Tuesday, January 15, 2019

॥ 5 ॥ शिक्षा : जनशिक्षा की दिशा में


अंग्रेज सरकार की नीतियों में इंग्लैन्ड में हो रहे हलचलों का थोड़ा बहुत प्रभाव पड़ता रहता था। ऐसे ही एक प्रभाव के कारण सरकारी महकमों में चर्चा होने लगी कि शिक्षा को गरीब, श्रमजीवी, आम जनता के बीच पहुँचाई जाय। सम्बन्धित परिपत्र विद्यासागर के पास भी पहुँचा। विद्यासागर न तो कुलीनतावादी थे और न ही निराशावादी। लेकिन उन्हे बिल्कुल ही विश्वास नहीं था कि अंग्रेज सरकार जनशिक्षा को लेकर वास्तविक तौर पर गंभीर है, क्योंकि वह स्पष्टत: जानते थे कि जनशिक्षा तभी सफल होगी जब वह पूर्णत: नि:शुल्क हो। दूसरी तरफ उन्हे लगता था कि भारत में अभी (यानी उस समय) पूरी जनता की सामान्य साक्षरता या कामचलाऊ शिक्षा से अधिक जरूरी है, बच्चों को पढ़ाने में सक्षम वर्गों से आ रहे छात्र-छात्राओं की, प्राचीन भारतीय वाङमय एवं आधुनिक योरोपीय ज्ञान, दोनों से लैस, गुणवत्ता पूर्ण उच्चशिक्षा ताकि वे समाज को सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व एवं दिशा दे सकें। उन्होने सरकार को भेजे गये एक प्रतिवेदन में कहा भी, कि गरीब जनता के बीच शिक्षा ले जाने के लिये उसे पूर्णत: नि:शुल्क होना होगा, जबकि कोई सरकार उस खर्च को वहन नहीं करना चाहती। उन्होने खुद इंग्लैन्ड का उदाहरण दिया! पूछा, कि जिसकी सरकार यहाँ जनता को शिक्षित करना चाहती है उसकी अपनी धरती पर क्या हाल है? इतने बड़े विद्वानों को पैदा करने वाले देश में, दुनिया पर राज करने वाले देश में इतनी अधिक संख्या में निरक्षर और अनपढ़ लोग क्यों हैं?
दिनांक 29 सितम्बर 1859 को उन्होने बंगाल सरकार के कनीय सचिव रिवर थॉम्पसन को जो पत्र लिखा वह हमें इन्द्र मित्र रचित जीवनी, ‘करुणासागर विद्यासागर’ से मिला। पत्र में विद्यासागर कनीय सचिव द्वारा जारी गश्तीपत्र संख्या 288, दिनांकित 17 जून 1859  की प्राप्ति स्वीकारते हैं। आगे लिखते हैं कि “प्रति विद्यालय 5 से 7 रुपयों के सीमित माहवार खर्च पर बंगाल की आमजनता के लिये सस्ते विद्यालय खोलने का प्रस्ताव, देश की वर्तमान अवस्था में लगभग अव्यवहारिक है। क्योंकि, महज पढ़ना, लिखना और थोड़ा अंकगणित भी सफलता के साथ सीखा पाने वाला आदमी इतने कम वेतन पर सेवा स्वीकार नहीं करेगा, चाहे उसका अपने गाँव से कितना भी जुड़ाव हो।“   
फिर आगे वह जनशिक्षा पर अपनी सोच रखते हैं।
“पश्चिमोत्तर प्रान्तों में चलने वाले हलकाबन्दी विद्यालयों की प्रणाली के बारे में सही सूचनायें मुझे उपलब्ध नहीं है। लेकिन यह मानते हुये कि वही प्रणाली बिहार के विद्यालयों में भी लागू की गई है, मैं कहना चाहूंगा कि वह बंगाल में चलने वाले देशी विद्यालयों [पाठशालाओं – लेखक] की ही जैसी है। बिहार के विद्यालयों में, मैं जितना समझ रहा हूँ, पुरा पाठ्यक्रम सिर्फ पत्र लिखने एवं जमींदार व दुकानदारों का खाताबही लिखने तक सीमित है। इन विद्यालयों से बंगाल के विद्यालयों का बस इतना फर्क है कि बिहार के विद्यालयों में कुछ बेहतर, छपी हुई किताबें नाम के वास्ते इस्तेमाल की जाती है। अगर शिक्षा की ऐसी ही प्रणाली बंगाल में लागू करना सरकार का उद्देश्य है तो [पाठशालाओं के] गुरुमहाशयों को थोड़ा माहवारी वेतन दे देने, कुछ छपी किताबों को उन विद्यालयों में चालू करने एवं उन स्कूलों को सरकारी अधीक्षण के अन्तर्गत लाने से ही उद्देश्य पूरा हो जायेगा। लेकिन मैं जरूर कहूंगा कि वैसी शिक्षा, महत्वहीन तो होगी ही, जनता के बीच, अगर जनता का अर्थ श्रमजीवी वर्ग हैं तो, प्रसारित भी नहीं होगी। क्योंकि, अभी भी इन वर्गों के छात्र, बंगाल और बिहार के विद्यालयों में नाममात्र ही मिलते हैं।
“इस यथार्थ का कारण है श्रमजीवी वर्गों की स्थिति। उनकी स्थिति इतनी बुरी है कि अपने बच्चों की शिक्षा पर वे कुछ भी खर्च नहीं कर सकते। न ही वे अपने लड़कों को, किसी भी किस्म का काम करने लायक उम्र तक पहूँचने के बाद, विद्यालय में रखेंगे। क्योंकि तब वे कुछ कमायेंगे, कितना भी कम क्यों न हो। वे सोचते हैं, और शायद सही सोचते हैं कि उनके बच्चे थोड़ा लिखना पढ़ना सीख जाने से उनकी स्थिति बेहतर नहीं हो जायेगी। इसी लिये उन्हे अपने बच्चों को विद्यालय भेजने में कोई आग्रह नहीं होता। यह उम्मीद करना अतिशय होगा कि सिर्फ ज्ञान प्राप्त करने के लिये वे अपने बच्चो को शिक्षित करेंगे जबकि उच्चतर वर्ग भी अभी तक शिक्षा के लाभों को सही ढंग से नहीं समझते हैं। ऐसी परिस्थिति में श्रमजीवी वर्गों को शिक्षित करने की कोशिश अनावश्यक है। हाँ अगर सरकार वास्तव में इस दिशा में प्रयोग करना चाहती है तो उसे पूर्णत: नि:शुल्क शिक्षा देने को तैयार होना होगा।”
इस दिशा में, यानि गरीबों के लिये पूर्णत: नि:शुल्क शिक्षा मुहैया कराने की दिशा में, विद्यासागर द्वारा उनके अपने पैत्रिक गाँव वीरसिंहो में किये गये काम का ऐतिहासिक महत्व है। विद्यासागर के प्रथम जीवनीकार, उनके अपने सहोदर शम्भुचन्द्र विद्यारत्न इस प्रसंग पर लिखते हैं:
“अग्रज महाशय बचपन से ही इस बात को लेकर मन ही मन आलोड़ित रहते थे कि अपनी जन्मभूमि वीरसिंहो एवं आसपास के गाँवों के निवासी लोगों एवं बालकों के दिमाग का अंधेरा दूर करने के लिये विद्यालय स्थापित करेंगे। लेकिन पैसों के अभाव के कारण यह बात वह कभी किसी से बोल नहीं पाये। अभी उन्हे महीना में तीन सौ रुपये वेतन मिल रहा था और बेतालपंचविंशति, जीवनचरित, बांग्लार इतिहास, उपक्रमणिका, बोधोदय आदि पुस्तकों की बिक्री से लाभ भी अच्छा हो रहा था। इसी करण से, चारों भाईयों के साथ फागुन के महीने में जलमार्ग से उलुबेड़े, गेँयोखालि, तमोलुक, कोला, बाकसी, गोपीगंज होते हुये तीसरे दिन घाँटाल में नाव से उतरे और घर पहुँचे। घर पहुँचकर पिता से उन्होने कहा, ‘एक अरसा पहले आप अक्सर इच्छा व्यक्त करते थे कि गाँव में टोल [परम्परागत ग्रामीण विद्यालय] बना कर आप गाँव के लोगों को विद्या दान करेंगे। अब आपके आशीर्वाद से मेरी स्थिति अच्छी हुई है, इसलिये वीरसिंहो में एक विद्यालय खोलना चाहता हूँ।’ यह सुन कर माँ और पिताजी बहुत खुश होकर भैया का चेहरा चूम कर अपनी प्रसन्नता व्यक्त किये। अगले दिन विद्यालय का स्थान तय हुआ। जमीन के मालिक रामधन चक्रवर्ती एवं अन्यान्य को कीमत चुका कर भैया जमीन की बिक्री का केवाला लिखवा लिये। उसके अगले दिन मजदूर नहीं मिला देखकर भैया खुद सभी भाईयों को लेकर मिट्टी कोड़ने में लग गये। बाद में, जल्द से जल्द विद्यालय के निर्माण के लिये पिताजी को एक हजार से कुछ अधिक रुपये देकर कलकत्ता वापस चले गये। “सन 1853 के चैत में गर्मी की छुट्टी के पूर्व, मध्यम और तीसरा भाई तथा उस समय घर के जो भी सगे-सम्बन्धी संस्कृत कॉलेज के उच्च कक्षाओं पढ़ रहे थे, उन सब को उन्होने गाँव के बालकों की शिक्षा का कार्य करने के लिये भेजा। विद्यालय का भवन तैयार होने में और चार महीने लगते, इसलिये गाँव में अपने आवास तथा आसपास के पड़ोसियों के आवासों में फागुन की माह में वीरसिंहो का विद्यालय प्रारंभ हुआ। इसके पहले इस इलाके में कोई विद्यालय स्थापित नहीं हुआ था। स्थानीय लोगों के मन में अंधविश्वास था कि विद्यालय में पढ़ाई करने से वे इसाई बन जायेंगे। कुछ लोग कहते थे कि बच्चे नास्तिक हो जायेंगे। किसी किसी भट्टाचार्य का संस्कार था कि जाति भ्रष्ट हो जायेगा। और भी कैसी कैसी बातें करने लगे लोग। “उस समय वीरसिंहो गाँव के लोगों की आर्थिक स्थिति बुरी थी। सद्गोप लोग कृषिकर्म कर दिन बिताते थे। उनके बच्चे चरवाही करते थे; कई दूसरों के खेतों में मजदूरीकरते थे। कई परिवारों को शाम तक अन्न जुटाना दुभर हो जाता था। जो भी हो, विद्यालय स्थापित होने के पाँच-सात दिनों के अन्दर सौ से अधिक बच्चे पढ़ने के लिये विद्यालय में प्रवेश किये। क्रमश:, आसपास के पथरा, उदयगंज, कुराण, गोपीनाथपुर, यदुपुर, दन्डीपुर, इड़पाला, दीर्घग्राम। साततेँतुल, आमड़ापाट, पुड़शुड़ी, मामरुल, आकपपुर, आगर, राधानगर, क्षीरपाई आदि गाँवों से काफी बालक विद्यालय में प्रवेश लेने लगे। बहुतों की ऐसी स्थिति नहीं थी कि पाठ्यपुस्तक खरीदें। विद्यालय नि:शुल्क किया गया। अग्रज महाशय, कलकत्ता से तीन सौ से अधिक बालकों के लिये पाठ्यपूस्तक, कागज एवं स्लेट आदि बेझिझक भेजते थे। अपने गाँव में जिन छात्रों को पहनने के कपड़ों का अभाव था, उन्हे कपड़े खरीद देने के लिये उन्होने मुझे आदेश दिया। उस समय, दूर दराज में अध्यापन कार्य करने वाले कई शिक्षकों के पुत्र इस विद्यालय में अध्ययन हेतु चले आये।
“जो लोग दूसरों के घरों में, मजदूरी लेकर दिन में उनकी चरवाही करते थे, उन्हे पढ़ाईलिखाई सिखाने के लिये अग्रज ने नाईट-स्कूल स्थापित किया। उस स्कूल में शाम से रात के दो पहर तक के लिये दो शिक्षक नियुक्त थे, नि:शुल्क पुस्तकें देनी पड़ती थी, और इन सभी चीजों में जो खर्च होता उसका निर्वाह स्वयं अग्रज महाशय करते थे। …
“उस समय इस प्रांत की महिलायें लिखती-पढ़ती नहीं थी। वीरसिंहो में सबसे पहले बालिका विद्यालय की स्थापना हुई। सभी बालिकाओं को नि:शुल्क पुस्तकें मिलती थी। जिस समय कलकत्ता में पहली बार बेथुन-फिमेल-स्कूल स्थापित हुआ, उस समय कलकत्ता-निवासी सम्भ्रान्त दलपतिगण एवं अन्यान्य सम्भ्रान्त लोग बहुतेरे किस्म के हंगामा किये थे। लेकिन वीरसिंहो में बालिका विद्यालय स्थापित होने पर, पड़ोसी सन्तोष के साथ अपनी कन्याओं को विद्यालय भेजा करते थे। इसके चलते, आसपास के दूसरे गाँव के लोग भी किसी प्रकार की आपत्ति नहीं जताये थे।”



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