Tuesday, January 15, 2019

॥ 8 ॥ शिक्षा : महाविद्यालय की स्थापना


पाठक अगर इन्टरनेट का इस्तेमाल करने वाले हों तो गुगल सर्च में अंग्रेजी में लिखें ‘मेट्रोपोलिटन इन्स्टिट्युशन’। शुरु में ही दिखेगा विकिपिडिया पृष्ठ, ‘विद्यासागर कॉलेज’। ऐसा क्यों? पाठक पृष्ठ को खोलेंगे तो निम्नलिखित बातें लिखी मिलेंगी:
“विद्यासागर कॉलेज, उत्तर कोलकाता में, पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के नाम पर, कलकत्ता विश्वविद्यालय से सम्बद्ध एक सरकार-प्रायोजित कॉलेज है। यह भारत का पहला निजी कॉलेज था जो भारतीयों के द्वारा चलाया जाता था, जहाँ भारतीय पढ़ाते थे एवं जिसका वित्त-पोषण भारतीयों के द्वारा होता था। पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने वर्ष 1872 में इस कॉलेज को स्थापित किया था। पहले यह ‘मेट्रोपोलिटन इन्स्टिट्युशन’ के नाम से जाना जाता था।”
विकिपिडिया के उल्लिखित पृष्ठ पर यह भी लिखा मिलेगा कि आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द, आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय, आचार्य यदुनाथ सरकार, राम मनोहर लोहिया, बाबु जगजीवन राम एवं अन्य कई महत्वपूर्ण व्यक्ति इस संस्थान में छात्र बने।
विद्यासागर के जीवनीकार सुबल चन्द्र मित्र ‘मेट्रोपोलिटन इन्स्टिट्युशन’ के जन्म की कहानी बताने के क्रम में तत्कालीन मुद्रित एक पर्चे को उद्धृत करते हैं। पर्चे का शीर्षक था, ‘मेट्रोपोलिटन इन्स्टिट्युशन से सन्बन्धित तथ्यों पर वक्तव्य’। पर्चा कहता है:
“1॰ सन 1859 में, कलकत्ता के उत्तरी भाग मे स्थित शंकर घोष लेन में कलकत्ता ट्रेनिंग स्कूल के नाम से एक विद्यालय स्थापित किया गया था। स्थापित करने वाले थे बाबु ठाकुरदास चक्रवर्ती, बाबु माधवचन्द्र धाड़ा, बाबु पतितपावन सेन, बाबु गंगाचरण सेन, बाबु यादवचन्द्र पालित एवं बाबु वैष्णवदास आढ्य या वैष्णवचरण आढ्य; सभी दिवंगत हो चुके हैं।”
पर्चा आगे यह बताता है कि संस्थापकों ने खुद विद्यालय की स्थापना का सारा खर्च उठाया था ल्रेकिन अन्य कई गण्यमान्य [भारतीय] व्यक्तियों ने कई तरीके से आगे मदद किया। यह भी कि विद्यालय का उद्देश्य था ‘बिना लाभ कमाये मध्यवर्गीय हिन्दु युवाओं के लिये कम खर्च में अंग्रेजी शिक्षा’ जो कि मिशनरी विद्यालयों के ईसाई धर्म प्रचार से खतरे से मुक्त हो।
धारा 4 में पर्चा कहता है:
“4॰ विद्यालय का प्रबन्धन पहले संस्थापक खुद सम्हालते थे लेकिन स्थापना के कुछ महीनों के उपरान्त उन्होने देखा कि पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जो सरकारी संस्कृत कॉलेज के प्राचार्य एवं सरकारी बालिका विद्यालयों के अधीक्षक के तौर पर विद्यालय प्रबन्धन में सबसे अधिक अनुभवी थे, अब सरकारी सेवा से इस्तीफा देने के बाद काफी फुरसत में हैं। तो संस्थापकों ने उन्हे एवं बाबु राजकृष्ण बनर्जी को अनुरोध किया कि वे उन्हे मदद करें। उनकी रजामन्दी प्राप्त करने के बाद, संस्थापकों, उपरोक्त दो भद्रमहाशयों एवं कुछ और सदस्यों को लेकर एक प्रबन्ध-समिति बनाई गई। उक्त समिति ने विद्यालय का मार्च 1861 तक प्रबन्ध किया।”
यहीं से इस संस्था के साथ विद्यासागर के रिश्ते की शुरुआत हुई। अगले 11 वर्षों का इतिहास का पूरा बयान जरूरी नहीं। जैसा अक्सर होता है, संस्थापकों में विद्यालय के सचालन के विभिन्न मुद्दों को लेकर विवाद हुये, कुछ छोड़ कर चले गये, कुछ नये लोग जुड़े, फिर कुछ गुजर गये… सन 1972 आते आते विद्यासागर अकेले इस संस्था के साथ खड़े थे। तब तक विद्यालय का नाम ‘कलकत्ता ट्रेनिंग स्कूल’ से, कुछ अन्य नामों से गुजरते हुये ‘मेट्रोपोलिटन इन्स्टिट्युशन’ हो चुका था। विद्यालय का प्रबन्ध, इसका मालिकाना सब कुछ विद्यासागर के कंधों पर डाल दिया गया, जबकि बैंक में विद्यालय का खाता पैसों के अभाव में बन्द हो चुका था।
लेकिन ईश्वरचन्द्र अपने स्वभाव से मजबूर थे। अगर किसी काम में हाथ डाल दिया तो बस डाल दिया। पीछे हटने का कोई सवाल पैदा ही नहीं होता था उनके सामने। उन्होने अपने पैसे भी लगाये लेकिन आगे उसकी जरूरत नहीं पड़ी। छात्रों की संख्या बढ़ने लगी और विद्यालय स्वावलम्बी हो गया। विद्यासागर अब तक, विद्यालय की बदलती हुई विभिन्न प्रबन्ध समितियों में सचिव के तौर पर काम करते हुये विद्यालय में कई सुधार ला चुके थे। अब उन्होने इसे महाविद्यालय बनाने को ठान लिया। 25 जनवरी 1872 को उन्होने अपने अलावे द्वारका नाथ मित्र एवं क्रिष्टोदास पाल को लेकर एक प्रबन्ध समिति का गठन किया एवं कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलसचिव के पास सम्बद्धता के लिये आवेदन किया।  उन्होने विद्यालय की ओर से कलकत्ता विश्वविद्यालय को पत्र लिखा कि इस विद्यालय से परिक्षार्थियों को स्नातक (कला) प्रथम की परीक्षा देने की अनुमति दी जाय्। उन्हे मालूम था कि विश्वविद्यालय का सिन्डिकेट, जो अंग्रेजों से भरा था, भारतीयों द्वारा चलाये जा रहे संस्था की गुणवत्ता पर कभी भरोसा नहीं करेगी एवं सम्बद्धता नहीं मिलेगी। इसलिये विद्यासागर ने औपचारिक पत्र के अलावा सिन्डिकेट के प्रभावशाली सदस्य ई॰ सी॰ बेली को अलग से पत्र लिख कर उन्हे प्रभावित करने का प्रयास किया।
अन्तत: सम्बद्धता मिल गई और उसके बाद के पहले ही वर्ष में (1874) मेट्रोपोलिटन इन्स्टिट्युशन परीक्षाफल के हिसाब से सभी सम्बद्ध महाविद्यालयों में दूसरे नम्बर पर आया। सब अचंभे में थे। भारतीयों द्वारा चलाया जा रहा भारत का पहला महाविद्यालय और पहले ही वर्ष में दूसरे नम्बर पर! जीवनीकार सुबल चन्द्र मित्र जिक्र करते हैं कि प्रेसिडेन्सी कॉलेज के प्राचार्य एवं कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलसचिव मिस्टर सटक्लिफ ने कहा, “पंडित ने तो गजब कर दिया!”  
फिर क्या था। महाविद्यालय तो चल निकला। सन 1881 से सन 1892 तक मेट्रोपोलिटन इन्स्टिट्युशन के 498 छात्र स्नातक एवं 33 छात्र स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण हो चुके थे। सन 1885 से स्नातक-सम्मान भी शुरू हो चुका था। सन 1885 से सन 1892 तक 86 छात्र स्नातक-सम्मान उत्तीर्ण हुये। सन 1882 में ही कानून की पढाई के लिये भी कलकत्ता विश्वविद्यालय से सम्बद्धता मिल गई थी। अगले दस वर्षों में 513 छात्र कानून में स्नातक हुये। बल्कि सन 1883, 1885 एवं 1886 में इसी महाविद्यालय के छात्रों ने प्रथम स्थान प्राप्त किया एवं उन्हे छात्रवृत्ति मिली।



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