Tuesday, January 15, 2019

अन्त के बहाने ; “सिर्फ हिन्दू?”


बंगाल के नवजागरण, उस नवजागरण के शीर्षस्थ सांस्कृतिक प्रतिभाओं या समाज सिधारकों की चर्चा करते हुये आम तौर पर हम शहरी मध्यवर्ग की बात तो करते ही हैं, साथ ही, हम सिर्फ हिन्दू समाज की बात करते हैं। जबकी बंगाली समाज सैंकड़ों वर्षों से हिन्दू, मुसलमान और बौद्ध तीनों धर्मावलम्बियों का समाज तो था ही, योरोपीय लोगों के आने के बाद उसमें इसाई धर्मावलम्बी भी शामिल हो गये। देश के बँटवारे के पहले जो पूरा बंगाल प्रांत था, उसमें मुसलमान आबादी बहुत बड़ी संख्या में थी। यह कोई संयोग नहीं है कि बंगला काव्य में क्रांति लाने वाले तीन श्रेष्ठतम कवि तीन धर्म के हैं – माइकल मधुसूदन दत्त, रवीन्द्रनाथ ठाकुर एवं काजी नजरुल इसलाम। जबकि, बंगला काव्य की शुरुआत जिस काव्य से माना जाता है, ‘चर्यापद’ का वह काव्य बौद्ध साहित्य का हिस्सा है एवं उत्तरकालीन-बौद्ध नाथ-योगी सम्प्रदाय के कवियों का रचा हुआ है।
बंगला भाषा एवं बंगाली जीवनधारा के बारे में एल सटीक मन्तव्य करते हैं ढाका बंगला अकादमी के भूतपूर्व महानिदेशक शम्सुज्जमान खाँ।
“ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि बंगालियों के सोचविचार की धारा का रुपान्तरण पिछले कुछेक वर्षों में एक खास नक्शे के अनुसार हुआ है। स्थानीय नाथ-योगी, तांत्रिक, बाउल-वैष्णव, साधकों के गुप्त साधना के पंथ, चैतन्यदेव का गौड़ीय वैष्णव धर्म-संस्कृति-दर्शन, इसलाम का सूफीमत एवं मूल धर्मसमूह के भीतर से चुने गये लौकिक बोध व मानव-ष्रेष्ठता की वाणी ही विशाल ग्रामीण जनपद के ग्रहण-वर्जन-समन्वय के द्वारा एक जीवनधारा के रूप में विकसित हुई है। मध्ययुग तक राज्य के केन्द्रीय नियंत्रण व प्रभाव क्षेत्र से बाहर रहकर आम लोगों ने, अपनी लौकिक हितबुद्धि व समाज निर्माण की जरूरत से इस धारा को चुन लिया। और इस धारा की अभिव्यक्ति का माध्यम बनी हमारी मातृभाषा, बंगला।
“समज व व्यक्तिजीवन के साथ भाषा के इस ओतप्रोत सम्बन्ध के बीच से ही बनती है बंगाल की अपनी, जीवनघनिष्ठ व गहन मानविक एक प्राणवान संस्कृति। यह संस्कृति बंगाली हिन्दुओं का नहीं है, बौद्धों का नहीं है, इसाई या मुसलमानों की नहीं है – यह संस्कृति सभी बंगालियों की समन्वित संस्कृति है।” [भाषा संग्रामेर मध्ये दिये जाति ओ राष्ट्र गठन, शामसुज्जामान खाँ, उत्तरपूर्व24॰कॉम, दिनांक 22॰2॰2016]
तो फिर ऐसा क्योंकर हुआ कि नवजागरण का पूरा विमर्श हिन्दू समाज के भीतर होता हुआ दिखने लगा? कैसे आया यह परिदृश्य?
हम इस परिदृश्य के नेपथ्य पर संक्षिप्त ही चर्चा करेंगे, क्योंकि फिलहाल हमें सिर्फ विद्यासागर के कर्मजीवन एवं उनके नजरिये पर सीमित रहना है।
दो बात पहले ही स्पष्ट कर देना चाहते हैं।
पहला यह, कि किसी भी सामाजिक आह्वान में जनता के अलग अलग तबकों का नाम लेकर जिक्र करना, जैसे ‘महिलाओं’, ‘युवाओं’, ‘पिछड़ों’, दलितों’, ‘मुसलमानों’ आदि… सामाजिक अन्याय के प्रतिकार के आन्दोलन के पनपने एवं आगे बढ़ने के बाद शुरू हुआ है। बाद में पहचान की राजनीति का पुट भी उसमें जुड़ गया हैं। जिस समय की हम चर्चा कर रहे हैं उस समय बंगाल के ग्रामीण समाज में ‘हिन्दू’ और ‘मुसलमान’ बस पड़ोसियों के बीच का धार्मिक-सांस्कृतिक फर्क था, विवाद नहीं था। वह फर्क भी शताब्दियों तक साथ जीने के क्रम में बहुत कुछ मिट चुका था। बहुत सारी लोक-धार्मिक परम्पराओं में दोनो समुदाय एक दूसरे के हिस्सेदार बन चुके थे। ऐसे उदाहरण भी मिलते थे कि दोनों समुदाय के लोग साथ बैठ कर एक ही हुक्के से तम्बाकु भी पीते थे कहीं कहीं। समाज के तत्कालीन मध्यवर्ग़ीय या उच्चवित्त नेताओं में भी, ‘हिन्दू’ और ‘मुसलमान’ पहचान के बनाये रखने की, मेल-मिलाप को रोक कर, पहचान की स्वतंत्रता को आगे बढ़ाने की कोशिश जरूर थी, लेकिन विवाद शुरु नहीं हुआ था। दूसरी ओर, धर्म के अन्दर जातियों का फर्क भी सामान्यत: सर्वमान्य था, कुछेक कूप्रथाओं को दूर करने हेतु जारी बहस के अलावे बाकी अत्याचार और दमन के सवाल जमीन्दार और रैयत, मालिक और नौकर, अमीर और गरीब के सम्बन्धों के अन्तर्गत थे।
दूसरा, बेशक हिन्दू कॉलेज प्रेसिडेन्सी कॉलेज बनने से पहले तक सिर्फ हिन्दुओं के लिये था और मुसलमानों के लिये कलकत्ता मदरसा था (जैसा कि पहले कहा गया है उस समय के कॉलेज आज के जैसे नहीं थे। उनमें निचली कक्षायें भी शामिल होती थीं। इसलिये कलकत्ता मदरसा और हिन्दू कॉलेज के पाठ्यक्रम में दर्जे का अन्तर नहीं था, हाँ, बनावट का अन्तर था)। और, संस्कृत कॉलेज तो बनाया ही गया था प्राचीन हिन्दू शास्त्रों के अध्ययन को सक्षम पंडितों को तैयार करने के लिये।
लेकिन, विद्यासागर द्वारा खोले गये आदर्श बंग विद्यालय या अंग्रेज सरकार के ‘मॉडल स्कूल’ सभी के लिये थे। सभी धर्मों के लिये एवं सभी जातियों के लिये। उनके अपने पैसे से पैत्रिक गाँव वीरसिंहो में खोले गये विद्यालय या चरवाहों एवं अन्य श्रमजीवियों के लिये खोले गये रात्रि-विद्यालय में भी जाति या धर्म आधारित कोई भेदभाव नहीं था; बल्कि वे पूर्णत: नि:शुल्क थे, जबकि सरकारी आदर्श बंग विद्यालयों में शुल्क लगता था। हाँ, ये आदर्श विद्यालय दो मायनों में अलग थे। उसके पहले से चले आ रहे मिशनरी या निजी विद्यालयों में पठन का माध्यम अंग्रेजी था, आदर्श बंग विद्यालयों में पठन का माध्यम था मातृभाषा। दूसरी ओर, कभी सरकार द्वारा स्वीकृत ‘पाठशालाओं’ का पाठ्यक्रम निचले दर्जे का था। बंग विद्यालयों का पाठ्यक्रम, विद्यासागर द्वारा बनाया गया एवं उच्च दर्जे का था।
एक उद्धरण से शायद स्थिति स्पष्ट होगी:
“सरकार द्वारा प्रत्यक्षत: प्रबन्धित विद्यालयों के वर्ष 1856-57 के प्रतिवेदन में दिये गये आँकड़ों का अगर विश्लेषण किया जाय तो दिखेगा कि बंगाल में कुल 5303 विद्यार्थियों में 4612 हिन्दू थे, 689 मुसलमान और औरंगज़ेब इसाई थे। सरकारी निरीक्षण के अन्तर्गत एवं अनुदान प्राप्त करन्र वाले विद्यालय दो किस्म के थे – एक, अंग्रेजी और बंगला पढ़ाने वाले और दूसरे, सिर्फ बंगला पढ़ाने वाले। पहले किस्म के 70 विद्यालयों में 8175 विद्यार्थी थे जिनमें 7806 हिन्दू थे, 349 मुसलमान और 20 हिन्दू या मुसलमान से अलग। दूसरे किस्म के, सिर्फ बंगला पढ़ाने वाले, 114 विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या थी 7169, जिनमें 6559 थे हिन्दू, 548 मुसलमान एवं 62 मुसलमान या हिन्दू से अलग। यह गौरतलब है कि अनुदान की व्यवस्था के अन्तर्गत चलने वाले 184 विद्यालयों में आधे से अधिक कलकत्ता के अन्दर या आसपास में बने हुये थे। इस तरह, बंगाल में इन तमाम किस्म के विद्यालयों में विद्यार्थियों की कुल संख्या थी 20,647, जिनमें हिन्दू थे 18,977, मुसलमान थे 1586 एवं 84 इन दोनों समुदायों से अलग।” [British Policy and the Muslims in Bengal 1757 – 1856, Azizur Rahman Mallick, 2nd Edition, June 1977, Bangla Academy, Dhaka, P. 373]
यानि, अंग्रेज सरकार के शिक्षा प्रशासन के अन्दर चलते विचारधाराओं की बहस तथा हिन्दू मुसलमान दोनो तबकों के सम्पन्न वर्गों की अलगाववादी पेशकश के नतीजे में बनी शिक्षा प्रणाली में सस्कृत शास्त्र पढ़ाने वाले सिर्फ हिन्दू छात्रों की संस्थायें भी थी, अरबी-फारसी पढ़ाने वाली सिर्फ मुसलमान छात्रों की संस्थायें भी थीं, और इन दोनों से अलग तीन तरीके के आम विद्यालय थे, मिशनरी विद्यालय, निजी (सरकारी अनुदान प्राप्त या अप्राप्त) विद्यालय एवं पूर्णत: सरकारी विद्यालय जहाँ, पढ़ाई चाहे अंग्रेजी में हो या बंगला में, थे सबके लिये।
बल्कि हिन्दू और मुसलमान दोनों तबके के शिक्षाविदों की संयुक्त कोशिशें भी थीं, शिक्षा को आम जनता तक पहुँचाने के लिये। प्रख्यात इतिहासविद अमलेन्दु दे अपने शोधग्रंथ ‘द रूट्स ऑफ सेपरेटिज्म इन नाइन्टिंथ सेन्चुरी बेंगॉल’ में लिखते हैं:
“उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में शिक्षा के क्षेत्र में भी कुछ हिन्दू-मुसलमान संयुक्त प्रयास हुये थे। मृत्यजय विद्यालंकार एवं राधाकान्त देव के साथ मौलवी करम हुसैन, मौलवी अब्दुक वाहेद एवं मौलवी मुहम्मद अमिनुल्लाह भी कैलकाटा स्कूल बुक सोसायटी (1817) से जुड़े हुये थे; यह सोसायटी छात्रों को बंगला एवं अंग्रेजी में पाठ्यपुस्तकों मुहैया कराने के लिये स्थापित किया गया था। … इस सोसायटी के अलावा चार मुसलमान कैलकाटा स्कूल सोसायटी (1818) के प्रबंधन समिति में भी शामिल किया गया था। बेशक वे अंग्रेजी नहीं जानते थे। इस सोसायटी के पहल पर जो पाठशालायें स्थापित किये गये थे वहाँ हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्म के छात्र पाठ लेते थे, हालांकि हिन्दुओं की संख्या मुसलमानों से अधिक थी।” [Amalendu De, Roots of Separatism in Nineteenth Century Bengal, Ratna Prakashan 1974, P.3]
तो फिर, बात क्या थी? क्यों बंगाल के नवजागरण पर चर्चा में सिर्फ हिन्दू समाज सुधार, हिन्दू समाज सुधारक, ल्र्खक, पत्रकार, शिक्षाविद या साहित्यकारों के नाम आते हैं? क्यों मुसलमान आबादी, बंगाल की पूरी आबादी (बँटवारे से पूर्व) का आधा (कभी कभी आधा से अधिक) होने के बावजूद न तो समकालीन कोई मुसलमान समाज सुधारक, विद्वान, शिक्षाविद या लेखक का नाम नवजागरण के विमर्श में शामिल होता है और न ही मुसलमान छात्रों की संख्या उनकी आबादी का समानुपात होते हुये दिखता है?
इसका उत्तर इतिहास में है। कुछ तो उन्ही किताबों में है जिनसे उपर की उद्धृतियाँ ली गई हैं और कुछ अन्य किताबों में हैं।
संक्षेप में, इन प्रश्नों के उत्तर 19वीं सदी से पहले के दो घटनाक्रमों से जुड़े हैं। पहले घटनाक्रम का थोड़ा लम्बा इतिहास है। उपर में शम्सुज्जमान खाँ के जिस निबंध से उद्धरण लिया गया है उसी निबंध में वह आगे चल कर कहते हैं:
“… सोलहवीं सदी में ही बंगला भाषा एवं बंगालियों का समन्वित राष्ट्रनिर्माण का प्रयास फिर से राज्यसत्ता के कारण वाधित हुआ। … सम्राट अकबर के समय बंगाल का इलाका ‘सूबे बंगला’ के नाम से केन्द्रीय शासन के अधीन में आ गया। अकबर के जमाने की भूमिनीति कॉर्नवालिस के स्थाई बन्दोबस्त के ही अनुरूप थी। इस नीति के कारण जिस अभिजात वर्ग का जन्म हुआ उसके मुसलमान हिस्से ने उत्तर भारतीय संस्कृति के प्रभाव में बंगाल के मुसलमानों को अशरफ एवं अतरफ दो भागों में बाँट दिया। और कहा गया कि अशरफ बंगाली मुसलमानों की मातृभाषा है उर्दू।”
ऐसी ही एक परिस्थिति में आई इस्ट इन्डिया कम्पनी और कायम हुआ अंग्रेजों का शासन। मुसलमान शासक सत्ता से बाहर हो गये। सेना और प्रशासन से नियंत्रण हट गया। धीरे धीरे प्रशासन में अंग्रेजी ने अरबी, फारसी की जगह ले ली। दूसरी ओर, जो हिन्दू अधिकारी पूर्व के बादशाही प्रशासन में, खास कर  फिर आया स्थाई बन्दोबस्त। नये बने जमीन्दारों के अधिकांश थे हिन्दू। अमलेन्दु दे लिखते हैं कि नब्बे प्रतिशत जमींदार हिन्दू थे जबकि आबादी बराबर बराबर की थी (सन 1881 के मर्दुमशुमारी के अनुसार तो मुसलमान जनसंख्या हिन्दुओं से कुछेक हजार अधिक थी)। व्यापार और बैंकों की मिल्कियत हिन्दुओं के हाथों में थी। नागरिक प्रशासन में भी हिन्दू थे। उन पर बादशाही शासन जाने और कम्पनी शासन के आने का कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा।
ऐसी परिस्थिति में जब कम्पनी शासन और नई जमीन्दारी या सामन्ती शोषण के खिलाफ किसानों/रैयतों, कारीगरों और बादशाही फौज से बड़ी तादाद में बेरोजगार हुये (उपरोक्त पुस्तक में अमलेन्दु दे यह संख्या बीस लाख की बताते हैं) फौजियों ने जगह जगह बगावत शुरू किया तो उन बगावतों में बड़ी संख्या में मुसलमान ही थे। जिस सन्यासी विद्रोह पर बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने आनन्दमठ लिखा वह सन्यासी विद्रोह भी वास्तव में सन्यासी-फकीर विद्रोह था और भवानी पाठक और उनके दल से पहले और अधिक बड़े पैमाने पर थे मजनू शाह, उनके चेले और उनका दल (देखिये अयोध्या सिंह रचित ‘भारत का मुक्तिसंग्राम’)। अंग्रेजों के विरोध में हो रहे बगावतों में आम मुसलमान इतनी अधिक संख्या में थे कि सन 1871 में डब्ल्यु॰ डब्ल्यु॰ हन्टर की जो किताब आई ‘द इन्डियन मुसलमान्स’, उसके पहले संस्करण का उपशीर्षक ही था ‘आर दे बाउन्ड इन कॉनसायन्स तो रिबेल अगेन्स्ट द क्वीन?’ (क्या वे रानी के खिलाफ बगावत करने को अपने विवेक से प्रतिबद्ध हैं?)
दूसरी ओर, इन बगावतों के नेतृत्व में स्वाभाविक तौर पर जैसे हिन्दू सन्यासी आये, मुसलमान फकीर आये उसी तरह इसलामी कट्टरता की ओर ले जाने वाली ताकतें भी बड़ी तादाद में आ गई। फराइजी आन्दोलन कुछ भी गैर-इसलामी को छोड़ने का निर्देश दिया और अंग्रेजी सीखना या बंगला को मातृभाषा मानना दोनों उनके लिये गैर-इसलामी था। दूसरी ओर वहाबी आन्दोलन धार्मिक कट्टरता के रास्ते पर चलते हुये भी सन 1857 के गदर को देखते हुये अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद का आह्वान कर दिया। शहरी मध्यवर्ग या सम्पन्न वर्ग के मुसलमानों का बड़ा हिस्सा खुद अंग्रेज-विरोध में हिस्सा न लेते हुये भी अध-मने कदम से आगे बढ़ रहे थे। जिस रास्ते पर वे खुद चल रहे हैं, इसी रास्ते पर जनता भी चले, ऐसा खुला आह्वान वे दे नहीं पा रहे थे। शायद कुछेक को यह भी लग रहा होगा कि जो गाँव गाँव में विरोध व वगावत हो रहे हैं, ये शायद अंग्रेजों के साथ लेनदेन में उनकी तकत को बढ़ायेंगे। बस दो चार मुसलमान विद्वानों की आवाजें मिलती हैं उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध या मध्य में  जो आधुनिक शिक्षा को मुसलमान जनता के बीच फैलाने की बात करते हैं, अंग्रेजी शिक्षा की बात करते हैं, आधुनिक पाठ्यक्रम की बात करते हैं या, अपनी मातृभाषा को बंगला बताते हुये मातृभाषाई शिक्षा-प्रणाली (वर्नाकुलर एजुकेशन) में सब को शामिल होने के लिये आह्वान करते हैं।    
यही कारण थे कि आधुनिक शिक्षा, आधुनिक ज्ञान, आधुनिक मूल्यों के आधार पर सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक सुधार के के रास्ते पर बंगाल के मुसलमान हिन्दुओं से पिछड़ते चले गये। उनमें यह जागरूकता उन्नीसवीं सदी के अन्त में दिखाई पड़ी। मुसलमान नारी की शिक्षा और सामाजिक जड़ता से मुक्ति की दिशा में बीसवीं सदी की शुरुआत में बेगम रोकेया सखावत हुसैन ने जो आत्मत्याग और संघर्ष का उदाहरण पेश किया उसे देखते हुये आज हम उन्हे ‘रोकेया माता’ की संज्ञा देते हैं; उन्हे ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की सबसे महान शिष्या मानते हैं।
बांग्लादेश के प्रख्यात विद्वान अहमद शरीफ ने लिखा:
“बंगाली मुसलमान समाज में एक भी, राममोहन की तरह संशयवादी, अन्तरराष्ट्रीय चेतना से लैस कर्मयोगी या विद्यासागर की तरह मानवहितवादी, नास्तिक, जुझारू पुरूष का जन्म नहीं हुआ। शायद जिस प्रकार के समय की जरूरत पर राममोहन-विद्यासागर का आविर्भाव हुआ, प्रतीच्य-चेतना से विमुख मुसलमान समाज को उस प्रकार के समय का एहसास नहीं हुआ। या, राममोहन-विद्यासागर ने समाज के लिये जो कुछ किया, उन कामों ने, जागरण का पल आने पर, प्रतीच्य ज्ञानप्राप्त मुसलमान समाज को भी दिशा दिखाया था। कौन अस्वीकार करेगा कि अनुगामियों के लिये चलने का रास्ता मार्गनिर्माताओं से अधिक स्वच्छंद होता है। बंगाली मुसलमान अपने पड़ोसी के पीछे चलने वाला था इसीलिये अनायास ही कई समस्याओं समाधान अनुकरण द्वारा पा गया था। फिर भी, शायद सवाल रह जाता है – राममोहन एवं विद्यासागर की तरह काल-प्रत्याशित, मुक्तचित्त-द्रोही एवं नास्तिक-मानववादी की अनुपस्थिति, मुसलमान समाज के लिये सौभाग्य था या दुर्भाग्य?” [विद्यासागर, अह्मद शरीफ, पथिकृत पत्रिका, ईश्वरचन्द्र विशेष संख्या, अक्तूबर 1991]    



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