Sunday, November 24, 2019

आवास का प्रश्न, भाग 3 (4) फ्रेडरिक एंगेल्स

IV
इतना स्याही और कागज खर्च करना, मुलबर्गर के विविध घुमावों और मोड़ों को भेदते हुये रास्ता बनाकर उस वास्तविक मुद्दे पर पहुँचने के लिये जरूरी था जिसे अपने जबाब में मुलबर्गर सावधानीपूर्वक टाल जाते हैं।
मुलबर्गर के आलेख में सकारात्मक वक्तव्य क्या क्या हैं?
पहला: कि “किसी घर, निर्माणक्षेत्र आदि के मूल लागत एवं वर्तमान मूल्य के बीच का फर्क” अधिकारपूर्वक समाज का होता है।102 अर्थनीति की भाषा में इस फर्क को भूमि-किराया कहते हैं। प्रुधों भी इसे समाज के लिये रखना चाहते हैं, उनके द्वारा रचित आइडिए जेनराले द ला रिवोल्युशँ के सन 1868 के संस्करण में पृष्ठ 219 पर कोई चाहे तो इस बात को पढ़ सकता है।
दूसरा: कि आवास की समस्या का समाधान सभी के, अपने घरों में किरायेदार होने के बजाय उस घर का मालिक बन जाने में है।
तीसरा: कि यह समाधान एक कानून पारित कर प्रभाव में लाया जायगा, जिसके तहत किराये के भुगतान को घर की खरीद की कीमत के किश्तों के भुगतान में बदल दिया जायेगा। --दूसरा एवं तीसरा बिन्दु दोनों प्रुधों से उधार लिया गया है; कोई भी उनके आइडिए जेनराले द ला रिवोल्युशँ के पृ॰ 199 पर, सम्बन्धित अंश में देख सखता है। पृष्ठ 203 में सम्बन्धित कानून की परिकल्पना का एक मसौदा भी तैयार किया हुआ है।
चौथा: कि व्याज की दर को तत्कालिक तौर पर एक प्रतिशत पर लाने वाले एवं आगे और भी कम किये जाने के प्रावधान के साथ एक संक्रमणकालीन कानून के द्वारापूंजी की उत्पादकता से निर्णायक टक्कर लिया गया। यह बिन्दु भी प्रुधों से लिया गया है, जो विशद में आइडिये जेनराले के पृष्ठ 182 से लेकर 186 तक में पढ़ा जा सकता है।
उपरोक्त हर बिन्दु पर मैंने प्रुधों की उन रचनाओं में से अंश उद्धृत किये है, जिनमें मुलबर्गर कृत नकल का मूल मिलेगा। और अब मैं पूछता हूँ कि जिस आलेख में पूरी तरह और सिर्फ प्रुधोंवादी नजरिया है, उसके लेखक को प्रुधोंवादी कहना मेरे लिये उचित था कि नहीं था? इसके अलावा, मुलबर्गर को मुझसे सबसे कड़ुवी शिकायत इस बात के चलते हैं कि उनके आलेख में “प्रुधों की कुछेक खास अभिव्यक्तियाँ पा जाने” के कारण मैं उन्हे प्रुधोंवादी कहता हूँ। नहीं। बल्कि “अभिव्यक्तियाँ” सभी मुलबर्गर की है, उनकी सामग्री प्रुधों की है। और जब मैं इस प्रुधोंवादी अन्वेषण का अनुपूरण प्रुधों से करता हूँ, मुलबर्गर शिकायत करते हैं कि मैं प्रुधों के “विकट नजरिये” का श्रेय उन्हे दे रहा हूँ!
मैंने इस प्रुधोंवादी योजना का क्या जबाब दिया था?
पहला: कि भूमि-किराया का राज्यसत्ता को अन्तरण भूमि पर व्यक्तिगर सम्पत्ति का अन्त है।
दूसरा: कि किराये के घर की पापमुक्ति एवं अभी तक जो किराएदार था उसके नाम घर की सम्पत्ति का अन्तरण से पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली पर कोई असर नहीं पड़ता है।
तीसरा: कि बड़े उद्योगों एवं शहरों के मौजूदा विकास के परिप्रेक्ष्य में यह प्रस्ताव उतना ही निरर्थक है जितना प्रतिक्रियावादी है, और हर एक व्यक्ति को उसके घर के व्यक्तिगत मालिकाने की व्यवस्था की पुन: शुरुआत, पीछे की ओर जाता हुआ एक कदम होगा।
चौथा: कि पूंजी पर व्याज की दर में बाध्यकर कमी किसी भी तरह पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली पर हमला नहीं करता है103; और जैसा कि सूदखोरी के कानून साबित करते हैं, यह उपाय जितना पुराना है उतना ही असम्भव है।
पाँचवाँ: कि पूंजी पर व्याज का अन्त किसी भी तरह घरों के लिये किराये के भुगतान का अन्त नहीं करता है।
मुलबर्गर अब दूसरा एवं चौथा बिन्दु मान चुके हैं। बाकी बिन्दुओं पर वह कोई भी जबाब नहीं देते। जबकि ये ही वे बिन्दु हैं जिन पर पूरा वाद-विवाद केन्द्रित है। मुलबर्गर का जबाब, खण्डन नहीं है। सावधानी से यह जबाब सभी आर्थिक बिन्दुओं को टाल जाता है, जबकि वे बिन्दु ही निर्णायक हैं। यह बस एक व्यक्तिगत शिकायत है। उदाहरण के तौर पर, जब मैं पहले से, अन्य प्रश्नों, जैसे राज्यसत्ता के ॠण, निजी ॠण एवं साख पर उनके घोषित समाधानों को जान जाता हूँ और बोलता हूँ कि मुलबर्गर का समाधान आवास के प्रश्न की तरह ही सभी जगहों पर एक जैसा होगा – व्याज का अन्त, व्याज के भुगतान को पूंजीगत रकम पर किश्त के भुगतान में रुपांतरण और नि:शुल्क साख – वह शिकायत करते हैं। तब भी, मैं बाजी रखने को तैयार हूँ कि अगर उपरोक्त विषयों पर मुलबर्गर के आलेख प्रकाशित हों तो उनकी मूलभूत सामग्री प्रुधों के आइडिये जेनराले से मेल खायेंगे – साख, पृष्ठ 182 के साथ, राज्यसत्ता के ॠण, पृष्ठ 186 के साथ, निजी ॠण, पृष्ठ 196 के साथ – ठीक उतना ही मेल खायेंगे जितना आवास के प्रश्न पर उनके आलेख, प्रुधों की उसी किताब के मेरे द्वारा उद्धृत अंशों से मेल खाये।
मुलबर्गर इस अवसर का इस्तेमाल करते हुये मुझे सूचित करते हैं कि कर-निर्धारण, राज्यसत्ता के ॠण, निजी ॠण एवं साख जैसे सवाल, जिनके साथ अब सामुदायिक स्वशासन भी जुड़ गया है, किसानों के लिये एवं गाँवोँ में प्रचार की दृष्टि से सर्वाधिक महर्वपूर्ण सवाल हैं। काफी हद तक मैं सहमत हूँ लेकिन, 1) अभी तक किसानों के बारे में कोई चर्चा नहीं हुई है और 2) इन सभी समस्याओं का प्रुधोंकृत “समाधान” आर्थिक तौर पर उतना ही निरर्थक है और उतना ही मूलभूत तौर पर पूंजीवादी जितना है आवास की समस्या का उनका समाधान। मुलबर्गर के इस सुझाव के विरुद्ध, कि मैं किसानों को आन्दोलन में लाने की आवश्यकता को समझने में असफल हूँ मुझे अपनी सफाई देने की शायद ही जरूरत है। वैसे, मैं उन्हे इस काम के लिये प्रुधोंवादी नीमहकीमी की अनुशंसा करने को नि:सन्देह नादानी समझूंगा। जर्मनी में अभी भी काफी बड़ी भू-सम्पत्तियाँ मौजूद हैं। प्रुधों के सिद्धांत के अनुसार इन सारी सम्पत्तियों को छोटी किसानी के खेतों में बाँट दिया जाना चाहिये। यह प्रस्ताव, वैज्ञानिक कृषि की वर्तमान स्थिति में तथा फ्रांस एवं पश्चिम जर्मनी में किये गये छोटे भू-आबंटनों के अनुभव के बाद, निश्चय ही प्रतिक्रियावादी है। बल्कि, बड़ी जमीन वाले जायदाद जो अभी भी मौजूद हैं, बड़े पैमाने पर खेती चलाने के स्वागतयोग्य आधार होंगे। बड़े पैमाने पर खेती, खेती की एकमात्र पद्धति है जो आधुनिक सुविधाओं, यंत्रसमूहों आदि का इस्तेमाल, सहयोगी श्रमिकों के द्वारा कर सकता है – और इस तरह छोटे किसानों को, सहयोगिता के माध्यम से बड़े पैमाने पर काम के लाभों को समझा सकता है। डेन्मार्क के समाजवादी, जो इस मामले में सबसे आगे हैं, बहुत पहले इस पहलु को जान गये थे।104
उतना ही गैरजरूरी है मेरे लिये इस सुझाव के खिलाफ अपना बचाव करना कि मैं श्रमिकों की मौजूदा जघन्य आवासीय स्थिति को “एक तुच्छ ब्योरा” मानता हूँ। जहाँ तक मैं जानता हूँ, मैंने ही सबसे पहले जर्मन में इन स्थितियों के शास्त्रीय रूप – जो इंग्लैंड में मौजूद था - का बयान किया था। इसलिये नहीं कि, जैसा कि मुलबर्गर राय देते हैं, वे “मेरे न्याय के बोध का अनादर करते थे”। जो भी उन सारे तथ्यों पर पुस्तकें लिखने पर अड़ा है जो उसके न्याय के बोध का अनादर कर रहे हैं, उसे बहुत कुछ करने को मिलेगा। लेकिन, जैसा कि मेरे पुस्तक105 के आमुख में पढ़ा जा सकता है, मैने, आधुनिक बड़े पैमाने के उद्योगों के द्वारा सृजित सामाजिक स्थितियों का वर्णन करते हुये श्रमिकों की आवासीय स्थितियों का बयान जर्मन समाजवाद को तथ्यात्मक आधार देने के लिये किया, क्योंकि जर्मन समाजवाद उस समय जागृत हो रहा था और खाली मुहावरों में खुद को खर्च कर रहा था। खैर, मेरे दिमाग में कभी नहीं आया कि ज्यादा महत्वपूर्ण भोजन के प्रश्न के ब्योरों में खुद को नियोजित करने से अधिक आवास के प्रश्न के समाधान की कोशिश की जाय। अगर मैं साबित कर सकूँ कि हमारे आधुनिक समाज का उत्पादन उस समाज के सभी सदस्यों को पर्याप्त भोजन मुहैया कराने के लिये यथेष्ट है, और पर्याप्त घर मौजूद हैं जहाँ तत्काल श्रमजीवी जनता को खुला और स्वस्थ जीने लायक आवास मुहैया कराया जा सकता है, तो मैं संतुष्ट हो जाउंगा। भविष्य का समाज भोजन एवं आवास के वितरण को किस तरह संगठित करेगा इस बारे में अटकलें सीधे आदर्शलोक की ओर ले जायेगा। अधिक से अधिक, आज तक की सभी उत्पादन प्रणालियों की बुनियादी शर्तों की हमारी समझ से हम इतना बता सकते हैं कि पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के पतन के बाद कुछ रूपों में स्वायत्तीकरण, जो आज तक समाज में मौजूद था, असम्भव हो जायेगा। यहाँ तक कि संक्रमणकालीन कदम भी हर जगह, उस पल मौजूद सम्बन्धों के अनुसार ही होंगे। छोटे भू-सम्पत्ति वाले देशों में वे कदम, बड़े भू-सम्पत्ति वाले देशों से काफी हद तक अलग होंगे, आदि। मुलबर्गर खुद हमें किसी दूसरे से बेहतर दिखाते हैं कि अगर कोई आवास के प्रश्न जैसे तथाकथित व्यवहारिक समस्याओं के अलग अलग समाधान खोजने का प्रयास करता है, तो वह कहाँ पहुँचता है। उन्होने पहले 28 पृष्ठ इसकी व्याख्या106 के लिये खर्च किये कि “आवास के प्रश्न के समाधान का पूरा विषय वस्तु पापमुक्ति शब्द में निहित है”, और जब दबाव में आये तो शर्मिन्दगी में हकलाने लगे कि वास्तव में यह संदिग्ध है कि यथार्थ में घरों का दखल लेने के बाद “श्रमजीवी जनता पापमुक्ति की पूजा” स्वत्वहरण के अन्य रूपों से पहले “करेंगे”।107
मुलबर्गर मांग करते हैं कि हमे व्यवहारिक होने चाहिये, कि “जब हम “वास्तविक व्यवहारिक सम्बन्धों के मुखातिब हों”, हमें “सिर्फ मृत एवं अमूर्त सुत्रों के साथ आगे आना” नहीं चाहिये, कि हमें “अमूर्त समाजवाद से आगे जाना” चाहिये “और समाज के निर्दिष्ट ठोस सम्बन्धों के करीब आना” चाहिये। अगर मुलबर्गर खुद यह किये होते तो शायद आन्दोलन के लिये बड़ा काम किये होते। समाज के निर्दिष्ट ठोस सम्बन्धों के करीब आने की ओर पहला कदम निश्चित तौर पर यही है कि सीखा जाय वे हैं क्या। मौजूदा आर्थिक अन्तर्सम्पर्कों के अनुसार उनकी जाँच की जाय। लेकिन हमें मुलबर्गर के आलेखों में क्या मिलते हैं? दो पूरे वाक्य, इस तरह:
1॰ “पूंजीपति के साथ मजदूर का सम्बन्ध जिस जगह पर है, मकान-मालिक के साथ किरायेदार का सम्बन्ध भी उसी जगह पर है।” [पृष्ठ 13]
मैंने पुनर्मुद्रण के पृष्ठ 6 में साबित किया है कि यह बात पूरी तरह गलत है108 और मुलबर्गर के पास प्रत्युत्तर के लिये एक शब्द नहीं है।
2॰ “खैर, जिस सांड को” (सामाजिक सुधार में) “उसके सिंग से पकड़ना चाहिये वह है पूंजी की उत्पादकता, जैसा कि राजनीतिक अर्थशास्त्र के उदारवादी विद्वतसमाज कहते हैं, एक ऐसी चीज जो वास्तव में अस्तित्व में नहीं है, लेकिन अपने प्रतीयमान अस्तित्व में, आज के समाज पर बोझ बनी हुई तमाम असमानताओं को ढँकने के चादर का काम करती है।”109
तो वह सांड जिसे सींग से पकड़ना होगा “वास्तव में” अस्तित्व में “नहीं है”, तो इसके कोई “सींग” भी नहीं हैं। सांड दुष्ट नहीं है बल्कि उसका प्रतीयमान अस्तित्व दुष्ट है। इसके बावजूद, “(पूंजी की) तथाकथित उत्पादकता”, “जादू से घर और शहर खड़ा करने में सक्षम है” जिनका अस्तित्व और जो कुछ भी हो, प्रतीयमान नहीं है। (पृष्ठ 12) और एक आदमी जो, जबकि मार्क्स की पूंजी से “वह परिचित है”, इतनी बुरी तरह की भ्रांतियों में पूंजी और श्रम के सम्बन्ध पर बड़बड़ाते रहता है, जर्मन श्रमिकों को नया और बेहतर रास्ता दिखाने का जिम्मा लेता है और खुद को “उस्ताद निर्माता” के रूप में प्रस्तुत करता है जो
“भविष्य के समाज के स्थापत्यात्मक ढाँचे के बारे में, कम से कम उसके मुख्य रूपरेखाओं में स्पष्ट है”! [पृष्ठ 13]
पूंजी में मार्क्स जिस करीब तक “समाज के निर्दिष्ट ठोस सम्बन्धों तक” पहुँचे हैं, और कोई वहाँ तक पहुँच नहीं पाया है। पचीस साल वह उन सम्बन्धों को विभिन्न कोणों से जाँच करते हुये बिताये और पूरे ग्रंथ में, उनकी आलोचना के परिणामों में तथाकथित समाधानों के भी अंकुर मौजूद हैं – जहाँ तक उन्हे देख पाना आज सम्भव है। लेकिन वह मुलबर्गर के लिये पर्याप्त नहीं है। वह सब अमूर्त समाजवाद है, मृत एवं अमूर्त सुत्र। “समाज के निर्दिष्ट ठोस सम्बन्धों” का अध्ययन करने के बजाय, मित्र मुलबर्गर प्रुधों के कुछेक खण्डों को पढ़कर सन्तुष्ट हो जाते हैं। प्रुधों के वे खण्ड उन्हे समाज के निर्दिष्ट ठोस सम्बन्धों के बारे में कुछ भी नहीं बताते। विपरीत, उन्हे सभी सामाजिक बुराईयों के बहुत निर्दिष्ट ठोस चमत्कारी इलाज बताते हैं। वह तब सामाजिक मुक्ति के इस बनी-बनायी योजना को, इस प्रुधोंवादी प्रणाली को, जर्मन श्रमिकों को इस बहाने पेश करते हैं कि वहप्रणालियों को अलविदा कहना चाहते हैं, जबकि मैं “विपरीत रास्ता चुनता हूँ”! इसे समझने के लिये मुझे मानना पड़ेगा कि मैं अंधा हूँ और मुलबर्गर बहरा, और इसीलिये हमारे बीच किसी भी किस्म का समझौता बिल्कुल असम्भव है।
लेकिन बहुत हुआ। अगर यह बहस और किसी काम का नहीं तो कम से कम इसने सबूत पेश किया कि इन स्वघोषित “व्यवहारिक” समाजवादियों के व्यवहार में वास्तविक तौर पर है क्या। सारी सामाजिक बुराईयों के अन्त के ये व्यवहारिक प्रस्ताव, ये विश्वव्यापी सामाजिक राम-वाण की खोज, हमेशा से और हर जगह पर उन सम्प्रदायों के संस्थापकों के काम रहे हैं जो सर्वहारा आन्दोलन के शैशव में आविर्भूत होते रहे हैं। प्रुधों उन्हीं में आते हैं। सर्वहारा का विकास जल्द ही इन शिशु-वस्त्रों को फेंक देता है और श्रमिक वर्ग में ही इस एहसास को जन्म देता है कि अग्रिम मनगढ़ंत और विश्वव्यापी प्रयोग के उपयुक्त इन “व्यवहारिक समाधानों” से कम व्यवहारिक कुछ है ही नहीं। सर्वहारा को यह एहसास हो जाता है कि व्यवहारिक समाजवाद है, विभिन्न पहलुओं से पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का सही ज्ञान।  एक श्रमिक वर्ग जो इस मामले में वस्तु-स्थिति को जानता है, कभी सन्देह में नहीं रहेगा कि कौन सी सामाजिक संस्थायें इसके मुख्य हमलों के लक्ष्य होने चाहिये, और किस तरीके से इन हमलों को निष्पादित किया जाय।   

समाप्त

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102- ए॰ मुलबर्गर, डाय वोनांग्सफ्रायजे, पृ॰ 8 – स॰र॰सं।

103- डेर वोकस्टाट में “पूंजीवादी उत्पादन” है। - स॰र॰स॰
104- एफ॰ एंगेल्स, “कृषि के सवाल पर अन्तरराष्ट्रीय के डैनिश सदस्यों की समझ” (देखें यह खण्ड, पृ॰57-58) – स॰र॰स॰
105- एफ॰ एंगेल्स, इंग्लैंड में श्रमिक-वर्ग की स्थिति (देखें मौजूदा संस्करण, खण्ड 4, पृ॰ 302-04) - स॰र॰स॰
106- डेर वोकस्टाट में है “विशद में व्याख्या के लिये” - स॰र॰स॰
107- देखें यह खण्ड, पृ॰ 385 - स॰र॰स॰
108- वही, पृ॰ 320 - स॰र॰स॰
109- ए॰ मुलबर्गर, डाय वोनांग्स्फ्राज, पृ॰ 7 (तुलना करें यह खण्ड, पृ॰ 331) - स॰र॰स॰

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मई 1872 – जनवरी 1873 के दौरान लिखा गया

पहली बार डेर वोकस्टाट के अंक 51, 52, 53, 103 एवं 104 - जून 26 एवं 29, जुलाई 3, दिसम्बर 25 एवं 28 1872 तथा अंक 2, 3, 21, 13, 15 एवं 16 - जनवरी 4 एवं 8, फरवरी 8, 12, 19 एवं 22, 1873 में प्रकाशित हुआ और फिर 1872-73 में ही लाइपजिग से तीन अलग मुद्रणों में प्रकाशित हुआ।

सन 1887 के संस्करण के अनुसार मुद्रित तथा अखबार के पाठ के साथ मिलान किया गया
         
       
      

Saturday, November 23, 2019

आवास का प्रश्न, भाग 3 (3) फ्रेडरिक एंगेल्स


III
मुलबर्गर आगे शिकायत करते हैं कि उनके “दृढ़” कथन,
“हमारी प्रशंसित सदी की पूरी संस्कृति का, इस तथ्य से अधिक भयानक उपहास कुछ हो नहीं सकता कि बड़े शहरों में आबादी के 90 प्रतिशत या उससे अधिक के पास कोई जगह नहीं है जिसे वे अपनी कह सकें”96  
को मैंने प्रतिक्रियावादी विलाप कहा। स्पष्ट करना जरूरी है: अगर मुलबर्गर, जैसा कि वह छल करते हैं, खुद को “वर्तमान समय की भयावहताओं” के वर्णन तक सीमित रखते तो निश्चित ही मुझे “उनके या उनके शालीन शब्दों” के बारे में एक भी बुरा शब्द कहना नहीं चाहिये होता। लेकिन, सच्चाई यही है कि वह कुछ अलग ही करते हैं। वह इन “भयावहताओं” का वर्णन इस तथ्य के परिणामस्वरूप करते हैं कि श्रमिकों के पास “कोई जगह नहीं है जिसे वे अपनी कहें”। कोई इस कारण से “वर्तमान समय की भयावहताओं” का वर्णन करे कि आवासों पर श्रमिकों की मिल्कियत खत्म हो चुकी है या इस कारण से, जैसा कि जुंकर करते हैं, कि सामन्तवाद एवं संघ [शिल्पी या कारिगरों का – अनु॰] खत्म हो गये हैं, दोनों ही स्थिति में इससे प्रतिक्रियावादी विलाप के अलावा - अनिवार्य के, ऐतिहासिक तौर पर आवश्यक के आने पर शोक के गीत के अलावा कुछ भी पैदा नहीं हो सकता है। इसका प्रतिक्रियावादी चरित्र ठीक इस तथ्य में है कि मुलबर्गर श्रमिकों के लिये व्यक्तिगत गृह-स्वामित्व पुनर्स्थापित करना चाहते हैं; यह एक ऐसा मामला है जिसे इतिहास ने काफी पहले खत्म कर दिया है। दोबारा उन सभी को अपने घरों के मालिक बनाने के अलावे मुलबर्गर श्रमिकों की मुक्ति का कोई दूसरा मार्ग नहीं सोच पाते।
और आगे:
“मैं दृढ़ता के साथ घोषणा करता हूँ कि पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के खिलाफ वास्तविक संघर्ष में उतरना पड़ेगा; इसके बदलाव से ही आवासीय स्थितियों की बेहतरी की उम्मीद की जा सकती है। एंगेल्स यह सब देख ही नहीं पाते … मैं मानता हूँ कि सामाजिक प्रश्न के पूर्ण समाधान होने के बाद ही किराये के आवासों की समाप्ति की ओर अग्रसर होने में हम सक्षम होंगे।”97
दुर्भाग्य से, अभी भी मैं इन सभी बातों का कुछ भी नहीं देख पा रहा हूँ। जिनका नाम मैंने कभी नहीं सुना, वैसे किसी व्यक्ति ने अपने मन के गुप्त तहों में क्या मान रखा है उसे जान पाना निश्चित ही मेरे लिये असम्भव है। मैं सिर्फ मुलबर्गर के छपे हुये आलेखों में सीमित रह सकता हूँ। और उनमें मुझे आज भी दिखता है कि (पुनर्मुद्रण का पृष्ठ 15 एवं 16) मुलबर्गर, किराये के आवासों के खात्मे की ओर बढ़ने के लिये, सिवाय किराये के आवासों के, किसी भी दूसरी बात का पूर्वानुमान नहीं करते। सिर्फ पृष्ठ 17 में वह “पूंजी की उत्पादकता को सिंग से” पकड़ते हैं, जिस पर हम बाद में लौट आयेंगे। अपने उत्तर में भी वह अपनी बात की पुष्टि करते हैं जब वह कहते हैं:
“बल्कि यह दिखाने का सवाल था कि किस तरह मौजूदा स्थितियों से आवास के प्रश्न में पूरा बदलाव लाया जा सकता है।”
मौजूदा स्थिति से और पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के बदलाव (पढ़ें: अन्त) से निश्चय ही दो बिल्कुल विपरीत बातें हैं।
श्रमिकों को उनका अपना आवास प्राप्त कराने के लिये एम॰डॉलफस एवं अन्य कारखानादारों के परोपकारी प्रयासों को जब मैं, प्रुधोंवादी परिकल्पनाओं का एकमात्र सम्भव व्यवहारिक सम्पादन मानता हूँ तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मुलबर्गर शिकायत करते हैं। अगर वह समझ जाते कि समाज की मुक्ति के लिये प्रुधों की योजना पूरी तरह पूंजीवादी समाज पर आधारित एक कल्पकथा है, तो वह स्वाभाविक तौर पर इस पर विश्वास नहीं करते। मैंने कभी भी उनके अच्छे इरादों पर सवाल नहीं उठाया। लेकिन फिर क्यों वह डा॰ रेशॉअर98 का इस बात के लिये तारीफ करते हैं कि डा॰ रेशॉअर ने वियेना सिटी काउंसिल को डॉलफस की परिकल्पनाओं का नकल करने का प्रस्ताव दिया?
मुलबर्गर आगे चल कर घोषणा करते हैं:
“जहाँ तक खास कर शहर एवं गाँव के बीच की प्रतिपक्षता का सवाल है, इसका अन्त चाहना आदर्शलोकीय है। यह प्रतिपक्षता नैसर्गिक है, या और सही ढंग से कहा जाय तो ऐतिहासिक तौर पर उत्पन्न हुआ है।… सवाल इस प्रतिपक्षता का अन्त करने का नहीं, उन राजनीतिक एवं सामाजिक रूपों को ढूँढ़ने का है जहाँ वह प्रतिपक्षता हानिरहित होगी, बल्कि यहाँ तक कि फलदायक भी होगी। इस तरह एक शांतिपूर्ण सामंजस्य, हितों का एक उत्तरोत्तर संतुलन की उम्मीद करना सम्भव होगा।”
तो, शहर एवं गाँव के बीच की प्रतिपक्षता की समाप्ति आदर्शलोकीय है क्योंकि यह प्रतिपक्षता नैसर्गिक है, या और सही ढंग से कहा जाय तो ऐतिहासिक तौर पर उत्पन्न हुआ है। चलिये, इस तर्क को हम आधुनिक समाज की दूसरी विषमताओं पर लागू करें और देखें कि हम कहाँ पहुँचते हैं। उदाहरण के तौर पर, “जहाँ तक खास तौर पर” पूंजीपतियों एवं मजदूरों “के बीच प्रतिपक्षता का सवाल है, इसका अन्त चाहना आदर्शलोकीय है। यह प्रतिपक्षता नैसर्गिक है, या और सही ढंग से कहा जाय तो ऐतिहासिक तौर पर उत्पन्न हुआ है। सवाल इस प्रतिपक्षता का अन्त करने का नहीं, उन राजनीतिक एवं सामाजिक रूपों को ढूंढ़ने का है जिसमें यह हानिरहित होगी, बल्कि यहाँ तक कि फलदायक भी होगी। इस तरह एक शांतिपूर्ण सामंजस्य, हितों का एक उत्तरोत्तर संतुलन की उम्मीद करना सम्भव होगा।”
और इसके साथ हम फिर शुल्ज़-डेलिश के पास पहुँच गये।
शहर एवं गाँव के बीच की प्रतिपक्षता का अन्त, पूंजीपति एवं मजदूरों के बीच की प्रतिपक्षता के अन्त से न तो ज्यादा और न कम आदर्शलोकीय है। दिन प्रति दिन यह, औद्योगिक एवं कृषि उत्पादन का अधिकाधिक व्यवहारिक मांग बनता जा रहा है। सबसे ज्यादा ऊर्जा के साथ लीबिग ने, कृषि के रसायनशास्त्र पर अपनी रचनाओं में इस मांग को उठाया है। उनकी पहली मांग हमेशा से रही है कि आदमी जमीन से जितना प्राप्त करता है उतना जमीन को वापस करे; इस मांग को प्रस्तुत करते हुये वह साबित करते हैं कि शहरों की, खास कर बड़े शहरों की मौजूदगी इसे रोकता है।99 जब कोई गौर करता है कि लन्दन में, सैक्सनी के पूरे राजत्व से अधिक मात्रा में उत्पन्न खाद प्रति दिन भारी रकम के खर्च पर समन्दर में उड़ेल दिया जाता है और कितने भारी भरकम ढाँचे जरूरी होते हैं इस खाद को पूरे लन्दन में जहर फैलाने से रोकने के लिये, तब शहर और गाँव के बीच की प्रतिपक्षता के अन्त के आदर्शलोक को उल्लेखनीय व्यवहारिक आधार मिल जाता है। यहाँ तक कि तुलनात्मक तौर पर महत्वहीन बर्लिन का भी कम से कम तीस वर्षों से, अपनी ही गंदगी के दूषित गंध से दम घुट रहा है। दूसरी ओर, प्रुधों की तरह, किसानों को ज्यों का त्यों रखते हुये वर्तमान पूंजीवादी समाज में उथल-पुथल चाहना पूर्णत: आदर्शलोकीय है। अगर पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का अन्त हो जाय तो पूरे देश में जहाँ तक सम्भव आबादी का समरूप वितरण, औद्योगिक एवं कृषि उत्पादन के बीच नजदीकी सम्पर्क एवं साथ ही, उसके चलते संचार के साधनों का आवश्यक होता विस्तार, ग्रामीण आबादी को उस अलगाव एवं जड़ता से मुक्त करेगा जिसमें वह हजारों वर्ष से लगभग एक ही तरह से निरर्थक जीवन जीती रही है। आदर्शलोकीय होने का मतलब यह मानना नहीं है कि अपनी ऐतिहासिक अतीत द्वारा गढ़ी गई जंजीरों से मानवता की मुक्ति तभी पूरी होगी जब शहर एवं गाँव के बीच की प्रतिपक्षता का अन्त हो जायेगा; आदर्शलोक तभी शुरू होता है जब कोई “मौजूदा स्थितिओं से” उस रूप का नुस्खा बताने की जोखिम उठाता है जिसमें आज के समाज की यह या दूसरी कोई प्रतिपक्षता का हल हो जायेगा। और मुलबर्गर, आवास के प्रश्न के समाधान के लिये प्रुधोंवादी सुत्र को अपना कर यही करते हैं।
आगे मुलबर्गर शिकायत करते हैं कि मैंने उन्हे एक हद तक “पूंजी और व्याज पर प्रुधों के विकट दृष्टिकोण” के लिये सह-जिम्मेदार ठहराया है, और घोषणा करते हैं:
“उत्पादन के सम्बन्धों में तब्दीली को मैं एक साधित स्थिति के तौर पर पूर्वानुमान कर लेता हूँ, व्याज की दर को नियन्त्रित करता संक्रमणकालीन कानून उत्पादन के सम्बन्धों से नहीं बल्कि सामाजिक कारोबार, परिचालन के सम्बन्धों से निपटता है … उत्पादन के सम्बन्धों में तब्दीली, या जैसा कि जर्मन विद्वत-समाज अधिक सटीक ढंग से कहते हैं, पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का अन्त निस्सन्देह व्याज का अन्त करने वाला किसी संक्रमणकालीन कानून के परिणामस्वरूप नहीं होता है, जैसा एंगेल्स मुझसे कहलवाना चाहते हैं, बल्कि श्रमिक जनता द्वारा श्रम के सारे औजारों की वास्तविक जब्ती, पुरे उद्योग की जब्ती के परिणामस्वरूप होता है। वैसा घटित हो जाने पर श्रमजीवी जन अविलम्ब बेदखली के बजाय पापमुक्ति की पूजा” (!) “करेंगे की नहीं, इसका फैसला न तो मैं कर सकता हूँ और न एंगेल्स।”
मैं अचरज में अपनी आँखें मलता हूँ। मैं मुलबर्गर के अन्वेषण को शुरु से अन्त तक फिर से पूरा पढ़ता हूँ उस अंश को ढूंढ़ने के लिये जिसमें वह कहते हैं कि किराये के घरों से उनके द्वारा सुझाई गई पापमुक्ति, “श्रमिक जनता द्वारा श्रम के औजारों की वास्तविक जब्ती, पूरे उद्योग की जब्ती” को एक साधित स्थिति के तौर पर पूर्वानुमान कर लेती है। लेकिन वैसा कोई अंश ढूंढ़ पाने में मैं अक्षम होता हूँ। वैसा कोई अंश है ही नहीं। कहीं भी “वास्तविक जब्ती” का जिक्र नहीं है, लेकिन पृष्ठ 17 पर निम्नलिखित अंश है:
“उदाहरण के तौर पर अब मान लिया जाय कि एक संक्रमणकालीन कानून के द्वारा जो सारे प्रकार की पूंजियों व्याज की दर एक प्रतिशत पर स्थिर कर दे, पूंजी की उत्पादकता से वास्तविक तौर पर निर्णायक टक्कर लिया गया [मुहावरा ‘सींग से पकड़ा गया’ – अनु॰] - जैसा कि होगा ही देर-सवेर। लेकिन ध्यान रहे, इस स्थिरिकरण में उस एक प्रतिशत को भी ज्यादा से ज्यादा शून्य तक ले जाने की प्रवृत्ति रहेगी। … सभी दूसरे उत्पादों की तरह, आवास और घरों को भी स्वाभाविक तौर पर इस कानून के दायरे में शामिल किया जायेगा। … इसलिये, हम पाते हैं कि किराये के घरों की पापमुक्ति भी पूंजी की उत्पादकता की सामान्यत: समाप्ति का आवश्यक नतीजा है।100
इस तरह, मुलबर्गर के हाल की पल्टी के विपरीत, यहाँ सादे शब्दों में कहा गया है कि श्रम की उत्पादकता – इस भ्रामक मुहावरे से उनका स्वीकृत अर्थ है पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली – को वास्तव में व्याज की समाप्ति करने वाले एक कानून के द्वारा “सींग से पकड़ा गया” है और ठीक उसी कानून के फलस्वरूप, “पूंजी की उत्पादकता की सामान्यत: समाप्ति का आवश्यक परिणाम होता है किराये के घरों की पापमुक्ति”। बिल्कुल नहीं, अब मुलबर्गर कहते हैं। वह संक्रमणकालीन कानून “उत्पादन के सम्बन्धों पर नहीं, परिचालन के सम्बन्धों पर लागू होता है”। जैसा कि ग्येठे कहे होते101 “ज्ञानी और मूर्ख दोनों के लिये समान रहस्यमय” इस मूर्खतापूर्ण अन्तर्विरोध को देखते हुये मेरे लिये बस इतना ही मान लेना बचता है कि मैं दो अलग अलग और भिन्न मुलबर्गरों के मुखातिब हूँ जिनमें से एक सही ही शिकायत करता है कि मैंने “उनसे” वह बात “कहलवाने की कोशिश की” जो दूसरा छपवा देता है।
यह निश्चित ही सत्य है कि श्रमजीवी जनता न मुझे और न मुलबर्गर को पूछेगी कि वास्तविक जब्ती के समय वे “अविलम्ब बेदखली से ज्यादा जल्दी पापमुक्ति की पूजा” करेंगे या नहीं। सारी संभावनायें हैं कि वे “पूजा” ही करना नहीं चाहेंगे। जो भी हो, सिवाय (पृष्ठ 17 पर) मुलबर्गर के दावा के अलावे कि “आवास के प्रश्न के समाधान की पूरी सामग्री पापमुक्ति शब्द में निहित है”, श्रमजीवी जनता द्वारा श्रम के सारे औजारों की वास्तविक जब्ती का कोई सवाल कभी था ही नहीं। अब अगर वह घोषणा करते हैं कि पापमुक्ति अत्यन्त सन्देहास्पद है, हम दोनों को और हमारे पाठकों को बेमतलब इतना परेशान करने की क्या जरूरत थी?
साथ ही, यह बता देना जरूरी है कि श्रमजीवी जनता द्वारा श्रम के सारे औजारों की “वास्तविक जब्ती”, पूरे उद्योग का दखल लिया जाना, प्रुधोंवादी “पापमुक्ति” के ठीक विपरीत है। दूसरे वाले मामले में व्यक्ति श्रमिक अपने घर का, किसानी के लिये खेत का, श्रम के औजारों का मालिक बनता है; पहले वाले मामले में आवासों, कारखानों एवं श्रम के औजारों पर श्रमजीवी जनता का सामूहिक मालिकाना रहता है, जिनका इस्तेमाल, कम से कम एक संक्रमणकाल में वे किसी भी व्यक्ति या संघ को, बिना लागत की क्षतिपूर्ति के, करने शायद ही दें। उसी तरह से, जमीन में सम्पत्ति की समाप्ति का मतलब भूमि-किराये की समाप्ति नहीं होगी बल्कि समाज के हाथों में जमीन का अन्तरन होगा, भले ही संशोधित रूप में हो। इसलिये, श्रमजीवी जनता द्वारा श्रम के सारे औजारों की जब्ती कहीं से भी किराये के सम्बन्धों को बने रहने से रोक नहीं देता।
सत्ता में आने पर सर्वहारा क्या बस जबर्दस्ती उत्पादन के औजारों, कच्चे मालों और जीवनधारण के साधनों को जब्त करेगा, क्या उनके लिये तत्काल क्षतिपूर्ति का भुगतान करेगा या उन सम्पत्तियों को छोटे किश्तों में भुगतान कर छुड़ायेगा – यह सामान्यत:, कोई सवाल नहीं है। ऐसे सवाल का या और सभी सवालों का अग्रिम जबाब देने का प्रयास कल्पलोक का सृजन होगा और वह मैं दूसरों के लिये छोड़ देता हूँ।  
[क्रमश]


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96- देखें यह खण्ड, पृ॰ 323 – स॰र॰स॰
97- यहाँ और आगे एंगेल्स ए॰ मुलबर्गर कृत “जुर वोनांग्सफ्राज”, डेर वोकस्टाट, अंक 86, अक्तूबर 26, 1872 से उद्धृत करते हैं – स॰र॰स॰
98- एच॰ रेशॉअर, डाय वोनांग्स्नोथ उन्ड इह्र शाडलिखेर एइन्फ़्लाब ऑफ डाय क्लेइंगेवेर्बेट्रेइबेन्डेन उन्ड लोह्नार्बेइटर [आवास का संकट एवं छोटे व्यवसाय के मालिकों तथा मजदूरों पर उसका हानिकारक प्रभाव – अनु॰], वियेना, 1871 - स॰र॰स॰
99- जस्टस वॉन लीबिग, डाय केमी इन इह्रेर अन्वेन्डुंग ऑफ एग्रिकल्टुर अन्ड फिसिओलोजी, [कृषि एवं शरीरविज्ञान में प्रयोग के लिये रसायनशास्त्र – अनु॰] भाग 1, ब्रुन्सविक, 1862, पृ॰ 128-29, - स॰र॰स॰
100- ए॰मुलबर्गर, डाय वोनांग्सफ्राज, (यह खण्ड देखें, पृ॰ 331) – स॰र॰स॰
101- तुलना करें, ग्येठे, फाउस्ट, भाग 1, दृश्य 6 (“हेक्सेनकुचे”) - स॰र॰स॰

Wednesday, November 20, 2019

आवास का प्रश्न, भाग 3 (2) फ्रेडरिक एंगेल्स


II
अब हम मुख्य बिन्दुओं तक पहुँचते हैं। मैंने मुलबर्गर के आलेखों के बारे में आरोप लगाया था कि ये प्रुधों के तरीके से आर्थिक सम्बन्धों को कानूनी शब्दावलियों में अनुदित कर उन्हे झुठला रहे हैं। इसके उदाहरणस्वरूप मैंने मुलबर्गर के निम्नलिखित वक्तव्य को चुना था:
“घर, एकबार बन जाने के बाद, सामाजिक श्रम के निश्चित अंश का शाश्वत कानूनी हक होता है, हालाँकि घर का वास्तविक मूल्य किराये के रूप में काफी पहले और पर्याप्त से अधिक, भुगतान किया जा चुका होता है। इसी लिये ऐसा होता है कि एक घर जो, उदाहरण के तौर पर पचास साल पहले बना था, इस पूरी अवधि में मूल लागत का दो, तीन, पाँच, दस और उससे भी अधिक गुणा किराये की रकम से हासिल कर चुका होता है।”82
अब मुलबर्गर निम्नलिखित शिकायत करते हैं:
“इस सरल, संयमित तथ्य वर्णन के कारण एंगेल्स मुझे समझाते हैं कि घर कैसे ‘कानूनी हक’ बन जाता है इसकी मुझे व्याख्या करनी चाहिये थी – जबकि यह मेरे कार्यभार की सीमाओं के बाहर की बात थी … विवरण एक बात है और व्याख्या दूसरी बात। जब मैं प्रुधों के साथ कहता हूँ कि समाज के आर्थिक जीवन में अधिकार की एक अवधारणा व्याप्त होनी चाहिये, मैं आज के दिन के समाज को वर्णित कर रहा होता हूँ जिस में, यह यथार्थ है कि अधिकार की सारी अवधारणायें अनुपस्थित नहीं हैं, लेकिन क्रांति के अधिकार की अवधारणा अनुपस्थित है; यह एक तथ्य है जिसे एंगेल्स खुद भी स्वीकार करेंगे।”83
अभी फिलहाल हम उसी घर पर रहें जो बन चुका है। वह घर, एक बार किराये पर लगने के बाद, किराये के रूप में निर्माता को भूमि किराया, मरम्मत का खर्च, निवेशित निर्माण-पूंजी पर व्याज के अलावे उस पर मुनाफा भी देता है84। परिस्थिति के अनुसार, उत्तरोत्तर भुगतान किया गया वह किराया, मूल लागत का दो, तीन, पाँच या दस गुना भी हो सकता है। य्ह, मेरे मित्र मुलबर्गर, “तथ्य” का “सरल, संयमित वर्णन” है, एक आर्थिक तथ्य है। अब अगर हम जानना चाहते हों कि “कैसे यह होता है” कि यह होता है, हमें अपना परीक्षण आर्थिक क्षेत्र में संचालित करना पड़ेगा। अत:, थोड़ा करीब जाकर इस तथ्य को देखें ताकि आगे से एक बच्चा भी इसे गलत तरीके से न समझे। जैसा कि जानी हुई बात है, एक माल की बिक्री इस तथ्य में निहित है कि बेचने वाला उस माल का उपयोग मूल्य छोड़ता है एवं विनिमय मूल्य अपने पॉकेट में डालता है। मालों के उपयोग-मूल्य में, भिन्नता के अलग अलग पहलुओं के साथ साथ उपभोग में लगने वाले समय की भी भिन्नता होती है। पावरोटी के एक पिण्ड का एक दिन में उपभोग हो जाता है, एक पतलून एक साल में घिस जाता है और एक घर को जीर्ण होने में, अगर आप माने तो सौ साल लग जाता है। इसीलिये, टिकाऊ मालों के मामलों में, उनके उपयोग-मूल्य को खण्ड-खण्ड में और हर बार एक निश्चित अवधि के लिये बेचने की संभावना बनती है, यानि जिसे किराये पर लगाना कहा जाता है। फलस्वरूप, खण्ड-खण्ड में बिक्री में विनिमय-मूल्य की पावती धीरे धीरे होती है। अग्रिम लगाई गई पूंजी एवं उस पर उपार्जित मुनाफे की अविलम्ब अदायगी को त्यागने की क्षतिपूर्ति के रूप में बिक्रेता को बढ़ी हुई कीमत – व्याज - मिलती है जिसकी दर राजनीतिक अर्थशास्त्र के नियमों द्वारा निर्धारित होती है, किसी मनमाने ढंग से कभी भी नहीं। सौ साल खत्म होने के बाद घर का पूरा उपयोग हो चुका होता है, वह घिस चुका होता है और रहने लायक नहीं रहता। तब, अगर हम घर के लिये चुकाये गये पूरा किराया में से निम्नलिखित घटायें: 1) भूमि-किराया - आलोच्य अवधि में अगर बृद्धि हुई हो तो उस बृद्धि के साथ - एवं 2) चलते मरम्मत के लिये खर्च की गई रकम, तो हम पायेंगे कि शेष औसतन निम्नलिखित चीजों का बना होता है: 1) घर पर मूलत: निवेश की गई निर्माण पूंजी, 2) उस पर मुनाफा, एवं 3) उत्तरोत्तर परिपक्व होते हुये पूंजी और मुनाफे पर व्याज।85 अब, यह सच है कि इस अवधि के बाद किरायेदार के पास कोई घर नहीं होता है, लेकिन मकानमालिक के पास भी कोई घर नहीं होता है। मकानमालिक के पास सिर्फ जमीन का वह टुकड़ा होता है (बशर्ते वह उसका अपना हो) और उस पर रखी मकान की सामग्रियाँ होती हैं जो अब मकान नहीं रहा। हालाँकि, इस बीच वह घर हो सकता है उसके “मूल लागत का पाँच गुना या दस गुना” वापस लाया होगा। लेकिन, हम देखेंगे कि यह एक मात्र भूमि-किराया में बृद्धि के कारण हुआ है। लन्दन जैसे शहरों में जहाँ जमीन का मालिक और मकान का मालिक अधिकांशत: दो अलग अलग व्यक्तियाँ होते हैं, यह कोई छिपी हुई बात नहीं है। तेजी से बढ़ रहे शहरों में ही भूमि-किराया की इतनी तीव्र बृद्धि होती है,86 खेती से जुड़े किसी गाँव में नहीं, जहाँ मकान वाली जमीन का भूमि-किराया व्यवहारिक तौर पर अपरिवर्तित रहता है। यह एक खुला तथ्य है कि भूमि-किराये में बृद्धि के अलावा, मकान का किराया मकानमालिक के लिये, निवेशित पूंजी (जिसमें मुनाफा शामिल है) पर सालाना औसतन सात प्रतिशत से अधिक नहीं पैदा करता है – और उसी रकम में से मरम्मत आदि के खर्च देने पड़ते हैं। संक्षेप में, किराया का समझौता माल का एक सामान्य विनिमय है जो सैद्धांतिक तौर पर श्रमिक के लिये, एक अपवाद - श्रमशक्ति की खरीद और बिक्री – को छोड़कर किसी भी दुसरे माल के विनिमय से अधिक या कम सम्बन्ध नहीं रखता है। व्यवहारिक तौर पर श्रमिक, किराया के समझौता का सामना, उन हजार पूंजीवादी धोखे के रूपों में से एक मान कर करता है, जिनका जिक्र मैं अलग पुनर्मुद्रण के पृष्ठ 4 पर कर चुका हूँ।87 लेकिन, जैसा कि मैंने वहाँ साबित किया था, धोखे का यह रूप भी आर्थिक नियमन के अधीन होता है।
मुलबर्गर एक तरफ, किराया के समझौते को बिल्कुल “मनमानापन” मानते हैं (अलग पुनर्मुद्रण का पृष्ठ 19) और जब मैं इसका विपरीत उन्हे साबित कर देता हूँ तब वह शिकायत करते हैं कि मैं उन्हे “सिर्फ वही चीजें” बता रहा हूँ “जो, उन्हे खेद है कि वह पहले से जानते थे”।
लेकिन आवास के किराये के बारे में किये गये सारे आर्थिक अनुसंधान हमें किराये के घरों के खात्मे को “क्रांतिकारी विचार के गर्भ से पैदा हुये सबसे अधिक फलदायी एवं भव्य आकांक्षाओं में से एक”88 बनाने में सक्षम नहीं कर पायेंगे। ऐसा करने को सक्षम होने के लिये हमें सामान्य तथ्य को संयमित अर्थशास्त्र से न्यायशास्त्र के, वास्तविक ही कहीं अधिक विचारधारात्मक क्षेत्र मे अनुदित करना होगा। “आवास पर” आवास-किराये का एक “शाश्वत कानूनी हक” होता है, और “इसी कारण से” आवास के मूल्य का दो, तीन, पाँच या दस गुना किराये के द्वारा चुका दिया जा सकता है। “कानूनी हक” हमें एक रत्ती भी इस बात की खोज करने में मदद नहीं करता है कि किस तरह वास्तव में “यह होता है”, और इसीलिये मैंने कहा था कि किस तरह वास्तव में “यह होता है” यह मुलबर्गर ढूंढ़ने में सक्षम हो सकते थे  - सिर्फ उन्हे जाँच करनी थी कि एक आवास किस तरह कानूनी हक बनता है। शासक वर्ग जिस कानूनी अभिव्यक्ति के द्वारा इस कानूनी हक की मंजूरी देता है उस पर झगड़ने के बजाय अगर हम आवास किराया के आर्थिक प्रकृति का परीक्षण करें, जैसा कि मैंने किया, हम खोज कर सकते थे कि कानूनी हक बनता किस तरह से है। -- कोई भी जो किराये की समाप्ति के लिये आर्थिक कदम उठाने का प्रस्ताव देता है, उसे निश्चित ही आवास-किराया के बारे में, इससे थोड़ा अधिक जानना होगा कि किराया “किरायेदार द्वारा पूंजी के शाश्वत हक को चुकाये गये भेंट का प्रतिनिधित्व करता है”।89 इस पर मुलबर्गर जबाब देते हैं, “वर्णन एक बात है और व्याख्या दूसरी बात।”
हमने इस तरह, घर को आवास-किराये के श्वाश्वत कानूनी हक में बदल दिया, हालाँकि यह कहीं से भी चिरस्थायी नहीं है। हम पाते हैं कि चाहे जैसे भी “यह आये”, इस कानूनी हक के कारण, घर अपने मूल मूल्य का कई गुना किराये के रूप में वापस लाता है। बातों को कानूनी मुहावरों में अनुदित कर हम अर्थनीति से इतनी दूर चले गये हैं कि अब हम इस परिघटना से आगे कुछ भी नहीं देख पाते हैं कि एक घर का उत्तरोत्तर कई गुना भुगतान थोक किराये के द्वारा हो जाता है। चुँकि हम कानूनी भाषा में सोच और बोल रहे हैं, हम इस परिघटना पर अधिकार को, न्याय को नापने वाली छड़ी का इस्तेमाल करते हैं और पाते हैं कि यह अन्याय है, यह “अधिकार पर क्रांति की अवधारणा” से मेल नहीं खाता है (जो भी इसका अर्थ हो) और इसलिये कानूनी हक सही नहीं है। हम यह भी पाते हैं कि यह बात व्याज-देने-वाली-पूंजी एवं पट्टे पर दी गई कृषि-भूमि पर भी लागू होती है, और अब हमारे पास इन सम्पत्तियों को सम्पत्ति के अन्य वर्गों से अलग करने और अपवादात्मक बर्ताव करने का बहाना है। यह बर्ताव इन मांगों में है: 1) मालिक को उसकी सम्पत्ति छोड़ने की सूचना किरायेदार को देने के अधिकार से, अपनी सम्पत्ति वापस मांगने के अधिकार से वंचित करना; 2) पट्टेदार, कर्जदार या किरायेदार को जो चीज अन्तरित की गई लेकिन जो उनकी नहीं हुई उसे मुफ्त इस्तेमाल करने देना; और 3) मालिक को एक लम्बी अवधि तक किश्तों में चुकाना बिना किसी व्याज के। और इसी के साथ हम इस पहलु पर प्रुधोंवादी “सिद्धांतों” को खाली कर चुके होते हैं। यही है प्रुधों का “सामाजिक विघटन”।      
प्रसंगवश, यह जाहिर है कि सुधार की पूरी योजना कहा जाय तो विशेष तौर पर टुटपूंजियों एवं छोटे किसानों को लाभ पहुँचाने के लिये है क्योंकि ये योजनायें उनकी टुटपूंजिया एवं छोटे किसान के रूप में स्थिति को मजबूत बनाती है। इस तरह “टुटपूंजिया प्रुधों” जो मुलबर्गर के अनुसार एक पौराणिक पात्र हैं, अचानक यहाँ अत्यधिक मूर्त ऐतिहासिक अस्तित्व में आ जाते हैं।
मुलबर्गर आगे बढ़ते हैं:
“जब मैं प्रुधों के साथ कहता हूँ कि समाज के आर्थिक जीवन में अधिकार की एक अवधारणा व्याप्त होना चाहिये, मैं आज के समाज का वर्णन इस रूप में कर रहा हूँ जहाँ, यह सच है कि सभी तरह के अधिकारों की अवधारणायें अनुपस्थित नहीं हैं लेकिन क्रांति के अधिकार की अवधारणा अनुपस्थित है और इस बात को एंगेल्स खुद भी स्वीकारेंगे।”89
दुर्भाग्य से मैं मुलबर्गर पर यह एहसान करने की स्थिति में नहीं हूँ। मुलबर्गर मांग करते हैं कि समाज अधिकार की एक अवधारणा व्याप्त होना चाहिये और इस मांग को वर्णन कहते हैं। अगर कोई अदालत किसी ॠण की अदायगी का सम्मन के साथ एक कारिंदा को मेरे पास भेजे, तो, मुलबर्गर के मुताबिक, अदालत बस एक ऐसे आदमी के रूप में मेरा वर्णन कर रहा है जो अपना कर्ज नहीं चुकाता है, और कुछ नहीं! वर्णन एक चीज है और एक ढीठ मांग दूसरी चीज। और ठीक यहीं पर जर्मन वैज्ञानिक समाजवाद एवं प्रुधों के बीच की मूलभूत भिन्नता है। मुलबर्गर जो भी कहें, किसी भी चीज का वास्तविक वर्णन उस चीज की व्याख्या भी होती है। आर्थिक सम्बन्ध जिस तरह के हैं और जिस तरह वे विकसित हो रहे हैं, हम [जर्मन वैज्ञानिक समाजवादी – अनु॰] उन दोनों प्रकार का वर्णन करते हैं, और हम सबूत पेश करते हैं – कठोर रूप से अर्थशास्त्रीय – कि उनका विकास साथ ही साथ, सामाजिक क्रांति के तत्वों का भी विकास है। एक तरफ एक वर्ग, सर्वहारा, का विकास जिसके जीवन की परिस्थितियाँ आवश्यक तौर पर उसे सामाजिक क्रांति के लिये प्रेरित करती है, दूसरी तरफ, उत्पादक शक्तियों का विकास, जो पूंजीवादी समाज के ढाँचे की सीमाओं से आगे बढ़ने के बाद, आवश्यक तौर पर उस ढाँचे को तोड़ देता है। साथ ही साथ वह, सामाजिक प्रगति के हित में एकबारगी के लिये वर्ग-भेदों को मिटाने का साधन मुहैया करता है। प्रुधों इसके विपरीत, मौजूदा समाज से यह मांग करते हैं कि यह खुद को, आर्थिक विकास के इसके अपने नियमों के अनुसार नहीं बल्कि न्याय के नीतिवचनों (“अधिकार की अवधारणा” वाला मुहावरा प्रुधों का नहीं बल्कि मुलबर्गर का है) के अनुसार बदल डाले। जहाँ हम साबित करते हैं, प्रुधों और उनके साथ मुलबर्गर, उपदेश देते हैं और विलाप करते हैं।
“क्रांति के अधिकार की अवधारणा” किस प्रकार की चीज है, इसका अनुमान करने में मैं पूर्णतया असमर्थ हूँ। यह सही है कि प्रुधों “उस क्रांति” की देवी जैसी कुछ बनाते हैं जो उनके “न्याय” की वाहिका एवं कार्यनिष्पादिका होती है। ऐसा करने में वह सन 1789-94 की पूंजीवादी क्रांति को आनेवाली सर्वहारा क्रांति के साथ मिला देने की अजीब सी गलती कर बैठते हैं। अपनी लगभग सभी रचनाओं में, खास कर सन 1848 के बाद से, वह ये गलती करते हैं। उदाहरण के तौर मैं सिर्फ एक उद्धरण दूंगा – आइडिए जेनेराले द ला रिवोल्युशन के सन 1868 के संस्करण का पृष्ठ 39 और 40। हालाँकि, चूंकि मुलबर्गर प्रुधों की सभी एवं सारी जिम्मेवारी अस्वीकार करते हैं, मेरे पास प्रुधों की रचनाओं से, “क्रांति के अधिकार की अवधारणा” की व्याख्या करने की अनुमति नहीं है, फलस्वरूप गहन अंधकार में हूँ।
मुलबर्गर आगे कहते हैं:
“लेकिन न मैं और न प्रुधों मौजूदा अन्यायपूर्ण परिस्थितियों की व्याख्या के लिये ‘श्वाश्वत न्याय’ के नाम से अपील करता हूँ, या इस न्याय के नाम अपील करके इन परिस्थितियों की बेहतरी की उम्मीद करता हूँ, जैसा कि एंगेल्स मेरे जुबान का हवाला देते हैं।”
मुलबर्गर जरूर अपने इस विचार पर भरोसा कर रहे होंगे कि “जर्मनी में प्रुधों सामान्यत: अज्ञात जैसे ही हैं”। उनकी सभी रचनाओं में प्रुधों अपने “न्याय” की छड़ी लिये हुये सारी सामाजिक, कानूनी, राजनीतिक एवं धार्मिक प्रस्तावों90 को नापते हैं, तथा वह जिसे “न्याय” कहते हैं उसके अनुरूप होने या न होने के अनुसार उन्हे या तो खारिज करते हैं या पहचानते हैं। कॉन्ट्राडिक्शन्स इकॉनोमिक्स 91 तक यह न्याय “श्वाश्वत न्याय” कहलाता है। बाद में शाश्वत के बारे में कुछ और नहीं कहा जाता है लेकिन विचार का साररूप रह जाता है। उदाहरण के तौर पर, द ला दान्स ला रिवोल्युशन एत दान्स ल’इगलिसे [क्रांति एवं गिर्जा में न्याय पर – अनु॰] के सन 1858 संस्करण में निम्नलिखित अंश पूरे तीन खण्डों के उपदेश का कथ्य है (खण्ड 1, पृष्ठ 42):
“समाजों का आधारभूत, जैविक, नियंत्रक एवं संप्रभु सिद्धांत क्या है, वह सिद्धांत जो सभी दूसरों को खुद के अधीन कर लेता है, जो शासन करता है, सुरक्षा देता है, दमन करता है, सजा देता है और जरूरत पड़ने पर विद्रोही तत्वों को कुचल भी देता है? क्या वह धर्म है, या आदर्श या हित?… मेरी राय में वह न्याय का सिद्धांत है। -- न्याय क्या है? यह मानवता का खास सारवस्तु है। दुनिया की शुरूआत से यह क्या है? कुछ नहीं। -- इसे होना क्या चाहिये? सबकुछ।”
वह न्याय जो कि मानवता का खास सारवस्तु है, अगर शाश्वत न्याय नहीं तो और क्या है? वह न्याय जो जैविक, नियंत्रक, संप्रभु आधारभूत सिद्धांत है समाजों का, जो अभी तक खैर कुछ हुआ नहीं है लेकिन सबकुछ होना चाहिये – क्या है वह अगर सारे मानवीय मामलों को नापने की छड़ी नहीं है, अन्तिम पंच नहीं है जिसके पास सारे टकरावों में अपील करना होगा? और क्या मैं इसके अलावा और कुछ दावा किया था कि सारे आर्थिक सम्बन्धों को आर्थिक नियमों के बजाय इस बात से आँक कर कि वे इस शाश्वत न्याय की अवधारणा के अनुरूप हैं या नहीं, प्रुधों अपनी आर्थिक अज्ञानता एवं असहायता को ढक लेते हैं? और क्या भिन्नता है मुलबर्गर और प्रुधों में अगर मुलबर्गर मांग करते हैं कि “आधुनिक समाज के जीवन के इन सारे आदान-प्रदानों” में “कहा जाय तो अधिकार की एक अवधारणा व्याप्त” होनी चाहिये; ये आदान-प्रदान “सभी जगहों पर न्याय की कठोर मांग के अनुरूप किये जाने चाहिये92? क्या मैं पढ़ना नहीं जानता हूँ या मुलबर्गर लिखना नहीं जानते हैं?
मुलबर्गर आगे और कहते हैं:
“प्रुधों मार्क्स और एंगेल्स जैसा ही अच्छी तरह जानते हैं कि मानव समाज में वास्तविक चालक प्रवृत्ति आर्थिक सम्बन्धों से बनती है न कि न्यायिक सम्बन्धों से; वह यह भी जानते हैं कि किसी जनता में मौजूद अधिकार की अवधारणायें सिर्फ आर्थिक सम्बन्धों के अभिव्यक्ति, चिन्ह एवं उपज है – विशेष कर उत्पादन के सम्बन्धों के … एक शब्द में, प्रुधों का अधिकार ऐतिहासिक तौर पर विकसित आर्थिक उपज है।”
अगर प्रुधों यह सब कुछ जानते हैं (मुलबर्गर द्वारा इस्तेमाल की गई सारी अस्पष्ट अभिव्यक्तियों को मैं रास्ता देने को एवं उपरोक्त बातों में निहित उनके अच्छे इरादों को ग्रहण करने को तैयार हूँ), अगर प्रुधों यह सब कुछ “मार्क्स और एंगेल्स जैसा ही अच्छी तरह” जानते हैं तो झगड़े के लिये क्या बचता है? मुश्किल यह है प्रुधों की ज्ञान सम्बन्धित स्थिति कुछ भिन्न है। किसी समाज के आर्थिक सम्बन्ध सबसे पहले हितों के रूप में सामने आते हैं। अब, प्रुधों की प्रधान रचना से उद्धृत किये गये अंश में प्रुधों शब्द-संभार के साथ कहते हैं कि “समाजों का नियंत्रक, जैविक, संप्रभु आधारभूत सिद्धांत, वह सिद्धांत जो सभी अन्य को अपने अधीन करता है” हित नहीं बल्कि न्याय है। और यह बात वह अपनी सभी रचनाओं के निर्णायक अंशों में दोहराते हैं, जिसके चलते मुलबर्गर आगे बढ़ने से रुक नहीं पाते:
“आर्थिक अधिकार का विचार, जिसे सर्वाधिक गहनता के साथ प्रुधों द्वारा ला ग्वेरे एत ला पैक्स [युद्ध एवं शांति – अनु॰] में विकसित किया गया था, लासाल के उन मूलभूत विचारों के साथ पूरी तरह मेल खाता है जिन्हे लासाल ने सिस्टेम डेर एर्वोर्नेन रेख्त [अर्जित अधिकारों की व्यवस्था – अनु॰] के प्राक्कथन में उत्कृष्ट तरीके से अभिव्यक्त किया गया है।”
ला ग्वेरे एत ला पैक्स शायद प्रुधों के अनेकों बालसुलभ रचनाओं में से सर्वाधिक बालसुलभ है। लेकिन मैंने कभी उम्मीद नहीं की थी कि इस रचना को प्रुधों की, इतिहास की जर्मन भौतिकतावादी अवधारणा की समझ के सबूत के रूप में पेश किया जायेगा। इतिहास की जर्मन भौतिकतावादी अवधारणा सभी ऐतिहासिक घटनाओं एवं विचारों, पूरी राजनीति, दर्शन एवं धर्म की व्याख्या, आलोच्य ऐतिहासिक काल के जीवन की भौतिक, आर्थिक स्थितियों से करती है। उपरोक्त पुस्तक इतना कम भौतिकतावादी है कि युद्ध की अवधारणा का निर्माण भी, बनाने वाले विधाता की मदद के बिना कर नहीं पाता है”
“हालाँकि, जिसने हमारे लिये जीवन के इस रूप को चुना, उस बनाने वाले के अपने उद्देश्य थे।” [खण्ड II, पृष्ठ 100, 1869 संस्करण]
किस तरह के ऐतिहासिक ज्ञान पर यह पुस्तक आधारित था इसका निर्णय इस तथ्य से हो सकता है कि यह पुस्तक ‘स्वर्णयुग’ के ऐतिहासिक अस्तित्व पर विश्वास करता है:      
“प्रारंभ में, जब तक मानव जाति का फैलाव पृथ्वी की सतह पर विरल था, प्रकृति इसकी जरूरतों की आपुर्ति बिना कठिनाई के करती थी। यह स्वर्णयुग था, शांति और प्राचुर्य का युग।” (उपरोक्त, पृष्ठ 102)
पुस्तक की आर्थिक समझ सबसे घटिया मैल्थसवाद है:
“जब उत्पादन दोगुना हो जायेगा, जनसंख्या भी जल्द ही दोगुनी हो जायेगी” (पृष्ठ 106)93
तो फिर किस बात में है इस पुस्तक की भौतिकतावाद? इसी घोषणा में कि युद्ध का कारण हमेशा से रही है “कंगाली”, और आगे भी रहेगी (उदहरणस्वरूप पृष्ठ 143)। चाचा ब्रासिग भी उतने ही पहुँचे हुये भौतिकतावादी थे जब सन 1848 के भाषण में उन्होने शांत भाव ये भव्य शब्दों के उच्चारण किये थे: “भयंकर गरीबी का कारण है भयंकर गरीबी [फ्रांसिसी भाषा में – अनु॰]
लासाल रचित सिस्टेम डेर एर्वोर्नेन रेख्त [अर्जित अधिकारों की व्यवस्था] में न सिर्फ एक न्यायशास्त्री की, बल्कि एक पुराने हेगेलवादी की भी भ्रांतियों के छाप हैं। पृष्ठ VII में, लासाल प्रत्यक्षत: घोषित करते हैं कि “अर्थनीति में” भी “अर्जित अधिकारों की अवधारणा आगे की पूरी विकास की चालक शक्ति है” और वह साबित करने का प्रयास करते हैं (पृष्ठ XI) कि “अधिकार, खुद में से विकसित होता हुआ एक तार्किक जीव है” (यानि, आर्थिक पूर्वशर्तों से नहीं)। लासाल के लिये यह अधिकार को, आर्थिक सम्बन्धों से नीत होने का सवाल नहीं था बल्कि
“ईच्छा की उस अवधारणा से, कानून का दर्शन [अधिकार – रेख्ट्सफिलॉसोफी] बस जिसका विकास एवं प्रतिपादन है” (पृष्ठ XII)
पाने का सवाल था। तो, यहाँ यह पुस्तक कहाँ पहुँचता है? प्रुधों एवं लासाल में एक मात्र फर्क है कि लासाल वास्तविक न्यायशास्त्री एवं हेगेलवादी थे जबकि अन्य सभी मामलों की तरह न्यायशास्त्र में भी और दर्शनशास्त्र में भी प्रुधों मात्र एक पल्लवग्राही थे।
मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि यह आदमी प्रुधों, जो लगातार अन्तर्विरोधी बात कहने के लिये कुख्यात है, कभी-कभार एकाध उक्ति ऐसा कर लेता है कि देखने से लगता है गोया वह तथ्यों के आधार पर विचारों की व्याख्या कर रहा  हो। लेकिन जब उनके चिन्तन की बुनियादी प्रवृत्ति के विपरीत वैसी उक्तियाँ महत्वहीन हैं। साथ ही, वैसी उक्तियाँ जहाँ हैं भी, बेहद उलझी हुई एवं भीतर से विसंगतिपूर्ण हैं।
समाज के विकास के एक विशेष, बहुत आदिम चरण में, उत्पादन, वितरण एवं उत्पादों के विनिमय के, प्रतिदिन की आवर्ती क्रियाओं को एक सामान्य नियम के अन्तर्गत लाने की आवश्यकता उत्पन्न होती है ताकि व्यक्ति खुद को उत्पादन एवं विनिमय के सामान्य शर्तों के अधीन करे। यह नियम, जो पहले एक प्रथा होती है, जल्द ही कानून बन जाती है। कानून के साथ, आवश्यक तौर पर वे अंग पैदा होते हैं जिनका कार्यभार उस कानून का अनुपालन हो – लोक-प्राधिकरण, राज्यसत्ता। और अधिक सामाजिक विकास के साथ, कानून कमोबेश एक विस्तृत न्यायिक व्यवस्था में विकसित होती है। यह न्यायिक व्यवस्था जितनी जटिल होती जाती है, इसकी अभिव्यक्तियाँ, समाज के जीवन की सामान्य स्थितियों की अभिव्यक्तियों से उतनी ही अलग होती जाती हैं। यह एक स्वतंत्र तत्व प्रतीत होता है जो अपने अस्तित्व का औचित्य एवं आगे के विकास का प्रमाणीकरण आर्थिक सम्बन्धों से नीत नहीं बल्कि इसके अपने आन्तरिक बुनियादों से या, अगर आपको अच्छा लगे तो, “ईच्छा की अवधारणा” से नीत होता है। लोग भूल जाते हैं कि उनके अधिकार, जीवन की आर्थिक स्थितियों से नीत होते हैं, जिस तरह वे ये भी भूल गये हैं कि वे खुद पशुजगत से नीत हुये हैं। कानूनी व्यवस्था के एक जटिल, विस्तृत पूर्णता में विकसित होने के साथ साथ श्रम का एक नया सामाजिक विभाजन जरूरी हो जाता है; पेशेवर न्यायशास्त्रियों का एक प्रकार विकसित होता है और इन सब के साथ न्यायिक विज्ञान अस्तित्व में आता है। इसके आगे के विकास में यह विज्ञान विभिन्न जनसमूहों एवं विभिन्न कालखण्डों की न्यायिक व्यवस्थाओं की तुलना करता है, लेकिन उन जनसमूहों या कालखण्डों के अलग अलग आर्थिक सम्बन्धों के प्रतिफलन के रूप में नहीं, बल्कि ऐसी व्यवस्थाओं के रूप में जो अपना प्रमाणीकरण खुद में प्राप्त कर लेते हैं। यह तूलना, समान बिन्दुओं का अनुमान कर लेता है और, कमोबेश उन सभी न्यायिक व्यवस्थाओं में समान बिन्दुओं को संग्रह करते हुये एवं उन्हे नैसर्गिक अधिकार नाम देते हुये, न्यायशास्त्री उन्हे खोजते हैं। और, यह नापने के लिये कि नैसर्गिक अधिकार क्या है अथवा क्या नहीं है, जो छड़ी वे इस्तेमाल करते हैं वह अधिकार की ही सबसे अधिक अमूर्त अभिव्यक्ति होती है, जिसे न्याय कहा जाता है। फलस्वरूप इसके बाद, न्यायशास्त्रियों के लिये एवं उनलोगों के लिये जो न्यायशास्त्रियों के बोल को ही सबकुछ मानते हैं, अधिकार का विकास बस मानवीय परिस्थितियों को - जहाँ तक वे न्यायिक शब्दावलियों में अभिव्यक्त होती हैं - न्याय के, शाश्वत न्याय के आदर्श के करीब ले आने के प्रयास के अलावा कुछ भी नहीं होता है। और हमेशा यह न्याय मौजूदा आर्थिक सम्बन्धों की विचारधारात्मक, आदर्शकृत अभिव्यक्ति होती है – कभी रूढ़िवादी दृष्टिकोण से तो कभी क्रांतिकारी दृष्टिकोण से। यूनानी एवं रोमकों का न्याय दासप्रथा को न्यायपूर्ण मानता था; सन 1789 में पूंजीवादियों का न्याय सामन्तवाद का खात्मा इस आधार पर मांगा कि वह अन्यायपूर्ण था। प्रुशियाई जुंकर [सैन्यशाही अभिजात – अनु॰] के लिये जिलों की तुच्छ नियमावली भी शाश्वत न्याय का उल्लंघन है।94 इसलिये, शाश्वत न्याय की अवधारणा न सिर्फ स्थान और काल के साथ बल्कि सम्बन्धित लोगों के साथ भी बदलती जाती है, और यह अवधारणा उन चीजों में शामिल है जिनके बारे में मुलबर्गर सही कहते हैं कि “सभी थोड़ा अलग समझते हैं”। प्रतिदिन के जीवन में, विवेचित सम्बन्धों के मद्देनजर, सही, गलत, न्याय एवं अधिकार के बोध जैसी अभिव्यक्तियाँ, सामाजिक मुद्दों के प्रसंग में भी बिना किसी गलतफहमी के स्वीकार की जाती हैं। लेकिन, जैसा कि हमने देखा, आर्थिक सम्बन्धों के वैज्ञानिक अनुसंधान में वे अभिव्यक्तियाँ उतनी ही लाचार उलझनें पैदा करेंगी जितना, उदाहरण के तौर पर आधुनिक रसायनविज्ञान के अनुसंधान में पैदा होंगे अगर फ्लॉगिस्टन सिद्धांत की पारिभाषिक शब्दावली बनाये रखे जायें। उलझनें और भी बुरी होंगी अगर कोई, प्रुधों जैसा इस “न्याय” सरीखे सामाजिक फ्लॉगिस्टन में विश्वास करे, या कोई, मुलबर्गर जैसा निश्चय के साथ कहे कि फ्लॉगिस्टन सिद्धांत उतना ही सही है जितना ऑक्सिजेन का सिद्धांत।95


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82- देखें यही खण्ड, पृ॰320-21 - स॰र॰स॰
83- ए॰ मूलबर्गर, “ज़ुर वोनांग्सफ्राज”, डेर वोकस्टाट, अंक 86, अक्तूबर 26, 1872 – स॰र॰स॰
84- डेर वोकस्टाट में वाक्य का यह भाग यूँ लिखा है: “एक बार किराये पर लग जाने के बाद घर इसके निर्माता को किराये के रूप में भूमि-किराया, मरम्मत का लागत, और निवेशित निर्माण पूंजी पर मुनाफा देता है”। - स॰र॰स॰
85- “और मुनाफे” यह दो शब्द एंगेल्स द्वारा 1887 संस्करण में जोड़े गये।
86- डेर वोकस्टाट में है “तेजी से बढ़ते बड़े शहरों में” - स॰र॰स॰  
87- यहाँ फ्रेडरिक एंगेल्स रचित जुर वोनांग्सफ्राज, भाग 1, लाइपजिग, 1872 के अलग पुनर्मुद्रण की चर्चा है (देखें यही खण्ड, पृ॰ 318) - स॰र॰स॰
88- देखें यही खण्ड, पृ॰ 327 – स॰र॰स॰
89- यहाँ और आगे, एंगेल्स ए॰ मुलबर्गर के “ज़ुर वोनांग्सफ्राज”, डेर वोकस्टाट, अंक 86, अक्तूबर 26, 1872 से उद्धृत करते हैं - स॰र॰स॰
90- डेर वोकस्टाट में छपा है “सारी सामाजिक, कानूनी एवं राजनीतिक परिस्थितियाँ, सारे सैद्धांतिक, दार्शनिक एवं धार्मिक प्रस्ताव” – स॰र॰स॰
91- संदर्भित है पी॰जे॰प्रुधों, सिस्तियेम द कॉन्ट्राडिक्शन्स इकॉनोमिक्स, अ फिलॉसोफी द ला मिजेरे - स॰र॰स॰
92- तुलना करें, यह खण्ड, पृ॰ 322 - स॰र॰स॰
93- एंगेल्स की पांडुलिपियों में वे अंश बचे हैं जो उन्होने सन 1873 की शुरुआत में प्रुधों रचित ला ग्वेरे एत ला पैक्स (सन 1869 में प्रकाशित) से उद्धृत किया था। उस समय वह आवास के प्रश्न के भाग III की रचना में मग्न थे। एंगेल्स ने इन उद्धरणों के साथ अपनी टिप्पणियाँ भी जोड़ी थी जिनमें उन्होने प्रुधों के आदर्शवादी नजरिये पर, सामाजिक विकास के नियमों के बारे में प्रुधों की गलतफहमी पर एवं प्रुधों के धृष्ट निराधार रायों पर जोर डाला था। “हर जगह पर, सबूत और चिंतन के विकास के बदले धृष्टता है और सिर्फ दावा है,” एंगेल्स ने लिखा। सामाजिक गैरबराबरी के उद्भव की प्रुधों-कृत व्याख्या पर एंगेल्स ने कहा, “आर्थिक एवं ऐतिहासिक विकास के नियमों से नहीं, बल्कि युद्ध सहित अन्य सभी मामलों की तरह, मनोवैज्ञानिक कारणों से निगमित किया गया है …” एंगेल्स ने यह भी दर्शाया कि प्रुधों का जनसंख्या का सिद्धांत मैल्थस के उस झूठे मत के करीब है जो कहता है कि नैसर्गिक कारणों से जनसंख्या, जीवनधारण के साधनों की तुलना में अधिक गति से बढ़ती है, और, इसीलिये दलील देता है कि श्रमजीवी जनता के कष्ट की व्याख्या सामा्जिक स्थितियों से नहीं की जा सकती है।
94- प्रुशिया, ब्रन्डेनबर्ग, पमेरानिया, पोसेन, साइलेसिया एवं सैक्सनी के प्रदेशों के लिये जिला नियमावली दिसम्बर 1872 में गृहित हुये थे और प्रुशिया के प्रशासनिक सुधार के हिस्से थे। इस नियमावली ने जुंकरों के मौरूसी ताकत को खत्म कर दिया था एवं स्थानीय स्वशासन के कुछेक तत्वों को लागू किया था (समुदाय के मुखियों को चुने जाने के नियम बने एवं सरकारी अधिकारियों के अधीन जिला परिषद बनाये गये)। सुधार का लक्ष्य था, सामान्यत: जुंकरों के हित में जुंकर-पूंजीवादी राज्यसत्ता का अधिकतर केन्द्रीकरण और वास्तव में उस वर्ग के सभी व्यक्ति-प्रतिनिधियों की सुविधायें सुरक्षित रखे गये। उन्हे स्थानीय स्वशासन के सभी दफ्तरों में चुने जाने या नामित किये जाने या अपने आश्रितों को वहाँ बिठाने के अवसर दिये गये। फिर भी रूढ़िवादी कुलीनों एवं भूस्वामी अभिजातों ने, खास कर प्रुशियाई उच्च सदन में, सुधारों का जोरदार प्रतिरोध किया। विशद विवरण देखें एंगेल्स रचित “प्रुशिया का ‘संकट’ निबंध में (यही खण्ड, पृ॰ 400-05)
95- ऑक्सिजेन के आविष्कार के पहले रसायनशास्त्री, वायुमंडलीय हवा में पदार्थों के जलने की व्याख्या, फ्लॉगिस्टन नाम के एक विशेष दाह्य पदार्थ के अस्तित्व को मान कर करते थे जो दहन की प्रक्रिया के दौरान निकल जाता था। चूंकि उन्होने पाया कि दहन में साधारण पदार्थ का वजन जलने के उपरांत, जलने के पहले से अधिक हो जाता है, उन्होने घोषणा किया कि फ्लॉगिस्टन का वजन ॠणात्मक है और इसीलिये कोई पदार्थ उसके फ्लॉगिस्टन के साथ कम वजन का होता है जबकि उसके बिना अधिक। इस तरह ऑक्सिजन के सारे मुख्य गुण धीरे धीरे फ्लॉगिस्टन के नाम होते रहे, लेकिन उल्टे रूप में। यह आविष्कार कि जलने वाले पदार्थ का एक अन्य पदार्थ के साथ जुड़ना ही दहन होता हैं और उस ऑक्सिजन का आविष्कार मूल मान्यता को समाप्त कर दिया - लेकिन पुराने रसायनशास्त्रियों के दीर्घकालीन प्रतिरोध के उपरांत ही।


Tuesday, November 19, 2019

आवास का प्रश्न, भाग 3 (1) फ्रेडरिक एंगेल्स


प्रुधों एवं आवास के प्रश्न पर अनुपूरक
I
वोकस्टाट के अंक 86 में ए॰ मूलबर्गर74 खुद को उन निबंधों के लेखक के रूप में परिचित कराये हैं जिनकी आलोचना उस अखबार के 51वें एवं बाद के अंकों में मेरे द्वारा की गई थी75। अपने प्रत्युत्तर में मुझे अभिभूत करने के लिये उन्होने तिरस्कारों की ऐसी झड़ी लगाई है और साथ ही साथ, सारे मुद्दों को इतना उलझा दिया है कि चाहे जैसे हो उनका जबाब मुझे देना ही पड़ेगा। मुझे खेद है कि जबाब देने में काफी हद तक मुझे उस व्यक्तिगत वाद-विवाद के क्षेत्र में उतरना पड़ेगा जो मुलबर्गर ने मेरे ऊपर थोप दिया है। फिर भी मैं कोशिश करूंगा कि मेरे जबाबी लेखन में आम पाठकों की भी रुचि हो और इसके लिये मुख्य विन्दुओं को मैं पुन: एवं अगर संभव हो तो पहले से अधिक स्पष्टता के साथ प्रस्तुत करुंगा। भले मुलबर्गर मुझे दोबारा कहें कि इन सभी बातों में “सारत: कुछ भी नया नहीं है - न तो उनके लिये और न ही वोकस्टाट के अन्य पाठकों के लिये”।
मुलबर्गर मेरी आलोचना की शैली और अन्तर्वस्तु की शिकायत करते हैं। जहाँ तक शैली की बात है, इतना उत्तर पर्याप्त होगा कि मैं जानता भी नहीं था कि ये आलोच्य निबंध किसने लिखे हैं। इसलिये, इन निबंधों के लेखक के प्रति किसी व्यक्तिगत “पूर्वाग्रह” का प्रश्न ही नहीं उठता है। बेशक, आवास की समस्या का जो समाधान उन निबंधों में पेश किया गया था उसके विरुद्ध में मैं “पूर्वाग्रहित” था। क्योंकि काफी पहले से मैं प्रुधों के माध्यम से इस समाधान को जानता था और इसके बारे में मेरी राय सुदृढ़ और स्थिर थी।
मैं अपने मित्र मुलबर्गर के साथ मेरी आलोचना के “लहजे” पर झगड़ा नहीं करने जा रहा हूँ। कोई जब मेरी तरह इतने लम्बे समय तक आन्दोलन में रहता है, हमलों के खिलाफ उसकी चमड़ी मोटी हो जाती है और इसीलिये, आसानी से वह मान लेता है कि दूसरों की भी वैसी ही हो चुकी होगी। मुलबर्गर की क्षतिपूर्ति के लिये इस बार मैं अपने “लहजे” को उनके अधिचर्म (त्वक की उपरी सतह) की संवेदनशीलता के अनुकूल रखने का प्रयास करुंगा।
मुलबर्गर ने खास कड़वाहट के साथ शिकायत की है कि मैंने उन्हे प्रुधोंवादी कहा है, और वे इसका प्रतिवाद करते हैं, कहते हैं कि वह प्रुधोंवादी नहीं हैं। स्वाभाविक तौर मुझे उन पर विश्वास करना होगा। लेकिन मैं सबूत प्रस्तुत करूंगा कि आलोच्य निबंधों में – और मुझे सिर्फ उन निबंधों से ही मतलब है – विशुद्ध प्रुधोंवाद के सिवा कुछ भी नहीं है।
लेकिन मुलबर्गर का यह भी कहना है कि मैंने प्रुधों की “ओछी” आलोचना की है और उनके प्रति गंभीर अन्याय किया है।
“टुटपूंजिया प्रुधों का सिद्धांत जर्मनी में एक स्वीकृत मताग्रह बन चुका है। वे भी इस सिद्धांत की घोषणा करते हैं जिन्होने कभी प्रुधों की र्क पंक्ति भी नहीं पढ़ी।”
जब मैं खेद व्यक्त करता हूँ कि बीस वर्षों से लातीनी भाषायें बोलने वाले श्रमिकों के पास प्रुधों की रचनाओं के अलावा कोई दूसरा मानसिक खुराक नहीं है, मुलबर्गर जबाब देते हैं कि जहाँ तक लातीनी श्रमिकों की बात है, “प्रुधों द्वारा सुत्रबद्ध किये गये सिद्धांत लगभग सभी जगहों पर आन्दोलन के प्रेरक उत्साह रहे हैं”। इस बात से मैं निश्चित ही इन्कार करुंगा। पहली बात, श्रमिक-वर्ग के आन्दोलन का “प्रेरक उत्साह” कहीं भी “सिद्धांतों” में निहित नहीं रहता है बल्कि बड़े उद्योगों का विकास एवं उसके प्रभावों – एक तरफ पूंजी के तो दूसरी तरफ सर्वहारा के जमाव एवं संकेन्द्रण – में निहित रहता है। दूसरी बात, यह कहना सही नहीं है कि लातीनी देशों में प्रुधों के तथाकथित “सिद्धांतों” की, जैसा कि मुलबर्गर कहते हैं, निर्णायक भूमिका थी – “आर्थिक ताकतों के संगठन, सामाजिक विघटन आदि द्वारा प्रतिपादित अराजकतावाद के सिद्धांत वहाँ … क्रांतिकारी आन्दोलन के सच्चे वाहक बन गये थे”। स्पेन और इटली को अगर छोड़ दें, जहाँ प्रुधोंवादी सर्वरोगहर औषधि - वह भी बाकुनिन द्वारा प्रस्तुत और भी अधकचरे रूप - का कुछ प्रभाव पड़ा था, अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक-वर्ग आन्दोलन को जानने वाले सभी को यह कुख्यात तथ्य पता है कि फ्रांस में प्रुधोंवादी संख्या की दृष्टि से एक तुच्छ संप्रदाय हैं। फ्रांसिसी श्रमिक जनसमुदाय, सामाजिक विघटन एवं आर्थिक शक्तियों का संगठन76 के नाम पर प्रुधों द्वारा बनाई गई सामाजिक सुधार योजना के साथ कोई भी सरोकार रखने से इनकार करता है। पैरिस कम्यून में अन्य बातों के साथ यह भी दिखा था। हालाँकि प्रुधोंवादियों का कम्यून में सशक्त प्रतिनिधित्व था, प्रुधों के प्रस्तावों के अनुसार पुराने समाज को विघटित करने या आर्थिक शक्तियों को संगठित करने की जरा सी भी कोशिश नहीं की गई थी। विपरीत में, यह बात कम्यून के लिये सर्वोच्च सम्मान की है कि अपने सारे आर्थिक कदमों में, कम्यून के “प्रेरक उत्साह” सरल, व्यवहारिक जरूरतें थीं, “सिद्धांतों” के समूह नहीं। और इसी लिये ये कदम – बेकरियों में रात के काम की समाप्ति, कारखानों में आर्थिक दंड पर रोक, बन्द-पड़े कारखानों एवं कर्मशालाओं को जब्त कर श्रमिक समितियों को सौंप दिया जाना – बिल्कुल ही प्रुधोंवाद की भावना के अनुरूप नहीं बल्कि निश्चित तौर पर जर्मन वैज्ञानिक समाजवाद की भावना के अनुरूप है। एक मात्र सामाजिक कदम जो प्रुधोंवादियों ने लागू करवाया वह था बैंक ऑफ फ्रांस को जब्त नहीं करने का फैसला, और यह फैसला कम्यून के पतन के लिये आंशिक तौर पर जिम्मेदार था। उसी तरह, जब तथाकथित ब्लांकीवादियों ने खुद को महज राजनैतिक क्रांतिकारियों से, निर्दिष्ट कार्यक्रम सहित समाजवादी श्रमिकों के एक गुट में बदलने का प्रयास किया – जैसा लन्दन के ब्लांकीवादी भगोड़ों द्वारा अपने घोषणापत्र क्रांति का अन्तरराष्ट्रीय में किया गया था – उन्होने समाज के उद्धार की प्रुधोंवादी योजना के “सिद्धांतों” की घोषणा नहीं की, बल्कि अक्षरश:, जर्मन वैज्ञानिक समाजवाद के नजरिये को अपनाया। सर्वहारा की राजनैतिक कार्रवाई की आवश्यकता पर, वर्गों की समाप्ति एवं उसी के साथ राज्यसत्ता की समाप्ति के संक्रमणकाल में उसकी तानाशाही की आवश्यकता पर जर्मन वैज्ञानिक समाजवाद का जो नजरिया कम्युनिस्ट घोषणापत्र77 में, और उसके बाद अनगिनत अवसरों पर अभिव्यक्त हुआ था, उसी को उन्होने अपनाया। और अगर मुलबर्गर, प्रुधों के प्रति जर्मनों की अवहेलना की दृष्टि के कारण यह निष्कर्ष निकालते हैं कि लातीनी देशों में आन्दोलन के बारे में “पैरिस कम्यून तक” समझ की कमी रही है, तो वह इस कमी के सबूत के रूप में बतायें कि लातीनी तरफ की कौन सी रचना में कम्यून को, जर्मन मार्क्स द्वारा लिखित फ्रांस में गृहयुद्ध पर अन्तरराष्ट्रीय के साधारण परिषद को सम्बोधन जैसा सही (लगभग भी) ढंग से समझा गया है और वर्णित किया गया है।  
एक मात्र देश जहाँ श्रमिक-वर्ग का आन्दोलन प्रत्यक्षत: प्रुधोंवादी “सिद्धांतों” के प्रभाव में है, वह है बेल्जियम। और ठीक इसी के परिणामस्वरूप बेल्जियाई आन्दोलन, जैसा कि हेगेल कहते, “शून्य से शून्य होते हुये शून्य तक”78 पहुँचता है।
जब मैं इसे एक दुर्भाग्य समझता हूँ कि बीस वर्षों से लातीनी देशों के श्रमिकों को बौद्धिक आहार के रूप में प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर सिर्फ प्रुधों की रचनायें ही मिली हैं, मेरा सरोकार प्रुधों की सुधार-विधियों पर हावी उस पूर्णतया पौराणिक आधिपत्य से नहीं होता है जिसे मुलबर्गर “सिद्धांत” नाम देते हैं, बल्कि इस बात से होती है कि प्रुधों की रचनाओं के प्रभाव के कारण लातीनी देशों श्रमिकों द्वारा की गई मौजूदा समाज की आर्थिक आलोचना, पूरी तरह झूठे प्रुधोंवादी मुहावरों से दूषित रही एवं उनकी राजनीतिक कार्रवाईयाँ प्रुधोंवाद के प्रभाव के कारण विफल होती रही। अब इसके चलते “लातीनी देशों के प्रुधों-कृत श्रमिक” जर्मन श्रमिकों से “ज्यादा खड़े हैं क्रांति में” या नहीं, इसका जबाब तो हम तभी दे पायेंगे जब सीख लेंगे कि वास्तव में, “क्रांति में खड़े होने” का अर्थ क्या होता है। वैसे, लातीनी जितना अपने प्रुधों को जानते हैं उससे बहुत बहुत बेहतर ढंग से जर्मन श्रमिक कम से कम वैज्ञानिक जर्मन समाजवाद के अर्थ को जानते हैं। हमने उन लोगों का भाषण सुना है जो “इसाईयत में, सच्ची आस्था में, ईश्वर की कृपा में खड़े रहते हैं” वगैरह, वगैरह। लेकिन क्रांति में, सभी आन्दोलनों में जो सर्वाधिक प्रचंड है उसमें “खड़े रहना”? तो क्या, “क्रांति” एक तत्ववादी धर्म है जिस पर हम अवश्य विश्वास करें?
आगे चल कर मुलबर्गर मुझे तिरस्कार करते हैं कि उनके निबंधों के सुस्पष्ट शब्दावलियों का अनादर करते हुये मैंने दावा किया है कि उन्होने आवास के प्रश्न को विशेष तौर पर श्रमिक-वर्ग के प्रश्न होने की बात कही है।
इस बार मुलबर्गर वास्तविक ही सही हैं। मैंने आलोच्य परिच्छेद की अनदेखी की। इसकी अनदेखी करना मेरी गैरजिम्मेदारी थी क्योंकि यह परिच्छेद उनके दीर्घ विवेचन की पूरी प्रवृत्ति को स्पष्ट करता है। मुलबर्गर वस्तुत: सादे शब्दों में लिखते हैं:
“चुँकि हम बार बार और व्यापक तौर पर, वर्गीय नीति पर चलने, वर्गीय आधिपत्य के लिये प्रयासरत रहने और इसी तरह के अन्य निरर्थक आरोपों से घिरते रहते हैं, सबसे पहले हम स्पष्टता के साथ इस बात पर जोर डालना चाहते हैं कि आवास का प्रश्न कहीं से भी, विशेष तौर पर सर्वहारा को प्रभावित करने वाला प्रश्न नहीं है। बल्कि, इसके विपरीत, वास्तविक मध्य वर्गों को भी काफी महत्वपूर्ण हद तक को, छोटे व्यापारियों को, टुटपूंजियों को, पूरी अफसरशाही को यह प्रश्न प्रभावित करता है … आवास का प्रश्न सामाजिक सुधार का ठीक वह बिन्दु है जो एक तरफ, किसी भी दूसरे बिन्दु से अधिक, सर्वहारा के हितों एवं दूसरी तरफ, समाज के वास्तविक मध्य वर्गों के हितों के बीच की परम आन्तरिक समरूपता को उजागर करने के उपयुक्त प्रतीत होता है। किराये के घरों के उत्पीड़क जंजीरों को सर्वहारा जितना झेलता है, मध्य के वर्ग भी उतना ही, एवं शायद उससे अधिक झेलते हैं … । आज समाज के वास्तविक मध्य के वर्ग इस प्रश्न का सामना कर रहे हैं कि क्या वे … जवान, जोरदार एवं ऊर्जावान श्रमिक-दल के साथ गँठजोड़ बनाकर समाज के बदलाव – ऐसा बदलाव जिसका आशीर्वाद सबसे अधिक वे ही प्राप्त करेंगे – में हिस्सा लेने के लिये … पर्याप्त शक्ति जुटा पायेंगे?”79
इस तरह मित्र मुलबर्गर यहाँ निम्नलिखित बिन्दु प्रस्तुत करते हैं:
1॰ “हम” कोई “वर्गीय नीति” पर नहीं चलते एवं “वर्गीय आधिपत्य” के लिये प्रयासरत नहीं होते। लेकिन जर्मन सामाजिक-जनवादी श्रमिक दल, सिर्फ इसलिये कि यह श्रमिकों का दल है, आवश्यक तौर पर एक “वर्गीय नीति” पर, श्रमिक वर्ग की नीति पर, चलता है। चुँकि प्रत्येक राजनीतिक दल राज्यसत्ता पर अपना शासन प्रतिष्ठित करने के लिये आगे बढ़ता है, जर्मन सामाजिक-जनवादी श्रमिक दल भी आवश्यक तौर पर राज्यसत्ता पर अपना शासन, श्रमिक वर्ग का शासन यानी “वर्गीय आधिपत्य”, प्रतिष्ठित करने के लिये प्रयासरत है। इसके अलावा, अंग्रेज चार्टिस्टों से लेकर आज तक सभी वास्तविक सर्वहारा दलों ने एक वर्गीय नीति प्रस्तुत किया है, कि स्वतंत्र राजनीतिक दल के रूप में सर्वहारा का संगठन-निर्माण इसके संघर्ष का प्राथमिक शर्त है तथा संघर्ष का तात्कालिक लक्ष्य है सर्वहारा का एकनायकत्व। इसे “निरर्थक” घोषित कर मुलबर्गर खुद को सर्वहारा आन्दोलन से अलग कर लेते हैं और टुटपूंजिये समाजवाद के खेमें में चले जाते हैं।
2॰ आवास के प्रश्न को यह फायदा हासिल है कि यह विशेष तौर पर श्रमिक-वर्गीय प्रश्न नहीं है बल्कि ऐसा प्रश्न है जो टुटपूंजिया वर्गों को “काफी महत्वपूर्ण हद तक प्रभावित करता है”। फलस्वरूप, “वास्तविक मध्य के वर्ग भी” इस प्रश्न को, ठीक “उतना ही” झेलते है जितना कि सर्वहारा, “एवं शायद उससे अधिक”। अगर कोई घोषणा करे कि टुटपूंजिये वर्ग, किसी एक मामले में भी “शायद सर्वहारा से भी अधिक” झेलते हैं, तो उसे शिकायत करने की शायद ही कोई गुंजाइश बनती है कि क्यों उसे टुटपूंजिया समाजवादियों में गिना गया। अत:, क्या मुलबर्गर को शिकायत करने का कोई आधार बनता है जब मैं कहता हूँ कि:
“मोटे तौर पर उन्ही तकलीफों को लेकर, जिन्हे श्रमिक वर्ग अन्य वर्गों, और खास कर टुटपूंजिया वर्गों के साथ मिल कर झेलता है, टुटपूंजिया समाजवाद व्यस्त रहता है, और प्रुधों भी टुटपूंजिया समाजवादी ही हैं। और इसलिये यह बिल्कुल ही कोई आकस्मिकता नहीं है कि हमारे जर्मन प्रुधोंवादी मुख्यत: आवास के प्रश्न को पकड़ते हैं जो, जैसा कि हमने देखा, विशेष तौर पर श्रमिक-वर्गीय प्रश्न कहीं से भी नहीं है।”80
3॰ “समाज के वास्तविक मध्य वर्गों” के हितों एवं सर्वहारा के हितों के बीच एक “परम आन्तरिक समरूपता” है, और सर्वहारा नहीं, बल्कि वास्तविक मध्य के वर्गों को “सबसे अधिक”, समाज के बदलाव की आनेवाली प्रक्रिया का “आशीर्वाद” प्राप्त होगा।
यानि श्रमिक, आनेवाली सामाजिक क्रांति, “सबसे अधिक” टुटपूंजिया वर्गों के हितों के लिये करेंगे। उतना ही नहीं, टुटपूंजिया वर्गों के हितों के साथ सर्वहारा के हितों की परम आन्तरिक समरूपता है। अगर टुटपूंजिया वर्गों के हितों की सर्वहारा के हितों के साथ परम आन्तरिक समरूपता है तो सर्वहारा के हितों की भी, टुटपूंजिया वर्गों के हितों के साथ परम आन्तरिक समरूपता होगी। टुटपूंजिया दृष्टिकोण को आन्दोलन में रहने का उतना ही अधिकार है जितना सर्वहारा दृष्टिकोण को – और ठीक यही, अधिकार की बराबरी के दावे को ही टुटपूंजिया समाजवाद कहा जाता है।
इसलिये यह बिल्कुल सुसंगत होता है जब अलग पुनर्मुद्रण के पृष्ठ 25 में मुलबर्गर “समाज के वास्तविक आश्रय” के रूप में “क्षुद्र उद्योग” की स्तुति करते हैं, “क्योंकि, अपनी खास प्रकृति के कारण यह अपने में तीन कारकों – श्रम, प्राप्ति एवं दखल – को सम्मिलित करता है और इन तीन कारकों के सम्मिलन के कारण यह व्यक्ति के विकास की क्षमता में कोई बाधा नहीं डालता है”। और तब भी सुसंगत होता है जब वह, सामान्य मानव पैदा करने के इस पौधा-घर के विध्वंस के लिये तथा “निरन्तर खुद का पुनरुत्पादन करने वाले एक सन्तान उत्पादक वर्ग को मानवों – जो नहीं जानते हैं कि अपनी चिंतित दृष्टि किधर घुमायें - के एक अचेतन ढेर में बदलने के लिये” खास कर आधुनिक उद्योग का तिरस्कार करते हैं। इस तरह, टुटपूंजिया ही मुलबर्गर का आदर्श मानव है और क्षुद्र उद्योग मुलबर्गर का आदर्श उत्पादन प्रणाली। तो, जब मैंने उन्हे टुटपूंजिया समाजवादियों में श्रेणीबद्ध किया, क्या मैंने उन्हे बदनाम किया?
चुँकि मुलबर्गर प्रुधों की सारी जिम्मेदारी अस्वीकार करते हैं, आगे और यह विवेचन जरूरत से ज्यादा होगा कि किस तरह प्रुधों की सुधार योजनायें समाज के सभी सदस्यों को टुटपूंजिया और छोटे किसानों में परिवर्तित करने को लक्ष्य बनाती हैं। टुटपूंजिये वर्ग एवं श्रमिकों के हितों की आरोपित समरूपता का विवेचन भी उतना ही गैरजरूरी होगा। जितना जरूरी है वह कम्युनिस्ट घोषणापत्र (लाइपजिग संस्करण, 1872, पृ॰ 12 एवं 2181) में पहले से मौजूद है। हमारे परीक्षण का परिणाम, अत: यही हुआ कि “टुटपूंजिया प्रुधों की दन्तकथा” के बगल में टुटपूंजिया मुलबर्गर की वास्तविकता का आविर्भाव हुआ।


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74- ए॰ मुलबर्गर, “ज़ुर वोनांग्स्फ्राज”, डेर वोकस्टाट, अंक 86, अक्तूबर 26, 1872 - स॰र॰स॰
75- देखें, इसी खण्ड में, पृ॰ 317-37 – स॰र॰स॰
76- पी॰ जे॰ प्रुधों, आइडिये जेनेराले द ला रिवल्युशन ऑ XIXए सियेक्ल, पैरिस, 1868 – स॰र॰स॰
77- देखें मौजूदा संस्करण, खण्ड 6, पृ॰ 504-506 - स॰र॰स॰
78- जी॰ डब्ल्यु॰ एफ॰ हेगेल, विसेनशाफ्ट डेर लॉजिक, वर्के, खण्ड 4, बर्लिन, 1834, भाग 1, अनुभाग 2, पृ॰ 15, 75, 145 – स॰र॰स॰
79- ए॰ मुलबर्गर, आवास का प्रश्न, एक सामाजिक अध्ययन, अलग से पुनर्मुद्रित वोकस्टाट का अंश, लिपजिग, 1872 - स॰र॰स॰
80-  देखें यह खण्ड, पृ॰ 319 - स॰र॰स॰
81- देखें मौजूदा संस्करण, खण्ड 6, पृ॰ 494 एवं 509-10 - स॰र॰स॰

Wednesday, November 13, 2019

आवास का प्रश्न, भाग – 2 (3), फ्रेडरिक एंगेल्स


किस तरह एक पूंजीवादी आवास के प्रश्न का समाधान करता है
III
वास्तव में, पूंजीवादी वर्गों के पास, उसके अपने तरीके से, आवास के प्रश्न को सुलझाने की एक ही पद्धति है – मतलब, ऐसे सुलझाओ कि समाधान बार बार प्रश्न को नये ढंग से पैदा करे। इस पद्धति को “हॉसमान” कहा जाता है।
“हॉसमान” शब्द से मैं सिर्फ पैरिस के हॉसमान के खास बोनापार्टवादी तरीके की बात नहीं कर रहा हूँ। उस तरीके की खासीयत थे घने-बने हुये श्रमिकों के घरों को चीरती हुई लम्बी, सीधी और चौड़ी सड़कें और दोनों तरफ कतारबद्ध बड़े आलीशान भवन। ऐसे निर्माण का पहला रणनीतिक उद्देश्य था बैरिकेड की लड़ाई [रास्ता रोक कर मोर्चा खड़ी करने की लड़ाई – अनु॰] कठिन बनाना। दूसरा उद्देश्य था विशिष्ट तौर पर एक बोनापार्टवादी निर्माण-व्यवसाय-सर्वहारा को विकसित करना जो सरकार पर निर्भर रहे। तीसरा उद्देश्य था शहर को विशुद्ध और सरल विलासितापूर्ण शहर में बदलना। “हॉसमान” से मेरा अर्थ है वह दस्तूर जो अब सामान्य हो चुका है कि बड़े नगरों में सबसे पहले नगर के केन्द्र में स्थित श्रमिक-वर्ग के मोहल्लों में दरार डालो। चाहे यह दस्तूर सार्वजनिक स्वास्थ्य और सौन्दर्यीकरण के मद्देनजर चला हो या नगर के केन्द्र में बड़े व्यवसायिक परिसर बनाये जाने की मांग पर, या फिर यातायात सुविधा के लिये – रेल की पटरी बिछाना, सड़कें बनाना आदि – कितने भी अलग हों इस दस्तूर के चलने के कारण, परिणाम एक ही होते हैं सभी जगह। अत्यंत शर्मनाक गलियाँ और रास्ते अदृश्य हो जाते हैं जिसके साथ, इस जबर्दस्त सफलता के नाम पर पूंजीवादी वर्गों का आत्म-महिमामंडन होता है लेकिन – वे गलियाँ और वे रास्ते फिर कहीं और, अक्सर बिल्कुल पड़ोस में आविर्भूत हो जाते हैं।
इंग्लैंड में श्रमिक वर्ग की स्थिति में मैंने एक तस्वीर खींची थी कि मैंचेस्टर सन 1843 और 1844 में कैसा दिखता था।71 उसके बाद शहर के बीच से जाते हुये रेलमार्ग का निर्माण हुआ है, नये सड़क बनाये गये हैं और विशाल सार्वजनिक एवं निजी भवन खड़े किये गये हैं। फलस्वरूप उपरोक्त पुस्तक में वर्णित कुछेक सबसे बुरे इलाके बीच से तोड़े गये हैं, उघाड़ दिये गये हैं और बेहतर बनायें गये हैं। कुछ इलाके बिल्कुल समाप्त कर दिये गये हैं। फिर भी बहुत सारे इलाके, सफाई-पुलिस के पहले से अधिक सख्त हो जाने के बावजूद, उसी स्थिति में हैं, बल्कि पहले से अधिक टूटफूट गये हैं। दूसरी ओर, शहर के विपुल विस्तार के कारण जनसंख्या आधे से अधिक बढ़ चुकी है, वे इलाके जो उस समय हवादार और साफ थे अब उतने ही अति-निर्मित, गंदे और भीड़-भरे हो गये हैं जैसे पहले के शहर के सबसे कुख्यात हिस्से हुआ करते थे। एक उदाहरण। मेरे पुस्तक के पृष्ठ 80 में एक जगह मैंने मेडलॉक नदी की घाटी की तलहटी में स्थित आवासों के एक झुंड का वर्णन किया है जो वर्षों से लिटल आयरलैंड के नाम से मैंचेस्टर का शर्म बना हुआ था।72 लिटल आयरलैंड कब का अदृश्य हो चुका है और उस जगह पर ऊंची बुनियाद पर बना एक रेलमार्ग स्टेशन खड़ा है। पूंजीवादी वर्ग ने गर्व के साथ एक महान विजय के तौर पर लिटल आयरलैंड के शुभ और अंतिम समाप्ति को पेश किया। अब पिछली गर्मी में बड़ा जलजमाव हुआ। जैसा कि अमूमन होता है कि हमारे बड़े शहरों में बांध दिये नदियों में हर साल व्यापक बाढ़ आते हैं – कारणों की व्याख्या आसानी से हो सकती है। और उस बड़े जलजमाव के बाद उजागर हुआ कि लिटल आयरलैंड बिल्कुल ही समाप्त नहीं हुआ था, बस ऑक्सफोर्ड रोड के दक्षिण तरफ से उत्तर तरफ में हटा दिया गया था। अभी भी वह बस्ती फलफूल रही है। जरा सुना जाय कि द मैंचेस्टर वीकली टाइम्स, मैंचेस्टर के उग्र पूंजीवादी वर्ग का मुखपत्र, अपनी 20 जुलाई 1872 की संख्या में क्या कहती है73:      
 “पिछले शनिवार को मेडलॉक के किनारे के समीप नीची जमीन पर बनी सम्पत्ति के वाशिंदों पर आई विपत्ति से हम एक अच्छा परिणाम पाने की उम्मीद कर सकते हैं। वह है कि निगम अधिकारियों एवं नगर परिषद की सफाई कमिटी के नाक के नीचे इतनी लम्बी अवधि तक सफाई कानूनों का जो खुला उल्लंघन होने दिया जाते रहा, उसकी तरफ लोगों का ध्यान केन्द्रित होगा। कल के अखबार में एक संवाददाता ने, एक जोरदार पत्र के द्वारा लेकिन काफी कमजोर ढंग से, चार्ल्स स्ट्रीट और ब्रूक स्ट्रीट अड़ोसपड़ोस में स्थित कुछ तहखाने वाले आवासीय घरों की लज्जाजनक स्थिति की ओर इशारा किया था, जो बाढ़ में डूब गये थे। हमारे इस पत्रकार की कल की चिट्ठी में नाम लिये गये प्रांगणों में से एक की सूक्ष्म जाँच कर, हम उसके वक्तव्यों की पुष्टि करते हैं एवं उसकी इस राय का समर्थन करते है कि उस प्रांगण के तहखानों में बनाये गये आवास कब के बन्द हो जाने चाहिये थे, बल्कि उनमें कभी किसी को रहने की अनुमति ही नहीं मिलनी चाहिये थी। स्क्वायर का प्रांगण, चार्ल्स स्ट्रीट और ब्रूक स्ट्रीट के जोड़ पर सात या आठ आवासीय घरों का एक समूह है। हर दिन कोई सवारी, जो रेलमार्ग के मेहरावों के नीचे ब्रूक स्ट्रीट के उतराव के सबसे निचले पायदान पर पहुँचेगा, उन आवासीय घरों के ऊपर से गुजर सकता है। वह इस बात से बिल्कुल अनजान होगा कि उसके भी नीचे की गहराई में इंसान मांद बनाये हुये हैं। ये घर सार्वजनिक दृष्टि से छुपे हुये हैं, और सिर्फ वे ही पहुँच सकते हैं जिनकी बदहाली उन्हे इन घरों की कब्र जैसी एकांतता में आश्रय ढूंढ़ने को मजबूर कर दे। तब भी, जब मेडलॉक का सामान्य धीमा बाँध-छूता पानी उसकी सामान्य ऊँचाई पर होता है, इन घरों के फर्श उस पानी की सतह के कुछेक इंच ऊपर होते हैं। अगर तेज बारिश हो जाये तो इन घरों के ‘गंदे नाले’ या वर्ज-निष्काशन के पाइप गंदे पानी से भर जायेंगे और तो ये घर उस रोगप्रसारक वाष्प से जहरीले हो जायेंगे जो बाढ़ का पानी अनिवार्यत: उपहार के रूप में छोड़ जाता है। … … स्क्वायर्स कोर्ट इन तहखानों से भी नीचे के स्तर पर है - सड़क के स्तर से बीस फीट नीचे – और पिछले शनिवार को नदी का चढ़ता हुआ बाढ़ ‘गंदे नालों’ के गंदे पानी को ठेल कर घरों के छत तक पहुँचा दिया था। यहाँ तक जानते हुये, कल स्क्वायर्स कोर्ट जाने के समय हमने उम्मीद किया था कि प्रांगण खाली मिलेगा या सिर्फ स्वास्थ्य समिति के अधिकारी, दुर्गन्ध-युक्त दीवारों को धोने में और कीटनाशकों के वितरण में लगे होंगे। लेकिन जो एक दृश्य हमने देखा … कि एक किरायेदार के देखरेख में एक मजदूर, कोने में जमा कीचड़ और सड़ी हुई चीजों के ढेर को खोद खोद कर ठेले में भर रहा है…। किरायेदार अभी तक भाग्यशाली है कि वह तहखाने के आवास के उपरी तल्ले में रहता है जहाँ वह नाई का काम करता है और फुटकर व्यापार चलाता है। उसका अपना आवास ऊपर में होने की वजह से मोटे तौर पर दुरुस्त हो चुका है, लेकिन वह हमें नीचली गहराईयों में ले गया जहाँ आवासों की एक कतार थी। उसने कहा कि अगर वह विद्वान होता तो इन आवासों के बारे में अखबारों में लिखता क्योंकि – उसने जोर डाला – कि ये आवास बन्द हो जाने चाहिये। अन्तत: हम वास्तव में जिस प्रांगण का नाम स्क्वायर्स कोर्ट है वहाँ पहुँचाये गये। हमें वहाँ एक मोटी और स्वस्थ दिखती हुई आइरिश महिला गमले में कपड़ा धोती हुई मिली। उसका पति रात के पहरेदार का काम करता है। वह औरत छे साल तक उस प्रांगण में रह चुकी थी और एक बड़े परिवार को सम्हाली … आवास के अन्दर पानी का दाग छत के कुछेक इंच नीचे तक पहुँचा हुआ था, खिड़कियाँ बाहर से तोड़ दी गई थी, घर के अन्दर बचे असबाब बस टूटी और भीगी लकड़ियों का बेतरतीब ढेर थे … किरायेदार ने कहा कि गीले दीवारों को हर दो महीने पर चूने से पोतवा कर उसने जगह को रहने लायक बनाये रखा … इतने आविष्कार के बाद हमारे प्रतिवेदक को, अन्दर घुसने पर, बाहरी प्रांगण में खड़े मकानों के साथ पीठ सटाये तीन और मकान खड़े मिले। इनमें से दो में लोग रह रहे थे। इन मकानों से उठता हुआ बदबू इतना अधिक उबकाई वाला था कि उनके दुर्गन्ध-युक्त प्रवेशद्वार में कुछेक मिनट खड़ा रहना किसी स्वस्थ आदमी का पेट बिगाड़ने के लिये पर्याप्त था … इस मनहूस आवासीय परिसर में सात सदस्यों का एक परिवार रह रहा था। सभी सातों बृहस्पतवार की रात को” (बाढ़ की शुरूआत की रात) “उसी घर में सोये हुये थे। वह औरत जिसने हमारे प्रतिवेदक को इतनी सूचनायें दीं, तुरन्त खुद को सुधार ली। वह और उसका पति सोये ही नहीं थे। वे खाली तख्तों पर लेटे हुये थे, लेकिन उस जगह बदबू इतनी तेज थी कि रात का ज्यादा वक्त वे उल्टी करते हुये बिताये … शनिवार को वह औरत … अपने दो बच्चों को काँख मे लेकर छाती-भर बाढ़ के पानी में तैरने को मजबूर हुई …। औरत ने माना कि वह जगह सूअर के रहने लायक भी नहीं है, लेकिन ईच्छा के विरुद्ध भी इसे स्वीकारने को लालायित हुई क्योंकि किराया सस्ता था (सिर्फ एक शिलिंग छे पेन्स प्रति सप्ताह) और उसका पति जो एक मजदूर था, इधर बीमारी के कारण अधिक समय बिना रोजगार का बिता रहा था। इस मनहूस प्रांगण के बारे में, और गरीबी के कारण, समय से पहले कब्र में भेजे जाने की तरह इस प्रांगण में रह रहे बेचारे प्राणियों के बारे में सोचते हुये जो बातें किसी के दिमाग में आती है वे लगभग अन्तहीन निराशा की हैं … । फिर भी, सार्वजनिक हित में हम कुछ कहने को बाध्य हैं। पिछले कुछ दिनों के दौरान हमारा पर्यवेक्षण हमें निश्चित तौर पर बताता है कि स्क्वायर्स कोर्ट, पड़ोस के अन्य कई इसी तरह की जगहों का एक नमूना है - हालाँकि शायद उस नमूने का चरम है – जिन्हे देख कर उस स्वास्थ्य समिति के बारे में सोचा जाना चाहिये जिसने इन्हे इतने दिनों तक बने रहने की अनुमति दी। अगर इन जगहों पर आगे भी निवास की स्वीकृति दी गई तो ऐसे संक्रामक रोगों के फैलने की जिम्मेदारी समिति को और खतरा अड़ोसपड़ोस के निवासियों को उठानी होगी जिसकी गंभीरता पर भविष्यवाणी करने की हमारी कोई ईच्छा नहीं है।”    
आवास के प्रश्न को पूंजीवादी वर्ग व्यवहार में किस तरह समाधान करते हैं, यह उसका एक ज्वलंत उदाहरण है। बीमारियों के पैदा होने की जगहें, कुख्यात सुराखें और तहखाने जिनमें पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली हमारे श्रमिकों को रातें बिताने के लिये ठूँस देती है, समाप्त नहीं किये जाते हैं, सिर्फ कहीं और हटा दिये जाते हैं ! वही आर्थिक आवश्यकतायें जो वैसे आवासों को पहले वाले स्थान पर उत्पन्न करती थीं, दूसरे वाले स्थान पर भी उत्पन्न करती हैं। जब तक पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली मौजूद रहेगी, आवास के प्रश्न का या श्रमिकों की जमात को प्रभावित करने वाला कोई भी दूसरे प्रश्न का अलग से समाधान की उम्मीद मूर्खता होगी। समाधान तभी होंगे जब खुद श्रमिक वर्ग पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली को समाप्त कर जीवनधारण के सभी साधनों एवं श्रम के सभी औजारों के स्वायत्त करेगा।

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71- देखें, मौजूदा संस्करण, खण्ड 4, पृ॰ 347 - स॰र॰स॰
72-   - उपरोक्त – पृ॰ 361 - स॰र॰स॰
73- “मेडलॉक में बाढ़। चार्ल्स स्ट्रीट खंदक”, द मैंचेस्टर वीकली टाइम्स, संख्या 763, जुलाई 20, 1872 - स॰र॰स॰