्रयास और यतन करना उसका परम धर्म एवं जीवन का प्रधानतम कर्म होता है …
प्रतिवादी सोच – प्रतिवादी सोच का सबसे बड़ा उदाहरण है सरकारी नौकरी से इस्तीफा। संस्कृत कॉलेज के प्राचार्य के पद से, परीक्षा के परिषद से एवं विद्यालयों के इन्स्पेक्टरी से इस्तीफा। वह भी सिर्फ इस कारण से कि अंग्रेज सरकार 1857 के विद्रोह के दमन के बाद शिक्षा पर खर्च कम कर दिया था एवं विद्यासागर ने जो प्रस्ताव दिये थे उसे मानने से इन्कार कर दिया था। उनके साथ जिस अंग्रेज अधिकारी के अच्छे सम्बन्ध थे वह जानते थे कि विद्यासागर अपने फैसले से डिगेंगे नहीं, तो उन्होने थोड़े दिन और रुक जाने को कहा ताकि पेंशन की योग्यता की अवधि पूरी हो जाय। पर विद्यासागर ने वह भी नहीं माना, और पेंशन त्याग दिया।
यह तेवर उनका आजीवन रहा। इसके पहले हमने जिक्र किया कि किस तरह उन्होने एशियाटिक सोसायटी के तथाकथित ‘ड्रेस कोड’ का प्रतिवाद किया था। संस्कृत कॉलेज में उनकी पहली नियुक्ति के बाद जो उन्होने पहली बार शिक्षण-पद्धति व पाठ्यक्रम में सुधार के प्रस्ताव दिये थे उसे कॉलेज के तत्कालीन सचिव रसमय दत्ता ने अस्वीकार कर दिया था। कहा जाता है कि विद्यासागर का पदत्याग पत्र प्राप्त करने के बाद रसमय दत्ता ने सामने वाले से पूछा था, “इस्तीफा देगा तो वह खायेगा क्या?” दूसरों से यह सवाल सुन कर विद्यासागर ने जबाब दिया था, “रसमय दत्त को बोलना कि विद्यासागर बाजार में आलु-परवल बेच कर रोजगार करेगा, पर अपनी राय बेच कर नौकरी नहीं करेगा।”
यह भी ध्यान देने योग्य है कि उनके प्रतिवाद कभी भी व्यक्तिगत हित के लिये नहीं बल्कि देशहित में हुआ करते थे।  
आधुनिकता – क्या विद्यासागर आधुनिक थे? क्या धोती, चादर, चप्पल पहना संस्कृत के विद्वान यह ब्राह्मण आधुनिक कहलायेगा? आधुनिकता पर लगातार बात करते रहने के कारण अक्सर हम इसे देश-काल निरपेक्ष एक व्ययक्तिक एवं सामाजिक विशेषता के रूप में देखना शुरु कर देते हैं। जबकि यह देश और काल दोनों के सापेक्ष है। जब हम आधुनिकता की बात करें तो भारत के एवं बंगाल के उन्नीसवीं सदी के विकासक्रमों के सन्दर्भों में करें।
उन्नीसवीं सदी के चौथे, पाँचवें दशक के कलकत्ता में किसी निम्नमध्यवर्गीय पढ़े लिखे ब्राह्मण युवा के लिये आधुनिक होने का अर्थ था कई सारी चुनौतियों को चिन्हित करना एवं स्वीकारना। एक तरफ उसे अंग्रेजों के आगमन के ‘मुक्तिदायी प्रभावों’ को आत्मसात करना था एवं उसकी बौद्धिक ताकत से परम्परा के ‘बाधक प्रभावों’ को चिन्हित कर एवं तोड़ कर बाहर निकलना था। दूसरी ओर इसी प्रक्रिया के अगले पल में उसे अंग्रेज शासन के ‘बाधक प्रभावों’ का सामना करने के लिये परम्परा की ताकत का इस्तेमाल करना था। विद्यासागर के समकालीन बौद्धिक समाज के सभी व्यक्ति कमोबेश इस प्रक्रिया से गुजरे। पूरा योरोपीय बनना चाहने वाले माइकल मधुसूदन दत्त भी बंगाल और बंगला भाषा की ओर लौट आये। विद्यासागर उन सभी में एक सर्वाधिक अनुकरणीय आदर्श के रूप में उभरे क्योंकि सबसे बेहतर ढंग से उन्होने इस प्रक्रिया से गुजरने का रास्ता बताया। अंग्रेजों के आगमन के कितने प्रभावों को ‘मुक्तिदायी’ समझें एवं उसकी ताकत को कैसे आत्मसात करें। परम्परा के ‘बाधक प्रभाव’ किन्हे मानें एवं उनको तोड़ कर कैसे बाहर निकलें। फिर अंग्रेज शासन के बाधक प्रभावों का सामना करने के लिये परम्परा की ताकत का कैसे इस्तेमाल करें। माइकल मधुसूदन दत्त ने खुद विद्यासागर के वारे में कहा था, “द फर्स्ट मैन एमॉंग अस” [हमारे बीच पहला आदमी]।
अभी यह चेतना अंग्रेज शासन को गुलामी मानने को तैयार नहीं हो पाई थी। क्योंकि, अन्तत: यह शहरी मध्यवर्ग की चेतना थी। हाँ इसी मध्यवर्गीय चेतना में विद्यासागर की धारा जनता के कल्याण के बारे में सबसे आगे बढ़कर सोचने वाली एवं काम करने वाली थी।
कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा, “विद्यासागर की आधुनिकता की सिर्फ यही पहचान नहीं है कि उन्होने कुरीतियों के किले पर हमला किया। … वह खुद संस्कृतशास्त्र के विशेषज्ञ थे फिर भी वही मुख्यत: वर्तमान योरोपीय विद्या की ओर छात्रों को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाये थे, और अपने उत्साह एवं प्रयास से पाश्चात्यविद्या का आहरण किये थे … विद्यासागर महाशय की आधुनिकता के इस गौरव को स्वीकारना होगा। वह नवीन थे एवं हमेशा नवीन रहने वाले के नाम से हुआ उनका अभिषेक उन्हे ताकतवर बनाया था। उनकी यह नवीनता ही मेरे लिये सर्वाधिक पूजनीय है।”  
तर्कवाद – तर्कवाद या तार्किक विचार पद्धति आधुनिकता का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। कोई जरूरी नहीं कि हर आदमी हर विषय को हमेशा तर्क के द्वारा सिद्ध कर पाये या न्यायसंगत, युक्तिसंगत ठहरा सके। न सब कोई एक ही उँचाई का ज्ञानी है और न ही बराबर के हुनर वाले तर्कविद्या के शिल्पी। बड़ा से बड़ा वकील भी क्रॉस एक्जामिनेशन में चूक सकता है क्योंकि वह एक अन्तर्भेदी कला है। लेकिन, अगर कोई, किसी भी बात को बिना पूछे, बिना तहकीकात किये, बिना तर्क किये मानने से इन्कार करे, अगर हर तरफ उसकी पहली दृष्टि सन्देह की हो और ज्ञान के अभाव में सन्देह के दंश को झेलते हुये भी अपने कर्म में आगे बढ़ना श्रेयष्कर समझे तर्कहीन आस्था के वजाय – तभी वह आधुनिक मनोवृत्ति वाला आदमी कहलायेगा।
विद्यासागर इस निर्मम कसौटी पर भी खरे उतरने वाले व्यक्ति थे। उनके द्वारा रचित पाठ्यपुस्तक ‘बोधोदय’ कई अंग्रेजी पुस्तकों से सामग्रियाँ लेकर रचा गया साधारण ज्ञान का संकलन है। जीवजगत, मनुष्यशरीर, समाज, ब्रह्माण्ड आदि विषयों पर संक्षिप्त परिचयमाला है। कहा जाता है कि इसके पहले संस्करण में ‘ईश्वर’ का कोई परिचय नहीं था। फिर किसी ने यह सवाल उठाया। कोई रचनाकार ख्यात साधक संत विजयकृष्ण गोस्वामी का नाम लेते हैं तो दूसरे, किसी अंग्रेज का नाम लेते हैं। जिसने भी उठाया हो, सवाल यही था कि जब पूरे जगत का परिचय है तो विद्यासागर ने ईश्वर का परिचय क्यों नहीं दिया। यह भी कहा गया कि इस पुस्तक को पाठ्यपुस्तक नहीं बनाया जाना चाहिये। इसे पढ़ने से छात्र बिगड़ जायेंगे। तब विद्यासागर ने अगले संस्करण में ‘पदार्थ’ के बाद एवं ‘चेतन पदार्थ’ के पहले ‘ईश्वर’ का परिचय दिया – सृष्टिकर्त्ता, निराकार चैतन्यस्वरूप, अदृश्य, सर्वत्र विराजमान, परम दयालु, जीवजगत के रक्षाकर्ता… ।
इस बात को लेकर पिछले 100 वर्षों में काफी बहस हुये हैं कि विद्यासागर आस्तिक थे या नास्तिक थे या संशयवादी थे या अज्ञेयतावादी थे। उनकी जीवनी के सभी रचनाकार एवं उनके कर्मों के विभिन्न अध्ययनकर्ता विभिन्न प्रसंगों, विभिन्न व्यक्तियों के साथ की गई उनकी बातचीत की चर्चा करते हैं यह बताने कि ईश्वर के प्रति उनका क्या रुख था। उन्हे पढ़ कर वे गौतम बुद्ध या बौद्धदर्शन के करीब दिखते हैं। जिस तरह बुद्ध के दर्शन में जगत की व्याख्या के कार्यकारण सम्बन्धों में कहीं भी ईश्वर या किसी अन्य नाम के सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान स्रष्टा की जरूरत नहीं पड़ती है, उसी तरह ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के सांसारिक दिनचर्या व कर्मजीवन के नियोजन में कहीं भी किसी सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान नियंता की जरूरत नहीं पड़ती है कि ‘उसका आशीर्वाद प्राप्त न हो तो काम रुक जाये’ – अगर स्रष्टा हैं तो हैं, फिलहाल ‘मेरी जिन्दगी के जद्दोजहद में उनके होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है’।
इस ईश्वर-प्रसंग से अलग, अगर उनके पूरे जीवन की कर्मपद्धति पर गौर किया जाय तो सिर्फ तार्किक प्रवृत्ति और युक्तिसंगति पर जोर ही हर जगह नजर आयेगा। चाहे वह शिक्षा-व्यवस्था पर किया गया काम हो या विधवाविवाह रोकवाने के लिये किया गया काम हो, उनकी योजनाबद्ध काम का तरीका हर कदम पर दिखेगा।
सांगठनिक प्रवृत्ति – हक्सले द्वारा गिनाये गये वैज्ञानिक मानवता के लक्षणों में इसे भी गिना गया है। यह एक वैज्ञानिक मनोवृत्ति है। भावना में बहने वाले व्यक्ति को लगता है कि उस से अकेले ही सब कुछ हो जायेगा। यह भी लगता है कि अकेले उसका चलना शुरू होगा तो लोग खुद व खुद जुड़ते चले जायेंगे; इसके लिये लोगों से पूछने की क्या जरूरत? लेकिन वैज्ञानिक सोच रखने वाला व्यक्ति लोगों को संगठित करता है क्योंकि वह जानता है कि सही और गलत सिर्फ सैद्धांतिक नहीं सामाजिक कसौटी पर भी तय करना पड़ता है, यानि सामान्य जन के लिये स्वीकार्य बनाना पड़ता है। तभी सत्य और न्याय आगे बढ़ता है और मिथ्या, भ्रम, अन्याय पीछे छूटता जाता है।
विद्यासागर में सांगठनिक प्रवृत्ति तो शुरू से ही थी। पूर्व के अध्यायों में भी आप देखेंगे कि उन्होने जब भी किसी सामाजिक कार्य का बीड़ा उठाया, पहले अध्ययन व लेखन के द्वारा उस विषय के बारे में अपने विचारों को स्पष्ट करने एवं दूसरों से साझा करने के बाद उन्होने तुरंत या तो लोकबल को संगठित किया है या/एवें अपने सक्षम सहयोगियों को ढूंढ़ निकाल कर काम का जिम्मा सौंपा है। विद्यालयों के विशेष परिदर्शक बनने के बाद अविलम्ब उन्होने सहयोगी परिदर्शकों को नियुक्त किया। विधवाविवाह के सवाल पर सरकार को पत्र भेजने के लिये लगभग एक हजार हस्ताक्षर उन्होने जुटाया। उसके बाद भी औरों को सामूहिक आवेदन पर हस्ताक्षर अभियान चलाने के लिये प्रेरित करते रहे। उनकी सांगठनिक प्रतिभा का श्रेष्ठतम निदर्शन था मेट्रोपोलिटन इन्स्टिट्युशन। कितनी अद्भुत सी बात है कि प्रचलित परम्पराओं के विपरीत छात्रों को किसी भी तरीके की दैहिक यातना देने पर सख्त रोक लगाने तथा शिक्षकों को सबसे अधिक तनख्वाह देने के बावजूद मेट्रोपॉलिटन इन्स्टिट्युशन, कलकत्ता विश्वविद्यालय से सम्बद्धता पाने के बाद पहले ही वर्ष में छात्रों के स्नातक परीक्षा में उत्तीर्ण होने की कसौटी पर पूर्णत: सफल हुआ। जबकि यह भारतीयों द्वारा स्थापित और भारतियों द्वारा चलाया जा रहा पहला कालेज था। अंग्रेज मान ही चुके थे कि इसका डूबना तय है। और एक साल बीतते ही उन्हे बूलना पड़ा, “पंडित हैज डन वंडर्स!”
इसका राज था विद्यासागर की सांगठनिक प्रवृत्ति जिसकी अभिव्यक्ति होती थी छात्रों और शिक्षकों के साथ मित्रता और स्नेह के रिश्ते में।
मेट्रोपॉलिटन इन्स्टिट्युशन का कोई अध्यापक या कोई कर्मचारी खुद को विद्यासागर का नौकर कहने पर विद्यासागर तुरंत विरोध करते हुये बोलते थे, “तुम लोग मेरे सहायक हो। मैं अकले सारा काम करने में अक्षम हूँ इसी लिये तुमलोगों को सहायक बनाया हूँ। खुद को नौकर क्यों कहते हो? तुम्हारे अध्यापन से जो रुपये आते हैं वे तो तुम्हारे ही हैं। मैं सिर्फ बाँट देता हूँ।”
अनुशासन में भी उसी तरह कड़ाई करते थे। एक अध्यापक कक्षा में सोते हुये पाये गये तो निकाल दिये गये थे। कुछेक छात्र बगल वाले कन्या आवास में ताकझाँक करते पाये गये तो खुद तसल्ली कर कालेज से उनका नाम कटवाये।  
दूसरी ओर जब उन्होने देखा कि किसी कक्षा में शिक्षक एक छात्र को जबाब देनें में अक्षम पाकर बगलवाले दूसरे छात्र से वही सवाल पूछ रहे हैं तो विद्यासागर ने तुरंत टोका। अध्यापक को किनारे ले जा कर कहा कि ऐसा करने से पहले वाला छात्र अपमानित महसूस करेगा। वल्कि उसी से, जरूरत पड़े तो थोड़ा इशारा, आभास वगैरह दे कर उसी के मुंह से जबाब निकलवाइये।    
आत्मसम्मान का बोध – इस लक्षण के वारे में कुछ भी अलग से कहा जाय तो वह पहले कही गई बातों की पुनरावृत्ति होगी। ‘राष्ट्रीयता का बोध’ एवं ‘प्रतिवादी सोच’ के शीर्षक के अधीन वो सभी बातें हैं जो, विद्यासागर में ‘आत्मसम्मान का बोध’ कितना था उसका बयान करते हैं।    
त्याग का आदर्श – इस लक्षण के एवं इसके आगे ‘दूसरों के हित के लिये तत्पर’ शीर्षक लक्षण पर भी अधिक कहने की जरूरत नहीं। क्योंकि ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की प्रचलित सभी जीवनियों में इन दोनों गुणों एवं आम तौर पर मानवकल्याण की भावना से वह कितना ओतप्रोत थे उसी की विशद चर्चा है। छात्रावस्था से ही वह दूसरों के दुखदर्द में कूद पड़ते थे। कहीं भी लोग अस्वस्थ हों, कराल बीमारी से ग्रसित हों, महामारी के प्रकोप में हों, सूचना मिलते ही विद्यासागर कूद पड़ते थे। अकाल और मैलेरिया के प्रकोप के दौरान उनकी सेवाओं की चर्चा तो पहले ही की जा चुकी है। जब वह छात्र थे उस समय कलकत्ता शहर में जहाँ तहाँ कॉलेरा का प्रकोप होता था। कभी विद्यासागर के परिचित तो कभी बिल्कुल अपरिचित परिवार के कॉलेरा से पीड़ित होने की खबर आती थी। उन परिवारों में पहुँच कर रात दिन जग कर वह रोगियों की सेवा करते थे। उनके इस सेवाभाव के बारे में लोग जान चुके थे। इसलिये परिचित चिकित्सक लोग उनके बुलाने पर रोगियों को देखने चले आते थे लेकिन फीस नहीं लेते थे। दवाओं का खर्च विद्यासागर खुद उठाते थे। रोगियों की सेवा करते हुये उन्हे बिल्कुल परवाह नहीं रहती थी कि खुद भी उसी रोग से ग्रसित हो सकते हैं औ उन्ही के जैसा मर भी सकते हैं।  
दूसरों के हित के लिये तत्पर – इस शीर्षक में उपरोक्त बातों को बिना दोहराये हुये हम सिर्फ इतना जोड़ेंगे कि रोग और अकाल में सेवा से अलग, अनगिनत लोगों को विद्यासागर आर्थिक सहायता देकर बदहाली से उबारा करते थे। इतना अधिक करते थे कि कुछ तो कहानियाँ भी बाद में गढ़ ली गई हैं। छात्रों की पढ़ाई का खर्च उठाना, गरीब बेसहारा किसी औरत के जीवन निर्वाह का खर्च उठाना यह सब आजीवन उनके माहवारी खर्च का हिस्सा बना रहा। चाहे वह सरकारी नौकरी की तनख्वाह एवं स्वरचित पुस्तकों की बिक्री के कारण अच्छी स्थिति में हो या नौकरी चले जाने के उपरांत विधवा-विवाहों का खर्च उठाते उठाते कर्जदार हो गये हों। उनका इच्छापत्र भी आज एक इतिहास है। उनकी आय व सम्पत्ति का बँटवारा वह जिस प्रकार से किये, कितने लोगों के बारे में वह सोचे … वह पढ़ने लायक है।
मूल्यों का बोध – इस शीर्षक पर भी अलग से बहुत कुछ कहने की जरूरत नहीं है क्योंकि उपरोक्त सारे लक्षण मूल्यों के बोध से ही सम्बन्धित हैं। बाकी रहा इमानदारी, सत्यनिष्ठा, छल-कपट-दुराचार-भ्रष्टाचार से घृणा, जी-हुजूरी से घृणा, माता-पिता के प्रति श्रद्धा, पत्नी और परिवार से प्रेम, वात्सल्य, जनता से जुड़ाव … अनगिनत प्रसंग हैं इनके और सभी इनके बारे में जानते हैं। फिर भी, एक प्रसंग की चर्चा यहाँ आवश्यक है। वह है बंगला के प्रख्यात कवि माइकल मधुसुदन दत्त के साथ ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का रिश्ता, क्योंकि माइकल की जो मदद उन्होने की, वह दयालुता का मामला नहीं, बिकराल समस्याओं से घिरे एक शराबी कवि के प्रति कृपादृष्टि नहीं, बल्कि माइकल के जीवनमूल्य - जो कई पहलुओं में उनके अपने जीवनमूल्यों से अलग था - के संरक्षण का मामला था। वह भी, मित्रता के खातिर नहीं, बल्कि बंगला साहित्य के क्रांतिकारी भविष्य के मद्देनजर। यानि, यह जनतांत्रिक बहुलतावाद का मूल्य था, जो हमें विद्यासागर में नजर आया।                  



॥ 15 ॥ जनसेवा


जितना तेजोमय था उनका व्यक्तित्व, जितना उत्तुंग था उनका स्वाभिमान, जितना कठोर था उनका आत्मानुशासन, उत्ना ही नरम था उनका हृदय - दया, करूणा एवं मनुष्यता के सागर थे वह। कलकत्ता आ जाने के बाद जब भी वह अपने गाँव वीरसिंहो लौटते थे तो पूरा गाँव घूम घूम कर एक एक परिवार का हाल समाचार लेते थे कि सब कुशल तो है, कोई भूखा तो नहीं, कोई बीमार तो नहीं। उनका अपना जीवन भी तो बहुत गरीबी में बीता था। शम्भुचन्द्र विद्यारत्न, विद्यासागर की जीवनी में वीरसिंहो गाँव में विद्यासागर के घर की गरीबी की चर्चा करने के बाद लिखते हैं:
“संस्कृत कॉलेज के छात्र ईश्वरचन्द्र को भी दारुण कठोर दरिद्रता को झेलना पड़ा था। बड़ाबाजार के दयेहाटा स्थित जगतदुर्लभ सिंह के मकान के निचले तल्ले का एक अंधेरा सीलन भरा कमरा। चारों तरफ खुला नाला रहने के कारण तेलचट्टे से घर भरा हुआ।”
ईश्वरचन्द्र के पिता रात के एक बजे काम से लौटते थे। अगर उस समय वह बत्ती जलते हुये और ईश्वर को सोते हुये पाते थे तो गुस्से से बहुत पिटाई करते थे। बाकी, सड़क की गैस-बत्ती की रौशनी में विद्यासागर की पढ़ाई की कहानी तो दुनिया जानती है।  
इसलिये गरीबी, बदहाली, बीमारी आदि से ग्रसित इंसानों के प्रति उनकी करुणा बाँध तोड़कर बह निकलती थी। चरित्र का यह गुण भी एक दिन अपने भव्य सामाजिक रूप में निखर उठा।
‘ईश्वरचन्द्र विद्यसागर’ ग्रंथ में जीवनीकार सुबल चन्द्र मित्र लिखते हैं:
“सन 1866 में बारिश की कमी के कारण खाद्यान्न का बहुत अभाव हो गया। अगला वर्ष शुरु होते होते, देश में भयावह अकाल फैल गया। मई, जून और जुलाई के महीने में अकाल गंभीर रूप धारण कर लिया। पूरा ओड़िशा एवं बंगाल का दक्षिणी भाग इसके चपेट में आ गया। इन इलाकों में जनता को जो तकलीफें झेलनी पड़ी अवर्णनीय है। आज उनकी बदहाली के बारे में सोचते हुये भी रोंगटें खड़े हो जाते हैं। वे नहीं जानते थे कि भूख कैसे मिटेगी। बिना सोचे कि आहारयोग्य है या नहीं, वे हर तरह के पत्ते, जंगली झाड़ों की जड़ें और लत्तरें खा रहे थे। एक मुट्ठी चावल की खोज में वे घर छोड़ कर सुदूर स्थानों की ओर भाग रहे थे। माँ अपने शिशु को त्याग रही थी, पिता अपने सन्तान को, बेटे अपने माँ-बाप को, पति पत्नी को और पत्नी पति को, भाई बहन को और बहन भाई को,… और सब भाग रहे थे शहर की ओर कि जलते पेट में डालने को कुछ मिलेगा। उनमें से कई कहीं पहुँच भी नहीं पाये। वे कंकालों में तब्दील हो चुके थे और थकान से, खाद्य के निरन्तर अभाव से और नतीजतन हो रहे अस्वस्थता से वे रास्तों के किनारे मरते हुये गिर रहे थे। देश की, उस समय की स्थिति विस्तृत रूप से वर्णन करने का अवसर इस पुस्तक में नहीं है। हम सिर्फ उस हिस्से का बयान करेंगे जिसके साथ हमारे कल्याणमय, वीर विद्यासागर जुड़े हुये थे।
“उस समय वह कलकत्ते में थे। उनके अपने ही गाँव में एवं आसपास में जो तीव्र अभाव भयानक रूप से फैल रहा था उसके बारे में उन्हे कोई सूचना नहीं थी। सबसे पहले हिन्दु पैट्रियट अखबार में उन्होने इस बारे में कुछ पत्र पढ़े और कुछ ही दिनों बाद उन्हे अपने घर से चिट्ठी मिली जिसमें यह खबर थी कि खाद्य के अभाव में लोग बड़ी संख्या में मर रहे हैं। सूचना प्राप्त होते ही, कोमलहृदय विद्यासागर को गहरा धक्का लगा एवं उनके आँसू बह निकले। उन्होने तत्काल सरकार को इस घातक आपदा के बारे में लिखा और अविलम्ब राहत के लिये अनुरोध किया। उनकी सुनकर सरकार ने तत्काल स्थिति का जायजा लिया। देश के विभिन्न हिस्सों में उन्होने भोजन-शिविर लगाये। लेकिन फौरी जरूरत के लिहाज से वे काफी कम थे। हिन्दु पैट्रियट के पत्रकार ने कहा कि बाबु हेम चन्द्र कर, गड़बेता के डिप्टी मजिस्ट्रेट तमाम कष्ट उठाते हुये खुद अपने प्रशासनाधीन सभी गाँवों का दौरा कर रहे थे एवं गरीब ग्रामवासियों के लिये राहत का इन्तजाम कर रहे थे लेकिन बाबु इशान चन्द्र मित्र, हुगली जिला के जहानाबाद सबडिविजन के डिप्टी मजिस्ट्रेट अपने काम को गंभीरता से नहीं ले रहे थे। यहाँ जिक्र करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि वीरसिंहो एवं आसपास के गाँव उस समय हुगली जिला में पड़ते थे जो बाद में, जॉर्ज कैम्पबेल के समय मिदनापुर जिले के अन्तर्गत लाये गये।
“विद्यासागर तब जल्दी से अपने गाँव पहुँचे और खुश हुये देख कर कि उनकी माँ ने भूखे लोगों को खाना खिलाना शुरु कर दिया है। उनकी मं अपने हाथों से खाना बनाती थी एवं औसतन सौ लोगों को हर दिन भोजन कराती थी। जैसा बेटा, वैसी उसकी माँ। लेकिन विद्यासागर इससे सन्तुष्ट नहीं हुये। उन्होने अपने खर्च से वीरसिंहो एवं आसपास के गाँवों में भोजन-शिविर खोले। भूखे लोग बढ़ते ही जा रहे थे। एक सौ से बढ़कर अन्तत: एक हजार हो गये। जैसे जैसे संख्या बढ़ती गई, विद्यासागर अपना खर्च बढ़ाते जा रहे थे। तब उन्होने अपने तीसरे भाई, शम्भुचन्द्र को लिखा। शम्भुचन्द्र भोजन-शिविरों के प्रबन्धन के प्रभारी थे, विद्यासागर चाहते थे कि चाहे कितनी भी बड़ी रकम क्यों न हो, खर्च में कंजूसी न की जाय।“
आगे जीवनीकार लिखते हैं कि किस तरह, भूखे लोगों के अनुरोध पर विद्यासागर ने भोजन-शिविरों मे खिचड़ी की जगह भात और मछली की भी व्यवस्था की थी और किस तरह पहले ही दिन एक भयानक हादसा हुआ। एक भूखा आदमी बहुत दिनों के बाद अपने सामने गरम सूखा भात देख कर रह नहीं पाया। एक बड़ा सा निवाला अपने मुँह में ठूँस लिया और अन्तत: वह गले में फँस गया। वह आदमी वहीं दम घुँट कर मर गया और विद्यासागर उसका शव अपने गोद में लेकर फफक कर रोने लगे।
सिर्फ भोजन-शिविर ही नहीं, विद्यासागर हर तरह से राहत और सेवा में जुट गये। इसी सेवा के वर्णन में और आगे बढ़ने से पहले रोगियों के इलाज के मामले में उनकी स्वशिक्षा का जिक्र करना यहाँ प्रासंगिक होगा।
चिकित्सा – हम यहाँ मूख्यत: ‘चिकित्सक विद्यासागर’ शीर्षक एक लेख का सहारा लेंगे जिसे तड़ित कुमार बंदोपाध्याय ने लिखा था एवं वर्ष 1970 में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के सौवीं मृत्युवार्षिकी के अवसर पर बंगीय साक्षरता प्रसार समिति द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘विद्यासागरेर विज्ञानमानस’ में संकलित किया गया था। साथ ही, जरुरत पड़ी तो कुछ और स्रोतों का भी इस्तेमाल करेंगे।
पुराने अंधविश्वासों, टोटके-ताबीजों की बीमार आबोहवा को भेद कर आधुनिक वैज्ञानिक सोच की ओर कदम बढ़ाने वाले हर विवेकपूर्ण इंसान की तरह विद्यासागर को भी पहले होम्योपैथी या आयुर्वेद से चीढ़ थी। आज भी लोगों को होती है क्योंकि सर्वस्वीकृत, सर्वमान्य कोई प्रायोगिक व्यवस्था नहीं है देश में जहाँ विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों की एकरूप जाँच हो एवं जाँच का नतीजा सब की जानकारी में दी जाय। एक तरफ ऐलोपैथी एवं विदेशी दवा कम्पनियों का बोलबाला, मुनाफे के उद्येश्य से किया गया प्रचार तो दूसरी तरफ अवैज्ञानिक रहस्यपूर्ण जादुई रोग-निरामय के दावे। हर वो दवा या जड़ी अचानक ‘वैज्ञानिक-तरीके-से-जाँचा-हुआ’ बन जाता है जिस में किसी कम्पनी को मुनाफा दिखता है। कोई नहीं जानता है कि वह ‘वैज्ञानिक-तरीका’ क्या है।
विद्यासागर के समय स्थिति और बुरी थी। आज की तरह इतनी संख्या में कम्पनियाँ नहीं थी लेकिन दूसरी ओर ‘आधुनिक’ ऐलोपैथिक पद्धति की पढ़ाई कर अंग्रेजों की बराबरी का डाक्टर बनना, सर्जन बनना एक राष्ट्रीय भावना से पूर्ण उपलब्धि थी। दर असल, सही तरीके से शरीरविज्ञान की पढ़ाई तो ऐलोपैथिक चिकित्सापद्धति की शिक्षा के साथ ही लोगों ने होते हुये देखा। आयुर्वेद वगैरह में तो वंशपरम्परा से लोग ‘चिकित्सक’ बन जाते थे। और, ऐलोपैथिक पद्धति से चिकित्सा के जो चमत्कारिक नतीजे थे, वो तो थे ही। खास कर महामारी मैलेरिया के इलाज के लिये दवा (कुइनाइन), सबसे अधिक लोगों को चपेट में लाने वाली पेट-सम्बन्धित बीमारियों (कॉलेरा सहित) के निश्चित दवायें एवं पथ्य, जटिल गर्भावस्था के लिये सिजैरियन, फॉर्सेप्स डेलिवरी एवं कई अन्य शल्य चिकित्सायें।…
विद्यासागर के जीवनीकार बिहारीलाल सरकार कहते हैं, “पहले विद्यासागर इस इलाज [होम्योपैथिक] को बिल्कुल नापसन्द करते थे। वर्ष 1866 में, विख्यात होम्योपैथिक चिकित्सक बेरिनि [या शायद बर्निनी होंगे] कलकत्ता आये एवं रोगियों का इलाज करना शुरू किया। कलकत्ते के बऊबाजार इलाके के निवासी डा॰ राजेन्द्रनाथ दत्ता से उनकी अच्छी मित्रता हो गई। राजेन्द्रबाबु ने पहले से थोड़ी बहुत होम्योपैथी सीख रखी थी। बेरिनि की सहायता से वह इस विद्या में दक्षता हासिल किये। वह भी चिकित्सक के रूप में विख्यात हुये। राजेन्द्रबाबु ने विद्यासागर का सरदर्द होम्योपैथिक इलाज द्वारा ठीक कर दिया। राजेन्द्रबाबु द्वारा दिये गये होम्योपैथिक दवा से राजकृष्णबाबु कब्ज के अत्यधिक दर्द से छुटकारा पा गये। राजकृष्णबाबु को शौच के समय एनेमा लेनी पड़ती थी। एनेमा के इस्तेमाल पर सख्त मल अत्यधिक पीड़ा के साथ निकलता था और मलद्वार से निकलते खून से दोनों जांघ भीग जाता था। विद्यासागर महाशय अवाक हो गये कि इस तरह की बीमारी बस कुछ होम्योपैथिक दवा के बूंदों से ठीक हो गया। उसके बाद से वह विशेष तौर पर होम्योपैथिक इलाज की ओर ध्यान देने लगे।”
‘चिकित्सक विद्यासागर’ के लेखक तड़ित कुमार बंदोपाध्याय लिखते हैं, “हम महेन्द्रलाल सरकार के साथ विद्यासागर की मित्रता स्मरण कर सकते हैं। महेन्द्रलाल सरकार तत्कालीन कलकत्ता के जानेमाने चिकित्सक थे एवं विज्ञान आन्दोलन के महत्वपूर्ण मार्गनिर्माताओं में से एक थे। विद्यासागर ने ही डा॰ सरकार होम्योपैथिक इलाज की ओर प्रेरित किया था। अपने चिकित्सक जीवन के पहले चरण में डा॰ सरकार अपने रोगियों का इलाज ऐलोपैथिक तरीके से करते थे और होम्योपैथिक इलाज को पूरी तरह से घृणा करते थे। अक्सर वह होम्योपैथिक इलाज की निंदा करते थे। एक दिन विद्यासागर महाशय एवं महेन्द्रबाबु उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश द्वारकानाथ मित्र को देखने गये जो अस्वस्थ चल रहे थे। वहाँ दोनो होम्योपैथिक इलाज को लेकर तीखे बहस में उलझ गये। अन्तत:, महेन्द्रबाबु विद्यासागर के तर्कों से हार माने और बोले, ‘अब मैं होम्योपैथी की निन्दा नहीं करूंगा। लेकिन जाँच करुंगा कि इसके क्या क्या गुण हैं।‘ अपने जाँचों के उपरान्त वह होम्योपैथिक इलाज में ख्यातिप्राप्त हुये। उनके इलाज की ख्याति से डा॰ बेरिनि की रोगियों की संख्या घट गई, जबकि वह गोरा आदमी थे। लोग डा॰ सरकार को बुलाने लगे बेरिनि को नहीं। इस त्तरह, महेन्द्रलाल की होम्योपैथिक प्रैक्टिस ने डा॰ बेरिनि को यह देश छोड़ने को मजबूर कर दिया। सन 1869 में डा॰ राजेन्द्रनाथ डा॰ बेरिनि को विदा करने पहुँचे तो उन्होने कहा, ‘इतने सारे गोरे लोग इस  देश में आये और पाकेट में पैसा भर भर कर ले गये, और आप खाली पाकेट के साथ वापस जा रहे हैं।‘
जबाब में डा॰ बेरिनि ने कहा, “मैं अपने साथ पाँच हजार रुपये ले कर जा रहा हूँ।’
राजेन्द्रबाबु ने आश्चर्य से पूछा, ‘कैसे?’
डा॰ बेरिनि, ‘महेन्द्र होम्योपैथी के पक्ष में आ गया। इसकी कीमत है पाँच हजार रुपये।’”
तो इस तरह विद्यासागर होम्योपैथी के प्रचार में लग गये। आगे चल कर उनकी छोटी बेटी, जो अत्यंत कष्ट में थी, होम्योपैथिक इलाज से आराम पाई। विद्यासागर इतने प्रभावित हुये कि अपने छोटे भाई को उन्होने होम्योपैथिक डाक्टर बनाया। होम्योपैथिक दवाओं के अद्भुत गुण से, सस्ती कीमतों से तथा लेने में आसानी के कारण काफी प्रभावित हुये। लेकिन, वह तो विद्यासागर थे। खुद उन्होने होम्योपैथी का अध्ययन करना शुरू किया। कलकत्ता के सुकिया स्ट्रीट में रहने वाले डाक्टर चन्द्रमोहन घोष से उन्होने पाठ लेना शुरू किया। असंख्य किताब खरीदे होम्योपैथी पर और चूँकि मानव शरीर के अध्ययन के बिना चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई अधूरी रहती है इसलिये उन्होने मानवकंकाल खरीद कर घर में रखे। मानव के शारीरिक ढाँचे का अध्ययन करने लगे। उनके पुस्तकालय में होम्योपैथी के पुस्तकों का संग्रह देखने लायक है। ज़ार, राड्के, हेरिंग, हनिमैन्…। ये किताबें उस वक्त विदेश से मंगानी पड़ती थी। सीधा न्युयार्क या जर्मनी से वह किताबें मंगाते थे।
सेवा - पश्चिम बंगाल के प्रख्यात मुख्यमंत्री डा॰ विधान चन्द्र राय के नाम से एक कथन काफी प्रचलित है, ‘ऐलोपैथी हो या होम्योपैथी, असली चीज है सिमपैथी’ यानि हमदर्दी। आज कल तो यह आम जान कारी है कि अगर रोगी को हमदर्दी से भरा हुआ वातावरण मिलेगा तब उसका मनोबल ऊँचा होगा, उसकी जीने की इच्छा प्रबल होगी और तब दवायें भी बेहतर असर करेंगी। और विद्यासागर तो ‘दया और करुणा के भी सागर थे। ‘मनुष्यता के सागर’ थे। विद्यासागर जहाँ भी जाते थे, साथ में होती थी होम्योपैथी की किताबें, इलाज की डायरी (जो अभी रवीन्द्रभारती विश्वविद्यालय के आर्काइव में संरक्षित है) एवं होम्योपैथिक दवाओं का बक्सा। असंख्य लोगों का वह इलाज किया करते थे और अच्छा इलाज करते थे। अन्य चिकित्सकों की तरह तो थे नहीं, कहीं भी चले जाते थे किसी के बुलाने पर्। रात रात भर रोगी के सिरहाने बैठ कर, माथे पर पानी का पट्टी देना, या पैर में तेल की मालिश कर देना… सब खुद करते थे और इस काम में न तो वह जाति का भेद करते थे और न धर्म का। हँफनी की खाँसी और पेचिस के दर्द की दवा वह खुद तैयार करते थे। सारी दवायें वह मुफ्त देते थे।
उनकी जनसेवा की ताकत एवं नजरिया खास कर उस वक्त देखने को मिला जब अकाल के समय दक्षिणी बंगाल में उन्होने दर्जनों भोजन व राहत शिविर चलवाये एवं अकाल के बाद मलेरिया के प्रकोप के दौरान बर्धमान जिला में मुफ्त चिकित्सालय व औषधालय चलवाये। जीवनीकार बिहारीलाल सरकार एक बार के वाकया का जिक्र करते हैं, “इस समय प्यारीचांदबाबु के भतीजा गंगानारायण मित्र महाशय विद्यासागर महाशय की काफी मदद करते थे। ‘डिस्पेन्सरी’ का पूरा जिम्मा उन्ही के उपर था। कुइनाइन बहुत कीमती दवा थी, जबकि मरीजों की तादाद हर दिन बढ़ रही थी। इसलिये गंगानारायणबाबु ने सुझाव दिया कि कुइनाइन के बदले ‘सिंकोना’ का इस्तेमाल किया जाय्। विद्यासागर महाशय ने कहा, ‘बीमारी गरीबों को हुई है तो सही दवा का इस्तेमाल नहीं होगा? ऐसा भी कभी होता है? गरीब, दुखी हो या धनी हो, प्राण तो एक ही है; बल्कि बीमारी भी एक ही है।’ गंगानारायणबाबु विद्यासागर की महानता से अभिभूत हो गये। उस समय जो रोगी दवा लेने के लिये ‘डिस्पेन्सरी’ नहीं आ पाता था, विद्यासागर महाशय खुद उनके घरों पर जा कर खुद दवा एवं पथ्य दे आते थे।”    
बाद के वर्षों में, जब वह कर्माटाँड़ में रहने लगे, संस्कृत कॉलेज के भूतपूर्व प्राचार्य महामहोपाध्याय नीलमणि न्यायालंकार महाशय एक बार उनके अतिथि बने। वहाँ रहते न्यायालंकार बीमार पड़े तो विद्यासागर ने अपने हाथों से उनका मलमूत्र साफ किया। वर्धमान में, जब विद्यासागर मलेरिया के मरीजों को दवा एवं पथ्य दिया करते थे एक मेहत औरत बीमार पड़ी। उसे देखने को कोई नहीं था तो विद्यासागर ने ही उसकी सेवा की। कर्माटाँड़ में एक संथाल पीड़ा में था। विद्यासागर खुद उसके सिरहाने बैठ कर उसे दवा पिलाते रहे, पथ्य खिलाते रहे, खुद पकड़ कर मलमुत्र त्याग के लिये ले जाना, पूरे बदन को सहलाना… सब कुछ करते रहे। बौद्धशास्त्रों के विद्वान आचार्य हरप्रसाद शास्त्री एक बार कर्माटाँड़ गये थे लखनऊ जाने के समय। उन्होने संस्मरण में लिखा है कि भरी दोपहर में वह विद्यासागर को खेत के मेंड पर दूर के गाँव से आते हुये देखते थे – एक हाथ में दवा का बक्सा तथा दूसरे हाथ में तेल का कटोरा होता था। कर्माटाँड़ से ही एक बार राजनारायण बसु को उन्होने पत्र लिखा, “मैंने तय किया था कि कल या परसों आपको देखने जाउंगा, लेकिन यहाँ मैं दो मरीजों का देखभाल कर रहा हूँ। वे ऐसी स्थिति में हैं कि मुझे उन्हे छोड़ कर नहीं जाना चाहिये। इसलिये मैं देवघर जाना दो या तीन दिनों के लिये स्थगित कर रहा हूँ।”
अकाल और महामारी से ग्रस्त बंगाल को ऐसा आदमी कहाँ से मिलता जो अपने खर्च से दवा, पथ्य, भोजन की व्यवस्था करे, सेवा करे, आर्थिक मदद दे, अपने इलाज पर भरोसा न हो तो कलकत्ता से अन्य चिकित्सकों को मित्रता के बुलावे पर खींच कर ले जाय दूरदराज के गाँवों में; उनसे इलाज कराये – इसके साक्ष्य उन चिकित्सकों के संस्मरणों में मौजूद हैं। बर्धमान डिविजन के कमिशनर ने उन्हे एक पत्र लिखा:
सेवा में,
पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर,
वीरसिंहो
महाशय,
बंगाल सरकार के सचिव ने मुझे इसी महीने के केएम तारीख के आदेश के द्वारा निर्देशित किया है कि मैं, हाल के दिनों में हुगली जिले में पड़े अकाल में गरीबों को राहत पहुँचाने के लिये आपने जो उदार सेवायें दी उसके लिये सरकार की गर्मजोश स्वीकृति आपको प्रदान करूँ।
भवदीय,
आपके विश्वस्त सेवक,
(ह॰) सी॰ टी॰ मॉन्ट्रिसर
कमीशनर, बर्धमान डिविजन