पाठक शायद जानते होंगे कि झारखंड के जामताड़ा जिले में स्थित कर्माटाँड़
कस्वे में विद्यासागर ने जमीन सहित एक मकान खरीदा था। दिनांक 2 अप्रैल 1974 का हिन्दुस्तान
स्टैन्डर्ड अखबार में छपी एक खबर के अनुसार इस मकान का नाम ‘डायस बंग्लो’ था। खरीदने
के बाद (एवं शायद कुछ परिवर्तन के साथ) विद्यासागर ने मकान का नाम रखा था ‘नन्दन कानन’।
उस वक्त यह स्थान बंगाल प्रेसिडेन्सी के अन्तर्गत बिहार इलाके के संथाल परगना जिले
में आता था। विद्यासागर ने यह सम्पत्ति उन्नीसवीं सदी में सत्तर की दशक की शुरुआत में
किसी समय खरीदी थी। सन 1874 से उनके यहाँ रहने के तथ्य मिलते हैं। बीच बीच में काम
से वह कलकत्ता, बर्धमान या और किसी जगह जाया करते थे। फिर जब ज्यादा बीमार पड़ने लगे
तो उन्हे कलकत्ता जाकर रहना पड़ा। मोटे तौर पर जीवन के अंतिम 18 वर्ष वह इसी तरह गुजारे।
कर्माटाँड़ आने के कई कारण
थे। कलकत्ते के हिन्दु मध्यवर्गीय लोगों की कूपमन्डुकता, रुढ़िवाद एवं उनके द्वारा किये
जा रहे सुधार-प्रयासों के विरोध से विद्यासागर उकता गये थे। अपने परिवार से भी वह परेशान
थे। नीतियों पर अड़े रहने की अपनी जिद पर वह कभी समझौता नहीं किये। बड़े बेटे को उन्होने
वजायाफ्ता इच्छापत्र (विल) बनाकर सभी सम्पत्ति से अलग कर दिया था इसी कारण से। खैर,
वह एक अलग कहानी है।
यहाँ जिक्र करने लायक
एक ही बात है कि कर्माटाँड़ में उन्होने शैक्षणिक कार्य छोड़ा तो नहीं ही, बल्कि उसके
नये आयाम खुले। उन्होने यहाँ के संथाल घरों की बेटियों के लिये कन्या विद्यालय शुरू
किया। साथ ही, वयस्क संथालों के लिये शाम को प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम शुरू किया।
उनके इन दोनों कार्यों
का जिक्र समकालीन लेखन में मौजूद है। लेकिन अधिक जानकारी अनुपलब्ध है, जैसे, कितनी
बालिकायें आती थी या कितने प्रौढ़ आते थे, उन्हे किस किस विषय का पाठ दिया जाता था,
दिन के किस समय से किस समय तक चलते थे विद्यालय आदि। लेकिन गौर तलब है कि मिशनरियों
से अलग, तत्कालीन बंगाल प्रेसिडेन्सी के आदिवासियों में किसी भारतीय द्वारा किया गया
यह पहला कन्या-शिक्षा कार्यक्रम था। प्रौढ़ शिक्षा का कार्यक्रम तो सभी पैमाने पर इस
देश का पहला था।
उनके इस ऐतिहासिक कार्य
को सम्मानित करने के लिये 100 वर्षों बाद 1979 में जब स्वतंत्र भारत के बिहार सरकार
ने प्रौढ़ शिक्षा के तत्कालीन कार्यक्रम को लागू करने को सोचा तो उसका उद्घाटन कर्माटाँड़
स्थित ‘नन्दन कानन’ में ही किया गया। ज्ञातव्य हो कि उस समय तक, बिहार बंगाली (अविभाजित
बिहार की) समिति ने ‘नन्दन कानन’ को खरीद लिया था। धरोहर को बचाने का यही एकमात्र तरीका
था एवं बिहार सरकार ने इस पुनीत कार्य में पूरी तरह सहयोग किया था। बल्कि, बिहार बंगाली
समिति द्वारा लगातार किये गये आवेदनों को स्वीकारते हुये केन्द्रीय सरकार ने रेलवे
स्टेशन का नाम भी ‘कर्माटाँड़’ से बदल कर ‘विद्यासागर’ कर दिया था।
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