Wednesday, September 29, 2021

জীবন অনিঃশেষ

কোন লড়াইটা শেষ?
গরীব মায়ের লাল ঝান্ডা
নাচল রাগি মুখ
উগরে দিল আগুন।
পুলিস-মেয়ে চুপ;
এই লহমায় বাঁচল তারও দেশ!
 
কোন বাঁকটা শেষ?
দিনটা বড় কঠিন বলত  
ঘায়েল ভোরের পাখি;
তবু আবার মুঠোয়
পেলাম তোমার হাত
সামনে মুখর প্রাণের নতুন বেশ!
 
কোন পাথরটা শেষ?
সরাচ্ছি তো! কাঁধের হাড়ে
তিরিশ বছর দাগা।
সরাচ্ছি সাবধানে,
পিছলে যাচ্ছে হাত
রক্তে একটা যুগ খোওয়ার শ্লেষ।

কোন আকাশটা শেষ?
চাষিরা লড়ছে দশ মাস
শীত, বসন্ত, গ্রীষ্ম,
বর্ষা আর শরত
ভেগে বেড়াচ্ছে রাজ,
জ্বালতে গেলেও জ্বলছে না বিদ্বেষ!

কোন হিসেবটা শেষ?
মানুষ মেরে খুনে গড়ার
ষড়ে মেতে শাসন
অতিমারির ছলে
বাড়াচ্ছে লুন্ঠন
মিছিল বলল জীবন অনিঃশেষ।


২৮.৯.২১  

 


আকাশ খোলা সংক্রান্ত

শরত এসেছে শরত এসেছে
এত ছবি, চলচ্ছবি, গান, মিম
ছুটে আসছে দুদিন ধরে অন্তর্জালে
সামাজিক বাঙালিয়ানায়

আমিও তাই আকাশটাকে খুলতে
হ্যাঁচকা টান দিয়েছিলাম মেঘের কোনা ধরে
ঝপ করে জমা জল
ঝরে ভিজিয়ে দিল আমায়
যাব্বাবা, পুরোনো শামিয়ানা নাকি?

আর শুধু জল তো নয়
আকাশের মাটির হরেক নোংরা
পকেটে ফেঁসে আছে পাখির হাড়গোড়
জিভে তেতো স্বাদ,
চুলে হাত বুলিয়ে দেখলাম
কিরকির করছে মাছগন্ধি বালু

আমারই ভুল ছিল।
সামিয়ানায় চড়া না গেলেও
মেঘে তো চড়া যায়!
হাঁটা যায় পা ডুবিয়ে দিব্যি!
আমার আবার এধরণের হাঁটাগুলো
উলঙ্গ ভালো লাগে, কামজ প্রফুল্লতায়।
অদূরে স্বর্গ! আলো আলো, মদির!

পুরোনো জলগুলো বরং
ছেঁচে নিচের বদমাইশ পড়শিটার মাথায় ফেলতাম;
আসলে বুদ্ধিটাই
ঠিক সময়ে যোগায় না কিছুতে।
যা হোক, এখন এই ভেজা গাটা ধুয়ে আসি।
ভাবছি এগুলোর কী করি?
পাখির হাড়গোড়, মাছগন্ধি বালু
কলঘরে কাপড় ছাড়তে দেখি শঙ্খের টুকরো তলপেটে!

ফেলে দিই? না, মুড়ে রাখি কাগজে? অবশ্য
আমি ম্যাজিক জানি না। মোড়কটা যখনই খুলব
কবিতা নয়, ওই মেঘেরই আবর্জনা পাব।


২৪.৯.২১



Thursday, September 23, 2021

भूमिका [पैरिस कम्यून पर अनीश अंकुर की पुस्तिका के लिये]

यह बहुत खुशी की बात है कि मजदूरवर्ग द्वारा सत्ता पर कब्जा करने की पहली सफलता, पैरिस कम्यून के 150वें वर्ष के अवसर पर, युवा रचनाकार नाट्यकर्मी अनीश अंकुर ने चार महत्वपूर्ण आलेख लिखे एवं अब उन चार आलेखों की शृंखला पुस्तक रूप में रही है।

सन 1871 के 18 मार्च को स्थापित पैरिस कम्यून दुनिया में मजदूरों का पहला राज था। राज का इतिहास तो ढाई महीने का भी नहीं है पर उसके कत्ल का इतिहास बहुत लम्बा है; बल्कि आज भी जारी है। सबसे पहले तो हुए उसमें भाग लेने वाले मजदूरनवजवानों, बूढ़ों, औरतों एवं बच्चोंका कत्ल। अगर हम तत्कालीन अनौपचारिक आँकड़ों को भी माने तो खुद आज के विकिपीडिया में दर्ज है कि 20,000 कम्यूनार्ड (कम्यून की स्थापना में शरीक होने वाले श्रमिक उनके परिवार) दीवारों के सामने खड़े कर गोलियों से भून दिये गये, 7,500 भेज दिये गये देश से बाहर। जो बाहर यानि फ्रांसीसी उपनिवेशों में भेजे गये, वहाँ उनमें से अधिकांश को तरह तरह की यातनाएं देकर मार डाला गया) पैरिस और पूरे फ्रांस में ढूंढ़-ढूंढ़ कर यह कत्ल चलता रहा दशक के अन्त तक। जो कम्यूनार्ड भाग कर यूरोप के दूसरे देशों में गये लेकिन पहचान लिये गये, उन्हे भी तरह तरह की प्रताड़नाएं झेलनी पड़ी, मसलन कहीं रोजगार नहीं मिलना, किसी भी शक पर जेल में डाल दिया जाना

कत्लका दूसरा सिलसिला शुरु हुआ तत्काल, यूरोप के सभी देशों में। वह था संगठनों काकत्ल चूंकि यूरोप के सरकारों, उनके प्रायोजक शोषक वर्ग एवं पोषित समाचार-माध्यमों को मालूम था कि पैरिस कम्यून के पीछे एक बड़ी प्रेरक शक्ति है आइ॰डब्ल्यु॰ए॰ यानि इन्टरनैशनल वर्किंगमेन्स एसोसियेशन (परिचित नाम, ‘पहला अन्तरराष्ट्रीय), इस संगठन के राष्ट्र-स्तरीय इकाइयों को प्रताड़ित करना या अगर सम्भव हो तो जबरन भंग करना, भीतर में पुलिसिया जासूस घुसवाकर आतंकवादी गतिविधियों का जालीप्रमाणरखवाना एवं उसके आधार पर फर्जी मामला बनाकर जेल में डलवाना शुरु हो गया।

कत्ल का तीसरा सिलसिला था वैचारिक कत्ल, या इतिहास का कत्ल। यह कितना भयानक था कि आज भी, इन्टरनेट पर, विकिपीडिया के या एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के पेज पर कम्यून की संक्षिप्त कालपंजी तो मिल जाएगी, तत्कालीन फ्रांस में श्रमिकों की दुखभरी जिन्दगी पर दो-चार हमदर्दी भरे वाक्य भी मिल जायेंगे, कम्यूनार्डों की हत्या के ऐतिहासिक तथ्य मिल जायेंगे, लेकिन सत्ता में आने के बाद कम्यून ने क्या किया, क्या उनकी नीतियाँ थी, गरीबों की राहत के लिये क्या क्या कदम उठाये उन्होने, इस पर एक वाक्य नहीं मिलेगा (एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में उनके सामाजिक कदम के रूप में एक, दस घंटे का श्रमदिवस लागू किये जाने का जिक्र मिलेगा) यहाँ तक कि पूरे पेज पर या नीचे रेफरेन्स में एक हाइपरलिंक वाले शब्द भी नहीं मिलेंगे कि उस पर क्लिक कर पढ़ा जा सके। अगर डेढ़ सौ बरस के बाद भी यह हाल है, तो सोचिये कि पिछले पन्द्रह दशकों से चल रहा वैचारिक कत्ल कितना भयानक रहा होगा।

खैर, आज की आभासी दुनिया उतनी भी एकतरफा नहीं है; वर्गसंघर्ष का एक आधुनिक रणक्षेत्र यह भी तो है। इसलिए जो पढ़ना चाहें, दस्तावेज मिल ही जाएंगे।

अक्सर जब हम फटेहाल, भूखमरी से ग्रस्त एवं हथियारों से लैस गरीबों के राजमहल पर कब्जा करने के दृश्य की कल्पना करते हैं तो हमारा दिमाग पूंजीवादी फिल्म-तंत्र से प्रभावित रहता है। बरबस हम सोचने लगते हैं कि वे बुभुक्षु नजरों से टेबुल पर पड़े फलों को देख रहे होंगे, मेज पर रखे कीमती गुलदस्तों को देख रहे होंगे (कोई चुराने को भी सोच रहा होगा)! पूंजीवादी दिमाग तो रोज की जिन्दगी में भी सोच नहीं पाता है एक मजदूर, एक किसान के व्यक्तित्व की सौम्यता के बारे में; फिर वे तो देश की सत्ता हाथ में लेने के ऐतिहासिक दायित्व का निर्वाह करने वाले मजदूर थे!

लेखक अनीश अंकुर ने बिल्कुल सही लिखा है – फ्रांस के इतिहास में सबसे इमानदार सरकार!

बहुत कम दिनों तक कम्यून की सरकार रह पाई। मजदूरों की इस सत्ता की रणनीतिक कमजोरियों पर बहुत कुछ लिखे जा चुके हैं पिछले डेढ़सौ वर्षों में। पैरिस कम्यून के 46 वर्षों बाद रूस की क्रांति हुई। सोवियत संघ की स्थापना हुई। तेजी से बदलने लगी दुनिया। हर एक देश में खड़े होने लगे सामाजिक न्याय के सवाल, शुरु हो गये सामाजिक बदलाव के संघर्ष। अगले तीस वर्षों के अन्दर दुनिया के लगभग सभी देशों में मजदूरों-किसानों की पार्टियाँ बन गई, लगभग आधी दुनिया समाजवादी खेमें में आ गई, जहाँ समाजवाद नहीं भी आया वहाँ मेहनतकशों के संघर्षों ने सत्ता को मजबूर किया बेहतर मजदूरी, फसलों के बेहतर दाम, बेहतर सामाजिक सुरक्षा, बेहतर नारी-अधिकार देनें के लिये। रंग-भेद के खिलाफ, नस्ल-भेद के खिलाफ, जात-पात के खिलाफ संघर्ष बढ़ने लगे। जबकि सत्तर वर्षों तक पूंजीवादी साम्राज्यवाद हर कोशिश में जुटा रहा कि सोवियत संघ बिखर जाये, विश्व का समाजवादी खेमा मटियामेट हो जाये। नाजीवाद, फासीवाद अपने अपने देशों में क्रांतिकारी आन्दोलनों की ही प्रतिक्रियायेँ थीँ जिन्हे बड़े थैलीशाहों का पूरा समर्थन मिला। वे तो खुश थे कि अब सोवियत संघ की खैर नहीं, हिटलरी सेना कुचल देगी क्रांति-वांति। … लेकिन उल्टा हुआ। तब चला शीत-युद्ध का दौर।

आखिर युद्ध ही तो था। कहीं चूक हुई। मार्क्सवाद की मूल प्रस्थापनाओं में से एक है कि उत्पादन की पुरानी प्रणाली के साथ उत्पादन की विकसित शक्तियों के संघर्ष से पैदा होती है उत्पादन की नई प्रणाली। समाजवादी क्रांति से पैदा हुई इस नई प्रणाली के सामने चुनौती थी कि पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली से वह हर समय उत्पादन की वृद्धि में आगे रहे। लगभग पचास वर्षों तक, तमाम मुश्किलों को झेलते हुये भी सोवियत समाजवादी उत्पादन प्रणाली दुनिया में अपनी बढ़त बनाये रखी। लेकिन फिर वह वृद्धि कम पड़ने लगी। आगे बीसवीं सदी के अस्सी के दशक का इतिहास है। पूर्वी योरोप के देश और फिर सोवियत संघ में समाजवाद के ध्वस्त होने का, क्रांति के बिखरने का इतिहास है।

वस्तुत: हम सोवियत क्रांति के बिखरने के बाद की दुनिया में पिछले तीस वर्षों में जी रहे हैं। तीस वर्षों की नव-उदारवादी अर्थनीति आई ही थी मजदूरों की मजदूरी कम करने के लिये, किसानों की आय कम करने के लिये, सार्वजनिक क्षेत्र को विघटित कर तथाकथित ‘कल्याणकारी अर्थनीति’ को खत्म करने के लिये, जल-जंगल-जमीन पर जनता के जो कुछ भी अधिकार एवं स्वायत्तता पूंजी की मुनाफाखोरी पर अंकुश लगाते हैं उन्हे खत्म करने के लिये। मानवता के लिये बेहतर होने के उसके सारे दावे ताश के पत्तों की तरह बिखर चुके हैं। अब वह घोर दक्षिणपंथ एवं तानाशाहियत के माध्यम से सत्ता पर पकड़ बनाये रखने की कोशिश में, धर्म-जात-नस्ल-रंग के भेदों पर जनता को बाँटने और आपसी हिंसा में उलझाने के नये नये नारे तलाशने में मशगूल है। अमीरी और गरीबी की विस्फोटक खाई पर, धरती को बर्बाद कर देनेवाली परिवेश-दूषण के साथ दुनिया को धकेल कर ले आई है नवउदारवादी अर्थनीति। जिस प्रौद्योगिकी व सूचना क्रांति की निर्णायक भूमिका थी उत्तर-सोवियत दुनिया पर नवउदारवाद का आधिपत्य कायम करने में, जिस क्रांति को सामने रख कर उसने दावा किया कि व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं मानवाधिकार के मामलों में वह ‘कम्युनिस्ट प्रयोगों’ से बेहतर है, उसी प्रौद्योगिकी व सूचना तकनीकों का इस्तेमाल कर वह गिरफ्त में रखना चाह रही है व्यक्ति का पूरा जीवन, हनन कर रही है सारे मानवाधिकार।

अगर आज यह स्थिति है तो हम सोच सकते हैं कि पैरिस कम्यून के पराजित होने के बाद दुनिया की क्या स्थिति हुई होगी। उस समय सूचना व्यवस्थायें आज जैसी नहीं थीं। उस समय के अखबार आदि उन देशों के ग्रंथालय आदि में होंगे जिन्हे खंगालना कम से कम मेरे लिये नामुमकिन है। मजदूरों की मजदूरी, उसके लिये संघर्ष, ट्रेड युनियनों की गतिविधियाँ इन सबों की जानकारी मिलना मुश्किल है। वैसे सामान्यत: दिखता है कि उन्नीसवीं सदी के अस्सी के दशक के अन्त एवं नब्बे के दशक की शुरुआत से ही मजदूर-वर्गीय गतिविधियाँ जोर पकड़ती है। मजदूरी में बढ़ोत्तरी भी उसी समय से होने लगती है। जुझारू ट्रेड युनियनें समझौता-परस्त युनियनों की जगह लेने लगते हैं। वैसे, पैरिस कम्यून के पराजय के तत्काल बाद योरोप की सरकारों का क्या बर्ताव था मजदूरवर्ग के प्रति? नीचे का उद्धरण सन 1872 में हुये, इन्टरनैशनल वर्किंगमेन्स एसोसियेशन (पहला इन्टरनैशनल) के हेग कांग्रेस में, साधारण परिषद द्वारा रखे गये प्रतिवेदन से लिया गया है। स्वाभाविक तौर पर यह मार्क्स का ही लिखा हुआ है, लेकिन यह कांग्रेस का स्वीकृत व पारित दस्तावेज है।

“पहले उन्हे फाँसी दो, फिर उनके लिये प्रार्थना करो!

“बिस्मार्क, बेउस्ट और प्रशियाई जासूस-प्रधान स्टिबर का समर्थन प्राप्त करते हुये ऑस्ट्रिया एवं जर्मनी के सम्राट सन 1871 के सितम्बर महीने की शुरुआत में सॉल्जबर्ग में मिले। प्रकट उद्देश्य था इन्टरनैशनल वर्किंगमेन्स एसोसियेशन के खिलाफ एक पवित्र गँठजोड़ की स्थापना।

“ ‘ऐसा योरोपीय गँठजोड़’, नॉर्ड्युश ऐल्गेमेइन ज़ाइटुंग [उत्तरी जर्मन गेजेट], बिस्मार्क के निजी घोषक ने घोषित किया, ‘राज्यसत्ता, गीर्जा, सम्पत्ति, सभ्यता – एक शब्द में कहें तो उन तमाम चीजों का जिनसे योरोप की राज्यसत्तायें बनी हैं – का एकमात्र सम्भव मुक्तिपथ है।’

“बिस्मार्क का वास्तविक उद्देश्य हालाँकि रूस के खिलाफ होने वाले युद्ध के लिये गँठजोड़ तैयार करना था और उसी के लिये ऑस्ट्रिया को इन्टरनैशनल उसी तरह दिखाया गया जैसे साँड़ को लाल कपड़ा दिखाया जाता है।

“इटली में लान्ज़ा ने महज एक डिक्री के जरिये इन्टरनैशनल को दबा दिया। स्पेन में सगास्ता ने इसे, शायद इंग्लैंड के शेयर बाजार की कृपादृष्टि पाने के लिये गैरकानूनी घोषित कर दिया। रूसी सरकार, जो भुदासों की मुक्ति के बाद से ही, आज जनता की मांगों पर कुछ छूट दे देने और कल वापस ले लेने के खतरनाक रास्ते पर चल रही थी, इन्टरनैशनल के खिलाफ चीखपुकार के बहाने देश में प्रतिक्रिया को फिर से बढ़ाने का रास्ता ढूंढ़ ली। …… कम्यून के शरणार्थियों को थियर्स के हाथों सौंपने से स्विट्जरलैंड की प्रजातांत्रिक सरकार को सिर्फ स्विस इन्टरनैशनलों के आन्दोलन रोके हुये है।

अन्त में, मिस्टर ग्लैडस्टोन की सरकार ने, चुँकि ग्रेट ब्रिटेन में कुछ कर नहीं पा रही है, आयरलैंड में बन रहे हमारे [इन्टरनैशनल के] प्रभागों पुलिसिया आतंकवाद जारी कर कम से कम अपनी सदिच्छा जाहिर कर दिया, और विदेशों में अपने प्रतिनिधियों को आदेश दिया कि वे इन्टरनैशनल वर्किंगमेन्स एसोसियेशन के बारे में सूचनायें इकट्ठी करें।

“लेकिन योरोप की संयुक्त सरकारी बौद्धिकता दमन के जितने कदम ईजाद कर सकती है, वे कुछ भी नहीं है सभ्य दुनिया की झूठ बोलने की शक्ति द्वारा चलाये जा रहे मिथ्यापवाद-युद्ध के मुकाबले। इन्टरनैशनल के संदिग्ध इतिहास और रहस्य, जाली सार्वजनिक दस्तावेज व व्यक्तिगत पत्र, तेजी से एक के बाद सामने आते सनसनीखेज तार! बिकाऊ इज्जतदार प्रेस की औकात में आने वाले झूठी निंदा के सारे दरवाजे एक साथ कलंक की बाढ़ प्रवाहित करने के लिये खोल दिये गये ताकि घिनौना शत्रु बह जाये। सभी रंगत के शासकवर्गओं की राय की एकात्मता के बीच वास्तविक अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चलाये गये इस मिथ्यापवाद-युद्ध की कोई सानी नहीं है।”

और यह सब क्यों? इन्टरनैशनल की स्थापना तो पैरिस कम्यून के सात साल पहले हुई थी। पैरिस कम्यून की घटना होने के पहले ही इस संगठन की सदस्यता सर्वोच्च संख्या हासिल कर चुकी थी। इसलिये कि शासक वर्ग जान रही थी कि भले ही पैरिस कम्यून की स्थापना के पीछे फ्रांस की अस्थिर राजनीतिक स्थिति उत्तरदायी हो, भले ही इन्टरनैशनल की ओर से कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मदद न दी गई हो पैरिस कम्यून के क्रांतिकारी हमले को संगठित करने में (मार्क्स-एंगेल्स तो सावधान ही किये थे बल्कि फ्रांस के प्रतिनिधियों को; हाँ बन जाने के बाद जी-जान से समर्थन किये थे जरूर), अन्तत: मजदूरवर्ग की उभरती अन्तरराष्ट्रीय एकता ही महत्वपूर्ण कारक शक्ति रही है पैरिस के मजदूरों के साहस और उद्यम को जगाने में। फिर दोबारा कोई पैरिस कम्यून नहीं बन सके इसी उद्देश्य से, मजदूरवर्ग की अन्तरराष्ट्रीय एकता की रीढ़ को तोड़ने के लिये ही इन्टरनैशनल पर हमला चलाया गया।

लेकिन पैरिस कम्यून लौट लौट आती रही सर्वहारा की हर क्रांति में – रूस में, पूर्वी योरोप के देशों में, चीन में, क्यूबा और वियतनाम में … हमेशा आती रहेगी।



Wednesday, September 22, 2021

फ्रेडरिक एंगेल्स: एक संक्षिप्त जीवनी

प्राक्कथन

फ्रेडरिक एंगेल्स को हम आज की दुनिया के लोग, कार्ल मार्क्स के वैचारिक, व्यक्तिगत एवं पारिवारिक घनिष्टतम मित्र के रूप में जानते हैं। वैचारिक तौर पर यह घनिष्ठता इतनी प्रगाढ़ थी कि जिस छोटी सी पुस्तिका ने पूरे विश्व में मज़दूरवर्ग के क्रांतिकारी आन्दोलन की दिशा बदल दी, वह ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ दोनों ने साथ मिलकर लिखा। बल्कि, आज जिन किताबों को हम मार्क्सवाद के अवश्य-पाठ्य सामग्री के रूप में जानते हैं उनमें से कई, दोनों के द्वारा संयुक्त रूप से लिखे गये हैं। इसके अलावे, मार्क्स के असामयिक निधन के बाद, मार्क्स के महानतम ग्रंथ ‘पूंजी’ के दूसरे व तीसरे खंड का सम्पादन एवं मुद्रण के लिये जाने लायक अंतिम पाण्डुलिपि का प्रस्तुतन, उन्होने ही किया।

शुरुआती दौर में अपनी वैचारिक समझ को स्पष्ट एवं मित्रता को प्रगाढ़ करने के लिए दोनों मित्र ने स्वतंत्र लेखन के साथ साथ, मिलकर रचनाएं कीं। स्वतंत्र लेखन में एंगेल्स की प्रमुख कृति अगर है, “इंग्लैन्ड में श्रमिक वर्ग की स्थिति” तो संयुक्त कृतियों में पहली प्रमुख कृति है, “पवित्र परिवार”। इस पुस्तक के अध्याय एवं अध्यायों के अलग अलग हिस्से इतिहास में नामों के साथ दर्ज है। इसलिए हम आज जान सकते हैं कि कौन कौन से अध्याय या किसी अध्याय का कौन कौन से हिस्से एंगेल्स के लिखे हुए हैं। बाद में आये “जर्मन विचारधारा” या “कम्युनिस्ट घोषणापत्र” में ऐसा फर्क करना सम्भव भी नहीं। मार्क्स के निधन के पहले तक एंगेल्स पूरी तरह से मार्क्स को, “पूंजी” की पाण्डुलिपि पूरी करने हेतु आर्थिक, पारिवारिक व वैचारिक समर्थन देने में जुटे रहे। दोनों नियमित अखबारों में सांवादिक लेखन किया करते थे। उससे कुछ आय भी होती थी। लेकिन उस दौर में मार्क्स के लिए सम्भव ही नहीं था कि वह और अधिक अखबारों में लिखते। लगभग हर सप्ताह या कभी कभी हर अगले दिन शाम को एंगेल्स मार्क्स के घर पहुँच कर लिखी जा रही “पूंजी” की पाण्डुलिपि सुनते, पढ़ते एवं उस पर बातचीत करते थे। “पूंजी” के पहले खण्ड का प्रकाशन एवं दूसरे और तीसरे खण्ड की पाण्डुलिपियों के तैयार किए जाने में सहायता करते हुए एंगेल्स ने लगभग तीन दशक के बाद अपनी एक कृति प्रस्तुत की, “ड्युहरिंग मतखण्डन” (1878)। मार्क्स इस कृति की पाण्डुलिपि खुद देख पाये थे। सन 1883 में मार्क्स का निधन हो गया। एंगेल्स अब मित्र के बिना अकेले मार्क्सवाद के वैचारिक दायित्व को निभाने के लिए मजबूर थे। आवश्यक सांवादिक लेखन, ‘दूसरे अन्तरराष्ट्रीय’ के कामकाज एवं मार्क्स रचित “पूंजी’ के दूसरे और तीसरे खण्ड की पाण्डुलिपियों के सम्पादन में से समय निकाल कर एंगेल्स ने कई पुस्तकों की रचना की।   

बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में, सोवियत समाजवाद को खत्म करने में असफल होकर पतनशील पूंजीवाद ने कुछ नये किस्म की प्रतिक्रियावादी राजनीतिक (फासीवाद या नाज़ीवाद) एवं सम्बन्धित सामाजिक, सांस्कृतिक व वैज्ञानिक प्रवृत्तियों का जन्म दिया। खासकर उन सामाजिक-सांस्कृतिक-वैज्ञानिक प्रवृत्तियों के खिलाफ संघर्ष के दरम्यान, सम्बन्धित विषयों पर एंगेल्स के किये गये काम का महत्व सबके सामने आया। उन कामों में प्रमुखतम था ‘परिवार, निजी सम्पत्ति एवं राज्यसत्ता की उत्पत्ति’ नाम का पुस्तक। इस पुस्तक का सुत्र था, हेनरी मॉर्गन के शोध-ग्रंथ ‘प्राचीन समाज’ (सन 1877 में प्रकाशित) के मार्क्स द्वारा पढ़ी गई प्रति के पृष्ठों पर मार्क्स के अपने, हस्तलिखित नोट्स। एक अद्भुत विलक्षण मित्र होने के नाते एंगेल्स ने हुबहु उन नोट्स का अनुसरण कर, अनुसरण के चिन्ह रखते हुये अपने पुस्तक को तैयार किया – जबकि यह कृति एक पूर्ण, स्वतंत्र, ऐतिहासिक व्याख्यात्मक कृति कहलाई जा सकती थी। जर्मन भाषा में सन 1884 में प्रकाशित (वह भी जर्मनी से बाहर) इस पुस्तक का पहला अंग्रेजी संस्करण 1905 में हुआ। आज के कई युवा समाजशास्त्री, दूर-दराज स्थित प्राचीन मानव समाजों में काम करते हुए परिवार, कौम, विवाह के रूपों का विकास, मातृत्व-शासन आदि पर एंगेल्स के कामों को याद करते हैं एवं अपने लेखों में उनका जिक्र करते हैं।

दूसरा काम अधूरा ही रह गया – ‘प्रकृति की द्वंदात्मकता’ नाम का ग्रंथ। हालाँकि इसका लेखन का समय है वर्ष 1872 से 1883, यानी मार्क्स के जीवित रहने के काल में ही एंगेल्स थोड़ा थोड़ा करके इसके काम को आगे बढ़ा रहे थे। मार्क्स का अचानक निधन एवं “पूंजी (II एवं III)” के सम्पादन की जिम्मेदारी ने इस काम को रोक दिया। प्रकृतिविज्ञान के अन्तर्गत आने वाले विषय जैसे पदार्थविज्ञान, रसायनविज्ञान, गणित, जीवविज्ञान का इतिहास एवं उनके विकासक्रम में तत्कालीन प्रचलित अवधारणाओं, सिद्धान्तों आदि को द्वंदात्मक भौतिकतावाद के आलोक में परखने का काम तो एंगेल्स “ड्युरिंग मतखण्डन” नाम के पुस्तक में शुरु कर चुके थे, लेकिन स्वतंत्र रूप से वैज्ञानिक सिद्धांतों पर ही भौतिकतावाद एवं द्वंदात्मकता को प्रयोग करनेवाली यह पहली कृति थी पूरी दुनिया में। इसके महत्व को समझते हुये अल्बर्ट आइनस्टाइन ने, पाण्डुलिपि को पढ़ने के बाद यह जरूर मन्तव्य किया कि ‘पदार्थविज्ञान एवं गणित सम्बन्धी अध्यायों में लेखक अस्पष्ट हैं’ लेकिन इस पाण्डुलिपि के मुद्रण की अनुशंसा की। तब जाकर, वर्ष 1872 से 1883 के बीच लिखी गई इन पाण्डुलिपियों का प्रकाशन सोवियत रूस द्वारा 1925 में किया गया। बाद में उनके काम की इस धारा को कई वैज्ञानिकों ने विकसित किया जिनमें से एक प्रमुख व परिचित नाम है – जे॰ बी॰ एस॰ हैल्डेन। सोवियत संघ के कई वैज्ञानिक लेखकों ने भी इस विषय पर काम किया था। आज भी यह एक जारी काम है। एंगेल्स के उपरोक्त काम का एक अधूरा हिस्सा, जिसे वैज्ञानिक सिद्धांतों से अन्जान व्यक्ति भी समझ सकता है, आज एक अलग पुस्तिका के रूप में सभी भाषाओं में उपलब्ध है और हम सब उसे पढ़ते हैं – “बानर से नर बनने में श्रम की भूमिका”।

इस तरह, कहा जा सकता है कि बीसवीं सदी के पूर्वार्ध से लेकर आज तक मार्क्सवाद को समकालीन प्रकृति विज्ञान, नृविज्ञान एवं समाजविज्ञान सम्बन्धी बहसों के केन्द्र में रखे रहने का मुख्य श्रेय फ़्रेडरिक एंगेल्स के उपरोक्त दो पुस्तकों को जाता है।

मार्क्स के जीवनकाल में ही प्रकाशित “ड्युहरिंग मतखंडन” आज भी मार्क्सवाद के गंभीर छात्रों का अवश्य पठनीय ग्रंथ है। इस पुस्तक के बारे में एंगेल्स ने मार्क्स को लिखा था कि “दार्शनिक, प्रकृति-वैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक समस्याओं पर हमारी अवधारणाओं का एक विश्वकोषीय सर्वेक्षण प्रस्तुत करना” इस पु्स्तक का उद्देश्य है। आज भी अर्थनीति (जिसे मार्क्स-एंगेल्स या उनके अनुयायी राजनीतिक अर्थशास्त्र कहते हैं) या राजनीति के अलावे दर्शन, नैतिकता आदि क्षेत्र में भौतिकतावाद या द्वंदात्मकता के सिद्धांतो पर सूक्ष्म प्रहार होते रहते हैं। विकृतियाँ आती रहती हैं। सबसे खतरनाक बात होती है कि ये प्रहार मार्क्सवाद को सीधे सीधे नकार कर नहीं बल्कि उसे मानने के छद्म की ओट में होते हैं। “ड्युहरिंग मतखण्डन” का ध्यानपूर्वक पाठ हमें ऐसे भ्रामक विचारों को पहचानने एवं उनसे लड़ने का रास्ता सुझाता है। लेनिन भी दर्शन पर अपनी “मेटिरियलिज्म ऐंड इम्पिरिओ-क्रिटिसिज्म” नाम की कृति में “ड्युहरिंग मतखण्डन” को उद्धृत करते हैं। ‘मैटर’, वस्तु, भौतिकता आदि शब्दों को लेकर आज भी बहुत सा खेल चलते रहता है। मार्क्सवाद या वर्गसंघर्ष की वास्तविकता एवं मजदूरवर्ग की क्रांतिकारी भूमिका को सीधे नकारने वाले लोग या वैचारिक ताकतों को तो चिन्हित किया जा सकता है। वे भी चिन्हित किए जा सकते हैं जो मार्क्स के साथ लेनिन को, शुरु-के-मार्क्स के साथ बाद-के-मार्क्स को या इसी तरह की और भी लड़ाईयों के नाट्य गढ़ कर, अपनी अपनी रोटी सेंकते रहते हैं। लेकिन वर्गसंघर्ष में मजदूरवर्ग के साथ रहने वाले, शोषितों की सत्ता की बात करने वाले भी बहुत सारे, सिर्फ व्यक्ति नहीं बल्कि सांगठनिक ताकतें भी हैं जो मार्क्सवाद को उपरी तौर पर मानते हुए भी प्रकृतिजगत या जीवजगत या पूरे महाविश्व के सिर्फ गतिमान भौतिकता ही होने की बात को भीतर से मान नहीं पाते। “ड्युहरिंग मतखण्डन” (“मेटिरियलिज्म ऐंड इम्पिरिओ-क्रिटिसिज्म” तो हिन्दी में उपलब्ध भी नहीं) उनसे प्रेमपूर्वक बहस करना भी सिखाता है। इसी पुस्तक का एक हिस्सा अलग पुस्तिका के रूप में हिन्दी में उपलब्ध है और काफी लोकप्रिय है, “समाजवाद – काल्पनिक एवं वैज्ञानिक”।

वर्ष 1872 के दौर में किए गए अखबारी लेखन के किश्तों को एक जगह कर, वर्ष 1895 में एक पुस्तिका प्रकाशित हुई, “द हाउजिंग क्वेश्चन” या “आवास का प्रश्न”। इस पुस्तिका के पहले भाग में मार्क्सवाद के आर्थिक सिद्धांत का बहुत सुन्दर व्याख्या है एवं आज के समय के शहरों की एक ऐसी समस्या, आवास की समस्या - जिस पर पूंजीवादी नजरिया ही हावी है – को मार्क्सवाद की दृष्टि से देखा गया है।        

एंगेल्स की प्राथमिक दौर की कृति, ‘इंग्लैंड में मज़दूरवर्ग की स्थिति’ का पाठ्य अगर आज भी प्रासंगिक एक कालजयी समाजवैज्ञानिक शोधग्रंथ है तो इस पुस्तक को लिखे जाने के दौरान एंगेल्स की दिनचर्या, आज भी एक संवेदनशील लेखक और पत्रकार को प्रेरित करती है।      

लेनिन ने कहा, “हर मजदूर को एंगेल्स के नाम और जीवन से परिचित होना आवश्यक है।”

 

बचपन

जर्मनी के तत्कालीन राइन प्रदेश में स्थित था बार्मेन शहर, जो अब बार्मेन-वुपर्टल के नाम से आप गुगल अर्थ/मैप में ढूंढ़ सकते है, क्योंकि बार्मेन सहित चार शहरों के लेकर बाद में बड़ा वुपर्टल नगर बस गया। राइन प्रदेश का पूरा इलाका उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में बाकी जर्मनी से काफी अधिक औद्योगिकृत हो चुका था। इसी शहर में कपड़ा मिलों के मालिक एक धनी परिवार में दिनांक 28 नवम्बर 1820 को फ्रेडरिक एंगेल्स का जन्म हुआ। उनके पिता का नाम भी फ्रेडरिक था (वैसे जर्मन उच्चारण के फर्क के अनुसार वह ‘फ्रिडरिश’ कहलायेंगे) एवं उनकी माता का नाम एलिजाबेथ था। वह अपने माता पिता के पहले सन्तान थे। बाद में चल कर उनके और सात भाई-बहन हुये।

एंगेल्स के बचपन पर दो विरोधी जीवनदृष्टियों का प्रभाव घर के भीतर और बाहर लगातार पड़ता रहा। घर में एक तरफ थे एंगेल्स के पिता जो रोबदार थे। घर के बाकी लोग, यहाँ तक कि उनकी माँ भी, अपने पति के रोब से सकुचाये रहते थे। जबकि उनके पिता, जर्मनी के तत्कालीन धार्मिक परिमंडल के अनुसार प्रोटेस्टैंट इसाई तो थे ही, अभिजात परिवार की लम्बी वंशपरम्परा के साथ पूंजीपति-जीवन के आवश्यक व्यवसायिक गतिविधियों ने (जो धार्मिक पवित्रता मान कर नहीं चलता था) उन्हे और पूरे पारिवारिक माहौल को लुथेरियन मत के अनुसार कठोर पवित्रतावादी बना दिया था। यही, भीतर से खोखला, कठोर पवित्रतावादी परिवेश पूरे बार्मेन एवं वुपर्टल इलाके में कुलीन सामाजिक जीवन का था। दूसरी ओर, एंगेल्स की माँ, कोमल स्वभाव एवं साहित्यिक अभिरुचि रखनेवाली थीं। आर्थिक धनलाभ से आत्मिक धनलाभ को वह श्रेयस्कर मानती थीं। शिशु फ्रेडरिक को भी माँ के पास सुकून मिलता था। उसकी साहित्यिक, सांगितिक अभिरुचियाँ माँ के ही साहचर्य में बनी।

हालाँकि, इसी के साथ एक तीसरा पारिवारिक प्रभाव भी महत्वपूर्ण रहा। एंगेल्स के दादाजी, बच्चे को युनानी दन्तकथाओं से एवं अन्य कई किस्म की पौराणिक कथाओं से कहानियाँ सुनाया करते थे। दन्तकथाओं के वे प्रसंग व पात्र भी शिशु के मन में साहित्य की जमीन बनाते रहे।

घर से बाहर, आत्मीय-स्वजनों एवं पारिवारिक परिचितों के दायरे से बाहर थे बार्मेन के रास्ते, सामान्य प्रफुल्लित लोकजीवन एवं मजदूरों की बस्तियाँ। कष्टमय जीवन के बावजूद हँसी-खुशी और सादगी से भरा जीवनबोध।

स्वाभाविक तौर पर एंगेल्स के शिशुमन में तीन प्रवृत्तियाँ एक साथ घर कर गई – (1) कठोर धार्मिक पवित्रतावाद का विरोध जो कुछ ही दिनों में निरीश्वरवाद तक पहुँच गया; (2) साहित्यिक पठन एवं लेखन की अभिरुचि; (3) जनजीवन को नजदीक से देखने की चाहत।

बार्मेन के बगल में था एल्बरफेल्ड शहर। बार्मेन म्युनिसिपल स्कूल में हुई प्राथमिक शिक्षा के बाद 14 वर्ष की उम्र में एंगेल्स उच्च-विद्यालयी शिक्षा के लिये एल्बरफेल्ड जिमनैशियम भेज दिये गये थे। अत्यंत प्रतिभावान छात्र थे एंगेल्स। लेकिन वहीं, एक साल के बाद जब उनके पिता बेटे से मिले तो अपनी पत्नी को पत्र लिखते हुये उनका ध्यान बेटे की पढ़ाई से अधिक ‘नि:शर्त आज्ञाकारिता’ पर था, “वह बाहरी तौर पर पहले से अधिक विनम्र हो चुका है लेकिन ऐसा लगता है कि पहले इतनी बार पड़ी कठोर डाँट और यहाँ तक कि सजा भुगतने का डर भी उसे नि:शर्त आज्ञाकारी नहीं बना पाया है।” और बेटे को उस ‘नि:शर्त आज्ञाकारिता’ के दायरे का एकमात्र उद्देश्य था, ईसाई पवित्रवाद तथा मौजूद सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक व्यवस्था के प्रति समर्पण एवं पारिवारिक व्यवसाय से लगाव।

पिता को किशोर एंगेल्स के टेबुल पर पुस्तकालय से लाई गई एक पुरानी किताब मिली – 13वीं सदी के नाइट्स (शूरवीरों) पर। हालाँकि वे मध्यकालीन शूरवीर भी ईसाई ही थे लेकिन बच्चों के दिमाग पर उन शूरवीरों के वीरतापूर्ण घुड़सवारी और जंगपरस्ती के प्रभाव को न तो बार्मेन शहर का आत्मिक पवित्रतावाद को और न ही जर्मन (प्रुशियाई) राज्यसत्ता बर्दाश्त कर पाता था। इसलिये एंगेल्स के पिता सिर्फ इस बात से परेशान नहीं हुये कि बेटा ये सब किताबें पढ़ता है, बल्कि इस बात से भी घबरा उठे कि “किस लापरवाही के साथ वह ऐसी किताबों को टेबुल पर छोड़े रखता है”।… उन्होने पत्नी को लिखा कि “बाकी हर तौर पर अति उत्तम इस लड़का” के लिये वह “अक्सर डरे” रहते हैं। पत्र में उन्होने एंगेल्स के स्कूल का साप्ताहिक रिपोर्ट भी औसत किस्म के होने का जो जिक्र किया, उनका मानना था (और यह सही भी था) कि वह भी एंगेल्स के इन्ही स्वभावों के कारण था।

एल्बरफेल्ड के स्कूल में रहते हुये ही एंगेल्स ने साहित्यिक लेखन शुरू किया। उनके प्रारम्भिक लेखनों में से एक, सन 1837 की शुरुआत में लिखी गई ईसा मसीह के नाम एक कविता की पंक्तियाँ गौरतलब हैं। इस कविता का अंग्रेजी अनुवाद मार्क्स-एंगेल्स रचनासमग्र (अंग्रेजी) खण्ड 2 में उपलब्ध है। कविता की शुरुआत होती है ईश्वर के एकमात्र पुत्र ईसा मसीह को उनके स्वर्गीय निवास से दोबारा धरती पर अवतरित होने की प्रार्थना के साथ। और अन्त में कवि लिखते हैं:

“मानवता को

मृत्यु और बीमारियों से मुक्त करने के लिये

आप आये थे धरती पर, ताकि

हरतरफ आशीष और सौभाग्य हो,

और अब

आपके इस नये अवतरण के साथ,

सब कुछ बदल जायेगा धरती पर,

हर आदमी को उसका हिस्सा देंगे आप।“

प्रार्थना के ही स्वर में, उन लोगों को उनकी जायज हिस्सा दिलाने की बात है इस कविता में जिन्हे एंगेल्स अपने बचपन की दुनिया में चारों ओर दिनभर के कठोर परिश्रम के बावजूद वंचित होते हुये देख रहे थे।

ये तो शुरुआती भावनायें थीं। लेकिन 17 वर्ष के होते होते वह औरों की निगाह में निरीश्वरवादी, यानि  तथाकथित जर्मन ईसाइयत (प्रोटेस्टैन्टवाद) और खास कर पवित्रतावाद के विरोधी विचारों के समर्थक और प्रचारक बन गये। उन्हे एल्बेरफेल्ड जिमनैशियम छुड़वा दिया गया। पिता को लगा कि इस बेटे को पढ़ाई लिखाई में लगाये रखने का मतलब होगा इसके बागी तेवर को विकसित होने देना। इसलिये लगभग तीनसौ किलोमीटर दूर के व्यापारिक केन्द्र, ब्रेमेन बन्दरगाह-शहर के एक व्यापारिक संस्था में किरानीगिरी का काम सिखने के लिये एंगेल्स को रखवा दिया गया।

तैयारी

कैसी विड़म्बनाओं से जूझते हुये भविष्य के इस विद्वान पथप्रदर्शक ने अध्ययन और काम में अपना रास्ता बनाया! पिता ब्रेमेन में किरानीगिरी के लिये छोड़ आये तो वहाँ उन्होने दार्शनिक हेगेल को पढ़ना शुरू किया और लेखन मे हाथ मजबूत किया। बाद में सैन्यवाहिनी में योगदान देकर बर्लिन पहुँचने का मौका मिला तो डॉयेश-फ्राज़ोयेश जाह्रबुखर और फिर न्यु राइनिशे ज़ाइटुंग में छद्मनाम से लिखना शुरू किया और दोनों पत्रिका के सम्पादन से जुड़े, कोलोन निवासी युवा कार्ल मार्क्स से उम्र भर की मित्रता की शुरुआत कर ली। लेकिन वह कहानी बाद में। पहले ब्रेमेन-काल के बारे में थोड़ी और बातें।  

ब्रेमेन पहुँचते उन्होने अपने लेखनों का प्रकाशन भी शुरू किया। ‘रचनासमग्र’ में उपलब्धता के अनुसार पहली कविता है ‘बेदुइन’। रेगिस्तानी अरब कबीले के स्वतंत्र कबीलाई जीवन की स्वतंत्रता को खत्म कर किस तरह धनतंत्र ने उसे अपने बाज़ार में तमाशा के रूप में खड़ा कर दिया, उसे प्राणशक्तिहीन बना दिया, इस कविता में उसका अद्भुत मार्मिक चित्रण है।

युवा एंगेल्स की साहित्यिक क्षमताओं की विशद चर्चा करना हमारा उद्देश्य नहीं है। हम सिर्फ उनके जीवन परिचय को आगे बढ़ाने के क्रम में उनके अनुभव व उनकी दृष्टि में हो रहे विकास को नोट करते जायेंगे।

सन 1839 के मार्च-अप्रैल में (यानि 18 वर्ष की उम्र में) उनका एक महत्वपूर्ण सामाजिक प्रतिवेदन हमबुर्ग से प्रकाशित होने वाली पत्रिका टेलिग्राफ फुर ड्युशलैंड में पाँच किश्तों में छपा। इस प्रतिवेदन का नाम था ‘लेटर्स फ्रॉम वुपर्टल’। ‘ओसवाल्ड’ छद्मनाम के साथ पत्रकारिता की दुनिया में यह उनका पहला कदम था। इस लेख का इतना जबर्दस्त प्रभाव पड़ा कि पत्रिका के, प्रतिवेदन वाले पाँचों अंक हाथों हाथ बिक गये। दूसरी ओर, बार्मेन, एल्बरफेल्ड सहित पूरे वुपर्टल इलाके में बसा पवित्रतावादी कुलीन व मध्यवर्ग गुस्से से आगबबुला हो गया तथा छद्मनाम के पीछे छुपे लेखक को ढूंढ़ने लगा।

प्रतिवेदन काफी बड़ा है एवं इसमें पूरे इलाके के सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन की खोजबीन की गई है। लेखक शुरू करते हैं इलाके के नैसर्गिक दृश्यों से जो सुन्दर होते हुये भी उद्योगों के विकास के साथ साथ हुये बेतरतीब शहरीकरण के कारण उदास व मनहूस सा दिखता है। वुपर (जिसके नाम से इलाके का नाम वुपर्टल है) नदी के पानी का मट्मैला बहाव अगर कहीं लाल दिखता है तो वह कपड़ों पर लगाये जाने वाले रासायनिक रंग के कारण। फिर वह आते हैं सड़कों पर नज़र आते लोगों के, खास कर शामों में और देर रात तक मौज करते दिखते असभ्य, अश्लील और शराबी आचरण पर। (बाद में उन्होने और किसी जगह, इस प्रसंग में अपना अनुभव बयान किया है कि बचपन में उनकी आँखों के सामने पूरा इलाका, मजदूर बस्तियों के बढ़ने के साथ साथ, सस्ते शराब की दुकानों से भर गया; यानि, मजदूर जो वैसे थे नहीं, वैसा होने को मजबूर किये गये।) आगे कहते हैं:

“इन स्थितियों के कारण पूरी तरह स्पष्ट हैं। सबसे पहले और सबसे अधिक, इन स्थितियों के लिये जिम्मेदार है कारखानों का काम। नीचे छत वाले कमरों में काम करते हुये लोग ऑक्सिजन से अधिक कोयले का धुँआ और धूल में साँस लेते हैं; इनमें से अधिकांश, 6 वर्ष की उम्र में ही काम करना शुरू कर देते हैं। ये हालात ही नि:सन्देह उनसे जीवन की सारी खुशियाँ एवं सारी शक्ति निचोड़ लेने वाले हैं। जिनके घरों में उनके अपने करघे हैं वैसे बुनकर सुबह से रात तक करघों पर झुके रहते हैं एवं एक गरम चुल्हे के सामने अपनी रीढ़ का मज्जा सुखाते हैं। जो रहस्यवाद के शिकार नहीं होते वे नशे में रह रह कर बर्बाद हो जाते हैं।“

इधर धार्मिक आस्था व तार्किकता के बीच भी उनका चुनाव स्पष्ट होता जा रहा था। उनके दो स्कूली मित्र-भाई थे – विलियम व फ्रेडरिक ग्रेबर। उन्हे लिखी गई चिट्ठियों में से एक, जो 15 जून 1839 को लिखी गई है, वह कहते हैं कि, “जब तार्किकता की आजादी की रक्षा की बात आती है तो मैं सारी बाध्यताओं के खिलाफ प्रतिवाद करता हूँ।” आगे, 8 अक्तूबर 1839 को लिखी गई एक चिट्ठी में कहते हैं, “…आस्था स्पंज जैसी, छिद्रों से भरी हुई दिखने लगी।”

‘युवा जर्मन’ एवं ‘युवा हेगेलियन’

जिन्दगी चाहे जो करवट ले, पिताजी उन्हे जहाँ कहीँ भी जाने के लिये मजबूर करें, वह खुद को एक ‘युवा जर्मन’ लेखक, दार्शनिक व प्रशियाई राज्यसत्ता विरोधी राजनीतिक पत्रकार के रूप में खुद को तैयार कर रहे थे।

युवा तो वह थे ही। और जर्मन भी थे! फिर भी उन दोनों शब्दों पर जोर डालने की वजह है कि ‘युवा जर्मन’ उन दिनों एक मुहावरा बन चुका था। सन 1830 के जुलाई महीने में पहले फ्रांस और फिर योरप के कई देशों में राजनीतिक क्रांतियों की एक लहर आई। यह लहर ‘जुलाई क्रांति’ के नाम से प्रसिद्ध है। प्रत्यक्षत: विभिन्न देशों में जो सत्ता परिवर्तन हुये उनके तो अपने ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य थे, लेकिन वह खास बात जिसके कारण उनमें क्रांति का तत्व दिखा वह थी श्रमिक वर्ग की भूमिका। उन राजनीतिक आन्दोलनों में योरप का श्रमिक वर्ग, अपनी मांगों के साथ शामिल हुआ। उनके राजनीतिक नारों के स्वरूप अभी तक पुंजीवादियों से अलग नहीं हो पाये थे लेकिन साथ में थी उनकी अपनी श्रम-सम्बन्धित मांगें। योरप के पूंजीवादी वर्गों ने अचंभित होकर देखा कि उनके मजदूर अब उनके नेतृत्व में चलने को तैयार नहीं हैं। अपनी मांगों को लेकर, अपने नारे बुलन्द कर, अपने झंडे लेकर, शहरों के सड़कों पर बैरिकेड बनाकर वह लड़ रहे हैं। भले ही उनके राजनीतिक नारों का चरित्र पूंजीवादी हो, एक वर्ग के रूप में अपनी स्वतंत्रता का एलान सन 1830 की जुलाई क्रांति के दिनों में उन्होने कर दिया। इस परिघटना के फलस्वरूप, जुलाई क्रांति के बाद एक खास बात सभी जगह दिखाई पड़ने लगी। हर देश में, खास कर शहरों के बौद्धिक हलकों में प्रजातांत्रिक परिवर्तनों के पक्ष में एक जनसमुदाय खड़ा होने लगा जिसमें युवावर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका थी। जर्मनी में जो युवा अग्रणी भूमिका में थे वे खुद को ‘युवा जर्मन’ कहने लगे और अखबारों में कहलाने भी लगे। एंगेल्स के ब्रेमेन पहुँचते पहुँचते तो इंग्लैंड में श्रमिक वर्ग का राजनीतिक सुधार हेतु आन्दोलन, चार्टिस्ट आन्दोलन, भी शुरु हो चुका था और उसकी खबरें प्रशियाई सेन्सर की तमाम कोशिशों के बावजूद जर्मनी में पहुँच ही जा रही थी।

‘युवा जर्मन’ मुख्यत: कुछ नई साहित्यिक, सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का समूह था। जबकि दार्शनिक व विचारधारात्मक प्रवृत्तियों का एक समूह था ‘युवा हेगेलियन’। दोनों में बहुत कुछ मिलती जुलती बातें थीं एवं कई लोग थे जो दोनों समूह में शामिल थे। इन दोनों जमातों की प्रमुख सकारात्मक चारित्रिक विशिष्टताओं के तीन पहलू एंगेल्स के ब्रेमेन-कालीन वर्षों में उल्लेखनीय थे। पहला, तत्कालीन प्रशियाई राजतंत्र से घृणा एवं विरोध; दूसरा, धर्म के नाम पर सरकार-प्रायोजित ईसाईयत एवं पुरोहिततंत्र से घृणा एवं विरोध; एवं तीसरा, हेगेलीय प्रणाली में मौजूद, परमोत्कर्ष की अवधारणा के विकास के रूप में मानव-इतिहास को देखने की प्रवृत्ति को समकालीन क्रांतिकारी बदलावों को समझने के लिये प्रयोग का प्रयास।    

सन 1839 के 8 अप्रैल को ब्रेमेन से, बर्लिन में रह रहे अपने मित्र फ्रेडरिक ग्रेबर को एंगेल्स लिखते हैं:

“कौन थे हमारे पास, सन 1830 से पहले? …… फिर बिजली की कड़क की तरह जुलाई क्रांति आई, मुक्ति के युद्ध के बाद जनता की ईच्छाओं की सबसे शानदार अभिव्यक्ति ……”

उसी पत्र को अगले दिन, 9 अप्रैल को वह आगे बढ़ाते हैं:

“तो अब मैं, बेचारा शैतान, क्या करूँ? अपनी ही लीक पर मशक्कत करता जाऊँ? जी नहीं करता। राजभक्त बन जाऊँ? भाड़ में जाऊँ अगर ऐसा करूँ तो। सैक्सन (उत्तरी जर्मन नस्ल) सामान्यता में बना रहूँ? – ए राम, छी! इसलिये, मुझे अवश्य ही ‘युवा जर्मन’ बनना होगा। या, यूँ कहूँ तो मैं हूँ, अभी ही, शरीर और आत्मा से। रात को मैं सो नहीं पाता हूँ, सिर्फ सदी के विचारों के कारण। जब भी मैं डाकखाने में होता हूँ और प्रशियाई राज-चिन्ह की ओर निगाह पड़ती है, मैं आजादी के भावावेश के गिरफ्त में आ जाता हूँ। हर बार जब मैं अखबार देखता हूँ, मैं आजादी की दिशा में हुई अग्रगतियों को खोजने लगता हूँ।”

तीन महीने बाद उसी मित्र ग्रेबर को वह आज़ादी का अर्थ समझाते हैं:

“तुम कहते हो कि सन्देह नहीं कर पाना मन की आज़ादी है? यह मन की सबसे बड़ी गुलामी है। सिर्फ वह आज़ाद है जिसने अपने प्रत्यय से सम्बन्धित सभी सन्देह पर विजय हासिल कर ले। और मैं तुमसे बिल्कुल मेरे प्रत्यय को खंडित करने की मांग नहीं कर रहा हूँ। मैं पूरे रूढ़िवादी धर्मशास्त्र को मुझे खंडित करने की चुनौती दे रहा हूँ।…”

यह प्रत्यय उस समय तक योरोपीय नवजागरण, तर्कवाद और वैज्ञानिकता का था। रूढ़िवादी ईसाइयत के तमाम पंथों, धारणाओं और सांस्कृतिक वर्चस्व के विरुद्ध लड़ते हुये भी वह एक ‘ईश्वर’ नाम की सत्ता से प्रेम करते थे, उस पर विश्वास करते थे। पूरा निरीश्वरवादी नहीं हुये थे लेकिन ब्रेमेन और बारमेन के छोटे उपनगरीय माहौल में घूमते हुये, राजधानी बर्लिन में हो रहे युवा हेगेलियनों की दार्शनिक गतिविधियों की खबर लेते रहते थे। साहित्य, संस्कृति पर लिखते हुये एक दार्शनिक विश्वदृष्टि की जरूरत महसूस कर रहे थे।

जनवरी-फरवरी 1840 के बीच अपने उसी मित्र फ्रेडरिक ग्रैबर को कई दिनों में लिखी चिट्ठी में उन्होने हेगेल के दर्शन के बारे में, उसके नकारात्मक एवं सकारात्मक शिष्यों के बारे में, हेगेल की दार्शनिक प्रणाली की अखण्डता के बारे में बहुत कुछ लिखा। 21 जनवरी 1840 को उन्होने एक जगह मजाकिया लहजे में लिखा,”उदाहरण के लिये सोचो कि अगर, विश्व-इतिहास आजादी की अवधारणा का विकास है यह विचार अपने पूरे वजन के साथ ब्रेमेन के पादरी के गर्दन पर गिर जाय, तो उसमें से किस प्रकार की आह निकलेगी?”

आगे, उसी पत्र में उसी दिन, प्रशियाई राजा, फ्रीडरिख विल्हेल्म III के बारे में वह गुस्से से लिखते हैं:

“वही राजा जो 1815 इसवी में - जब वह डरा हुआ था - मंत्रीमंडल के हुक्मनामे के जरिये अपनी प्रजा से वादा किया कि अगर वे अपने राजा को झंझट से उबार दें तो उन्हे एक संविधान मिलेगा, वही – पाजी, सड़ा हुआ, ईश्वर-शापित - राजा का अब घोषणा हुआ कि किसी को कोई संविधान उससे नहीं मिलने जा रहा है … मैं मारक घृणा के साथ उससे घृणा करता हूँ और अगर मैं उस लुच्चे को इतना तुच्छ नहीं समझता तो मैं उससे और भी अधिक घृणा करता … सन 1816-30 की अवधि से अधिक, राजकीय अपराधों की कोई अवधि कभी नहीं रही है; जितने भी राजकुमार इस अवधि में शासन किये हैं सब मौत की सजा पाने के लायक हैं…”

सोवियत संघ से 1974 में प्रकाशित एंगेल्स की जीवनी के प्रथम अध्याय में उपरोक्त उद्धरण के बाद जीवनीकार बताते हैं कि एंगेल्स उस समय की प्रशियाई नीति में किन खास विशेषताओं की चर्चा करते थे – गरीबों को क्षति पहुँचाते हुये सम्पत्तिवान अभिजातवर्ग की रक्षा तथा “राजनीतिक बुद्धिमत्ता का दमन करते हुये, बहुसंख्यक जनता को अज्ञानता में रखते हुये, और धर्म का इस्तेमाल करते हुये” तानाशाही को बनाये रखना।           

वह समझ रहे थे कि बर्लिन जाना, वहाँ रहना जरूरी है। हेगेल के दर्शन के वह वामपंथी अनुयायी तो बन चुके थे, बर्लिन के युवा हेगेलियनों की खबर भी रखते थे, लेकिन हेगेलीय पद्धति, द्वंदात्मकता को अपने दार्शनिक व्यवहार के लिये अलग पहचान कर पाने से दूर थे।

ब्रेमेन में किरानीगिरि करते हुये, बाकी बचे समय में वह भुक्खड़ की तरह पढ़ते रहते थे, लिखते रहते थे और मन में चाहे जितनी बेचैनी हो, भाई-बहनों, दोस्तों को लिखी जा रही चिट्ठियों में वह खुशियाँ बिखेरते रहते थे। बल्कि पूंजीवादी जीवन-धारण के आवश्यक सामाजिकताओं को निभाने के क्रम में भी वह अपनी रुचियों को विकसित करना नहीं छोड़ते थे। इन रुचियों में प्रमुख थी संगीत की चर्चा, घुड़सवारी, तैराकी और तलवारबाज़ी। कदकाठी में भी वह एक बलिष्ठ खिलाड़ी की तरह आकर्षक थे। ब्रेमेन में नदी से बाढ़ आती थी। घर के अन्दर पानी घुस आता था। अपना कमरा छोड़ किसी पड़ोसी के यहाँ अगर टिकने जाते थे तो उनकी मदद भी करते थे रात-रात भर, पानी निकालने में, अनाज बचाने में। बहन मेरी को और दोस्त ग्रेबर-भाइयों को अपनी लेखकीय गतिविधि व बढ़ते भाषा-ज्ञान का भी परिचय देते रहते थे। अक्सर उन चिट्ठियों में उनके बनाये गये रेखा-चित्र व व्यंग-चित्र भी होते थे। भाषा सीखने की यह ललक उनकी पुरानी थी। दिनांक 28 सितम्बर 1839 को ब्रेमेन से उन्होने, बारमेन र्में रह रही अपनी बहन मेरी को लिखा:

“मैं अभी क्लब में हूँ; यह बारमेन का सद्भाव-संस्था या आत्मविकास संस्थान के अनुरूप है। इसमें रखी सबसे अच्छी चीज है अखबारें, कई अखबारें – डच, अंग्रेजी, अमरीकी, फ्रांसीसी, जर्मन, तुर्की और जापानी। इन्ही अखबारों से मुझे तुर्की और जापानी सीखने का मौका मिला, इसलिये अब मैं 25 भाषायें समझता हूँ।…”

एंगेल्स के जीवनीकारों ने सच ही कहा है कि द्वन्दात्मक व ऐतिहासिक भौतिकतावाद के दर्शन तक पहुँचने एवं विश्व के क्रांतिकारी मजदूरवर्ग आन्दोलन के संगठनकर्ता व वैचारिक नेता बनने का एंगेल्स का सफर ज्यादा कठिन रहा है। मार्क्स-एंगेल्स रचनासमग्र, खण्ड 2 का आमुख कहता है:

“एंगेल्स के लिये प्रगतिशील दृष्टि तक पहुँचना मार्क्स से बहुत ज्यादा कठिन था। वह बार्मेन के उद्योगपति के रुढ़िवादी एवं धार्मिक परिवार से आते थे। उनके पिता ने बलपूर्वक उनसे विद्यालय छुड़वा दिया और उन्हे व्यवसाय में लगा दिया। परिणामस्वरूप, समकालीन धार्मिक, दार्शनिक, राजनीतिक एवं साहित्यिक प्रवृत्तियों के भूलभुलैया से गुजरते हुये, तथा शैशव से दिलोदिमाग में भरे धार्मिक प्रत्ययों से ऊपर उठने के लिये काफी तकलीफदेह आत्मानुसंधान करते हुये उन्हे स्वतंत्र रूप से अपनी शिक्षा पूरी करनी पड़ी। मुख्यत:, धर्म एवं धर्मशास्त्र का एंगेल्स द्वारा किया गया आलोचनात्मक विश्लेषण ही उन्हे प्रगतिशील दार्शनिक विचारों तक पहुँचाया। साहित्य की भी उनके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका रही - खास कर उनके शुरुआती वर्षों में।”  

पवित्रतावादी इसाई उद्योगपति उनके पिता ने हर तरह से कोशिश की कि बेटे के बागी चरित्र को कुंठित किया जाय, उसके क्रांतिकारी विचारों को उखाड़ फेंका जाय। इसके लिये अच्छा उपाय उन्हे सुझा था कि उसकी पढ़ाई बन्द कर दी जाय। एल्बरफेल्ड के विद्यालय से भी उसे अन्तिम परीक्षा (हमारे यहाँ का मैट्रिकुलेट) दिलवाये बगैर निकाल लाये और भेज दिये ब्रेमेन किरानीगिरि के लिये। वहाँ के मैनेजर को हिदायत भी दे दिया कि लड़के को काम में जोते रखो। फिर भी एंगेल्स स्वाध्याय व लेखन के जरिये आगे बढ़ते रहे।

बर्लिन जाने का अपना फैसला लेने से पहले और बाद में भी वह पिता से बार बार अनुरोध करते रहे कि उन्हे बर्लिन जा कर पढ़ाई करने की अनुमति दी जाय। पिता माने नहीं। तीखी बहसें हुई। अन्तत: उन्हे सैन्यसेवा में योगदान देकर ही बर्लिन जाने का रास्ता निकालना पड़ा।

 

सैन्यसेवा और बर्लिन

सन 1841 के सितम्बर के अन्त में एंगेल्स ने सैन्य सेवा में योगदान दिया। उस वक्त प्रशियाई राज्यसत्ता के नियमानुसार, एक न्यूनतम अवधि के लिये सैन्यसेवा बाध्यकर था। अमीर घरों के लड़के अधिकारियों को कुछ घूस देकर इससे बच भी जाते थे। लेकिन एंगेल्स के लिये यह बर्लिन जाने का एक अवसर भी था। बर्लिन जाने पर वह बर्लिन विश्वविद्यालय के व्याख्यानों के श्रोताओं में उपस्थित रह पाते। साथ ही, वहाँ के आमूल परिवर्तनवादी वैज्ञानिकों और लेखकों से नजदीकी सम्पर्क बना पाते।

इसीलिये उन्होने, बाध्यकर संक्षिप्त-अवधि सैन्यसेवा के अभ्यर्थियों को मिलने वाली छूट का इस्तेमाल करते हुये 12वीं गार्डस आर्टिलरी कम्पनी को चुना जो बर्लिन में थी। जाने से कुछेक दिन पहले, 9 सितम्बर 1841 को उन्होने बारमेन से, उस वक्त मैनहेम में रहती बहन को इशारे में लिखा:

“एक सप्ताह या पन्द्रह दिनों के बाद नागरिक के रूप में अपना कर्तव्य निभाने यानि, सैन्यसेवा से बचने को जो कुछ कर सकूँ, करने के लिये बर्लिन के लिये रवाना हो रहा हूँ। बातें कहाँ तक बन पाती हैं देखने के लिये हमें इन्तजार करना पड़ेगा।”

बर्लिन में कार्ल मार्क्स पिछले पाँच वर्षों से थे एवं बर्लिन विश्वविद्यालय की पढ़ाई कर रहे थे। जिस समय एंगेल्स बर्लिन पहुँचे उसके पाँच महीने पहले मार्क्स ने जेना विश्वविद्यालय से डाक्टरेट की उपाधि ली थी। मार्क्स की ईच्छा थी कि वह अध्यापक बनें और इसलिये बॉन भी गये। लेकिन नये प्रशियाई राजा का पहले से अधिक तानाशाही प्रशासन पूरी सख्ती के साथ विश्वविद्यालयों से तमाम आलोचक स्वरों को निकाल बाहर कर रहा था। बल्कि प्रशियाई राजसत्ता का सबसे अनमोल नगीना, दार्शनिक हेगेल की प्रतिष्ठा, आधिकारिक तौर पर खत्म कर दी गई थी - क्योंकि उन्ही के दर्शन में से उनके युवा अनुयायी क्रांतिकारी परिवर्तन के तत्व निकालने लगे थे - और उनके प्रतियोगी व कमतर दार्शनिक शेलिंग को अब वह प्रतिष्ठा दी गई थी। सारे हेगेलवादी विश्वविद्यालयी पदों से हटाये जा रहे थे। स्वाभाविक था कि ऐसे समय में मार्क्स जैसे आमूल परिवर्तनवादी परिचित युवा हेगेलियन को अध्यापन की नौकरी मिलना असम्भव था। मार्क्स ने समय नहीं गँवाया। जिस काम की ओर उनकी नज़र थी, उसी काम में पूरावक्ती के तौर पर जुट गये। प्रशियाई सरकार, प्रशासन व सेंसर-व्यवस्था के खिलाफ तीखे राजनीतिक पत्रकारिता में जुट गये। इसलिये, एंगेल्स जिस समय बर्लिन पहुँचे, मार्क्स भी वहाँ थे। फिर भी, दोनों में मुलाकात नहीं हुई। क्योंकि एंगेल्स विश्वविद्यालयी अड्डों में प्रवेश कर रहे थे जबकि मार्क्स उन अड्डों से बाहर जा कर नई जिन्दगी तलाशने लगे थे। फिर सन 1842 के अन्त तक जब एंगेल्स बर्लिन से बार्मेन वापस आ गये, मार्क्स भी लगभग उसी समय कोलोन चले गये। हालाँकि उस समय तक मार्क्स, राइनिशे ज़ाइटुंग के पन्नों से फ्रेडरिक एंगेल्स नाम के एक प्रतिभावान हम-उम्र लेखक को जान चुके थे।

यह बात भी एक ही मंजिल की ओर अग्रसर, मार्क्सवाद के दो संस्थापकों के यात्रापथ की भिन्नता एवं एंगेल्स के रास्ते की कठिनाइयों का बयान करता है कि दर्शन के जिन कक्षाओं में मार्क्स एक स्नातक-विद्यार्थी की हैसियत से प्रवेश करते थे, उन कक्षाओं में एंगेल्स ने, औपचारिक तौर पर अशिक्षित एक बाहरी युवा के तौर पर प्रवेश किया। अतिथि छात्र की डायरी नाम से एंगेल्स का एक आलेख भी उन्ही दिनों प्रकाशित हुआ।  

जाने के बाद एंगेल्स ने वही किया जो उन्होने सोच रखा था। हालाँकि, विश्वविद्यालय के व्याख्यानों में जाकर वे ठगे से महसूस किए। क्योंकि अब वहाँ न तो हेगेल थे और न कोई हेगेलवादी अध्यापक, जिन्हे सुनने के लिये वह बर्लिन आए थे। थे, तो शेलिंग, जिनके व्याख्यानों से एंगेल्स को चिढ़ होती रही। फिर भी, विश्वविद्यालय के व्याख्यानों में वह नियमित जाते रहे। उसी क्रम में लोगों से मिलना जुलना शुरू हुया और उनके मन में पहले से बनी ईच्छायें खुलने लगीं। साहित्यिक-सांस्कृतिक विषयों पर लिखने के साथ साथ वह दार्शनिक व राजनीतिक विषयों पर भी लिखते रहे। इसी दौरान उनका एक महत्वपूर्ण बड़ा दार्शनिक आलेख शेलिंग एवं आकाशवाणी स्वतंत्र पर्चे के रूप में प्रकाशित हुआ। एंगेल्स बर्लिन विश्वविद्यालय में शेलिंग के व्याख्यान भी सुन रहे थे एवं उनके खिलाफ लिख भी रहे थे। लेकिन, जैसा कि उनके पत्रों से दिखता है वह दर्शनशास्त्र के और अधिक गहन अध्ययन की तैयारी करने लगे।

आर्नॉल्ड रूज नाम के एक वामपंथी हेगेलवादी राजनीतिक विचारक का नाम मार्क्स के शुरुआती वर्षों के साथ जुड़ता है। वह मार्क्स से 16 साल बड़े थे एवं वामपंथी हेगेलवाद की शुरुआत करने वालों में से थे। सन 1844 के दिनों में रुज और मार्क्स ने मिलकर पैरिस से डॉयेश-फ्रांज़ोसिश ज़ाह्र्बुख़र (जर्मन-फ्रांसीसी वार्षिकी) का सम्पादन किया। एंगेल्स के भी शुरूआती राजनीतिक अर्थशास्त्रीय लेख उस पत्रिका में छपे। खैर, वह बाद की बात है। सन 1841-42 में रुज ड्रेसडेन में थे और डॉयेश ज़ाह्रबुख़र का सम्पादन कर रहे थे। एंगेल्स उस पत्रिका में साहित्यिक और कभी कभी दार्शनिक विषयों पर भी लिखा करते थे। 15 जून, 1842 को भी उन्होने एक आलेख भेजा और सूचित किया कि आगे वह फिर एक आलेख भेजने वाले हैं। उपरोक्त पर्चा, शेलिंग एवं आकाशवाणी भी पहले इसी पत्रिका में छपने की बात थी; बड़ा हो जाने के कारण एंगेल्स ने उसे स्वतंत्र रूप दिया। लेकिन 26 जुलाई की उनकी चिट्ठी उनकी मन:स्थिति का बयान करती है।

आर्नॉल्ड रूज, ड्रेसडेन

महाशय,

इसबार मैं आपको यह सूचित करने लिये लिख रहा हूँ कि मैं आपको कुछ भेजूंगा नहीं। मैंने कुछ समय के लिये अपने सारे साहित्यिक काम त्यागने का निर्णय लिया है ताकि अध्ययन में अधिक समय दे सकूँ। इसके कारण आसान हैं। मैं युवा हूँ एवं दर्शन में स्व-शिक्षित हूँ। मेरे अपने दृष्टिकोण को बनाने और जरूरत पड़े तो उसकी रक्षा के लिये यह शिक्षा पर्याप्त है लेकिन, उस दृष्टिकोण पर सही ढंग से एवं सफलतापूर्वक काम करने के लिये नहीं। बल्कि मुझसे कुछ ज्यादा की ही अपेक्षा की जायेगी क्योंकि दर्शन में मैं “ट्रैवेलिंग एजेन्ट” हूँ और डाक्टर की डिग्री लेकर दार्शनिक विचारों को दर्ज करने का अधिकार अर्जित नहीं किया हूँ। मैं उम्मीद करता हूँ कि फिर जब मैं लिखना शुरू करूंगा, वह भी अपने नाम से, तो इन अपेक्षाओं को पूरी कर पाउंगा। साथ में यह भी बात है कि मुझे अभी बहुत ज्यादा किस्म के काम करने की कोशिश नहीं करनी चाहिये, चूंकि जल्द ही फिर से मैं व्यवसायिक मामलों में पहले से अधिक व्यस्त हो जाउंगा।

आत्मगत तौर पर देखा जाय तो मेरी साहित्यिक गतिविधियाँ अब तक महज प्रयोग थे जिनके परिणामों से मैं जान पाया कि मेरी नैसर्गिक क्षमतायें, प्रगति के लिये और शताब्दी के आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी के लिये सफलतापूर्वक और प्रभावशाली तौर पर काम करने लायक हैं या नहीं। मैं परिणामों से सन्तुष्ट हूँ और अब, दोगुने उत्साह के साथ अध्ययन को जारी रखने के द्वारा उन क्षमताओं को अर्जित करना मेरा कर्तव्य समझता हूँ जो जन्म से नहीं मिलती है। …”

आपका,

फ्रेडरिक एंगेल्स,

बर्लिन, 26॰7॰42

सैन्यसेवा के रोजमर्रे की थकान के बावजूद एंगेल्स ने बर्लिन में बिताये एक साल का पूरा उपयोग किया और अपना बौद्धिक विकास किया। बर्लिन में मौजूद तत्कालीन बौद्धिक परिदृश्य को नजदीक से देखने और साथ ही साथ, युवा जर्मन एवं युवा हेगेलियन दार्शनिकों, साहित्यकारों, पत्रकारों एवं बुद्धिजीवियों से मेलजोल बढ़ाने के दो महत्वपूर्ण परिणाम हुये। पहला तो यह कि दार्शनिक लेखन में उनका आत्मविश्वास बढ़ा, जिसके कारण शेलिंग एवं आकाशवाणी जैसा बड़ा लेख स्वतंत्र पुस्तिका के रूप में प्रकाशित कर पाये। दूसरा यह कि युवा जर्मन कहलाने वाले साहित्यिक-सांस्कृतिक सम्प्रदाय की वास्तविक स्थिति एंगेल्स को नज़र आने लगी कि ये बस साहित्यिक सृजन में सिमटे रहेंगे, मौजूदा परिदृश्य पर तकलीफ भर जाहिर कर लेंगे लेकिन, राज्यसत्ता के खिलाफ, भ्रष्ट प्रशासन के खिलाफ, सेन्सर-व्यवस्था के खिलाफ अपनी जुबान नहीं खोलेंगे। एंगेल्स की यह आलोचना आई अलेक्जैन्डर ज़ुंग: आधुनिक जर्मन साहित्य पर व्याख्यान शीर्षक आलेख में। साथ ही युवा हेगेलियन बुद्धिजीवियों में से भी कुछ की सीमायें एंगेल्स को नज़र आने लगी थी। इस पर थोड़ी और चर्चा अगले अध्याय में कर लेंगे।  

यहीं एक और बात कहना अप्रासंगिक नहीं होगा। यहाँ भारत में, कम्युनिस्ट कार्यकर्ता, मार्क्सवादी दर्शन के आविर्भाव के पहले के दो जर्मन दार्शनिकों के नाम भली भाँति जानते हैं। पहला, हेगेल और दूसरा, फायरबाख। अभी सिर्फ इतना बताना चाहेंगे कि लुडविग फायरबाख भी युवा हेगेलियन बौद्धिक तबका में शामिल दर्शन के अध्यापक थे। एवं उसी रूप में उन्हे एवं उनकी प्रख्यात कृति ईसाईयत का सार को मार्क्स एवं एंगेल्स जानते थे।

मार्क्स से पहली मुलाकात

सैन्यसेवा की अवधि पूरी हो गई। 8 अक्तूबर 1842 को एंगेल्स बर्लिन से बार्मेन लौटने के लिए रवाना हुये। लौटते हुये वह कोलोन गये। कोलोन में राइनिशे ज़ाइटुंग का दफ्तर था, और एंगेल्स तब तक उस पत्रिका के नियमित लेखक बन चुके थे। पत्रिका के मुख्य सम्पादक थे मार्क्स, लेकिन दफ्तर में उस समय वह मौजूद नहीं थे, इसलिये दोनों की भेँट नहीं हो पाई।

यहाँ एक रोचक प्रसंग का जिक्र किया जा सकता है जिससे पता चलता है कि एंगेल्स मार्क्स को किस नज़र से देखते थे। पहले ही कहा जा चुका है कि प्रशिया के नये राजा के आने के बाद सेंसर-व्यवस्था और सख्त कर दी गई तथा विश्वविद्यालयों से हेगेलवादी चुन चुन के निकाले जाने लगे। उसी क्रम में ब्रुनो बाउअर भी मार्च 1842 में बॉन विश्वविद्यालय से निकाले गये। सरकार के इस हरकत के खिलाफ, तथा युवा हेगेलियन बनाम रूढ़िवादी हेगेल-विरोधियों के बीच के संघर्षों को लेकर एंगेल्स ने एक व्यंग-कविता लिखा। चमत्कारिक ढंग से उद्धार किया गया बाइबिल शीर्षक इस लम्बी कविता की काफी चर्चा हुई। उसी कविता में विभिन्न युवा हेगेलियनों की चर्चा करते हुये एंगेल्स मार्क्स की भी चर्चा करते हैं। यह चर्चा काफी रोचक है। व्यंग में लिखे गये वीर-रस की उस भाषा का अनुवाद कठिन है। एक भावानुवाद का प्रयास नीचे प्रस्तुत है:

“ट्रिएर का एक साँवला आदमी, मार्के का बदसूरत।

न कूदता न फांदता है, लम्बे डग मार चलता है तेज,

जोर जोर से बेसुध बोलते हुये।

वह बाँहें फैलाता है और पहुँचता है आसमान की ओर,

जैसे कि उपर फैला स्वर्ग का आलीशान तम्बु

पकड़ कर खींचते हुये उतार डालेगा धरती पर।”

बार्मेन लौट कर एंगेल्स वहाँ महीना भर भी रह नहीं पाये। कुछ ही दिनों के अन्दर उन्हे जर्मनी छोड़ इंग्लैंड के मैंचेस्टर की ओर रवाना होना पड़ा। कहने के लिये यह उनके पिता द्वारा उन्हे कारोबार सम्हालने की सीख देने का प्रयास था। एर्मेन ऐन्ड एंगेल्स के मैंचेस्टर स्थित सूत-कारखाने में वह व्यापार व प्रबन्धन के व्यवहारिक ज्ञान के लिये भेजे गये। लेकिन वास्तव में एंगेल्स के पिता बेहद डरे हुये थे। एंगेल्स के क्रांतिकारी विचार अब कोई छिपी हुई चीज नहीं थी। उसे जर्मनी व प्रशियाई पुलिस-प्रशासन से दूर रखना उनका मुख्य उद्देश्य था।

नवम्बर 1842 में मैंचेस्टर पहुँचने से पहले एंगेल्स फिर कोलोन गये। इस बार मार्क्स से उनकी भेंट हुई। इतिहास में दर्ज यह उनकी पहली भेंट थी। लेकिन दोनों की बातचीत में एक दूसरे की प्रति ठंडापन था। क्योंकि, एंगेल्स तब तक युवा हेगेलियनों का, “आज़ाद” नाम के एक गुट से रिश्ता रखते थे, और मार्क्स उस गुट व उसके नेताओं के सख्त खिलाफ हो चुके थे। अफवाहबाज़ों ने मार्क्स को यह नहीं बताया था कि उस गुट में रहते हुये भी एंगेल्स उसके नेताओं, खास कर बाउअर बंधुओं के खिलाफ उन्ही मुद्दों पर लड़ना शुरू कर चुके थे जिन मुद्दों को लेकर मार्क्स उनके विरोधी हुये थे। अफवाहबाज़, एंगेल्स के भी कान कुछ कुछ भर रखे थे। किन मुद्दों को लेकर बातचीत हुई होगी इसकी जानकारी तो इतिहास को नहीं, पर कुछ कयास लगाये जा सकते हैं। अक्तूबर 1842 में मार्क्स ने आर्नॉल्ड रूज को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होने तीन पहलुओं पर अपना रुख स्पष्ट किया था – (1) खुद आर्नॉल्ड रूज एवं एक और बुद्धिजीवी के प्रति; (2) “आज़ाद” गुट के प्रति एवं (3) नई सम्पादकीय नीति तथा सरकार के प्रति। तीन मुद्दों पर उन्होने अपनी बातों को सीमित रखा था। पहला तो यह कि स्वतंत्रता या आजादी को लेकर मुहावरेबाजियाँ कम हों, अशिक्षित, सरलीकृत तरीके से बातें नहीं की जायें, आत्ममुग्धता नहीं हो और ठोस तरीके से, विशेषज्ञ के ज्ञान के साथ बातें रखी जायें। दूसरा, यह कि बात बात में, नाटकीय तरीके से आलोचनाओं में साम्यवादी व समाजवादी विचारधारायें, या कोई भी नई विश्वदृष्टि घुसेड़ नहीं दिये जायें – यह अनैतिक है। अगर साम्यवाद पर बात करनी है तो अलग से, गंभीरता से बात हो। तीसरा यह कि धर्म की आलोचना राजनीतिक परिस्थितियों की आलोचना के ढाँचे में हो, न कि राजनीतिक परिस्थितियों की आलोचना धर्म की आलोचना के ढाँचे में। और अन्तिम, कि दर्शन की चर्चा हो तो पूरी तरह हो, निरीश्वरवाद का लेबुल लगा कर नहीं।

स्वाभाविक लगता है कि एंगेल्स से बातचीत इन्ही दायरों में हुई होगी। खुद एंगेल्स ने बाद में, सन 1895 में याद किया:

“मार्क्स तब तक बाउअर बंधुओं के खिलाफ जा चुके थे, मतलब वह इस विचार के विरोध में थे कि राइनिशे ज़ाइटुंग का इस्तेमाल राजनीतिक बहस एवं कार्रवाई के लिये नहीं बल्कि मुख्यत: धर्मशास्त्रीय प्रचार, निरीश्वरवाद आदि के वाहक के रूप में किया जाय। मार्क्स एडगर बाउअर के, ‘सबसे अधिक दूर तक जाने’ की ईच्छा पर आधारित मुहावरा-केन्द्रित साम्यवाद के भी खिलाफ थे … और जहाँ तक मेरे विचार बाउअर बंधुओं से मेल खाते थे, मुझे उनका मित्र समझा गया। जबकि मुझे भी उन लोगों ने मार्क्स के प्रति शक्की बना दिया था।”   

[फ्रेडरिक एंगेल्स, ए बायोग्राफी, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मास्को, 1974, पृष्ठ 34 में मार्क्स एंगेल्स, जर्मन रचनासमग्र से उद्धृत]

मैंचेस्टर में दो साल

लेनिन ने लिखा, “इंग्लैंड आने के बाद ही एंगेल्स समाजवादी बने।”

एंगेल्स का जन्म जर्मनी के उस प्रांत में हुआ था जो औद्योगिक तौर पर पूरी जर्मनी में सर्वाधिक विकसित था। वह खुद अमीर कारखानेदार परिवार के थे एवं इलाका श्रमिकों से भरा पड़ा होता था। इसलिये, जब वह इंग्लैंड में आये तो जर्मनी के श्रमिक वर्ग एवं पूंजीवादी वर्ग के जीवन का प्रत्यक्ष अनुभव उनके साथ था। फिर भी, इंग्लैंड, इंग्लैंड था। पूरे योरप से वह कई मायने में भिन्न हो चुका था। औद्योगिक क्रांति ने पूरे इंग्लैंड का शक्ल बदल दिया था। और मैंचेस्टर इंग्लैंड में उन खास जगहों में से एक थी जहाँ पूंजीवादी औद्योगीकरण का अन्दरूनी वीभत्स नारकीय चेहरा बहुत करीब से दिखता था। दूसरी ओर, चार-पाँच वर्षों से चल रहा चार्टिस्ट आन्दोलन, श्रमिक वर्ग का स्वतंत्र राजनीतिक आन्दोलन होने के कारण, श्रमिकों की वर्गीय एकता का रूप एवं इंग्लैंड के शासक वर्गों के अन्दर के अन्तर्विरोधों एवं राज्यसत्ता के विशेष बनावट को भी उजागर कर चुका था। मैंचेस्टर में अक्सर होते हुये जनसभाओं में उनकी मुलाकात और दोस्ती तत्कालीन समाजवादियों से भी होती रही। एंगेल्स को बहुत देर नहीं हुई इंग्लैंड के सामाजिक तानेबाने को वर्गों के टकरावों के बीच समझने में।

नवम्बर 1842 के दूसरे पखवाड़े में एंगेल्स मैंचेस्टर आये। कुछेक दिन पहले कोलोन में मार्क्स के साथ हुई मुलाकात में ठंडापन जरूर था, जैसा कि एंगेल्स खुद कबूलते हैं, लेकिन राइनिशे ज़ाइटुंग के मुख्य सम्पादक को इंग्लैंड जाते हुये इस साथी जर्मन युवा पर पूरा भरोसा था कि इंग्लैंड की वास्तविक स्थिति के बारे में यही आदमी, जर्मन पाठकों को सबसे अच्छी जानकारी देता रहेगा। और समन्दर (इंग्लिश चैनेल) के पार, कारखाना का काम सम्हालने के लिये इंग्लैंड जाते हुये अमीर घर के जर्मन युवा को पता था कि सामाजिक-राजनीतिक, दार्शनिक या सांस्कृतिक विषयों पर उसके क्रांतिधर्मी लेखन को प्रशियाई सेंसर के बावजूद छापने का काम राइनिशे ज़ाइटुंग का नया मुख्य सम्पादक ही करेगा। इसीलिये, मैंचेस्टर पहुँचने के बाद महीना बीतने से पहले एंगेल्स का पहला प्रतिवेदन राइनिशे ज़ाइटुंग के पास पहुँच गया। 8 दिसम्बर के अंक में वह छप भी गया।

इंग्लैंड-प्रवास की पहली किश्त में वह लगभग दो वर्ष मैंचेस्टर में रहे। लगातार वह जर्मन पाठकों के लिये इंग्लैंड की राजनीतिक-सामाजिक विस्फोटक स्थिति पर लिखते रहे। पूंजीवादी शोषण, सांविधानिक राजतंत्र के अन्तर्गत पूंजीवादी वर्गों के साथ अभिजात वर्गों का गठजोड़, एवं अंग्रेज सर्वहारा का व्यापक राजनीतिक आन्दोलन, चार्टिस्ट आन्दोलन, के दमन की उनकी साझी कोशिश को वह उजागर करते रहे। इस परिदृश्य में थोड़ा उदासीन रहने वाले किसानों में भी धीरे धीरे राजनीतिक चेतना आने की परिघटना का उन्होने बयान किया। पूरे योरप के घटनाविकास, खास कर समाजवादी आन्दोलन के विकास की तरफ उनकी पैनी नज़र थी। अपना देश जर्मनी में बदलावों की सम्भावनाओं को समझने के लिये एवं उन्हे प्रेरित करने के लिये इंग्लैंड के साथ साथ फ्रांस एवं अन्य देशों के घटनाक्रमों पर भी लिखना जरूरी था। और वह लिखते गये। जर्मन भाषा में भी और अंग्रेजी में भी। खास कर चार्टिस्ट मुखपत्र नॉर्दर्न स्टार एवं ओवेनवादी समाजवादियों की पत्रिका न्यु मोरल वर्ल्ड के वह नियमित लेखक बन गये।  

सामाजिक क्रांति की जो अवधारणा वह साथ लेकर आये थे वह मोटे तौर पर हेगेलीय थी। : “… तथाकथित भौतिक हित इतिहास में स्वतंत्र, मार्गदर्शक लक्ष्य के रूप में काम नहीं कर सकते; उन्हे सचेत या अचेत तौर पर एक सिद्धांत की मदद करनी पड़ेगी जो ऐतिहासिक प्रगति को नियंत्रित करता है।” [आन्तरिक संकटें, राइनिशे ज़ाइटुंग, 9 दिसम्बर 1842] गौर तलब है कि उल्टे ढंग से ही सही लेकिन ‘भौतिक हितों’ का महत्व यहाँ दर्ज है।

इस अवधि में उनके अध्ययन, लेखन व सम्बन्धित सक्रियता के दो पहलू विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। पहला, आधुनिक श्रमिक वर्ग या सर्वहारा के जीवन का नजदीकी अध्ययन; जिसकी अगली मंजिल थी आगे चल कर लिखी गई महान कृति, इंग्लैंड में श्रमिक वर्ग की स्थिति। यह कृति, श्रमिक वर्ग के जीवन का पहला समाजशास्त्रीय अध्ययन तो था ही, वल्कि किसी जन-समुदाय विशेष के जीवन का क्षेत्र-सर्वेक्षण द्वारा अध्ययन के शुरुआती निदर्शनों में से एक था।

ऊपर की पंक्तियों में एंगेल्स के नियमित लेखन-कर्म का जिक्र है। फिर भी, दिसम्बर 1842 में राइनिशे ज़ाइटुंग में छपे आलेख के बाद अगला आलेख मई 1843 में ज्युरिख से प्रकाशित जर्मन पत्रिका श्वेइज़रिखेर रिपब्लिकनेर में छपा। यानि, पाँच महीने तक उनका लेखन-कर्म स्थगित रहा। राइनिशे ज़ाइटुंग बन्द हो जाने के बाद नई पत्रिका ढूंढ़ने की बात तो थी ही, पर मुख्यत: इन पाँच महीनों में एंगेल्स मैंचेस्टर के श्रमिक-बस्तियों में घूम घूम कर जमीनी हकीकत को जानने और दर्ज करने में व्यस्त रहे।   

सर्वहारा के जीवन के इस नजदीकी अध्ययन के क्रम में ही एंगेल्स के जीवन में भी एक नये रिश्ते की शुरुआत हुई।

नवम्बर 1842 से एंगेल्स के लेख लगातार राइनिशे ज़ाइटुंग में छपते रहे। और जनवरी 1843 में प्रशियाई सरकार ने उस पत्रिका का प्रकाशन बन्द करवाने का फैसला ले लिया। अप्रैल 1843 तक मार्क्स को पत्रिका के मुख्य सम्पादक के पद से हटने के लिये बाध्य किया गया। उनका जीना भी दूभर कर दिया गया; वह कोलोन छोड़ दूसरे शहर में चले गये। इधर मैंचेस्टर में भी एंगेल्स के पीछे प्रशियाई सरकार के जासूस लगे हुये थे। हर दिन वह कम्पनी के दफ्तर जाते थे। कम्पनी के दो मालिक-परिवारों में से एक का सदस्य होने के कारण शाम को कई सारी पूंजीवादी सामाजिकतायें भी निभानी पड़ती थी। फिर भी, जहाँ तक हो सके उन सामाजिकताओं को टालते हुये वह श्रमिक बस्तियों में घूमने, उनके घरों में जाने, उनसे बातचीत करने का समय निकाल लेते थे। और इसी काम में उनकी मददगार बनी आइरिश श्रमिक-परिवार की एक युवती, मेरी बर्न्स।

मेरी बर्न्स मैंचेस्टर के ही सैल्सफोर्ड इलाके में अपने पिता माइकल बर्न्स, माँ, मेरी कॉनरॉय एवं छोटी बहन लिडिया के साथ रहती थी। अनुमान लगाया जाता है कि मेरी, एंगेल्स की ही कम्पनी के मिल में ही काम करती थी। बाद के शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि मेरी की जीवित माँ सौतेली माँ थी (अपनी माँ सन 1835 में ही चल बसी थी) और इस कारण से मेरी और लीडिया अलग रहने लगी थी। साथ ही, उनका यह अनुमान है कि मिल में काम करने वाली लड़की को इतना फुरसत मिलने का सवाल ही नहीं था। इसलिये, उनका कहना हुआ कि मेरी और लीडिया घरेलु नौकरानी के तौर पर काम करती थी। जो भी हो, मेरी और लीडिया सिर्फ आइरिश परिवार से नहीं थी, बल्कि आइरिश राष्ट्रीयता से जुड़े सवालों पर खुलेआम बोलने वाली लड़की थी। साथ ही, मैंचेस्टर में उस समय बड़ी संख्या में आइरिश मज़दूर रहते थे – ‘लिट्ल आयरलैंड’ नाम का वह कुख्यात इलाका गरीबी और बदहाली की अंतिम छोर पर हुआ करता था।

भले ही मुलाकात मिल में कामकाज के दौरान हुई हो या घरेलु नौकरानी ढूंढ़ने के क्रम में, यही कारण भी रहा होगा मेरी का, एंगेल्स के नजर में आने का, क्योंकि, पूरे योरप के राजनीतिक विकासक्रम पर पैनी नज़र रखने वाले एंगेल्स के लिये आइरिश राष्ट्रीयता का सवाल काफी महत्व रखता था। साथ ही, इंग्लैंड में श्रमिकों के शोषण पर तो वह काम ही कर रहे थे। मेरी बर्न्स के साथ हुई मित्रता के कारण एंगेल्स के लिये श्रमिक परिवारों के बीच पहुँचना, उनसे बातचीत कर यथार्थ को जानना आसान हो गया। नहीं तो, अकेले जाने पर वे इस युवा मिल-मालिक को सन्देह की दृष्टि से देखते और शायद उस तरह नहीं खुलते जितना मेरी की उपस्थिति में वे खुले। श्रमिक परिवारों से बातचीत करने के लिये देर शाम या रात को उनके बीच होना जरूरी था। इस काम में भी मेरी ने मदद की। वह जानती थीं कि फ्रेडरिक उन्हे अपने औपचारिक आवास में रख नहीं पायेंगे। रखने पर कम्पनी का दूसरा हिस्सेदार, एर्मेन, शोर मचायेगा, जर्मनी खबर दी जायेगी और फ्रेडरिक वहाँ से हटा दिये जायेंगे। एर्मेन को बिल्कुल पसन्द नहीं था दूसरे हिस्सेदार के बेटे की दखलन्दाजी। दूसरी ओर, पूंजीवादी समाज में घूमने-फिरने, हॉल ऑफ साइंस में जाकर पूंजीवादी बुद्धिजीवी एवं समाजवादियों से मिलने के लिये एक औपचारिक डेरे का होना जरूरी था। इसलिये, मित्र व प्रेमी फ्रेडरिक के पुस्तक-लेखन के आवश्यकतानुसार, श्रमिकों के विभिन्न मुहल्लों में मेरी किराये पर घर लेती रही जिसमें वह और लिडिया रहती थी। जब-तब फ्रेडरिक वहाँ चले आते थे रहने के लिये। आगे चल कर जब मेरी बर्न्स एंगेल्स की जीवन-संगिनी बनी एवं आजीवन उनके साथ रही, तब भी इसी तरह दोहरे आवासों का सिलसिला जारी रहा। लेकिन वह कहानी बाद में।

मैंचेस्टर में बिताए गए इन दो वर्षों में एंगेल्स के अध्ययन, लेखन व सम्बन्धित सक्रियता का दूसरा पहलू था, पूंजीवाद का राजनीतिक-अर्थशास्त्रीय अध्ययन; जिसके फलस्वरूप सन 1843 के अक्तूबर-नवम्बर महीने में उन्होने एक बड़ा आलेख तैयार किया, राजनीतिक अर्थशास्त्र के आलोचना की रूपरेखा, जो 1844 में डॉयेश-फ्रांज़ोइश जाह्रबुखर में प्रकाशित हुआ। वस्तुत:, इस आलेख को पढ़ने के बाद ही खुद मार्क्स ने पूंजीवाद के राजनीतिक-अर्थशास्त्रीय अध्ययन के महत्व को एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया। आगे उसी काम में अपने जीवन के पचीस वर्ष लगाये जिसके फलस्वरूप दुनिया के मजदूरवर्ग को ज्ञान का वह हथियार हासिल हुआ -पूंजी – जिसे आज भी नकारते रहने की विफल कोशिश में पूंजीवादी वुद्धिजीवियों के वित्तपोषक लगे रहते हैं।   

पाठकों को चमत्कृत कर देने वाली अन्तर्दृष्टि के कारण इस आलेख को काफी प्रशंसा तो मिली ही, मार्क्स इस आलेख को पढ़ने के बाद एक संक्षिप्तसार तैयार किये जो उनके नोटबुक से रचनासमग्र में प्रकाशित किया गया। मार्क्स उस वक्त पैरिस चले गये थे। बाद में सन 1859 में प्रकाशित अपनी प्रख्यात कृति, राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान के पहले संस्करण के आमुख में मार्क्स ने एंगेल्स के उस आलेख का जिक्र करते हुये कहा, “आर्थिक पारिभाषिक शब्दावलियों की आलोचना पर एक प्रतिभावान आलेख”।

एक ऐतिहासिक मित्रता की शुरुआत

 ‘एर्मेन ऐन्ड एंगेल्स’ के सूत-कारखाने में वाणिज्य एवं प्रबंधन का प्रशिक्षण दो वर्षों में समाप्त हो गया। एंगेल्स को जानकारी थी कि मार्क्स पैरिस में हैं। इसलिये घर लौटने के क्रम में वह पैरिस चले गये। पिछले दो वर्षों में एंगेल्स के सारे प्रकाशित आलेख व प्रतिवेदन मार्क्स पढ़ चुके थे। मार्क्स के भी प्रकाशित लेख एंगेल्स पढ़ चुके थे। एक दूसरे के बारे में भ्रांतियाँ मिट गई थी। बल्कि दोनों एक दूसरे की सामाजिक-राजनीतिक व दार्शनिक अन्तर्दृष्टि के प्रशंसक बन चुके थे। दिनांक 28 अगस्त 1844 को हुई इस मुलाकात में वह ऐतिहासिक मित्रता बनी, दुनिया का श्रमिक वर्ग जिसका ॠणी है।

लेनिन कहते हैं:

“पुरानी दन्तकथाओं में मित्रता के कई मार्मिक उदाहरण हैं। योरोपीय सर्वहारा कह सकता है कि उसके विज्ञान का सृजन दो ऐसे विद्वानों एवं योद्धाओं द्वारा किया गया है जिनका एक दूसरे के साथ सम्बन्ध, मानव-मित्रता को लेकर प्राचीनों के अधिकतर मार्मिक कहानियों को पार कर जाता है।”

सन 1843 की गर्मियों में मार्क्स का विवाह, अपनी मंगेतर जेनी वॉन वेस्टफैलेन से हो चुका था। विकिपिडिया दर्ज करता है कि जेनी खुद भी एक राजनीतिक कार्यकर्ता एवं नाट्य समीक्षक थी। मई महीने में उनकी पहली बेटी का जन्म भी हो चुका था।। एंगेल्स भी सन 1843 की शुरुआत में सैलफोर्ड की जुझारू आइरिश श्रमिक मेरी बर्न्स के साथ प्रेम-सम्बन्धों में बंध चुके थे।

दोनों अपनी पुरानी युवा हेगेलियन वैचारिक जड़ों से काफी आगे निकल चुके थे। एंगेल्स के साथ थी उनकी महान कृति, इंग्लैंड में श्रमिक वर्ग की स्थिति की पाण्डुलिपि, जिसे पढ़ कर मार्क्स मन्त्रमुग्ध हो गये। मार्क्स के पास थे हेगेल के विधिदर्शन की आलोचना में योगदान की पाण्डुलिपि एवं हाल के, उनके आर्थिक व दार्शनिक अध्ययन के बिखरे पन्नों का एक पूरा समूह जिसकी जानकारी दुनिया को बहुत आगे चल कर, बल्कि उन दोनों के निधन के बाद मिली जब सोवियत संघ ने उन्हे सन 1844 की आर्थिक व दार्शनिक पाण्डुलिपियाँ के नाम से प्रकाशित किया। हेगेल के विधिदर्शन की आलोचना में योगदान भी सन 1927 में जा कर प्रकाशित हुआ।

वैसे, प्रकाशित आलेखों, प्रतिवेदनों एवं अन्य लेखनों के माध्यम से दोनों जान रहे थे कि उनकी समझदारी में बहुत कुछ समान है, जैसे, सामाजिक क्रांति के सन्दर्भ में सिद्धांतों का वर्गों के भौतिक हितों से रिश्ता, व्यवस्था की आलोचना का वास्तविक संघर्षों के साथ रिश्ता, चेतना का व्यवहार के साथ रिश्ता एवं मानव परिचय एवं सम्बन्धों का यथार्थ भौतिकता में होना आदि। मुख्य सवाल दुनिया की व्याख्या का नहीं बल्कि बदलने का है, यह सच्चाई भी मार्क्स के लेखन में उसी समय कुछ अलग भाषा में दर्ज हो गया था। धर्म के बारे में मार्क्स का जो कथन हम पिछले सौ वर्षों से उद्धृत करते आ रहे हैं, वह भी इसी समय के लेखन का है।

दूसरी ओर, मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की पारिभाषिक शब्दावलियों में से बहुत सारी – उपयोगिता मूल्य एवं विनिमय मूल्य, मुनाफा, वेतन, कीमतें एवं मूल्य, मुद्रा का पूंजीरूप में चलन, औद्योगिक पूंजी एवं व्यापारिक पूंजी आदि – एंगेल्स शुरुआती रूप में जुटा चुके थे। मार्क्स ने उन शब्दावलियों का इस्तेमाल कर उन्हे औ स्पष्ट कर रहे थे अपने जारी काम में, जो बाद में चल कर सन 1844 की आर्थिक व दार्शनिक पाण्डुलिपियाँ के नाम से प्रकाशित हुआ।

उद्देश्य दोनों का एक था। जर्मनी में, और साथ ही साथ पूरे योरप में क्रांतिकारी शक्तियों की तलाश, उन्हे वैचारिक हथियार मुहैया कराना एवं उन्हे संगठित करना। पर इसके लिये उन्हे अपने खुद से चल रही लड़ाई को पूरी करनी थी। यानि, युवा हेगेलियनों की वर्तमान स्थिति पर कलम उठाना था। जर्मनी में उस वक्त युवा हेगेलियनों के प्रमुखतम नेता थे ब्रुनो बाउअर। तो तय हुआ कि मार्क्स-एंगेल्स की जोड़ी की पहली संयुक्त रचना ब्रुनो बाउअर एवं उनके सहयोगियों की उस प्रवृत्ति के खिलाफ होगी, जिसके तहत वे दिखायेंगे कि, “जर्मनी में वास्तविक मानवतावाद का सबसे खतरनाक दुशमन है आध्यात्मिकतावाद या चिन्तनशील भाववाद, जो वास्तविक व्यक्ति मनुष्य के बदले ‘आत्मचेतना’ या ‘आत्मा’ को खड़ा करता है ”।

दोनों मित्र ने काम आपस में बाँट लिया। पुस्तक का प्राक्कथन दोनों ने साथ मिल कर लिखा एवं हस्ताक्षरित किया। एंगेल्स के हिस्से में थे शुरू के दो-चार अध्याय एवं और कुछ हिस्से जो उन्होने पैरिस में रहते रहते लिख डाले। बाकी पुस्तक मार्क्स को पूरा करना था जो उन्होने एंगेल्स के चले जाने के बाद अगले महीने में पूरा किया। सन 1845 इस पुस्तक का प्रकाशन हुआ। प्रकाशक के सुझाव पर अन्तिम नामकरण हुआ, पवित्र परिवार, या आलोचनात्मक आलोचना की आलोचना

गौरतलब है कि इसी पुस्तक में उन्होने हेगेल की भाववादी दार्शनिक प्रणाली की सम्यक आलोचना की एवं उनकी द्वंदात्मक पद्धति की तारीफ, जिसे भौतिकतावादी दृष्टि के विकास के लिये उपयोग किया जा सकता था। दूसरी ओर, इसी आलोचना के क्रम में उनका ध्यान फायरबाख के भौतिकतावाद के प्रति आकर्षित हुआ। फायरबाख के दर्शन का मार्क्स एवं उन पर पड़े प्रभाव को याद करते हुये एंगेल्स ने बाद में लिखा: ‘पवित्र परिवार में पढ़ा जा सकता है कि कितने उत्साह के साथ मार्क्स ने नई अवधारणा का स्वागत किया और – तमाम आलोचनात्मक आपत्तियों के बावजूद – कितना वह इससे प्रभावित हुये’।”

सर्वहारा को क्रांतिकारी शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने में पवित्र परिवार की भूमिका के बारे में लेनिन ने लिखा, “ये महाशयगण, बाउअरबंधु, सर्वहारा को सीधेसाधे जनसमुदाय के रूप में देखते थे। मार्क्स और एंगेल्स ने इस बेतुकी और हानिकारक प्रवृत्ति का जोरदार विरोध किया। श्रमिक - शासक वर्गों एवं राज्यसत्ता के द्वारा कुचले गये एक वास्तविक, मानवीय व्यक्ति - के नाम पर उन्होने चिन्तन नहीं, समाज की बेहतर व्यवस्था के लिये संघर्ष की मांग की। निस्सन्देह वे मानते थे कि सर्वहारा इस संघर्ष को चलाने में सक्षम भी है और उसे दिलचस्पी भी है।”

इस पुस्तक में दोनों ने स्पष्टत: उस वर्ग को स्थापित किया जो उपरोक्त (पवित्र परिवार के प्राक्क्थन में कहे गये) वास्तविक मानवतावाद का वाहक सामाजिक वर्ग होगा एवं क्रांति के सिद्धांत से लैस होकर भौतिक शक्ति बन जायेगा। लेकिन उसके पहले भी उस वर्ग के पास दोनों मित्र दो तरीके से पहुँच चुके थे। मार्क्स, राज्यसत्ता और धर्म की आलोचना के द्वन्दात्मक विश्लेषण के द्वारा और एंगेल्स सामाजिक वर्गों के अभ्युदय के इतिहास के भौतिकतावादी विश्लेषण के द्वारा! यह प्रसंग दोनों मित्र के काम की भिन्नता एवं परिपूरकता को दर्शाता है।

जनवरी 1844 में लिखित एवं डॉयेश-फ्राज़ोइशे जाह्रबुखर में प्रकाशित हेगेल के विधिदर्शन की आलोचना में योगदान: भूमिका में मार्क्स जर्मन मुक्ति की सकारात्मक सम्भावना पर कहते हैं कि: “[सकारात्मक संभावना] एक ऐसे वर्ग के गठन में है जिसकी जंजीरें सर्वात्मक हैं, नागरिक समाज का एक ऐसा वर्ग जो नागरिक समाज का वर्ग नहीं है, … एक ऐसा सामाजिक वर्ग जिसका सर्वजनीन कष्ट ही उसका सर्वजनीन चरित्र है … जो समाज के दूसरे सभी सामाजिक वर्गों से खुद को मुक्त किये बगैर एवं फलस्वरूप दूसरे सभी सामाजिक वर्गों को मुक्त किये बगैर अपनी मुक्ति हासिल नहीं कर सकता है … एक विशेष सामाजिक अवस्था के रूप में समाज का यह विघटन है सर्वहारा ।”

दूसरी ओर फरवरी 1844 में लिखित एवं उसी वर्ष अगस्त-सितम्बर में वोरवार्ट्स! में प्रकाशित इंग्लैंड की स्थिति - । में एंगेल्स लिखते हैं: “इंग्लैंड के लिये अट्ठारहवीं सदी का सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव था औद्योगिक क्रांति के द्वारा सृजित सर्वहारा। नया उद्योग की मांग थी उत्पादन की असंख्य नई शाखाओं के लिये श्रमिक जनों की निरंतर उपलब्धता, ऐसे श्रमिक जो पहले अस्तित्व में थे ही नहीं। … कारखाना-उत्पादन एवं कृषिज गतिविधियों को जोड़ना असम्भव हो गया और नया श्रमिक वर्ग पूरी तरह अपने श्रम पर निर्भर हो गया। … इस पूरे विकासक्रम का परिणाम है इंग्लैंड अब तीन दलों में बँटा है – भूमि-जात अभिजाततंत्र, धन-जात अभिजाततंत्र एवं श्रमिक-वर्गीय जनतंत्र। …”

[शब्द पर जोर हमारा]

सोवियत संघ द्वारा सन 1974 में प्रकाशित एंगेल्स की जीवनी ने लिखा:

“सन 1844 के अगस्त महीने के आखरी दिनों में एंगेल्स सँ जर्मां मुहल्ले में 38, रुवे वैन्यो में स्थित मार्क्स के पैरिसीय आवास में आये।

“दिखने में एक दूसरे से अधिक भिन्न नहीं हुआ जा सकता था। एंगेल्स थे भूरे बालों वाले, लम्बे, गठी हुई कद काठी, फौजी जैसा आचरण एवं संयमित अंगेज शिष्टाचार वाले। मार्क्स थे नाटे, ऊर्जावान, फुर्तीला, भेदती नज़र और सिंह के केसर की तरह फैले कोयले जैसे काले बालों वाले। दोनों के अपने तरीके थे काम करने के। लेकिन दोनों के बीच बौद्धिकता के नाते थे, समान निष्ठा एवं हृदय की शुद्धता थी, साहस एवं धैर्य की आत्मीयता थी। दोनों साथ आये क्योंकि दोनो प्रत्ययी कम्युनिस्ट थे, ऊर्जावान एवं दृढ़संकल्प क्रांतिकारी थे।

“पैरिस में दस दिनों तक, एंगेल्स मार्क्स से अलग नहीं हुये; सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक समस्याओं पर बातें करते रहे। बाद में एंगेल्स ने याद करते हुये लिखा, ‘सभी सैद्धांतिक क्षेत्रों में हमारी सम्पूर्ण सहमति स्पष्ट हुई और हमारा संयुक्त काम उसी समय से शुरू हुआ।’ मार्क्स के साथ हुई मित्रता की खुशी ने एंगेल्स के पैरिस में बिताये हुये दिनों को रंगीन बना दिया। बार्मेन लौटने के बाद उन्होने मार्क्स को लिखा, ‘तुम्हारे साथ बिताये दस दिन मैं जितना खुश एवं मानवीय भाव में था, फिर वैसा हो नहीं पाया’।”

दशकों बाद एंगेल्स ने फिर से इस मित्रता को यूँ याद किया:

मैंचेस्टर में रहते हुये मेरे सामने यह स्पष्ट हो चुका था कि आर्थिक तथ्य, जिनकी अब तक के इतिहासलेखन में या तो कोई भूमिका नहीं थी या नितांत उपेक्षणीय भूमिका थी, कम से कम आधुनिक दुनिया में एक निर्णायक ऐतिहासिक शक्ति हैं। वे आज के वर्गीय शत्रुताओं के उदय का आधार हैं। और ये वर्ग-शत्रुतायें ही राजनीतिक दलों के, दलों के बीच संघर्षों के और इस तरह पूरे राजनीतिक इतिहास के गठन के आधार बनती हैं उन देशों में जहाँ वड़े उद्योगों के आविर्भाव के कारण - खास कर इंग्लैंड में – ये पूरी तरह विकसित हो चुकी हैं। मार्क्स भी, न सिर्फ इसी मत तक पहुँच चुके थे, बल्कि ड्युश-फ्रांज़ोइशे जाह्रबुखेर (1844) में इस मत को यूँ सामान्यिकृत किया था कि राज्यसत्ता नागरिक समाज को बिल्कुल ही अनुकूलित और नियंत्रित नहीं करती है, नागरिक समाज ही राज्यसत्ता को अनुकूलित और नियंत्रित करती है। फलस्वरूप, नीतियों एवं उनके इतिहास की व्याख्या, आर्थिक सम्बन्धों एवं उनके विकास के द्वारा करनी होगी न कि विपरीत। जब मैं सन 1844 की गर्मियों में पैरिस में मार्क्स से मिला, सभी सैद्धांतिक क्षेत्रों में हमारा पूर्ण ऐक्य स्पष्ट हो गया एवं हमारा संयुक्त काम उसी समय से शुरू हो गया। जब सन 1845 के बसंत में हम फिर ब्रसेल्स में मिले, उपर जिक्र किये गये बुनियादों से मार्क्स इतिहास की भौतिकतावादी धारणा एवं उसकी मुख्य विशेषताओं को पूरी तरह विकसित कर चुके थे। अब हमने इस नई उपलब्ध दृष्टि का विशद विस्तार विभिन्न दिशाओं में करने में खुद को नियोजित किया।” [एंगेल्स रचित ‘कम्युनिस्ट लीग के इतिहास पर’]

सभा में पहला भाषण और घिसी ‘पारिवारिकता’ से मुक्ति

द्स दिन पैरिस में मार्क्स के साथ रहने के बाद एंगेल्स बार्मेन लौट चले। लेकिन सीधा नहीं, रास्ते में पड़ते योरप के दो-चार शहर होते हुये। सभी जगहों पर उन्होने पुराने मित्रों एवं समाजवादियों से भेँट-मुलाकात की एवं बहुत उत्साहित हुये कि पिछले दो वर्षों के उनके प्रवास के दौरान साम्यवादी, समाजवादी (तत्कालीन) विचारों के अनुयायी बढ़ते गये हैं ।

बार्मेन उनका घर था। एक अमीर पूंजीपति परिवार के संतान के रूप में वह जाने जाते थे एवं उसी के अनुरूप बार्मेन-वुपर्टल के पूंजीवादी नागरिक समाज में उनका मान भी था। लेकिन वहाँ भी वह उसी काम में लग गये – लोगों के बीच इंग्लैंड की सामाजिक स्थिति, औद्योगीकरण, सर्वहारा एवं क्रांति के बढ़ते लक्षण एवं समाजवादी व्यवस्था की बेहतरी आदि से सम्बन्धित बातें रखना। लेकिन एक बात उन्होने गौर किया कि इंग्लैंड में जागरूक और संगठित श्रमिक वर्ग से खुल कर बात करना जितना आसान था, पिछड़े जर्मनी में श्रमिकों के करीब पहुँचना या उनसे खुल कर बात करना उतना आसान नहीं था। उन्होने एक मित्र के साथ मिल कर एक पत्रिका प्रकाशित करने की बातें सोची। लेकिन प्रशियाई सेन्सर को खतरे का आभास हो गया। अनुमति नहीं मिली। लेकिन फिर भी विभिन्न स्थानीय हलकों में प्रचार का कार्य चलता रहा।

उस समय जर्मन उद्योगपति एवं पूंजीवादियों के एक हलके में इंग्लैंड और फ्रांस के अनुरूप विभिन्न प्रकार के कल्पलोकीय समाजवाद के विचार लोकप्रिय हो रहे थे। प्रशियाई प्रशासन को भी लगा कि चलो ठीक है, लोग कम से कम सरकार गिराने की बात नहीं करेंगे, प्रजातंत्र की बात, क्रांति की बात नहीं करेंगे … परोपकार की बातें होंगी क्लबों में बैठ कर – क्या बुराई है! उसने भी नजर फेर ली। एंगेल्स को लगा कि यह मौका है। वहाँ क्लबों में और सभाघरों में पूंजीवादी लोग ईसाई धर्म के अनुसार परोपकार की बात कर रहे हैं। उनकी बहस में हिस्सा लेकर पूंजीवादी शोषण का यथार्थ बयान किया जाय। वैसा ही किया गया। फिर बात हुई कि चुँकि माहौल गरम है, यही मौका है कि सभा बुलाई जाय। सन 1845 के 8, 15 और 22 फरवरी को एल्बरफेल्ड (जहाँ किशोरावस्था में एंगेल्स ने पढ़ाई की थी एवं हॉस्टल में रहते थे) में तीन सभायें हुई। सोवियत संघ से प्रकाशित जीवनी कहती है कि पहली बैठक में 40, दूसरे में 130 एवं तीसरे में 200 लोगों की उपस्थिति हुई। इनमें से एक भी सर्वहारा नहीं थे बल्कि भाँति भाँति के पूंजीवादी एवं मध्यवर्गीय थे। एंगेल्स ने पहली बार किसी सभा में भाषण दिया। एक दिन नही दो दिन। पहले भाषण में उन्होने इंग्लैंड की स्थितियों का ज्यादा उदाहरण दिया तो श्रोताओं ने अगले दिन जर्मनी की स्थिति के बारे में चर्चा करने को कहा। उन्होने वही किया। साथ ही साम्यवाद के लाभों पर खुल कर चर्चा की। यह भी कहा कि जो सिद्धांत यथार्थ को छोड़ देता है उसकी जड़ें कोरी कल्पना में होती हैं। स्वाभाविक है कि इसका बहुत अच्छा प्रभाव उनके मन पर पड़ा। मार्क्स को पत्र में उन्होने लिखा, “गज़ब की सफलता मिली … ‘मन की आँखों’ में दिखती अमूर्त्त जनता के लिये अभागे अमूर्त्त लेखन से बिल्कुल ही भिन्न है वास्तविक, सांस लेते हुए लोगों के सामने खड़ा होना, सीधा, छूने की दूरी से खुलेआम उनके बीच प्रचार करना –।” दूसरी ओर प्रशियाई खुफिया माध्यमों में खबरें फैल गई। एंगेल्स एवं उनके साथियों को सावधान कर दिया गया। अगले कदम पर गिरफ्तारी थी। अन्तत: इसी बात ने एंगेल्स की मदद की।

बार्मेन आने के बाद से ही पिता से रोज झगड़ा होता था, रोज सोचते थे कि निकल चलें लेकिन माँ को देखते हुये चुप हो जाते थे। एंगेल्स ने मार्क्स को लिखा, “यह, सभाओं से मेरे ताल्लुकात और हमारे जिन स्थानीय कम्युनिस्टों के साथ मैं घूमता फिरता हूँ उनमें से कुछ के ‘स्वच्छन्द’ आचरण ने मेरे पिता के धार्मिक कट्टरता को जगा दिया है। और मेरा यह कहना कि किसी भी हालत में मैं बनियागिरि में वापस नहीं जाऊंगा, और भी आगबबूला कर दिया है उन्हे।” उनके पिता उन पर सोते, जागते, हर वक्त नज़र रखते थे, जो चिट्ठियाँ आती थी एंगेल्स के नाम उन्हे पढ़ते थे और हमेशा तिरस्कार भरी नज़रों से एंगेल्स को देखते रहते थे। इससे एंगेल्स का मन और क्षुब्ध हो उठता था।

सिर्फ माँ के मन को राहत देने के लिये, क्योंकि वह बाप-बेटे के झगड़े को दिल पर ले लेती थी, एंगेल्स पन्द्रह दिनों तक पिता के कारखाने में भी गये। लेकिन मन भिन्ना उठा उनका। “…सिर्फ पूंजीवादी नहीं बल्कि एक कारखानेदार बनना, एक ऐसा पूंजीवादी जो खुद सक्रिय रूप से सर्वहारा का विरोध करता है! … भयानक है!” एंगेल्स ने सरल भाव में लिखा।

जब तक बाहर रहते थे, अपनी ईच्छा के अनुसार लोगों से मिलना, जुलना, बातचीत आदि चलता रहता था। लेकिन घर में, पिता की तिरस्कारपूर्ण दृष्टि के सामने बेस्वाद जीवन जीते हुये बस एक ही सुकून का काम होता था – इंग्लैंड में श्रमिकवर्ग की स्थिति पर काम करना, “मुझे लगता है कि अगर प्रति दिन अपने पुस्तक में अंग्रेज समाज की डरा देने वाली कहानियाँ मुझे दर्ज करनी नहीं होती, मैं अब तक थोड़ा सड़ चुका होता; लेकिन यह काम कम से कम मेरे खून में क्रोध का उबाल बनाये रखता है।” उसी पत्र में आगे हैं ये पंक्तियाँ।

इसी बीच खबर मिली कि राजनीतिक गतिविधियों के कारण एवं प्रशियाई सरकार के दबाव पर मार्क्स को फ्रांस की सरकार ने पैरिस से निकाल दिया है। मार्क्स, सपरिवार ब्रसेल्स चले गये हैं। एंगेल्स ने तुरन्त संभावित मददकर्ताओं की सूची बना कर सभी को पत्र भेजा। स्थानीय तौर पर आर्थिक मदद इकट्ठा किया एवं अपने हिस्से को जोड़ते हुये मार्क्स तक पहुँचाने का इंतजाम किया।

अन्तत: बाप-बेटे की लड़ाई में पुलिस ने एंगेल्स की ‘मदद’ की। रोजमर्रे की गतिविधियाँ, भाषण, सरकार-की-नज़र-में-खतरनाक लोगों से मेलजोल आदि ने एंगेल्स की गिरफ्तारी को अवश्यम्भावी बना दिया। बार्मेन में गिरफ्तारी होने से उनके पिता और परिवार की प्रतिष्ठा पर जबरदस्त आँच आती। एंगेल्स को भी अभी गिरफ्तारी से बचना था। बहुत सारे काम थे हाथ में, अकेले करने के लिये और मार्क्स के साथ भी। इसलिये एंगेल्स ने जब घर पर ब्रसेल्स (बेल्जियम) जाने की घोषणा की तो पिता विरोध नहीं कर पाये।

ईंग्लैंड में श्रमिक वर्ग की स्थिति

हमने देखा कि किस तरह की विषम परिस्थितियों में एंगेल्स बार्मेन में जी रहे थे। घर पर सुबह-शाम पिता की तिरस्कारपूर्ण दृष्टि, बेटे के लिये आते हुये हर संदेश, हर चिट्ठी, हर पत्रिका पर खोजी निगाह, माँ का असहाय और कातर चेहरा – ऊपर से घर में एक नया कोहराम मचा कि एंगेल्स की एक बहन ने ऐसे व्यक्ति के साथ विवाह रचाने का फैसला ले लिया जिसके बारे में पता चला कि वह भी एक साम्यवादी है! पूरे शहर में एंगेल्स की गतिविधियाँ स्थानीय सरकारी जासूसों की निगरानी में थी। इन्ही परेशानियों के बीच महीनों बैठ कर, “कंठ तक किताबों के ढेर में डूबे” एंगेल्स, इंग्लैंड में श्रमिकवर्ग की स्थिति की पाण्डुलिपि तैयार करते रहे। सामने फैले रहते थे मैंचेस्टर या आसपास मेरी के साथ या अकेले घूमते हुये, या किसी श्रमिक परिवार के घर पर लिये गये नोट्स, अन्य कागजात।

अन्तत: पाण्डुलिपि तैयार हुई। मूल पाण्डुलिपि के साथ एंगेल्स ने ईंग्लैंड के श्रमिक वर्ग के नाम एक समर्पण-पत्र लिखा जिस पर 15 मार्च 1845 की तारीख अंकित है। सन 1845 के अप्रैल में यह महान ग्रंथ जर्मन भाषा में लाइपज़िग से छपा।

पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में श्रमिक वर्ग के भयावह अमानवीय शोषण के जो दिल दहलाने वाले चित्र 300 से कुछ अधिक पृष्ठों के इस ग्रंथ में प्रस्तुत किये गये, वे चित्र पूंजीवाद या तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था के प्रति उदासीन रहने वाले चिन्तकों और बुद्धिजीवियों को हिला कर रख दिया। पूंजीवादी बुद्धिजीवियों को तो यह तिलमिला दिया और वे तुरन्त, पूंजीवाद के खात्मे की, इस ग्रंथ में की गई भविष्यवाणियों का काट ढूंढ़ने में जुट गये। साथ ही समाज में एक नये वर्ग के अभ्युदय को उनके सामने उजागर कर दिया यह ग्रंथ। अब समाज परिवर्तन की बात अमूर्त सदिच्छा नहीं, बल्कि एक प्रबल ताकतवर सामाजिक वर्ग द्वारा अपनी गुलामी की जंजीरों के भविष्य में तोड़े जाने की गूंज बन गई।

जैसा कि खुद एंगेल्स ग्रंथ के आमुख में कहते हैं:

श्रमिक-वर्ग की स्थिति वर्तमान समय के सभी सामाजिक आन्दोलनों का वास्तविक आधार एवं प्रस्थान-विंदु है क्योंकि यह, आज के दिन मौजूद सामाजिक दुर्गति का उच्चतम व स्पष्ट शिखर है … एक तरफ, समाजवादी सिद्धान्तों को ठोस जमीन देनें के लिये तथा उनके वजूद में होने के अधिकार पर राय बनाने के लिये, तो दूसरी तरफ, पक्ष में या विपक्ष में तमाम भावुकतापूर्ण सपने एवं कल्पनाओं को खत्म करने के लिये सर्वहारा की स्थितियों का ज्ञान नितांत आवश्यक है ।”

आगे एंगेल्स यह भी स्पष्ट करते हैं कि इंग्लैंड में ही यह अध्ययन क्यों। क्योंकि, इंग्लैंड में ही श्रमिकवर्ग की स्थिति शास्त्रीय रूप में मौजूद है। साथ ही, इंग्लैंड में ही इन स्थितियों की आधिकारिक जाँच किये गये हैं एवं आवश्यक सामग्रियाँ इकट्ठी की गई हैं जो इस तरह के अध्ययन के लिये अत्यंत जरूरी है।

वास्तविक स्थितियों का गहन अध्ययन होने के साथ साथ, इस ग्रंथ में पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली की कई सामान्य विशेषताओ पर पहली बार गौर किया गया – जैसे, आर्थिक संकटों का नियमित चक्र, बेरोजगारों की फौज की नियमित मौजूदगी, उत्पादन के विस्तार के साथ साथ शोषण का गहन होता जाना इत्यादि।

मार्क्स तो इस शोध-ग्रंथ के नोट्स पैरिस में ही सुन चुके थे। छपने के बाद जब इस ग्रंथ को स्वीकृति मिली तो वह बहुत प्रसन्न हुये। इस ग्रंथ में उद्धृत किये गये अंग्रेज सरकार के आधिकारिक जाँच प्रतिवेदन एवं सामग्रियाँ मार्क्स को रास्ते बताये जब वह खुद पूंजी की रचना के लिये प्रति दिन ब्रिटिश म्युजियम जाने लगे। पूंजी के पहले खण्ड के प्रकाशन के बाद भी फिर से उन्होने इस कृति को पढ़ा। सन 1863 के 18 अप्रैल को लिखी गई मार्क्स की एक चिट्ठी मिलती है जिसमें वह एंगेल्स को कहते हैं: “आज भी दिखता है कि कितनी ताजगी और जुनून के साथ, दृष्टि की कितनी साहसिकता के साथ तथा विद्वता व वैज्ञानिकता के रुकावटों के बिना इन पृष्ठों में विषय को गिरफ्त में किया गया है!”  

बेशक इस पुस्तक में कुछ ऐसी उम्मीद की बातें भी उत्साह के साथ लिखी गई थीं जो पूरी नहीं हुई। अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत का तब तक आविष्कार नहीं हुआ था इसलिये पूंजीवादी शोषण का पूरा सच उजागर नहीं हो पाया था। फिर भी, अपनी दूरदृष्टि के कारण एंगेल्स ने इस ग्रंथ में भविष्यवाणी की कि पूंजीवाद में हुये उत्पादक शक्तियों का तुमुल विकास एक दिन खुद पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के खिलाफ खड़ा हो जायेगा। क्रांति सर्वहारा ही लायेगी और वह क्रांति समाजवादी होगी।

सोवियत संघ से सन 1974 में प्रकाशित एंगेल्स की जीवनी में, जर्मन श्रमिक वर्ग के तत्कालीन सबसे महत्वपूर्ण कवि माने जाने वाले जॉर्ज वीर्थ का जिक्र है। कुछ दिनों बाद जब बार्मेन छोड़ कर ब्रसेल्स चले गये तो जॉर्ज वीर्थ, जुलाई 1845 में उनसे मिलने आये थे। एंगेल्स के लेखन से, व्यक्तित्व से, वह इतने गहन रूप से प्रभावित हुये कि उत्साह से भरपूर होकर अपनी माँ को उन्होने लिखा, “सम्पत्तिवाले भद्रमहाशयगण सावधान हो जायें। जनता की ताकतवर भुजायें हमारे साथ हैं और सभी राष्ट्रों के सबसे अच्चे दिमाग धीरे धीरे हमारे साथ आ रहे हैं। उदाहरण के तौर पर, मेरे बहुत प्रिय मित्र, बार्मेन के फ्रेडरिक एंगेल्स ने अंग्रेज श्रमिकों के बारे में एक किताब लिखी है और उसमें, डरावने ढंग से लेकिन सही उसने कारखानेदारों पर कोड़े बरसाये हैं। उसके अपने पिता के कारखाने हैं इंग्लैंड और जर्मनी में। अब अपने परिवार के साथ उसका तीव्र मतभेद है। उसे ईश्वरहीन एवं शैतान समझा जाता है… लेकिन मैं उस बेटे को जानता हूँ। वह देवता जैसा दयालु आदमी है। असाधारण बुद्धिमत्ता है उसकी एवं पैनी दृष्टि है। दिन रात पूरी ताकत से वह श्रमिक वर्ग की भलाई के लिये लड़ता है।”       

ऐतिहासिक भौतिकताबाद की मूल स्थापनाओं का जन्म

ब्रसेल्स में उन दिनों देश-निकाले जर्मन क्रांतिकारियों का बड़ा जमावड़ा हो गया था। अप्रैल 1845 में एंगेल्स ब्रसेल्स पहुँचे और कुछ ही दिनों में मार्क्स जहाँ रहते थे उसके बिल्कुल करीब का एक घर किराये पर मिल गया। इन्ही दिनों एंगेल्स मार्क्स के परिवार के घनिष्टतम मित्र बन उठे। एक साथ रह कर काम करने का इस तरह का मौका फिर उन्हे तीन साल के बाद ही मिला था, पैरिस में, 1848 की क्रांति के पहले।

एंगेल्स के दिमाग पर अब परिवार से तनावपूर्ण रिश्ते का बोझ नहीं था। बार्मेन रहते हुये वह पैत्रिक व्यवसाय से खुद को पूरी तरह अलग नहीं कर पाते थे। लेकिन अब वह बहुत हल्का महसूस कर रहे थे। ब्रसेल्स आने से एक महीना पहले वह बॉन और कोलोन घूम आये थे एवं क्रांतिकारी मित्रों से भेँट मुलाकात कर आये थे। दिमाग में बहुत सारा काम था।

ब्रसेल्स में मार्क्स से मिलते ही मार्क्स ने उन्हे इतिहास की भौतिकतावादी अवधारणा के बारे में बताया। फायरबाख पर वाद (थिसिस ऑन फायरबाख) की पाण्डुलिपि बताती है कि यह उन्ही दिनों यानि अप्रैल 1845 में लिखा गया था। एंगेल्स के जीवनीकार इस बात पर स्पष्ट नहीं हैं कि यह थिसिस मार्क्स ने एंगेल्स को उस समय दिखाया था या नहीं। लेकिन बातचीत इसी थिसिस के आधार पर हुई थी।

भौतिकता ही इतिहास बनाती है, सिद्धांत नहीं, इस बात तक पहुँचने के लिये इतिहास बनाने वालों के काम का भौतिकता के रूप में पहचान होना जरूरी था। लेकिन आम तौर पर इतिहास में अगर सामाजिक ताकतों के संघर्ष आते भी थे तो किसी परिवर्तनकामी सिद्धांत पर अमल के रूप में। तो परिवर्तन चाहने वालों का कार्यभार बन जाता था एक ऐसे सिद्धांत का प्रतिपादन, जो बाकी सिद्धांतों को परास्त कर समाज के सभी परिवर्तनकामी ताकतों को अपने पीछे लामबन्द कर लेगा। जर्मनी के युवा हेगेलियन हों या फ्रांस या इंग्लैंड के तरह तरह के समाजवादी, सब इसी में लगे हुये थे। सब अलग अलग नये नये सिद्धांतों का प्रतिपादन कर उस पर अमल करने में लगे हुये थे। जबकि, सच्चाई उल्टी थी। वास्तविक संघर्ष के दौर भौतिक कारणों से आते थे, इतिहास गवाह था इसका। सिद्धांत की कमजोरी के कारण परिवर्तन शायद वह नहीं हो पाता था जिसकी मांग संघर्षकारी ताकतें कर रही होती थी। सामाजिक, सांस्कृतिक पटल पर सकारात्मक बदलावों के अनगिनत संकेतों के बावजूद शायद राजनीतिक प्रतिक्रांति ही विजयी होती थी। जुलाई 1830 के क्रांतिकारी परिवर्तन क्या उन सर्वहारा वर्गों की मांगों के अनुरूप हुये थे जो सड़कों पर बैरिकेड बनाकर लड़ रहे थे? खुद सन 1789 की फ्रांसीसी क्रांति क्या रुशो, रोबेस्पियेरे, दाँतों या अन्य किसी के सिद्धांत के हिसाब से अग्रसर हुई थी?

तो भाववाद इन संघर्षों के अहमियत को इतिहास-निर्माणकारी कारक के रूप में स्वीकारता था – लेकिन सिद्धांत के वाहक के रूप में। जबकि तत्कालीन भौतिकतावाद भौतिकता की दुनिया को, आदमी की सत्ता से बाहर, बस ध्यानयोग्य जगत, ‘विषय’ के रूप में देखता था। और ‘विषयी’ का, खुद आदमी का काम? उसके इन्द्रियों का इस्तेमाल? इन्द्रिय-गोचर यथार्थ भौतिकता कहलायेगा और उन इन्द्रियों की सक्रियता भावात्मक यथार्थ होगी? भौतिकता नहीं कहलायेगी? काठ और कुर्सी दोनों भौतिकता होगी और बढ़ई का मेहनत? भौतिकता का वस्तुपरक पक्ष तो हुआ पर आत्मपरक पक्ष? कुछ नहीं?

फायरबाख पर वाद के पहले वाद में मार्क्स फायरबाख तक के भौतिकतावादियों की इस कमी के लिये आलोचना करते हैं और आदमी के काम को दो पारिभाषिक शब्दों के द्वारा भौतिकता में शामिल करते हैं – मानव इन्द्रियग्राह्य सक्रियता एवं व्यवहार – एवं इन्हे वस्तुपरक भौतिकता के सक्रिय पक्ष के रूप में शामिल करते हैं। इन्ही के माध्यम से विषयी भौतिकता में शामिल होता है। और कहते हैं कि यह व्यवहार क्रांतिकारी है, व्यवहारिक-आलोचनात्मक सक्रियता है।

इस वाद पर काम करते हुये मार्क्स और फिर ब्रसेल्स में बातचीत करते हुये मार्क्स और एंगेल्स दोनों, व्यवहार के महत्व को रेखांकित कर सके। व्यवहार ही सत्य की एक मात्र परख है। फायरबाख पर वाद के दूसरे ही बिन्दु में मार्क्स लिखते हैं कि “आदमी की सोच को वस्तुपरक सत्य का दर्जा दिया जा सकता है या नहीं यह सिद्धांत का प्रश्न नहीं बल्कि व्यवहारिक प्रश्न है। आदमी को अपनी सोच की सत्यता, यानि वास्तविकता और ताकत, इहलौकिकता व्यवहार में साबित करनी होगी। व्यवहार से अलग सोच की वास्तविकता या अवास्तविकता पर विवाद, विशुद्ध विद्यालयी प्रश्न है।

इसी तरह से शुरू होता हुआ फायरबाख पर वाद आगे बढ़ता है और विश्वविख्यात अंतिम वाद में दुनिया को बदलने का काम सामने रखते हुए खत्म होता है। जाहिर है कि इन्ही ‘वादों’ के अनुसार एंगेल्स ने मार्क्स की बातें सुनी होगी एवं अपनी पूर्ण सहमति जताई होगी।

यह गौरतलब है कि ये बातें दोनों मित्र जिस समय कर रहे होते हैं उस समय तक न तो डारविन का खोज सामने आया था और न मॉर्गन का। यानि, बानर से नर बनने की प्रक्रिया में श्रम की भूमिका बताते हुए तीस-चालीस साल बाद एंगेल्स ने जो सोचा, या परिवार के उद्भव पर मार्क्स ने मॉर्गन पढ़ते हुये प्रजातिगत पुनरुत्पादन के ढाँचों के बदलावों के बारे में जिस तरह सोचा, वैसा वे अभी नहीं सोच सकते थे।

तो, मार्क्स और एंगेल्स ने ब्रसेल्स में अपनी शुरूआती बातचीत में ही सोचना शुरु कर दिया कि जर्मनी में और योरप में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिये पहले तो भाववाद पर अन्तिम प्रहार करते हुए इस नये सिद्धांत, नई भौतिकतावाद को विकसित करना होगा ताकि हमसफर कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों का ध्यान सैद्धांतिक आलोचनाओं के मायाजाल से निकाल कर ‘व्यवहारिक-आलोचनात्मक’ गतिविधियों की ओर बढ़ा पायेँ, क्रांतिकारी सक्रियता, मानव-इन्द्रियग्राह्य सक्रियता, व्यवहार की ओर बढ़ा पायें। और तब, खुद भी उस रास्ते पर बढ़ना होगा – आलोचक गुटों और अड्डों की जगह क्रांतिकारी संगठन बनाना होगा।

दोनों मित्र उसी राह पर आगे बढ़ने को सोचे। लेकिन उसके पहले एक दो महीने की व्यस्तता आ गई। मार्क्स को एक पुस्तक समाप्त कर प्रकाशक को देना था। पुस्तक अर्थनीति पर थी। इसलिये एक बार इंग्लैंड जाना जरूरी था। पर उन्हे अच्छी तरह अंग्रेजी नहीं आती थी। इसलिये एंगेल्स को साथ चलने के लिये कहा। एंगेल्स ने भी सहर्ष स्वीकार किये प्रस्ताव क्योंकि उनके भी दो लेखनकार्य चल रहे थे, इंग्लैंड का सामाजिक इतिहास और संरक्षणवाद पर एक आलेख। जीवनीकार अंदाजा लगाते हैं कि सन 1845 के 12 जुलाई से 21 अगस्त तक वे इंग्लैंड में, एंगेल्स के परिचित शहर मैंचेस्टर में रहे। अधिकांश समय उनका चेटहैम ग्रंथालय में बीता, जो पूरे योरप के प्राचीन ग्रंथालयों में से एक है। दोनों ने, पढ़ाई करते हुए एक दूसरे के नोट्स पर टिप्पणी भी लिखा। उसी बीच एंगेल्स ने मेरी बर्न्स से मुलाकात की। दोनों साथ हो गये। मार्क्स से भी मेरी का परिचय हुआ। फिर जब एंगेल्स और मार्क्स वापस ब्रसेल्स गये तो मेरी भी उनके साथ ब्रसेल्स गईं।

ब्रसेल्स लौट आने के कु्छ दिनों के बाद मार्क्स और एंगेल्स ने मिल कर, “उस आधुनिक जर्मन दर्शन की आलोचना” प्रस्तुत की, “फायरबाख, ब्रुनो बाउअर एवं स्टर्नर” जिसका प्रतिनिधित्व करते थे, और उस “जर्मन समाजवाद” की भी आलोचना की, जिसकी अभिव्यक्ति “विभिन्न पैगम्बरों” के माध्यम से होती थी। [ये ही शब्द ग्रंथ के शीर्षक के नीचे टिप्पणी के तौर पर लिखे हैं; यानि ये व्यक्ति ही प्रमुखतम लोकप्रिय दर्शनशास्त्रियों के रूप में चिन्हित किये गये जिनकी आलोचना से भाववाद को पराजित कर, नई, ऐतिहासिक भौतिकवाद को परिभाषित किया जा सकता था।] यह उनका पहला पूर्णत: संयुक्त काम था। मार्क्स-एंगेल्स रचनासमग्र में दिये गये ब्योरे के अनुसार नवम्बर 1845 से अगस्त 1846, लगभग दस महीने तक दोनों इस कृति पर काम करते रहे। इस बार अपने अपने हिस्से के अध्याय बाँटे नहीं गये थे पवित्र परिवार की तरह। जो पाण्डुलिपियाँ तैयार हुई वह दोनों मित्र के वैचारिक संघर्षों का दस्तावेज बन कर दशकों तक पड़ी रही। प्रकाशक छापने को तैयार नहीं हुए क्योंकि जिनकी आलोचना की गई थी वे तत्कालीन जर्मन बौद्धिक जगत के बड़े नाम थे। बल्कि अगली सदी में सोवियत संघ की स्थापना के बाद सन 1932 में ही इस महत्वपूर्ण कृति का छपना सम्भव हुआ। भले ही खुद मार्क्स को इस बात की परवाह नहीं थी कि जर्मन विचारधारा की पाण्डुलिपियाँ छपी नहीं, और सन 1859 में वह कहते हैं कि चूंकि, “मुख्य उद्देश्य, आत्म-स्पष्टीकरण” हासिल हो चुका था इसलिए खुशी खुशी वे उन पाण्डुलिपियों को “चूहों की, कुतरने वाली आलोचना के लिये छोड़ दिये थे”, आज भी, बुजुर्ग कम्युनिस्ट साथियों के द्वारा नये साथियों को, ऐतिहासिक भौतिकतावाद को समझने के लिये इस पुस्तक को पढ़ने की हिदायत दी जाती है। हम सोवियत क्रांति के ॠणी हैं कि यह पुस्तक हमें आज पढ़ने को मिल रही है।

लेनिन ने इस पुस्तक पर चर्चा करते हुये कहा, “इतिहास और राजनीति के प्रति दृष्टिकोण में, एक आश्चर्यजनक रूप से अविभाज्य, सामंजस्यपूर्ण वैज्ञानिक सिद्धांत ने उस अव्यवस्था और मनमानी की जगह ले ली, जिनका राज था पहले। इस सिद्धांत ने दिखाया कि किस तरह, उत्पादक शक्तियों की वृद्धि के फलस्वरूप, सामाजिक जीवन की एक प्रणाली से दूसरी, उच्चतर प्रणाली विकसित होती है।”

मार्क्स और एंगेल्स के सामने अब इतिहास की भौतिकतावादी समझ के सभी पहलु स्पष्ट थे। जर्मन विचारधारा के लेखन के क्रम में वैज्ञानिक तर्कसंगति के साथ वे साबित कर चुके थे कि अब आगे की क्रांति का स्वरूप क्या होगा। और चूँकि सामाजिक क्रांतियों में किसी न किसी वर्ग का नेतृत्व होता है तो वह कह सकते थे कि सर्वहारा वर्ग ही इस नई, समाजवादी क्रांति को सम्पन्न करने वाली सामाजिक शक्ति होगी। आगे उस समझ का और विकास, उसी समझ की मूल प्रस्थापना, व्यवहार, को अमल में ला कर ही हो सकता था।

एंगेल्स ने लगभग 40 साल बाद इस वक्त को याद किया, “अब हमारी राय बिल्कुल नहीं थी कि नये वैज्ञानिक परिणाम, बड़े विद्वतापूर्ण ग्रंथों में, विशेष तौर पर ‘विद्वान’ जगत के लिये लिखे जायें। हम दोनो पहले से ही राजनीतिक आन्दोलन में गहराई से जुड़े हुए थे, और शिक्षित दुनिया में, खास कर पश्चिम जर्मनी में हमारे कुछ अनुगामी भी थे, साथ ही संगठित सर्वहारा के साथ हमारे काफी सम्पर्क थे। हमारे दृष्टिकोण को वैज्ञानिक आधार देना हमारा कर्तव्य था, लेकिन उतना ही जरूरी था पहले जर्मन और फिर योरोपीय सर्वहारा को हमारे प्रत्यय के पक्ष में जीतना। ज्यों ही हमने अपने मन को स्पष्ट कर लिया, हम अपने कार्यभार को पूरा करने में लग गये।” [कम्युनिस्ट लीग के इतिहास पर, फ्रे॰ एंगेल्स, 1885]

क्रांतिकारी सर्वहारा संगठन निर्माण के संघर्ष

जर्मन विचारधारा के लेखन की प्रक्रिया के साथ साथ अन्य अखबारी आलेखों का लेखन तो चल ही रहा था, संगठन बनाने की कार्रवाई भी शुरु हो गई। उस समय, जर्मनी के तथाकथित ‘सच्चे समाजवादी’, पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली को जनता की दुर्गति का एकमात्र कारण मानते हुये उसके आगमन को ही रोकना चाह रहे थे और फलस्वरूप, तमाम प्रजातांत्रिक आन्दोलनों एवं श्रमिक आन्दोलनों की आलोचना करते हुये अंजाने में तत्कालीन प्रशियाई शासकों की मदद कर रहे थे। ब्रसेल्स में रहते हुये एंगेल्स ने जम कर इनकी आलोचना की थी। बाद में भी, विभिन्न जगहों पर इनके अनुयायियों के प्रभाव को देखते हुये एंगेल्स को इनकी आलोचना का काम जारी रखना पड़ा। उधर फ्रांस में प्रुधों एवं उनके अनुयायी, मोटे तौर पर पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली को बनाये रखते हुये कुछ कुछ सुधारों की बात करते थे। एंगेल्स ने लगातार इनकी आलोचना में कई लेख लिखे एवं बाद में, पैरिस में प्रुधोंवादियों से सीधे बहस में टक्कर लेनी पड़ी। फिर कुछ ऐसी भी धारायें थीं जिनमें लोग क्रांति की बात तो करते थे लेकिन गुप्त, षड़यंत्रकारी संगठनों के माध्यम से। जिनमें से एक थे विलहेल्म वेटलिंग, जिनकी ईसाई-साम्यवादी धारणायें काफी लोकप्रिय थीं। इनके खिलाफ भी एंगेल्स को लिखना पड़ा एवं बैठकी बहसों में इन्हे परास्त करना पड़ा। ऐसे ही संघर्षों से गुजरते हुये मार्क्स-एंगेल्स को श्रमिक-वर्ग का ऐसा क्रांतिकारी संगठन बनाना था जो अपनी सागठनिक नीतियों में जनतांत्रिक भी हो एवं एक केन्द्रीय नेतृत्व के अनुसार चलने वाला भी हो। अगर किसी को नीतिगत आपत्ति हो तो उसे जताने की भी नियमानुकूल एक आजादी हो। यानि, गौर करेंगे कि विचारधारा के स्तर पर जिन दो रुझानों की चर्चा आज भी हम करते हैं – सुधारवाद और अतिक्रांतिकारिता (पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ; मार्क्सवाद को विकृत करनेवाला संशोधनवाद या ‘वामपंथी साम्यवाद’ नहीं) – उन्नीसवी सदी की विशेषताओं के साथ वे तब भी मौजूद थे। साथ ही, लेनिन की भाषा में आज जिसे हम जनवादी केन्द्रीयता के रूप में जानते हैं उसकी रूपरेखा मार्क्स-एंगेल्स के दिमाग में उसी समय उभरने लगी थी।

एंगेल्स की अधिक जान पहचान थी विभिन्न देशों के समाजवादी, साम्यवादी नेता एवं कार्यकर्ताओं से। चाहे वे इंग्लैंड के चार्टिस्ट हों या बचपन का शहर एल्बरफेल्ड के कल्पलोकीय साम्यवादी, या ब्रसेल्स, बॉन, कोलोन के लोग या फ्रांस के समाजवादी, सबके साथ एंगेल्स का पत्राचार रहता था। जर्मन विचारधारा के लेखन ने लेखकों जो रास्ता दिखाया उसके अनुरूप संगठन बनाना अभी मुश्किल था। क्योंकि, उपरोक्त विभिन्न प्रकार के समाजवादी और साम्यवादी विचार वाले व्यक्ति तो बहुत थे लेकिन श्रमिक वर्ग के साथ उनका रिश्ता ना के बराबर था। पूरे योरप में पूंजीवादी-प्रजातांत्रिक क्रांतियाँ अंकुरने लगी थीं लेकिन श्रमिक वर्ग का आन्दोलन समाजवादी विचारों से दूर था।

सन 1871 में एंगेल्स, इतालवी समाजवादी कार्लो काफियेरो को लिखे एक पत्र में याद करते हैं, “उस समय समाजवादी एवं साम्यवादी विचारों को मानने वाले सर्वहारा गिने-चुने थे स्विट्जरलैंड, फ्रांस और इंग्लैंड में, जो हमारे अनुयायी थे। जनता के साथ काम करने के हमारे साधन बहुत ही कम थे और आपकी ही तरह, हम विद्यालय-शिक्षकों, पत्रकारों एवं छात्रों के बीच से अनुगामियों को काम पर लेने के लिये मजबूर होते थे।”   

उपलब्ध मित्रों, सहचरों, साम्यवादी व समाजवादी करीबीयों से सलाह-मशविरा कर, कम्युनिस्ट कॉरेसपॉन्डेन्स कमिटि, (पत्राचार समितियाँ) स्थापित की गई, कि इससे सम्बन्ध बनेंगे एवं विचारों का आदान-प्रदान सुगम होगा। ब्रसेल्स में बनी कमिटी बहुत अच्छी तरह काम करने लगी तथा फ्रांस, इंग्लैंड व अन्य देशों के साम्यवादी या समाजवादियों से सम्बन्ध बनने लगे। पत्राचार, अपने अपने इलाकों में कामकाज व गतिविधियों के बारे में प्रतिवेदन के लेन-देन का अच्छा माध्यम था। इसका असर हुआ कि लोग ब्रसेल्स कमिटी के कामकाज तथा मार्क्स-एंगेल्स के विचारों के बारे में जानने लगे। धीरे धीरे सभी जगहों पर मार्क्स-एंगेल्स के विचारोंके कुछ कुछ अनुयायी बनने लगे। उधर जर्मन विचारधारा समाप्त होते होते ब्रसेल्स की कॉरेसपॉन्डेन्स कमिटि ने एंगेल्स को सुझाव दिया कि वह अविलम्ब पैरिस चले जायें। पैरिस में कॉरेस्पॉन्डेन्स कमिटी तो नहीं बनी थी (और उसे बनाना भी एंगेल्स का एक कार्यभार था) लेकिन ब्रसेल्स के साथ पत्राचार में रहनेवाले समुदायों की भी ईच्छा थी कि एंगेल्स उनके बीच जायें। सन 1846 के 15 अगस्त को एंगेल्स पैरिस आये और जनवरी 1848 तक वहाँ रह पाये। क्योंकि खतरनाक क्रांतिकारी मानते हुये फ्रांसीसी सरकार ने उन्हे फ्रांस से निकाल दिया। इस पूरे वक्त में एंगेल्स उन विभिन्न समुदायों के बीच जा कर, जो ‘सच्चे समाजवादी’, प्रुधोंवादी, फिर लीग ऑफ जस्ट के लोग (जो गुप्त, षड़यंत्रकारी रास्तों को ही क्रांति के एकमात्र रास्ता मानते थे), आदि गुटों से बातचीत करते रहे, बहस करते रहे एवं सर्वहारा क्रांति की नई विचारधारा का महत्व उन्हे समझाते रहे। उनमें से अधिकांश विभिन्न पेशे में लगे जर्मन होते थे जो प्रशियाई राज के दमन के कारण जर्मनी छोड़ आये थे।

समझाना बहुत मुश्किल होता था क्योंकि एंगेल्स ज्यादातर इंग्लैंड का उदाहरण देते थे। और जर्मनी, बेल्जियम, यहाँ तक कि फ्रांस में भी, औद्योगिक विकास का वह स्तर, सर्वहारा के रूप में एक विशाल सामाजिक वर्ग के उद्भव का परिदृश्य एवं संगठित श्रमिक आन्दोलन का वह रूप उभर कर नहीं आया था जो इंग्लैंड में आ चुका था। इसलिये एंगेल्स के उदाहरण उन्हे विश्वसनीय नहीं लगते थे और अक्सर तीखे झगड़े होते थे।

ब्रसेल्स की कम्युनिस्ट कॉरेर्स्पॉन्डेन्स कमिटी को 23 अक्तूबर 1846 को लिखे गये एक पत्र-प्रतिवेदन में इन झगड़ों के बारे बताते हुये उन्होने लिखा कि किस तरह अन्तत: अपनी बातों को वह तीन मकसदों में समेटते थे:

“(1) पूंजीवादियों के विरुद्ध सर्वहारा के हितों को हासिल करना, (2) यह काम, निजी सम्पत्ति की समाप्ति एवं उसकी जगह सामाजिक सम्पत्ति एवं सामाजिक हिस्सेदारी की स्थापना के द्वारा करना, (3) इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए बलपूर्वक जनवादी क्रांति के अलावे और किसी साधन को स्वीकार नहीं करना”।

संगठन निर्माण की यह अवधि एंगेल्स के लिये बहुत शिक्षाप्रद रही। पैरिस में उनकी मेहनत एवं ब्रसेल्स से मार्क्स द्वारा की गई मदद रंग लाई। पैरिस में पहले से बने संगठन लीग ऑफ द जस्ट में मार्क्स-एंगेल्स की नई विचारधारा को बहुमत में लोग मानने लगे – गुप्त, षड़यंत्रकारी, कट्टरपंथी मार्ग छोड़ने को राजी हो गये। दोनों ने लीग ऑफ द जस्ट में सदस्यता भी ग्रहण कर लिया और उसके नियमावली में परिवर्तन के लिये संघर्ष करने लगे। फलस्वरूप इंग्लैंड सहित दूसरी जगहों पर भी कई जगह जहाँ लोग लीग ऑफ द जस्ट बनाने के प्रस्ताव को इन्ही तरीकों के कारण खारिज कर रहे थे, अब इस संगठन में शामिल होने लगे। उधर कम्युनिस्ट कॉरेस्पॉन्डेन्स कमिटियाँ भी काफी लोकप्रिय हो रही थी। जर्मनी में भी जनवादी संगठन बनाने के संघर्ष में एंगेल्स व मार्क्स को सफलता मिली। अन्तत: तय हो पाया कि लीग ऑफ द जस्ट का पहला, उद्घाटन कॉंग्रेस लन्दन में किया जाएगा। मार्क्स और एंगेल्स व उनके सहयोगियों के दिमाग में पहले से ही यह बात थी कि लीग ऑफ द जस्ट का कार्यक्रम, नियमावली सब कुछ बदल कर ऐसा करना होगा कि क्रांतिकारी सर्वहारा का एक अन्तरराष्ट्रीय खुला जनवादी संगठन उभर कर आये। नाम भी बदल कर कम्युनिस्ट लीग करना होगा।  

लीग ऑफ द जस्ट का पहला सम्मेलन दिनांक 2 जून, 1847 को लन्दन में शुरू हुआ। आर्थिक तंगी के कारण मार्क्स इस सम्मेलन में शामिल नहीं हो पाये। ब्रसेल्स, बेल्जियम के कम्युनिस्टों का प्रतिनिधित्व मार्क्स-एंगेल्स के घनिष्ठ आजीवन सहयोगी विल्हेल्म वुल्फ ने किया। जबकि एंगेल्स, बहुत झगड़ा-झंझट, विरोधियों द्वारा की जा रही टांग-खिंचाई को झेलने के बाद अन्तत: पैरिस के समुदायों का प्रतिनिधि बन कर आये। आये तो भारी पड़े पूरे सम्मेलन की गतिविधियों पर। अपने अनुयायी अन्य प्रतिनिधियों का भी सहयोग मिला और इसी सम्मेलन में संगठन के कार्यक्रम व नियमावली में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गये एवं संगठन का नाम बदल कर कम्युनिस्ट लीग रखा गया। लीग का मुख्य नारा, “सारे मनुष्य भाई हैं” बदल कर “सभी देशों के कामगार, एक हो”! करने का प्रस्ताव स्वीकृत हो गया। (चालीस वर्ष बाद सन 1885 में एंगेल्स ने इस सांगठनिक संघर्ष का जो विशद संस्मरण लिखा, कम्युनिस्ट लीग के इतिहास पर, जिज्ञासु पाठक उस संस्मरण को पढ़ सकते हैं)।

उधर 1846 के आखरी महीनों में ही फ्रांसीसी पुलिस के खाते में एंगेल्स का नाम चढ़ चुका था। एंगेल्स थोड़ी सावधानी बरतने लगे थे और लेखन का काम बढा दिया था। फ्रांसीसी राजनीति के संकट, प्रशिया व जर्मनी में प्रजातांत्रिक परिवर्तनों के लिये संघर्ष, इंग्लैंड में पूंजीवादी एवं चार्टिस्टों के बीच का टकराव आदि पर तो वह लिख ही रहे थे, अब योरप के अन्य देशों – पोलैंड, ऑस्ट्रिया, स्विट्जरलैंड, आयरलैन्ड आदि के साथ साथ कुछ साहित्यिक विषयों पर भी आलेख तैयार किये। फिर दोनों ने मिलकर, अमरीका-प्रवासी एक भाववादी-साम्यवादी, क्रीज के, साम्यवाद के नाम पर भ्रामक प्रचारों का खुलासा किया एवं अमरीका के हमसफर साथियों को सावधान किया। उधर मार्क्स प्रुधों रचित दरिद्रता का दर्शन के खिलाफ अपनी कालजयी कृति दर्शन की दरिद्रता तैयार कर रहे थे। इन्ही सब व्यस्तताओं के बीच मार्क्स सपरिवार कुछ दिनों के लिये हॉलैंड चले गये तो ब्रसेल्स कॉरेस्पॉन्डेन्स कमिटी का काम काज भी एंगेल्स ने सम्हाला।

इस अवधि की दो और महत्वपूर्ण घटनाओं का जिक्र इसी अध्याय में होना चाहिये। एक, ब्रसेल्स में उन्मुक्त व्यापार के पक्ष में पूंजीवादी सम्मेलन और दूसरा प्रिन्सिप्ल्स ऑफ कम्युनिज्म (साम्यवाद की नीतियाँ) का लेखन।

1847 के 16-18 सितम्बर को ब्रसेल्स में अन्तरराष्ट्रीय मुक्त व्यापार कॉंग्रेस होने वाला था। मार्क्स-एंगेल्स ने सोचा कि इस सम्मेलन में बतौर वक्ता नाम लिखाया जाय। अन्तत: मार्क्स एवं जॉर्ज वीर्थ (इनके नाम का जिक्र पहले हो चुका है) का नाम वक्ताओं में स्वीकारा गया। वीर्थ के ओजपूर्ण वक्तव्य से आयोजक इतना घबरा गये कि मार्क्स को बोलने ही नहीं दिया गया। तब एंगेल्स और मार्क्स ने सोचा कि लिख कर इनका भांडा फोड़ा जायेगा।

सम्मेलन के माध्यम से आयोजक पूंजीवादी यही प्रचार करना चाहते थे कि जनता की आम बदहाली संरक्षणवाद का देन है। एक बार मुक्त व्यापार की नीतियाँ सभी देश लागू कर लेंगे, करों और शुल्कों की दीवारें मिटा देंगे, बाज़ार को खोल देंगे तो देश एक दूसरे के करीब आ जायेंगे, दूरियाँ मिट जायेंगी और बदहाली खत्म हो जायेंगी।

मार्क्स-एंगेल्स ने जनता को बताया कि संरक्षणवाद हो या मुक्तव्यापारवाद, दोनों पूंजीवादियों के ही दो खेमें हैं। उनके अपने चोंचलें हैं लेकिन सर्वहारा को, श्रमिक वर्ग दोनों में से किसी एक को चुन कर मुक्ति नहीं मिलेगी। उन्हे तो पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली को ही खत्म करनी होगी।

तो इसी आशय से मार्क्स के साथ साथ एंगेल्स ने भी संरक्षणात्मक शुल्क बनाम मुक्त व्यापार पर दो महत्वपूर्ण आलेख लिखे।

दूसरा काम दर असल लीग ऑफ द जस्ट की नियमावली के सुधार के काम से शुरु हुआ था। पहले के संगठन में गुप्त संगठन के अनुरूप एक संकल्प-पत्र या शपथ-पत्र था। मार्क्स और एंगेल्स दोनों ही ऐसी किसी चीज को हटा ही देना चाहते थे। लेकिन कई प्रतिनिधियों की ईच्छा थी कि ऐसा कोई संकल्प-पत्र रहे। तब एंगेल्स ने उसे नये ढंग से लिखना शुरू किया। नाम हुआ कम्युनिस्ट आस्था की स्वीकारोक्ति। मसविदे को लीग के सभी शाखाओं में विचार के लिये भेजा गया। लेकिन एंगेल्स रुके नहीं। उन्हे न तो ‘आस्था की स्वीकारोक्ति’ वाला नाम पसन्द था न पूरा कथ्य। उन्होने उसे फिर लिखना शुरु किया और नाम दिया प्रिन्सिप्ल्स ऑफ कम्युनिज्म (कम्युनिज्म के सिद्धांत)। लिखते हुये ही उनके मन में विचार आया कि इसे सिद्धांत नहीं घोषणापत्र बनाया जाय।

सन 1847 के 23-24 नवम्बर को एंगेल्स ने मार्क्स को लिखा, “उस आस्था की स्वीकारोक्ति पर जरा सोचो। मुझे लगता है कि हमें प्रश्नोत्तरी वाला रूप पहले ही त्याग देना चाहिये था और उसे कम्युनिस्ट घोषणापत्र नाम देना चाहिये था। चुंकि इतिहास से कमोबेश जोड़ना ही है उसे इसलिए, अभी तक जिस रूप में वह है वह पूरी तरह अनुपयुक्त है। यहाँ मैंने जो कुछ भी किया वह मैं अपने साथ ला रहा हूँ। आसान सी कहानी के शक्ल में है लेकिन शब्द दीन-हीन हैं, बहुत जल्दबाज़ी में लिखी गई है। ‘कम्युनिज्म क्या है’ से मैं शुरू करता हूँ। फिर सीधा चला जाता हूँ सर्वहारा पर – उसके उद्भव का इतिहास, पहले के मेहनतकशों से उनकी भिन्नता, सर्वहारा एवं पूंजीवादी वर्गों में प्रतिपक्षता का विकास, संकट, निष्कर्ष। इनके बीच, और सारे दूसरे विषय तथा निष्कर्ष में, कम्युनिस्टों की पार्टी नीति रखा है मैंने, जहाँ तक उसे आम किया जा सकता है।”

कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र

सन 1830 के 17 वर्षों के बाद, योरप फिर एक बार बड़े राजनीतिक उथल-पुथल की संभावनाओं को लेकर सुलगने लगा था। उधर कम्युनिस्ट लीग का दूसरा सम्मेलन 29 नवम्बर 1947 से 8 दिसम्बर तक चला जिसमें मार्क्स-एंगेल्स के प्रस्ताव के अनुसार नियमावली में और भी बदलाव किये गये। कार्ल शैपर सम्मेलन के अध्यक्ष चुने गये थे और एंगेल्स सचिव। अपने भाषणों के क्रम में एंगेल्स ने “सभी देशों के कामगारों, एक हो!” के नारे की पृष्ठभूमि की व्याख्या की। इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, अमरीका एवं अन्य देशों में मजदूरों की स्थिति की एकरूपता की चर्चा करते हुये उन्होने कहा, “चुँकि सभी देशों में श्रमिकों की स्थिति एक है, उनके हित एक हैं, उनके दुशमन एक हैं, उन्हे अवश्य ही एक साथ लड़ना भी चाहिये – सभी राष्ट्रों के पूंजीवादियों के भाईचारे का विरोध, सभी राष्ट्रों के श्रमिकों के भाईचारे के द्वारा होनी चाहिये।”

कार्यक्रम को अंतिम रूप देना सम्मेलन का एक मुख्य एजेन्डा था । सम्मेलन ने इस काम का जिम्मा मार्क्स को ही देने का फैसला लिया, जो इस सम्मेलन में मौजूद भी थे और लम्बे वाद-विवाद में उन्हे अपने और एंगेल्स के नये सिद्धांतो को विशद रूप से रखने का मौका भी मिला था। सम्मेलन ने यह भी फैसला लिया कि कार्यक्रम के इस दस्तावेज को घोषणापत्र नाम दिया जायेगा। एंगेल्स ने उपरोक्त कम्युनिस्ट लीग के इतिहास पर आलेख में याद किया है: “सारे अन्तर्विरोध एवं सन्देह अन्तत: समाप्त हुये, नई बुनियादी नीतियाँ सर्वसम्मति से पारित हुई; मार्क्स और मुझे घोषणापत्र का मसौदा तैयार करने का काम सौंपा गया। सम्मेलन के बाद अविलम्ब इस काम को किया गया। फरवरी क्रांति के कुछेक सप्ताह पहले स्वीकृत मसौदे को छपने के लिये लन्दन भेजा गया। उसके बाद से यह घोषणापत्र दुनिया का सफर कर चुका है। लगभग सभी भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है। आज भी असंख्य देशों में यह घोषणापत्र सर्वहारा आन्दोलन के मार्गदर्शक का काम करता है।”

मार्क्स एवं एंगेल्स रचित कम्युनिस्ट घोषणापत्र का एक टीकासहित संस्करण उपलब्ध है। टीकाकार हैं डी॰ रायाजानोफ, सन 1922 में जो मॉस्को स्थित मार्क्स-एंगेल्स संस्थान के निर्देशक थे। वह कहते हैं कि मार्क्स, जैसी की उनकी आदत थी, विषय के प्रति न्याय हो इस दृष्टि से लिखते हुये काफी समय ले रहे थे, प्रकाशन में देर हो रहा था…। उधर “क्रांतिकारी तूफान की सुदूर गर्जनायें सुनाई पड़ने लगी थीं। जनवरी की शुरुआत में उत्तरी इटली में घटनायें तेजी से घट रही थी। 12 जनवरी को सिसिली और फिर पालेर्मो में खुला विद्रोह शुरू हो चुका था, एवं अस्थाई सरकार बना दी गई थी। किसी भी दिन फ्रांस में क्रांति शुरू हो सकती थी।” इस स्थिति में कम्युनिस्ट लीग की केन्द्रीय कमिटी ने प्रस्ताव लेकर ब्रसेल्स के क्षेत्रीय कमिटी को दिनांक 26 जनवरी 1848 को पत्र भेजा कि “केन्द्रीय कमिटी ब्रसेल्स स्थित क्षेत्रीय कमिटी को यह कार्यभार देती है कि वह नागरिक मार्क्स से सम्पर्क करे और बताये कि कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र, जिसे लिखने का जिम्मा हाल में सम्पन्न कॉंग्रेस में उन्होने लिया है, अगर इस वर्ष के 1 फरवरी तक लन्दन नहीं पहुँचे, तो उनके खिलाफ आगे के कदम उठाये जायेंगे।… - केन्द्रीय कमिटी से आदेशप्राप्त एवं उसकी ओर से, शैपर, बाउअर एवं मॉल (हस्ताक्षरकर्ता)”। रायाजानोफ ने यह भी जिक्र किया कि “घोषणापत्र, प्रकाशन के अंतिम चरणों में था जब पैरिस में फरवरी की बगावत हो गई। जर्मनी में मार्च क्रांति के कुछ हफ्तों बाद घोषणापत्र की प्रतियाँ जर्मनी पहुँच पाई। …”

एंगेल्स कहाँ थे उस वक्त?

या, यूँ पूछा जाय, कहाँ नहीं थे उस वक्त?

एक कुशल संगठनकर्ता एवं वक्ता के रूप में एंगेल्स योरप के विभिन्न देशों में, एवं विभिन्न तबकों में परिचित हो चुके थे। भाषायें भी उन्हे कई आती थीं। लन्दन में कम्युनिस्ट लीग का दूसरा कॉंग्रेस शुरू होने का दिन ही तो था, जब उन्हे लन्दन में, सन 1830 में पोलैंड में जो बगावत हुई थी उसके वर्षगाँठ पर बोलना पड़ा। जनवादियों की अन्तरराष्ट्रीय बैठक थी। पोलैंड की जनता के राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन के समर्थन के क्रम में उन्होने वह पंक्ति कही जो राष्ट्रीयताओं पर मार्क्सवादी सिद्धांत का केन्द्रीय सोच बन गई - “ऐसा नहीं हो सकता है कि एक राष्ट्र आजाद भी हो जाये और दूसरे राष्ट्रों का दमन भी करता रहे।”

8 दिसम्बर को लीग का कॉंग्रेस खत्म होने के बाद मार्क्स ब्रसेल्स लौट गये थे। एंगेल्स कुछ दिनों के बाद, 17 दिसम्बर 1847 को ब्रसेल्स आये और घोषणापत्र को तैयार करने में हाथ बँटाये। लेकिन महीने के अन्त तक उन्हे पैरिस वापस जाना पड़ा। ब्रसेल्स जनवादी संघ ने उन्हे फ्रांसीसी जनवादियों के बीच अपना प्रतिनिधि चुना था। कुछ पहले वह इसी तरह बिरादराना जनवादियों की लन्दन समिति के भी प्रतिनिधि चुने गये थे। (इन जनवादी संघों के निर्माण के अपने इतिहास हैं; मार्क्स और एंगेल्स इनके समर्थक थे एवं जर्मनी में विभिन्न पूर्व संगठनों को जोड़ कर जर्मन जनवादी संघ बनाने में उन्होने अहम भूमिका निभाई थी)।

पैरिस जा कर एंगेल्स ने पाया कि लीग ऑफ द जस्ट के कम्युनिस्ट लीग बन जाने की घटना से और मार्क्स व एंगेल्स के नये विचारों का प्रभाव बढ़ जाने से जो लोग कुढ़े हुये थे और फिर वही विलहेल्म वेटलिंगपंथी पुराने, गुप्त, षड़यंत्रधर्मी अतीत की ओर या नहीं तो सुधारपंथी प्रुधोंवाद की ओर लौटना चाहते थे, उन्होने लीग के अन्य सदस्यों पर, तरह तरह का भ्रामक प्रचार कर, प्रभाव विस्तार कर लिया है। एंगेल्स ने सांगठनिक संघर्ष का अपना काम शुरू कर दिया। तब तक लीग के द्वितीय कॉंग्रेस के दस्तावेज भी आ चुके थे। एंगेल्स का काम थोड़ा आसान हो गया। लेकिन अधिक दिनों तक वह पैरिस में रुक नहीं पाये। जनवरी के अन्त तक फ्रांसीसी सरकार ने उन्हे 24 घंटे के अन्दर पैरिस और तीन दिनों के अन्दर फ्रांस छोड़ देने का आदेश दिया। जर्मन राजनीतिक शरणार्थियों की एक बैठक में उनके द्वारा क्रांतिकारी शुभकामनायें दिये जाने को बहाना बनाया गया।

31 जनवरी 1848 को एंगेल्स ब्रसेल्स आ गये। तब तक मार्क्स घोषणापत्र लिख चुके थे और लन्दन भेज चुके थे।

दुनियाँ की सभी भाषाओं में सबसे अधिक बिकनेवाली लोक्प्रियतम पुस्तिकाओं में शुमार, कालजयी कम्युनिस्ट घोषणापत्र की भाषा, विन्यास एवं असाधारण द्वंदात्मक व्यंजनायें निस्सन्देह मुख्यत: मार्क्स के हैं। लेकिन इसके लिखे जाने के, कम्युनिस्ट लीग के द्वितीय कांग्रेस के सिद्धांत के पीछे की मुख्य प्रेरक शक्ति थे एंगेल्स, एवं इसके कथ्यवस्तु का एक बड़ा हिस्सा भी एंगेल्स ने प्रिंसिपल्स ऑफ कम्युनिज्म (साम्यवाद के सिद्धांत) लिखने दौरान जुटाया था, यह हम पिछले अध्याय में देख चुके हैं।  

सन 1848-49 की क्रांतियाँ - 1

कितनी तेजी से बदलते हुये दिन थे वे! मार्क्स और एंगेल्स के लिये ये सुनहरा अवसर था क्रांतियों में सक्रिय भागीदारी निभाने का, वह भी, ऐतिहासिक बदलावों की एक स्पष्ट नई समझदारी के साथ! योरप के क्रांतिकारी सर्वहारा को दिशा देने वाले एक घोषणापत्र के साथ!

लेनिन ने कहा है, “मार्क्स और एंगेल्स की अपनी गतिविधियों में केन्द्रीय बिंदु बन कर उभरती है सन 1848-49 के जन क्रांतिकारी संघर्ष में उनकी भागीदारी की अवधि।

22-24 फरवरी 1848 को पैरिस के बागी श्रमिक एवं मध्यवर्गीय सामाजिक गुटों ने मिल कर राजा लुई फिलिप के राज को खत्म कर दिया और प्रजातंत्र के स्थापना की घोषणा की। उसके पहले जनवरी में ही सिसिलि द्वीप सहित दक्षिण इटली के राज्यों में (इटली उस समय तक एक राष्ट्र नहीं बन पाया था) बगावत हो चुकी थी। क्रांतिकारी आन्दोलनों के ज्वार जर्मन राज्यों में भी पहुँचने लगे। 13 मार्च को ऑस्ट्रिया की राजधानी वियेना में और 18 मार्च को प्रशियाई राजधानी बर्लिन में विद्रोह हुए। उधर उसी समय ऑस्ट्रियाई साम्राज्य के अधीन, उत्तरी इटली के शहर मिलान की जनता ने ऑस्ट्रियाई सेना को खदेड़ दिया। फ्रांस की घटनाओं के प्रभाव के कारण बेल्जियम में भी प्रजातांत्रिक सरकार के लिये आन्दोलन जोर पकड़ने लगा।

एंगेल्स उस समय बेल्जियम यानि राजधानी ब्रसेल्स में ही थे। 25 फरवरी 1848 को अंग्रेज चार्टिस्टों (अंग्रेज श्रमिकों का महत्वपूर्ण राजनीतिक आन्दोलन व दल) की पत्रिका द नॉर्दर्न स्टार में उन्होने लिखा, “उस दिन शाम को इस शहर में आम थी उत्तेजना एवं अशांत आबोहवा। सभी किस्म के अफवाह फैल रहे थे लेकिन वास्तव में माना नहीं जा रहा था। रेलवे स्टेशन सभी वर्गों के लोगों से भरा हुआ था – सभी चिन्तित थे कि कोई खबर आये। फ्रांसीसी राजदूत, रुमीनी के भूतपूर्व मार्किस (कुलीन पदवी) भी वहीं थे। रात के साढ़े बारह बजे ट्रेन आई, बृहस्पतिवार के क्रांति की भव्य खबर के साथ और पूरी जनता उत्साह के एक आकस्मिक विस्फोट चीख पड़ी, प्रजातंत्र ज़िन्दाबाद! तेजी से यह खबर पूरे शहर में फैल गई।

27 फरवरी को डॉयेश-ब्रसेलर-ज़ाइटुंग में फ्रांस की घटनाओं पर एंगेल्स ने लिखा, “पूंजीवादी वर्गों ने अपनी क्रांति कर ली। गुइजो को इसने तख्त से गिरा दिया; गुइजो के साथ बड़े, थोक सट्टे बाज़ारियों का अकेला राज भी खत्म हो गया। लेकिन अब, युद्ध के दूसरे अंक में पूंजीवादियों का एक पक्ष दूसरे पक्ष का विरोध नहीं करेगा। अब सर्वहारा खड़ा होगा पूंजीवादियों के विरोध में … इस भव्य क्रांति के माध्यम से फ्रांसीसी सर्वहारा ने फिर से खुद के लिये योरोपीय आन्दोलन के शिखर पर जगह बना लिया है। पैरिस के श्रमिकों का जय हो! उन्होने पूरी दुनिया को हिला दिया है। एक के बाद एक, सभी देशों को इसका दबाव महसूस होगा, क्योंकि फ्रांस में प्रजातंत्र का विजय पूरे योरप में जनतंत्र का विजय है।

बेल्जियम के क्रांतिकारी गतिविधियों में मार्क्स और एंगेल्स दोनो पूरा शामिल थे। वहीं से वे जर्मनी के क्रांतिकारी गतिविधियों को भी प्रभावित कर रहे थे। कम्युनिस्ट लीग में भी उनका प्रभाव बढ़ रहा था। लन्दन की केन्द्रीय कमिटी ने ब्रसेल्स की जिला कमिटी को अपनी क्षमता दे दी ताकि क्रांतिकारी गतिविधियों के केन्द्र में बैठे लोग उन्हे संचालित कर सकें। ब्रसेल्स की नई केन्द्रीय कमिटी के नेता बने मार्क्स, और एंगेल्स भी उसके एक सदस्य रहे।

लेकिन 1848 के योरोपीय क्रांति में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रही पूंजीवादियों की कमजोरियाँ भी सामने आने लगी थी। इस क्रांति की असफलतायें, प्रतिक्रांतिकारी शक्तियों का विजय आदि इतने अधिक पठित अध्याय हैं इतिहास के कि उन्हे यहाँ दोहराना मुनासिब नहीं होगा। लेकिन क्रांति के दिनों को, भाग लेने वाले अगुआ सिपाहियों की गतिविधियों के हिसाब से देखने से पता चलता है कि असफल क्रांति के नाम से इतिहास में दर्ज अवधि कितनी सारी सफलताओं के बीज अपने भीतर समाई होती है।         

बेल्जियम में बेल्जियाई राजघराने की सरकार ने तुरन्त जबाबी कार्रवाई की। पूंजीवादी जनतंत्रवादियों की हिचकिचाहट को ताड़ते हुये उसने सेना को सतर्क कर दिया और खबर फैला दी कि प्रजातंत्र की मांग दर असल विदेशी, मुख्यत: जर्मन श्रमिक व जनतंत्रवादी कर रहे हैं। कम्युनिस्ट लीग के अधिकांश सक्रिय सदस्य इस अफवाह एवं नतीजतन हमलों के दायरे में कर दिये गये। कई गिरफ्तार हुये, कई देश-निकाले हुये। मार्क्स को 3 मार्च को आदेश दिया गया कि वह चौबीस घंटे के अन्दर बेल्जियम छोड़ दें। एंगेल्स बच गये क्योंकि कुछ ही दिन पहले पुलिस ने उन्हे पासपोर्ट जारी किया था।

उसी दिन मार्क्स के घर में बैठक हुई और मार्क्स को निर्देश दिया गया कि पैरिस में वह नई केन्द्रीय कमिटी बनायें। बैठक के खत्म होने पर लोग बस गये ही थे कि पुलिस आई और मार्क्स तथा उनकी पत्नी को गिरफ्तार कर लिया। 18 घंटे तक नजरबन्द रखे जाने के बाद उन्हे बेल्जियम से तुरन्त निकलने को कहा गया। 5 मार्च को वह पैरिस पहुँचे। फिर उनका परिवार भी पैरिस पहुँचा।

कार्य निष्पादन की दृष्टि से एंगेल्स अब लीग के ब्रसेल्स जिला कमिटी के मुखिया थे। उन्होने मार्क्स को निकाले जाने की पुलिसिया कार्रवाई के खिलाफ प्रचार अभियान शुरु किया। इंग्लैंड से प्रकाशित द नॉर्दर्न स्टार पत्रिका के माध्यम से बेल्जियाई सरकार के नाम खुला पत्र प्रकाशित किया। स्थानीय जनतंत्रवादियों को संवाद-माध्यमों में तथा संसद में पुलिसिया कार्रवाई के खिलाफ बातें रखने को राजी किया। फलस्वरूप, बेल्जियाई सरकार उस पुलिस अधिकारी को नौकरी से बरखास्त करने पर मजबूर हुई जिसने मार्क्स के घर पर तलाशी ली थी एवं उन्हे गिरफ्तार किया था।

मार्च के अन्त तक एंगेल्स भी पैरिस आ गये। एंगेल्स लीग की पैरिस में बनी केन्द्रीय कमिटी के भी सदस्य थे। पैरिस पहुँच कर, नई अस्थाई सरकार में शामिल अपने परिचित लोगों से बातें कर, अखबार पढ़ते हुए और अपनी दृष्टि से वह फ्रांस की राजनीतिक परिस्थिति का विश्लेषण किया। लन्दन में रह रहे अपने बहनोई एमिल ब्लांक को 26 मार्च 1848 के एक पत्र में उन्होने लिखा:

बड़े पूंजीवादी एवं श्रमिक एक दूसरे से सीधे मुकाबले में हैं। टुटपूंजिये मध्यवर्ती की भूमिका निभा रहे

 

 

हैं लेकिन कुल मिला कर उनकी भूमिका घिनौनी है। हालाँकि, अस्थाई सरकार में उन्ही की बहुमत है। … सब कुछ जितना शांत होता जायेगा, सरकार एवं टुटपूंजियों की पार्टी उतनी ही बड़ी पूंजीपतियों की ओर झुकती जायेगी; अशांति जितनी अधिक होगी, उतनी ही अधिक वे श्रमिकों के साथ होते जायेंगे।

सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि सरकार एक तरफ श्रमिकों से वादे करती है और दूसरी तरफ उनमें से एक भी पूरी नहीं कर पाती है क्योंकि पूंजीवादियों के खिलाफ क्रांतिकारी कदम – जैसे, कठोर, ऊपर की ओर बढ़ते हुये करों का प्रावधान, उत्तराधिकार शुल्क, प्रवासियों के सम्पत्ति की जब्ती, मुद्रा के निर्यात पर रोक, सरकारी बैंक की स्थापना आदि - उठा कर आवश्यक कोष जुटाने की हिम्मत नहीं कर पाती है…

पैरिस आने के बाद एंगेल्स ने मार्क्स के साथ मिल कर कम्युनिस्ट लीग में काम करने लगे। लेकिन काम करने के दौरान एक अजीब स्थिति सामने आई। लीग के अन्दर कुछ लोग सत्तासीन टुटपूंजियों के क्रांतिकारी हिस्से की एक योजना का समर्थक नज़र आये। जैसा कि एंगेल्स के लिखे में उपर है कि टुटपूंजियों के हाथों से सत्ता धीरे धीरे खिसक रही थी; बड़े पूंजीवादी हावी हो रहे थे। तो उन्हे लगा कि अगर जर्मनी में भी क्रांतिकारी ताकतें आगे बढ़ें तो फ्रांस की क्रांति को बचाना आसान होगा। सैद्धांतिक तौर पर बात तो सही थी लेकिन जो रास्ता उन्होने अपनाया वो गलत था। वे हथियार जुटाने लगे कि ये हथियार चोरी-चोरी जर्मनी भेजा जायेगा और पैरिस में रह रहे जर्मन क्रांतिकारी उन हथियारों के साथ जर्मनी में प्रवेश करेंगे। दूसरी ओर, जब अस्थाई सरकार में मौजूद बड़े पूंजीवादी एवं अन्य प्रतिक्रांतिकारी तबकों के कान में यह योजना आई तो वे भी इस योजना को समर्थन देने लगे और मदद करने लगे। उनको यह फायदे का सौदा दिखा क्योंकि इस पर अमल होने से जर्मन क्रांतिकारी श्रमिक एवं अन्य प्रवासी पैरिस छोड़ कर चले जायेंगे और पैरिस का क्रांतिकारी श्रमिक आन्दोलन कमजोर पड़ जायेगा। साथ ही, फ्रांस का सीमा पार करते ही उन क्रांतिकारी जर्मनों को या तो मार दिया जायेगा या गिरफ्तार कर लिया जायेगा क्योंकि प्रशियाई खुफिया पुलिस वहाँ घात लगाये बैठी है। बल्कि, गिरफ्तार लोगों की जाँच से, जर्मनी के अन्दर जो लोग थे, उनके भी नाम, पता पुलिस के हाथ लगने की संभावना थी। यानि, दोनों देशों के प्रतिक्रियावादियों को इन अतिक्रांतिकारियों की योजना में अपनी सफलता दिखने लगी।

मार्क्स और एंगेल्स ने इस खतरनाक योजना का जम कर विरोध किया लीग के विभिन्न बैठकों में जोरदार सांगठनिक संघर्ष चलाया। फिर भी इस योजना पर लोगों को काम करते देख उन्हे लगा कि जर्मन कम्युनिस्ट आन्दोलन को इस पूरे प्रकरण से बचाना जरूरी है। प्रजातंत्रवादियों एवं जनतंत्रवादियों को नज़र आनी चाहिये कि जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी कोई साजिशी तख्तापलट की विचारधारा पर काम करने वाली पार्टी नहीं बल्कि जर्मन श्रमिक वर्ग की जन-पार्टी है जो चाहती है कि जर्मनी में प्रजातंत्र की स्थापना हो और इस राजनीतिक संग्राम में सर्वहारा की राजनीतिक-अर्थनीतिक दृष्टि के साथ अपनी मांगों को हासिल करने के लिये शामिल होती है।

इसी आशय के साथ सन 1848 के 21-24 मार्च को जन्म हुआ, जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी की मांगें शीर्षक दस्तावेज का जिसे कम्युनिस्ट लीग की केन्द्रीय कमिटी ने पारित किया। उस समय तो यह दस्तावेज प्रकाशित हुआ ही। आगे चल कर कई बार इसे पुन:प्रकाशित किया गया, क्योंकि प्रजातांत्रिक आन्दोलन में सर्वहारा का पक्ष प्रस्तुत करने के लिये यह मार्गदर्शक बन गया:

(1) पूरे जर्मनी को एक व अखण्ड प्रजातंत्र घोषित करना, (2) सार्वजनीन वयस्क मताधिकार, (3) जनप्रतिनिधियों को भुगतान ताकि श्रमिक भी संसद का सदस्य बन सके, (4) पूरी जनता को सशस्त्र करना एवं साथ ही साथ सेना को श्रम-सेना बनाना ताकि वे अपने जीवनधारण की आवश्यकता से अधिक पैदा करें, (5) कानूनी सेवा नि:शुल्क हो, (6) सारे सामंती भार, कर्ज, बेगार, दशमांश आदि जो अब तक ग्रामीण आबादी पर बोझ बने हुये थे, बिना क्षतिपूर्ति के खत्म किये जायें, (7) सारे रजवाड़े एवं सामंती भूसम्पत्ति, खदान, खंदक आदि राज्यसत्ता की सम्पत्ति हो; पूरे समाज के हित में उन भूसम्पत्तियों पर बड़े पैमाने पर आधुनिक खेती की जाय (8) किसानों की बंधकीकृत जमीन राज्यसत्ता की सम्पत्ति हो, उन बंधकों पर ब्याज किसान सरकार को देंगे, (9) जहाँ बटाईदारी की व्यवस्था हो भूमि-किराया/लगान या मुक्ति-लगान कर के रूप में सत्ता को देय हो, (10) निजी बैंकों के बदले एक सरकारी बैंक हो जिसके द्वारा जारी कागज वैध-मुद्रा होगा (उस समय सोना या चांदी का ही मुद्रा होता था), (11) यातायात के सारे साधन, रेलमार्ग, नहर, भाप के जहाज, सड़कें, डाक आदि सरकार द्वारा अधिगृहित किये जायें एवं निर्धन वर्गों के लिये मुफ्त किये जायें, (12) सारे लोक-सेवकों को बराबर तनख्वाह मिले, उन्हे ज्यादा मिले जिन्हे परिवार चलाना हो, (13) गिर्जा एवं राज्यसत्ता का सम्पूर्ण अलगाव, (14) उत्तराधिकार के अधिकार कम किए जायें, (14) ऊपर की ओर तेजी से बढ़ते हुये करभार, उपभोग की सामग्रियों पर करों की समाप्ति, (15) राष्ट्रीय कार्यशालाओं का उद्घाटन, राज्यसत्ता द्वारा सभी श्रमिकों के लिए रोजी-रोटी की गारंटी तथा जो काम करने में अक्षम हों उनके लिये प्रावधान, (17) जनता के लिये् सार्वजनीन एवं मुफ्त शिक्षा।

मांगो के साथ मांगों का स्पष्टीकरण भी था। अन्त में यह भी लिखा था कि “पूरी सम्भव ऊर्जा के साथ इन मांगों का समर्थन करना जर्मन सर्वहारा, टुटपूंजिये एवं छोटे किसानों के हित में होगा”।

सन 1848-49 की क्रांतियाँ – 2

अप्रैल 1848 की शुरुआत में, जब जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी की मांगें शीर्षक पर्चा प्रतिदिन जर्मनी में किसी न किसी जनतंत्रवादी अखबार में प्रकाशित हो रहा था, पर्चा बन कर घूम रहा था एवं श्रमिकों की बैठकों में उस पर चर्चा हो रही थी, मार्क्स और एंगेल्स जर्मनी वापस आये।

उनके जर्मनी वापस आने के पहले ही कुछेक तत्कालीन जर्मन राज्यों में जनता के व्यापक आक्रोश की अभिव्यक्ति हो चुकी थी (पहले ही कहा गया है कि उस समय तक जर्मनी का एकीकरण नहीं हुआ था)। कई राज्यों के शासक सुधार की मांगे मान चुके थे। खुद बर्लिन के सड़कों पर प्रशियाई राजा के सामने जनता आ चुकी थी, एवं प्रशियाई राजा मौखिक तौर पर कुछ कुछ आश्वासन दे चुके थे। अधिकांश राज्य में उदारवादी पूंजीवादी वर्ग अब सत्ता में थे। लेकिन फ्रांस का उदाहरण देखते हुये और जर्मनी के श्रमिक वर्गों की भी सम्भावित क्रांतिकारिता से घबराते हुये वे सामन्ती तत्वों से समझौता करने को तैयार थे। दूसरी ओर, टुटपूंजिया वर्ग अपने भाववाद से बाहर निकल कर श्रमिकों को अपनी मांगे हासिल करने के लिये ठोस रास्ता नहीं दिखा पा रहा था।

जर्मनी में कम्युनिस्ट लीग भी कमजोर था और जर्मनी का सर्वहारा भी वर्ग के रूप में आने के शुरुआती दौर में था। दूसरी ओर, मार्क्स और एंगेल्स आये तो उन्होने देखा कि जनतंत्रवादी खेमा पर जनता का विश्वास बना हुआ है। उन्हे महसूस हुआ कि जनतंत्रवादी खेमे के अन्दर, ढुलमुल और भाववादी पूंजीवादियों से अलग जो क्रांतिकारी तत्व हैं और कम्युनिस्ट लीग के अन्दर पुराने, साजिशी गोपनीयता के प्रेमी या सुधारवादियों से अलग जो सर्वहारा के जन क्रांतिकारी पार्टी का पक्षधर हैं, दोनों को एक साथ सम्बोधित भी करना होगा तथा साथ ही, दोनों संगठनों में सांगठनिक बहस चलानी होगी।

जर्मनी में कोलोन शहर पहुँच कर उन्होने पहले तो यह तय किया कि राइनिशे ज़ाइटुंग जैसा ही अखबार, न्यु राइनिशे ज़ाइटुंग के नाम से निकालेंगे और उसके लिये अनुदान व ग्राहक-चंदा इकट्ठा करना शुरू कर दिया। दूसरी ओर, कोलोन की जनतंत्रवादी समिति (डेमोक्रैटिक सोसाइटी) के साथ बातचीत को आगे बढ़ाते हुये उन्होने उस समिति की सदस्यता ग्रहण कर ली। साथ ही, कम्युनिस्ट लीग के अन्दर पुरानी बीमारियों (साजिशी गोपनीयता और विपरीत, सुधारवाद की राहों पर चलने की) को देख कर भी तय कर लिया कि अभी सब को साथ लेकर चलना है, ताकि मुख्य उद्देश्य में भटकाव नहीं आये।

हर दिन नये घटनाक्रम सामने आ रहे थे। न्यु राइनिशे ज़ाइटुंग के प्रकाशन के लिये अनुदान व चन्दे इकट्ठा करने के लिये एंगेल्स बार्मेन चले गये। एल्बरफेल्ड व आसपास के इलाकों में भी गये। कुछ चन्दे और अनुदान तो आ ही रहे थे लेकिन ब्रेमेन-एल्बरफेल्ड के पुराने पूंजीवादी जो एक समय एंगेल्स के मित्र थे और अब खुद कारखानेदार थे, पत्रिका का सम्भावित तेवर देख कर कुछ भी देने से हाथ खींच लिया। यहाँ तक कि एंगेल्स ने अपने पिता के सामने भी हाथ फैलाया। उन्होने फूटी कौड़ी नहीं दी। फिर भी, अब देर नहीं की जा सकती थी। पहला अंक जुलाई में प्रकाशित होना था, लेकिन मार्क्स-एंगेल्स ने जून में ही पहला अंक प्रकाशित कर दिया, और गाड़ी चल पड़ी।

वस्तुत:, इस नये अखबार को चलाने की जिम्मेदारी एंगेल्स पर ही पड़ी। नीति-निर्धारण के वक्त पूरे सम्पादकीय मंडल, जिसमें कम्युनिस्ट लीग के सबसे बेहतरीन नेता शामिल थे, की बैठक में मार्क्स राजनीतिक दिशानिर्देश के लिये मौजूद रहते थे। बाकि अधिकांश सम्पादकीय, राजनीतिक सर्वेक्षण एवं अन्य महत्वपूर्ण आलेख के एंगेल्स के लिखे होते थे। मार्क्स की अनुपस्थिति में मुख्य सम्पादक भी एंगेल्स ही होते थे। कई भाषायें जानने के कारण वह योरप के सभी देशों के राजनीतिक घटनाक्रम की जानकारी, जर्मन के अलावे फ्रांसीसी, अंग्रेजी, इतालवी, स्पेनी, बेल्जियाई और डैनिश भाषाओं के अखबारों और पत्रिकाओं के माध्यम से ले लिया करते थे।

मार्क्स अवाक रह जाते थे अपने मित्र के असाधारण उद्यम से। बाद में भी एंगेल्स की, कुशल पत्रकारिता एवं विभिन्न प्रकार की घटनाओं के प्रति सजग रहने की क्षमता पर मार्क्स ने कहा था, “वह वास्तव में एक विश्वकोश है। चाहे प्रफुल्लित रहे चाहे गंभीर, दिन या रात के किसी भी समय वह काम करने को सक्षम रहता है; लिखने में और सोचने में वह शैतान जैसा तेज है।”

एक साल पूरा होते न होते बन्द हो गया न्यु राइनिशे ज़ाइटुंग । सरकार ने (तब तक क्रांतिकारी ताकतें भी कमजोर पड़ चुकी थी) बन्द करवा दिया। इस एक साल की अवधि में एंगेल्स ने सौ से अधिक आलेख और प्रतिवेदन लिखे जिनमें, जर्मनी, पोलैन्ड, फ्रांस, ऑस्ट्रिया, इटली, स्विट्जरलैंड और हंगरी के राजनीतिक घटनाक्रम एवं क्रांतिकारी संघर्षों पर लेख शामिल थे।

मार्क्स-एंगेल्स के उद्देश्यों के अनुरूप यह अखबार घोषित तौर पर जनतंत्र का मुखपत्र होते हुये भी जर्मनी की उभरती सर्वहारा पार्टी का मार्गदर्शक बना रहा। बल्कि, यूँ कहा जाय तो प्रजातांत्रिक क्रांति के दिनों में सर्वहारा का कार्यक्रम भी इसी अखबार ने प्रस्तुत किया। सन 1914 में लेनिन ने लिखा कि न्यु राइनिशे ज़ाइटुंग क्रांतिकारी सर्वहारा का सबसे बेहतरीन मुखपत्र था जिसे आज तक कोई दूसरा, पीछे नहीं छोड़ सका।”  

जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी की मांगे में राष्ट्रीय कार्यशालाएँ स्थापित करने की मांग याद है? ताकि सबके लिये रोजगार की व्यवस्था हो सके? तो, वह मूलत: फ्रांस के क्रांतिकारी मजदूरों की मांग थी जिसे फरवरी 1848 के क्रांतिकारी दिनों में नई सरकार से उन्होने हासिल करके छोड़ा था। लेकिन, जैसा कि दुनिया जानती है सन 1848 की योरोपीय क्रांतियों की जीत बहुत थोड़े दिनों की रही। जून 1848 आते आते आमूल बदलाव चाहने वाले पूंजीवादी कमजोर और दिशाहीन होने लगे, जुझारू श्रमिक अकेले पड़ गये क्योंकि उस समय तक किसान उनके दोस्त नहीं बने थे और उदारवादी पूंजीवादी, पुराने सामंती, राजतंत्रवादी और प्रतिक्रिया की तमाम ताकतों के साथ, छोटी से छोटी किसी सुविधा के बदले घिनौने स्तर तक समझौते करने को तैयार थे। फलस्वरूप, उधर 1 जून को जर्मनी के कोलोन शहर में मार्क्स-एंगेल्स का अखबार न्यु राइनिशे ज़ाइटुंग प्रकाशित हुआ और इधर पैरिस में श्रमिकों की मांग पर बनी राष्ट्रीय कार्यशालायें 23 जून को बन्द कर दी गई। श्रमिक बगावत में उठ खड़े हुये लेकिन चार दिनों के संघर्ष के बाद हार गये। राज्यसत्ता पर प्रतिक्रियावादी ताकतों की पकड़ मजबूत हो चुकी थी। जेनरल लुइ-इउजीन कैविन्या के नेतृत्व में नैशनल गार्ड्स ने लगभग 10,000 क्रांतिकारी श्रमिकों को या तो मार डाला या घायल कर दिया और 4,000 श्रमिक फ्रांसीसी उपनिवेश अल्जिरिया भेज दिये गये [स्रोत: विकिपिडिया]। इस नरसंहार से प्रतिक्रांति ने फ्रांस में अपनी जीत की मुहर लगाई।

जर्मनी में भी प्रतिक्रांति के इस विजय का असर पड़ने लगा। मई 1848 में जब मार्क्स-एंगेल्स ने कोलोन की जनतंत्रवादी समिति की सदस्यता ली एवं लीग के फैसले के अनुसार अन्य नेताओं ने भी अपने अपने शहरों में जनतंत्रवादी समिति की सदस्यता ग्रहण किया उस समय तक फ्रांकफुर्ट में ‘जर्मन संसद’ (प्रजातंत्रवादी क्रांतिकारियों द्वारा गठित) की पहली बैठक हो चुकी थी। जर्मनी की एकता, जो क्रांतिकारी सर्वहारा की भी मुख्य मांग थी, उसकी यह पहली जन-अभिव्यक्ति थी। लेकिन पैरिस की खबर आने के बाद अखबारों और पत्रिकाओं पर सरकारी हमले बढ़ने लगे। विभिन्न शहरों में चल रही जनतंत्रवादी समितियाँ बन्द कर दी गई। न्यु राइनिशे जाइटुंग में माइन्ज़, ट्रियेर, ऐशेन, मैनहेम, उल्म, बर्लिन, कोलोन, डुसेलडॉर्फ, ब्रेसलाउ एवं अन्य शहरों में चल रहे पुलिसिया आतंक तथा बैडेन, वुर्टेमबर्ग, बाभारिया आदि जगहों पर जनतंत्रवादी समितियों के बन्द किये जाने के खिलाफ लिखा गया। पैरिस की घटनायें, किन परिस्थितियों में राष्ट्रीय कार्यशालायें बन्द कर दी गईं, एवं अन्य सारे मुद्दों पर अखबार में लिखने के साथ साथ एंगेल्स कोलोन वर्कर्स लीग की बहसों में एवं कोलोन के जनतंत्रवादी समितियों की बहसों में शामिल होते रहे।

न्यु राइनिशे ज़ाइटुंग को चलाना मुश्किल हो रहा था। पुराने अंशधारी [शेयरहोल्डर्स] साथ छोड़ रहे थे। मार्क्स-एंगेल्स बर्लिन गये। फिर ऑस्ट्रिया में वियेना गये। सितम्बर आते आते सरकार ने अखबार के प्रकाशन पर स्थगनादेश जारी कर दिया। अखबार के एक सम्पादक जॉर्ज वीर्थ ने लिखा:

“शहर कँटीला हो गया था/ जिस तरह अपने काँटे खड़े कर कँटीला होता है साही/ प्रशिया के प्रधान देवदूत के सशस्त्र सैनिकों की/ बाढ़ आ गई थी बाज़ारों और चौराहों पर।/ लड़ाकुओं का एक जत्था लेकर एक लेफ्टेनैंट/ हमारे दरवाजे पर आया,/ चिंघाड़ने लगा नगाड़ों पर चोट के साथ/ हमारे न्यु राइनिशे जाइटुंग के/ मौत का फैसला।”

एंगेल्स गिरफ्तारी से बचने के लिये बार्मेन चले गये। वहाँ भी पुलिस के पास खबर पहुँच गई। इधर पिता का क्रुद्ध हताशा, माँ का बीचबचाव … तंग आकर एंगेल्स ब्रसेल्स पहुँचे और एक साथी के साथ। लेकिन बदलती हालातों में, बेल्जियाई पुलिस ने होटल पर हमला बोल दिया। फर्जी बहाना बनाकर कि इनके कागज सही नहीं हैं, दोनों गिरफ्तार कर लिए गए और जेल में डाल दिये गये। पूरे शहर में एंगेल्स के मित्र भरे पड़े थे। फिर भी पुलिस ने उन्हे “आवारा” करार दिया और उसी दिन ट्रेन से फ्रांस की सीमा पर पहुँचा दिया।

5 अक्तूबर 1848 को जब एंगेल्स पैरिस पहुँचे तब जेब लगभग खाली था। पिछले जून की बगावत के दमन के बाद पैरिस मनहूस दिख रहा था। कुछेक दिन रुके। पर असह्य हो रहा था रहना। जेब में पैसे भी नहीं थे। अन्तत: पैरिस से बर्न तक का लगभग साढ़े तीन सौ मील की दूरी पैदल ही तय करने को ठान कर एंगेल्स निकल पड़े। पैरिस में उनकी मन:स्थिति का वर्णन उन्होने बाद में जेनेवा में लिखे गये एक यात्रा वृत्तांत में किया – पैरिस से बर्न शीर्षक इस असमाप्त यात्रा वृत्तांत का अंग्रेजी अनुवाद मार्क्स-एंगेल्स रचनासमग्र के खण्ड 7 में उपलब्ध है। एक महीने की इस पैदल यात्रा में उन्होने फ्रांसीसी किसानों को करीब से देखा (उसी यात्रा वृत्तांत में उनके अनुभव दर्ज हैं) और शहरों के श्रमिकों से गाँव के किसानों की दूरी को समझने लगे।

उधर कोलोन में स्थिति थोड़ी बेहतर होने के बाद न्यु राइनिशे ज़ाइटुंग 12 अक्तूबर 1848 से पुन: प्रकाशित होने लगा। उसी अंक में, मुख्य सम्पादक के रूप में मार्क्स ने यह घोषित किया कि सम्पादक-मंडल के एक भी सदस्य बदले नहीं जायेंगे, जबकि अधिकांश सम्पादक या तो दूसरे जर्मन शहरों में छुपे हुये थे या जर्मनी छोड़ चुके थे। लेकिन मार्क्स को एंगेल्स की चिन्ता थी। वह समझ रहे थे कि दूर स्विट्जरलैंड में, पैसों के बिना, काम के बिना और क्रांतिकारी साथियों से अलग उनका मित्र कैसी जिन्दगी जी रहा होगा और क्या उसकी मन:स्थिति होगी। बीच में एंगेल्स इतनी अधिक तंगी में आ गये थे कि उन्हे कुछ पैसों की मदद मार्क्स से मांगनी पड़ी थी, यह जानते हुये कि खुद मार्क्स किस आर्थिक कष्ट में रहते हैं। मार्क्स ने उन्हे कुछ पैसे जुटा कर भेजे भी थे। लेकिन जिस पते पर भेजा गया था वह पैसा, उस पते पर नहीं पहुँच पाया।

न्यु राइनिशे जाइटुंग के नये शेयरधारकों की आपत्ति थी कि जो सम्पादक काम कर ही नहीं रहे हैं उन्हे पूरे पैसे क्यों दिये जायें। मार्क्स ने उन्हे इस पर कोई फैसला लेने से रोका ताकि एंगेल्स एवं उनके साथी (लीग के नेता व जाइटुंग के और एक सम्पादक जो उनके साथ पैरिस गये थे और वहीं थे) को पूरे पैसे मिलते रहे। मार्क्स-एंगेल्स की बढ़ती वैचारिक हैसियत से जलने वाले और कान भरने वाले सभी देशों में समाजवादी खेमों के भीतर ही थे। उन्हे मौका मिला अफवाह फैलाने का कि किसी के नहीं रहने से अखबार को कोई फर्क नहीं पड़ा है और अब तो शेयरधारक लोग ‘काम छोड़कर गये हुये सम्पादकों को’ पैसे देनें से इनकार कर रहे हैं …! एंगेल्स के कानों तक भी पहुँचे होंगे अफवाह। उधर मार्क्स द्वारा भेजे गये पैसे भी एंगेल्स को नहीं मिले थे। अक्तूबर 26, 1848 को ही मार्क्स ने एंगेल्स को अखबार के लिये “पत्र एवं लम्बे आलेख” भेजने के लिये लिखा था। नवम्बर 1848 में उन्हे लिखना पड़ा, “यह कोरी कल्पना है कि एक मिनट के लिये भी मैं तुम्हे मँझधार में छोड़ सकता हूँ। तुम हमेशा से मेरे सबसे करीबी दोस्त रहे हो, और मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम भी मुझे अपना सबसे करीबी दोस्त मानते हो।” एंगेल्स को क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े रखने के लिये मार्क्स लगातार उनसे अलग अलग विषय सुझाते हुये आलेख मांगते रहे। कभी प्रुधों के बारे में, कभी हंगरी में चल रहे क्रांतिकारी युद्ध के बारे में, कभी टुटपूंजिया आदर्श का प्रतिमान, स्विट्जरलैंड के संघीय प्रजातंत्र के बारे में। लेकिन, साथ में यह भी जोड़ते रहे, “या किसी भी विषय पर लिख सकते हो, जैसा तुम चाहो।”

पैरिस से पैदल चलते हुये अक्तूबर के तीसरे हफ्ते में एंगेल्स जेनेवा पहुँचे, फिर लुसान। लुसान में श्रमिकों के बीच कम्युनिस्ट लीग के कुछ लोग मिले जो उनका नाम पहले से सुन रखे थे। इसलिये बिना झिझक के बातचीत हो पाई और उनका मन अच्छा हुआ। मार्क्स के सुझाव पर वह वहाँ से बर्न के लिये रवाना हुए और नवम्बर के 9 तारीख को पहुँच गये। लुसान छोड़ने के बाद भी लुसान के श्रमिक संघ ने एंगेल्स को नहीं छोड़ा। श्रमिक संघ ने एंगेल्स को, दिसम्बर में बर्न में होने वाले जर्मन श्रमिक संघों के पहले कांग्रेस में लुसान श्रमिक संघ का प्रतिनिधित्व करने को कहा। परिचयपत्र में लिखा गया, “भाई, चूंकि प्रतिनिधि नहीं भेज पायेंगे, हम आपसे आग्रह करते हैं कि आप बर्न में होने वाले श्रमिक कॉंग्रेस में हमारा प्रतिनिधित्व करें। सर्वहारा के हितों के पुराने योद्धा होने के कारण आप निश्चय ही अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभायेंगे। हालाँकि इस बार आप पूंजीवादियों या दूसरे बनियों से नहीं जुझेंगे। वहाँ सिर्फ सर्वहारा ही होंगे, जिनके साथ और जिनके लिये आपको जूझना पड़ेगा।”

उस कॉंग्रेस में एंगेल्स या अन्य किसी ने भी क्या कहा, यह तो कार्यवृत्त में दर्ज नहीं है लेकिन एंगेल्स बखूबी अपना काम किये होंगे। वह नये संघ के केन्द्रीय आयोग में चुन लिए गये। बर्न से ही, नवम्बर के अन्त से एंगेल्स ने स्वीट्जरलैंड के बारे में एवं उस सन्दर्भ में जर्मनी के बारे में लिखना शुरु किया और वे चिट्ठियाँ और आलेख न्यु राइनिशे ज़ाइटुंग में छपने लगे।

क्रांतिकारी फौजी संघर्षों के गहन में

सैन्य-विज्ञान, युद्ध की रणनीतिक एवं कार्यनीतिक समझ आदि के बारे में एंगेल्स का ज्ञान प्रसिद्ध है। बर्लिन में प्रशियाई आर्टिलरी में कुछेक महीने बिताने के कारण उतना नहीं, जितना बरसों तक योरप के विभिन्न देशों के भौगोलिक-राजनीतिक मानचित्रों में होते बदलाव, सैन्य गतिविधियाँ, युद्ध एवं सरकारों के खिलाफ जनता के क्रांतिकारी युद्ध, गुरिल्ला हमले, जनसेना-निर्माण आदि पर गहन अध्ययन एवं लेखन के कारण। सन 1849 की शुरुआत में स्विटजरलैंड से जर्मनी वापस लौटने के बाद उन्हे इस ज्ञान को व्यवहारिक तौर पर आजमाने का मौका मिला।   

एंगेल्स जर्मनी लौटने के लिये बेचैन हो रहे थे। उन्हे क्रांतिकारी गतिविधियों के केन्द्र में रहना था, किनारे नहीं – भले ही उसके चलते गिरफ्तारी ही क्यूँ न झेलनी पड़े। मार्क्स थोड़े दिन और रुक जाने की हिदायत दे रहे थे पर वह नहीं माने। सन 1849 की जनवरी के मध्य में वह कोलोन वापस आ गये। कोलोन व दूसरे जर्मन शहरों में तब तक प्रतिक्रियावाद एवं प्रशियाई राजशाही की पकड़ मजबूत हो चुकी थी। लेकिन, हंगरी में क्रांतिकारी संग्राम जोरों पर था। संघर्ष पोलैन्ड व इटली के राज्यों में भी चल रहे थे। उन दिनों साम्राज्यों के आपसी लड़ाईयों में तत्कालीन योरप की भौगोलिक-राजनीतिक सीमायें हमेशा तय होती हुई, टूटती हुई रहती थी। उन्ही में जारी जनता के क्रांतिकारी संघर्षों पर न्यु राइनिशे जाइटुंग में लिखते हुये एंगेल्स दो विन्दुओं को हमेशा रेखांकित करते थे। एक तो साम्राज्यों के अन्दर बंटे और बिखरे हुए हर एक राष्ट्र का एकीकरण, जो जर्मनी के एकीकरण के सवाल पर बार बार सामने आता था। दूसरा विन्दु था राष्ट्रीय स्वतंत्रता, पोलैन्ड, इटली एवं अन्य जगहों में चल रहे क्रांतिकारी संघर्षों के सन्दर्भ में जिसे परिभाषित करना जरूरी होता था।

सब अचम्भे से देखते थे कि कोलोन जैसे मजबूत सैन्य-किलाबन्दी वाले शहर में किस तरह, पूंजीवादी व प्रतिक्रियावादी संवाद-माध्यमों की प्रताड़ना, निन्दा, प्रतिक्रियावादी सैन्य अधिकारियों द्वारा किये जाते हमलों और अदालती सम्मनों को झेलते हुये न्यु राइनिशे जाइटुंग क्रांति के झंडे को बुलन्द किये रहता था, अपने पृष्ठों पर छपते हुये आलोचनात्मक आलेखों में किसी को छोड़ता नहीं था। सरकारी अखबार विदेश के क्रांतिकारी आन्दोलन के साथ गुप्त सम्बन्धों का आरोप लगाते थे तो मार्क्स और एंगेल्स गर्व के साथ घोषणा करते थे कि “फ्रांसीसी, अंग्रेज, इतालवी, स्विस, बेल्जियाई, पोलिश, अमरीकी एवं अन्य जनतंत्रवादियों के साथ हमारे सम्पर्क हमने कभी नहीं छुपाये हैं।” एंगेल्स ने बाद में याद किया, कि “सम्पादकीय कमरे में संगीन लगे आठ राइफल और 250 जिन्दा कारतूसों की मौजूदगी तथा कम्पोजिटरों के माथे पर लाल जैकोबिन टोपियों के कारण हमारे घर को अधिकारी एक किला मानते थे जो अचानक बस एक हमले में कब्जा नहीं होगा।”

अखबार के खिलाफ शिकायतें तो होती ही रहती थी, 7 फरवरी 1849 को मार्क्स और एंगेल्स को व्यक्तिगत तौर पर ज्युरी [अदालती पंच] का सामना करना पड़ा। आरोप था कि उन्होने, 5 जुलाई, 1848 के न्यु राइनिशे जाइटुंग में प्रकाशित “गिरफ्तारियाँ” शीर्षक एक आलेख के द्वारा प्रोक्युरेटर-जेनरल ज़्वेइफेल एवं उनके सिपाहियों का अपमान किया है। अखबार के प्रकाशक, हेर्मान कोर्फ भी अदालत में खींच लाये गये। मार्क्स और एंगेल्स दोनों ने अदालत का पूरा इस्तेमाल किया। सम्बन्धित आलेख में कही गई बातों की तथ्यात्मकता तो उन्होने प्रमाणित किया ही, अपने पूरे वक्तव्य को उन्होने राजनीतिक मोड़ भी दे दिया। एंगेल्स ने दिखाया कि संसद में वामपंथ की विजय और यथार्थ में उसका प्रतिक्रांतिकारी ताकतों के हाथों पराजय साथ साथ हुआ। यही कारण था कि क्रांतिकारी लहरों का उफान होते हुये भी अचानक सभी जर्मन राज्यों में प्रतिक्रांतिकारी ताकतों को हमला शुरु करने का अवसर मिल गया। ज्युरियों के अदालत ने दोनों को बाइज्जत वरी किया। उल्टे, अदालत को दोनों ने मिल कर प्रचार मंच में बदल दिया।

उधर कम्युनिस्ट लीग के अन्दर एक गुट फिर से लीग को पुराने, लीग ऑफ द जस्ट वाले गुप्त तौर तरीकों की ओर घसीट रहा था। जबकि उनका लक्ष्य ‘वर्ग-विहीन’ यानि खास तौर पर टुटपूंजिया था। मार्क्स और एंगेल्स ने इस प्रवृत्ति का पुरजोर विरोध किया। लेकिन सहमति नहीं बनी। मार्क्स और एंगेल्स लीग के नेतृत्व को बार बार श्रमिक संगठनों के प्रति ध्यान देने के लिये कह रहे थे। खुद भी वे दोनों, इसी काम में लग गये। उन्हे लगा कि अब हरेक राज्य के श्रमिक संगठनों को एकताबद्ध करते हुये, जनतंत्रवादियों के संगठनों से अलग पूरे जर्मनी के श्रमिकों की एक पार्टी बनाने का वक्त आ गया है। इसी काम में वे आगे बढ़ रहे थे, मई 1849 में नजदीक के जिलों के सम्मेलन की एवं जून 1849 में लाइपजिग में पूरी जर्मनी के श्रमिक संगठनों के सम्मेलन की तारीखें भी तय हो गई थी। तभी दूसरा विकासक्रम ने उनका ध्यान आकर्षित किया।

सामान्यत: योरप में प्रतिक्रांतिकारी ताकतों के मजबूत होने के बावजूद हंगरी एवं साथ में पश्चिमी तथा दक्षिणी जर्मनी में क्रांतिकारी शक्तियाँ अभी हारी नहीं थी; नये जन-विक्षोभ उभर रहे थे। एंगेल्स का अपना बचपन का शहर एल्बरफेल्ड भी इन्ही इलाकों में पड़ता था। उनके दिमाग में एक सैन्य-कार्रवाई की कार्यनीति उभर आई थी – कि पहले तो किलाबन्द या सैन्य-छावनी वाले शहरों में बेमतलब की कार्रवाईयों को टाला जाय और छोटे शहरों में, कारखाने के श्रमिक समुदायों में और ग्रामीण क्षेत्रों में ध्यान भटकाने वाली कार्रवाईयाँ तेज की जाएं, अभी तक जो ताकतें लामबन्द नहीं हुई हैं उन्हे बगावत वाले केन्द्रों की ओर भेजा जाए और सब तरफ खड़ी हो रही जन-सेनाओं को इकट्ठा कर क्रांतिकारी सेनावाहिनी का वीजारोपण किया जाए।

इसी सोच को विस्तार देते हुये एंगेल्स एल्बरफेल्ड की ओर रवाना हुए। रास्ते में एक शहर पड़ता था सोलिंगेन; वहाँ क्रांतिकारी श्रमिकों को एक सैन्य-कम्पनी में संगठित किये और 400 हथियारबन्द सर्वहारा का नेतृत्व सम्हाले हुये 11 मई 1849 को एल्बरफेल्ड प्रवेश किए।

एल्बरफेल्ड के बगावत में वहाँ के श्रमिकों ने कैदखाने को अपने कब्जे में कर लिया था, दंडाधिकारी के दफ्तर को भंग कर दिया था लेकिन वहाँ नेतृत्व टुटपूंजियों से भरी हुई ‘सुरक्षा समिति’ के हाथों में था। क्रांतिकारी गतिविधियों को आगे बढ़ाने के बजाय वे पुराने प्रशासकों के साथ समझौते की दिशा में बढ़ने लगे। आन्दोलन कुछ ही दिनों में बिखर गया। एंगेल्स ने खुद को ‘सुरक्षा समिति’ के हाथों ही सौंपा और कहा कि राजनीतिक मामलों से वह कोई सरोकार नहीं रखेंगे क्योंकि “वहाँ उस वक्त तक सिर्फ काला-लाल-सुनहरा” [जर्मनी की एकता के रंग] “आन्दोलन ही सम्भव था और इसीलिये, राजशाही संविधान” [फ्रांकफुर्ट के संसद में पारित] “के खिलाफ सभी कार्रवाई को” एंगेल्स के विचारों के अनुसार, “टाला जाना चाहिए था।” और इसीलिये, उन्होने कहा, कि वह सिर्फ सैन्य-मामलों में काम करना चाहते हैं। एंगेल्स को सैन्य-आयोग में जगह मिल गई। उन्हे किलाबन्दियों के निर्माण, बैरिकेडों का देखरेख एवं तोपखाने का जिम्मा दिया गया। पूरी शिद्दत के साथ वह काम पर लग गये। अभियंताओं के एक दल को खड़ा किया और बेतरतीब बैरिकेडों को शहर के बाहरी छोर पर फिर से बनाने का आदेश दिया। हथियारबन्द इकाइयों के जगह बदले। उनके कई सुझाव सुरक्षा समिति द्वारा माने भी नहीं गये। फिर भी वह काम पर डटे रहे। क्रांतिकारी ताकतों को बचाने के लिए कुछेक काम तो सुरक्षा समिति की राय के विरुद्ध जाकर भी करना पड़ा।

एंगेल्स के जीवनीकार जिक्र करते हैं 13 मई, रविवार के सुबह की। अपने कंधों पर बागी कमांडर का वस्त्र-चिन्ह लाल चादर डाले हुए वह एल्बरफेल्ड और निचला बार्मेन को जोड़ने वाले रास्ते पर आ गये। या तो वह बैरिकेडों का निर्माण देखने या बार्मेन के श्रमिकों से मिलने जा रहे थे। एक पुल पर बने बैरिकेड पर ज्यों ही वह चढ़े, अपने पिता से उनकी भेंट हो गई – वह गिर्जाघर जा रहे थे। दोनों के मिलने से एक कष्टदायक दृश्य वहाँ उनके बीच घटित हुआ।

पूंजीवादी भयभीत थे। उन्होने एंगेल्स के बारे में तरह तरह के अफवाह फैलाये, कि कम्युनिस्ट पूरी क्रांति को अपने कब्जे में करना चाहते हैं और रात के अंधेरे में एंगेल्स के नेतृत्व में बैरिकेडों पर लगे काला-लाल-सुनहला झंडे को हटाकर लाल झंडा लगवा दिया गया आदि। सुरक्षा समिति का टुटपूंजिया नेतृत्व उनकी बातों में आकर 14 मई को प्रस्ताव पारित किया कि एंगेल्स चौबीस घंटे के अन्दर एल्बरफेल्ड छोड़ दें। यह फैसला सुन कर हथियारबन्द श्रमिक और स्वयंसेवक जत्थे गुस्से में आ गये। लेकिन आपसी झगड़े क्रांतिकारी ताकतों को कमजोर कर देते; प्रशियाई सेना भी आ ही रही थी। इसलिए 15 मई को एंगेल्स कोलोन के लिए रवाना हो गये। 17 मई का न्यु राइनिशे ज़ाइटुंग लिखा कि श्रमिकों ने उनके सम्पादकीय मंडल के एक सदस्य को अपार स्नेह दिया। लेकिन आगे लम्बी लड़ाई है, जिसमें श्रमिकों के हितों पर जोखिम नहीं आनी चाहिये। जब बड़ी लड़ाई शुरू होगी, एंगेल्स को, अखबार के दूसरे सम्पादकों की तरह वे मोर्चे पर पायेंगे और तब, दुनिया की कोई ताकत उसे हटा नहीं पायेगी।

लेकिन सभी इलाकों में विद्रोह टूटने और बिखरने लगे थे। टुटपूंजियों का नेतृत्व निर्णायक क्रांतिकारी कदम उठाने के बजाय अपने हिचकिचाहट में फँसा था, पूंजीवादी वर्ग सामन्ती ताकतों के साथ समझौते कर रहे थे और श्रमिक मोहमुक्त हो कर अपनी जगहों की ओर लौट रहे थे। प्रशियाई सरकार ने देखा कि अन्तिम, जोरदार चढ़ाई का यही वक्त है। उसी क्रम में न्यु राइनिशे जाइटुंग पर दमन की कार्रवाई शुरू की गई। अखबार के सम्पदकों पर तेइस अदालती मुकदमे लादे गये। 16 मई को ही ‘विदेशी’ मार्क्स को 24 घंटे में प्रशिया से निकालने का आदेश जारी हो गया था। बाकी सम्पादक पहले ही या तो गिरफ्तार किये या निकाले जा चुके थे। 17 मई को एंगेल्स को गिरफ्तार करने का और 6 जून को उन्हे तलाशने का आदेश जारी हुआ।

अखबार को बन्द करने के लिये मुख्य सम्पादक मार्क्स को भेजे गये नोटिस में लिखा था कि उनका अखबार हाल के प्रकाशित आलेखों के द्वारा मौजूदा सरकार के विरोध में लोगों को उकसा रहा है, हिंसात्मक क्रांति और सामाजिक प्रजातंत्र को बढ़ावा दे रहा है और इस तरह सरकार द्वारा उन्हे दिये गये आतिथ्य का वह उल्लंघन कर रहे हैं। अत: उस आतिथ्य को वापस लिया जा रहा है और चुँकि उनके कोलोन में रहने के कागजात के तारीख आगे नहीं बढ़ाये गये हैं, वह 24 घंटे के अन्दर कोलोन छोड़ दें।

न्यु राइनिशे जाइटुंग का आखरी अंक 19 मई को लाल स्याही में छप कर प्रकाशित हुआ। मार्क्स ने सम्पादकीय में सरकार के झूठे आरोपो का खण्डन किया। अखबार का, सामाजिक प्रजातंत्र के पक्ष में शुरु से ही रहने की बात कही और फैसले की निन्दा करते हुये उसे कायरतापूर्ण कहा। साथ ही कहा कि न तो उनकी इस सरकार के प्रति कोई हमदर्दी है और न वे सरकार से कोई हमदर्दी चाहते हैं। कोलोन के श्रमिकों के प्रति एक सम्बोधन में उनकी हमदर्दी के लिये आभार व्यक्त किया गया और कहा गया कि हर जगह और हमेशा, अखबार के सम्पादकों का आखरी आह्वान होगा, श्रमिक वर्ग की मुक्ति !

अखबार के आखरी अंक के प्रकाशित होने के दो दिन पहले एंगेल्स गिरफ्तारी से बचने के लिये छुप गये थे। आखरी अंक निकलने के बाद मार्क्स के साथ वह फ्रांकफुर्ट की ओर रवाना हो गये।

फ्रांकफुर्ट में राष्ट्रीय संसद के वाम पक्ष को मार्क्स और एंगेल्स ने समझाने की कोशिश की कि वे दक्षिण-पश्चिम जर्मनी में चल रहे क्रांतिकारी संघर्षों के केन्द्रीय नेतृत्व का भार ग्रहण करे। एंगेल्स ने वहाँ के भौगोलिक मानचित्र तथा स्थिति को विस्तारपूर्वक समझाते हुये कहा कि धूर दक्षिण-पश्चिम के काले जंगल में फ्रांस की सीमा से सटे बैडेन शहर में हुये विद्रोह का काफी महत्व है। उसे संगठित कर पूरे दक्षिण-पश्चिम जर्मनी के विभिन्न शहरों में बगावत को भड़काया जा सकता है और संगठित रूप से प्रतिक्रांतिकारी प्रशियाई सेना से लोहा लिया जा सकता है। बैडेन की क्रांतिकारी सेना को फ्रांकफुर्ट बुला कर फ्रांकफुर्ट को कब्जे में किया जा सकता है, जिसका पूरे जर्मनी के लिये महत्व है। लेकिन संसद के वाम पक्ष के टुटपूंजिये सांसद नहीं माने। तब एंगेल्स और मार्क्स खुद बैडेन गये। वहाँ की क्रांतिकारी ताकतों के नेतृत्व को समझाया कि वे अपने फौजी दस्ते को फ्रांकफुर्ट भेजें ताकि राष्ट्रीय संसद को प्रभावित किया जा सके। लेकिन वहाँ भी वही स्थिति हुई। तब वह एक दूसरा निकटवर्ती शहर पैलेटिनेट पहुँचे। वहाँ भी क्रांतिकारी आन्दोलन चल रहा था। अस्थाई सरकार में कम्युनिस्ट लीग के सदस्य भी थे और कुछेक जनतंत्रवादी भी उनकी राय के समर्थन में थे। पर वहाँ भी अन्तत: बात नहीं बनी। दर असल हर जगह पर विद्रोह या आन्दोलन स्थानीय था; पूरे जर्मनी के क्रांतिकारी एकीकरण की कोई दृष्टि टुटपूंजिया नेतृत्व के पास नहीं थी।

पैलेटिनेट से एक तीसरा शहर बिंगेन जाते हुये, मई के अंत में मार्क्स और एंगेल्स स्थानीय प्रशासन द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हे फ्रांकफुर्ट ले जा कर छोड़ दिया गया। वहाँ से वे फिर से बिंगेन पहुँचे – मार्क्स पैरिस के लिये रवाना हो गये और एंगेल्स पैलेटिनेट के अन्तर्गत ही पास में स्थित काइजरस्लॉटर्न लौट आये। उनकी ईच्छा थी कि वहीं एक सामान्य राजनीतिक प्रवासी बन कर रहेंगे।  संघर्षों के दौर के पुनर्जीवित होने पर “आन्दोलन में न्यु राइनिशे जाइटुंग की एकमात्र जगह – एक सैनिक की” जगह लेने को तैयार रहते हुये।

पैलेटिनेट की अस्थाई सरकार ने एंगेल्स को कई असैनिक व सैनिक पदों पर आने का प्रस्ताव दिया। एंगेल्स ने उन प्रस्तावों को ठुकरा दिया। लेकिन अस्थाई सरकार के अखबार में लिखने को राजी हो गये। लिखे भी। लेकिन यहाँ भी उसी स्थिति का सामना करना पड़ा। ‘भड़काऊ’ होने का आरोप लगाकर सम्पादकों ने दूसरे आलेख को खारिज कर दिया। एंगेल्स ने फिर उस अखबार में लिखना बन्द कर दिया।

तब तक प्रशियाई सेना पैलेटिनेट पहुँच चुकी थी। अस्थाई सरकार, जनतंत्रवादी आन्दोलन एवं क्रांतिकारी सेना को कुचलने की लड़ाई शुरू हो गई। एंगेल्स तुरन्त वहाँ के कम्युनिस्ट लीग सदस्य एवं क्रान्तिकारी सेना के अगुआ दस्ता के प्रभारी अगस्त विलिच के सहकारी बन गये। जम कर उन्होने युद्ध में भाग लिया। क्रांतिकारी सेना की मदद के लिये एल्बरफेल्ड के श्रमिक आ गये थे। उन्होने एंगेल्स को पहचान लिया और उनके नेतृत्व में काम करने को आतुर हो उठे।

एंगेल्स ने जबर्दस्त ढंग से क्रांतिकारी सेना के कार्रवाईयों को संचालित किया। छोटे छोटे संघर्षों को छोड़ दें तो प्रशियाई सेना के साथ चार बड़े टक्करों में एंगेल्स रहे। क्रांतिकारी सेना अन्तत: पराजित हुई – धीर धीरे पीछे हटते हुये बैडेन-पैलेटिनेट के बागी सेना का आखरी जत्था 12 जुलाई 1849 को स्विट्जरलैंड की सीमा को पार कर लिया।

मार्क्स की बेटी इलियानोर ने अपनी स्मृति में लिखा, “जिन्होने भी उन्हे” [एंगेल्स को] “युद्ध में देखा, बाद में एक लम्बे समय तक वे उनके असाधारण शांतभाव एवं खतरों को निहायत तुच्छ मानने वाली घृणा के बारे में बोलते पाए गए।”  

प्रतिक्रांति के दौर की शुरुआत और इंग्लैंड में बसने का निर्णय

विलिच के नेतृत्वाधीन, क्रांतिकारी सेना की आखरी इकाई के साथ स्विट्जरलैंड में प्रवेश करने के बाद एंगेल्स और बाकी सभी ने कुछेक दिन सीमा पर ही बिताये। फिर विलिच की इकाई का शिविर बना वेवे नाम के एक शहर में। एंगेल्स को डर सता रहा था कि कहीं मार्क्स पैरिस में गिरफ्तार न हो गये हों। वेवे पहुँचने के अगले ही दिन जेनी मार्क्स को लिखी गई उनकी एक चिट्ठी अभिलेख में उपलब्ध है। 25 जुलाई 1849 की इस चिट्ठी में, मार्क्स का हालचाल पूछते हुये और उनकी गिरफ्तारी की आशंका जताते हुये उन्होने लिखा है, “अक्सर मेरे मन में यह खयाल आता रहा कि प्रशियाई गोलियों के बीच मैं, जर्मनी में रह रहे दूसरे लोगों से, और खास कर पैरिस में मार्क्स से कम खतरनाक जगह पर हूँ।” मार्क्स की लिखी हुई, 17 अगस्त 1849 की चिट्ठी भी उपलब्ध है; जिसमें मार्क्स लिखते हैं, “मुझे नहीं मालूम मेरी पहली चिट्ठी तुम्हे मिली कि नहीं…… मैं फिर से कह रहा हूँ कि मेरी पत्नी और मैं तुम्हे लेकर भयानक चिन्तित थे और तुम्हारी खबर मिलने के बाद बहुत खुश हुये।”

वेवे के शिविर में रहते हुये आसपास घूमते हुये एंगेल्स को विभिन्न किस्म के जर्मन आप्रवासियों से मिलने और क्रांति के विफल होने के कारणों को मूर्त रूप में देखने तथा परखने के मौके मिले। टुटपूंजिया जनतंत्रवादियों का बड़बोलापन, खुद की ताकत को ज्यादा और दुश्मन की ताकत को कम कर आँकने की प्रवृत्ति, अतिक्रांतिकारिता और हताशा के बीच झूलने की आदत, असफलता के प्रधान कारणों को ढूंढ़ने के बजाय एक दूसरे की सैन्य-कार्रवाईयों में गलती ढूंढ़ते रहना। हाँ, लेकिन इसी अन्तिम वाली बात पर, अगर कोई उनकी इकाई पर गलती, अनुशासन एवं सैन्य-कर्तव्यों के बोध का अभाव आदि का लांछन लगाता था तो वह अपनी इकाई का पक्ष समर्थन करने को उतर पड़ते थे। जुलाई के अन्त तक उन्होने इस विषय पर एक लेख भी लिखा, “अस्वीकार”, जिसमें उन्होने प्रमाणित किया कि उनकी इकाई ने अन्त अन्त तक अपना क्रांतिकारी कर्तव्य निभाई थी। यह लेख कहीं छपा तो नहीं पर इस लेख को लिखने के बाद एंगेल्स को लगा कि पूरी क्रांतिकारी अभियान पर एक पुस्तिका लिखी जानी चाहिये। मार्क्स भी पैरिस से लिखे जा रहे पत्रों में उन्हे यही करने के लिये प्रेरित व उत्साहित कर रहे थे। लेकिन शिविर का माहौल ऐसा था, आसपास के लोग और खुद इकाई का मुखिया इलिच, साहसी और उस्ताद सैनिक होते हुये भी विचारों में इतने पिछड़े हुये थे कि एंगेल्स ऊबने लगे थे। लेकिन कहीं जाना भी सम्भव नहीं हो रहा था क्योंकि पैसे नहीं थे।

सोवियत रूस से सन 1974 को प्रकाशित एंगेल्स की जीवनी में लिखा है कि बीच-अगस्त 1849 में उनके परिवार से उनके नाम कुछ पैसे भेजे गये। इसका स्रोत तो पता नहीं लेकिन गुस्ताभ मेयर द्वारा रचित एंगेल्स की जीवनी में एंगेल्स के साले (शायद एमिल ब्लैंक ही होंगे, बहन मेरी के पति) की एक चिट्ठी उद्धृत है। चिट्ठी बहुत भद्दी है, लेकिन पता चलता है कि एंगेल्स ने उनसे पैसे मांगे थे और उन्होने पैसे नहीं दिये। एंगेल्स के सारे कामों को ठेठ मध्यवर्गीय कूपमंडुक की भाषा में ‘जनोद्धार’ के लिये किए गए और ‘निरर्थक’ बताते हुये उस चिट्ठी में उन्हे परिवार में लौट आने को कहा गया है और यह उपदेश दिया गया है कि पैसे के लिये बाप को नहीं लिख सकते तो माँ को लिखो। जिस एमिल ब्लांक के बारे में मेरी की शादी के पहले एंगेल्स बहुत उत्साहित थे कि वर समाजवादी है, उसके द्वारा लिखी गई इस चिट्ठी को पढ़ कर उनकी क्या मन:स्थिति हुई होगी यह समझा जा सकता है। लेकिन जीवनीकार गुस्ताभ मेयर ने सही लिखा है: “इसी भाषा में एंगेल्स अशिक्षितों द्वारा ललचाये जाते थे। लेकिन एंगेल्स का एहसास था कि ‘दुनिया नये जमाने की प्रसव-पीड़ा में है’ – वर्ष की शुरुआत में उन्होने छपे अक्षरों में इसका स्वागत किया था। उन्हे यह सही लगता था कि जिसने भी सृजन की क्रिया से खुद को पीछे नहीं हटा लिया है उसे अवश्य प्रसव-पीड़ा में अपना हिस्सा मिलना चाहिये। उन्होने खुद प्रसन्न हृदय से यंत्रणा में हिस्सा लिया क्योंकि उन्होने महसूस किया कि भविष्य उनके साथ है।”

उपरोक्त स्रोत से यह आभास होता है कि एमिल से मेरी इस बात को जानी होंगी और माँ या पिता से सम्पर्क कर पैसे भेजवाई होंगी। क्योंकि आगे भी ऐसे प्रसंग आयेंगे जब बहन मेरी ही, अपने परिवार के साथ एंगेल्स का सम्पर्कसुत्र बनेंगी।

खैर, एंगेल्स को पैसे मिलते ही एंगेल्स वेवे का शिविर छोड़ लुसान पहुँचे और रहने की एक जगह जुटा कर अपनी पुस्तिका पर काम करने लगे। पुस्तिका का नाम रखा साम्राज्यशाही संविधान के लिये जर्मन अभियान । 24 अगस्त 1849 को अपने मित्र जैकब लुकास शैबेलिज़ को उन्होने लिखा, “…बैडेन-पैलेटिनेट क्रांतिकारी प्रहसन के बारे में अपना संस्मरण लिख रहा हूँ। …तुम जानते हो कि मैं बड़बोले, आदतन प्रजातंत्रवादियों की भ्रांतियों में नहीं रहूँगा और उन प्रधानों के बड़े बोलों के पीछे छिपी कायरता को देख लूंगा – उतने के लिये पर्याप्त आलोचक हूँ मैं। न्यु राइनिशे जाइटुंग के योग्य मेरा आलेख पूरी कहानी को, दूसरे संस्मरणों से अलग एक भिन्न दृष्टिकोण से प्रस्तुत करेगा।”

हालाँकि, यह पुस्तिका भी कहीं से प्रकाशित नहीं हो पाई। जर्मनी में हो या स्विट्जरलैंड में, लीग के सदस्य या अन्य कोई भी पुराना मित्र इस दिशा में उन्हे मदद करने की स्थिति में नहीं थे।

स्विट्जरलैंड में, एक ही तरह के नजरिये वाले लोगों से एंगेल्स सम्पर्क बनाये रखने की कोशिश करते थे। एक बार बर्न गये तो विल्हेल्म वुल्फ व कम्युनिस्ट लीग के अन्य सदस्यों से मुलाकात हुई। फिर जेनेवा में उनकी पहली मुलाकात हुई विल्हेल्म लिबनेख्त से, जो बाद में उनके मित्र रहे आजीवन। लिबनेख्त ने इस पहली मुलाकात का सुन्दर संस्मरण लिखा है: “फ्रेडरिक एंगेल्स के पास एक साफ, उज्ज्वल दिमाग था, जो हर तरह के रोमानी और भावुकतापूर्ण कुहासे से मुक्त था … साफ उज्ज्वल आँखें थी जो सतह पर नहीं टिकती थी बल्कि चीजों के भीतर से भेदती हुई, तह तक देखती थी … मुझमें तुरन्त कौंधी थी यह बात जब हम पहली बार मिले थे … जेनेवा की झील के किनारे सन 1849 की गर्मियों के वे आखरी दिन थे जहाँ राइख संविधान अभियान की असफलता के बाद हमने कई आप्रवासी कॉलोनियाँ खड़ी की थीं … उसके पहले मुझे विभिन्न किस्म के कई ‘महान लोगों’ के साथ व्यक्तिगत परिचय करने का मौका मिला था जैसे रूज, हेइन्जेन, जुलियस फ्रोबेल, स्ट्रुव तथा बैडेन एवं सैक्सनी ‘क्रांतियों’ में शामिल जनता के कई अन्य नेता, लेकिन जितना अधिक नजदीकी मेरा परिचय उनसे होता गया, उतना ही अधिक उनकी प्रभा धुंधलाती गई … हवा में जितना अधिक कोहरा होता है उतने ही बड़े दिखते हैं लोग और चीजें। फ्रेडरिक एंगेल्स में यह गुण था कि स्पष्ट दृष्टि वाली उनकी आँखों के सामने कोहरा अदृश्य हो जाता था और लोग तथा चीजें वैसे ही दिखने लगते थे जैसे होते हैं लोग और चीजें। वह चुभने वाली नजर और फलस्वरूप भेदने वाला निर्णय शुरू शुरू में मुझे असहज कर देते थे; कभी कभी आहत भी करते थे … व्यक्तियों और चीजों के बारे में हमारी एक दूसरे की रायों पर सहमति के लिए – भले ही तुरन्त न हुई हो हमेशा - रुकावट नहीं बनी वह ‘दक्षिणी-जर्मन सन्तोषीपन’, जिसके अवशेष थे मेरे अन्दर उस समय तक, और जिसकी मुकम्मल सफाई बाद में इंग्लैंड पहुँच कर हुई।”

उधर मार्क्स सपरिवार पैरिस में परेशानी में थे। जून महीने में जनतंत्रवादियों के एक गुट के द्वारा विरोध प्रदर्शन के उपरान्त फ्रांस की प्रतिक्रियावादी सरकार की दमनात्मक कार्रवाईयाँ बढ़ गई। 19 जुलाई को मार्क्स को आदेश दिया गया कि वह अविलम्ब पैरिस छोड़ मोर्बिहान चले जायें। मोर्बिहान पश्चिमोत्तर फ्रांस की एक दलदली और अस्वस्थ जगह थी। एक तरह से यह क्रांतिकारियों को बीमारी से भरी, आवागमनहीन दूरदराज की जगहों पर भेज कर मार डालने के षड़यंत्र जैसा फैसला था। मार्क्स ने फ्रांस छोड़ने का फैसला कर लिया। स्विटजरलैंड के लिये पासपोर्ट उन्हे मिलता भी नही और खुद स्विट्जरलैंड में आप्रवासी जर्मन क्रांतिकारी कितने दिन रह पायेंगे यह भी सोचने वाली बात थी। इसलिये 24 अगस्त को वह, पत्नी जेनी और बच्चों को पैरिस में छोड़ कर इंग्लैंड की ओर रवाना हुये और लन्दन पहुँच गये। एक दिन पहले जो पत्र उन्होने एंगेल्स को लिखा उसमें अपने लन्दन जाने और परिवार को पैरिस में रख जाने की सूचना के साथ साथ एंगेल्स से भी लन्दन चले आने का आग्रह किया:

“लन्दन में एक जर्मन अखबार शुरू कर पाने की सकारात्मक सम्भावना है। कोष के एकांश के लिये मैं आश्वस्त हूँ।

“इसलिये तुम अभी तुरन्त लन्दन के लिये रवाना हो जाओ। यह तुम्हारी सुरक्षा की भी मांग है। प्रशियाई तुम पर दो बार गोली चलायेंगे, 1) बैडेन के लिये, 2) एल्बरफेल्ड के लिये। और फिर, क्यूँ स्विट्जरलैंड में पड़े रहोगे जहाँ कुछ भी तुम कर नहीं पाओगे?

“लन्दन आने में तुम्हे कोई कठिनाई होगी, चाहे एंगेल्स के नाम से आओ या मेयर के नाम से। ज्यों ही तुम कहोगे कि तुम लन्दन जाना चाहते हो, तुम्हे फ्रांसीसी दूतावास से लन्दन जाने का एक-तरफा पासपोर्ट मिलेगा।

मैं पूरी तरह तुम्हारे लन्दन आने पर भरोसा करता हूँ। तुम स्विटजरलैंड रह ही नहीं पाओगे। लन्दन में हम काम पर लग जायेंगे।…

“पुन:, मैं भरोसे के साथ तुम्हारा इन्तजार कर रहा हूँ कि तुम मुझे मँझधार में छोड़ नहीं दोगे।”

चिट्ठी मिलने पर एंगेल्स ने भी तय कर लिया कि वह इंग्लैंड जायेंगे। लेकिन जर्मन या फ्रांसीसी सीमा पर पहुँचते ही वह गिरफ्तार कर लिये जाते। एकमात्र रास्ता था इटली स्थित जेनोआ बन्दरगाह  होकर, जिसके लिये उन्हे पीडमॉन्ट शहर में सीमा पार करना पड़ता। वही उन्होने किया। पीडमॉन्ट के पुलिस की नजर बचा कर चलते हुये अक्तूबर की शुरूआत में वह जेनोआ पहुँचे और एक अंग्रेज स्कूनर (दो मस्तूलों और पाल वाला छोटा जहाज) पर 6 अक्तूबर को लन्दन के लिये रवाना हुये।

इंग्लैंड के तट पर पहुँचने में पाँच हफ्ते लगे। इन पाँच हफ्तों में एंगेल्स ने नौ-परिवहन के बारे में अपना ज्ञान बढ़ाया। उनकी अप्रकाशित पाण्डुलिपियों में एक डायरी है उस समय की जिसमें सूर्य की स्थिति, हवा की दिशा, समुद्र की अवस्था आदि के बारे में टिप्पणियाँ हैं तथा तटों के रेखाचित्र हैं।

लंदन में एक साल; स्वतंत्र सर्वहारा क्रांतिकारी पार्टी निर्माण की ओर

लन्दन आने के बाद, सितम्बर 1849 में मार्क्स ने कम्युनिस्ट लीग के बिखरी हुई केन्द्रीय समिति को पुनर्संगठित किया था। एंगेल्स के आते ही वह, केन्द्रीय समिति में शामिल कर लिये गये। बहुत जल्द्, लीग के पुराने साथी इन दोनों के इर्द गिर्द जुटते गये। साथ ही, कुछ नये साथी जैसे अगस्त विलिच, जिनके सहकारी बन कर एंगेल्स बैडेन-पैलेटिनेट अभियान के कमान में थे या विलहेल्म लीबनेख्त, जिनसे उनकी मित्रता जेनेवा में हुई थी, लीग में शामिल होते गये।

एक साथ होने के बाद मार्क्स और एंगेल्स, जर्मन आप्रवासियों, शरणार्थियों एवं देश-निकालों से सम्बधित संगठनों से भी जुड़े एवं उनमें काफी काम किये। उन संगठनों के लिये एंगेल्स ने जर्मनी और अन्य देशों में फैले अपने मित्रों से कोष इकट्ठा करवाये और मंगवाये। संगठनों में टुटपूंजिये क्रांतिकारियों का अच्छा प्रभाव था। टुटपूंजिया प्रभाव से मुक्त किये बगैर उन्हे सर्वहारा क्रांतिकारी विचारधारा से जोड़ना और भविष्य में जर्मनी के लिये एक स्वतंत्र सर्वहारा पार्टी बनाना सम्भव नहीं था। इस संघर्ष में उन्हे बहुत सारे झूठे लांछनों का भी जबाब देना पड़ा और नये नये काम भी करने पड़े। मसलन, जब जर्मन श्रमिक शिक्षा समिति को बचाने के लिये उसमें उन्होने सामाजिक जनवादी समिति का गठन किया उन पर आरोप लगे कि वे सिर्फ कम्युनिस्टों की ही मदद करते हैं और कोष को खर्च करने में अनियमिततायें हैं। इन आरोपों के जबाब में समिति ने अपने पूरे खाताबही को प्रकाशित किया तथा समिति ने फैसला लिया कि समिति के सदस्यों को कोष से कुछ नहीं प्राप्त होगा। चुँकि जरूरतमंद श्रमिक क्रांतिकारी शरणार्थियों को मदद करने लायक कोष नहीं आ पा रहे थे तो समिति की ओर से सामूहिक आवास धर्मशाला), सामूहिक भोजनालय यहाँ तक कि बेरोजगारों के लिये कार्यशालायें भी संगठित किये गये।

एंगेल्स की गतिविधियाँ यहीं तक सीमित नहीं थी। वह लन्दन में होते श्रमिकों के अन्तरराष्ट्रीय जमघटों में भी जाते रहे एवं उन सभाओं में भाषण देते रहे। चार्टिस्टों के साथ उनके पहले से ही अच्छे सम्बन्ध थे। दिसम्बर 1849 से अगस्त 1850 तक, चार्टिस्टों का मुखपत्र डेमोक्रैटिक रिव्यु में एंगेल्स के लेखों की दो अहस्ताक्षरित शृंखलायें छपी – फ्रांस से पत्र एवं जर्मनी से पत्र । साथ ही मार्क्स रचित फ्रांस में वर्गसंघर्ष के पहले अध्याय का एंगेल्स लिखित संक्षिप्तसार भी उसी मुखपत्र में छपा।

इसी बीच, जैसा कि मार्क्स ने एंगेल्स को स्विट्जरलैंड भेजी गई चिट्ठी में लिखा था, दोनों ने मिल कर नई पत्रिका के प्रकाशन की भी तैयारी शुरु कर दी थी। न्यु राइनिशे जाइटुंग की क्रान्तिकारी विरासत को अक्षुन्न रखने के लिये नई पत्रिका का नाम पड़ा न्यु राइनिशे जाइटुंग: पोलिटिश-एकोनोमिशॉ रेव्यु । उनकी आशा थी कि कल यह दैनिक अखबार भी बनेगी।

पत्रिका की घोषणा में स्पष्टत: लिखा गया कि पत्रिका में “उन आर्थिक सम्बन्धों का विशद एवं वैज्ञानिक विश्लेषण होगा जो पूरे राजनीतिक आन्दोलन का आधार होता है।” आगे यह भी लिखा गया कि इस उपरी तौर पर शांत दिखता हुआ समय को “क्रांति की गुजर चुकी अवधि की व्याख्या के लिये, लड़ते हुये पक्षों के चरित्र की व्याख्या के लिये तथा उन सामाजिक सम्बन्धों की व्याख्या के लिये” होना चाहिये “जो इन पक्षों के अस्तित्व एवं संघर्षों को निर्धारित करते हैं”।

उनके पास पैसे नहीं थे तो सारे पुराने साथियों, विलहेल्म वुल्फ, जॉर्ज इकैरियस, वेडेमेयर, फ्रेइलिग्राथ आदि ने मिल कर उनकी मदद की। प्रकाशन के स्थानों में लन्दन और हमबुर्ग (जर्मनी) के साथ साथ न्युयार्क (अमरीका) का भी नाम छपता रहा क्योंकि बहुत सारे जर्मन क्रांतिकारी शरणार्थी अमरीका चले गये थे एवं उनकी मदद से वहाँ भी पत्रिका के वितरण की उम्मीद की गई।

पत्रिका के कुल छे अंक छप पाये जिसमें 5वाँ और 6ठा संयुक्तांक के रूप में नवम्बर 1850 के अन्त में प्रकाशित हुआ। पत्रिका के समीक्षात्मक टिप्पणियों में यह चर्चा भी आई पूंजीवाद का संकटकाल फिलहाल बीत गया है, पूंजीवादी समाज की उत्पादक शक्तियाँ इन्ही पूंजीवादी सम्बन्धों के अन्दर जहाँ तक सम्भव हो भरपूर विकास कर रही हैं। इसलिये अभी वक्त है अपनी ताकतों को इकट्ठा करना, आने वाले दिनों के क्रांतिकारी समय के लिये उन्हे तैयार करना। हमारी कार्यनीति को वक्त के तकाजे के अनुसार संशोधित करना। इस विचार के लिये मार्क्स और एंगेल्स को अपने उन करीबी साथियों की भी आलोचना झेलनी पड़ी जो जर्मनी में अविलम्ब फिर से एक क्रांतिकारी ज्वार को उभारने की सम्भावना तलाश रहे थे।

इस पत्रिका में एंगेल्स के दो महत्वपूर्ण आलेख प्रकाशित हुये। एक तो “साम्राज्यशाही संविधान के लिये जर्मन अभियान जिसका अधिकांश वह स्विट्जरलैंड के लुसान शहर में रहते ही लिख चुके थे और दूसरा, जर्मनी में किसान युद्ध, जिसे आज भी मार्क्सवाद की कालजयी रचना के रूप में हम पढ़ते हैं।

पहले आलेख की खूब तारीफ हुई, खास कर उसके जीवंत और रोचक वर्णन के लिये। शुरू में लेखक ने संविधान के पक्षधर सभी वर्गों का वस्तुपरक विश्लेषण किया जो क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल थे या नहीं भी थे। फिर दक्षिण-पश्चिम जर्मनी के इलाका दर इलाका वर्गीय अन्तर्विरोध के परिप्रेक्ष में क्रांतिकारी कार्रवाईयों का वर्णन – बैरिकेड पर संघर्ष, हथियारबन्द जत्थों का कूच और साथ में बाकी जर्मनी के प्रधान शहरों, खास कर राजधानी की स्थिति … । अभियान में भाग लेने वाले टुटपूंजिया नेता इस आलेख के प्रकाशन के बाद गुस्से से उबलने लगे क्योंकि उनके तीखे आलोचनात्मक चित्र खींचे गये थे।

दूसरा आलेख, जो अब पुस्तक के रूप में भी उपलब्ध है, ऐतिहासिक भौतिकतावाद का अमूल्य पाठ है। बेशक, अपने समय की क्रांति की विफलताओं का सुत्र ढूढ़ते ढूढ़ते ही वह 16वीं सदी तक पहुँचे थे लेकिन लिखने के क्रम में तत्कालीन धार्मिक पुनर्गठन की परिघटना को ‘धर्मशास्त्रीय झगड़ों’ की प्रचलित अवधारणा से बाहर निकाल कर उन्होने सामाजिक-आर्थिक वर्गीय जड़ों तक एवं किसान-युद्ध के परिप्रेक्ष में दिखाया। साथ ही, उन्होने उस युद्ध को जर्मनी की पहली पूंजीवादी क्रांति के रूप में चिन्हित किया और असफलताओं के कारण, आज की क्रांति में पूंजीवादियों की ढुलमुल भूमिका की तरह, उस समय के उनके पूर्वज, मध्ययुगीन अमीर शहरियों के ढुलमुल भूमिका में दर्शाये। क्रांति का पूंजीवादी चरित्र उन शहरियों के होने के कारण नहीं, बल्कि किसानों की सामंत-विरोधी मांगों से बना। इस तरह इस आलेख के द्वारा एंगेल्स ने अपने समय की क्रांति को एक राष्ट्रीय धारा दिया, आधुनिक सर्वहारा को एक क्रांतिकारी विरासत दिया तथा आगे के दिनों में, समाजवादी क्रांति के लिये आवश्यक मजदूरों और किसानों की दोस्ती की अवधारणा को सम्भावित किया।

इसी पत्रिका में मार्क्स का भी एक अति महत्वपूर्ण आलेख आया, फ्रांस में वर्गसंघर्ष 1848-1849

उपरोक्त दीर्घ आलेखों के अलावे न्यु राइनिशे जाइटुंग: पोलिटिश-एकोनोमिशॉ रेव्यु में मार्क्स और एंगेल्स द्वारा संयुक्त रूप से लिखित कई समीक्षायें भी प्रकाशित हुई। विभिन्न आलेखों एवं पर्चों की इन समीक्षाओं के मुख्यत: तीन धार थे। बीती क्रांति के टुटपूंजिया विश्लेषण एवं विचारों में अपना वर्गीय बढ़त बनाने की कोशिशों पर चोट, लीग के अन्दर, करीब या किसी के द्वारा भी ली गई, षड़यंत्रधर्मी और कट्टरपंथी गतिविधि की तीव्र आलोचना, तथा महत्वपूर्ण प्रतिष्ठित विद्वानों (मसलन थॉमस कार्लाइल, प्रख्यात इतिहासविद) के पूंजीवाद के प्रति और विपरीत में जनता की क्रांतिकारी तेवर के प्रति बदलते रुख का पर्दाफाश।

टुटपूंजिया जनतंत्रवादी नेतृत्व की वैचारिक आलोचना के साथ साथ व्यवहार में वैसे नेतृत्व से अलग एक सर्वहारा पार्टी बनाने की जरूरत भी पहले से महसूस की जा रही थी। उसके लिये पहले फिर से कम्युनिस्ट लीग को पुनर्गठित करने की जरूरत थी। जर्मनी के विभिन्न शहरों में और विभिन्न देशों में बसे जर्मन राजनीतिक शरणार्थियों के बीच इस सन्देश को पहुँचाने के लिये एक संदेश एवं एक संदेशवाहक की जरूरत थी। संदेश के लिये, मार्क्स और एंगेल्स दोनों के द्वारा संयुक्त रूप से एक पर्चा लिखा गया जो कम्युनिस्ट लीग के केन्द्रीय कमिटी का सम्बोधन के नाम से जाना जाता है। यह सम्बोधन एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। और सारी बातों के अलावे जो दो तीन बातें आगे के दिनों के विचारधारात्मक बहस की धुरी बनी वे थे: 1) सन 1848-49 की क्रांति का काल बीत चुका है, अभी जल्द आनेवाली अगली क्रांति के लिये विचारधारात्मक, सांगठनिक तैयारी का वक्त है इसलिए, सर्वहारा की स्वतंत्र पार्टी बनाना फौरी कार्यभार है; 2) इसके लिए लीग के साथियों को एकजुट करना होगा, नए नेतृत्व का भी निर्माण करना होगा, एवं इतिहास ने साबित किया है कि कम्युनिस्ट घोषणापत्र इसका बेहतर वैचारिक आधार होगा; 3) बीती क्रांति में उदारवादी पूंजीवादियों ने जनता के साथ गद्दारी की, अपना हित साधने के लिये वे सामंती प्रतिक्रियावादी शक्तियों के साथ सिर्फ हाथ ही नहीं मिलाए, बल्कि सत्ता फिर से उन्ही के हाथों में सौंप दिये; 4) बीती क्रांति में जो क्रांतिकारी तेवर में सबसे अधिक दिखे, टुटपूंजिये और अमीर शहरी, जो अब लगभग समाजवादी दिखने लगे हैं, आने वाले दिनों की क्रांति में वे भी उदारवादी पूंजीवादियों की तरह सर्वहारा और आम श्रमजीवियों के साथ गद्दारी करेंगे, बल्कि और अधिक खतरनाक साबित होंगे; 5) इसलिये सर्वहारा की स्वतंत्र पार्टी होगी जो प्रजातंत्र और जनतंत्र हासिल करने के संघर्ष में टुटपूंजियों के साथ मिल कर काम करेगी, बल्कि उनके द्वारा उठाये गये मुद्दों को वे क्रांतिकारी तरीके से अंतिम तक पहुँचाने की लड़ाई लड़ेगी, जहाँ तक हो सके अपने मुद्दों और अपनी समझ को लागू करवाने की कोशिश करेगी और साथ ही, अपने हितों की रक्षा एवं अपनी मांगों को हासिल करने के लिये स्वतंत्र संघर्ष जारी रखेगी - सर्वहारा वर्ग और उसकी स्वतंत्र पार्टी की युद्ध-घोषणा होगी, क्रांति निरंतर है

लन्दन में और पूरे इंग्लैंड में जो भी सभायें, बैठकें होती थी उनमें एंगेल्स ही ज्यादा बोलते थे क्योंकि मार्क्स की अंग्रेजी उस समय तक अच्छी नहीं हुई थी। चार्टिस्ट अखबारों मे उनके लेख प्रकाशित होते रहने के कारण चार्टिस्ट नेताओं में उनका बढ़ता हुआ प्रभाव खुद उन्ही अखबारों के अन्य लेखों में नजर आने लगा। चार्टिस्ट नेता हार्नी ने ही पहली बार कम्युनिस्ट घोषणापत्र का अंग्रेजी अनुवाद नवम्बर 1850 में प्रकाशित किया एवं अपनी भूमिका में उजागर किया कि यह महत्वपूर्ण दस्तावेज मार्क्स और एंगेल्स का लिखा हुआ है।

लेकिन, लीग के अन्दर कलह बढ़ने लगे थे। नेतृत्व के कुछेक साथी मार्क्स और एंगेल्स के इस विचार से सहमत नहीं थे कि क्रांति का काल बीत चुका है। वे तुरंत क्रांतिकारी कार्रवाई और उसके लिये वही पुराना षड़यंत्रकारी तौर तरीके अपनाने के पक्ष में थे। वे अलग से सर्वहारा पार्टी बनाने की कोशिशों का भी विरोध करने लगे थे। एकता बनाये रखने के तमाम प्रयास नाकाम हुये। मार्क्स एंगेल्स ने यह भी कोशिश की कि केन्द्रीय समिति लन्दन के बजाय जर्मनी के कोलोन में ही कर दिया जाय ताकि उनका गुट एवं विरोधियों का गुट दोनों का वहाँ प्रतिनिधित्व रहे। ऐसा किया भी गया पर काम नहीं बना। बैठक में अल्पमत साबित किये जाने के बावजूद वे लीग के केन्द्रीय समिति के फैसले के विरोध में काम करने लगे। विभिन्न जर्मन शरणार्थी संगठनों में, जिनमें टुटपूंजिया विचारों वाले लोगों का वर्चस्व था, वे मार्क्स और एंगेल्स को अलग थलग करने में जुट गये। अन्तत: उन्हे, खास कर, एक समय करीबी रहे साथी, विलिच और शैपर को मार्क्स की अनुशंसा के आधार पर कोलोन की केन्द्रीय कमिटी ने निष्कासित किया। दूसरी ओर, उसी गुट की असावधानी के कारण कुछ दस्तावेज जर्मन पुलिस और फिर उसी माध्यम से लन्दन पुलिस के हाथ लग गये। फलस्वरूप मार्क्स और एंगेल्स उनकी निगाह पर चढ़ गये।

दोनों की सोच थी कि अभी अध्ययन किया जाय। पर कैसे? जीना दुभर हो रहा था। लेख या किताबों के प्रकाशित होने और उससे कुछ अर्थोपाय होने की सम्भावना नहीं के बराबर थी। चार्टिस्ट या इस तरह के अखबार तो पैसे नहीं दे पाते थे। मार्क्स और उनके परिवार को तो तंगी रहती ही थी, अब एंगेल्स के लिये भी समस्या आ गई। चुँकि वह कई भाषाओं के जानकार एवं बहुत अच्छे पत्रकार थे, अपनी एक अकेली जान के लिये, पैसे देने वाले अखबारों में लिख कर कुछ कमा ही लेते। लेकिन दोस्त मार्क्स और उसका परिवार तो उन्ही का परिवार था! एंगेल्स समझ रहे थे कि आम गरीब जर्मन शरणार्थियों को अन्तत: जो जीवन जीना पड़ रहा है उससे मार्क्स को बचाना होगा – उसे अभी बहुत कुछ करना है नई, आ रही दुनिया के लिये, उस दुनिया को साकार करने वाली सामाजिक ताकत के लिये। एंगेल्स को पता नहीं था कि बर्लिन पुलिस का अध्यक्ष हिन्केल्डे, अप्रैल 1852 को भेजे गये अपने एक गुप्त प्रतिवेदन में (अपनी भद्दी भाषा में ही सही) लिखेगा कि मार्क्स और एंगेल्स की पार्टी को सभी दूसरे प्रवासी दलों से “प्रश्नातीत तौर पर ज्ञान और प्राण की अधिक शक्ति प्राप्त है। … खुद मार्क्स सुपरिचित हैं और सब जानते हैं कि बाकी भीड़ के दिमाग में जितनी बौद्धिक ताकत है उससे अधिक उनकी उंगली की नोक में है।”  

एंगेल्स के परिवार को बड़े बेटे की खबर तो विभिन्न माध्यमों से मिलती ही रहती थी; यह खबर भी मिल ही गई कि फ्रेडरिक आर्थिक संकट में है। जर्मनी में एंगेल्स का आना सम्भव नहीं। लन्दन में भी रहना कठिन होता जायेगा। जीवनीकार गुस्ताभ मेयर कहते हैं कि माँ के कहने पर और पिता की रजामन्दी से एंगेल्स की सबसे करीबी बहन से संदेश भेजवाया कि लन्दन में रहना उचित नहीं क्योंकि वह सभी राजनीतिक निर्वासितों के मिलने की जगह है; उसे कहीं और चले जाना चाहिये। … “हमारे मन में यह विचार आया है कि तुम शायद फिलहाल, कुछ दिनों के लिये गंभीरतापूर्वक व्यवसाय में प्रवेश करना चाहो, ताकि तुम्हारी एक आय सुनिश्चित हो सके। जब तुम्हे अपनी पार्टी की सफलता का तर्कपूर्ण अवसर दिखे, तुम तत्काल यह व्यवसाय छोड़, अपनी पार्टी के लिये काम शुरू कर सकते हो।” [फ्रेडरिक एंगेल्स, ए बायोग्राफी, चैपमैन ऐन्ड हॉल लिमिटेड, लन्दन]

एंगेल्स भी इस पत्र के मिलने से पहले दिमाग बना चुके थे। गुस्ताभ मेयर तो यहाँ तक लिखते हैं कि “फिर से क्रांतिकारी गतिविधियाँ शुरू करना कठिन हो इस उद्देश्य से उनके पिता ने” एंगेल्स के लिये “कोलकाता में एक पद ढूंढ़ने की कोशिश की थी। और एंगेल्स बल्कि न्युयार्क चले जाते, क्योंकि तब मार्क्स उनके साथ जाते। लेकिन उनके लिये सन्तोषप्रद रहा कि दोनों योजनायें विफल हुई।”

मेरी लिखित उपरोक्त पत्र में एंगेल्स के लिये कोई स्पष्ट प्रस्ताव नहीं है कि वह मैंचेस्टर स्थित एर्मेन ऐन्ड एंगेल्स (जहाँ एंगेल्स पहले काम कर चुके थे) में ही योगदान दे। या एंगेल्स का भी कोई पत्र उपलब्ध नहीं जिसमें वह शर्त रख रहे हों कि थोड़े ही दिनों के लिये पारिवारिक व्यवसाय में योगदान देंगे। प्रतीत होता है कि किसी न किसी माध्यम से इस तरह की बातचीत हुई होगी।

नवम्बर 1850 के मध्य में एंगेल्स मैंचेस्टर चले गये तथा एर्मेन ऐन्ड एंगेल्स कम्पनी में, बतौर एक किरानी अपना योगदान दिया। उनके जाने के दो-चार ही दिनों बाद, 19 नवम्बर को, लन्दन में मार्क्स और जेनी का एक साल पहले जन्मा एक बेटा, हाइनरिख गुइदो की अचानक मौत हो गई। पूरा परिवार, शोकस्तब्ध जेनी और मार्क्स, ऐसे वक्त में एंगेल्स की अनुपस्थिति अनुभव कर रहे थे।  

मैंचेस्टर में जीवन

बहुत कठिन था दोनों मित्रों का अलग रहना। भावनात्मक सम्बन्ध तो थे ही। बच्चे तक इन्तजार करते थे कि कब एंगेल्स चाचा मैंचेस्टर से लन्दन आयेंगे तो उन्हे कहानियाँ सुनायेंगे। जेनी भी चाहती थीं कि एंगेल्स रहें, जब तक सम्भव हो – गरीबी से परेशान जिन्दगी में बच्चों का थोड़ा दिल बहल जायेगा, खुद मार्क्स की बेचैनी घट जायेगी और उन्हे, यानि खुद जेनी को भी एक सच्चा दोस्त मिल जाएगा जिसके साथ, जरूरत पड़ने पर घरगृहस्थी की समस्याओं पर भी खुल कर बात की जा सके। मार्क्स तो लगभग गिरफ्त में ले लेते थे मित्र को और फिर दोनों की घमासान बातचीत शुरू हो जाती थी। साथ काम करने की योजनायें बनती थी, अपने अधूरे आलेख या टिप्पणियाँ दिखा कर राय मांगे जाते थे, संगठनों की स्थिति पर चर्चा होती थी, सर्वहारा पार्टी निर्माण की समस्यायें आती थी … कितने सारे विषय होते थे बात करने के लिये! लन्दन आने पर पुराने मित्रों, चार्टिस्ट साथियों से भी एंगेल्स की मुलाकात हो जाती थी।

लेकिन रहना तो मैंचेस्टर में ही था। और दिन भर उसी कम्पनी के दफ्तर में, एंगेल्स की भाषा में ‘बनियौटी’ करना था। वैसे एक बात हुई थी जिसके कारण परिवार-सम्बन्धित भावनात्मक तनाव कम हुये थे। एंगेल्स के पिता पूरी तरह पेशेवर उद्योगपति और व्यवसायी थे तथा उन्हे बिल्कुल पसन्द नहीं था कि उनके व्यवसाय के साथ कोई ‘खिलवाड़’ करे, चाहे वह उनका बेटा ही क्यों न हो। उन्हे अपने ‘बर्बाद हो चुके’ बड़े बेटे पर बिल्कुल भरोसा नहीं था। दूसरी ओर, एंगेल्स को हर काम समझबूझ के साथ करने की आदत थी। जब दिमाग ने तय कर लिया कि अभी, शायद एक लम्बे समय तक, हर दिन सुबह से शाम कपड़ा-उद्योग के दफ्तर में बैठ कर खाताबही लिखना क्रांति के ही हित में जरूरी है, तो एंगेल्स पहले ही दिन से ध्यान पूर्वक वह काम करने लगे। दफ्तर में योगदान देने के कुछ ही दिनों के अन्दर एंगेल्स बार्मेन में अपने पिता को, कम्पनी की स्थिति से सम्बन्धित कुछ प्रतिवेदन भेजे। उन प्रतिवेदनों से स्पष्ट, एंगेल्स में मौजूद हिसाबकिताब का ज्ञान देख कर पिता खुश हुए। उन्होने बेटे को पत्र भी लिखा जिसका आशय था कि अब उन्हे भरोसा है। उन्हे भरोसा है कि एंगेल्स उनके हितों के सही प्रतिनिधि है और वह चाहते हैं कि एंगेल्स वहीं रहें और पारिवारिक व्यवसाय का देखभाल करे।

कुछ महीने बाद जब वह खुद मैंचेस्टर आये तो एंगेल्स की माँ चिन्तित हो गईं। वह एंगेल्स को लिख भेजीं कि एंगेल्स बस जरूरत भर पिता के साथ रहे, और राजनीति की बात तो एकदम न करे। एंगेल्स ने भी वही किया लेकिन उनके पिता कहाँ रुकने वाले थे? एंगेल्स के सामने ही वह प्रशियाई सरकार व शासन की तारीफ के पुल बाँधने लगे। एंगेल्स भीतर का गुस्सा रोक कर चुप रहे। बाद में मार्क्स को उन्होने लिखा कि “दो शब्द बोलता और क्रोधित होकर देखता उनकी तरफ तो उनका मुँह बन्द हो जाता। लेकिन हमारे सम्बन्ध भी हमेशा के लिए बर्फ बन जाते। … अगर मेरी आय का व्यवहारिक पक्ष न होता तो मैं फालतू का स्नेह वगैरह के बजाय वैसा ही ठंडा व्यवसायिक सम्बन्ध पसन्द करता।” आय वाली बात में एक स्वार्थ था कि एंगेल्स वहाँ किरानी बन कर मैंचेस्टर स्थित कम्पनी के वेतन पर काम नहीं करना चाहते थे। वह चाहते थे कि उन्हे जर्मन सहयोगी कम्पनी का प्रतिनिधि बनाया जाय। ऐसा होने से उन्हे अपने काम के लिये ज्यादा खाली वक्त मिलता। पिता मान गये। एंगेल्स ने मार्क्स को लिखा, “वह कमसे कम तीन साल के लिए मुझे यहाँ चाहते हैं। … तीन साल के लिए भी मैं यहाँ बंधा हुआ नहीं हूँ। मेरे लिखने को लेकर या क्रांति शुरू हो जाने पर भी मेरे यहाँ रहने को लेकर कोई शर्त नहीं है। … प्रधिनिधित्व और प्रमोद ब्यय के तौर पर वह शुरू से ही मुझे सालाना लगभग तीन सौ पौंड देने को राजी हुए हैं।” एंगेल्स नहीं जानते थे कि उन्हे अट्ठारह साल यहीं, मैंचेस्टर में बिताने हैं।

मैंचेस्टर आते ही एंगेल्स ने मेरी बर्न्स से मुलाकात की। एक तरफ जर्मनी में प्रतिक्रांति का दौर, दूसरी तरफ लन्दन में आर्थिक तंगी के कारण दोनों मित्रों का मिल कर काम नहीं कर पाना और तीसरा, ये हालात कि अर्थोपाय के लिये रोजमर्रे की गुलामी के उसी दरबे में घुसना जिससे, उन्हे लगा था कि पिन्ड छुट चुका है आठ साल पहले … इस व्यथित मन:स्थिति और अकेलेपन को उन्होने सम्हाल लिया सिर्फ मेरी के प्रेम के सहारे।

अपने मित्र मार्क्स और उनके अपने चरित्र में एक भिन्नता थी। मार्क्स के पूरे व्यक्तित्व में, एंगेल्स के साथ मिल कर खोजी हुई नई युगदृष्टि को विकसित करने, साकार करने की बेचैनी भरी हुई रहती थी। उसे न कर पाने की स्थिति में एक पल में वह शिशु जैसा असहाय हो जाते थे। उस समय सिर्फ अपने मित्र को वह ढूंढ़ते रहते थे। उनका घरेलु नाम ‘मूर’ सिर्फ चेहरे से नहीं, तेवर से भी सार्थक था उनके लिये। दूसरी ओर एंगेल्स, चाहे युद्ध के मैदान में हों या लिखने के टेबुल पर, किसी कार्यभार को पूरा करते समय तो उसी तरह टूट पड़ते थे जैसे मार्क्स, लेकिन किसी कारण से कार्यभार से अलग होने को मजबूर हो गये तो जीवन की उन विषम नई स्थितियों में भी शांत चित्त रहने की कोशिश करते थे। विभिन्न नये नये विषयों की पढ़ाई, नई भाषा सीखना, घूमना-फिरना, लोगों से बातें करना, … इन सब व्यस्तताओं में लोगों को अपनी व्यथा में झाँकने तक नहीं देते थे। दो साल पहले पैरिस से निकाले जाने के बाद जब वह पैदल स्वीट्जरलैंड रवाना हो गये थे, बुरी मन:स्थिति के कारण वह फ्रांस और स्वीट्जरलैंड के गाँवों में घूमते हुये थोड़ी मौजमस्ती में भी समय बिताने लगे थे; मार्क्स की चिट्ठियों में मौजूद लगातार लिखने के लिए दबाव एवं दोस्ती भरे शब्दों के सहारे उस समय उन्होने खुद को सम्हाल लिया और काम की दुनिया में वापस आ गये थे।   

मेरी बर्न्स एक आइरिश श्रमिक थीं। पढ़ी लिखी नहीं थीं, एंगेल्स के जीवनीकार कहते हैं कि शराब भी अत्यधिक पीने की आदत बन गई थी। स्वाभाविक है कि बोलचाल में तथाकथित भद्रजनोचित नहीं थीं। मार्क्स और एंगेल्स दोनों जन्म से पूंजीवादी थे लेकिन अपने विचारों के विकासक्रम में सर्वहारा के साथी बने थे। मार्क्स की पत्नी भी पूंजीवादी थीं। लेकिन मेरी जन्म से ही सर्वहारा थीं, कभी कारखाना कभी घरों में काम करती थीं, श्रमिक मोहल्लों में किराये के घरों में रहती थीं। श्रमिकों के संघर्ष तथा आइरिश स्वतंत्रता के प्रति समर्पित एक कट्टर क्रांतिकारी एवं स्वाभिमानी, आजाद सोच वाली महिला थीं। एंगेल्स को मेरी का यही तेवर अच्छा लगा था। कई साल पहले, इंग्लैन्ड में मजदूरवर्ग की स्थिति लिखने के लिये जब वह मैंचेस्टर के श्रमिक मोहल्लों में रहना, श्रमिकों को समझना शुरु किये थे तब से मेरी उनकी सहचर थी और दोनों एक दूसरे को चाहने लगे थे। इस बार एंगेल्स, मैंचेस्टर आते ही मेरी के घर को अपना ठौर बना लिया। कहने के लिये उनके दो ठिकाने थे। एक किराये का घर उन्होने खाते-पीते लोगों के मोहल्ले में ले लिया। वहाँ वह तब आ जाते थे जब व्यवसाय से सम्बन्धित लोगों से भेँट-मुलाकात करनी होती थी या घर के लोग आ जाते थे। बाकी समय वह शहर के किनारे मेरी और उनकी बहन लिज्जी के घर में रहते थे। यहाँ रहने पर, यहाँ के सामान्य रहन-सहन एवं खानपान में खर्च भी कम होते थे, जिसके कारण मार्क्स को वह थोड़ा ज्यादा मदद कर पाते थे। उनके इसी घर को उनके तमाम क्रांतिकारी मित्र जानते थे। एंगेल्स से मिलने, बातें करने वे यहीं आते थे। मेरी को वे अपना साथी, अपना कॉमरेड मानते थे – किसी भी किस्म की गुप्त बातचीत में मेरी की उपस्थिति अड़चन नहीं बनती थी। श्रीमती एंगेल्स के रूप में ही मेरी बर्न्स जानी जाती थी; हालाँकि दोनो ने कभी विवाह नहीं किया।

लन्दन में रहते हुए आखरी महीनों में स्थिति बहुत कष्टमय हो गई थी। न्यु राइनिशे जाइटुंग: पोलिटिश-एकोनोमिशॉ रेव्यु का नवम्बर 1850 को प्रकाशित संयुक्तांक ही अन्तिम अंक था। आर्थिक संकट के कारण उसका प्रकाशन बन्द करना पड़ा। चार्टिस्ट या दूसरे, जनतंत्रवादी अखबार चाव से उनके लेख छापते तो थे, पर उनकी क्षमता पैसे देने की नहीं थी। एंगेल्स के मैंचेस्टर चले जाने के बाद आर्थिक स्थिति थोड़ी स्थिर हुई। कुछेक महीनों के बाद, 1851 की गर्मियाँ शुरू होते होते मार्क्स के पास एक सन्देश आया, न्युयार्क डेली ट्रिब्युन के सम्पादकमंडल के एक सदस्य चार्ल्स डाना की ओर से। चार्ल्स डाना खुद पहले कल्पलोकीय समाजवादी थे। सन 1848 की जर्मन क्रांति के दौरान वह कोलोन गये थे और मार्क्स से मिले थे। सन्देश में उन्होने अखबार की ओर से मार्क्स को स्थाई लन्दन संवाददाता बनने का प्रस्ताव दिया। आर्थिक तंगी से जूझ रहे मार्क्स के लिये यह अच्छा प्रस्ताव था। लेकिन मुश्किल यही थी कि एक तो मार्क्स की अंग्रेजी अच्छी नहीं थी और दूसरी बात कि वह तब तक अर्थनीति की पढ़ाई में मगन हो रहे थे। फिर भी, एंगेल्स के भरोसे उन्होने प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। फिर उन्होने एंगेल्स से अनुरोध किया कि एंगेल्स उस अखबार में नियमित रूप से लिखें। तत्काल एक विषय भी सुझाया – जर्मनी में क्रांति और फिर प्रतिक्रांति का दौर। एंगेल्स विषय के जानकार थे ही। न्यु राइनिशे जाइटुंग के पुराने अंक एवं अन्य सामग्रियाँ भी मौजूद थी उनके पास। उन्होने लिखना शुरू कर दिया।

अगस्त 1851 से सितम्बर 1852 तक 19 लेख न्युयार्क डेली ट्रिब्युन में छपे। स्थाई लन्दन संवाददाता के रूप में हर एक लेख पर मार्क्स का ही हस्ताक्षर होता था। मार्क्स के नाम से ही छ्पते रहे लेख। पैंतालिस वर्ष बाद जब मार्क्स की बेटी इलियानोर मार्क्स-ऐव्लिंग इन लेखों को पुस्तक के रूप में छपवाई तब उन्हे भी मालूम नहीं था कि ये लेख एंगेल्स के लिखे हुये हैं। मार्क्स के ही नाम से उस पुस्तक का जर्मन अनुवाद भी छपा। अन्त में, सन 1913 में जब मार्क्स और एंगेल्स के पत्राचार का प्रकाशन हुआ, तब जाकर पता चला कि ये लेख और आगे के बहुत सारे लेख वास्तव में एंगेल्स के लिखे हुए हैं। वे 19 लेख अब एंगेल्स द्वारा लिखित पुस्तक के रूप में जर्मनी में क्रांति एवं प्रतिक्रांति के नाम से उपलब्ध हैं।

न्युयार्क डेली ट्रिब्युन के साथ मार्क्स और एंगेल्स का सम्बन्ध अगस्त 1851 से मार्च 1862 तक बना रहा। शुरू शुरू में सारे लेख या तो एंगेल्स खुद लिखते थे या मार्क्स द्वारा जर्मन में लिखे जाने के बाद उसका अनुवाद कर देते थे। जनवरी 1853 तक मार्क्स भी अंग्रेजी में लिखने लगे। फिर दोनों के द्वारा अलग अलग विषयों पर लिखे हुये लेख न्युयार्क डेली ट्रिब्युन में छपने लगे। इसलिये अखबार में दिनांक 7 अप्रैल 1853 को प्रकाशित एक महत्वपूर्ण निबन्ध में अगर “संवाददाता की अनूठी काबिलियत” के प्रति “आदर” अभिव्यक्त किया गया, अगर लिखा गया कि “मिस्टर मार्क्स के अपने बहुत निश्चित राय हैं, जिनमें से कुछ को मानने के लिये हम कतई राजी नहीं है, लेकिन जो उनके लेख नहीं पढ़ेंगे वे मौजूदा योरोपीय राजनीति के बड़े सवालों पर सूचनाओं के सबसे अधिक शिक्षाप्रद स्रोतों में से एक की उपेक्षा करेंगे” … तो निश्चित ही इसका श्रेय मुख्यत: एंगेल्स को जाता है। 1 जुलाई 1853 को चार्ल्स डाना ने अगर मार्क्स की पत्नी जेनी को लिखा कि उनके पति के लेख, ट्रिब्युन के मालिक और सामान्य पाठक दोनों बहुत उम्दा मानते हैं, तो यह भी मुख्यत: एंगेल्स द्वारा लिखे गये उन लेखों की तारीफ थी जो मार्क्स के नाम से प्रकाशित होते रहे।

न्युयार्क डेली ट्रिब्युन में मार्क्स और एंगेल्स ने इग्यारह वर्षों में बहुत सारे लेख लिखे। मार्क्स-एंगेल्स रचनासमग्र की टिप्पणी में लिखा है कि उनके लेख, “विभिन्न देशों की आन्तरिक नीति, विदेश नीति, श्रमिक वर्ग आन्दोलन, योरोपीय देशों का आर्थिक विकास, औपनिवेशिक विस्तार, उत्पीड़ित व पराधीन देशों का राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन” आदि विषयों पर होते थे। इन्ही लेखों के क्रम में विश्व को, भारत के बारे में सन 1857-58 में लिखी गई आलेखों और प्रतिवेदनों की शृंखला मिली, जिनमें पहली बार उस लड़ाई को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कह कर परिभाषित किया गया। पूरी शृंखला में एंगेल्स के लिखे (बाद मे पहचाने गये) 11 लेख थे। इसके अलग, विश्व के किसी भी छोर पर हो रही सैन्य-सम्बन्धित घटनाओं पर अगर लिखना हो तो अपरिहार्य तौर पर लेखक एंगेल्स ही होते थे।

मैंचेस्टर में, मार्क्स से अलग और दिन भर व्यवसायिक दफ्तर में व्यस्त रहते हुये, फिर न्युयार्क डेली ट्रिब्यून के लिये रोज के लेखन के बाद बाकी समय में एंगेल्स कुछ अन्य भाषा, मसलन रूसी सीखने लगे। मार्क्स को उन्होने कहा भी कि आने वाली क्रांति में पूरे योरप की घटनाओं को समझने एवं उनमें हस्तक्षेप करने के लिये उन्हे योरप की भाषायें सीख लेनी चाहिये। उससे भी थोड़ा समय बचा तो वह प्रकृतिविज्ञान के विभिन्न विषय, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, जीवविज्ञान आदि के अध्ययन में ध्यान लगाते थे।

बरसों बाद, संस्मरण लिखते हुये मार्क्स की बेटी इलियानोर मार्क्स-एवलिंग ने याद किया, “यह सोचने में भयानक लगता है कि … एंगेल्स जैसा आदमी बीस वर्ष उस तरह बिताते रहे। न कभी उन्होने शिकायत की और न उनके मुंह से एक शब्द निकला। बल्कि इसके विपरीत, वह इतने प्रफुल्लित और अपने काम में तल्लीन रहते थे जैसे ‘दुकान पर जाने’ और दफ्तर में बैठने जैसा काम दुनिया में है ही नहीं।”

लेनिन ने लिखा, “अगर एंगेल्स द्वारा की गई लगातार निस्वार्थ आर्थिक मदद नहीं मिलती तो मार्क्स पूंजी का लेखन तो पूरा कर ही नहीं पाते, अभाव के कारण पूरी तरह टूट चुके होते।”            

रोटी के लिये सौदागरी, अखबारी लेखन और उभरता हुआ विश्व

यह मित्रता की एक अद्भुत कहानी है जो मार्क्सवादी विश्वदृष्टि के विकास की बुनियाद में रची-बसी है। मार्क्स के लिये जरूरी था कि बिना देर किये वह समकालीन आर्थिक संरचना के भीतर पैठते ताकि पूंजीवादी समृद्धि जिस आर्थिक शोषण पर घटित हो रही है उसके सार को उजागर कर पाते। सर्वहारा एक वर्ग है जिसका शोषण करता है पूंजीपति … यह तो सबको दिख रहा है। यह भी दिख रहा है कि वह एक क्रांतिकारी वर्ग है क्योंकि पिछली सभी पूंजीवादी क्रांतियों में वही अगुवा दस्ता रहा है सभी मोर्चों पर, भले ही अन्तत:, प्रतिक्रांति के दौर में उसके हासिल हक भी छीन लिये गये हैं; और छीनने में वे वर्ग भी सत्ता के साथ मिल गये हैं जो कल तक क्रांतिकारी दिखते थे – यानि, टुटपूंजिये और प्रजातांत्रिक पूंजीवादी। लेकिन, क्यों? क्यों, प्रजातांत्रिक क्रांतियों की तीन प्रमुख मांगों – मुक्ति, बराबरी और भाईचारा – में सर्वहारा को न मुक्ति हासिल होती है न बराबरी और न भाईचारा? जबकि इन्ही तीन मांगों को झंडे पर लिख कर वह गोली खा रहा है विभिन्न देशों में! जहाँ ‘राष्ट्रों की दौलत’ बनती है मालों के उत्पादन और मालों के व्यापार में, और विनिमय की सामान्य नीति के अनुसार सभी अपने दाम पर बिकते हैं, तो फिर किस तरह, किस कारखाने में अमीरी और गरीबी पैदा होती है? किस व्यापार में अमीरी देने के बदले लेनी पड़ती है गरीबी? इतना लड़ाकु वर्ग है! फिर भी, मजदूरी बढ़ाने की लड़ाई में, काम के घंटे कम करने की लड़ाई में जीत हासिल करने के बावजूद, कुछ ही दिनों के अन्दर उसकी बदहाली जैसी थी वैसी ही हो जाती है! क्यों?

पूंजीवादी अर्थशास्त्र की बुनियाद में है एक बड़ा धोखा! उसे ढूंढ़ने के लिये मार्क्स को सिर्फ अध्ययन करना था लगातार। ब्रिटिश म्युजियम के ग्रंथागार में बैठना था अक्सर, ब्रिटिश कारखानों से सम्बन्धित सरकारी दस्तावेजों से नोट्स लेने थे, पूंजीवादी अर्थशास्त्री, ऐडम स्मिथ, डेविड रिकार्डो आदि को पढ़ना था। अर्थशास्त्र के छात्र तो थे नहीं मार्क्स! लेकिन दोनों मित्र ने मिल कर जिस नये दर्शन को प्राप्त किया था, उसकी पूरी सार्थकता इसी में थी कि मौजूदा समाज की सबसे अधिक क्रांतिकारी शक्ति को क्रांति की कुंजी दी जाय, कि उसे खत्म क्या करनी है – जिसे खत्म करने की प्रक्रिया में ही समाज की वास्तविक मुक्ति, बराबरी और भाईचारा निहित है।

तो मार्क्स को इस काम के लिए मुक्त रखना था। यानि एंगेल्स को दिन भर, श्रमिकों को बदहाल जीवन देने वाले वैसे ही किसी कारखाने के दफ्तर में ‘मालिक का बेटा’ बन कर रहना था। व्यापार देखना था, हिसाब-किताब देखना था, सूट-बूट पहन कर अपने ‘घोषित’ घर पर या क्लबों में पूंजीवादी बिरादरी से मिलना-जुलना था क्योंकि अपने जीवन के साथ साथ मार्क्स और उसके पूरे परिवार के लिए पैसे कमाने थे। लगभग हर दिन सुबह-शाम कुछ वक्त अखबारी लेखन एवं उसके लिये आवश्यक पढ़ाई में भी लगाना था – यानि पुस्तकालय भी जाना था - क्योंकि मार्क्स के नाम पर वे लेख छपते और मार्क्स के नाम पैसे आते। और इतना सब कुछ करने के बाद जो समय बचता था वह एंगेल्स मेरी के साथ अपने ‘अघोषित’ घर पर बिताते थे। मेरी और उनकी बहन लिडिया (या लिज़्ज़ी) के साथ बैठ कर काली रोटी खाते थे सस्ते शराब के साथ।

बल्कि ‘घोषित’ वाले घर में भी सस्ती रोटियाँ और सस्ते शराब ही रहते थे; पिता या परिवार से अन्य किसी के पहुँचने की खबर मिलते ही वहाँ महंगे शराब, खान-पान की कुछ महंगी चीजें रख दी जाती थी। क्योंकि इस बात को भी छुपाना था कि उनकी आय का बड़ा हिस्सा लन्दन में मित्र के परिवार का खर्च सम्हालने में चला जाता है। कभी कभी तो ऐसा भी हुआ कि जब पता चला कि आगे महीनों तक पिता नहीं आयेंगे तो वह ‘घोषित’ वाला घर भी सस्ते मध्यवर्गीय मोहल्ले में ले लिये गये। जब पिता के आने का समय आया तो घर बदल दिया गया।

शाम को वहीं, मेरी और लिडिया के साथ बैठ कर खाना खाते हुए एंगेल्स कामकाजी दुनिया और श्रमिक मुहल्लों की कहानियाँ सुनते थे। आइरिश स्वतंत्रता आन्दोलन और अंग्रेज क्रांतिकारी श्रमिक आन्दोलन के बीच के रिश्तों को समझाने के क्रम में खुद भी बेहतर समझ पाते थे राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता के प्रश्न को। वहीं जुटते थे विल्हेल्म वुल्फ तथा कुछ अन्य पुराने साथी जो उस समय मैंचेस्टर में रहने लगे थे। ‘श्रीमती एंगेल्स’ उनके बराबर की साथी थीं और उसी हैसियत से बातचीत में शरीक होती थीं। नगर निगम की पंजी में उनका कुछेक झूठा नाम दर्ज होता था ताकि वह खुद और मेरी का परिवार पुलिसिया जासूसों की निगाह से बचे रहें।  

जबकि पैसे फिर भी कम पड़ रहे थे। क्योंकि उधर लन्दन में मार्क्स और जेनी के बच्चे बड़े हो रहे थे। एक एक कर मार्क्स के घर के सामान बिकते गए। उनके तीन सन्तानों की मौत हो गई। फिर आगे चल कर एंगेल्स की आर्थिक स्थिति कुछ अच्छी भी हुई। लेकिन वह कहानी बाद में।

मैंचेस्टर आने के बाद न्युयार्क डेली ट्रिब्युन के लिये आलेखों की जो पहली शृंखला थी जर्मनी में क्रांति और प्रतिक्रांति, उसका विषय मार्क्स ने सुझाया था। मार्क्स के ही सुझाव पर एंगेल्स ने प्रुधों की किताब आइडिए जेनराले द ला रिवोल्युशन अ XIXए सिएक्ल की भी आलोचना तैयार की थी। न तो एंगेल्स की लिखी यह आलोचना छप पाई और न जो मार्क्स ने सोचा था, कि उसमें कुछ और बातें जोड़ते हुये संयुक्त रूप से लिखित पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया जाय, वह हो पाया। मार्क्स इसी तरह हमेशा ही एंगेल्स की मदद लिया करते थे और उनकी वैचारिक क्षमता पर पूरा भरोसा किया करते थे। जरूरत पड़ी तो बेझिझक एंगेल्स द्वारा इस्तेमाल किये गये वाक्यांशों एवं मुहावरों का इस्तेमाल कर लिया करते थे। इसी अवधि में लिखी गई मार्क्स की अमर कृति लुइ बोनापार्ट की 18वीं ब्रुमेयर में जो विख्यात कथन है हेगेल के बारे में, कि घटनायें इतिहास में दो बार घटित होती हैं – एक बार त्रासदी और एकबार प्रहसन के रूप में – वह पूरा प्रसंग दरअसल एंगेल्स ने एक चिट्ठी में मार्क्स को लिखा था।   

दोनों मित्र का अलग रहना शुरु होने के बाद सबसे पहली चुनौती बन कर सामने आया अक्तूबर 1852 का कोलोन मुकदमा। कोलोन मुकदमा प्रशियाई सरकार की एक सोची समझी साजिश थी। उद्देश्य था, (1) पहले जर्मनी में क्रांतिकारी व्यक्तियों को जासूसी सूची के अनुसार चुन चुन कर गिरफ्तार करना; (2) उनसे जानकारी लेते हुए अपने गुर्गों को विदेश में भेष बदल कर, राजनीतिक आप्रवासी बना कर कम्युनिस्ट लीग में और खास कर लीग के उस गुट में घुसवाना जिसके बारे में प्रशासन को पता था कि उसका रास्ता पुराने लीग ऑफ द जस्ट की परम्परावाली षड़यंत्रधर्मी गुप्त संगठन का है; (3) उस गुट के दफ्तरों में फर्जी कागजात रखवाना ताकि अदालत में ‘साबित’ किया जा सके कि विभिन्न देशों में फैले कम्युनिस्टों का ‘यह’ क्रांतिकारी संगठन जर्मनी की सरकार के खिलाफ लगे हुये देशद्रोहियों की जमात है जिसके नेताओं में प्रमुख हैं मार्क्स और एंगेल्स; और (4) इसी आधार पर फ्रांस, बेल्जियम, अन्यान्य देशों और खास कर इंग्लैंड की सरकार से अपील करना कि वे अपने देशों में रह रहे तमाम जर्मन राजनीतिक आप्रवासियों को या तो अपने उपनिवेशों में भेज दे या जर्मनी को सौंप दे।

प्रशियाई राजतंत्र जानती थी कि इस क्रांतिकारी अगुवा दस्ते को एक बार इस तरह विनष्ट कर देने पर राजतंत्र के खात्मे की मांग करने वाला तो दूर, राजतंत्र के अन्तर्गत ही एक संविधान की मांग करने वाला सामान्य विपक्ष भी शून्य हो जाएगा।

लीग की केन्द्रीय कमिटी उस वक्त कोलोन में ही स्थित थी जिसे मार्क्स और एंगेल्स इंग्लैंड से निर्देशित करते थे। अदालत में मामला बनाने के लिये मई-जून 1852 में जब केन्द्रीय कमिटी के सदस्य तथा और भी कई लीग सदस्य कोलोन में गिरफ्तार किये गये, इंग्लैंड में जर्मन जासूसों ने मार्क्स और एंगेल्स पर नजरदारी बढ़ा दिया।  सबसे पहले एंगेल्स ने ही मार्क्स को सावधान किया: “अपने कागजातों को घर से बाहर किसी सुरक्षित जगह पर रखो। कुछ दिनों पहले से मुझ पर करीब से नजर रखी जा रही है। एक कदम चलने में दो-तीन खबरियाँ पीछे लग जाती हैं। हमारे यहाँ रहने के खतरों पर महत्वपूर्ण व्याख्यायें बर्तानवी सरकार तक पँहुचाने में महाशय बुनसेन [इंग्लैंड में प्रशिया के राजदूत] चूकेंगे नहीं।”

लेकिन लीग के केन्द्रीय कमिटी के तथा अन्य गिरफ्तार साथियों को 18 महीनों तक सघन जाँच में रखने और अपने गुर्गों के माध्यम से फर्जी कागजात रखवाने के बावजूद प्रशियाई प्रशासन मार्क्स और एंगेल्स व उनके क्रांतिकारी साथियों की संलिप्तता अंग्रेज सरकार को नहीं दिखा पाई। उधर मार्क्स और एंगेल्स गिरफ्तार साथियों से सम्पर्क बनाते रहे तथा प्रशियाई सरकार के साजिशों का पर्दाफाश करने का हर प्रयास करते रहे। हालांकि इंग्लैंड और फ्रांस के अधिकांश पूंजीवादी अखबारों ने उनके वक्तव्य छापने से इन्कार कर दिया। लन्दन में मार्क्स का घर एक भरापूरा दफ्तर बन गया जहाँ पुलिस द्वारा की जा रही जालसाजी तथा अदालती कार्रवाईयों में हो रहे फरेब के खिलाफ सबूत इकट्ठे किये जाते थे। फिर उन्हे, जर्मनी में गिरफ्तार साथियों के वकील के पास भेजने की व्यवस्था की जाती थी। उन दिनों जेनी मार्क्स ने ऐडॉल्फ क्लॉस को एक पत्र में लिखा, “आप कल्पना कर सकते हैं कि ‘मार्क्स का दल’ किस तरह दिन रात सक्रिय है और जितना सर से, उतना ही हाथों और पैरों से काम करने को बाध्य है … पुलिस के सारे आरोप झूठे हैं … यह सब कुछ इतना डरावना दिखता है … जालसाजी के सारे सबूत यहीं से सुपूर्द करने थे … फिर सारे कागज छे से आठ प्रतियों में अत्यधिक टेढ़े रास्तों से कोलोन भेजने थे – फ्रांकफुर्ट होते हुए, पैरिस होते हुए, ऐसे ही … हमें अभी वीर्थ और एंगेल्स से वाणिज्यिक पतों और नकली वाणिज्यिक पत्रों के पूरे ढेर प्राप्त हुए हैं जिनका इस्तेमाल, दस्तावेज, चिट्ठियाँ आदि भेजने में करना होगा … हमारे फ्लैट में पूरा एक दफ्तर खड़ा कर दिया गया है। दो या तीन लोग लिखते हैं, बाकी लोग यहाँ वहाँ सन्देश पहुँचाने या अन्य काम से दौड़ते रहते हैं और उससे भी बाकी बचे लो्ग खुरच खुरच कर पैसे जुटाते हैं ताकि लेखक अपना अस्तित्व बचाये रख सकें और इस अभूतपूर्व जुल्म की आधिकारिक दुनिया के खिलाफ सबूत जुटा सकें।”

कुछ आरोपों को खारिज करने के लिये अदालत को बाध्य किया जा सका। लेकिन फिर भी, इग्यारह आरोपियों में से सात को एक किले में कैद रहने की सजा दी गई। मार्क्स के कहने पर कोलोन मुकदमा पर न्युयार्क डेली ट्रिब्युन में जो लेख एंगेल्स ने लिखे, उसमें कम्युनिस्टों पर लगाये गये झूठे आरोपों का खण्डन करते हुये एंगेल्स ने कहा कि कम्युनिस्टों का उद्देश्य था, “उस दल को बचाये रखना जिसका केन्द्र वे थे। साथ ही उनका उद्देश्य था दल को उस अन्तिम, निर्णायक संग्राम के लिये तैयार करना जो एक न एक दिन योरोप पर से अवश्य, केवल ‘अत्याचारियों’, ‘स्वे्च्छाचारियों’ और ‘लुटेरों’ का आधिपत्य ही खत्म नहीं करेगा बल्कि उनके आधिपत्य से कहीं अधिक बड़ा और दुर्जेय, श्रम पर पूंजी के आधिपत्य को खत्म करेगा।”

पूरी केन्द्रीय कमिटी एवं कोलोन स्थित सक्रिय सदस्यों की गिरफ्तारी और फिर मुकदमा ने कम्युनिस्ट लीग के ताकत को क्षीण कर दिया था। उसे जिन्दा रखना सम्भव नहीं था। मार्क्स के ही प्रस्ताव पर लीग की लन्दन जिला कमिटी ने 17 नवम्बर 1852 को लीग़ को विघटित करने की घोषणा कर दी। एंगेल्स ने लिखा, “कोलोन मुकदमे के साथ जर्मन कम्युनिस्ट श्रमिक आन्दोलन की पहली अवधि की समाप्ति होती है।”

लीग के विघटन के उपरांत यथार्थ में अब कोई क्रांतिकारी सर्वहारा पार्टी कहलाने लायक संगठन रहा ही नहीं। लेकिन लोग थे। भले ही वे खुले तौर खुद को मार्क्स-एंगेल्स के अनुयायी न कहते हो लेकिन उनकी बातचीत में, पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखन में, कम्युनिस्ट घोषणापत्र द्वारा प्रतिपादित समाज की वर्गीय समझ, आर्थिक व्यवस्था का महत्व आदि बातें आने लगीं थीं। एंगेल्स ने किसी मित्र को लिखे गये पत्र में कहा कि चलो अच्छा है, अब की बार टुटपूंजियों और तमाम किस्म के प्रजातंत्रवादियों से कोई रिश्ता नहीं रखना पड़ेगा। संगठन स्वतंत्र तौर पर सर्वहाराओं का होगा एवं कम्युनिस्ट घोषणापत्र की बुनियाद पर होगा। लेकिन ऐसा होने में अभी विलम्ब था।

योरोप में क्रांति का ज्वार भी उस तरह उभर नहीं रहा था जैसा मार्क्स और एंगेल्स ने सोचा था। संकट को जनता पर लादने में सक्षम बनाने वाली नई विश्व बाजार व्यवस्था कायम हो रही थी। साथ ही, विश्वबाजार में विस्तार के लिये युद्ध भी सुलगने लगे थे। एक तरफ पैरिस में विश्व व्यापार मेला पूंजी की उत्पादक शक्तियों का जयघोष कर रहा था तो दूसरी ओर क्रिमियाई युद्ध में उसी पूंजी की विध्वंसात्मक शक्तियाँ रूसी जारशाही और ऑटोमन साम्राज्य के आपसी टकराव में, बाजार के विस्तार की सम्भावना देखते हुए कूद पड़ी थी। लेकिन मार्क्स और एंगेल्स इसी युद्ध के बारे में बातचीत करते हुये तथा न्युयार्क डेली ट्रिब्युन के लिये युद्ध पर लगातार अखबारी लेखन करते हुये अपनी विचारधारा को नई दिशाओं में विकसित कर रहे थे। दक्षिणी योरोप का अधिकांश, साथ ही अफ्रिका के कुछ हिस्से तुर्की के ऑटोमन साम्राज्य के अधीन थे। दूसरी ओर पूर्वी योरोप के बड़े हिस्से रूसी जारशाही के अधीन थे। इन दोनों के बीच युद्ध में एक तरफ ब्रिटेन और फ्रांस के कूद पड़ने से नये साम्राज्यवाद का पूंजीवादी सार सामने आने लगा था, दूसरी तरफ, उन अधीन राष्ट्रीयताओं के सवाल उभरने लगे थे। और भी नये युद्ध शुरु किये जा रहे थे, अफ्रिका और एशिया में। एंगेल्स रूसी एवं कुछ अन्य स्लाभ भाषायें जानते थे। वह और करीब से देख पा रहे थे घटनाओं को। उन राष्ट्रीयताओं के बारे में लिखते हुये दोनों को राष्ट्रीय मुक्ति एवं राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार के प्रश्न पर अपनी नीति को स्पष्ट करना पड़ा। कुछ ही वर्षों बाद दूर देश हिन्दोस्तान में राष्ट्रीय स्वतंत्रता का पहला संग्राम शुरू होने वाला था। चीन में भी संघर्ष शुरु होने वाला था।

मैंचेस्टर आने के कई वर्षों तक एंगेल्स सिवाय लन्दन जाने आने के और कहीं का सफर नहीं किये। लन्दन वह अमूमन अकेले ही जाते थे, क्योंकि मार्क्स के साथ समय बिताने में या कुछेक अन्य मुलाकातों में सहुलियत होती थी। मई 1856 में एंगेल्स मेरी के साथ कुछेक दिनों के लिये आयरलैंड गये एवं उनकी ही जुबानी, पूरा तो नही लेकिन दो तिहाई इलाका घूमें। लौट्ने के बाद, 23 मई को उन्होने मार्क्स को एक चिट्ठी लिखा। चिट्ठी में आयरलैंड में पड़े अकाल के मार्मिक वर्णन के साथ साथ, अंग्रेज शासन ने आइरिश राष्ट्रीयता का क्या हाल किया है उसका वर्णन किया। इंग्लैंड के पूंजिवादी विकास का कोई चिन्ह आयरलैंड में नहीं था। जीर्ण, शीर्ण एक गुलाम राष्ट्रीयता बन कर जी रहा था वह देश। एंगेल्स ने लिखा, “पुलिस, पुरोहित, वकील, अफसरशाह, जागीरों के मालिक प्रफुल्लचित्त भरे पड़े हैं और किसी भी प्रकार का उद्योग अनुपस्थित है। सोचना भी मुश्किल है कि अगर दूसरी ओर इसकी विपरीत पहलू, किसानों की बदहाली नहीं होती तो ये परजीवी पौधे कैसे जीवीत रहते। देश के कोने कोने में ‘लोहे का हाथ’ दिखता है; सरकार हर चीज में दखल देती है, स्वायत्तशासन का चिन्ह तक नहीं है। आयरलैंड को इंग्लैंड का पहला उपनिवेश कहा जा सकता है … यहाँ कोई देखने से चूक नहीं सकता है कि अंग्रेज नागरिक की तथाकथित आजादी, उपनिवेशों में किये जा रहे दमन पर आधारित है।”

1857 का विश्व पूंजीवादी संकट

एंगेल्स एक असाधारण सैन्य विशेषज्ञ थे। न्यूयार्क डेली ट्रिब्युन एवं अन्यान्य पत्रिकाओं में उनके लेख अक्सर चारों ओर उभर रही सैन्य परिस्थितियों एवं हो रहे युद्ध की दिन प्रतिदिन की गतिविधियों के विश्लेषण पर होते थे। आगे चल कर ट्रिब्युन के सम्पादक चार्ल्स डाना ने जब मार्क्स को, अमेरिका से प्रकाशित होने वाले विश्वकोश न्यु अमेरिकन साइक्लोपेडिया में कुछ प्रविष्टियाँ लिखने का प्रस्ताव दिया तो मार्क्स ने तत्काल उन प्रविष्टियों में आने वाले सैन्य सम्बन्धित प्रविष्टियाँ लिखने का जिम्मा एंगेल्स को दे दिया। क्रिमियाई युद्ध के दौरान जब युद्ध की परिस्थितियाँ बढ़ने लगीं तब एंगेल्स को लगा कि चलो युद्ध संवाददाता की नौकरी कर लेते हैं। पैसे भी आयेंगे, रोज की सौदागरी से भी छुटकारा मिलेगी; युद्धरत देशों एवं मोर्चों पर घूमेंगे उसका मजा अलग। डेली न्युज नाम के एक अखबार से बात भी हुई। शुरू में बात बनने लगी थी, लेकिन उनकी कम्युनिस्ट एवं क्रांतिकारी पहचान के कारण टूट गई।

सैन्य विषयों के अलावे एंगेल्स सांस्कृतिक व लोक इतिहास आदि से सम्बन्धित पुस्तकों का भी गहन अध्ययन करते थे। मैंचेस्टर आने के बाद भाषा सीखने के क्रम में रूसी के साथ साथ उन्होने कुछ और स्लाभिक भाषायें सीख ली थीं। अरबी भाषा का भी उन्हे ज्ञान था। स्लाभ जातियों में मौजूद आपसी एकता की सांस्कृतिक सोच (जिसे पैन-स्लाभिज्म कहते हैं) के इतिहास पर उन्होने महत्वपूर्ण शोध किये। अरबी कबीलों एवं जातियों के लोक-इतिहास के साथ यहूदी धर्मग्रंथ ओल्ड टेस्टामेन्ट के रिश्ते पर भी उन्होने काम किया।

उन्नीसवीं सदी का वह समय प्रकृति विज्ञान एवं समाज विज्ञान के विभिन्न क्षेत्र में नये नये अनुसंधानों की अवधि थी। 14 जुलाई 1858 को, मार्क्स को लिखे गये एक पत्र में एंगेल्स, हेगेल रचित प्रकृति का दर्शन भेजने को कहते है और कहते हैं कि अगर ‘बुढ़उ’ को, ”आज लिखना पड़ता प्रकृति का एक दर्शन तो उनके चारों ओर से तथ्य उड़ते हुए आ रहे होते।” जीवकोष के विकास का अध्ययन करते हुए उन्हे द्वन्दात्मकता के सिद्धांत के प्रमाण दिखने लगते थे। तुलनात्मक शरीर-क्रिया विज्ञान को पढ़ते हुए वह, आदमी एवं अन्य स्तनपायी जीवों के शरीर के बीच की समानता को देखते हुये वहाँ तक पहुँच जाते थे कि शरीर-निर्माण की एक नैसर्गिक प्रक्रिया का चरण है मानवशरीर, कोई दैवी सृजन नहीं। (इसके निर्माण में श्रम की भूमिका पर अपने महान शोध तक, इसी अध्ययन तथा मार्क्सवाद के विस्तार के क्रम में वह बाद में पहुँचे)।

1859 में प्रकाशित हुआ चार्ल्स डार्विन का शोध ग्रंथ ऑरिजिन ऑफ स्पेसीज (जीवजाति का उद्भव)। पढ़ते हुए मार्क्स को उन्होने लिखा, “डार्विन को मैं पढ़ रहा हूँ अभी। भव्य हैं। एक मामले में उद्देश्यवाद को ध्वस्त नहीं किया गया था, लेकिन अब वह किया गया। साथ ही, अभी तक प्रकृति में ऐतिहासिक विकास साबित करने का इतना उत्कृष्ट प्रयास, वह भी इतनी सफलता के साथ, कभी नहीं किया गया था।”

योरोप में प्रतिक्रियावाद के उभार के लगभग 8-9 वर्षों के दौरान, जब क्रांतिकारी अखबार प्रकाशित करने की गुंजाइश किसी भी देश में नहीं के बराबर थी, मार्क्स और एंगेल्स ने प्रगतिशील पूंजीवादी या पूंजीवादी-जनवादी संवाद माध्यमों का भरपूर इस्तेमाल किया। कुछ के, जैसे न्युयार्क डेली ट्रिब्युन के तो पैसे मिलते थे। कुछ के नहीं मिलते थे। लेकिन अमरीका, जर्मनी, इंग्लैंड आदि से प्रकाशित इन्ही लेखनों के माध्यम से वे अपने विचार अन्तरराष्ट्रीय पाठकों तक पहुँचाते रहे। साथ ही इन्ही लेखनों के माध्यम से उनकी नजरें एशिया, अफ्रिका के देशों की तरफ मुड़ीं एवं औपनिवेशिक प्रश्नों से उन्हे दो-चार होना पड़ा। इसी बीच भारत में स्वतंत्रता की पहली लड़ाई छिड़ गई। दोनों ने ट्रिब्युन के विभिन्न अंकों में भारत पर अनेकों लेख लिखे। बाद के दिनों में जब भारत की अपनी इतिहासलेखन प्रक्रिया शुरू हुई, अंग्रेजों द्वारा लिखे गये विकृत इतिहास का खण्डन करना पड़ा, उन्ही विकृत धारणाओं के अनुयायी तथाकथित राष्ट्रवादी इतिहास की भी आलोचना करनी पड़ी, मार्क्स और एंगेल्स के वे लेख, अपने कुछेक अधूरेपन के बावजूद सबसे महत्वपूर्ण पथप्रदर्शक रहे।

आज भी भारत के पाठक एंगेल्स की उन रचनाओं को पढ़ कर आश्चर्यचकित रह जाते हैं जिनमें वह लखनऊ स्थित रेसिडेन्सी की लड़ाई का विश्लेषण करते हैं। आज का इन्टरनेट तो दूर, कैमरे की फोटोग्राफी भी जिस समय उपलब्ध नहीं हो उस समय, कभी भारत नहीं आया हुआ एक आदमी, लखनऊ शहर, गोमती का किनारा, गोमती का नहर, किनारे से जाते हुए रास्ते पर बने महल आदि का इस तरह वर्णन करता है जैसे उसका रोज का आना जाना हो। इसी तरह का वर्णन करते हैं वह दिल्ली या कानपुर, या भोजपुर के जंगल का जहाँ कूँवर सिंह लड़ रहे थे।

औपनिवेशिक लूट, बर्बरता, नस्लीय शासन आदि की कितनी स्पष्ट समझ थी दोनों की! सितम्बर 1858 की रचना, भारत में विद्रोह में एंगेल्स लिखते हैं, “फिर भी, फिलहाल, ब्रिटिशों ने भारत को पुन: दखल कर लिया है। बंगाल सेना की बगावत से उपजा महान विद्रोह, वास्तव में, ऐसा लगता है कि खत्म हो रहा है। लेकिन इस द्वितीय विजय से भारतीय जनता के चित्त पर इंग्लैंड की पकड़ बढ़ी नहीं है। … इसके विपरीत, अंग्रेज खुद स्वीकारते हैं कि हिन्दुओं और मुसलमानों में घुसपैठिये इसाइयों के प्रति पुश्तैनी घृणा पहले कभी इतनी तीव्र नहीं थी।”

मार्क्स रचित भारत में ब्रिटिश शासन आज भी एक अति महत्वपूर्ण सन्दर्भ-पुस्तिका है। उस पुस्तक के मूल कुछ सुत्र एंगेल्स ने ही मार्क्स को दिये थे। चिट्ठियों के माध्यम से जो उनकी बातचीत होती थी उसी क्रम में एक बार, 6 जून 1853 को एंगेल्स ने मार्क्स को लिखा था, “पूर्वदेशीय सरकार के पास कभी भी तीन से अधिक विभाग नहीं होते थे: वित्त (घर में लूट), युद्ध (घर और बाहर में लूट), और सार्वजनिक कार्य (पुनरुत्पादन का प्रावधान)। भारत में ब्रिटिश सरकार ने पहले और दूसरे नम्बर वाले कार्य को बस औपचारिक ढंग से निभाया जबकि तीसरे नम्बर कार्य को पूरी तरह छोड़ दिया; और इसीलिए भारत का कृषि ध्वस्त हो रहा है।”

दिन भर दफ्तर में सौदागरी, सुबह शाम अखबारी लेखन, अध्ययन, कुछ नये लेखन की तैयारी … इतना अत्यधिक श्रम एंगेल्स के लिए भी भारी पड़ रहा था। जीवनीकार गुस्ताभ मेयर लिखते हैं:

“एंगेल्स लम्बे, दुबले, स्वस्थ लेकिन हल्के शरीर वाले व्यक्ति थे। अपने शरीर को उन्होने घुड़सवारी, तैराकी, तलवारबाज़ी और खुली हवा में व्यायाम के द्वारा सख्त बनाया था ताकि उस पर हो रही मांगों को वह पूरी कर सके। बिरले होती बीमारियों में वह पूरी तरह चिकित्सकों पर भरोसा नहीं करते थे बल्कि सही इलाज की खोज करने की कोशिश करते थे। जब वह 1857 की गर्मियों में, विषाक्त ग्रंथियों के कारण गंभीर रूप से बीमार पड़े, दोबारा अस्वस्थ हुए और जटिलताएं पैदा हुईं, तब भी उन्होने चिकित्सा ग्रंथ आदि पढ़ कर यही किया। पहले तो स्वास्थ्य के कारण काम करना बन्द करने से इन्कार करते रहे। मार्क्स को जबर्दस्ती करनी पड़ी। तब वह माने और कई महीने समुद्र के किनारे बिताए – लिवरपूल के पास वाटरलु नाम की एक जगह पर, फिर विट द्वीप पर और अन्तत: जर्सी द्वीप पर। जर्सी में अक्तूबर के महीने में मार्क्स भी उनसे मिलने आये थे।”

आगे जीवनीकार यह भी बताते हैं कि मार्क्स उतना ही विचलित हो जाते थे एंगेल्स के बारे में सुन कर जैसे वह खुद बीमार पड़ गये हों। यह बात उन्होने एंगेल्स को लिखा भी और ब्रिटिश म्युजियम के ग्रंथालय में जाकर खुद चिकित्सा ग्रंथों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने लगे। फिर अपने अध्ययन के परिणाम वह एंगेल्स को बताए। एंगेल्स के उत्तर में कॉड-लिवर तेल और आयोडीन के फायदों के बारे में लम्बे निष्कर्ष थे।

तीन महीने के आराम के बाद जब एंगेल्स मैंचेस्टर लौटे तब तक अखबारों के माध्यम से उन्हे ज्ञात हो चुका था कि पूंजीवादी संकट का नया दौर शुरू हो चुका है। चूंकि इस बीच एक विश्व बाज़ार कायम हो चुका था, पूंजीवाद का यह पहला विश्वव्यापी संकट पूरे योरोप और अमरीका को अपने गिरफ्त में ले चुका था। शेयर बाज़ार, बैंक इत्यादि में मंदी का संकेत देते हुए अन्तत: अति-उत्पादन का संकट उजागर हुआ एवं इंग्लैंड इसका मुख्य शिकार था। मैंचेस्टर के वाणिज्यिक जगत में सभी का मुंह लटका हुआ था सिवाय एंगेल्स के। क्योंकि मार्क्स और उन्हे दृढ़ विश्वास था कि इसी के साथ राजनीतिक संकट भी शुरू होगा जिसके चलते क्रांतिकारी आन्दोलन में नया उभार आएगा। अपनी कम्पनी के लिये एंगेल्स रोज मैंचेस्टर शेयर बाज़ार पहुँचते थे। 15 नवम्बर 1857 को उन्होने मार्क्स को लिखा, “मेरे मिजाज में अचानक आई इस अजीब सी खुशी को देख कर भद्रमहोदयगण दाँत पीस रहे हैं। वास्तव में, शेयर बाज़ार ही एक मात्र जगह है जहाँ मेरे मन की निष्प्रभता मिट जाती है और मैं उत्साह से भर जाता हूँ। उसके ऊपर, मैं हमेशा भविष्य की स्याह तस्वीर खींचता हूँ। इससे इन गधों की खीझ दोगुनी हो जाती हैं।”

हालाँकि उस तरह का राजनीतिक संकट एवं क्रांतिकारी उभार नहीं आया जैसा मार्क्स और एंगेल्स ने सोचा था। लेकिन तीन देशों में क्रांतिकारी गतिविधियाँ नजर आने लगी। एक तो इटली। इटली राष्ट्र के रूप में तब तक एकताबद्ध नहीं हो पाया था। इटली की एकता के लिये आन्दोलन जोर पकड़ा। दूसरा जर्मनी। जर्मनी भी एकताबद्ध नहीं हो पाया था। वहाँ भी आन्दोलन होने लगे। और तीसरा देश था अमरीका। उसके भी उत्तरी और दक्षिणी राज्यों में लड़ाई होने लगी। उत्तरी राज्यों का नेतृत्व दासप्रथा खात्मे का पक्षधर था। अमरीकी एकता का नेतृत्व अगर उत्तरी राज्यों के हाथों में रहता तो दासप्रथा खत्म होती और उसका जबर्दस्त असर योरोप, खास कर इंग्लैंड पर पड़ता। आगे चल कर यही हुआ भी। मार्क्स एंगेल्स के घनिष्ठ साथी वेडेमेयर वहीं थे। इन तीनों देशों के घटनाविकास पर मार्क्स और एंगेल्स के लगातार लेख आते गये। एंगेल्स ने 1859 के फरवरी-मार्च में एक महत्वपूर्ण आलेख तैयार किया – पो एवं राइन । पो इटली की एक नदी है और राइन जर्मनी की। इस आलेख के माध्यम से उन्होने एकताबद्ध स्वतंत्र इटली और एकताबद्ध जर्मनी की आकांक्षाओं के विपरीत फ्रांस और जर्मनी के साम्राज्य-विस्तारवादी सैन्य-नजरिए के वर्गीय चरित्र को उजागर किया। अद्भुत लगता है पढ़ते हुए कि यह काम उन्होने सामान्य वैचारिक भाषा में नहीं किया। बल्कि, एक अनुभवी सैन्य-पत्रकार की भाषा में उन्होने फ्रांस और जर्मनी की सैनिक गतिविधियों को उनके ही उन रणनीतिक दावों के आगे खोखला साबित किया, जिन्हे वे देशहित बताते थे। जर्मनी में जब यह पुस्तिका छपी तब उसमें लेखक का नाम नहीं था। खूब बिकी वह पुस्तिका एवं कई समीक्षायें आईं। बाद में, एक पत्रिका में धारावाहिक पुन: प्रकाशन के समय लेखक का नाम उजागर किया गया।

जर्मनी में बदलाव के जो भी संघर्ष हों उसमें सर्वहारा का क्रांतिकारी पक्ष जरूर उभर कर आये यह मार्क्स और एंगेल्स की कोशिश रहती थी। पहले भी उन्होने कई नेताओं से सम्पर्क बनाया था। उसी सिलसिले में उन्होने फार्दिनान्द लासाल से अपने पुराने परिचय को आगे बढ़ाया था। कई बिन्दुओं पर भिन्नताओं के बावजूद उनसे अच्छी मित्रता थी। लगा था कि लासाल के विचारों की टुटपूंजिया कमजोरियाँ दूर हो जाएंगी। पर ऐसा हुआ नहीं। फिर लासाल का निधन भी हो गया एक दर्दनाक द्वंदयुद्ध में। लेकिन वह बाद की बात है। सन 1860 की शुरूआत में ही दो घटनायें घटित हुईं जिसका प्रभाव एंगेल्स के जीवन पर पड़ा।

1860 के मार्च महीने के बीच तक एंगेल्स के पास खबर पहुँची कि उनके पिता बीमार हैं। सन 1849 में एल्बरफेल्ड, बैडेन और पैलेटिनेट में की गई क्रांतिकारी कार्रवाईयों के कारण एंगेल्स पर अदालत के आरोप लटक रहे थे। पिता से उनकी कभी नहीं बनी तब भी वह घर जाना चाहते थे। मिलना चाहते थे पिता से। परिवार की ओर से बहुत कोशिश की गई कि 15 दिनों के लिये एंगेल्स को जर्मनी आने की अनुमति मिल जाये। लेकिन अनुमतिपत्र पर प्रशियाई गृहमंत्री का हस्ताक्षर होते होते मार्च की 20 तारीख तक एंगेल्स के पिता गुजर गये।  

दूसरी घटना इसी से सम्बन्धित है कि अनुमतिपत्र मिलने के बाद 23 मार्च को वह बार्मेन, अपने घर पहुँचे और दस साल के बाद अपनी माँ से और परिवार से मिल पाये। पिता की अंत्येष्टि के बाद एंगेल्स के भाइयों ने एंगेल्स से कहा कि चूंकि अब वह स्थाई तौर पर इंग्लैंड के बाशिंदे हो गये हैं इसलिये जर्मनी के एंगेल्सकिर्शेन शहर में जो पारिवारिक व्यवसाय है उसमें अपना हिस्सा छोड़ दें। बदले में कुछ इन्तजाम किया जाएगा कि मैंचेस्टर के एर्मेन ऐन्ड एंगेल्स की कम्पनी में एंगेल्स की कुछ व्यक्तिगत हिस्सेदारी हो। एंगेल्स सम्पत्ति के मामले में उदासीन थे। जितना भी मिलेगा क्रांतिकारी कामों में इस्तेमाल होगा यह नजरिया जरूर था लेकिन इसे लेकर वह भाइयों से कोई झगड़ा नहीं चाहते थे। इसलिये जैसा भाई और बहनोई चाहते थे वही हुआ।

भाइयों के दबाव में एंगेल्स ने जो समझौता किया वह घाटे का सौदा था। एंगेल्स को यह भी अच्छा नहीं लगा था कि सारी बातें बाकी भाइयों में उनके पीठ पीछे हो चुकी थी। उधर मैंचेस्टर में उनके पिता का हिस्सेदार एर्मेन भी पारिवारिक स्थिति को भाँपते हुये एंगेल्स परिवार को ठगने के चक्कर में था। सब कुछ समझते हुये भी सिर्फ माँ को देखते हुए एंगेल्स ने भाइयों का कहना मान लिया। सन 1861 के 13 फरवरी एंगेल्स ने मां को एक चिट्ठी में वास्तविक स्थिति एवं अपने मन की अवस्था बताते हुये लिखा: “प्यारी मां, मैं यह सब एवं बहुत कुछ और भी, तुम्हारे कारण निगल गया। दुनिया में किसी भी चीज के बदले मैं उत्तराधिकार को लेकर पारिवारिक झगड़ों से तुम्हारे जीवन की संध्या में कड़ुवापन नहीं लाऊंगा – रत्तीभर भी नहीं। मुझे विश्वास है कि जब मैं घर पर था, मेरा आचरण मेरी चिट्ठियों की तरह ही दिखाया होगा कि मैं किसी भी समझौते के रास्ते में बाधा डालने की चाह से बहुत दूर था। बल्कि, उसके विपरीत, मैंने खुशी से त्याग स्वीकार किया ताकि सब कुछ तुम्हारे ईच्छानुसार हो जाये।”  

स्थिति कुछ बदली, हालाँकि बहुत अधिक नहीं। एंगेल्स कर्मचारी ही रहे लेकिन 10,000 पौंड की हिस्सेदारी एवं फलस्वरूप, मुनाफे में एक हिस्से के साथ। समझौते के तहत कुछ सालों के बाद एंगेल्स को कम्पनी का हिस्सेदार बनाया जाना था। ऐसा हो जाने पर कर्मचारी जीवन से मुक्ति मिलने की सम्भावना बनी।

उधर जर्मनी में प्रशियाई राजसत्ता के द्वारा नये सम्राट के राज्याभिषेक के अवसर पर अक्तूबर 1861 में कुछ राज-क्षमा की घोषणा हुई जिसके कारण जर्मन राजनीतिक आप्रवासियों के लिये जर्मनी जाना थोड़ा आसान हो गया। एंगेल्स उसी अक्तूबर महीने में बार्मेन जाकर छुट्टी बिताये। एक साल बाद वह फिर गये। इस बार मोसेल और राइन नदी के किनारे किनारे चलते हुये थुरिंगिया पार किए; फिर कुछ समय बार्मेन और एंगेल्सकिर्शेन में बिताए।

जिस समय एंगेल्स बीमारी, फिर पिता की मृत्यु, सम्पत्ति का हिस्सा लिख देने के लिये भाइयों का दबाव आदि घटनाओं से जूझ रहे थे, मार्क्स की भी स्थिति अच्छी नहीं थी। कुछ दिनों पहले उन्हे अपने पारिवारिक विरासत से धन का कुछ हिस्सा मिला था (उसके लिये वह हंगरी गये भी थे)। उस धन के मिलने से वह लन्दन में एक नया घर किराये पर लिये और असबाब वगैरह भी खरीदे। लेकिन मंदी के प्रभाव में, न्युयार्क डेली ट्रिब्युन से जो पैसे मिलते थे वो कम कर दिये गये, विश्वकोष का प्रकाशन स्थगित हो गया। नतीजा यह हुआ कि वर्ष घूमते घूमते फिर से सारे असबाब गिरवी-घर चले गये। बच्चों को घर बैठना पड़ गया क्योंकि उनके स्कूल की फीस नहीं दी जा रही थी। जेनी को कभी कभी क्रोध आता था तो बोल देती थी “तुम तो चाहते हो कि मैं बच्चों को लेकर मर जाऊँ”। इस बात का जिक्र एंगेल्स से पत्र में करते हुये मार्क्स कहते थे कि “सही ही कहती है वह। कुछ भी कर नहीं पाता हूँ उनके लिए। … उसे यह भी शिकायत रहती है कि मैं शायद सही ढंग से यहाँ की स्थिति तुमसे बयान नहीं करता हूँ।” मार्क्स की भीष्म-प्रतिज्ञा थी कि लाख दबाव डाले यह जीवन, खुद को पूंजीवाद के लिये “पैसे-बनाने की मशीन नहीं बनने दूंगा”। उस प्रतिज्ञा को भी तोड़ने की स्थिति आ गई। एंगेल्स के जीवनीकार गुस्ताभ मेयर जिक्र करते हैं कि मार्क्स ने रेल कम्पनी में किरानी के पद के लिये आवेदन कर दिया था। लेकिन खैर, वह नौबत नहीं आई। एंगेल्स की आय कुछ बढ़ने के कारण मार्क्स के परिवार को कुछ राहत मिला।

सन 1862 के आते आते एक नई राजनीतिक परिघटना सामने आई – पोलैंड का हलचल। पोलैंड रूसी जारशाही के अधीन था। मार्क्स और एंगेल्स ने आपस में बातचीत की कि अगर पोलैंड का यह राजनीतिक विरोध प्रदर्शन विद्रोह में तब्दील हो और पोलैंड के किसान क्रांतिकारी संघर्ष शुरू करे तो स्वतंत्र प्रजातांत्रिक पोलैंड एक राष्ट्र के रूप में स्थापित होगा जिसका अर्थ होगा रूसी जारशाही की ताकत में और योरोप पर उसके प्रतिक्रियावादी प्रभाव में जबर्दस्त कमी। लेकिन यह तभी हो पाएगा अगर रूस के किसान भी पोलैंड के किसानों के समर्थन में आन्दोलन करें। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। रूस के किसान सदियों के बगावतों और आन्दोलनों के उपरांत भूदास प्रथा से हाल ही में मुक्त हुये थे। उधर पोलैंड के आन्दोलनों का कमजोर असंगठित नेतृत्व किसानों के पास गया ही नहीं। जार अलेक्जैन्डर II ने आगे चल कर पोलैंड के बगावत को कुचल दिया। लेकिन मार्क्स और एंगेल्स उत्साहित थे। तय हुआ कि एक पुस्तिका छपाई जायेगी जिसके माध्यम से जर्मनी के श्रमिकों को पोलैंड के बगावत का महत्व बताया जायेगा। पोलैंड की लड़ाई की सैन्य-स्थिति एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि लिखने की जिम्मेदारी एंगेल्स को मिली। उन्होने कुछ ही दिनों में लिख कर पूरा कर दिया। तय था कि इसका दूसरा हिस्सा, सैद्धान्तिक पक्ष मार्क्स लिखेंगे और तब यह एक घोषणापत्र के तौर पर जर्मन श्रमिक शिक्षा समिति की ओर से प्रकाशित की जायेगी। लेकिन अन्तत: बात आगे नहीं बढ़ पाई।

अगला साल शुरू होते होते एंगेल्स पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा। बीस वर्षों की साथी और पिछले दस वर्षों से मैंचेस्टर में एंगेल्स के एकरस जीवन का भागीदार उनकी पत्नी मेरी बर्न्स चल बसी। 6 जनवरी 1863 को उनका निधन हुआ। अगले दिन एंगेल्स ने मार्क्स को लिखा, “प्रिय मूर, मेरी गुजर गई। पिछली रात वह जल्दी सोने गई। जब आधी रात से थोड़ा पहले लिज़्ज़ी सोने को गई तब तक मेरी मर चुकी थी। बिल्कुल अचानक। हृदपात या रक्तमूर्छा-जनित आघात। सुबह तक मुझे बताया नहीं गया था। सोमवार की शाम तक वह बिल्कुल भलीचंगी थी। मैं बस तुम्हे बता नहीं सकता हूँ कि मैं कैसा महसूस कर रहा हूँ। बेचारी लड़की अपने पूरा दिल देकर मुझसे प्रेम करती थी। - तुम्हारा एफ॰ इ॰”

उपरोक्त पत्र के जबाब में मार्क्स ने जो पत्र लिखा उससे एंगेल्स को काफी चोट पहुँची। दोनों मित्रों के बीच का यह एक मात्र प्रसंग था, जिसमें एक ने दूसरे को चोट पहुँचाई हो। मार्क्स अपने घर पर गरीबी और ऐसे वक्त में जेनी की ओर से होती तानों की बौछार से परेशान थे। उसी बीच एंगेल्स की चिट्ठी आई और मार्क्स जबाब देने बैठे। जेनी बोलती ही रहती थी कि मार्क्स अपने मित्र से अपनी वास्तविक बदहाली छिपाते थे। सो मार्क्स ने आवेश में मेरी की अचानक हुई मौत पर चिट्ठी में बस औपचारिक तौर पर लिखते हुये, और अपने दुखड़ों की ही चर्चा करते रह गये। दुखी और क्रोधित होकर एंगेल्स ने पाँच दिनों तक जबाब नहीं दिया। जब दिया तो ठंडी आवाज में मार्क्स को डाँटते हुए चिट्ठी में मार्क्स की आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिये उन्होने क्या क्या किया है इसी का ब्योरा लिख दिया। मार्क्स चिट्ठी भेजने के बाद से ही शर्मिंदा थे। जान रहे थे कि उन्होने गलती कर दी थी। इसीलिये उन्होने भी तत्काल जबाब नहीं दिया। एंगेल्स की चिट्ठी मिलने के बारह दिनों के बाद उन्होने अपने व्यवहार के लिये अपनी शर्मिन्दगी और खेद व्यक्त किया। एंगेल्स भी तब तक कुछ सम्हल चुके थे।

उधर पोलैंड की लड़ाई अपने रास्ते से बिल्कुल भटक रही थी। जर्मनी में लासाल के काम से दोनों अप्रसन्न थे। एक मात्र लड़ाई जो आगे बढ़ रही थी वह था अमरीका का गृहयुद्ध। एंगेल्स कुछ दिनों से कुछ लिख भी नहीं पा रहे थे। अपने अकेलेपन से बचने के लिये अपना पुराना काम, नई भाषा सीखना शुरु किया। वैज्ञानिक आविष्कारों के इतिहास का अध्ययन करने लगे। कुछ महीने बाद ही वह फिर अखबारी लेखन में लौटकर आये। तब तक मार्क्स अकेले ही अखबारी लेखन, दूसरी पत्रिकाओं में लेखन एवं साथ ही साथ ब्रिटिश म्युजियम में जाकर पूंजी पर अपने काम को आगे बढ़ाते रहे।

सन 1864 के मई महीने में एंगेल्स को फिर एक गहरा धक्का लगा। अप्रैल महीने में ही मैंचेस्टर में उनके घनिष्ठ साथी विल्हेल्म वुल्फ गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। 9 मई को उनका निधन हो गया। वैसे तो यह धक्का दोनों के लिये था। लेकिन एंगेल्स के लिये वह हर दिन के साथी थे। 3 मई को मार्क्स मैंचेस्टर पहुँच भी गये। लेकिन विल्हेल्म वुल्फ की स्थिति तब तक मौत के कगार पर पहुँच चुकी थी।

अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति (पहला इन्टरनैशनल) की स्थापना और पूंजी (खण्ड 1) का पूरा होना

श्लेस्विग-होल्स्टेइन डेनमार्क की सीमा के पास जर्मनी की एक जगह है। पिछले कुछ दिनों से वहाँ पर कुछ राजनीतिक सुगबुगाहटों की खबर आ रही थी। लेकिन मार्क्स और एंगेल्स दोनों मामले को टाल रहे थे क्योंकि उन्हे विश्वास था कि खास कुछ हुआ नहीं होगा - खबर जिन माध्यमों से आ रही हैं वे भरोसेमन्द नहीं थे। वहाँ जाने के रास्ते पर एक जगह पड़ती थी एंगेल्सकिर्शेन जहाँ एंगेल्स परिवार की कुछ सम्पत्ति भी थी और एंगेल्स की माँ भी उस वक्त वहाँ रह रहीं थी। तो एंगेल्स ने जर्मनी के दो चार और शहर घूम कर, एंगेल्सकिर्शेन, श्लेस्विग-होल्स्टेइन होते हुए लौटने की योजना बना ली और निकल पड़े। एंगेल्स को आभास भी नहीं था कि उनकी अनुपस्थिति में इतना कुछ घटित हो जायेगा। बल्कि लौटने के बाद वह सीधा मैंचेस्टर में अपने सौदागरी वाले काम में लग गये क्योंकि विश्वव्यापी पूंजीवादी संकट, अमरीका का गृहयुद्ध तथा भारत में कम्पनी शासन के बदले रानी का शासन स्थापित होने के असर इंग्लैंड के कपड़ा व्यवसाय पर पड़ने लगे थे। जब मार्क्स ने बेचैन होकर चिट्ठी में जानना चाहा कि मित्र की कोई खबर क्यों नहीं आ रही है, जबकि वह जरूर लौट आया होगा, उसी दिन एंगेल्स ने जबाब दिया। जबाब के शुरू में ही एंगेल्स ने चिट्ठी नहीं लिख पाने के कारणों का जिक्र किया। “यह संकट और इसकी असंख्य परेशानियाँ ही तुम्हे इसके पहले चिट्ठी न लिखने का मेरा बहाना हो सकता है। अपने पूरे जीवन में मैंने कभी यहूदी हेराफेरियों की ऐसी भरमार के बीच नहीं पड़ा, और तुम कल्पना कर सकते हो कि इसके चलते कितने पत्राचार करने पड़ रहे हैं”, (2 नवम्बर 1864)। हालाँकि, उसी चिट्ठी के अंत में मजाकिया लहजे में वह पूछते हैं, “वाणिज्यिक संकट के बारे में तुम क्या सोचते हो? मुझे लगता है यह खत्म हो चुका है, यानि इसका सबसे बुरा चरण। दुख की बात है कि ये चीजें सही जगह तक नहीं पहुँचती है।”

अपने भाई को लिखी गई चिट्ठी में भी उन्होने उस कम्पनी की स्थिति के बारे में बताया कि कम्पनी के पास महीना-डेढ़ महीना भर के ऑर्डर हैं। चारों तरफ कम्पनियों के दिवालिया होने की खबरें हैं।

लेकिन मार्क्स की 4 नवम्बर की चिट्ठी पढ़ कर उन्हे समझ में आया कि उधर लन्दन में बहुत कुछ हो गया है इस बीच।

दर असल, कम्युनिस्ट लीग विघटित होने के बाद से ही दोनों बेचैन थे कि किस तरह श्रमिकों का एक नया अन्तरराष्ट्रीय संगठन बनाया जाय। कई तरह से कोशिशें की उन दोनों ने। सफल नहीं हुए। लेकिन उनके द्वारा फैलाये गये चेतना के बीज तो अपना काम कर रहे थे! एंगेल्स के लौटने की सूचना मिलते ही 4 नवम्बर 1864 को मार्क्स ने एंगेल्स को एक लम्बी चिट्ठी भेजी, दस्तावेजों के साथ। रोचक बात यह है कि उन्होने एंगेल्स को, पढ़ने के बाद वे दस्तावेज सही सलामत लौटा देने को कहा क्योंकि मार्क्स उन पर अपना काम तब तक पूरा नहीं किये थे। बस वह बेसब्र हो गये थे एंगेल्स को घटनाओं का पूरा विकासक्रम बताने के लिये। उन दस्तावेजों के पुलिन्दों में दूसरा था श्रमिकों के नये अन्तरराष्ट्रीय संगठन से सम्बन्धित।

मार्क्स ने चिट्ठी के ‘विषयक्रम’ 2 में लिखा,

“कुछ समय पहले लन्दन के श्रमिकों ने पैरिस के श्रमिकों को पोलैन्ड के बारे में एक सम्भाषण भेजा और आह्वान किया कि इस मामले मे साथ मिल कर काम किया जाय।

“सम्भाषण के जबाब में पैरिस वालों ने एक प्रतिनिधिमंडल भेजा जिसका नेतृत्व कर रहे थे तोलाँ, जो पैरिस में हुये पिछले चुनावों में वास्तविक श्रमिकों के प्रतिनिधि थे, पूरा का पूरा एक बढ़िया आदमी। (उनके साथी भी सब अच्छे लड़के थे)। 28 सितम्बर 1864 को सेन्ट मार्टिन्स हॉल में एक जनसभा बुलाई गई। सभा बुलाने वाले थे ओडगर (मोची, स्थानीय काउंसिल ऑफ ऑल लन्डन ट्रेड युनियन्स के अध्यक्ष और साथ ही, खास कर ट्रेड्स युनियन्स साफ्रेज ऐजिटेशन सोसाइटी - जिसका सम्बन्ध ब्राइट से है – के भी अध्यक्ष) तथा क्रेमर, एक राजमिस्त्री एवं मैसन्स युनियन के सचिव। (इन दोनों ने उत्तर अमरीका में ट्रेड युनियनों की एक बड़ी बैठक का आयोजन किया था जिसकी अध्यक्षता ब्राइट ने की थी – उक्त बैठक गैरिबल्डी के नजरिये से थी। ल लुबेज़ नाम के एक आदमी को मुझसे पूछने भेजा गया कि क्या मैं जर्मन श्रमिकों के लिये सभा में भाग लूंगा? और, खास कर, क्या मैं किसी जर्मन श्रमिक को सभा में बोलने देना चाहूंगा, आदि? मैंने उन्हे एकैरियस का नाम दिया, जो बहुत ही अच्छा बोला और मैं भी, न-बोलनेवाले की हैसियत से मंच पर मौजूद था। मैं जानता था कि ऐसे मौकों पर ‘जिनके होने का कुछ मतलब है’ वे जरूर आयेंगे, लन्दन और पैरिस से, और इसीलिये मैंने ऐसे किसी भी निमंत्रण को अस्वीकार करने के मेरे सामान्य साधारण नियम को हटा लेने का फैसला कर लिया। …”

इसके बाद पूरा ब्योरा है कि आम सभा में एवं उसके बाद तात्कालिक कमिटी की बैठकों में से दो में मार्क्स जा नहीं पाये,… प्रस्ताव वगैरह आ रहे थे वे पुराने ढर्रे पर थे, इसलिये मार्क्स को अपने घर पर एक छोटी अनौपचारिक बैठक बुलानी पड़ गई,… मार्क्स द्वारा कही गई बातों को उन सबों ने माना, एक नया मसौदा उन लोगों ने मार्क्स को ही तैयार करने दिया,… मार्क्स ने लिख कर दिया, वह पूरा नहीं माना गया,… अन्तत: प्रतिनिधियों के अनुरोध पर मार्क्स को सम्बोधन करने दिया गया, सम्भाषण को सभी ने सहर्ष पारित किया, लेकिन बैठक पर बैठक हुआ जा रहा है, … लैटिन में मार्क्स ने लिखा कि “हम लोगों को”, यानि मार्क्स और एंगेल्स को “ढंग से, लेकिन कार्रवाई में दृढ़” होना पड़ेगा।

यानि, एंगेल्स की अविलम्ब जरूरत है। 7 नवम्बर 1864 को एंगेल्स ने लिखा, “श्रमिकों को किया गया वह सम्बोधन देखे बिना मैं रह नहीं पा रहा हूँ। जिस तरह के लोग इस संगठन से जुड़े हैं तुम बता रहे हो, निश्चय ही वह सम्बोधन एक यथार्थ श्रेष्ठ कृति होगी। लेकिन अच्छी बात है कि हम फिर वैसे लोगों से सम्पर्क बना रहे हैं जो कम से कम अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। अन्तत: यही वास्तव में अर्थ रखता है।”

“निश्चय ही वह श्रेष्ठ कृति थी।” सन 1974 में सोवियत संघ द्वारा प्रकाशित एंगेल्स की जीवनी दर्ज करता है, “बैठक के प्रायोजक, अंग्रेज ट्रेड युनियन वाले एक ऐसा अन्तरराष्ट्रीय संगठन चाहते थे जो प्राथमिक तौर पर आर्थिक मांगों पर काम करेगा – काम के घंटों में कटौती के लिये, हड़तालों में समन्वय लाने के लिये और मजदूरी को नियंत्रित करने के लिये आदि। फ्रांसीसी श्रमिक जो प्रुधों से प्रभावित थे, ब्याजरहित ॠण एवं सहयोग के लिये एक विश्व संगठन का सपना देख रहे थे; उन्हे लगता था कि इसी से शोषण समाप्त हो जाएगा। और फिर पूंजीवादी जनतंत्रवादी थे जो अन्तरराष्ट्रीय को मौजूद जनतांत्रिक संगठनों का पिछलग्गु बना देना चाहते थे।

“दूसरी ओर, मार्क्स इस अन्तरराष्ट्रीय समिति को यथार्थ में सर्वहारा जनसंगठन बनाना चाहते थे जो पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ श्रमिकों के संघर्षों का समन्वय करे एवं दिशानिर्देशन करे। ‘भाग लेने वाले सभी लोगों में सिर्फ एक आदमी था,’ एंगेल्स ने बाद में उस बैठक के बारे में लिखा, “जो स्पष्ट था कि क्या होगा और क्या बनाया जाएगा। यह वही आदमी था जिसने सन 1848 में दुनिया को आह्वान किया था: सभी देशों के सर्वहारा, एक हो!’ ”  

मार्क्स लिखित वह सम्बोधन काफी लोकप्रिय हुआ यह बाद के दिनों का इतिहास बताता है। उक्त सम्बोधन, जो एक तरह से घोषणापत्र था लेकिन कम्युनिस्ट घोषणापत्र से बिल्कुल अलग भाषा में, ताकि किसी भी खेमे को आपत्ति नहीं हो, के साथ एक तात्कालिक नियमावली भी था। पूरे योरोप एवं अमेरिका में वह पढ़ा गया एवं अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति या पहला अन्तरराष्ट्रीय, सेन्ट मार्टिन हॉल के स्थापना सम्मेलन से आगे, आठ वर्षों के बाद हेग सम्मेलन तक उत्तरोत्तर बड़ा होता चला गया। सबसे अधिक लोकप्रियता के दिनों में इन्टरनैशनल वर्किंगमेन्स ऐसोसियेशन या ‘पहला अन्तरराष्ट्रीय’ के अस्सी लाख सदस्य थे पूरे योरप में (पुलिस की फाइलें बताती हैं कि पचास लाख सदस्य थे)।

लेकिन एंगेल्स को मैंचेस्टर से मुक्ति अभी नहीं मिलनी थी। अब वह उस कम्पनी में किरानी नहीं थे। एंगेल्स परिवार के उत्तराधिकारी के रूप में अब वह कम्पनी के हिस्सेदार थे। आर्थिक स्थिति पहले से अच्छी थी। मार्क्स को पहले से ज्यादा मदद कर पा रहे थे। लेकिन भाइयों के साथ जो समझौता हुआ था उसके तहत कम्पनी का काम वह 1 जुलाई 1869 के पहले नहीं छोड़ सकते थे। तब तक उन्हे रोज दफ्तर जाना था। “समय की बर्बादी से … यह अभिशप्त वाणिज्य … मुझे पूरी तरह निरुत्साह कर देता है”, उन्होने लिखा। सिर्फ काम ही तो नहीं, व्यवसायियों से मिलना जुलना पड़ता था, उनके आमोद-प्रमोद में शामिल होना पड़ता था। उसमें बस एक शिकार ही था जिसे एंगेल्स पसन्द करते थे और मार्क्स त्रस्त होते थे कि कहीं कोई दुर्घटना न हो। और वही हुआ भी एक दिन – एंगेल्स बुरी तरह गिर गये और गंभीर चोट आई।

बस पहले की ही तरह, व्यवसाय-जगत का सारा झूठ-झमेला खत्म कर जब देर शाम को वह शहर के किनारे अपने असली घर में लौटते थे, उन्हे शांति मिलती थी। मेरी अब नहीं रहीं। मेरी के जाने के बाद उनकी बहन लिडिया या लिज़्ज़ी एंगेल्स की पत्नी बनी थी। वह भी मेरी की ही तरह प्रखर आइरिश क्रांतिकारी थी। वहीं, लिज़्ज़ी के साथ एंगेल्स अपने सभी मित्रों का स्वागत करते थे। विल्हेल्म वुल्फ का निधन हो चुका था। अब आते थे सैमुयेल मूर, गुम्पर्ट, शोर्लेमर, ड्रोंके एवं कुछ अन्य जर्मन आप्रवासी। यहीं सन 1867 में वह पॉल लाफार्ग से मिले। लाफार्ग ने बाद में अपने संस्मरण में लिखा कि एक दिन जब वह मार्क्स के घर पर गये (लाफार्ग का तब तक मार्क्स की बेटी लॉरा से विवाह तय हो चुका था) तो मार्क्स ने कहा, “अब, चुँकि तुम मेरी बेटी का होने वाला वर हो, मुझे तुमको एंगेल्स से मिलाना ही होगा … और हम मैंचेस्टर के लिये रवाना हो गये।”

मैंचेस्टर रहते हुए एंगेल्स के लिए अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति के साधारण परिषद के कार्यों में प्रत्यक्षत: मार्क्स का हाथ बँटाना तो सम्भव नहीं था लेकिन चिट्ठियों के माध्यम से वह मार्क्स की सहायता करते थे एवं वैचारिक संघर्षों में हिस्सा लेते थे। एंगेल्स की पूर्वोक्त जीवनी में जिक्र है कि किस तरह एंगेल्स मैंचेस्टर से ही अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति के नेताओं के साथ पत्राचार करते थे, विभिन्न मुद्दों पर उन्हे साधारण परिषद की समझ के बारे में बताते थे। मैंचेस्टर में अपने जर्मन व अंग्रेज मित्र, श्रमिक नेता व लेखकों के माध्यम से विभिन्न श्रमिक संगठनों एवं शिक्षा समितियों आदि के लिये अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति की सदस्यता का कार्ड बाँटते थे, हड़ताली श्रमिकों के लिए चन्दा इकट्ठा करते थे (ह्ड़ताल में मदद करना, अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति का एक प्रमुख काम था) तथा अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति के मुद्रणालय को खुद आर्थिक मदद करते थे।

लेकिन अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति की आवाज जर्मनी के श्रमिकों तक कैसे पहुँचे? सन 1863 में जर्मनी में श्रमिकों का दो बड़ा शीर्ष संगठन बना था। एक तो था लीग ऑफ जर्मन वर्कर्स सोसाइटीज, जो पूंजीवादी उदारपंथियों एवं जनतंत्रवादियों के साथ था – पुरानी सभी शिक्षा समितियों का केन्द्र था यह संगठन। दूसरा था जेनरल ऐसोसियेशन ऑफ जर्मन वर्कर्स जिसका नेतृत्व लासालपंथियों के हाथों में था। ऊपर से प्रशियाई कानून के अनुसार श्रमिक समितियाँ किसी विदेशी संगठन से सम्बद्धता नहीं रख सकती थी। इसलिए जब लासालपंथी नेताओं में से एक, योहान बैप्टिस्ट वॉन श्वेइट्ज़र ने मार्क्स को प्रस्ताव दिया कि 15 दिसम्बर 1864 से शुरू होने वाला उनके अखबार सोश्यल-डेमोक्रैट में वे लिखें, तो मार्क्स ने एंगेल्स से बात की और दोनो राजी हो गये। यह और भी अच्छी बात थी कि विल्हेल्म लिब्नेख्ट उस अखबार में सह-सम्पदक थे। एंगेल्स ने लिखा, “बहुत अच्छी बात है कि हमे एक माध्यम मिला … लिब्नेख्ट सह-सम्पादक हैं, यह बेशक कुछ गारंटी है”। हालाँकि आलोचना भी की – “ ‘सामाजिक-जनवादी’! ये कैसा नाम हुआ? ‘सर्वहारा’ रखते!” क्योंकि, विचारधारा से सम्बन्धित नाम व्यापक एकता बनाने में बाधा उत्पन्न करता है। एंगेल्स चाहते थे कि अखबार सीधा, पूरे वर्ग को सम्बोधित करे, ताकि उन्हे एकजुट कर सके।

खैर, उक्त अखबार के शुरुआती अंकों में तो अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति का उद्घाटन-भाषण छपा जिसे मार्क्स ने ‘सम्बोधन’ के रूप में लिखा था। फिर प्रुधों पर एक लेख छपा जो परोक्ष तौर पर लासालवाद की ही आलोचना थी। एंगेल्स का पहला आलेख डेनमार्क के सामंती प्रभुओं के खिलाफ किसानों के संघर्ष पर एक लोकगीत का अनुवाद था - हेर टिडमान; डेनमार्क का एक पुराना लोकगीत । अनुवाद के साथ टिप्पणी में उन्होने लिखा, “गीत दर्शाता है कि किस तरह … किसानों ने अभिजातों के अहंकार को खत्म किया। जर्मनी जैसे एक देश में जहाँ सम्पत्तिवान वर्ग में उतने ही अभिजात हैं जितने पूंजीवादी, और सर्वहारा में, अगर ज्यादा नहीं, तो उतने ही कृषिश्रमिक हैं जितने औद्योगिक श्रमिक, जोश से भरा हुआ यह पुराना किसान गीत बिल्कुल सही बैठेगा।”

दूसरे आलेख के लिये एंगेल्स मन बना ही रहे थे तब तक दोनों ने सोश्यल-डेमोक्रैट से सम्बन्ध तोड़ लिया क्योंकि अखबार के चालढाल से स्पष्ट हो रहा था कि पूंजीवादी खेमे की आलोचना के बहाने अभिजात वर्ग, प्रशियाई राजतंत्र और खासकर बिसमार्क की नीतियों का समर्थन कर रहा है। अत: एंगेल्स का यह महत्वपूर्ण दीर्घ आलेख एक पुस्तिका के रूप में छपा। नाम था “प्रशियाई सैन्य प्रश्न और जर्मन श्रमिक दल ”। सैन्य-सुधार या सैन्य-प्रश्न एक ऐसा मुद्दा है जिस पर सामान्यत: यही प्रतीत कराया जाता है कि श्रमिक वर्ग को तभी बोलना चाहिये जब उस पर करों का बोझ डाला जाय। जबकि यह राज्यसत्ता के शक्ति-सन्तुलन का अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा है (आगे चल कर यह दिखा भी; बिसमार्कीय सैन्य-सुधार के बाद जब प्रशियाई सेना ऑस्ट्रिया को पराजित कर दिया, संसद में पूंजीवादी विपक्ष ने घुटने टेक दिए)। बहुत ही सरल भाषा में लिखित इस पुस्तिका के पहले भाग में प्रशियाई सरकार द्वारा किये जा रहे सैन्य-सुधारों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, आँकड़ों के साथ रखा गया है। दूसरे भाग में इन सैन्य-सुधारों के सन्दर्भ में विपक्ष यानि पूंजीवादियों की अवसरवादिता, कमजोरियाँ आदि दिखाई गई है। तीसरा भाग शुरू ही होता है इस सवाल के साथ कि इसमें श्रमिक वर्ग का क्या काम है? (यह ध्यान रखना होगा कि तब जर्मनी में सार्वजनीन वयस्क मताधिकार लागू नहीं हुआ था)। सबसे पहले एंगेल्स सुझाव देते हैं कि सार्वजनीन अनिवार्य सैन्य-सेवा, जो सैन्य-सुधार का हिस्सा है, अगर लागू हो तो पूरी तरह, बिना किसी अपवाद के लागू हो, इसके लिए श्रमिक वर्ग को आवाज उठानी चाहिये, क्योंकि हथियारबन्द मतदाता, अपने मतों की बहतर रक्षा करने में सक्षम होता है। लेकिन यह तो तात्कालिक बात है। गहरी बात यह है कि श्रमिक वर्ग की राजनीति क्या हो? जर्मनी जैसे देश में जहाँ पूंजीवादी उभार के बावजूद सामन्तवाद अभी भी ताकतवर एवं सत्तासीन है, और सर्वहारा के एक सामाजिक ताकत के रूप में उभरने के बाद से दोनों ही, यानि पूंजीवादी ताकतें और सामंतवादी ताकतें सर्वहारा को अपने खेमे में पाने की कोशिश करते रहते हैं – बल्कि एक टुटपूंजिया वर्ग भी है जो सामाजिक आन्दोलनों में काफी सक्रिय है – श्रमिक वर्ग की अपनी राजनीति क्या होनी चाहिए? इसी राजनीतिक परिदृश्य में उभरनेवाली एक नई प्रवृत्ति, बोनापार्टवाद का भी वर्गीय विश्लेषण करते हैं कि किस तरह एक तानाशाही सरकार श्रमिकों के एक खेमें को अपने साथ मिलाने के लिये पूंजीवादी शोषण को तो उजागर करता है लेकिन घृणित अभिजातवर्ग के भ्रष्टाचार को ओझल करने का प्रयास करता है। इन तमाम वर्गीय गतिविधियों के बीच श्रमिक वर्ग किन राजनीतिक कदमों को तय करते हुए, कभी किसी वर्ग से हाथ मिला कर भी अपनी स्वतंत्रता बनाए रखते हुए किस तरह अपने उद्देश्यों की पूर्ति की ओर आगे बढ़ेगा, इसी का विश्लेषण एंगेल्स तीसरे भाग में करते है। इस पुस्तिका का काफी प्रचार हुआ था, इसके अलग अलग हिस्से कई जगह छापे गए थे।

उपरोक्त पु्स्तिका 1865 में लिखी गई थी। उसके बाद 1866 में एंगेल्स के दो महत्वपूर्ण लेख मिलते हैं। एक तो पोलैंड के सवाल से श्रमिक वर्गों का क्या लेना देना है । पोलैंड की स्वतंत्रता, स्वतंत्र राष्ट्र-राज्यसत्ता बनने का सवाल, पोलैंड के बगावत का कुचला जाना …. सब कुछ मिल कर इसे एक जिंदा घाव बना दिया था। अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति की स्थापना की बुनियाद जिस बैठक में रची गई थी वह बैठक भी पोलैंड के समर्थन में बुलाई गई थी। पोलैंड के सवाल पर एंगेल्स के आलेख में सबसे महत्वपूर्ण आलोचना थी प्रुधोंवाद की। अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति में खास कर फ्रांस एवं कुछ अन्य देशों के प्रुधोंवादी सदस्य राष्ट्रीय स्वतंत्रता के बारे में जो बातें रख रहे थे वह फ्रांस के शासकीय बोनापार्टवाद का ही प्रतिफलन था। वे हर एक विकसित स्वतंत्र योरोपीय राष्ट्र-राज्यसत्ता के भीतर बसे नस्लीय तौर पर भिन्न निवासियों के लिए राष्ट्रीय स्वतंत्रता की बात करते थे जो लुई नेपोलियन की योजनाओं को मदद करता था – कि हर एक विकसित स्वतंत्र योरोपीय राष्ट्र-राज्यसत्ता अपने देशों में राष्ट्रीय आन्दोलनों से निबटने लगे और इस मौके का फायदा उठा कर उन देशों पर हमला करे फ्रांस। यह पोलैंड की राष्ट्रीयता - जो कई देशों में बँटी थी - को एक होकर स्वतंत्र राष्ट्र-राज्यसत्ता बनने के सवाल को ओझल कर देता था। और इस विभाजित देश को लूटने में प्रशियाई, ऑस्ट्रियाई, रूसी राजशाही तो लगी हुई थी ही, खुद पोलैंड का अभिजातवर्ग भी उन राजशाहियों का तलवा चाट रहा था। एंगेल्स के आलेख ने अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति की बैठकों में न सिर्फ मार्क्स की मदद की, बल्कि आने वाले दिनों के लिए, सर्वहारा वर्ग की अन्तरराष्ट्रीय नीति को भी स्पष्ट किया।     

दूसरा लेख है जर्मनी में युद्ध पर टिप्पणी । प्रशियाई और ऑस्ट्रियाई राज्यसत्ता के बीच चल रहे युद्ध का विश्लेषण करते हुए उनका ध्येय था जर्मन सर्वहारा को जर्मनी के एकीकरण के प्रश्न पर उज्जीवित करना एवं पूंजीवादी जनवादी व टुटपूंजिया कमजोरी से बचाए रखना

इधर मार्क्स का महान आर्थिक शोध पूरा होने को था। सन 1865 की शुरूआत में मार्क्स बहुत तकलीफ में थे। शरीर तो कमजोर हो ही चुका था, पहले से ही पूरे शरीर में जहाँ तहाँ नासूर (कार्बांक्ल) हो जाने की बीमारी थी उन्हे। उस साल के शुरू होते होते तकलीफ बहुत बढ़ गई। एंगेल्स को उन्होने पूरी स्थिति बताई भी नहीं थी कि वह न बैठ पा रहे हैं न सो पा रहे हैं। एंगेल्स किसी दूसरे माध्यम से जाने। जानने के बाद कस कर डाँट लगाई कि कार्बांक्ल कभी कभी प्राणघाती हो जाता है; “तब क्या होगा तुम्हारे उस ग्रंथ का” यानि पूंजी जो मार्क्स पिछले लगभग पन्द्रह वर्षों से लिख रहे थे, “और क्या होगा तुम्हारे परिवार का?” डाँटते हुए उन्होने मार्क्स को दूसरे शहर के स्वस्थ आबोहवा में आराम करने को भेजा। कुछेक महीनों में थोड़ा आराम मिलते ही मार्क्स फिर लन्दन लौट कर बैठ गये पूंजी को पूरी करने के लिए।

मार्क्स के दिमाग में था कि मार्च 1867 की शुरुआत तक पूंजी का पहला खण्ड पूरा हो जाएगा। 25 फरवरी के बाद मार्क्स और एंगेल्स दोनों ने एक दूसरे को चिट्ठी लिखना भी बन्द कर दिया। 13 मार्च को एंगेल्स ने चिट्ठी लिखते हुए कहा कि किताब के पूरी होने की तय तारीख के बाद ही वह चिट्ठी लिखेंगे, ऐसा वह सोच रखे थे। मार्क्स ने तब भी कोई जबाब नहीं दिया क्योंकि फिर शरीर में नासूर हो जाने के बावजूद वो किताब पूरी करने के लिए खामोशी से जूझ रहे थे। अन्तत: 2 अप्रैल 1867 को मार्क्स ने लिखा, “मैंने तय कर लिया था कि तब तक तुम्हे चिट्ठी नहीं लिखूंगा जब तक मैं किताब के पूरी होने की घोषणा न कर पाऊँ, जो अब मैं कर रहा हूँ।“

“हुर्रा !…”, लिख कर 4 अप्रैल को एंगेल्स ने चिट्ठी शुरू किया।

मैंचेस्टर में जीवन के आखरी कुछ वर्ष

इधर मार्क्स ने पूंजी का पहला खण्ड पूरा किया, उधर जर्मनी से अच्छी खबर आई। जर्मन श्रमिक वर्ग के सबसे अच्छे नेताओं में से दो, विल्हेल्म लिब्नेख्त एवं अगस्त बेबेल, उत्तरी जर्मन संसद में चुने गये। पहली बार, प्रतिक्रियावादी जमींदार-पूंजीवादी संसद में संगठित श्रमिक वर्ग के प्रतिनिधि चुने गये।

1974 की रूसी जीवनी, एंगेल्स द्वारा लॉरा मार्क्स (मार्क्स की बेटी) को लिखी गई चिट्ठी से उद्धृत करता है, “सैक्सनी के श्नीबर्ग से तुम्हारा दोस्त ‘लाइब्रेरी’ [मार्क्स के परिवार में लिब्नेख्त का मुँहबोला नाम] काउन्ट ज़ुर लिप्प को हरा कर महान उत्तरी-जर्मन राइखस्टैग में चुना गया है, और शायद जल्द ही वह अपना पहला भाषण देगा।” भाषण देने के बाद एंगेल्स ने मार्क्स के दोस्त कुगेलमान को लिखा, “बर्लिन के गाय-भैंसों के बथान में लिब्नेख्त खूब बढ़िया काम कर रहा है।” मतलब यह कि एंगेल्स खुश थे कि जर्मनी में हालात बदल रहे हैं। लिब्नेख्त को उन्होने हिदायत दी, “बिस्मार्क के दुश्मनों पर भी उतना ही तेज हमला बोलो जितना बिस्मार्क पर, क्योंकि वे भी बेकार हैं।” लिब्नेख्त और बेबेल के हर एक संसदीय भाषण को वह ध्यान से पढ़ते थे और उनकी गलतियों को सुधारते रहते थे। प्रतिक्रियावादी प्रशियाई सरकार की नीतियों की लगातार आलोचना, पूंजीवादी जनवादियों की कमजोरी और समझौता परस्ती पर प्रहार तथा सर्वहारा पार्टी की लाइन को आगे बढ़ाना, सब एक साथ चलेगा। वस्तुत:, एंगेल्स के लगातार हस्तक्षेप के माध्यम से संसद में सर्वहारा पार्टी की कार्यनीति की बुनियाद रची गई।

पिछले अध्याय में बताया गया था कि उस समय जर्मनी में श्रमिकों का दो बड़ा शीर्ष संगठन था। एक था लीग ऑफ जर्मन वर्कर्स सोसाइटीज, जो पूंजीवादी उदारपंथियों एवं जनतंत्रवादियों के साथ था, और दूसरा था जेनरल ऐसोसियेशन ऑफ जर्मन वर्कर्स जिसका नेतृत्व लासालपंथियों के हाथों में था। मार्क्स की पूंजी का प्रकाशन, लिब्नेख्त और बेबेल का चुना जाना तथा मैंचेस्टर से एंगेल्स का लगातार हस्तक्षेप, इसका प्रभाव यह पड़ा कि 5 सितम्बर 1868 को नुरेम्बर्ग में हुए कांग्रेस में लीग ऑफ जर्मन वर्कर्स सोसाइटीज के बहुसंख्यक सदस्यों ने उदारपंथी पूंजीवादियों से रिश्ता तोड़ लिया। न्युरेम्बर्ग मे पारित कार्यक्रम अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति की लाइन पर था। उधर दूसरे संगठन पर भी पड़ने लगे थे। लासालपंथी कमजोर पड़ने लगे; हम्बुर्ग में जेनरल ऐसोसियेशन ऑफ जर्मन वर्कर्स का एक सामान्य कॉन्वेंशन में मार्क्स के ग्रंथ पर एक प्रतिवेदन सुना गया। इसी बीच जेनरल ऐसोसियेशन पर पुलिस ने पाबन्दी लगा दी। सितम्बर 1868 में एंगेल्स का एक आलेख लाइपजिग के एक श्रमिक अखबार में छपा जिसमें उन्होने लासालवाद की आलोचना की और सुझाव दिया कि पुराने ढर्रे पर संगठन को फिर से खड़ा करने की कोशिश से बेहतर होगा कि ऐसोसियेशन के सदस्य एकताबद्ध सर्वहारा पार्टी बनाने में मदद करें। इन सुझावों एवं उभरती परिस्थितियों के प्रभाव-वश ऐसोसियेशन से भी एक क्रांतिकारी तबका निकल गया। 7-9 अगस्त 1869 को आइसेनाख में एक महाधिवेशन हुआ जिसमें जेनरल ऐसोसियेशन ऑफ जर्मन वर्कर्स का क्रांतिकारी तबका, लीग ऑफ जर्मन वर्कर्स सोसाइटीज एवं अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति का जर्मन भाग तथा कुछ ट्रेड युनियनों ने एक साथ बैठ कर निर्णय लिया कि सामाजिक-जनवादी श्रमिक पार्टी की स्थापना की जाय। इस तरह, वैज्ञानिक साम्यवाद के विचारों के साथ जर्मन श्रमिकों की पहली जन-पार्टी की स्थापना हुई। इस पार्टी का अखबार हुआ वोकस्टाट, जिसमें प्रकाशित होते आलेखों के माध्यम से एंगेल्स पार्टी का मार्गदर्शन करते रहे।

अप्रैल 1867 में मार्क्स ने पूंजी पहला खण्ड पूरा किया। ग्रंथ के लेखन के समय तो शुरु से ही मार्क्स एंगेल्स के साथ बातचीत करते हुए आगे बढ़ रहे थे। छपने के लिये हम्बुर्ग के मुद्रणालय में पाण्डुलिपि भेजे जाने के बाद जो प्रुफ मिलते थे, वे भी मार्क्स एंगेल्स के पास भेज देते थे। एंगेल्स के कहने पर कई सारे सुधार हुए ग्रंथ में। ग्रंथ छपते छपते सितम्बर का अन्त आ गया। अब एंगेल्स के लिए एक नया युद्ध-काल आया। अक्तूबर 1867 से जुलाई 1868 तक एंगेल्स विभिन्न पत्रिकाओं एवं अखबारों के लिए पूंजी की समीक्षायें लिखते रहे। 12 अक्तूबर को उन्होने डाय ज़ुकुंफ्ट और राइनिशे ज़ाइटुंग के लिये समीक्षा लिखे। 22 अक्तूबर को एल्बरफेल्डर ज़ाइटुंग के लिए। 3 से 8 नवम्बर के बीच डुसेलडॉर्फर ज़ाइटुंग के लिए। 12-13 दिसम्बर को डेर बेओबाख्टेर के लिए। उसी दिन एक और पत्रिका स्टाट्स-ऐन्ज़ेइगर फ़ुर वुर्टेमबर्ग के लिए भी समीक्षा तैयार किया। सन 1868 की जनवरी की शुरुआत में लिखा नुए बैडिश लैन्डेस्ज़ाइटुंग के लिये लिखा। डेमोक्राटिशेस वोशेनब्लाट के लिए लिखा मार्च के पहले पखवाड़े में। मई-जून 1868 में लम्बी एक समीक्षा उन्होने तैयार किया द फोर्टनाइटली रिव्यु के लिये। इसका अंग्रेजी में अनुवाद सैमुएल मूर ने किया, जिन्होने बाद में पूंजी का भी पहला अनुवाद किया था। उन्ही के नाम से इसे छपना भी था, लेकिन पत्रिका के सम्पादक हिम्मत नहीं जुटा पाए। फल भोगना पड़ा दुनिया को। 1868 की गर्मियों में ही एंगेल्स ने सिनॉपसिस ऑफ वॉल्युम वन ऑफ कैपिटल बाइ कार्ल मार्क्स शुरु किया था। इस लम्बे आलेख को वह द फोर्टनाइटली रिव्यु के लिए ही तैयार कर रहे थे। लेकिन जब खबर मिली कि समीक्षा नहीं छपी तब उन्होने इस आलेख को दो तिहाई लिखा छोड़ दिया। नहीं तो दुनिया के पाठकों को यह अनुपम पुस्तिका पूरी पढ़ने को मिलती।

इन्ही आलेखों के बीच जुलाई 1868 में उन्होने मार्क्स की एक जीवनी भी लिखी। यह मार्क्स की पहली जीवनी थी। इसे लिखा जाना जरुरी था क्योंकि जर्मनी में फर्दिनान्द लासाल का काफी प्रभाव था और लासालपंथियों ने जब देखा कि श्रमिक संगठनों में मार्क्स-एंगेल्स के प्रभाव बढ़ रहे हैं तो उन्होने मार्क्स के ही विचारों को चुरा चुरा कर, विकृत कर प्रचारित करने लगे कि ये तो लासाल के ही विचार थे, कार्ल मार्क्स ने चुरा लिया है। एंगेल्स ने वह जीवनी डाय गार्टेनलॉब के लिए तैयार किया था। लेकिन उन्होने नहीं छापा। फिर अगले साल अगस्त में उसे दोबारा लिखा – डाय ज़ुकुंफ्ट अखबार ने उसे छापा।

धीरे धीरे, वाणिज्यिक रोजमर्रे की मनहूसियत से एंगेल्स की मुक्ति का समय करीब आ रहा था। दफ्तर में काम करने के शर्त की अवधि 30 जून 1869 को पूरी होने वाली थी। कम्पनी में एंगेल्स के साझेदार गॉटफ्रीड एर्मेन जानते थे कि एंगेल्स इन वाणिज्यिक कामों के कारण अवसाद में रहते हैं। इसलिये उन्होने प्रस्ताव दिया कि एंगेल्स एक साल पहले ही अपने हिस्से की पूंजी उठा लें। साथ ही इतने वर्षों तक काम करने के एवज में सेवानिवृत्ति लाभ के भी कुछ प्रावधानों का प्रस्ताव दिया। एंगेल्स खुश तो हुए लेकिन उन्हे लगा कि कुछ और पैसों का बन्दोबस्त हो जाता तो मार्क्स और उनके परिवार को कुछ और मदद कर पाते। इसलिये उन्होने, एक साल पहले उनके हिस्से की पूंजी वापस किए जाने की क्षतिपूर्ति की मांग की। यानि, जो मुनाफा वह पूंजी कमाती उसकी क्षतिपूर्ति। खैर, लम्बे मोलभाव के बाद यह भी तय हो गया।

1 जुलाई 1869 को एंगेल्स ने मित्र को लिखा, “प्रिय मूर1, आज भद्र वाणिज्य2 समाप्त हो गया, और मैं एक मुक्त इंसान बन गया। सारे मुख्य बिन्दु मैंने कल रात प्रिय गॉटफ्रीड के साथ तय कर लिये थे; वह सभी बातों पर राजी हो गया। मेरे पहले मुक्त दिन को टुसी3 और मैंने, आज सुबह मैदानों में लम्बी दूरी तक पैदल चलकर मनाई।…”  

1॰ मार्क्स का मुँहबोला नाम; 2॰ नवयुग की अवधारणा की वाणिज्य आदमी की उग्रता को खत्म करता है और भद्र बनाता है; 3॰ मार्क्स की बेटी इलियानोर का मुँहबोला नाम (इलियानोर उन दिनों एंगेल्स के साथ थी)

हालाँकि मार्क्स को विशद में बताकर परेशान करना एंगेल्स ने नहीं चाहा, बल्कि गॉटफ्रीड एर्मेन का जिक्र ‘प्रिय गॉटफ्रीड’ कह कर किया, लेकिन उसी दिन, माँ को लिखी गई चिट्ठी से पता चलता है कि मोलभाव कितना अधिक दाँवपेंच वाला था, और वह साझेदार गॉटफ्रीड क्यों अन्तत: सभी बातों पर राजी हो गया। माँ को भी एंगेल्स ने अन्त में लिखा, “बस मेरी मुक्ति मुझे चाहिए थी। कल से मैं बिल्कुल एक नया आदमी हूँ और दस साल उम्र कम हो गई है मेरी। आज सुबह, उस मनहूस शहर में जाने के बजाय घंटों तक इस अद्भुत मौसम में मैदानों में पैदल चला; और मेरे आरामदायक कमरे में जहाँ खिड़की खोलने पर धुँआ स्याह धब्बे नहीं बनाते, खिड़की के चौखट पर फूल हैं और सामने पेड़, मेरी लिखने-पढ़ने की मेज रखी है जिस पर मैं अलग ढंग से काम कर सकता हूँ – उस गोदामघर में मेरे मनहूस कमरे से अलग …”

टुसी यानि इलियानोर या बाद की इलियानोर मार्क्स-एवलिंग ने बाद में याद किया, “मैं एंगेल्स के साथ थी जब वह अपने इस बँधुआ श्रम के अन्त तक पहुँचे और मैंने देखा कि इतने वर्षों तक उन्होने क्या कुछ झेला होगा। मैं कभी भूलुंगी नहीं कि सुबह दफ्तर के लिए निकलते वक्त अपने जूते पहनते हुए कैसी विजय की सी आवाज में उन्होने घोषणा किया: ‘आखरी बार के लिए’ …

“कुछ घन्टे बाद हम गेट पर उन्हे लेने के लिए खड़े थे। जिस घर में वह रहते थे उसके विपरीत छोटा सा एक मैदान था। हमने उनको उस मैदान को पार कर आते हुए देखा। अपनी छड़ी वह हवा में घुमा रहे थे और गा रहे थे, चेहरा खिला हुआ था। तब हम इस घड़ी को मनाने के लिये मेज लगाए, शैम्पेन पिए और खुश थे हम।”

10 जुलाई को कुगेलमान को लिखी गई चिट्ठी में एंगेल्स ने कहा, “मुझे आपको बताने की जरूरत नहीं है कि उस अभिशप्त वाणिज्य से छुटकारा मिलने पर, अपने लिये काम करने में सक्षम होने पर मैं कितना खुश हूँ। खास कर इसलिए भी कि यह अभी सम्भव हुआ, जब योरोप की घटनायें बढ़ती हुई गति से संकटजनक मोड़ की ओर जा रही हैं, और किसी दिन अचानक, हो सकता है कि बिजली गरज उठे।”

एंगेल्स भी नहीं जान रहे थे कि दो वर्षों के अन्दर श्रमिक वर्ग की पहली राज्यसत्ता, पैरिस कम्यून कायम होने वाली थी।

मैंचेस्टर छूटने में अभी थोड़ी देर थी। कागजों पर हस्ताक्षर होना, पैसों का मिलना …। लेकिन लिखने पढ़ने के लिए अब अटूट समय था दिन भर का। इसलिए एंगेल्स ने एक नये बड़े काम में हाथ लगाया।

पिछले दो वर्षों से आयरलैंड का सवाल अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति के साधारण परिषद में उठ रहा था। वैसे तो एंगेल्स की वर्तमान पत्नी भी उतनी ही तीव्र समर्थक थी आइरिश राष्ट्रीयता आन्दोलन का जितनी उसकी दीदी मेरी थी। लेकिन ताजी घटना यह थी कि सन 1867 में आयरलैंड में एक बगावत हुआ। बगावत का असर लन्दन और मैंचेस्टर तक फैल गया। बगावत करनेवाले आइरिश प्रजातंत्री बिरादरी खुद को फेइनियन [आइरिश भाषा में ‘लोग’] बिरादरी कहते थे। बगावत असंगठित था, कमजोर था इसलिये बुरी तरह पराजित हो गया। लेकिन उसकी जो भावनात्मक गूंज उठी वह बीसवीं सदी तक पहुँची। आज भी आयरलैंड की बड़ी प्रजातंत्री पार्टी का नाम है सिन फेइन , यानि ‘हमलोग’। खैर, अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति में आयरलैंड के इस बगावत पर चर्चे हुए। आइरिश कैदियों को छुड़ाने की नाकाम कोशिश में मैंचेस्टर में शहीद हुए बागियों को पूरी दुनिया में श्रमिक श्रद्धा की नज़र से देख रहे थे। मार्क्स ने साधारण परिषद में आइरिश राष्ट्रीयता आन्दोलन के समर्थन में आइरिश स्वतंत्रता यानि ब्रिटिश राज से आयरलैंड के अलगाव की मांग का प्रस्ताव पेश किया। राष्ट्रीयताओं के प्रश्न पर पोलैंड के बाद यह दूसरा बड़ा मुद्दा था और श्रमिक वर्ग के संग्राम के साथ राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन के जुड़ाव के सिद्धांत का पहला सुत्रीकरण था। इंग्लैंड के श्रमिक वर्ग में आइरिश बागी कैदियों के सवाल पर विभाजन था। मार्क्स ने एंगेल्स से मदद मांगी। एंगेल्स ने बड़े काम की योजना बनाई कि प्राचीन काल से आइरिश जनता के इतिहास की खोज करेंगे। इसके लिए एक बार फिर आयरलैंड जाना जरुरी था।

6 सितम्बर 1869 को एंगेल्स, उनकी पत्नी लिडिया (लिज्जी) बर्न्स एवं मार्क्स की छोटी बेटी इलियानोर (टुसी) आयरलैंड के लिये रवाना हुए। दस दिन घूम कर 16 तारीख को वापस आ गये। उसके बाद उन्होने आयरलैंड के इतिहास पर काम शुरु किया। पूरे इतिहास का अध्याय दर अध्याय नोट लिख कर योजना बनाई। शुरु के कुछेक हिस्से लिखे भी। जो तैयारी उन्होने की थी, आयरलैंड के इतिहास लिखने के लिए, उसका संक्षिप्त वर्णन मार्क्स-एंगेल्स रचनासमग्र के सम्पादकमंडल ने सम्बन्धित टिप्पणी में किया है:

आयरलैंड का इतिहास कई खण्डों में लिखे जाने वाले एक ग्रंथ का टुकड़ा है। एंगेल्स इसे लिखने को सोचे थे और सन 1869 के अन्त से सन 1870 मध्य तक इस पर काम किया था। एंगेल्स ने विपुल संख्या में चुने हुए साहित्यिक एवं ऐतिहासिक स्रोतों को पढ़ा – प्राचीन और मध्ययुगीन लेखकों द्वारा लिखे गये पुस्तकें, वार्षिकियाँ, प्राचीन कानूनी संहितायें, कानूनी विधान एवं विश्लेषण, लोकगाथाएं, यात्रियों के संस्मरण, पुरातत्व, इतिहास, अर्थशास्त्र, भुगोल, भुगर्भशास्त्र आदि पर असंख्य काम। एंगेल्स द्वारा लिखे गए सन्दर्भ ग्रंथों की सूची1 में उनमें से बस कुछ चुने गए नाम हैं जिनकी संख्या 150 से अधिक है।

“लगता है कि एंगेल्स तैयारी का काम पूरा नहीं कर पाए थे। फिर भी, जो सामग्री वह संग्रह किए थे, पृष्ठ संख्या दिए गए 15 नोटबुक में वे हैं – पुस्तकों से उद्धृतियाँ, साहित्य की सूची, अलग कागज के पन्नों पर नोट, अखबार की कतरनें, - और उनसे पता चलता है कि आइरिश इतिहास पर उनके शोध का दायरा कितना बड़ा था और कुछ पहलुओं को वह कितनी गहराई से समझते थे।

“आइरिश सुत्रों में जा कर शोध करने के लिए उन्होने गैलिक2 भाषा भी सीखी थी। …”

1॰ बिब्लिओग्राफी; 2॰ आयरलैंड-स्कॉटलैंड की एक पुरानी भाषा

लेकिन अन्तत: यह काम पूरा नहीं हो पाया। जुलाई 1870 को फ्रांस और प्रशिया में युद्ध शुरु हो गया। अगले साल पैरिस में बनी श्रमिकों की पहली सरकार, पैरिस कम्यून। खुद उन्होने मैंचेस्टर का जीवन समेट कर लन्दन में जीवन शुरु किया सितम्बर 1870 से। साथ ही, रोज का दफ्तरी जीवन छूटने से अब वह पूरी तरह अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति के काम से जुड़ गये। बल्कि लन्दन पहुँचते ही वह साधारण परिषद में शामिल कर लिए गए।

आयरलैंड के इतिहास पर वह अपना काम पूरा नहीं कर पाये लेकिन आयरलैंड का गहरा प्रभाव उन पर पड़ा। आइरिश जनता की तकलीफें, राष्ट्रीय मुक्ति के लिए उनके संघर्ष एवं ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा बार बार उन संघर्षों को खून में डुबो दिया जाना और इसमें आयरलैंड के भूस्वामियों एवं पूंजीवादियों की विश्वासघाती वर्गीय भूमिका … इस सब के साथ मिल गया उस धरती के प्रति प्यार जिसने उन्हे मेरी और लिज्जी नाम के दो श्रमिक महिलाओं का प्रेम दिया था। जीवनीकार गुस्ताभ मेयर एंगेल्स की रचना से आयरलैंड के मौसम के बारे में उनके शब्द उद्धृत करते हैं, “यहाँ का मौसम भी, यहाँ के निवासियों की तरह, विपरीतों से भरा है: आइरिश औरत के चेहरे की तरह है आसमान, बारिश और धूप एक दूसरे के बाद अचानक और अप्रत्याशित तरीके से आती रहती है, इंग्लैंड का वह एकरस भूरापन कहीं नहीं है।”  

सन 1870 के शुरुआत में ही एंगेल्स ने अपनी रचना जर्मनी में किसान युद्ध के दूसरे संस्करण के लिए एक भूमिका लिखी। विल्हेल्म लिब्नेख्त ने दिसम्बर 1869 में ही उनसे इजाजत मांगी थी कि उक्त आलेख को वह डेर वोकस्टाट में किश्तों में पुनर्मुद्रित कर फिर एक पुस्तिका के रूप में छापेंगे। उन्होने ही कहा था एक नई भूमिका लिख देने के लिए। यह भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण दस्तावेज बन गया। क्योंकि इस भूमिका में एंगेल्स ने ग्रामीण इलाकों में हो रहे वर्गीय विभेदीकरण की चर्चा करते हुए, किस वर्ग की क्या स्थिति है और क्रांति के मार्ग पर श्रमिक वर्ग का सबसे सच्चा साथी इनमें से कौन सा वर्ग होगा इसका विश्लेषण किया। बेशक यह जर्मनी के सन्दर्भ में किया गया था लेकिन इसका महत्व अन्तरराष्ट्रीय था। मजदूरों और किसानों की दोस्ती की अवधारणा का उन्होने बीज बोया।

इस बात को पहले दर्ज करते हुए कि श्रमिक वर्ग अकेले जनता का बहुमत नहीं है और इसलिये उसे साथी की जरूरत है, एंगेल्स ने पहले टुटपूंजियों की चर्चा की। पहले की ही तरह, उन्होने बताया कि वर्ग के रूप में यह बिल्कुल ही भरोसेमंद नहीं है; वैसे इनमें कई बहुत अच्छे तत्व मौजूद हैं जो खुद श्रमिकों के साथी बन जाते हैं। उसके बाद एंगेल्स लुम्पेनप्रोलेतारियेत या लम्पट-सर्वहारा का जिक्र करते हैं, जो सभी वर्गों से आये हुए भ्रष्ट तत्वों से बने हैं, बड़े शहरों में रहते हैं, निचले दर्जे के स्वार्थी, बेशर्म भीड़ हैं और किसी हालत में श्रमिकों के साथी नहीं बन सकते। जो श्रमिक नेता इनका समर्थन लेता है, वह श्रमिक आन्दोलन का गद्दार होता है।

तब वह आते हैं छोटे किसानों पर, यह कहते हुए कि बड़े किसान तो पूंजीवादी होते हैं, उनकी जात अलग होती है। चूंकि, पूंजीवादियों ने छोटे किसानों को धोखा दिया है, इन्हे भूदासप्रथा से मुक्ति नहीं दिलाई है, इसलिए इन्हे श्रमिक वर्ग के साथ आने के लिए समझाया जा सकता है।

छोटे किसान या तो काश्तकार होते हैं। लगान उन पर इतना ज्यादा कर दिया जाता है कि किसी तरह ये अपना घर चलाते हैं। फसल खराब होने पर भूखे मरने की नौबत आ जाती है। पूंजीवादी इनके लिए कुछ भी नहीं करते, अगर मजबूर न किए जाएं तो। ये नि:सन्देह श्रमिकों के द्वारा ही अपनी मुक्ति की अपेक्षा करेंगे।

अगर काश्तकार नहीं तो छोटे किसान अपनी जमीन के छोटे टुकड़ों पर खेती करते हैं। बंधकों का बोझ इतना अधिक होता है कि जितना काश्तकार को भूस्वामी पर निर्भर करना पड़ता है उतना ही इनको सूदखोर महाजनों पर। पूंजीवादियों से ये कुछ भी अपेक्षा नहीं कर सकते क्योंकि पूंजीपति सूदखोर ही इनका खून चूसता है। इन्हे सिर्फ श्रमिक वर्ग ही मुक्ति दिला सकता है।

फिर एंगेल्स आते हैं कृषि श्रमिक या खेत मजदूरों पर। मध्यम आकार के या बड़े जायदादों वाले इलाकों में ये ही बहुसंख्यक वर्ग हैं। एंगेल्स जोर डालते हैं कि ये श्रमिक वर्ग के सबसे अधिक स्वाभाविक मित्र हैं। बल्कि भूमिका को खत्म करते हैं इसी वाक्य से कि “जिस दिन खेत मजदूरों की जमात अपने हितों को समझना सीख लेंगे, एक प्रतिक्रियावादी – चाहे सामंती हो या अमलाशाही या पूंजीवादी – सरकार का जर्मनी में होना असम्भव हो जाएगा।”

1970 के प्रारम्भ से ही एंगेल्स ने लन्दन में घर ढूंढना शुरू कर दिया था। इसमें मदद कर रहे थे मार्क्स और मार्क्स से भी अधिक, उनकी पत्नी जेनी। बल्कि जेनी ने अपने घर को भी मरम्मत वगैरह करवा लिया। एंगेल्स को चिट्ठी लिख कर बता दिया कि एंगेल्स पहले आकर वहीं रह जाएँ। लेकिन जिस अभिजात के मकान में एंगेल्स को किराए पर रहना था वह थोड़ा झक्की था। वह अपने माध्यम से मैंचेस्टर में खोज-खबर करने लगा कि यह फ्रेडरिक एंगेल्स कैसा आदमी है! यह सब होते-हवाते अन्तत: सितम्बर 1970 में एंगेल्स, अपनी पत्नी लिज्जी के साथ मैंचेस्टर छोड़ कर लन्दन वाले घर में आ गये। अब उनका नया पता हुआ 122, रिजेन्ट पार्क रोड। यही अगले 24 वर्षों तक उनके घर का पता रहा।

वैसे, कई साल पहले, एक मित्र को भेजी गई चिट्ठी में उन्होने अपना मैंचेस्टर का और मार्क्स का लन्दन का पता लिखने के बाद मजाक में लिखा था, पता याद नहीं रहने पर डा॰ मार्क्स, लन्दन लिख कर भेजने से भी चिट्ठी पहुँच जाएगी। अब एंगेल्स का यह पता भी पूरी दुनिया के क्रांतिकारी सर्वहारा के नेताओं के लिये उतना ही अपना होने वाला था।

फ्रांसीसी-प्रुशीय युद्ध, कम्यून और अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति

मैंचेस्टर छोड़ने के तीन महीने पहले ही योरोप की स्थिति बदल गई थी। एंगेल्स द्वारा किए गए भविष्यानुमान के अनुरूप फ्रांस और प्रशिया (यानि जर्मनी) में 19 जुलाई 1870 को युद्ध शुरु हो गया था। सबसे बड़ा खतरा उभर कर आया था अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति के सामने। सरकारें और पूंजीवादियों की पूरी कोशिश थी युद्ध के समर्थन में और अपने अपने देश के समर्थन में दोनों देशों के श्रमिक वर्ग खड़े हो जाएं। इस तरह एक तरफ फ्रांसीसी मजदूरों की क्रांतिकारी परम्परा की, जिससे सभी देशों के श्रमिक प्रेरित होते थे, मटियामेट हो जाती, और दूसरी ओर, जिस जर्मनी के श्रमिक वर्ग को क्रांतिकारी सर्वहारा पार्टी के झंडेतले एकजुट करने के लिए मार्क्स और एंगेल्स इतने वर्षों से मेहनत कर रहे थे वह मेहनत भी, कमसे कम कुछ वर्षों के लिए बेकार चला जाता। दोनों ही देशों में प्रतिक्रियावाद के हाथ मजबूत होते।

यहाँ तक तो बातें अन्तरराष्ट्रीय के सभी नेताओं को मोटामोटी समझ में आ रही थी। युद्ध जब से संभावित दिखने लगा था, तब से अन्तरराष्ट्रीय से सम्बद्ध सभी देशों के श्रमिक संगठन युद्ध का विरोध कर रहे थे। युद्ध शुरु होने के बाद वह विरोध और जोरदार हो उठा।

लेकिन एक और बात भी थी। हमला फ्रांस ने किया था इसलिये प्रत्यक्षत: जर्मनी के लिये यह युद्ध आत्मरक्षा का युद्ध जरूर था लेकिन प्रशियाई राज (जिसके अधीन थे जर्मनी के बिखरे हुए राज्य) के साम्राज्यवादी मंसूबे कुछ कम नहीं थे। इसलिए प्रशियाई राज के साम्राज्यवादी तेवर से बचाते हुये, और पर्दाफाश करते हुए इस युद्ध में जर्मनी के आत्मरक्षा का पक्ष रखना था। साथ ही, यह भी सत्य था कि युद्ध में नेपोलियन III के नेतृत्वाधीन ‘द्वितीय साम्राज्य’ के नाम से जाने जाते फ्रांसीसी सरकार की जीत जर्मनी के एकीकरण के लिए भी और श्रमिक वर्ग की स्वतंत्र राजनीतिक गतिविधियों की दृष्टि से भी घातक होता। जबकि उसके हार से दोनों देशों के श्रमिक वर्ग को फायदा होता। फ्रांस में नेपोलियन III की राज ने आधुनिकीकरण के नाम पर श्रमिकों पर जो हमले किए थे, उनके अधिकारों पर जो दमन किए थे उनका अन्त संभव हो जाता। और जर्मनी के एकीकरण की लड़ाई और श्रमिक वर्ग की स्वतंत्र राजनीतिक गतिविधियों में तेजी आती।

अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति ने युद्ध शुरु होते ही मार्क्स को योरोप और अमरीका के श्रमिकों के नाम एक सम्बोधन लिखने को कहा था। मार्क्स ने तत्काल उसे लिखा और उन्हे भेजने के साथ साथ एंगेल्स को भी भेज दिया। साथ ही एंगेल्स को उन्होने युद्ध पर अखबार में लिखने को कहा। वस्तुत:, लन्दन से प्रकाशित होने वाले पॉल मॉल गेजेट नाम के अंग्रेजी अखबार में, भुगतान के एवज में युद्ध पर लिखने कों सोचा भी था। जुलाई 1870 से फरवरी 1871 तक, एंगेल्स उस अखबार में युद्ध पर टिप्पणियाँ शीर्षक से 59 लेख लिखे। हालाँकि, इन लेखों के साथ लेखक के नाम नहीं थे। मार्क्स-एंगेल्स रचनासमग्र की सम्बन्धित टिप्पणी दर्ज करता है कि इन लेखों में एंगेल्स ने फ्रांसीसी-प्रुशियाई युद्ध के घटनाक्रमों का विश्लेषण ऐतिहासिक भौतिकतावादी दृष्टिकोण से किया। इनके अलावे अन्य अखबारों में भी एंगेल्स ने युद्ध पर लिखे।

लेकिन युद्ध को लेकर एक तरफ जर्मन सोश्यल-डेमोक्रैटिक पार्टी, तो दूसरी ओर डेर वोकस्टाट के तत्कालीन सम्पादक विल्हेल्म लिब्नेख्ट की समझ में भी कमी नजर आ रही थी। मार्क्स ने इससे सम्बन्धित सारे अखबार, पर्चे आदि पुलिन्दा बना कर एंगेल्स को भेज दिया कि वह पढ़ कर अपने सुझाव दें। 15 अगस्त 1870 को एंगेल्स ने मार्क्स को लिखा:

मामला मुझे लगता है ऐसा है कि जर्मनी को अपने राष्ट्रीय अस्तित्व की रक्षा के लिए युद्ध में खींच लाया है बेदंग्वे।” [बेदंग्वे - नेपोलियन का व्यंगात्मक उपनाम] “अगर बेदंग्वे उसे हरा देता है तो बरसों के लिए – शायद, पीढ़ियों तक - बोनापार्टवाद मजबूत हो जाएगा और जर्मनी टूट जाएगा। वैसी स्थिति में जर्मन श्रमिक वर्ग के स्वतंत्र आन्दोलन का फिर कोई सवाल भी नहीं रहेगा; जर्मनी के राष्ट्रीय अस्तित्व को पुनर्स्थापित करने का संघर्ष बाकि सबकुछ सोख लेगा। अधिक से अधिक यही होगा कि जर्मन श्रमिक भी फ्रांसीसी श्रमिकों के साथ खींच लिये जायेंगे। अगर जर्मनी जीतता है, तो फ्रांसीसी बोनापार्टवाद तो ध्वस्त होगा ही, किसी भी हालत में। जर्मन एकता की स्थापना को लेकत अन्तहीन झगड़े अन्तत: खत्म होंगे, जर्मन श्रमिक – अभी तक जो मौजूद है उससे काफी भिन्न - राष्ट्रीय स्तर पर संगठित हो पायेंगे, और फ्रांसीसी श्रमिकों को – चाहे जैसी सरकार बने इसके बाद – बोनापार्टवाद के अधीन जितना था उससे निस्सन्देह अधिक मुक्त क्षेत्र हासिल होगा।

इसके बाद एंगेल्स, उनकी आलोचना करते हैं जिनमें से कुछ, जर्मनी के लिए इस युद्ध के आत्मरक्षात्मक होने के पहलू की उपेक्षा कर जाते हैं और कुछ, प्रशियाई साम्राज्यवाद के मंसूबों को देख नहीं पाते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो बोनापार्टवाद को सिर्फ एक सरकारी नीति के रूप में देखते हुए, उसके समर्थन में खड़े पूंजीवादी और टुटपूंजिया वर्ग की भूमिका को दरकिनार कर देते हैं। इसके बाद, एंगेल्स कहते हैं:

मैं समझता हूं कि हमारे लोगों को:

1) जब तक यह युद्ध जर्मनी की रक्षा तक सीमित है, राष्ट्रीय आन्दोलन में – तुम कुगेलमान की चिट्ठी में देख सकते हो यह कितना जोरदार है - योगदान करना चाहिए (विशेष परिस्थितियों यह कुछेक हमलों को भी शामिल करेगा, जब तक शांति नहीं हो);

2) साथ ही साथ, जर्मन राष्ट्रीय एवं राजवंशीय-प्रशियाई हितों में फर्क पर जोर डालना चाहिए;

3) अलसाशे और लोरैन को कब्जे में करने के किसी भी प्रयास का विरोध करना चाहिए – बिस्मार्क अभी उन दोनों इलाकों को बभारिआ और बैडेन के साथ जोड़ने का उद्देश्य की सूचना दे रहा है;

4) ज्यों ही गैर-अंधराष्ट्रीय प्रजातांत्रिक सरकार पैरिस में सत्तासीन हो, उसके साथ सम्मानजनक शांति के लिए काम करना चाहिए;

5) जर्मन और फ्रांसीसी श्रमिकों के हितों की एकता पर लगातार जोर डालना चाहिए, बताना चाहिए कि न तो उन्होने इस युद्ध को मंजूर किया है और न वे एक दूसरे के साथ युद्ध में हैं;

6) रूस, पर, जैसी अन्तरराष्ट्रीय के प्रति सम्बोधन में लिखी गई है।”

मार्क्स को लगा कि एंगेल्स के साथ बैठ कर बातें करनी जरूरी है। साथ ही, सामाजिक-जनवादी श्रमिक पार्टी की कमिटी, जो ब्रुन्स्विक कमिटी के नाम से जानी जाती थी, ने आग्रह किया था कि जर्मन श्रमिकों की कार्यनीतिक लाईन क्या हो इस पर एक विशद व्याख्या वे भेजें। इसलिये अगस्त 1870 के अन्तिम सप्ताह में मार्क्स मैंचेस्टर आ गए और पूरा सप्ताह एंगेल्स के साथ बिताए। वहीं बातचीत के बाद दोनों ने संयुक्त रूप से सामाजिक-जनवादी श्रमिक पार्टी की कमिटी के नाम पत्र जारी कर जर्मन सर्वहारा एवं सामाजिक-जनवादी श्रमिक पार्टी के लिए आवश्यक कार्यनीतिक लाइन की व्याख्या की।

उधर युद्ध में, कमजोर सम्राट नेपोलियन III और कुख्यात ‘द्वितीय साम्राज्य’ का पतन तो सितम्बर 1870 को ही हो गया। पूंजीवादी प्रजातंत्र - फ्रांसीसी इतिहास के अनुसार तीसरे प्रजातंत्र - का गठन हुआ। साथ ही, आगे चल कर युद्ध में फ्रांस का पराजय भी हुआ। बिस्मार्क के नेतृत्व में जर्मन सरकार, एक तरफ फ्रांस को पराजित कर और अलसाशे और लोरैन पर कब्जा जमा कर सैनिक शक्ति के रूप में योरोप पर जर्मनी का धाक जमाया । दूसरी तरफ, जर्मन राज्यों का एकीकरण किया लेकिन जर्मन साम्राज्य के रूप में; प्रशियाई सम्राट को सम्राट रखते हुए खुद बिस्मार्क इस नये-नामित साम्राज्य का प्रधानमंत्री बन गया। फ्रांस में ‘तृतीय प्रजातंत्र’ की स्थापना तो हुई, लेकिन पैरिस के श्रमिक उबल रहे थे। वे युद्ध के बीच में ही कुछ कर देना चाह रहे थे। हालाँकि, मार्क्स और एंगेल्स ऐसा कुछ करने से मना कर रहे थे। फिर भी, कुछ ही दिनों के अन्दर श्रमिकों ने बगावत की। राजधानी में पैरिस कम्यून की स्थापना की। चाहे उनकी हिदायत माने या न माने मार्क्स-एंगेल्स को तो इस कम्यून के पक्ष में खड़ा होना ही था। पहली बार श्रमिक वर्ग ने राज्यसत्ता अपने हाथों में लिया था। … लेकिन उसके पहले एंगेल्स के लन्दन आने के बाद के दिनों पर थोड़ा नजर डालें।

एंगेल्स का रिजेन्ट पार्क रोड का नया घर, पैदल चलने पर मार्क्स के घर से दस मिनट की दूरी पर था। 20 सितम्बर 1870 को अपने नये घर में आने के बाद दोनों मित्र अमूमन रोज मिलने लगे। रोज की बातचीत से दोनों के सृजनात्मक सोच का दायरा बढ़ता गया। पॉल लाफार्ग लिखते हैं, “हर दिन लगभग एक बजे वह” [एंगेल्स] “मार्क्स से मिलने आते थे, और जब मौसम अच्छा होता था और मार्क्स की भी तबीयत अच्छी रहती थी तो दोनों साथ पैदल चलने के लिए हैम्पस्टीड हीथ की ओर निकल पड़ते थे। अगर नहीं निकले तो मार्क्स के अध्ययनकक्ष में दोनों - कमरे के विपरीत कोनों से आड़े चलते हुए - घन्टे-दो घन्टे बात करते रहते थे।” मार्क्स के पूरे परिवार के लिए भी एंगेल्स उतने ही अपने थे। अब रोज के आने जाने से उन्हे भी खुशी मिलने लगी। खुशमिजाज और विनोदी स्वभाव के तो वह थे ही।

एंगेल्स की एक बड़ी अच्छी आदत थी अपने कागज-पत्तर, किताबें आदि को सलीके से रखने की। चिट्ठियों को तो वह और भी अधिक जतन से रखते थे। फाइलों में तारिखों के अनुसार रखने के अलावे उन पर टिप्पणियाँ होती थी कि कब वह चिट्ठी मिली, जबाब दिया गया कि नहीं, दिया गया तो कब दिया गया …। ये आदत आगे के दिनों में और भी काम आई जब दुनिया के क्रांतिकारियों से पत्राचार बढ़ने लगे।

एक और अच्छी आदत थी कि दिन भर की व्यस्तताओं के बावजूद, हमेशा वह कपड़े सलीके से पहने रहते थे। जबकि ऐसा नहीं कि रोज बदलते थे वह कपड़े। लाफार्ग लिखते हैं कि, किसी और आदमीं को वह नहीं जानते थे “जो इतने लम्बे समय तक एक ही कपड़े पहनते हुए भी न तो उनमें सलवटें पड़ने देते थे और न ही उन्हे मैले-कुचैले होने देते थे।” उनके जीवनीकार लिखते हैं कि उनकी जरूरतें भी कम थीं और वे मितव्ययी भी थे।

4 अक्तूबर 1870 को एंगेल्स, मार्क्स के द्वारा नामित किए जाने पर, सर्वसम्मति से अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति के साधारण परिषद के सदस्य चुने गए। पहले से ही इस संगठन के काम में मार्क्स को मदद करते ही आ रहे थे, अब सांगठनिक जिम्मेदारियाँ सीधे तौर पर बढ़ गईं। बल्कि एंगेल्स का भाषा-ज्ञान देखते हुए, उन्हे कुछेक देशों के लिए सचिव बना दिया गया एवं उन देशों में अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति से सम्बद्ध संगठनों के देखभाल का जिम्मा दिया गया।

18 जनवरी 1871 में पैरिस में श्रमिकों की बगावत शुरू हो गई। मार्क्स-एंगेल्स को यह खबर मिली अगले दिन, 19 जनवरी को। चार महीने पहले एंगेल्स ने मार्क्स को लिखा था, “अगर पैरिस में कुछ भी किया जा सकता है तो श्रमिकों को शांति स्थापित होने से पहले उड़ने से रोकना होगा …” [नहीं तो] “बेमतलब वे जर्मन सेना के द्वारा कुचल दिए जाएंगे और बीस साल पीछे धकेल दिये जायेंगे”। उसी समय दोनों ने एक विशेष सन्देशवाहक अगस्त सेरेलियर के माध्यम से फ्रांस मे अन्तरराष्ट्रीय के नेताओं को खबर भेजवाया था कि समय से पहले कोई कार्रवाई न करें, अनुकूल परिस्थिति का लाभ उठाते हुए अपनी पार्टी को संगठित करें। लेकिन, बगावत हो गई। कुछ ही हफ्तों के अन्दर पैरिस में श्रमिकों की क्रांतिकारी सरकार स्थापित हो गई। पूंजीवादी प्रजातांत्रिक ताकतों के मुखिया, अपनी सेना, कोतोवाल, अमीर-उमराह सहित पैरिस छोड़ कर भाग चले वर्साई शहर की ओर। अब, श्रमिकों के इस क्रांतिकारी सरकार के पक्ष में तो खड़ा होना ही था। बल्कि, अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति के सभी नेताओं को, सभी देशों के शाखाओं को एवं सम्बद्ध संगठनों को भी इसके पक्ष में करना था। जहाँ तक सम्भव हो कम्यून की मदद भी करनी थी।

एंगेल्स की उपरोक्त रूसी जीवनी में, अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति के साधारण परिषद के कार्यवृत्त से  जिक्र किया गया है कि 21 मार्च 1871 को एंगेल्स ने परिषद में भाषण देते हुए पैरिस में हुई क्रांति के बारे में कहा। उन्होने क्रांति को नेतृत्व देने वाले नैशनल गार्ड्स के सर्वहारा चरित्र को उजागर किया। उन्होने घटना की लोकप्रिय एवं गहन जनतांत्रिक प्रकृति पर भी जोर डाला। लेकिन साथ ही, एक कुशल सेना विशेषज्ञ होने के नाते वह देख पा रहे थे कि तमाम सदिच्छाओं, क्रांतिकारी सामाजिक सुधार कार्यक्रमों एवं पूरी दुनिया के सर्वहाराओं की उत्साहित समर्थन के बावजूद, कार्यनीतिक सैन्य कार्रवाईयों में वे पिछड़ रहे थे और भगा दिये गये पुंजीवादी प्रजातांत्रिक ताकतों की सेना वर्साई से वापस आ रही थी। एंगेल्स ने कुछ सुझाव भी भेजे, पर वे समय पर माने नहीं गये। 11 अप्रैल को एंगेल्स ने फिर परिषद की बैठक में अपनी आशंकाओं को रखा कि ‘वर्साई की ताकतें’ आगे बढ़ रही है और पैरिसियाई पीछे धकेले जा रहे हैं …। विशद रूप से उन्होने पैरिस कम्यून बनाम वर्साई की प्रतिक्रांतिकारी ताकतों की कार्यनीतिक स्थिति को विशद रूप से रखा। इस वक्तव्य के कुछ ही दिनों के बाद मार्क्स का वह ऐतिहासिक सम्बोधन “फ्रांस में गृहयुद्ध” साधारण परिषद के सामने आया। यह दस्तावेज, जो आज एक पुस्तक के रूप में उपलब्ध है, पैरिस कम्यून को समझने के लिए एक अमूल्य ग्रंथ है। उस समय इसके जर्मन, स्पेनी, इतालवी, फ्रांसीसी, डैनिश, डच एवं अन्य विभिन्न योरोपीय भाषाओं में अनुवाद, प्रकाशन एवं व्यापक प्रचार में एंगेल्स की महत्वपूर्ण भूमिका रही।

लेकिन, कमजोरियाँ अपनी जगह पर, सबसे अधिक जरूरी था कम्यून एवं कम्यून का निर्माण करने वाले साथियों (कम्युनार्डों) का, एवं साथ ही अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति का सक्रिय बचाव। क्योंकि, पैरिस कम्यून के बनते ही पूरी दुनिया की पूंजीवादी सरकारें एवं उनके संवाद-माध्यम पाशविक तरीके से विभिन्न देशों में, कम्यून के बारे में अफवाहें फैलाने में और अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति के संगठनों पर हमले करने में जुट गए थे। मई महीने के अन्तिम दिनों में पैरिस कम्यून को पूंजीवादी ताकतों ने अपनी सैन्यशक्ति से कुचल दिया। हजारों कम्युनार्ड्स दीवार के सामने खड़े कर मार दिए गये। हजारों की संख्या में जेल में डाल दिये गये या कालेपानी में भेज दिये गये। जो किसी तरह भाग निकल सके, दूसरे देशों में, उन्हे मारने के लिए ढूंढ़ा जाने लगा, रोजीरोटी जुटानी मुश्किल हो गई।

वस्तुत:, कम्यून को खून में डुबा दिया गया। पैरिस से भागे हुए जो शरणार्थी लन्दन पहुँचने लगे, एंगेल्स ने अन्तरराष्ट्रीय के साधारण परिषद की ओर से, पहले व्ययक्तिक तौर पर, फिर विशेष सहायता कमिटी के माध्यम से उनके लिये मदद जुटाना, उनके लिए काम ढूंढ़ना शुरू कर दिया।

कम्यून के गिराए जाने के बाद, अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति पर हमले तेज हो गये। फ्रांसीसी सरकार ने सभी योरोपीय सरकारों को सन्देश भेजा कि वे अन्तरराष्ट्रीय को खत्म कर दें। एंगेल्स ने लिखा, “सार्वजनिक तौर पर संदिग्ध व्यक्तियों के खोज की मुहिम शुरू हो गई है। पुरानी दुनिया की सभी ताकतें - सैन्य न्यायाधिकरण व नागरिक अदालतें, पुलिस व समाचार-माध्यम, खुदरे सैन्य-अभिजात व पूंजीवादी – इस ‘संदिग्ध-खोज’ की होड़ में एक दूसरे को पीछे छोड़ना चाह रही है। पूरे महादेश में एक जगह नहीं है जहाँ, उन्हे आतंकित करने वाले, श्रमिकों के इस महान भाइचारे को गैरकानूनी घोषित करने के लिये जो कुछ सम्भव है किया नहीं जा रहा है।”

सबसे तेज हमला था मार्क्स और एंगेल्स पर। यहाँ तक कि एंगेल्स की माँ भी कम्यून का समर्थन करने के कारण एंगेल्स और मार्क्स दोनों को बुरा-भला लिख डाली। संयमित रहते हुये भी कठोर शब्दों में एंगेल्स ने कम्यून के प्रति अपने समर्थन को दोहराया। उन्होने लिखा, “कुछेक बन्दियों को कम्युनार्डों ने प्रशियाई तरीके से मार दिया, कुछेक महल प्रशियाई मिसाल का अनुसरण करते हुए जला दिये (बाकि सब झूठ है) तो बहुत हल्ला मचाया जा रहा है। लेकिन कोई जिक्र नहीं करता है कि वर्साईवालों ने यांत्रिक तरीके से 40,000 पुरुषों, महिलाओं और बच्चों का कत्लेआम कर दिया, वह भी उन्हे निहत्था किए जाने के बाद ! …… झूठी बातें आपके गले में शब्दश: ठूंस दी गई हैं।” आगे उन्होने कहा, “आप जानती हैं कि पिछले लगभग तीस वर्षों से जो मेरी नजरिया है उसमें कोई बदलाव नहीं आया है। और यह आश्चर्य की बात नहीं हो सकती है कि मैं न सिर्फ उनका समर्थन कर रहा हूँ … बल्कि दूसरे तरीकों से भी अपना कार्यभार निभा रहा हूँ। अगर मैं नहीं करता, तब आप मेरे लिए शर्मिन्दा होतीं।”

एंगेल्स जिन देशों के लिए अन्तरराष्ट्रीय के सचिव थे उसमें से एक था स्पेन। स्पेन से उनके एक संवाददाता, फ्रांसिस्को मोरा ने 12 अगस्त 1871 को लिखा: “अपनी उम्र के बावजूद, अन्तरराष्ट्रीय के महान उद्देश्य के लिये आप जैसा उत्साह दिखाते हैं, वह मुझे भी उत्साह के साथ काम करने के लिए प्रेरित करता है। साथ ही, मुझे उम्मीद रखने के लिए प्रेरित करता है, कि मेरे सर के बाल भूरे होते रहने और बरसों के बोझ से मेरे झुके होने के बावजूद, उस काम को करते रहने के लिए मेरे हृदय में पर्याप्त आग है जिसे इतनी व्यग्रता के साथ शुरू किया गया था – तब तक करते रहने के लिए जब तक गैर-बराबरी का यह समाज जो हमें बोझ ढोने वाले पशु की तरह जिन्दा रहने को मजबूर करता है, ध्वस्त न हो जाय।”

 

अन्तरराष्ट्रीय पर मार्क्स और एंगेल्स का एवं वैज्ञानिक समाजवाद का वैचारिक प्रभाव बढ़ता जा रहा था। जर्मनी का लासालवाद, फ्रांस का प्रुधोंवाद आदि का प्रभाव क्षीण हो रहा था। ऐसे ही समय में बाकुनिनवाद का हमला हुआ अन्तरराष्ट्रीय पर। बाकुनिनवाद में ऐसा कोई खास वैचारिक अन्तर्वस्तु नहीं था जो वैज्ञानिक समाजवाद के सामने टिक सके – समानता, व्यक्तिस्वतंत्रता आदि के खयालों से भरपूर एक टुटपूंजिया अराजकतावाद था। इसके संगठनतंत्र में सबसे खतरनाक बात थी श्रमिकों की कोई राजनीतिक पार्टी के न होने की बात करना; बस अपने अपने काम के अनुसार उनके संघ होंगे और सर्वोपरि होगा एक षड़यंत्रमूलक गुप्त संगठन जो व्यवस्था को खत्म करने की योजना बनाएगा।… लेकिन यह हमला उस समय हुआ जब पैरिस कम्यून के पराजय के बाद योरोप के सभी देशों में पूंजीवादी एवं अभिजात वर्ग, प्रतिक्रियावादी सरकारी तंत्र, उसकी पुलिस, जासूस और साथ में समाचारपत्र, टूट पड़े थे अन्तरराष्ट्रीय एवं उससे सम्बद्ध संगठनों को खत्म करने के लिए। दूसरी ओर, उस माहौल में सभी देशों के श्रमिक जनों के बीच क्षुब्ध हताशा के एक स्वर को भी जगह मिल रहा था। ऐसे ही समय में मिखाइल बाकुनिन के अलायेंस फॉर सोश्यल डेमोक्रैसी ने अन्तरराष्ट्रीय से सम्बद्धता की मांग की। मार्क्स पूंजी के अगले खण्डों को लेकर काम के बोझ से दबे हुए थे। इसलिये, सम्बद्धता के लिए भेजे गए सारे कागजात उन्होने एंगेल्स को सुपुर्द कर दिए।

वस्तुत:, उस समय से लेकर आगे के वर्षों में अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति के विघटन तक, सांगठनिक मामलों में एंगेल्स की प्रमुख भूमिका रही। मार्क्स की व्यस्तता तो थी ही, एंगेल्स भी चाहते थे कि पूंजी का काम पूरा हो, साथ ही, एंगेल्स की भूमिका बढ़ती गई इस कारण से भी कि उन्हे सभी देशों के श्रमिक संगठनों की गतिविधियों की भी जानकारी थी और उन देशों की भाषाओं यहाँ तक कि बोलियों का भी ज्ञान था।

बाकुनिन का अलायेंस फॉर सोश्यल डेमोक्रैसी जिन शर्तों के साथ सम्बद्धता चाहता था उन्हे हटाने को कहा गया। वे अन्तरराष्ट्रीय से सम्बद्ध रहते हुए अपने अलायेंस के नियमानुसार काम करना चाहते थे जो सम्भव नहीं था। तात्कालिक तौर पर तो उन्होने अन्तरराष्ट्रीय की बात मान ली लेकिन सम्बद्धता मिल जाने के बाद उसी अलायेंस को जीवित कर काम करने लगे वह भी अन्तरराष्ट्रीय के नाम पर। विभिन्न देशों में संगठनों पर इसका असर पड़ने लगा।

उधर अन्तरराष्ट्रीय का कांग्रेस बुलाना जरूरी था। क्योंकि, पैरिस कम्यून ने जो सीख दिए थे, उनकी रोशनी में कुछ प्रस्ताव लेने थे ताकि वे सन्देश सभी देशों में श्रमिक वर्ग के पास पहुँच जायें और उन्ही प्रस्तावों के वैचारिक आधार पर संगठनों को दुरुस्त किया जा सके। लेकिन कांग्रेस में सभी देशों से प्रतिनिधि आ भी नहीं पाते – सभी देशों में पुलिस की नजर थी, संगठन में भी जासूस घुसे हुए थे। कांग्रेस हो भी तो कहाँ हो। एंगेल्स सही कहते थे कि अन्तरराष्ट्रीय पूरे योरोप में एक ताकत बन चुका है। कम्युनिस्ट घोषणापत्र में जो साम्यवाद के भूत का जिक्र था वह भूत अन्तरराष्ट्रीय के नाम से योरोप के सरकारों को दिखाई पड़ रहा था।

एंगेल्स ने ही सुझाव दिया तब कांग्रेस नहीं हो, सिर्फ ‘बन्द दरवाजे में’ यानि प्रतिनिधि सम्मेलन हो, लन्दन में। सम्मेलन की जगह, प्रतिनिधियों का परिचय पत्र आदि सब कुछ तय करने में एंगेल्स तो थे ही, साथ में थे पैरिस कम्यून से आये कुछ शरणार्थी साथी। 17 सितम्बर 1871 में लन्दन सम्मेलन सम्पन्न हुआ। कई देशों से प्रतिनिधि नहीं आ पाए। लन्दन में साधारण परिषद के साथियों को ही उन्होने प्रतिनिधि नामित करते हुए परिचयपत्र भेज दिया। एंगेल्स भी दो जगह के प्रतिनिधि नामित किए गए। पूरे सम्मेलन में मार्क्स और एंगेल्स दोनों मौजूद थे। एंगेल्स को तीस बार बोलने के लिए उठना पड़ा। श्रमिकों के स्वतंत्र राजनीतिक पार्टी एवं गतिविधि के सवाल पर जो प्रस्ताव रखा गया उस पर एक तरफ बाकुनिनवाद तो दूसरी तरफ गैर-राजनीतिक ट्रेड युनियन ने भी हमले चलाए। एक दूसरा प्रस्ताव था वैसे संगठनों पर रोक लगाने के बारे में जो षड़यंत्रमूलक तरीके से काम करते हैं और अन्तरराष्ट्रीय के घोषित लक्ष्य से अलग लक्ष्य लेकर चलते हैं; प्रस्ताव में अन्तरराष्ट्रीय की एकता एवं अनुशासन को सुदृढ़ करने की भी बात थी। इन प्रस्तावों के पारित होना बाकुनिनवाद पर निर्णायक प्रहार साबित हुआ। स्विट्जरलैंड के संगठन में बाकुनिनवादियों द्वारा किए गए तोड़फोड़ का भी मामला उठा। उसके लिए एक विशेष कमिटी बनाई गई जिसके सचिव बनाए गए एंगेल्स।  

चुँकि यह कांग्रेस नहीं था इसलिए, जो महत्वपूर्ण प्रस्ताव लिए गए उन्हे सभी देशों में उनके अपने अपने कांग्रेसों में पारित किया जाना जरूरी था। साथ ही, खुले विचारविमर्श में समय बीत जाने के कारण कई प्रस्तावों के बयान तैयार नहीं हो पाए थे। उन्हे बाद में बैठ कर तैयार किया गया एवं परिपत्र द्वारा सबको सूचित किया गया। इस पर भी बाकुनिनवादियों ने काफी हो-हल्ला मचाया। उन्होने अलग से एक बैठक बुला कर लन्दन सम्मेलन को गैरकानूनी बताया और साधारण परिषद को अधिकारवादी होने का आरोप लगाया। इससे पूंजीवादी अखबारों को मौका मिल गया खबरें छापने का कि अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति में फूट पड़ गया है। इन खबरों का भी एवं बाकुनिनवादियों का मुकाबला किया गया। केन्द्रीयतावाद, श्रमिक वर्ग की राजनीतिक कार्रवाई आदि विभिन्न विषयों पर सभी देशों के नेताओं के साथ मार्क्स और एंगेल्स को इस दौरान पत्राचार करना पड़ा। एंगेल्स ने कार्मेलो पालादिनो नाम के एक सदस्य को लिखा, “मत भूलिए कि अन्तरराष्ट्रीय का अपना इतिहास है। यह इतिहास, जिस पर इसे गर्वित होने के सभी कारण हैं, इसके नियमों पर सबसे अच्छी टिप्पणी है। अपने भव्य इतिहास को नहीं अपनाने का इरादा अन्तरराष्ट्रीय का बिल्कुल नहीं है … साधारण परिषद द्वारा ली गई बड़ी जिम्मेदारियों को लेकर आपके मन में जो भी शंकाएं हों, साधारण परिषद उस झंडे के प्रति विश्वस्त रहेगा जिसकी रक्षा करने का जिम्मा सभ्य दुनिया के श्रमिकों ने उसे सात वर्षों से दे रखा है।”

इस अवधि में एंगेल्स के अन्य कार्यों में प्रमुख रहे, अन्तरराष्ट्रीय की ओर से स्पेन और इटली के सचिव के रूप में उनका कार्यनिष्पादन, कुछेक अखबारों के लिए रूस एवं अन्य जगहों की राजनीतिक स्थिति पर आलेख, बाकुनिनवाद के साथ साथ इंग्लैंड के गैर-राजनीतिक ट्रेड युनियनवाद के खिलाफ संघर्ष।

अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति या संक्षेप में अन्तरराष्ट्रीय या प्रथम अन्तरराष्ट्रीय औपचारिक तौर पर भंग हुआ 1876 में। लेकिन 1871 में लन्दन सम्मेलन के बाद उसके प्रस्तावों को विभिन्न देशों के शाखाओं के माध्यम से लागू करवाने के सिलसिले में एक बात सामने आ रही थी। भले ही सैद्धांतिक तौर पर अन्तरराष्ट्रीय का बहुमत मार्क्स-एंगेल्स के द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक समाजवाद एवं उसी लाइन पर बने नियमावली, कार्यक्रम एवं विभिन्न प्रस्तावों के साथ था, यथार्थ के धरातल पर उस समय तक, श्रमिक वर्ग की जन-क्रांतिकारी राजनीतिक पार्टी सिर्फ जर्मनी में थी। बाकि योरोप के विभिन्न देशों में, अमरीका में श्रमिक संगठन, श्रमिक आन्दोलन पिछले सात वर्षों में काफी बढ़ गये थे, खुद अन्तरराष्ट्रीय की सदस्य संख्या आठ लाख से ऊपर थी, फिर भी, श्रमिक वर्ग की जन-क्रांतिकारी राजनीतिक पार्टी कहीं नहीं बनी थी। एक साल बाद, सितम्बर 1872 में हेग कांग्रेस के दौरान एवं उसके बाद यह यथार्थ और ज्यादा उभर कर आया। हेग कांग्रेस में मार्क्स और एंगेल्स जिस उद्देश्य के साथ गये थे वह पूरा हुआ। 15 देशों के 65 प्रतिनिधियों में लगभग 20-25% अराजकतावादियों (बाकुनिनवादियों) एवं सुधारवादियों (अंग्रेज ट्रेड युनियनवादियों मुख्यत:) के साथ रहे। बाकियों ने भारी बहुमत से कांग्रेस के मुख्य मुद्दों का समर्थन किया, यानि, नियमावली में श्रमिक वर्ग की राजनीतिक कार्रवाई, श्रमिक वर्ग की स्वतंत्र राजनीतिक पार्टी आदि कार्यक्रम सम्बन्धित शर्तें जोड़ी गई, जैसा लन्दन सम्मेलन का प्रस्ताव था। सर्वहारा तानाशाही पर भी बहस हुई। बाकुनिनवादियों द्वारा भीतर भीतर अन्तरराष्ट्रीय को तोड़ने की साजिश का पर्दाफाश हुआ। बाकुनिन एवं उनके एक सहयोगी निष्काशित किये गए।

लेकिन एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव को, कि अन्तरराष्ट्रीय के साधारण परिषद का कार्यालय को अस्थाई तौर पर लन्दन से न्युयार्क ले जाया जाय, भारी विरोध का सामना करना पड़ा। प्रस्ताव का आशय यह था कि लन्दन में कार्यालय रहते हुये, अराजकतावादियों के साथ साथ पुलिस के गुर्गों का भी संगठन में घुसने की आशंका थी, प्रमाण भी थे। साथ ही लन्दन में वैचारिक मतभेद ज्यादा ही बढ़े हुए थे। प्रतिनिधियों का विरोध देख कर मार्क्स और एंगेल्स को अन्तत: बोलना पड़ा कि तब वे नये साधारण परिषद में नहीं रहेंगे। तब जाकर साधारण परिषद का कार्यालय अमरीका ले जाया गया।

प्रथम अन्तरराष्ट्रीय अपना ऐतिहासिक कार्यभार पूरा कर चुका था। पैरिस कम्यून नये भविष्य की ओर इशारा कर चुका था। सभी देशों में वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा को प्रसारित कर चुका था। सन 1874 में एफ॰ ए॰ सोर्ज को (1873 के बाद जब अन्तरराष्ट्रीय में एक महासचिव के पद का सृजन करना पड़ा था, सोर्ज ही महासचिव बने थे) एंगेल्स एक पत्र में लिखते हैं, “दस वर्षों तक अन्तरराष्ट्रीय, योरोपीय इतिहास के एक तरफ पर आधिपत्य रखा – वह तरफ जिधर भविष्य है; और पीछे अपने काम की ओर वह गर्व के साथ देख सकता है।” फिर आगे लिखते हैं, “मुझे विश्वास है कि जब कुछ वर्षों में मार्क्स की रचनाओं का प्रभाव पड़ चुका होगा, अगला अन्तरराष्ट्रीय सीधे तौर पर कम्युनिस्ट होगा एवं ठीक हमारी नीतियों को ही घोषित करेगा।”

सघन वैचारिक लेखन की ओर - 1

एंगेल्स की उम्र अब पचास के ऊपर हो चुकी थी, लेकिन पहले जैसी ही ऊर्जा थी उनमें। बीस वर्षों तक मैंचेस्टर में रोज दफ्तर जाने-आने और व्यापारी, उद्योगपति वर्गों के साथ समय बिताने की मजबूरी जिस आदमी को उसकी तमाम जिंदादिली के बावजूद अवसादग्रस्त कर देती थी, उस आदमी की आत्मा में बैठा एक सर्वकालिक योद्धा-सैनिक जैसे लन्दन आते ही बाहर निकल आया। मार्क्स के परिवार में वह ‘जेनरल’ के नाम से जाने जाते ही थे। अब जैसे उन्होने ‘जेनरल’ का कमान थाम लिया था। साथ ही, मैंचेस्टर में व्यक्तिगत जीवन में जो दोहरापन निभाना पड़ता था और उसके कारण जो एक कष्ट था मन में, वह भी लन्दन आते ही खत्म हो गया था। अब वह अपनी पत्नी, लीडिया या लिज्जी के साथ ही रहते थे, और साथ में रहती थी पत्नी की भांजी, मेरी अलेन बर्न्स या घरेलू नाम से ‘पम्प्स’। पहली पत्नी मेरी के साथ वह इस तरह नहीं रह पाए, यह कष्ट भी उन्हे सालता ही होगा, हालाँकि उन्होने इसका जिक्र नहीं किया।

अन्तरराष्ट्रीय अपनी भूमिका निभा चुका था। मार्क्स और एंगेल्स भी अन्तरराष्ट्रीय के माध्यम से सर्वहारा चेतना, सर्वहारा एकजूटता एवं समाजवादी क्रांति की वैज्ञानिक समझ को योरोप और अमरीका के बड़े हिस्सों में क्रांतिकारियों एवं समाजवादियों तक पहुँचा दिये थे। अब इस चेतना, एकजूटता और समझ को और आगे बढ़ाना था ताकि, जैसा कि एंगेल्स ने कहा, “अगला अन्तरराष्ट्रीय सीधे तौर पर कम्युनिस्ट होगा एवं ठीक हमारी नीतियों को ही घोषित करेगा” – वैसा ही हो। जैसा कि लेनिन ने उस कालखण्ड के बारे में कहा कि वह “सर्वहारा वर्गीय बनावट लिए हुए जन समाजवादी पार्टियों के निर्माण, विकास एवं परिपक्व होने” की अवधि थी।

एंगेल्स के सामने प्राथमिकतायें स्पष्ट थीं। सबसे पहले मार्क्स और उसके परिवार को आर्थिक मदद, ताकि मार्क्स अपने सबसे महत्वपूर्ण सैद्धांतिक कार्य एवं खास कर आर्थिक शोध, पूंजी के अगले खण्ड पूरी कर सकें। दूसरा, मार्क्स के साथ मिल कर जर्मनी में, बाकी योरोप में या अमरीका में सर्वहारा पार्टी निर्माण में एवं उसे वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा पर आधारित बनाने में सांगठनिक व वैचारिक मदद। तीसरा, मार्क्स के एवं संयुक्त रूप से मार्क्स-एंगेल्स के महत्वपूर्ण ग्रंथों एवं पुस्तिकाओं का यथासम्भव अन्य भाषाओं में अनुवाद और प्रकाशन। एवं चौथा मार्क्स द्वारा प्रणीत द्वंदात्मक व ऐतिहासिक भौतिकतावादी दृष्टि का, जिसे शुरू से ही उन दोनों ने मिल कर विकसित किया, ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में प्रयोग।

सन 1974 में प्रकाशित एंगेल्स की सोवियत जीवनी उन्हे उद्धृत करता है: “मार्क्स और मुझे दोनों को, अवश्य ही बिल्कुल निश्चित वैज्ञानिक कार्य करने चाहिए जिन्हे कोई दूसरा करने में सक्षम नहीं है; या करना चाहता भी नहीं है। विश्व-इतिहास की वर्तमान शांत अवधि का हमें पूरा इस्तेमाल करना चाहिए ताकि हम इस काम को पूरा कर सकें। कौन जानता है कि कितनी जल्दी कोई घटनाक्रम हमें व्यवहारिक आन्दोलन की गहमागहमी में फिर से ले चलेगा। इसलिए, फुरसत के इस छोटे से क्षण का इस्तेमाल हमें उतनी ही जरूरी सैद्धांतिक पहलू पर कम से कम थोड़ा विस्तार में जाने के लिए करना चाहिए।”  

मार्क्स की बेटियाँ अब बड़ी हो गई थीं। सन 1872 में, उनमें से दो, जेनी और लॉरा अपने अपने पतियों, चार्ल्स लांग्वे और पॉल लाफार्ग के साथ पास में ही रहने लगी थी। मार्क्स की छोटी बेटी इलियानोर, 16 वर्ष की उम्र से ही घर पर मार्क्स की सचिव थी और सभी सम्मेलनों में मार्क्स के साथ जाया करती थी। यानि पूरा परिवार ही लन्दन में था (मार्क्स और जेनी के सात सन्तानों में से चार, तीन लड़के और एक लड़की, निर्मम गरीबी के कारण बचपन में ही गुजर गये थे)। एंगेल्स को मार्क्स के तीनों जीवित सन्तानों की गहरी फिक्र थी। लॉरा और पॉल के तीन सन्तानों के मर जाने का दुख उन्हे भी उतना ही सताता था। और जेनी के पति चार्ल्स को, जिसे पैरिस कम्यून के योद्धा होने के कारण कहीं नौकरी नहीं मिल रही थी, एंगेल्स तब तक आर्थिक मदद करते रहे थे जब तक उसे नौकरी नहीं मिल गई। एंगेल्स के आशावाद, जीवंतता एवं खुशमिजाज उपस्थिति से उन सभी को बल मिलता था।

डी॰ रायाजानोव, जिन्होने कम्युनिस्ट घोषणापत्र के टीका-सहित संस्करण का सम्पादन किया है, मार्क्स और एंगेल्स की एक जीवनी भी लिखी है, बिल्कुल नये ढंग से। यानि, एक तरह से पूर्णत: वैचारिक जीवनी। उस जीवनी में, इन वर्षों में एंगेल्स की मन:स्थिति पर वह नई रोशनी डालते हैं। वह कहते हैं कि भले ही पूंजी के पहले खण्ड का प्रकाशन हो गया हो, समाजवादियों का जो छोटा सा समुदाय खुद को मार्क्स-एंगेल्स का अनुयायी कहता था, उसकी दयनीय स्थिति थी। मार्क्स और एंगेल्स की पद्धति, इतिहास की भौतिकतावादी अवधारणा, वर्ग संघर्ष से सम्बन्धित सीख … तब तक सब बन्द किताबें थीं उनके लिए। और तो और, विल्हेल्म लिबनेख्त भी द्वंदात्मक भौतिकतावाद के साथ दूसरे विचारों का घोल बना डालते थे। यानि, इस समय के इतिहास में जितना तीव्र संघर्ष मार्क्सवादियों का बाकुनिनवादियों के साथ दिखाया गया है उससे तीव्रतर संघर्ष की जरूरत मार्क्सवादियों के अन्दर थी। इसलिए, “अन्तत: एंगेल्स ने मार्क्सवाद के सिद्धांतों की रक्षा एवं प्रसार का कार्यभार अपने उपर ले लिया …। कभी कोई आलेख आकृष्ट करे तो उस पर, कभी समसामयिक इतिहास के किसी तथ्य पर वह टूट पड़ते थे, ताकि एक एक दृष्टान्त देते हुए वैज्ञानिक समाजवाद एवं अन्य समाजवादी प्रणालियों के बीच के अन्तर को स्पष्ट कर सकें, या किसी अस्पष्ट व्यवहारिक प्रश्न पर वैज्ञानिक समाजवाद की दृष्टि से रोशनी डाल सके या उनकी पद्धति के व्यवहारिक प्रयोग को दिखा सकें।”  

हालाँकि, बँटवारा बहुत मुश्किल है, काम हमेशा एक दूसरे में घुले-मिले रहते हैं, फिर भी आलोच्य वर्षों में और आगे भी, एंगेल्स के प्रकाशित-अप्रकाशित, सम्पूर्ण-असम्पूर्ण वैचारिक लेखनों को चार धाराओं में देखने का हम प्रयास करेंगे – (1) मार्क्सवाद की रक्षा एवं प्रसार एवं सम्यक परिचय; (2) समसामयिक इतिहास के विभिन्न प्रसंग पर मार्क्सवादी दृष्टि; (3) प्रकृति विज्ञान के क्षेत्र में भौतिकतावाद; (4) मानवविज्ञान के क्षेत्र में भौतिकतावाद।

1: मार्क्सवाद की रक्षा एवं प्रसार एवं सम्यक परिचय – जर्मन सामाजिक-जनवादी पार्टी मार्क्सवादी दृष्टि से चले, लासालवाद, प्रुधोंवाद या अन्य टुटपूंजिया वैचारिक प्रभावों से मुक्त रहे, यह मार्क्स और एंगेल्स के प्रमुख सरोकारों में से एक था। उस पार्टी के मुखपत्र डेर वोकस्टाट में एंगेल्स पहले से ही लिखते रहे थे। अन्तरराष्ट्रीय में तोड़फोड़ करने की बाकुनिनवादियों की कोशिशें एवं पूंजीवादी अखबारों में फैलाए जा रहे अफवाहों के जबाब में मार्क्स-एंगेल्स द्वारा लिखा गया था अन्तरराष्ट्रीय में काल्पनिक फूट । यह जबाब साधारण परिषद की ओर से था, और यह भी सितम्बर 1872 में डेर वोकस्टाट में छपा था। फिर अन्तरराष्ट्रीय के हेग कांग्रेस पर एंगेल्स द्वारा लिखा प्रतिवेदन भी इसी में छपा था। मुखपत्र के सम्पादक थे विल्हेल्म लिब्नेख्त। मार्क्स और एंगेल्स उनसे कहते भी थे कि बिना ठीक से जाँचे आलेख न स्वीकारें, क्योंकि यह पार्टी का मुखपत्र है। लेकिन उनकी अपनी धारणायें थीं पार्टी मुखपत्र में वैचारिक बहस को लेकर। ऐसा ही वाकया हुआ जब बिना लेखक के नाम के लगातार नौ अंकों में धारावाहिक छपे ‘आवास के प्रश्न की ओर’। एंगेल्स ने पूछा ये क्या छप रहा है तो लिब्नेख्त ने कहा आप जबाब दीजिए इसका। इसी तरह आई तीन भागों में एंगेल्स की अति महत्वपूर्ण रचना ‘आवास का प्रश्न’। इस रचना में एंगेल्स ने वैज्ञानिक समाजवाद के बुनियादी प्रस्थापनाओं को एक ऐसी समस्या पर बहस करते हुए सिद्ध किया जिस समस्या का निदान, टुटपूंजिये समाजवादी तथा पूंजीवादी समाज सुधारकों के परोपकारी मायाजाल को फैलाने में आज भी सबसे अधिक काम आता है। रचना तीन भागों थी; पहले भाग में, डेर वोकस्टाट के गुमनाम लेखक (बाद में उद्घाटित हुआ डा॰ मूलबर्गर, एक प्रुधोंवादी) का जबाब था। दूसरे भाग में, आवास के प्रश्न के समाधान हेतु पूंजीवादी परिकल्पनाओं का जबाब था। तीसरे भाग में, उपरोक्त दोनों भागों के पृष्ठभूमि में प्रुधोंवाद की सामान्य आलोचना थी।

डेर वोकस्टाट के अलावा जर्मन भाषा के अन्य पत्रिकाओं में तो वह लिखते ही थे, आवश्यकतानुसार अंग्रेजी, फ्रांसीसी, स्पेनी, इतालवी एवं अन्य भाषाओं में भी लिखते रहते थे – खास कर अन्तरराष्ट्रीय के बारे में झूठे प्रचारों का जबाब देने के लिये या विभिन्न देशों के श्रमिक आन्दोलन, महत्वपूर्ण राजनीतिक या आर्थिक घटनाक्रमों पर।

सन 1873 के अक्तूबर में एंगेल्स को खबर मिली कि उनकी माँ बीमार हैं। वह एंगेल्सकिर्शेन चले गये। वहीं उनकी माँ ने अंतिम साँसें लीं। 20-22 दिन एंगेल्स माँ के पास थे।

साल घूमते घूमते पोलैंड का सवाल फिर जिन्दा हो गया क्योंकि रूस के जार इंग्लैंड आये थे। इस मौके पर पोलैंड के शरणार्थियों की ओर से इंग्लैंड की जनता के नाम एक सम्बोधन प्रकाशित किया गया था। इस अपील की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की व्याख्या करते हुए और पोलैंड की स्वतंत्रता के सवाल के महत्व को रेखांकित करते हुए एंगेल्स ने नौ किश्तों में डेर वोकस्टाट के पन्नों पर आलेख लिखे। अप्रैल 1875 तक यह आलेख चलता रहा। आलेख के पहले ही किश्त में एंगेल्स ने लिखा, “सन 1863 में पोलैंड दिखा दिया था कि उसकी हत्या नहीं की जा सकती है, और अभी भी वह यही दिखा रहा है। राष्ट्रों के योरोपीय परिवार में उसके स्वतंत्र अस्तित्व का दावा अखंडनीय है।” उन्होने यह भी लिखा कि पोलैंड का पुनर्स्थापन, पोलैंड के अलावे उन राष्ट्रों के लिए भी जरूरी है, जिन्होने उसे विभाजित कर आपस में बाँट रखा है, यानि रूस और जर्मनी। क्योंकि “जो जनता दूसरी जनता का उत्पीड़न करती है, खुद को मुक्त नहीं कर सकती है।” इस आलेख के आखरी किश्त, रूस के सामाजिक सम्बंधों पर, को बाद में अलग से छापा गया। इस आलेख में योरोपीय सैन्यवाद के प्रधान कारण के तौर पर रूसी सैन्यवाद को चिन्हित किया गया।

मार्क्सवाद के सामान्य पाठक मार्क्स की एक महत्वपूर्ण रचना के बारे में जानते हैं, नाम है गोथा कार्यक्रम की आलोचना । इस आलोचना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है 18-28 मार्च 1875 को एंगेल्स द्वारा अगस्त बेबेल को लिखी गई लम्बी चिट्ठी। अन्तरराष्ट्रीय में हिस्सा लेने के ‘जुर्म’ में विल्हेल्म लिब्नेख्त और अगस्त बेबेल को दो साल की सजा हुई थी। उन दोनों नेताओं की अनुपस्थिति में उनकी पार्टी, सामाजिक-जनवादी श्रमिक पार्टी के अन्दर लासालपंथियों के दल के साथ एकता का भाव खूब जोर पकड़ा। बाद में एक एक कर दोनों नेता जेल से छूटे। उन्होने भी एकता की इस मुहिम को स्वीकार किया। जर्मनी के गोथा शहर में प्रस्तावित ‘एकता कांग्रेस’ में पेश किए जाने वाले कार्यक्रम के मसौदे को दोनों राजनीतिक दलों के मुखपत्र डेर वोकस्टाट एवं नुएर सोश्यल-डेमोक्रैट में छाप दिया गया। मार्क्स और एंगेल्स दोनों ने एकता को स्वागत किया, लेकिन कार्यक्रम की आलोचना की। एंगेल्स ने, लासालपंथियों को करीब लाने के अपने अनुभवों का जिक्र करते हुए यह भी आशंका व्यक्त किया कि शायद ऐसे गड्डमड्ड कार्यक्रम पर आधारित एकता स्थाई न हो। मार्क्स द्वारा रचित गोथा कार्यक्रम की आलोचना एवं एंगेल्स द्वारा बेबेल को लिखी गई लम्बी चिट्ठी, दोनों मिल कर वह मार्क्सवादी दस्तावेज है जो आज कार्यक्रम की रचना में दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों की मदद करता है।

मार्क्सवादी साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है मार्क्स और एंगेल्स द्वारा लिखे गये हजारों पत्र। रचनासमग्र के पहले और दूसरे खण्ड को शामिल न करने के बाद भी (जिनमें किशोरावस्था एवं युवावस्था के पत्र हैं) सत्रह खण्डों (38 से 50) में सिर्फ चिट्ठियाँ हैं। औसतन, हर खण्ड में मूल पाठ के लिए 450 पृष्ठ रखने पर भी कुल पृष्ठ होते हैं 7,650! अगर इनमें नितान्त व्यक्तिगत बातों के लिए 1,650 पृष्ठ हटा लें तो बाकि बचते हैं 6,000 पृष्ठ जिनमें सिर्फ वैचारिक एवं सांगठनिक विचार-विमर्श एवं दिशानिर्देश हैं। जितने मार्क्स के हैं उतने ही एंगेल्स के। एंगेल्स के लन्दन आने के पहले तक आधी से अधिक चिट्ठियाँ तो दोनों के आपस की हैं। विषयानुसार विभाजित कर इन चिट्ठियों का कोई सम्पादित संस्करण हिन्दी में तो दूर, अंग्रेजी में भी नहीं है। सिर्फ, सामान्यत: वैचारिक व राजनीतिक महत्व की दृष्टि से चुनी हुई चिट्ठियों के दो संकलन हैं – एक प्रगति प्रकाशन, मास्को द्वारा प्रकाशित तथा दूसरा, सन 1934 के मार्टिन लॉरेंस द्वारा प्रकाशित संकलन का नैशनल बुक एजेंसी, कोलकाता द्वारा किया गया पुनर्मुद्रण।

सन 1976 में विल्हेल्म वुल्फ की एक जीवनी लिखी एंगेल्स ने। विल्हेल्म वुल्फ मार्क्स और एंगेल्स के सबसे पुराने और पक्के साथियों में से एक थे। परिचितों के बीच वह घरेलू नाम ‘लुपुस’ से जाने जाते थे। उम्र में मार्क्स से दस साल बड़े थे। पेशे से स्कूलशिक्षक, किशोरावस्था से ही वह क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े हुए थे। मार्क्स-एंगेल्स से पहली मुलाकात ब्रसेल्स में सन 1846 में हुई थी। न्यु राइनिशे जाइटुंग के वह भी एक सम्पादक थे। सन 1864 में जब मैंचेस्टर में उनकी मृत्यु हुई, मार्क्स और एंगेल्स दोनों उनकी मृत्युशय्या के पास थे। वुल्फ के अपने पास जो कुछ भी था, वह सब मार्क्स को दे गए थे ताकि मार्क्स अपना काम पूरा कर सकें। मार्क्स ने अपनी पूंजी उन्ही के नाम उत्सर्ग किया और लिखा “मेरे अविस्मरणीय मित्र विल्हेल्म वुल्फ, सर्वहारा के निडर, विश्वस्त एवं महान पक्षधर, को उत्सर्गीकृत” । वुल्फ की जीवनी मार्क्स खुद लिखने को सोचे थे। उसके नोट्स मौजूद हैं। एंगेल्स द्वारा लिखित जीवनी में वुल्फ द्वारा न्यु राइनिशे जाइटुंग में लिखे गए, साइलेसिया के किसानों की स्थिति पर लोकप्रिय आलेखों के संक्षिप्त विवरण भी हैं। यह जीवनी इग्यारह किश्तों में डाय न्यु वेल्ट नाम की एक पत्रिका में छपी जिसका सम्पादन उस समय विल्हेल्म लिब्नेख्त कर रहे थे।

अपनी चर्चित लेकिन अधूरी कृति प्रकृति की द्वंद्वात्मकता पर एंगेल्स ने सन 1873 में ही काम शुरू कर दिया था। लेकिन दूसरे आवश्यक कामों के दबाव में उसका लेखन पिछड़ रहा था। ऐसे ही आवश्यक एक काम की फरमाइश विल्हेल्म लिब्नेख्त ने कर दी। लासालवादियों के साथ मिलन के बाद जर्मन सामाजिक-जनवाद का वैचारिक स्तर काफी गिर गया था। फलस्वरूप हेर युजेन ड्युहरिंग एवं और लोगों द्वारा रचित पुस्तकें लोकप्रिय हो रहे थे। सामाजिक-जनवादी, यहाँ तक कि अगस्त बेबेल जैसा आदमी भी कुछ समय के लिए ड्युहरिंग के मतों के प्रभाव में आ गए थे। खुद लिब्नेख्त ने अपनी पत्रिका में ड्युहरिंग को जगह दी थी। लेकिन जब ड्युहरिंग सीधे तौर पर मार्क्स की आलोचना पर उतर आये तब लिब्नेख्त का माथा ठनका। ड्युहरिंग की आलोचना लिखने के लिए उन्होने एंगेल्स से अनुरोध किया। यह सन 1875 के अप्रैल महीने की बात थी। सन 1876 के मई-अगस्त में एंगेल्स अपनी पत्नी के साथ इंग्लैंड के रैम्सगेट शहर के समुद्रतट पर स्वास्थ्यलाभ के लिए गए हुए थे, वहीं उन्होने ड्युहरिंग की किताबें पढ़ीं। मार्क्स की भी राय बनी कि ड्युहरिंग के मतों की सम्यक आलोचना होनी चाहिए। अन्तत: दो वर्षों (सितम्बर 1876 – जून 1878) के मेहनत के बाद दुनिया को मिला एक अमूल्य ग्रंथ, ड्युहरिंग मत-खण्डन, जिसे मार्क्सवाद का विश्वकोष कहा गया। चूँकि डेर वोकस्टाट नाम की पत्रिका बन्द हो चुकी थी, उसकी जगह पर आई थी वोरवार्ट्स । उसी पत्रिका में 3 जनवरी 1877 से लेकर 7 जुलाई 1878 तक यह रचना धारावाहिक प्रकाशित हुई।

ड्युहरिंग के कुछेक मतों की आलोचना एंगेल्स पहले भी डेर वोकस्टाट के पन्नो पर कर चुके थे। प्रुशियन श्नैप्स इन द जर्मन राइखस्टैग शीर्षक आलेख सस्ते देसी शराब के धंधे पर लिखा गया था। उस आलेख में बहुत कुछ तत्कालीन जर्मनी के ग्रामीण इलाके में बनी आलु के शराब की भट्टियाँ एवं उनसे सम्बन्धित राजनीति पर है। लेकिन आज के पाठकों के लिए महत्वपूर्ण प्रसंग है शोषित वर्गों - श्रमिकों, खेत मजदूरों - को आन्दोलन से दूर रखने और दबाए रखने के लिए नशे का हथियार की तरह इस्तेमाल। बल्कि वह कटाक्ष करते हैं कि भारत का अंग्रेज शासक वर्ग तो अपने से भिन्न, चीन की जनता को दबाए रखने के लिए अफीम का इस्तेमाल करता है। जबकी जर्मनी का यह शासक वर्ग अपनी ही जनता को दबाए रखने के लिए सस्ती जहरीली देसी शराब बेचते रहता है। इसी आलेख में वह ड्युहरिंग पर भी कटाक्ष करते हैं कि इनके सरीखे लोग इस में भी ग्रामीण क्षेत्रों का औद्योगीकरण एवं विकास ढूंढ़ लेंगे।

खैर। ऐन्टी ड्युहरिंग या ड्युहरिंग मतखण्डन मतखण्डन के कारण विख्यात नहीं हुआ। ड्युहरिंग कौन था लोग जानना भी नहीं जानते हैं। वैसे भी, समय गुजर जाने के बाद किसी भी खण्डन-साहित्य को पढ़ना और समझना कठिन हो जाता है। सन्दर्भों की समसामयिकता खो जाती है। फिर भी, एंगेल्स की इस कृति की लोकप्रियता अक्षुण्ण है। इसका कारण खुद एंगेल्स ग्रंथ की भूमिका में बताते हैं, “आलोचना का लक्ष्य ही ऐसा था कि आलोचना को इतना विशद में जाना पड़ा। लक्ष्य, यानि ड्युहरिंग की रचनाओं की वैज्ञानिक अन्तर्वस्तु के अनुपात में आलोचना बहुत अधिक है। लेकिन दो अन्य चिन्ताओं का ध्यान, मेरे बहस की लम्बाई को दोषमुक्त कर सकता है। एक तरफ, ड्युहरिंग की रचनाओं के विषय जितने विविध हैं, उन पर बातें रखते हुए मुझे मौका मिला कि उन विवादास्पद मुद्दों पर भी मेरे दृष्टिकोण को सकारात्मक रूप में रखूँ जो मुद्दे सामान्य वैज्ञानिक या व्यवहारिक महत्व के हैं …”। आगे फिर कहते हैं, “इस पुस्तक में आलोचित हेर ड्युहरिंग की ‘प्रणाली’ बहुत व्यापक सैद्धांतिक ज्ञानक्षेत्र में प्रसारित है। जहाँ जहाँ वह गए, मैं उनका पीछा करने एवं उनकी अवधारणाओं के विरोध में मेरी अपधारणाओं को रखने को मजबूर था। फलस्वरूप मेरी नकारात्मक आलोचना सकारात्मक हो गई। जो मत-खण्डन था वह, मार्क्स और मेरे द्वारा समर्थित द्वंद्वात्मक पद्धति एवं साम्यवादी विश्वदृष्टि का कमोबेश अन्तर्सम्बन्धित प्रतिपादन हो गया – काफी व्यापक विविधता में फैले विषयों को दायरे में लेता हुआ प्रतिपादन। मार्क्स रचित दर्शन की दरिद्रता एवं कम्युनिस्ट घोषणापत्र में यह विश्वदृष्टि पहली बार दुनिया में प्रस्तुत की गई। अगले बीस साल, यानि पूंजी के प्रकाशन के पहले तक यह ऊष्मायन अवधि में रही। फैलते जनसमूहों के बीच इस विश्वदृष्टि का प्रभाव तेजी से बढ़ता जा रहा है। अब योरोप की सीमाओं से आगे काफी दूर तक इसे स्वीकृति एवं समर्थन मिल रही है – उन तमाम देशों में जहाँ एक तरफ सर्वहारा हैं और दू्सरी तरफ निडर वैज्ञानिक विचारक ।”

एक कठोर आघात, और वैचारिक संघर्ष को जारी रखने की चुनौती

ड्युहरिंग की रचनाओं को पढ़ने और ड्युहरिंग मतखण्डन लिखे जाने के महीनों में एंगेल्स बहुत परेशान थे। पत्नी की तबीयत बार बार खराब हो रही थी। पहले उन्हे दमा एवं स्नायुशूल (साइटिका) की शिकायत थी। सन 1876 में दो बार एंगेल्स पत्नी के साथ कुछेक हफ्ते समुद्रतट के एक शहर रैम्सगेट में बिताए थे ताकि समुद्र में नहाने और धूप सेंकने से पत्नी की सेहत सुधरे (अगले साल इसी तरह ब्राइटन भी गये)। रैम्सगेट मार्क्स, मार्क्स के परिवार, एंगेल्स, एंगेल्स की पत्नी, सभी का प्रिय समुद्रतट था। जब एंगेल्स वहाँ थे उस समय मार्क्स की छोटी बेटी इलियानोर भी, जिसकी बचपन से ही एंगेल्स परिवार से घनिष्ठता थी, वहाँ पहुँच गई थी। बीच में मार्क्स खुद जर्मनी गये तो मार्क्स की पत्नी जेनी और उनके घर की देखभाल करने वाली महिला हेलेन डेमुथ (घरेलू नाम ‘लेन्चेन’) भी समुद्री हवा का लाभ उठाने और श्रीमती एंगेल्स को साथ देने बारी बारी से एंगेल्स दम्पति के पास पहुँच गईं।

कुछ दिनों के लिए समुद्र का अच्छा प्रभाव पड़ने के बावजूद श्रीमती एंगेल्स की तबीयत फिर बिगड़ने लगी। नए नए लक्षण उभरने लगे। दवाएं चलती रही। उन्हे आराम देने के लिए एंगेल्स खुद घर के काम काज में हाथ बँटाते रहे। 14 फरवरी 1877 को एंगेल्स, अपने एक मित्र फिलिप पॉली की पत्नी इडा पॉली को चिट्ठी लिखते हुए अपनी पत्नी की बिगड़ती तबीयत के बारे में बताते हैं। कहीं पूरी तरह चलने फिरने में अक्षम न हो जायें इस आशंका को भी व्यक्त करते हैं। उसी प्रसंग के अन्त में वह लिखते हैं, “आप हँसतीं अगर कल रात मुझे बिस्तर लगाते हुए या आज सुबह रसोई में चूल्हा जलाते हुए देख लेतीं।”

लिज्जी की भांजी पम्प्स, छोटी उम्र के बावजूद, कुछ बुरे स्वभाव पाल ली थी। दिखावटीपन, खर्चीला मिजाज, रूखा तेवर …। इसलिए, नवम्बर 1875 में पम्प्स को एंगेल्स और उनकी पत्नी, रेनाउ (जर्मनी) में रहने वाले उपरोक्त पॉली परिवार के स्थानीय अभिभावकत्व में हाइडेलबर्ग स्थित एक बोर्डिंग हाउज में रख आये थे। ताकि वह वहाँ ठीक से रहे। उसकी देखभाल करने के लिए वहाँ उसके साथ थी मिस शैप्स। लेकिन पम्प्स और मिस शैप्स को वहाँ से मार्च 1877 में वापस ले आना पड़ा। क्योंकि श्रीमती एंगेल्स रोज का काम करने की स्थिति में भी नही रह पा रही थी।

इन्ही परेशानियों के बीच एंगेल्स न सिर्फ ड्युहरिंग मत-खण्डन पर काम कर रहे थे बल्कि दूसरे क्षेत्रों में भी अपनी भूमिका निभा रहे थे। वोर्वार्ट्स, द लेबर स्टैन्डर्ड, ला प्लेबे एवं अन्य पत्रिकाओं में इसी अवधि में उन्होने सन 1877 के जर्मन चुनावों पर, इटली में समाजवादी आन्दोलन के विकास पर, बेहतर मजदूरी एवं अन्य नुद्दों पर इंग्लैंड के खेत मजदूरों के संघर्ष पर आलेख लिखे, कार्ल मार्क्स की एक छोटी सी जीवनी लिखी, जर्मनी, फ्रांस, अमरीका एवं रूस के समाजवादी आन्दोलन पर एवं आलोच्य वर्ष में योरोप के श्रमजीवियों की स्थिति पर विभिन्न भाषाओं में प्रतिवेदन लिखे।

लेकिन, रचनासमग्र से जो स्थिति पता चलती है: वर्ष 1878 में मार्च के अन्त तक, न्युयार्क से प्रकाशित द लेबर स्टैन्डर्ड के लिए 1877 में योरोप के श्रमजीवियों की स्थिति की आखरी किश्त लिखने के बाद, बस 12 जून को मार्क्स के साथ डेली न्युज के सम्पादक के नाम एक पत्र तैयार कर पाए थे। आखरी पत्र भी वह 10 अगस्त को लिख पाए थे; वह भी इसलिए कि ड्युहरिंग मतखण्डन पुस्तक के रूप में छप कर आ गया था और रूस में एक मित्र को वह पुस्तक भेजना था।

11 सितम्बर की शाम को श्रीमती एंगेल्स को जरूर एहसास होने लगा होगा कि वह जा रही हैं। इसलिए उन्होने सिरहाने बैठे एंगेल्स से एक अनुरोध किया, कि कानूनी नियमानुसार उनकी शादी हो जाय। एंगेल्स न तो धर्म मानते थे और न पूंजीवादी कानून। एक दूसरे के साथ निभाने को ही कम्युनिस्ट आचरण या सही मायने में ‘धर्म’ यानि सही मनुष्यता मानते थे। मेरी बर्न्स ने कभी ऐसा अनुरोध किया भी नहीं था। और बहुत अचानक वह चली गई थीं। उन्ही की बहन थी लिडिया। स्वभाव में मृदु (मेरी से भिन्न), लेकिन विचारों से उतनी ही श्रमिक क्रांतिकारिता और आइरिश देशप्रेम से भरी महिला। बिल्कुल अनपढ़ लेकिन सू्झबूझ से भरपूर। फिर भी, लम्बी बीमारी के ही कारण शायद यह ईच्छा जगी होगी। एंगेल्स ने तुरंत व्यवस्था किया। उस शाम को औपचारिक ढंग से उनका विवाह सम्पन्न हुआ। और रात को डेढ़ बजे, यानि, योरो्पीय हिसाब से 12 सितम्बर 1878 की सुबह डेढ़ बजे लीडिया बर्न्स की मृत्यु हो गई। एंगेल्स ने लन्दन स्थित केन्सल ग्रीन के सेन्ट मेरीज कैथलिक सिमेटरी में उनके शव को दफनाया; कब्र के पत्थर पर सिर्फ इतना लिखवाया, “लिडिया, फ्रेडरिक एंगेल्स की पत्नी”।

यह मृत्यु एंगेल्स के लिये शोक से अवश कर देने वाला था। यह उनकी पहली चिट्ठी की भाषा से पता चलता है जो उन्होने अपने और मार्क्स के पुराने साथी फ्रेडरिक लेस्नर को लिखा, “प्रिय लेस्नर, अभी तुरंत मृत्यु ने मेरी पत्नी बेचारी को दीर्घकालीन यंत्रणाओं से मुक्त किया है। … शराब [वाइन] मैं तुम्हे भेज नहीं पाउंगा। वैसे किसी भी समय आकर तुम ले जा सकते हो।” अगली चिट्ठी थोड़ी देर के बाद लिखा, बार्मेन में अपने भाई रुडोल्फ एंगेल्स को, “प्रिय रुडोल्फ, लम्बी बीमारी के बाद आज सुबह डेढ़ बजे मेरी पत्नी, जिनसे कानूनी विवाह मैंने कल ही शाम को किया था, शांति से गुजर गई। … मुझे लगता है कि कुछ अतिरिक्त खर्चे होंगे और चूंकि बैंक में पैसे कम हैं, जितनी जल्दी कर सको मुझे 200 पौंड भेज कर बाधित करो।”

मार्क्स उस समय सपरिवार मेलबर्न, वोर्सेस्टर में थे। 14 सितम्बर को वह लौट कर आये। क्या बातें हुई यह तो इतिहास में दर्ज नहीं है। इतना पता चलता है कि एंगेल्स जरूर कुछ दिनों के लिए बाहर जाने की ईच्छा जताए होंगे। साथ ही मार्क्स को, एक दो बार उनके घर का चक्कर लगा आने को कहे होंगे ताकि चिट्ठियाँ जो आए उन्हे या तो सहेज कर रख दिये जाएं या एंगेल्स जहाँ हों वहाँ भेज दिए जायें। और फिर 16 सितम्बर को एंगेल्स चले गए लिट्लहैम्पटन। साथ में थी पम्प्स और पम्प्स की देखभाल के लिए रखी गई मादाम रेनशॉ।

भूतपूर्व पूर्व जर्मनी से वर्ष 1972 में हाइनरिख गेमकाउ के नेतृत्व में एक लेखकमंडली द्वारा एंगेल्स की जीवनी लिखी गई थी। उसमें यह छूते हुए शब्द हैं: “उन दिनों में एंगेल्स की आन्तरिक अनुभूतियाँ कैसी रही होंगी इस बारे में एक शब्द, एक पंक्ति भी हम तक नहीं पहुँचे हैं। लेकिन शब्दों से अधिक बोलने वाला यह तथ्य है कि एंगेल्स, जो इतने उत्साह के साथ अन्तरराष्ट्रीय राजनीतिक घटनाक्रमों में भाग लेते थे, अब कई हफ्तों के लिये जर्मनी, फ्रांस एवं दूसरे देशों के अपने साथियों से लगभग पूरी तरह पत्राचार बन्द कर दिए।” और यह सही है। लिट्लहैम्पटन जाने के बाद 18, 19, 21 सितम्बर को एंगेल्स ने मार्क्स के तीन चिट्ठियों के जबाब दिए। फिर लन्दन लौटने के बाद एक एक महीना बाद दो चिट्ठियाँ दो साथियों के नाम।

मार्क्स भी समझ रहे थे चोट की गहराई को। एंगेल्स की नि:संगता में हमेशा राजनीतिक घटनाक्रमों की सूचना देना और संघर्ष के कामों में उनकी जरूरत बताते रहना वह कभी नहीं भूलते थे। एंगेल्स जब पैरिस से पैदल स्विटजरलैंड पहुँचे थे या उसके पहले भी … इसी तरह अपने दोस्त को वह साथ देते रहते थे। 24 सितम्बर 1878 को भी एंगेल्स को अन्तरराष्ट्रीय राजनीतिक घटनाक्रमों के बारे में विशद बताने के बाद उन्होने लिखा, “उम्मीद करता हुए कि माँ प्रकृति तुम्हे स्वस्थ होने में मदद कर रही है, टुसी, जेनीबच्ची और मेरी पत्नी की ओर से प्यार के साथ, तुम्हारा मूर”।

लेकिन एंगेल्स फिर एंगेल्स थे। एक योद्धा, पूरी दुनिया के सर्वहारा के सबसे प्रिय दो साथी शिक्षकों में से एक। कुछेक हफ्तों के बाद वह काम पर लौट आये।

लगभग डेढ़ दशक के बाद लिखी गई एक चिट्ठी में एंगेल्स ने लिज्जी बर्न्स के बारे में कहा, “मेरी पत्नी … सच्ची आइरिश सर्वहारा खानदान की थी। पूंजीवादियों की ‘शिक्षित’ व ‘संवेदनशील’ बेटियों की शिष्टताओं और बारीकियों से कहीं अधिक मेरे लिये मूल्यवान थी अपने वर्ग के लिए मेरी पत्नी की जन्मजात तीव्र अनुभूतियाँ और वे, सभी कठिन परिस्थितियों में मेरे लिए अधिक बड़ा सहारा बनती रही।” [8 मार्च 1892, जुली बेबेल को लिखी गई चिट्ठी]

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2: समसामयिक इतिहास के विभिन्न प्रसंग पर मार्क्सवादी दृष्टि - एंगेल्स के लन्दन लौटने तक एक बड़ी घटना हो चुकी थी। जर्मनी में समाजवादी-विरोधी कानून लागू हो चुके थे। फिर भी, रचनासमग्र के अनुसार, इस हमले को सन्दर्भ में रखते हुए उनका पहला प्रकाशित संक्षिप्त एक प्रतिवेदन 21 मार्च 1879 का है। चिट्ठियाँ भी उस समय तक कम ही हैं। यह अन्दाजा लगाया जा सकता है कि चूँकि जर्मनी के सारे समाजवादी अखबार एवं पत्रपत्रिकाओं पर पाबन्दी लगा दी गई थी, राजनीतिक प्रतिवेदनों के छपने की गुंजाइश भी कम हो गई थी। जर्मनी में कार्यरत पार्टी के साथियों को मदद करना भी एक काम था। बाकी पूरा समय एंगेल्स प्रकृति की द्वंद्वात्मकता को दे रहे थे – अध्ययन में थे, नोट ले रहे थे या रचना को आगे बढ़ा रहे थे।

लेकिन तात्कालिक विषयों पर लेखन को पूरी तरह बन्द भी नहीं किया जा सकता था। वैचारिक संघर्ष को आगे बढ़ाने के नए रास्ते भी तलाशने थे। जर्मनी में बिस्मार्क की सरकार ने अगर समाजवादियों पर हमला बोला था तो सबसे पहले उसका तोड़ निकालना था। पार्टी का केन्द्रीय मुखपत्र वोरवार्ट्स एवं अन्य प्रकाशनों पर पाबन्दी होने के कारण सोचा गया कि एक नया केन्द्रीय मुखपत्र, डेर सोज़्यलडेमोक्रैट, ज्युरिख (स्विट्जरलैंड) से प्रकाशित किया जाएगा। सन 1879 में जुलाई से सितम्बर महीने के बीच, लाइपजिग, ज्युरिख, पैरिस और लन्दन मे रह रहे नेताओं में पत्राचार के माध्यम से बातचीत होती रही। बातचीत के विषय थे प्रकाशन की सम्भाव्य जगह, सम्भाव्य सम्पादक मन्डल, पैसों का जुगाड़ आदि…। उसी क्रम में मार्क्स और एंगेल्स ने अगस्त बेबेल के नाम, लेकिन विल्हेल्म लिब्नेख्त, विलियम ब्रैक एवं अन्य सभी को प्राप्य एक गश्तीपत्र लिखा। इस गश्तीपत्र में दक्षिणपंथी अवसरवाद के विरुद्ध मार्क्स और एंगेल्स ने तीव्र हमला किया, क्योंकि, (पत्र में ही स्पष्ट है) दक्षिणपंथी अवसरवादी रुझान ज्युरिख से प्रकाशित होने वाले इस नये मुखपत्र पर हावी होने की कोशिश कर रहे थे। रचनासमग्र बताता है कि इस गश्तीपत्र के मसविदे को एंगेल्स ने 11 सितम्बर 1879 को तैयार किया। मार्क्स उस वक्त रैम्सगेट में थे अपनी बड़ी बेटी के पास। 17 तारीख को उनके लौटने के बाद गश्तीपत्र को अन्तिम रूप दिया गया और भेजा गया। भेजा गया गश्तीपत्र, मूल रूप में अगस्त बेबेल के पत्र के जबाब में एंगेल्स का पत्र ही रहा; भेजा गया मार्क्स और एंगेल्स दोनों की ओर से।

एंगेल्स के आलेखों के प्रकाशन का सिलसिला फिर सन 1880 के मार्च महीने से शुरू होता है। ला एगालिते नाम के फ्रांसीसी अखबार में दो किश्तों में एक आलेख प्रकाशित हुआ, श्रीमान बिस्मार्क का समाजवाद । अपने तात्कालिक ऐतिहासिक सन्दर्भों से इतर यह आलेख यह भी दर्शाता है कि शोषकवर्गों की अधिकारवादी राज्यसत्ता, समाजवादी ताकतों पर हमले से ध्यान हटाने के लिये जब जनता के पक्ष में आर्थिक योजनाओं और सुधारों की बात करती है तब भी वह पूंजीवादी ताकतों, सट्टाबाजारियों और तमाम तरह के शोषकों को ही फायदा पहुँचाती है। यह आलेख उन्होने फरवरी 1880 में लिखा।

मार्च से मई के बीच ही तीन किश्तों में, एक अन्य फ्रांसीसी अखबार ला रेव्यु सोश्यलिस्त में प्रकाशित हुआ एंगेल्स रचित अति-परिचित आलेख समाजवाद: काल्पनिक एवं वैज्ञानिक । पॉल लाफार्ग के अनुरोध पर ड्युहरिंग मतखण्डन के तीन अध्यायों के फ्रांसीसी भाषा में पुनर्लिखन से यह आलेख तैयार हुआ था। पिछले एक सौ चालीस वर्षों में, दुनिया की अनेकों भाषाओं में इस पुस्तिका के अनुवाद एवं एंगेल्स के जीवित रहते, कई संस्करण हो चुके हैं। आज भी यह सरल भाषा में वैज्ञानिक समाजवाद के बारे में जानने की प्राथमिक पुस्तिका है।

समसामयिक इतिहास के विभिन्न प्रसंगों पर मार्क्सवादी दृष्टि डालने वाले प्रकाशित आलेखों का सिलसिला फिर एक साल के बाद, मई 1881 से शुरू होता है। उसके पहले के दो महत्वपूर्ण आलेख मिलते हैं मार्क्स के साथ संयुक्त नाम से। पहला, सन 1830 में पोलैंड में हुई क्रांति की 50वीं वर्षगाँठ पर जेनेवा में होने वाली बैठक के लिये संदेश, जिस पर मार्क्स और एंगेल्स के अलावे पॉल लाफार्ग और फ्रेडेरिक लेस्नर के भी हस्ताक्षर थे। 4 दिसम्बर 1880 को यह संदेश ला प्रिकार्सर में प्रकाशित हुआ एवं बाद में, पोलिश भाषा में पर्चे के रूप में छपा। दूसरा, 21 मार्च 1881 को लिखा गया बहुत छोटा सा एक सन्देश है पैरिस कम्यून के दसवीं वर्षगाँठ मनाने वाले स्लाभभाषियों की बैठक के अध्यक्ष के नाम। छोटा होने पर भी महत्वपूर्ण है क्योंकि पैरिस कम्यून के बलिदान को तीन समकालीन घटनाओं में रेखांकित किया गया है; (1) रूस के सेन्ट पीटर्सबर्ग में एक नारोदनिक संगठन द्वारा जार अलेक्सन्डर 2 की हत्या, (2) प्रशियाई राज्यसत्ता का अपने ही राज में भयाक्रांत हो कर समाजवादी-विरोधी कानून लागु करना, और (3) अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति भंग किये जाने के बावजूद योरोप और अमरीका के श्रमिकों की उभरती पहले से भी बड़ी और व्यापक एकता।

मई 1881 से एंगेल्स को इंग्लैंड से प्रकाशित द लेबर स्टैन्डर्ड में नियमित लिखने का प्रस्ताव मिला। उक्त अखबार के वैचारिक रुख को जानते हुए भी एंगेल्स ने प्रस्ताव को स्वीकार किया। क्योंकि, सन 1881 तक योरोप और अमरीका का श्रमिक आन्दोलन एक ऊँचाई तक पहुँच गया था जबकि इंग्लैंड का श्रमिक आन्दोलन ट्रेड युनियनवाद में फँसा हुआ था। यह तथ्य हमें एंगेल्स की सोवियत जीवनी से ही मिलता है कि उन्नीसवीं सदी के सत्तर के दशक के अन्त तक जर्मनी के अलावे ऑस्ट्रिया, फ्रांस, बेल्जियम, डेनमार्क, स्पेन एवं पोर्तुगल में समाजवादी पार्टियाँ बन चुकी थीं, भले ही वे सभी वैज्ञानिक समाजवाद के विचारधारा पर न चल रही हों। उत्तरी अमरीका में समाजवादी श्रमिक पार्टी बन गई थी। कुछ दिनों के बाद हंगरी में जेनरल वर्कर्स पार्टी बनी, नेदरलैंडस में सोश्यल-डेमोक्रैट्क युनियन बना जबकि उत्तरी इटली में वर्कर्स पार्टी बनी। फ्रांस की पार्टी पर मार्क्स और एंगेल्स का विशेष ध्यान था क्योंकि कम्यून के पराजय के बाद जो वहाँ दमन का सिलसिला चला था उसमें फ्रांसीसी समाजवादियों को मदद की जरूरत थी। लेकिन इंग्लैंड में पूरी तरह ट्रेड युनियनवाद का ही बोलबाला था। बाद में कभी एंगेल्स ने कहा भी था कि एक ट्रेड युनियनवादी अखबार में लिख कर उन्होने, “पुराने चार्टिस्ट आन्दोलन के साथ जुड़ कर लेबर स्टैन्डर्ड के माध्यम से अपने विचारों को फैलाने का” प्रयास किया था।

द लेबर स्टैन्डर्ड में एंगेल्स, गहन वैचारिक विषयों को छोड़ कर श्रमिकों के जीवन और आर्थिक सरोकारों पर लेख लिखते गये। वाजिब दिन के काम के बदले वाजिब दिन की मजदूरी, मजदूरी प्रणाली, ट्रेड युनियनें, फ्रांसीसी वाणिज्यिक समझौता, दो मॉडल नगर परिषदें, अमरीका में खाद्य और जमीन के प्रश्न, मजदूरी के सिद्धांत और मकई-विरोधी कानून लीग, श्रमजीवियों की पार्टी, बिस्मार्क और जर्मन श्रमिक पार्टी, कपास और लोहा, सामाजिक वर्ग – आवश्यक एवं अनावश्यक ,,,। अगस्त 1881 तक लिखे गए इस तरह के लेखों का सिलसिला एंगेल्स ने बन्द कर दिया क्योंकि अखबार के सम्पादक से मतभेद बढ़ता ही जा रहा था।

तीन साल पहले एंगेल्स की पत्नी गुजर गई थी। अब मार्क्स की पत्नी बीमार थी। जेनी वॉन वेस्टफैलेन की तबियत इस साल शुरू के महीनों से ही बिगड़ती जा रही थी। उधर खुद मार्क्स भी बीमार पड़ रहे थे बार बार और डाक्टर के सुझाव पर सूखी ह्वा के इलाकों में जा कर बिता रहे थे कुछेक हफ्ते; कभी पत्नी के साथ तो कभी जेनी के बिस्तर से उठने लायक न रहने पर अकेले। मार्क्स की बड़ी बेटी का भी तकलीफ भरा जीवन था। सबसे करीब के एक अभिभावक के तौर पर एंगेल्स मार्क्स की बे्टियों, जेनी, लॉरा एवं इलियानोर या जेनी और लॉरा के सन्तानों से उतना ही जुड़े थे जितना मार्क्स। एंगेल्स के परिवार की अपनी परेशानियाँ थीं। लिज्जी की भांजी अब बड़ी हो गई थी। उसने एक व्यक्ति से शादी कर ली थी लेकिन उसकी बचपन की आदतें बरकरार थी। उसके विवाहित जीवन के खर्च भी एंगेल्स को उठाना पड़ रहा था।

एंगेल्स के खर्च 1978 के अक्तूबर महीने के बाद एक और कारण से बढ़ गये थे। जर्मनी में समाजवादी-विरोधी कानूनों का दौर शुरू होने के बाद कई समाजवादी नेता आर्थिक कष्ट में थे। किन्ही की नौकरी चली गई थी। किन्ही को गिरफ्तारी का खतरा था। कोई मुकदमा में फँसा दिया गया था। उन सभी को एंगेल्स मदद करते थे। ठीक उसी तरह, जिस तरह पैरिस कम्यून के पराजय के बाद वह कम्यून के योद्धा साथियों का मदद करते रहे थे। सारे कामों, उलझनों और परेशानियों के बाद जो फुरसत मिलता था, उसमें वह विज्ञान का अध्ययन करते हुए प्रकृति की द्वंद्वात्मकता पर अपना काम आगे बढ़ा रहे थे। वर्ष 1881 के अन्त में एंगेल्स को एक और कठिन आघात से गुजरना था।

सघन वैचारिक लेखन की ओर – 2

4 दिसम्बर 1881 को लम्बी कष्टदायक बीमारी के बाद, 67 साल की उम्र में मार्क्स की पत्नी जेनी वॉन वेस्टफैलेन गुजर गईं। उनके लिवर में कैंसर चिन्हित किया गया था। मार्क्स खुद उस समय गंभीर रूप से बीमार थे। 7 तारीख को बड़ी बेटी को लिखी गई चिट्ठी से उनकी तकलीफदेह मन:स्थिति का पता चलता है। डाक्टरों ने उनके बाहर जाने पर भी पाबन्दी लगा दी थी, यानि वह अपनी पत्नी के अन्तिम क्रिया में शामिल नहीं रह सकते थे।

एंगेल्स के लिए यह मृत्यु एक दोहरा आघात था। जेनी उन पर सबसे अधिक भरोसा करती थी। सम्पन्न परिवार की बेटी होते हुए भी जेनी ने मार्क्स से कभी यह शिकायत नहीं की कि उनका जीवन नष्ट हो गया। भले मार्क्स अपने अन्तरंग क्षणों में इस बात को लेकर कष्ट झेलते रहे हों। दोनों बचपन के दोस्त थे, और प्रेमविवाह किया था। … ब्रसेल्स से रातोंरात मार्क्स निकाल दिए गये। जेनी गर्भ से थी। गोद में कुछेक महीनों की थी बड़ी वाली बेटी। अकेली ही पीछे पीछे गई। गर्भ के सन्तान का जन्म पैरिस में हुआ। फिर वहाँ से भी मार्क्स निकाल दिए गये। तीसरी बेटी का जन्म लन्दन में हुआ। इस बीच, या बाद में जन्मे और चार सन्तान - तीन लड़के और एक लड़की - बचपन में ही गुजर गये। दिन प्रतिदिन के जीवन में कितनी बदहाली झेलनी पड़ी। कभी बच्चों का स्कूल जाना बन्द हो गया, कभी दुकानदार का कारिंदा घर पर बकाए की रकम वसूलने के लिए आ गया, कभी घर के बर्तन गिरवी रखने पड़े; ठंड झेलने लायक कपड़े नहीं रहते थे अक्सर। इन सब कष्टों से भी अधिक होते थे विरोधियों द्वारा उछाले गये उन झूठे, कुत्सित आरोपों के कष्ट जो मार्क्स झेलते थे और साथ में वह भी झेलती थी। और इन बुरे लम्हों में, मार्क्स से अगर खिचखिच होती थी तो इस शिकायत पर होती थी कि मार्क्स ने जरूर अपने दोस्त से सही स्थिति का बयान नहीं किया होगा। झेंप गये होंगे। नहीं तो ऐसा हो ही नहीं सकता है कि एंगेल्स जाने और तत्काल कुछ व्यवस्था न करें।

इतना ही भरोसा था जेनी का, और अपनेपन का दावा था एंगेल्स पर। दूसरी ओर, एंगेल्स जानते थे कि जेनी की क्या भूमिका है मार्क्स के जीवन में। भावनात्मक साहचर्य तो था ही, तमाम घरेलू काम काज में लेंचेन [हेलेन डेमुथ] की मदद करते हुए जेनी मार्क्स की सचिव और संघर्ष के साथी भी होती थी। चिट्ठियाँ लिखती थी, डाकघर जाती थी, कागज सहेज कर रखती थी…। खबरें लेती थी दुनिया के श्रमिक आन्दोलन की। अपनी योग्यता से अच्छी नाट्य-आलोचक थी वह। लेकिन लन्दन के जीवन में उस काम में आगे बढ़ने के अधिक मौके नहीं मिले। पूरी तरह सर्वहारा आन्दोलन की हो गई। क्रांतिकारी औरतें, या क्रांतिकारी पुरुष नेताओं की पत्नियाँ जो मार्क्स के घर आती थी, जेनी की मित्रता, सर्वहारा आन्दोलन के बारे में जानने की उत्सुकता और सहज आतिथेयता की यादें सहेज कर ले जाती थी। … हालाँकि, छोटी बेटी इलियानोर के बड़ी हो जाने के बाद सचिव वाले काम से उन्हे थोड़ा राहत मिला था। एंगेल्स के साथ भी उनके पत्राचार के बड़े हिस्से में यही बातें होती थी – जर्मनी से कल कौन आया था, क्या बात हुई है, आज पैरिस से कौन आया था, क्या संदेश देकर गया है, मार्क्स ने आपको अमुक विषय पर एक लेख लिखने को कहा है, मार्क्स का वह लेख मैं कॉपी करने बैठी थी लेकिन लगता है वह थोड़ा ज्यादा ही गहराई में जा रहे हैं [यानि बार बार नया कॉपी करना पड़ रहा है] …। तो एंगेल्स के लिए यह भी एक बड़ा आघात इस एहसास में था कि अब मार्क्स कितने अकेले हो गये, वह भी इस बीमार हालत में।

जेनी की मृत्यु के बाद एंगेल्स के दो आलेख आये। एक अंग्रेजी में, जिसका फ्रांसीसी अनुवाद ला इगालिते में छपा। इसका मजमून उन्होने जेनी की समाधि पर पढ़े जाने वाले भाषण के मसौदे के रूप में तैयार किया था। दूसरा, इसी के आधार पर जर्मन में लिखा, जो डेर सोज़्यलडेमोक्रैट में छपा। दोनों में जेनी के बारे में उन्होने लिखा, “उस दिन से” [शादी के दिन से] “उन्होने अपने पति के भाग्य, श्रम और संघर्षों का सिर्फ अनुसरण ही नहीं किया, बल्कि, श्रेष्ठतम बुद्धि एवं गहनतम उत्साह के साथ उनमें सक्रिय हिस्सा लिया। …ऐसी स्पष्ट व आलोचक बुद्धिमत्ता, राजनीतिक चातुर्य, व्यग्र ऊर्जावान व्यक्तित्व एवं आत्मत्याग की क्षमता के साथ एक स्त्री ने क्रांतिकारी आन्दोलन के लिये क्या कुछ किया, वह प्रचार में नहीं भेजा गया, पत्रिकाओं के कॉलमों में दर्ज नहीं हुआ।”

उधर रूस में कम्युनिस्ट घोषणापत्र का दूसरा संस्करण छपने वाला था। कई वर्षों से मार्क्स और एंगेल्स रूस के क्रांतिकारियों से सम्पर्क रखे हुए थे। साठ के दशक में घोषणापत्र का पहला रूसी अनुवाद बाकुनिन ने किया था। यह नया अनुवाद प्लेखानोव द्वारा किया जा रहा था।

जेनी की मृत्यु के समय मार्क्स ब्रॉंकाईटिस एवं प्लुरिसी से गंभीर रूप से पीड़ित थे। थोड़ा ठीक होने पर उन्हे कुछ दिनों के लिये इंग्लैंड के दक्षिण तरफ के एक शहर में कुछ दिनों के लिए भेज दिया गया था, कि गर्म और सूखी हवा की आदत पड़ जाय तो और आगे अलजियर्स जा कर रहेंगे। कुछ दिनों में थोड़ा आराम हुआ तो वह वापस लन्दन आ गये। 21 जनवरी को एंगेल्स और वह साथ बैठ कर घोषणापत्र के द्वितीय रुसी संस्करण के लिए एक भूमिका लिखे। इस भूमिका में अन्य बातों के अलावे एक महत्वपूर्ण सवाल पर उन्होने अपनी व्याख्या प्रस्तुत किया। ऐतिहासिक तौर पर रूसी क्रांतिकारियों के बीच बहस का एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा रूसी समाज के पारम्परिक ग्रामीण कम्यूनों  के प्रति रुख। इसके पहले भी विभिन्न लेखों और व्यक्तिगत चिट्ठियों में मार्क्स और एंगेल्स इस मुद्दे पर अपनी राय देते रहे थे। इस बार दोनों की संयुक्त राय, आधिकारिक तौर पर, यानि कम्युनिस्ट घोषणापत्र की भूमिका में जा रही थी।

मार्क्स और एंगेल्स के मित्र थे एक जर्मन रसायनशास्त्री कार्ल स्कोर्लेमर, जो इस समय एंगेल्स के घर पर नियमित आते जाते थे या अक्सर रह भी जाया करते थे। वह खुले तौर पर साम्यवाद के साथ थे और एक ऐसे समय में जब चारों तरफ दार्शनिक हेगेल को तुच्छ किया जा रहा था, वह हेगेल के प्रति ऊँचा सम्मान रखते थे। इन कारणों से उन्हे ‘लाल रसायनशास्त्री’ भी कहा जाता था। हाइड्रोकार्बन सम्बन्धित शोध में एवं रसायनशास्त्र के इतिहास में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। सन 1882 के शुरुआती दिनों में वह एंगेल्स के ही साथ समय बिता रहे थे क्योंकि मार्क्स को स्वास्थ्य सुधारने के लिये पहले वेन्टनॉर (दक्षिण इंग्लैंड) और फिर अलजियर्स (फ्रांसीसी उपनिवेश) भेज दिया गया था। स्वाभाविक तौर पर एंगेल्स पूरी तरह व्यस्त थे प्रकृति की द्वंद्वात्मकता पर अपने काम में, क्योंकि स्कोर्लेमर के साथ बातचीत भी प्रकृति विज्ञान के विषयों पर ही होती थी।

साथ ही, एक और काम में वह बीच बीच में लगते थे। सन 1978 में, जब लिज्जी बीमार थीं, तभी उन्होने जर्मनी का एक इतिहास लिखने की योजना बनाई थी। हालाँकि, यह इतिहास भी पूरी लिखी नहीं जा सकी और जितना वह लिख पाये थे उसका प्रकाशन भी, प्रकृति की द्वंद्वात्मकता की तरह, उनके जीवनकाल में नहीं हो पाया। लेकिन सन 1882 की शुरुआती महीनों में इस रचना को भी वह धीरे धीरे आगे बढ़ा रहे थे। मार्क्स के साथ न रहने एवं लन्दन में रह कर काम करने में अक्षम होने के कारण एंगेल्स पर दबाव भी ज्यादा था। हर दो-तीन दिन पर मार्क्स के घर पर भी जाना पड़ता था। घर पर सिर्फ लेंचेन (हेलेन डेमुथ) रहती थी। टुसी इलियानोर) कभी कभी आकर रहती थी। जेनी लोंग्वे भी कभी कभी आती थी। कभी किसी देश से कोई साथी मार्क्स को भेजे गये किसी आवश्यक अनुत्तरित पत्र या पर्चे का जिक्र कर दे तो एंगेल्स को मार्क्स के पढ़ने-लिखने के घर से उसे ढूंढ़ निकालना पड़ता था। कभी लेंचेन के हाथों में कुछ पैसे दे आने के लिए भी जाना पड़ता था ताकि घर चल सके। खुद भी थोड़ा अस्वस्थ्य रहते थे इन दिनों। लन्दन के मौसम के कारण जुकाम रहता था और बाएँ कान से कम सुनते थे।

इसी रोजमर्रे के बीच अप्रैल के मध्य में खबर आई कि जर्मनी में ब्रुनो बाउअर की मृत्यु हो गई है 13 तारीख को। मार्क्स-एंगेल्स रचित जर्मन विचारधारा में आलोचना के केन्द्र में ब्रुनो बाउअर भी थे। बाद के दिनों में अखबारों, पत्रिकाओं में उनकी कोई चर्चा नहीं रहती थी। एंगेल्स को यह बात तकलीफ दे गई। कम से कम मृत्यु एक अवसर था ब्रुनो बाउअर के सकारात्मक योगदानों को याद करने का। एंगेल्स ने याद किया कि ब्रुनो बाउअर ने ईसाइयत के इतिहास पर महत्वपूर्ण काम किया था जिसकी जरूरत धर्मशास्त्रियों को भी है और समाजवादियों को भी। धर्मशास्त्री उनके लेखों से चुरा चुराकर लिखते रहे लेकिन उनके बारे में कभी एक शब्द नहीं कहा। एंगेल्स का यह आलेख, ब्रुनो बाउअर एवं शुरूआती ईसाइयत पहला आलेख था डेर सोज़्यलडेमोक्रैट के लिए।

उसी अखबार के लिए एक छोटी सी रचना एंगेल्स ने अगस्त या सितम्बर महीने में लिख भेजा। दर असल वह एक अंग्रेजी राजनीतिक लोकगीत का जर्मन अनुवाद था। ब्रे का छोटा पादरी (द विकार ऑफ ब्रे) एक ऐसे पादरी का आत्मकथन था जो हर राजा, हर सत्ता के प्रति अपनी विश्वस्तता जाहिर करता था। गीत के अनुवाद के साथ एंगेल्स की टिप्पणी थी कि यही स्थिति आज भी है। और जर्मनी में तो हमने बहुत सारे राजनीतिक दलबदलू पादरियों की जगह ‘ब्रे के पोप’ (बिस्मार्क) को ही सत्तासीन कर दिया है जो हर दिन खुद ही राजनीतिक सिद्धांतो को बदल कर अपनी कुर्सी को बचा लेता है। और क्यों न हो! ‘सब कुछ ईश्वर की महिमा के लिए’! जिसका जर्मन में अर्थ है, सबकुछ ज्यादा टैक्स उसूलने के लिए और ज्यादा बड़ी सेना खड़ी करने के लिए!

सितम्बर महीने में लिखा गया और प्रकाशित एक महत्वपूर्ण आलेख है द मार्क । मार्क, प्राचीन व मध्यकालीन, न सिर्फ जर्मनी बल्कि आसपास के कई देशों के हिस्से में व्याप्त एक प्रकार के सामाजिक संगठन थे जो मुक्त छोटे किसानों के छोटे समूहों द्वारा बने, और भूमि के सामुदायिक कर्षण के कुछ नियमों पर टिके हुए थे। राजनीतिक और आर्थिक दोनों रूप से हर एक मार्क एक स्वतंत्र समुदाय हुआ करते थे और उनका बड़ा राजनीतिक प्रभाव पूरे समाज पर होता था। अपनी संरचना में इसके शुरुआती सदस्य नि:संदेह रक्तसम्बन्ध से रिश्तेदार थे। एंगेल्स इस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक आलेख द्वारा भूसम्पत्ति की तत्कालीन पूंजीवादी-सामंती व्यवस्था पर हमला करते हैं। यह आलेख उनकी पुस्तिका, समाजवाद: वैज्ञानिक एवं काल्पनिक के जर्मन संस्करण के परिशिष्ट के रूप में छापा गया। बाद में, अंग्रेजी संस्करण में भी इसका अंग्रेजी अनुवाद परिशिष्ट के रूप में रहा। द मार्क लिखने के साथ एंगेल्स ने समाजवाद: वैज्ञानिक एवं काल्पनिक को पुस्तिका का रूप देने के लिए एक प्राक्कथन भी लिखा।   

3: प्रकृति विज्ञान के क्षेत्र में भौतिकतावाद – इस तथ्य से सभी वाकिफ हैं कि प्रकृति की द्वंद्वात्मकता एंगेल्स के जीवनकाल में नहीं छपी थी। वस्तुत: छपने जैसी स्थिति में एंगेल्स ला भी नहीं पाये थे। मार्क्स की मृत्यु के बाद पूंजी के दूसरे एवं तीसरे खण्डों के सम्पादन एवं प्रकाशन के काम में वह इतना व्यस्त हो गये कि प्रकृति की द्वंद्वात्मकता पर अपने काम को आगे बढ़ाने के बारे में उन्हे फिर सोचने का भी मौका नहीं मिला। वर्ष 1895 में एंगेल्स की मृत्यु के बाद इस अधूरे ग्रंथ की पाण्डुलिपि एडवर्ड बर्नस्टाइन के हाथ आई। इस पाण्डुलिपि से दो लेख, ‘अध्यात्म दुनिया में प्रकृति विज्ञान’ एवं ‘वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका’ एंगेल्स की मृत्यु के बाद छपे। बाकी पाण्डुलिपि उनतीस वर्षों तक बर्नस्टाइन के पास पड़ी रही। 1939 में प्रकाशित इसके अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका में प्रख्यात जीवशास्त्री जे॰ बी॰ एस॰ हैल्डेन लिखते हैं, “न सिर्फ मार्क्सवाद के लिये वल्कि प्रकृति विज्ञान की सभी शाखाओं के लिए यह बड़े दुर्भाग्य की बात थी कि, बर्नस्टाइन ने, जिनके हाथों में यह पाण्डुलिपि सन 1895 में एंगेल्स की मृत्यु के बाद आई थी, इसे प्रकाशित नहीं किया। सन 1924 में उन्होने इसे (या इसके अंश) आइनस्टाइन को सुपुर्द किया। आइनस्टाइन ने, आधुनिक भौतिकशास्त्र की दृष्टि से इस पाण्डुलिपि को बहुत अधिक रुचिकर नहीं समझा लेकिन सामान्यत: इसके प्रकाशन के पक्ष में थे। अगर, जिसकी सम्भावना बनती है, कि आइनस्टाइन ने सिर्फ विद्युतशक्ति वाला लेख देखा होगा, उनकी दुविधा समझी जा सकती है, क्योंकि उस लेख में ऐसे सवालों पर विचार किए गए हैं जो आज बहूत दूर पीछे के लगते हैं।

क्यों एंगेल्स ने इस तरह के एक काम में हाथ लगायां? क्यों मार्क्स और एंगेल्स बरसों तक आपस में एवं दूसरे वैज्ञानिक मित्रों के साथ विज्ञान के विभिन्न प्रसंगो पर पत्राचार करते रहे? क्यों मार्क्स गणित का अध्ययन करते हुए इतने सारे नोट्स तैयार किए कि अब वे नोट्स पुस्तक के रूप में उपलब्ध हैं और पढ़े जाते हैं? अपनी भूमिका के शुरू में ही हैल्डेन लिखते हैं, “विज्ञान के साथ मार्क्सवाद के द्विस्तरीय सम्बन्ध हैं। पहला तो यह कि मार्क्सवादीलोग मानव की अन्य गतिविधियों के साथ विज्ञान का अध्ययन करते हैं। वे दर्शाते हैं कि किसी समाज में वैज्ञानिक गतिविधियाँ उस समाज की बदलती आवश्यकताओं पर निर्भर करती हैं, यानि अन्तत: उस समाज की उत्पादक पद्धतियों पर। वे दर्शाते हैं कि किस तरह विज्ञान उन उत्पादक पद्धतियों को, और फलस्वरूप पूरे समाज को बदल देता है। यह विश्लेषण इतिहास के अध्ययन के वैज्ञानिक तरीके के लिए जरूरी है और अब गैर-मार्क्सवादी भी अंशत: इसे स्वीकार रहे हैं। लेकिन सम्बन्ध का दूसरा स्तर यह भी है कि मार्क्स और एंगेल्स समाज के परिवर्तनों के विश्लेषण से ही संतुष्ट नहीं थे। द्वंद्वात्मकता में उन्होने सिर्फ समाज में और मानव चिन्तन में ही नहीं, बल्कि उस बाहरी दुनिया में क्रियाशील, परिवर्तन के सामान्य नियमों के विज्ञान को देखा जिसका प्रतिफलन मानव चिन्तन में होता है। कहने का अर्थ है कि द्वंद्वात्मकता को ‘विशुद्ध’ विज्ञान की समस्याओं और विज्ञान के सामाजिक सम्बन्धों, दोनों पर लागू किया जा सकता है।

मार्क्स-एंगेल्स रचनासमग्र की सम्बन्धित टिप्पणी में दर्ज है कि एंगेल्स ने जनवरी 1873 में अपने शोध को एक खण्डनात्मक रूप देने को सोचा था लेकिन बाद में अलग से इस विषय पर एक पुस्तक लिखने की योजना बनाई। सन 1873 से 1878 की गर्मियों तक उन्होने सामग्रियाँ इकट्ठी की और उसके बाद से 1882 की गर्मियों तक उन्होने इस पुस्तक में शामिल विषयों पर अध्याय, या अध्यायों के खाके तैयार किये। आगे हम फिर उद्धरण की मदद लेंगे, रचनासमग्र में दी गई लम्बी टिप्पणी से।

प्रकृति की द्वंद्वात्मकता हम तक चार पुलिंदों में पहुँचा था। उन्ही चार पुलिन्दों में एंगेल्स ने इस कृति से सम्बन्धित अपने सभी लेख एवं टिप्पणियों को बाँट कर रखा था। पुलिन्दों पर निम्नलिखित शीर्षक दिए हुए थे: (1) ‘द्वंद्वात्मकता एवं प्रकृति विज्ञान’, (2) ‘प्रकृति एवं द्वंद्वात्मकता की जाँच’, (3) ‘प्रकृति की द्वंद्वात्मकता’ एवं (4) ‘गणित एवं प्रकृति विज्ञान। विविध’। सिर्फ दूसरे और तीसरे पुलिन्दे में लेखक द्वारा विषयसूची तैयार की गई थी जिससे पुलिन्दे की सामग्रियों को कैसे व्यवस्थित किया जाय इसका इशारा मिलता था। पहले और चौथे पुलिन्दों के बारे में हम निश्चित नहीं हो सकते कि पन्ने उसी ढंग से हमने व्यवस्थित किया है ठीक जैसा एंगेल्स चाहते होते।

“पहले पुलिन्दे (‘द्वंद्वात्मकता एवं प्रकृति विज्ञान’) में दो भाग हैं: (1) 11 दुपल्ला पन्ने में लिखी गई टिप्पणियाँ हैं, सभी पर ‘प्रकृति की द्वंद्वात्मकता’ शीर्षक एवं पृष्ठसंख्या डाला हुआ है। सभी टिप्पणियाँ एक दूसरे से विभाजक रेखा द्वारा अलग की हुई है एवं समयशृंखला में व्यवस्थित है। (2) 20 पन्ने जिन पृष्ठसंख्या नहीं हैं, सब में या तो एक बड़ी टिप्पणी है या कई छोटी टिप्पणियाँ, विभाजक रेखा से अलग की हुई। इन्ही टिप्पणियों में दी गई सूचना के अनुसार हम उन पर तिथि डालने में सक्षम हुए हैं।

“दूसरे पुलिन्दे (‘प्रकृति एवं द्वंद्वात्मकता की जाँच’) में तीन बड़ी टिप्पणियाँ हैं: ‘वास्तविक दुनिया में गाणितिक अनन्त के आद्यरूप’, ‘प्रकृति की यांत्रिक अवधारणा पर’, ‘अनन्त को जानने की नागेली की अक्षमता पर’ [इनके अलावे] ‘ड्युहरिंग मतखण्डन का पुराना प्राक्कथन: द्वंद्वात्मकता पर’, एक लेख ‘वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका’ और एक लेख का बड़ा टुकड़ा ‘फायरबाख से हटाया गया’। इस पुलिन्दे में एंगेल्स द्वारा बनाई गई विषयसूची से मालूम होता है कि इसमें दो और आलेख शामिल थे, ‘गति के बुनियादी रूप’ तथा ‘अध्यात्म दुनिया में प्रकृति विज्ञान’। बाद में एंगेल्स ने इन दो शीर्षकों को दूसरे पुलिन्दे की विषयसूची से काट कर तीसरे पुलिन्दे में डाल दिया। तीसरे पुलिन्दे में ही एंगेल्स ने अपनी इस असमाप्त रचना के अधिक पूरे किए गए हिस्से शामिल कर लिए।

“तीसरे पुलिन्दे (प्रकृति की द्वंद्वात्मकता) में छे सबसे अधिक पूरे किए गए आलेख हैं; ‘गति के बुनियादी रूप’, ‘गति का मान – क्रिया’, ‘विद्युतशक्ति’, ‘अध्यात्म दुनिया में प्रकृतिविज्ञान’, ‘भूमिका’ एवं ‘ज्वार का घर्षण’।

“चौथे पुलिन्दे (‘गणित एवं प्रकृतिविज्ञान। विविध) में दो असमाप्त अध्याय हैं, ‘द्वंद्वात्मकता’ एवं ‘ताप’; पृष्ठसंख्यारहित 18 पन्ने हैं, सभी में या तो एक दीर्घ टिप्पणी है या कई छोटी छोटी – जिन्हे विभाजक रेखाओं से अलग किया गया है; और कई पन्ने हैं जिनमें गाणितिक गणनायें हैं। चौथे पुलिन्दे की टिप्पणियों में ही प्रकृति की द्वंद्वात्मकता के रूपरेखा की दो योजनाएं हैं।”

रचनासमग्र की उपरोक्त टिप्पणी में यह भी दर्ज है कि चारों पुलिन्दों की कुछ कुछ सामग्रियाँ वस्तुत: प्रकृति की द्वंद्वात्मकता के लिए नहीं थीं, ड्युहरिंग मतखण्डन की थी या अन्य उद्देश्य से, लेकिन उन्हे इस पुस्तक के लिए शामिल कर लिया गया था।

सन 1925 में एवं फिर बाद में इस पुस्तक का जो संस्करण सोवियत संघ द्वारा प्रकाशित हुआ, उसमें उपरोक्त सामग्रियों का विभाजन दो भाग में किया गया। प्रकाशित पुस्तक के पहले भाग में है मोटे तौर पर अधिक पूरे किए गए लेख और हिस्से: (1) भूमिका; (2) ड्युहरिंग मतखण्डन का पुराना प्राक्कथन। द्वंद्वात्मकता पर; (3) अध्यात्म दुनिया में प्रकृति विज्ञान; (4) द्वंद्वात्मकता; (5) गति के बुनियादी रूप; (6) गति का मान – क्रिया; (7) ज्वार का घर्षण; (8) ताप; (9) विद्युतशक्ति; (10) वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका।

पुस्तक के दूसरे भाग में हैं अधूरे मसौदे: (1) विज्ञान के इतिहास से; (2) प्रकृति विज्ञान एवं दर्शन; (3) द्वंद्वात्मकता; (4) वस्तु के गति के रूप। विज्ञानों का वर्गीकरण; (5) गणित; (6) यांत्रिकी एवं खगोलविद्या; (7) भौतिकशास्त्र; (8) रसायनशास्त्र; (9) जीवविज्ञान।

इस असमाप्त कृति का इससे अधिक सारसंक्षेप सम्भव नहीं। अध्याय का अन्त करने से पहले इस कृति की भूमिका से एंगेल्स के अपने कुछ शब्द उद्धृत करें:

हम सब मानते हैं कि प्रकृतिविज्ञान में हो या इतिहासविज्ञान में, विज्ञान के सभी क्षेत्र में उपलब्ध तथ्यों के आधार पर ही आगे बढ़ना पड़ता है। प्रकृतिविज्ञान के लिए इसका अर्थ है कि वस्तु” [वास्तविकता] “के एवं वस्तु की गति के विभिन्न रूपों से; इसलिए सैद्धांतिक प्रकृतिविज्ञान में भी, तथ्यों में अन्तर्सम्बन्ध बनाए नहीं जाते बल्कि उन्ही तथ्यों में आविष्कृत किए जाते हैं, और आविष्कृत होने पर जहाँ तक सम्भव हो, प्रयोग द्वारा परखे जाते हैं।”

“आनुभविक प्रकृतिविज्ञान ज्ञान के लिये सकारात्मक सामग्रियों का इतना बड़ा ढेर इकट्ठा किया है कि इन्हे प्रणालीबद्ध तरीके से एवं इनके आन्तरिक अन्तर्सम्बन्धों के अनुसार जाँच के अलग अलग क्षेत्रों में वर्गीकृत करना नितांत जरूरी हो गया है। उतना ही जरूरी होता जा रहा है ज्ञान के अलग अलग क्षेत्रों को एक दूसरे के साथ सही सम्बन्धों में लाना। हालाँकि, ऐसा करने में प्रकृतिविज्ञान सिद्धांत के क्षेत्र में प्रवेश करता है और यहाँ अनुभववाद की पद्धतियाँ काम नहीं करती। यहाँ सिर्फ सैद्धांतिक चिन्तन मदद कर सकती है। लेकिन सैद्धांतिक चिन्तन का गुण किसी की प्राकृतिक क्षमता के हिसाब से सहजात होता है। इस प्राकृतिक क्षमता को विकसित करना पड़ता है, बेहतर बनाना पड़ता है और अभी तक के दर्शनशास्त्र के अध्ययन के सिवा इसकी बेहतरी का और कोई उपाय नहीं है।

“हर युग में और इसलिए हमारे युग में भी सैद्धांतिक चिन्तन एक ऐतिहासिक उत्पाद है जो भिन्न भिन्न समय में बहुत भिन्न रूप ग्रहण करता है और साथ में बहुत भिन्न अन्तर्वस्तु ग्रहण करता है। इसलिए, चिन्तन का विज्ञान भी अन्य विज्ञानों की तरह एक ऐतिहासिक विज्ञान – मानवचिन्तन के ऐतिहासिक विकास का विज्ञान है। और यह बात आनुभविक क्षेत्रों में चिन्तन के व्यवहारिक प्रयोग के लिए भी जरूरी है।”

मार्क्स की मृत्यु

मार्क्स और एंगेल्स, दोनों के अधूरी कृतियों, आलेखों एवं सम्भावित आलेखों के लिए की गई टिप्पणियों के संग्रह के अंबार हैं। अगर मार्क्स के मैथमेटिकल नोटबुक्स हैं, तो एंगेल्स के, प्रकृति की द्वंद्वात्मकता है, अधूरे इतिहास हैं, आयरलैंड के, जर्मनी के। प्रकृति की द्वंद्वात्मकता अधूरा होते हुए भी सैद्धांतिक मार्क्सवाद का सुत्र-ग्रंथ है। पिछले अध्याय में इस ग्रंथ की चर्चा हो चुकी है। आयरलैंड के अधूरे इतिहास की चर्चा पहले ही, कालानुक्रम में, हो चुकी है। वर्ष 1882 के शुरुआती महीनों में, प्रकृति की द्वंद्वात्मकता पर काम को आगे बढ़ाने के साथ साथ एक और काम को वह आगे बढ़ा रहे थे। अगर प्रकृति की द्वंद्वात्मकता को उन्होने 1873 में शुरू किया था, जर्मनी के इतिहास पर काम को उन्होने 1880 में शुरू किया था। जिस तरह आयरलैंड के इतिहास पर काम की शुरुआत उन्होने इस सवाल का जबाब ढूंढ़ने के लिए किया था कि बार बार कोशिशों के बावजूद आयरलैंड क्यों इंग्लैंड के उपनिवेशवाद से मुक्त नहीं हो पा रहा है, क्या है उसके समाज के बनावट की ऐतिहासिक पेचीदगी, जर्मनी के प्राचीन और मध्ययुगीन इतिहास पर काम की शुरुआत उन्होने, जर्मन जाति की राजनीतिक-भौगोलिक एकता के आलोक में जर्मन किसानों की समकालीन दशा की छानबीन करने और जर्मनी में कार्यरत समाजवादियों को किसानों के बीच काम करने के लिए प्रेरित करने के लिए किया था। पिछले अध्याय में जर्मन इतिहास की इसी पाण्डुलिपि में से एंगेल्स के आलेख द मार्क की चर्चा हो चुकी है, जो बाद में समाजवाद: काल्पनिक या वैज्ञानिक के परिशिष्ट या संयोजन के तौर पर जुड़ गया। उस आलेख के अन्त में वह कहते हैं, “यह है किसानों के बारे में हमारी दृष्टि। और मुक्त किसान वर्ग की” [भूदास प्रथा से] “वापसी, भले ही वह कितना भी भूखा और कमजोर क्यों न हो, का यही महत्व है – कि इसने किसानों को, अपने स्वाभाविक साथी श्रमिकों की मदद से, खुद की सहायता करने की स्थिति में ला दिया है। बस, जितनी जल्दी वह जान जाए, किस तरह।“ आगे एंगेल्स सम्बोधित करते हैं, “इस बारे में सोचो, जर्मन किसानों। सिर्फ सामाजिक-जनवादी ही तुम्हारी मदद कर सकते हैं।”

दिनांक 16 दिसम्बर 1882 को एंगेल्स, मार्क्स को लिखी गई चिट्ठी के साथ द मार्क की पाण्डुलिपि भी भेजे थे। उसी चिट्ठी में, एंगेल्स ने, अपने मन में उलझ रहे सवालों का भी जिक्र किया है।

………….…

वर्ष 1883 के फरवरी महीने में डाक्टरों की सलाह पर मार्क्स अलजियर्स [तत्कालीन फ्रांसीसी उपनिवेश, अभी स्वतंत्र अलजिरिया की राजधानी] गये थे। वहाँ वह 20 फरवरी से 2 मई तक थे। जाते हुए वह पैरिस के एक उपनगर अर्जेन्तेल होते हुए गए थे जहाँ उनकी बड़ी बेटी जेनी लोंग्वे और दामाद शार्ल लोंग्वे अपने बच्चों के साथ रहते थे। यही अपनी बेटी से उनकी आखरी भेंट थी। जेनी को इंग्लैंड में रहते ही कैंसर हुआ था। फ्रांस जाने के बाद स्थिति बहुत सुधरी नहीं। अगले साल 11 जनवरी को जेनी गुजर गई। इनके लिए भी शोकवार्ता लिखने का जिम्मा एंगेल्स पर ही आया। लिखा जाना स्वाभाविक था क्योंकि मृदुभाषी जेनी अन्याय के प्रतिवाद में पीछे नहीं रहती थी। आयरलैंड के बगावत के बाद आइरिश बन्दियों के साथ अंग्रेज सरकार का कैसा बर्ताव था इसका पर्दाफाश वह अखबार के पन्नों पर की थी और फलस्वरूप सरकार तत्काल हरकत में आई थी। 18 जनवरी को जेनी लोंग्वे के निधन पर एंगेल्स का लिखा शोकवार्ता या स्मृति-आलेख डेर सोज़्यलडेमोक्रैट में छपा था।

इस शोकवार्ता के बाद से 14 मार्च तक एंगेल्स का कहीं कोई आलेख किसी अखबार में नही छपा है। मार्क्स की आखरी चिट्ठी (रचनासमग्र के अनुसार) 13 जनवरी की है जिसमें वह अपने डाक्टर को बेटी की मृत्यु की चर्चा करते हुए वेन्टनोर (जहाँ वह उस समय थे) से लन्दन जाने की सूचना दे रहे हैं। एंगेल्स की कई चिट्ठियाँ हैं, बर्नस्टाइन, काउत्स्की, बेबेल को राजनीति आदि से सम्बन्धित और लॉरा लाफार्ग को व्यक्तिगत, लेकिन सभी में मार्क्स की बिगड़ती स्थिति का जिक्र है। यह भी जिक्र है कि बड़ी बेटी जेनी के निधन से मार्क्स गहरे सदमें में हैं।

अंत में 14 मार्च का वह अपराह्न आया। पहला टेलिग्राम एंगेल्स ने चार्ल्स लोंग्वे को किया कि अपराह्न तीन बजे मार्क्स गुजर गये। दूसरा टेलिग्राम फ्रेडरिक एडोल्फ सोर्ज को किया। इसके बाद अगस्त बेबेल को और फिर बहुत सारे साथियों को एंगेल्स ने टेलिग्राम या नोट भेजा, जिनका जिक्र दूसरी चिट्ठियों में है पर वे उपलब्ध नहीं हैं। फिर उसी शाम को लिब्नेख्त को लिखी गई एक लम्बी चिट्ठी में उन्होने बयान किया: “ठीक दो बजे अपराह्न के बाद” [हर दिन इसी वक्त एंगेल्स अपने दोस्त से मिलने जाते थे] “मैंने पूरे घर को आँसुओं में पाया और मुझे कहा गया कि वह बहुत ज्यादा कमजोर हैं। लेंचेन मुझे उपर आने के लिए आवाज दी। बोली कि वह अर्धनिद्रा में है। और जब मैं वहाँ पहुँचा – लेंचेन बस दो मिनट के लिए बाहर आई थी – वह गहरी निद्रा में था, लेकिन यह चिरनिद्रा थी। इस सदी के द्वितीय अर्धांश के सबसे बड़ी प्रतिभा ने सोचना बन्द कर दिया था।

और कई समाजवादी साथियों को लिखी गई उनकी चिट्ठियाँ मौजूद हैं जिनमें इस पीड़ादायक पल के वर्णन के साथ साथ सान्त्वना की भी कुछ बातें हैं। कुछ आगे के कार्यभार की भी चर्चा है। मार्क्स के निधन के अगले ही दिन एंगेल्स ने सन 1848 के संघर्षों के साथी जोहान फिलिप बेकर को लिखा, “सन ’48 के पहले के, पुराने सैनिकों में से बस हम दो ही अब बचे हैं। ठीक है, तो हम ही दरार” [मार्क्स की मृत्यु के कारण बनी शून्यता] “को पाटेंगे। गोलियाँ चल सकती हैं और दोस्त गिर सकते हैं, पर यह होते हुए हम पहली बार नहीं देख रहे हैं। और हम में से किसी को अगर गोली लगे – लगे! बस सही जगह पर लगनी चाहिए ताकि बहुत देर तक छटपटाते नहीं रहे।”

एंगेल्स के अकेलेपन को देखते हुए कई साथियों ने सुझाव दिया कि वह किसी और जगह चले जाएँ। लेकिन एंगेल्स के दिमाग में स्पष्ट था कि अब तो वह कहीं भी नहीं जायेंगे। एक तो इसलिए कि इंग्लैंड का राजनीतिक माहौल उन दिनों सबसे अधिक शान्त था, अचानक किसी दिन देश-निकाला करार दिए जाने आशंका नहीं थी, और मार्क्स की मृत्यु के बाद कागजातों की इन पेटियों को ढो ढो कर वह कहाँ कहाँ जाएंगे? जाएंगे तो मार्क्स की रचनाओं का काम कैसे पूरा होगा? अगस्त बेबेल को उन्होने 30 अप्रैल 1883 को लिखा, “अगर कोई अपना सैद्धांतिक काम करते रहना चाहे तो उसे जिस तरह की शांति की जरूरत होती है, वैसी शांति सिर्फ यहीं है। बाकी सभी जगहों पर व्यवहारिक आन्दोलनों में भाग लेना पड़ेगा और बहुत ज्यादा समय नष्ट करना पड़ेगा। जहाँ तक व्यवहारिक आन्दोलनों का सवाल है, मुझे लगता है कि मैं किसी से भी अधिक अनुभव प्राप्त कर चुका हूँ, और जहाँ तक सैद्धांतिक काम का सवाल है, अभी तक मुझे नहीं दिख रहा है कि मार्क्स की और मेरी जगह कौन लेगा। युवाओं ने अभी तक इस दिशा में जितने भी प्रयास किए हैं उसके मूल्य बहुत कम हैं, अधिकांशत: शून्य से भी कम हैं। एकमात्र आदमी है काउट्स्की, जो अध्ययन में खुद को लगाता है, उसे जीविका के लिए लिखना पड़ता है। अगर कोई और कारण न भी हो, सिर्फ इसी कारण से वह कुछ कर नहीं पाएगा। मैं अभी तिरसठवें साल की उम्र में हूँ। आँखों तक अपने काम से ढका हुआ था ही, उस पर अब आ गया मार्क्स की पूंजी के दूसरे खण्ड पर सम्भावित एक साल का काम। एक और साल का काम मार्क्स की जीवनी और साथ में सन 1843 से 1863 तक के जर्मन समाजवादी आन्दोलन तथा सन 1864 से 1872 तक के अन्तरराष्ट्रीय के इतिहास पर। मेरे लिए यह निरा पागलपन होगा अगर मैं मेरे इस शांतिपूर्ण बसेरे के बदले कोई ऐसी जगह चुन लूँ जहाँ पर मुझे बैठकों में और अखबारी लड़ाइयों में भाग लेना पड़ेगा। उतना ही काफी है किसी की दृष्टि को धुंधला देने के लिए, और फिर वह धुंधला ही देगा। बेशक, अगर स्थितियाँ वैसी होती जैसी सन 1848 और 1849 में थीं, तो मैं फिर से घोड़े पर जिन डाल लेता।”  

मार्क्स की समाधि पर एंगेल्स ने जो भाषण दिया उसे सबों ने पढ़ा है। वर्षों से हिन्दी में उपलब्ध है वह भाषण। फिर भी उसी भाषण के कुछ हिस्सों को हम यहाँ उद्धृत करेंगे। यह शायद अनावश्यक नहीं प्रतीत होगा, क्योंकि उन हिस्सों में मार्क्स के ऐतिहासिक कामों का जो संक्षिप्त उल्लेख है, वे काम, मार्क्स के साथ उनकी चार दशकों की मित्रता के बौद्धिक एवं भावनात्मक संसार में ही पले-बढ़े हैं, और इस तरह वे एंगेल्स के भी जीवन के हिस्से हैं।

जैसे कि जैव प्रकृति में डार्विन ने विकास के नियम का पता लगाया था, वैसे ही मानव इतिहास में मार्क्स ने विकास के नियम का पता लगाया था। उन्होने इस सीधी-सादी सच्चाई का पता लगाया जो अब तक विचारधारा की अतिवृद्धि से ढकी हुई थी – कि राजनी्ति, विज्ञान, कला, धर्म, आदि में लगने के पूर्व ननुष्य जाति को खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना और सिर के ऊपर साया चाहिए। इसलिए जीविका के तात्कालिक भौतिक साधनों का उत्पादन और फलत: किसी युग में अथवा किसी जाति द्वारा उपलब्ध आर्थिक विकास की यात्रा ही वह आधार है जिस पर राजकीय संस्थाएं, कानूनी धारणाएं, कला और यहाँ तक लि धर्म सम्बन्धी धारणाएं भी विकसित होती हैं। इसलिए इस आधार के ही प्रकाश में इन सबकी व्याख्या की जा सकती है, न कि इससे उल्टा, जैसा कि अब तक होता रहा है।

परन्तु इतना ही नहीं, मार्क्स ने गति के उस विशेष नियम का भी पता लगाया जिससे उत्पादन की वर्तमान पूंजिवादी प्रणाली और इस प्रणाली से उत्पन्न पूंजीवादी समाज, दोनों ही नियंत्रित हैं। अतिरिक्त मूल्य के आविष्कार से एकबारगी उस समस्या पर प्रकाश पड़ा, जिसे हल करने की कोशिश में किया गया अब तक का सारा अन्वेषण – चाहे वह पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों ने किया हो या समाजवादी आलोचकों ने, अंध अन्वेषण ही था।

आगे एंगेल्स मार्क्स के व्यक्तिगत गुण के तर्ज पर एक बात लिखते हैं जो व्यक्तिगत नही वल्कि उस वाद का भी चरित्र है जो विश्व में उनके नाम से जाना जाता है, “…… वैज्ञानिक थे वह। परन्तु वैज्ञानिक का उनका रूप उनके समग्र व्यक्तित्व का अर्धांश भी नहीं था। मार्क्स के लिए विज्ञान ऐतिहासिक रूप से एक गतिशील, क्रांतिकारी शक्ति था। वैज्ञानिक सिद्धांतों में किसी नई खोज से, जिसके व्यवहारिक प्रयोग का अनुमान लगाना अभी सर्वथा असम्भव हो, उन्हे कितनी भी प्रसन्नता क्यों न हो, जब उनकी खोज से उद्योग-धंधे और सामान्यत: ऐतिहासिक विकास में कोई तात्कालिक क्रांतिकारी परिवर्तन होते दिखाई देते थे, तब उन्हे बिल्कुल ही दूसरे ढंग की प्रसन्नता का अनुभव होता था। …

मार्क्स सर्वोपरि क्रांतिकारी थे। जीवन में उनका असली उद्देश्य किसी न किसी तरह पूंजीवादी समाज और उससे पैदा होने वाली राजकीय संस्थाओं के ध्वंस में योगदान करना था, आधुनिक सर्वहारा वर्ग को आजाद करने में योग देना था … संघर्ष करना उनका सहज गुण था। और उन्होने ऐसे जोश, ऐसी लगन और सफलता के साथ संघर्ष किया जिसका मुकाबला नहीं है। …

इस सबके फलस्वरूप मार्क्स अपने युग में सबसे अधिक विद्वेष तथा लांछना के शिकार बने। … मार्क्स इस सब को यूँ झटकारकर अलग कर देते थे जैसे वह मकड़ी का जाला हो …”

[मार्क्सिस्ट इंटरनेट आर्काइव के हिन्दी संग्रह से]

मार्क्स ने कहा था कि मृत्यु के बाद उन्हे दफनाने के समय शोक-जुलूस जैसा कोई आड़म्बर नहीं किया जाय। इसलिए, 17 मार्च को हाइगेट समाधिस्थल पर (उस हिस्से में जहाँ औपचारिक नागरिक समाज एवं गीर्जा के द्वारा बहिष्कृत लोग दफनाए जाते थे), सामान्य एक पर्व के तौर पर उन्हे दफनाया गया। वहीं दो साल पहले उनकी पत्नी जेनी वॉन वेस्टफैलेन दफनाई गई थीं। एंगेल्स के अलावे वहाँ उपस्थित थे – पॉल एवं लॉरा लाफार्ग (जो फ्रांस के श्रमिक पार्टी का भी प्रतिनिधित्व कर रहे थे), शार्ल लोंग्वे (दो महीने पहले मृत मार्क्स की बड़ी बेटी के पति), इलियानोर मार्क्स-एवलिंग और उनके पति एडवर्ड एवलिंग, हेलेन डेमुथ, मार्क्स के साथ कम्युनिस्ट लीग में काम किए हुए साथी विल्हेल्म लिब्नेख्त, फ्रेडरिक लेस्नर और जी॰ लोचनर, दो महत्वपूर्ण वैज्ञानिक, एड्विन रे लैंकेस्टर, जीवशास्त्री एवं कार्ल स्कोर्लेमर, रसायनविद, गॉटलीब लेम्के एवं अर्नेस्ट रैडफोर्ड (कवि)। डेर सोज़्यलडेमोक्रैट तथा लन्दन स्थित जर्मन श्रमिक शिक्षा समिति की ओर से कब्र पर फूल के गजरे रखे गए। इनके शोक-संदेश शार्ल लोंग्वे द्वारा पढ़े गए।

यह भी बताते चलें कि इस समाधिस्थल पर अन्तत: चार समाधियाँ बनी - मार्क्स की पत्नी जेनी की, खुद कार्ल मार्क्स की, उनका नाती हैरी लोंग्वे की (जिसकी मृत्यु बचपन में ही हो चुकी थी) और बाद में घर की रखवाली करनेवाली हेलेना डेमुथ की। सन 1954 में मार्क्स स्मारक कमिटी, इंग्लैंड की ओर से इस मूल समाधिस्थल से 100 मीटर दूर एक नई जगह खरीदी गई एवं चारों मृत व्यक्तियों के ताबूत पुराने समाधिस्थल से उठाकर नई जगह पर समाधिस्थ किये गये। उसी पर पत्थर का स्मृतिस्तम्भ खड़ा किया गया और मार्क्स की प्रतिमा लगाई गई, जो आज हम तस्वीरों में देखते हैं। सन 1956 में ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव ने इस स्मृतिस्तम्भ और प्रतिमा का अनावरण किया था।

एंगेल्स अब अपना सारा काम छोड़ कर पूरी तरह मार्क्स के अध्ययन कक्ष में उनकी रचनाओं या यूँ कहें उनके हाथों के लिखावट वाले सारे कागजातों को ढूंढ़ने, इकट्ठा करने, व्यवस्थित करने और सम्पादित करने में लग गए। और इलियानोर, जिस तरह सोलह वर्षों की उम्र से मार्क्स की सचिव थी, अब एंगेल्स को अभिलेखन के इस काम में सहयोग करने में जुट गई। 22 मई 1883 को एंगेल्स जेनेवा में जोहान फिलिप बेकर को लिखते हैं:

जो बात मुझे आश्चर्यचकित करती है, वह है कि मार्क्स ने सन 1848 के पहले के समय के भी कागजों, चिट्ठियों और पाण्डुलिपियों को बचा कर रखा है। जीवनी के लिए भव्य सामग्रियाँ हैं; मैं बेशक लिखूंगा वह जीवनी और वह साथ ही साथ, न्यु राइनिशे जाइटुंग तथा निचली राइन अंचल में वर्ष 1848-49 के आन्दोलन का भी इतिहास होगा। आगे चलकर वह इतिहास, वर्ष 1849 और 1852 के बीच, धूर्तता से मार्क्स को लन्दन प्रवास में धकेल दिये जाने का और अन्तरराष्ट्रीय के बनने का भी इतिहास होगा। पहला कार्यभार है पूंजी के खण्ड II का सम्पादन और वह कोई मजाक नहीं है। ग्रंथ II * के 4 या 5 पुनरीक्षण है जिनमें से सिर्फ पहला पूरा है। बाकी बस शुरू किए गए हैं। जब आप मार्क्स जैसे आदमी की लिखी हुई चीजों पर काम करेंगे, जो एक एक शब्द को तौलते थे, तो फिर वे कुछ मेहनत की मांग करेंगी। लेकिन मेरे लिए यह प्यार की मेहनत है; आखिर मैं फिर से अपने पुराने साथी के साथ होऊंगा।

पिछले कुछेक दिनों से मैं वर्ष 1842-62 की अवधि में से चिट्ठियाँ चुन रहा हूँ। पुराने समय पर नजर दौड़ाने पर वे दिन फिर से जीवित हो उठे; वे सारे मजे भी जो हम अपने विरोधियों की हँसी उड़ाकर किए करते थे। कुछ हमारी पुरानी करतूतों को याद करते हुए हँसते हँसते रुलाई आ गई। हमारे विरोधी आखिर हमारे हँसोड़ मिजाज को खत्म कर ही नहीं पाए। लेकिन फिर कभी कभी काफी गंभीर पल भी आते रहते थे।

*ग्रंथ II खण्ड II का मूल कथ्यभाग है

वर्ष 1883 लगभग पूरा, पहले तो मार्क्स की पाण्डुलिपियों को सम्हालने में और फिर, पूंजी पहले खण्ड के तीसरे जर्मन संस्करण को तैयार करने में लग गये। 29 जून 1883 को एंगेल्स फ्रेडरिक ऐडोल्फ सोर्ज को लिखते हैं, “पूंजी के तीसरे संस्करण के चलते मुझ्र बहुत ज्यादा काम करना पड़ रहा है … पूरे सैद्धांतिक भाग को लगभग पूरी तरह पुनरीक्षित करने का मामला है।” इसका कारण था कि मार्क्स के जो अन्तिम सुधार थे वह फ्रांसीसी अनुवाद पर किए गए थे, जबकि फ्रांसीसी अनुवाद सही था ही नहीं। यानि हर एक सुधार को, पहले फ्रांसीसी, फिर जर्मन संस्करण से मिलान करने के बाद ही मूल कथ्य में परिवर्तन करना था।

चूँकि अब मार्क्स नहीं थे, उन तमाम साथियों की चिट्ठियों के भी जबाब देने पड़ते थे, जो पहले मार्क्स को ही ज्यादा लिखते थे। उन सवालों के जबाब देने पड़ते थे जो अब तक मार्क्स देते रहे थे। इनमें प्रमुखतम थे रूस के साथी क्योंकि रूस में क्रांतिकारी गतिविधियाँ तेजी से बढ़ने लगी थी।

फिर भी, कुछ कुछ छोटे आलेख इस बीच वे लिखते रहे जो डेर सोज़्यलडेमोक्रैट के अलावे अन्य अखबारों में भी प्रकाशित होते रहे। रचनासमग्र के अनुसार, मई में उनके मित्र कवि वीर्थ की एक कविता पर आधारित आलेख तथा ईसाईयत के ऐतिहासिक विश्लेषण पर एक आलेख प्रकाशित हुए दिखते हैं। जून महीने में कम्युनिस्ट घोषणापत्र के सन 1883 में प्रकाशित जर्मन संस्करण का आमुख लिखा और दुख के साथ कहा कि यह घोषणापत्र का पहला संस्करण होगा जो सिर्फ उनके हस्ताक्षर से प्रकाशित होगा। इसी आमुख में एंगेल्स ने घोषणापत्र के सैद्धांतिक सार को एक पैरा में वर्णित करते हुए इसका श्रेय मार्क्स को दिया। यह भी कहा कि यह श्रेय वह पहले से ही देते आ रहे थे पर अब घोषणापत्र के पृष्ठों में यह दर्ज हो जाना चाहिए। इन्ही पंक्तियों को एंगेल्स ने सन 1888 में प्रकाशित अंग्रेजी संस्करण में दोहराया। वैसे सभी साथी घोषणापत्र को पढ़ते हुए भूमिका के इन शब्दों को पढ़े होंगे, पर यहाँ भी उन्हे दोहराना अच्छा रहेगा।

प्रत्येक ऐतिहासिक युग में, आर्थिक उत्पादन तथा विनिमय की चलती हुई रीति तथा उससे अनिवार्यतः उत्पन्न होने वाली सामाजिक संरचना उस आधार का निर्माण करती है जिस पर उस युग के राजनीतिक तथा बौद्धिक इतिहास का निर्माण होता है और उस आधार से ही तत्कालीन राजनीतिक तथा बौद्धिक इतिहास की व्याख्या की जा सकती हैपरिणामस्वरूप, मानवजाति का पूरा इतिहास (आदिम कबिलाई समाज के, जिसमें भूमि पर सबका स्वामित्व होता था, विघटन से लेकर) वर्ग संघर्षों, शोषकों तथा शोषितों, शासकों तथा शासितों के बीच संघर्षों का इतिहास रहा हैइन वर्ग संघर्षों का इतिहास अपने विकासक्रम में आज एक ऐसे चरण पर पहुंच चुका है जहां शोषित तथा उत्पीड़ित वर्ग – सर्वहारा - पूरे समाज को शोषण, उत्पीड़न, वर्ग विभेदों तथा वर्ग संघर्षों से सदा-सर्वदा के लिए मुक्त किए बिना, उत्पीड़न तथा शोषण करने वाले वर्ग - पूंजीपति वर्ग - के जुए से अपने को मुक्त नहीं कर सकता

1845 से पहले हम दोनों अलग-अलग कुछ वर्षों से, धीरे-धीरे इसी प्रस्थापना की ओर बढ़ते रहे, जो मेरी राय में इतिहास के लिए अनिवार्यतः वही भूमिका अदा करेगी, जो भूमिका डारविन के सिद्धांत ने जीव-विज्ञान के लिए अदा की है मैं इस प्रस्थापना की ओर स्वतंत्र रूप से कहां तक बढ़ सका था, यह सबसे अच्छी तरह मेरी रचना इंग्लैंड में मजदूर वर्ग की स्थिति में देखा जा सकता है परंतु जब 1845 के बसंत में मैं फिर मार्क्स से ब्रसेल्स में मिला तो वे इस विचार को पहले ही विकसित कर चुके थे, और उन्होंने लगभग उतनी ही स्पष्टता के साथ उस समय इस विचार को मेरे सामने पेश किया, जितने स्पष्ट रूप में मैंने यहां बयान किया है

दिनांक 12-13 जून 1883 को एंगेल्स बर्नस्टाइन को एक चिट्ठी लिखते हैं जिसमें अपने सामने जो काम है उसे सिलसिलेवार बताते हैं:

“1) कागजों को व्यवस्थित करना;” [रचनासमग्र की सम्बन्धित टिप्पणी बताती है कि इस काम को करने में एंगेल्स को मार्च 1884 तक का समय लगा था, जिसके बाद उन्हे वह अपने घर पर ले गये थे] “यह काम मुझे कमोबेश अकेले ही करना होगा क्यों कि मेरे सिवा और कोई भी इन पुराने कागजों का महत्व नहीं जानता है। एक विशालकाय ढेर है जो पूरी तरह अस्तव्यस्त है। बहुत कुछ अभी तक मिला नहीं है और कई सारे पैकेट व बक्से अभी खोले भी नहीं गये हैं।

“2) तीसरे संस्करण को” [पूंजी के] “देखना, खुदरे बदलाव तथा फ्रांसीसी संस्करण से कुछ सुधारों को शामिल करते हुए। इस सबके ऊपर, प्रुफ देखना।

“3) अंग्रेजी अनुवाद” [पूंजी के] “निकालने का जो अवसर हाथ आया है उसका लाभ उठाना – इस सम्बन्ध में आज मैं यहाँ एक बड़े प्रकाशक के पास गया था – और फिर अनुवाद को खुद पुनरीक्षित करना (अनुवाद जो कर रहा है, मूर, वह एक नम्बर का अनुवादक है, पिछले 26 वर्षों से हमारा दोस्त है, लेकिन धीमा है)।

“4) खण्ड II” [पूंजी] “की शुरुआत के तीसरे और चौथे रूप का मिलान करना है और प्रेस के लिये तैयार करना है, साथ ही पूरे द्वितीय खण्ड की एक साफ प्रति तैयार करनी है।”

………

सघन वैचारिक लेखन की ओर – 3

मार्क्स की मृत्यु के बाद एक साल तक उनका घर छोड़ा नहीं जा सका था। शुरू शुरू में तो इलियानोर (मार्क्स की छोटी बेटी, टुसी) और हेलेन डेमुथ (घर का देखभाल करनेवाली) वहाँ रहती भी थीं। रोज एंगेल्स जाते थे और इलियानोर व हेलेन के साथ मिल कर मार्क्स के अध्ययन कक्ष, दूसरी जगहें, अखबारों के ढेर, भंडार घर छान छान कर मार्क्स के संग्रह को इकट्ठा करते थे, व्यवस्थित करते थे और थोड़ा थोड़ा अपने घर पर ले जाते थे। एक चिट्ठी में एंगेल्स जिक्र करते हैं कि दो घन मीटर जगह में तो सिर्फ रूसी सांखिकी की वर्षपंजियाँ हैं जिन्हे मार्क्स ने पूंजी के दूसरे खण्ड, पूंजी का परिचलन के लिए जुटाया था। फिर श्रमिक आन्दोलनों से सम्बन्धित दस्तावेज थे। …

एंगेल्स भी अब पहले की तरह स्वस्थ् नहीं रह रहे थे। बीच बीच में समुद्र के किनारे कहीं जाकर कुछ दिन बिता कर आते थे। साथ में अक्सर लिज्जी की भांजी पम्प्स, उसके पति, बच्चे, रसायनविद मित्र स्कोर्लेमर एवं कोई और मित्र होते थे। उधर जब इलियानोर ने अपना अलग घर ले लिया तो हेलेन डेमुथ या लेंचेन या ‘निम’ (ये दोनो हेलेन के घरेलु नाम थे) चली आईं थीं एंगेल्स के घर। उन्होने न सिर्फ इस घर का जिम्मा ले लिया बल्कि इतने दिनों तक राजनीतिक घटनाक्रमों की गवाह रहने के कारण एंगेल्स की सबसे करीबी राजनीतिक विश्वासपात्र बन गईं। उनके आने से एंगेल्स को राहत मिला, नहीं तो पम्प्स, उसके पति, बच्चे इन सबके बीच वह परेशान हो जाते थे। मार्क्स के संग्रह की किताबें कुछ कुछ इलियानोर ले गई, कुछ शायद लॉरा ले गई (उसे अन्तरराष्ट्रीय से सम्बन्धित दस्तावेज चाहिए थे) और बाकी किताबें जर्मनी में सामाजिक-जनवादियों के ग्रंथालयों को दे दी गई। अन्तत:, सारे कागजातों का इन्तजाम हो जाने के बाद 24 मार्च 1884 को घर खाली कर दिया गया और घर के मालिक को चाभी सुपुर्द कर दी गई।

मार्क्स रचित दर्शन की दरिद्रता, प्रुधों के ‘दरिद्रता का दर्शन’ का जबाब था और फ्रांसीसी भाषा में ही लिखा हुआ था। सन 1847 में इसका प्रकाशन हुआ था। पैंतीस वर्षों के बाद, जर्मन भाषा में इसका अनुवाद करने को सोचे एडवर्ड बर्नस्टाइन। बाद में कार्ल काउट्स्की भी उनके साथ जुट गए। एंगेल्स ने उन्हे बधाई दिया एवं साल के अन्त में (1883) अनुवाद का सम्पादन किया। 1847 में प्रकाशित फ्रांसीसी संस्करण के पृष्ठों पर मार्क्स द्वारा किए गए सुधारों के आलोक में जर्मन अनुवाद में टिप्पणियाँ जोड़ीं और एक विशेष आमुख लिखा जिसमें मार्क्स पर एक व्यक्ति द्वारा उछाले गए झूठे लांछनों का जबाब दिया गया। बर्नस्टाइन को वह लिखते हैं, “जैसा मैने एकबार काउट्स्की को कहा था, हम मार्क्स के तरीके का नकल तो नहीं कर सकते, लेकिन हमारा तरीका मार्क्स से बिल्कुल अलग नहीं हो सकता। अगर तुम इस बात को हमेशा दिमाग में रखो, तब शायद हम एक ऐसा काम कर पायेंगे जो पाठकों के बीच पेश किये जाने लायक हो।”

जैसा एंगेल्स ने खुद से वादा किया था कि वह मार्क्स की ऐसी जीवनी लिखेंगे जो न्यु राइनिशे जाइटुंग तथा सन 1848 में निचले राइन के इलाकों के संघर्षों का इतिहास होगा, उससे सम्बन्धित एक आलेख हमें मार्च 1884 में मिलता है। इस आलेख में अखबार के सम्पादक के रूप में मार्क्स की असाधारण क्षमता और कुशलता की चर्चा के साथ साथ इस अखबार की जबर्दस्त लोकप्रियता और सत्तापक्ष के लोगों में बढ़ते दहशत की चर्चा है। साथ ही किस तरह एक अखबार के माध्यम से, जर्मन क्रांति में सर्वहारा के कार्यक्रम को जनता के बीच ले जाया गया इसकी भी चर्चा है।

एंगेल्स कहते थे कि मार्क्स के सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक क्रांतिकारी गतिविधियों को प्रचार में लाने का काम एक महत्वपूर्ण काम है। वह खुद उन गतिविधियों को रेखांकित करते हुए एक बड़ी जीवनी लिखने को सोचे थे। सोचे थे कि इस जीवनी में वह मार्क्स द्वारा लिखी गई चिट्ठियों एवं अन्य सामग्रियों को काम में लायेंगे। साथ ही उसमें न्यु राइनिशे जाइटुंग का इतिहास तो होगा ही, अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति के दौर का भी विशद इतिवृत्त होगा। अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति के निर्माण में मार्क्स द्वारा किए गए काम को वह इतना महत्व देते थे कि एक चिट्ठी में उन्होने कहा, “अन्तरराष्ट्रीय के बिना मार्क्स का जीवन, हीरे की उस अंगूठी जैसा होगा जिसका हीरा तोड़ कर निकाल दिया गया हो।” लेकिन समग्रता में एक बड़ी जीवनी लिखने का अवसर अन्तत: उन्हे नहीं मिला। तीन बार वह मार्क्स की जीवनी लिखे – वर्ष 1969 में, वर्ष 1877 में एवं वर्ष 1892 में। जीवन के इन वर्णन एवं आकलनों में न्यु राइनिशे जाइटुंग के दौर के महत्व को जोड़ने के लिए उन्होने अलग से आलेख लिखा जिसकी चर्चा पिछले पैरा में है। लेकिन अन्तरराष्ट्रीय में मार्क्स की भूमिका पर, वर्ष 1877 एवं 1892 की संक्षिप्त जीवनियों में जो कुछ है उसके सिवा, अलग से वह विशद में जा नहीं पाये।

4: मानवविज्ञान के क्षेत्र में भौतिकतावाद – एंगेल्स पूरी तरह पूंजी के दूसरे खण्ड के काम को कैसे आगे बढ़ाएं इसी में तल्लीन थे। बल्कि पाण्डुलिपियों से गुजरते हुए उन्हे अब लगने लगा था कि सिर्फ दूसरा खण्ड ही नहीं, तीसरा भी एक खण्ड बनाना पड़ेगा और उसके बाद भी, अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांतों के मार्क्स द्वारा किए गए पर्यवेक्षण पर भी अलग से काम करना पड़ेगा। इन सब बातों की चर्चा वह 4 फरवरी को काउट्स्की को लिखी गई चिट्ठी में कर चुके थे। लेकिन इसी बीच, मार्क्स के संग्रह में से उनके हाथ आया एक दिग्दर्शन (कॉन्स्पेक्टस), जिसमें किसी पुस्तक में से लम्बे लम्बे उद्धरण लिखे गये थे और साथ में टिप्पणियाँ जोड़ी गई थी। दिग्दर्शन वर्ष 1880-81 के दौरान तैयार किया गया था। पुस्तक का नाम था प्राचीन समाज, या वन्यजीवन से बर्बर जीवन होते हुए सभ्यता तक मानव प्रगति की धारा पर शोध । सन 1877 में लन्दन से प्रकाशित इस पुस्तक के लेखक थे  एक अमरीकी वैज्ञानिक, लुई हेनरी मॉर्गन। दिनांक 16 फरवरी को एंगेल्स ने काउट्स्की को लिखा, “समाज की आदिम स्थिति पर एक निर्णायक पुस्तक है – उतना ही जितना जीवविज्ञान के लिए डार्विन का पुस्तक था – और फिर एकबार बेशक, मार्क्स ने ही इसका आविष्कार किया था। पुस्तक है मॉर्गन का प्राचीन समाज, 1877। मार्क्स ने इसका जिक्र किया था, लेकिन मेरा दिमाग उस समय दूसरी बातों से भरा हुआ था। और फिर आगे वह जिक्र किया ही नहीं। दोबारा जिक्र करने का खयाल उसके मन में नि:सन्देह नहीं आया होगा, क्योंकि उसने खुद इस पुस्तक का परिचय जर्मन पाठकों से कराने का मन बना लिया था – उसके भरे पूरे उद्धरणों से मुझे यह बात समझ में आ रही है। विषय की अपनी सीमाओं में मॉर्गन ने, मार्क्स द्वारा प्रतिपादित इतिहास की भौतिकतावादी दृष्टि का अपने लिए पुनराविष्कार किया और ऐसे निष्कर्ष निकाले जो आधुनिक समाज के लिए पूरी तरह साम्यवादी अभिधारणाएँ हैं। … अगर मेरे पास समय होता तो मैं मार्क्स की टिप्पणियों को लेते हुए इस सामग्री पर काम करता, सोज्यलडेमोक्रैट के साहित्य-संस्कृति सम्बन्धित पृष्ठों के लिए या न्युए ज़ेइट के लिए, पर अभी इसका सवाल ही नहीं उठता है।”

लेकिन काउट्स्की, हो सकता है, जोर डाले होंगे। क्योंकि काउट्स्की को इन प्रश्नों में रुचि थी। पहले भी विवाह के प्रकार, इतिहास आदि पर उन्होने एंगेल्स की राय मांगी थी। इसलिए, 24 मार्च को एंगेल्स, काउट्स्की को लिखते हुए दिखते हैं, “जब समय मिलेगा मैं कुछ करूंगा इस पर, तुम्हारे न्युए ज़ेइट के लिए, बशर्ते तुम इसे अलग एक पुस्तिका के रूप में छापने के लिए राजी हो जाओ। … दर असल मैं मार्क्स का ॠणी हूँ इस काम के लिए और” [इसी बहाने] “मैं मार्क्स की टिप्पणियों को शामिल कर पाऊंगा।”

मार्क्स की सारी रचनाओं को विश्व के समक्ष ले आने को एंगेल्स ने अपने बाकी जीवन का ध्येय बना लिया था। और, मॉर्गन के पुस्तक पर मार्क्स के दिग्दर्शन में दर्ज टिप्पणियाँ तभी प्रकाशित हो पाती जब एंगेल्स उस पुस्तक को लिखते जो मार्क्स नहीं लिख पाए। सिर्फ इसीलिए एंगेल्स ने उस पुस्तक को लिखने का फैसला किया और आज, दुनियाभर के मानव-वैज्ञानिकों, सामाजिक-सांस्कृतिक मानव-विज्ञान के क्षेत्र-समीक्षकों, जो चाहे अफ्रिका में काम कर रहे हों या तमिलनाडु के नीलगिरि में, उस सुत्र-पुस्तक से मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं। मार्क्सवादी हों तब भी, और मार्क्सवाद-विरोधी हों तब भी। सन 1884 के अप्रैल की शुरुआत से मई के अन्त तक एंगेल्स ने लिखा परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्यसत्ता की उत्पत्ति

पुस्तक को अब मॉर्गन के पुस्तक पर टिप्पणियों का संग्रह नहीं होना था। दिग्दर्शन को देखते हुए एंगेल्स को प्रतीत हुआ कि मार्क्स, मानव समाज के प्रारम्भिक विकास के इतिहास पर अपने दृष्टिकोण से एक पुस्तक की रचना करना चाह रहे होंगे। क्योंकि, मॉर्गन के अलावे अन्य विद्वानों, मानवविज्ञानियों की रचनाओं में से भी उद्धरण थे, उन पर भी टिप्पणियाँ थीं। इसलिए एंगेल्स ने भी वही किया। मॉर्गन का पुस्तक तो आधारभूत सामग्री के रूप में था ही। साथ में उन्होने प्राचीन इतिहास पर तत्कालीन अन्य पुस्तकों, आलेखों एवं अन्य सामग्रियों का इस्तेमाल किया। उनके अपने ही अधूरे शोधकार्य के रूप में जर्मन जाति का प्रारम्भिक इतिहास भी था। आयरलैंड पर सामग्रियाँ भी थीं। इन सभी सामग्रियों का इस्तेमाल करते हुए उन्होने इस पुस्तक को लिखा। मार्क्स की लगभग सभी टिप्पणियों को ज्यों का त्यों उनके नाम से शामिल किया। यह भी दिखाया कि संक्षिप्तसार का मार्क्स द्वारा बनाया गया ढाँचा, मॉर्गन के पुस्तक से अगर अलग है, तो क्यों है। (मार्क्स द्वारा किया गया वह संक्षिप्तसार भी, रूसी अनुवाद में सन 1941 में प्रकाशित हुआ, तथा मूल अंग्रेजी में सन 1972 में, द एथनोलॉजिकल नोटबुक्स ऑफ कार्ल मार्क्स के नाम से प्रकाशित हुआ।

सोवियत संघ के प्रगति प्रकाशन द्वारा प्रकाशित परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्यसत्ता की उत्पत्ति बरसों से हिन्दी में उपलब्ध है। उस पुस्तक में मुद्रित प्रकाशकीय वक्तव्य या प्राक्कथन की पक्तियाँ पुस्तक पर प्रकाश डालती है।

परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्यसत्ता की उत्पत्ति में एंगेल्स मार्क्सवादी साहित्य में पहली बार ऐतिहासिक भौतिकतावाद के दृष्टिकोण से परिवार के आविर्भाव और विकास के प्रश्न का विवेचन करते हैं। परिवार को एक ऐतिहासिक अवधारणा मानते हुए वह प्राचीन यूथ-विवाह से लेकर निजी सम्पत्ति के आविर्भाव के साथ प्रतिष्ठित एकनिष्ठ परिवार तक उसके विभिन्न रूपों के, समाज के विकास के विभिन्न चरणों के साथ आंगिक सम्बन्ध और उत्पादन के ढंग पर इन रूपों की निर्भरता को उद्घाटित करते हैं। वह दिखाते हैं कि कैसे उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ-साथ सामाजिक व्यवस्था पर गोत्र व्यवस्था के बंधनों का प्रभाव कम होता गया और निजी स्वामित्व की विजय के साथ साथ एक ऐसे समाज का उदय हुआ जिसमें पारिवारिक ढाँचा पूर्णत: सम्पत्ति के सम्बन्धों पर आधारित था।” ……………

“एंगेल्स की रचना का काफी अंश स्वामित्व के विभिन्न रूपों के आविर्भाव एवं विकास तथा उन पर, विभिन्न सामाजिक व्यवस्थाओं की निर्भरता पर शोध से सम्बन्ध रखता है। वह अकाट्य तौर पर प्रमाणित करते हैं कि निजी स्वामित्व की प्रथा अनादि-अनन्त नहीं है और आदिमकालीन इतिहास में एक लम्बे समय तक उत्पादन के साधन सामूहिक सम्पत्ति थे। वह विस्तार से दिखाते हैं कि कैसे उत्पादक शक्तियों का विकास और श्रम-उत्पादकता की वृद्धि के साथ अन्य जनों के श्रम के फलों को हथियाने की सम्भावना और फलत:, निजी स्वामित्व तथा मानव द्वारा मानव का शोषण पैदा होते हैं और कैसे इस प्रकार समाज, विरोधी वर्गों में बँट जाता जै। राज्य की उत्पत्ति इसी का प्रत्यक्ष परिणाम थी।” ……

“राज्य की उत्पत्ति और सार की समस्या एंगेल्स की रचना का मुख्य विषय, मुख्य बिन्दु है। एंगेल्स द्वारा इस समस्या का सर्वतोमुखी विवेचन राज्य-विषयक मार्क्सवादी विचारधारा के विकास का एक महत्वपूर्ण चरण था और इस दृष्टि से उनकी पुस्तक मार्क्स की लूई बोनापार्ट की अठारहवीं ब्रुमेर, फ्रांस में गृहयुद्ध और स्वयं एंगेल्स की ड्युहरिंग मतखण्डन जैसी क्लासिक रचनाओं की श्रेणी में आती है।”

सन 1884 में इस पुस्तक के पहले संस्करण के प्रकाशित होने के बाद कई नई नई खोजें सामने आई। आज, जिस रूप में वह पुस्तक उपलब्ध है, उसमें बेशक, जैसा कि प्रकाशकीय वक्तव्य आगे कहता है कि, मॉगन के पुस्तक से लिए गए काल-विभाजन एवं तत्सम्बन्धित पारिभाषिक शब्द थोड़े बहुत सुधार की गुंजाइश रखते हैं। लेकिन, पुरातत्वविद एवं नृवंशशास्त्री व मानव-वैज्ञानिकों के उन नये नये कामों से एंगेल्स के निष्कर्ष प्रभावित नहीं हुए। बल्कि उन नई खोजों ने एंगेल्स के निष्कर्षों की फिर से पुष्टि की। फिर भी, चुँकि उन नई खोजों में नई सूचनायें थीं, नये तथ्य थे, इसलिये सन 1890 में पुस्तक का नया संस्करण तैयार करते वक्त एंगेल्स ने उन्हे समावेशित भी कर लिया।

पूंजी के दूसरे खण्ड का सम्पादन

वर्ष 1884 का अप्रैल-मई का महीना तो परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्यसत्ता की उत्पत्ति की रचना में लग गया। लेकिन पूंज़ी के दूसरे खण्ड का सम्पादन एक बड़ा काम था। ऊपर में कार्ल काउट्स्की को लिखी गई 16 फरवरी की जो चिट्ठी उद्धृत की गई है, उसके बारह दिन पहले ही, 4 फरवरी को एंगेल्स ने काउट्स्की को लिखा था:

“अन्तत:, दूसरे खण्ड के लिए, मुझे दिन की रोशनी दिखने लगी है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण भागों के लिए – यानि, दूसरे पुस्तक, पूंजी का परिचलन की शुरुआत और अंत के लिए – हमारे पास, 1875 एवं उसके बाद का एक मूलपाठ है। इसमें, सिर्फ दिए गए संकेतों के अनुसार उद्धरणों को जोड़ने के सिवा और कुछ नहीं करना पड़ेगा। बीच के भाग के लिए, 1870 के पहले से दिनांकित कम से कम चार मूलपाठ है, और यहीं कठिनाई है। तीसरा खण्ड, समग्रता में पूंजीवादी उत्पादन के दो मूलपाठ, 1869 के पहले से मौजूद हैं। उसके बाद कुछ नहीं; सिर्फ कुछेक टिप्पणियाँ एवं समीकरणों से भरा हुआ एक नोटबुक। समीकरणों का उद्देश्य उन कारणों तक पहुँचना है कि क्यों अतिरिक्त मूल्य की दर मुनाफे की दर बन जाती है। लेकिन रूस और संयुक्त राज्य” [अमरीकी] “पर संगृहित किताबों से लिए गए उद्धरणों में बड़ी मात्रा में सामग्रियाँ हैं और उनमें भूमि किराए पर विपुल संख्या में टिप्पणियाँ हैं; जबकि दूसरी सामग्रियाँ एवं टिप्पणियाँ, मुद्रापूंजी, ॠण एवं ॠणपत्र के रूप में कागजी मुद्रा इत्यादि से सम्बन्धित हैं। अभी तक मैं नहीं जानता हूँ तीसरे पुस्तक के लिए इनका मैं क्या इस्तेमाल करूंगा। हो सकता है इन्हे एक अलग प्रकाशन में एक साथ कर देना बेहतर रहेगा। अगर इन्हे पूंजी में जोड़ने की कठिनाई कुछ ज्यादा ही साबित हो तो मैं निश्चित वही करूंगा। मेरी मुख्य चिन्ता है कि पुस्तक जितनी जल्दी हो निकल जाय, और साथ ही, यह ध्यान सर्वोपरि हो कि जो पुस्तक मैं प्रकाशित करुं वह, असंदिग्ध रूप से मार्क्स का हो।”

मित्रता एंगेल्स के लिए एक सामाजिक प्रतिबद्धता थी। नहीं तो, अगर सिर्फ मित्र की रचनाओं के प्रकाशन की बात होती तो मॉर्गन के पुस्तक पर मार्क्स के ‘दिग्दर्शन’ को ही थोड़ा बहुत सम्पादित कर प्रकाशित कर देते, जैसा अट्ठासी साल बाद लोगों ने, उसका ऐतिहासिक मूल्य देखते हुए किया। लेकिन, एंगेल्स ने देखा कि यह दिग्दर्शन, समाजविज्ञान में मार्क्सवादी दृष्टि को स्पष्ट करने के उद्देश्य से एक पुस्तक की मांग करता है जो मार्क्स लिख नहीं पाए। इसलिए उस पुस्तक को एंगेल्स ने लिखा। लेकिन, इतना अधिक जो आदमी, बल्कि अपनी रचनाओं को अधूरा त्याग कर मित्र की रचनाओं के सम्पादन और प्रकाशन में जुट गया था - क्योंकि वह देख रहा था कि सर्वहारा क्रांति के लिए, वैज्ञानिक विश्वदृष्टि को उजागर करने के लिये मार्क्स की रचनाओं का प्रकाशन ज्यादा जरूरी है, वह खुद ही बीमार चल रहा था।

खास कर पूंजी के खण्डों का प्रकाशन इसलिए भी अधिक जरूरी था क्योंकि अर्थनीति एक ऐसा विज्ञान बन गया था जहाँ सबसे अधिक धुंध का कारोबार होने लगा था। दिनांक 13 अगस्त को एंगेल्स जॉर्ज हाइनरिख वॉन वोल्मर नाम के एक व्यक्ति को चिट्ठी में लिखते हैं, “आज किसी विज्ञान में काम इतने ढीले तौर पर नहीं होता है जितना अर्थनीति में; और दुनिया के सभी विश्वविद्यालयों का यही हाल है। …… इंग्लैंड और अमरीका में, फ्रांस और जर्मनी की ही तरह, सर्वहारा आन्दोलन के दबाव के कारण सभी पूंजीवादी अर्थशास्त्री लगभग निरपवाद रूप से अपने पर ‘आरामकुर्सी-वाले-समाजवादी’ सह मानवकल्याणवादी का रंग चढ़ा चुके हैं। एक तरफ जहाँ चारों तरफ आलोचनाशून्य, दयावान सारसंग्रहवाद दिखाई पड़ रहा है, दूसरी तरफ दिखाई पड़ रहा है एक नर्म, लचीला, चिपचिपा पदार्थ जिसे कोई भी इच्छित आकृति दी जा सकती है और उसी कारण से कैरियरवादियों की संस्कृति के लिए उसमें से एक उत्कृष्ट स्वास्थ्यबर्धक तरल टपकते रहता है, ठीक जैसा बैक्टिरिया कलचर [जीवाणुओं पर शोध] के लिए वास्तविक जेलाटिन से टपकते रहता है।” बल्कि इसके आगे एंगेल्स यह भी लिखते हैं कि बौद्धिक क्षय की यह प्रवृत्ति अब सामाजिक-जनवादी दलों के छोरों पर दिखे जाते लोगों में भी लगने लगी है।

इसलिए, पूंजी के खण्डों का प्रकाशन किसी भी स्थिति में रुकना नहीं चाहिए था – अगर एंगेल्स शरीर से लाचार हो जाएँ तब भी नहीं। कैसी थी उनकी शारीरिक स्थिति? दिनांक 11 अक्तूबर 1884 को वह अगस्त बेबेल को लिखते हैं, “…… जून की शुरुआत से मैं अपने लिखने की मेज पर बैठ पा रहा हूँ; बस थोड़ा दर्द होता है और डाक्टर के आदेशों का उल्लंघन करना पड़ता है। पिछले लगभग 18 महीनों से मेरी गतिविधियाँ एक अजीब सी बीमारी के कारण कम हो गई है; डाक्टरलोग भी थोड़ा हतप्रभ हैं इस बीमारी को लेकर। मेरे जीने के पुराने तरीके, जिसमें काफी आवाजाही थी, को मुझे पूरी तरह त्यागने पड़े हैं और खास कर, यह बीमारी मुझे लिखने से रोक रही है। बस पिछले दस दिनों से, यांत्रिक उपकरणों के सहारे मैं थोड़ी बहुत आजादी के साथ चल फिर पा रहा हूँ और मुझे भरोसा है कि ये उपकरण कुछ जम जाएं तो कमोबेश पुराने जीवन में लौट पाउंगा। …… जो भी हो, अगर मैं लिख नहीं पा रहा था, तो कम से कम बोल कर तो मैं लिखा पा रहा था – पूंजी के दूसरे पुस्तक को मैं पूरा का पूरा, पाण्डुलिपि से बोल कर लिखाया, और मुद्रण के लिए यथार्थत: तैयार कर दिया। साथ ही, अंग्रेजी अनुवाद के” [पहले खण्ड का] “भी 3/8वें हिस्से का मैं पुनरीक्षण कर लिया। और भी बहुत सारी चीजों का अध्ययन किया, मतलब अच्छे खासे काम किए इस बीच।”

कितनी अंतरंगता, कितना स्नेह के साथ वह पूंजी के दूसरे खण्ड का सम्पादन कर रहे थे, उसका गवाह है खुद, उनके द्वारा लिखी गई भूमिका [पहले जर्मन संस्करण 1885] की भाषा। अनुवाद, चूँकि रामविलास शर्मा जैसे विद्वान ने किया है, इसलिए हिन्दी में इस भूमिका का एक महत्व भी है:

पूंजी के दूसरे खण्ड को प्रकाशन के लिए उपयुक्त रूप देना आसान काम नहीं था। इस बात का ध्यान रखना था कि पुस्तक आन्तरिक रूप से सम्बद्ध हो और जहाँ तक हो सके, अपने में पूर्ण हो। साथ ही इस बात का ध्यान भी रखना था कि वह केवल उसके रचयिता की कृति हो, उसके सम्पादक की नहीं। जो पाण्डुलिपियाँ सुलभ थीं और जिन्हे प्रेस के लिए तैयार किया जा रहा था, वे बहुत सी थी और अधिकतर अपूर्ण थीं। इससे उपर्युक्त काम की कठिनाई और बढ़ गई। हद से हद उन्होने केवल एक पाण्डुलिपि (4) को पूरी तरह संशोधित और प्रेस के लिए तैयार किया था। लेकिन इसके बाद में संशोधन के कारण इसका अधिकतर भाग पुराना पड़ चुका था। भाषा की दृष्टि से अधिकांश सामग्री को अन्तिम रूप से परिष्कृत नहीं किया गया था, यद्यपि विषय-वस्तु की दृष्टि से उसका बहुत सा हिस्सा पूरी तरह तैयार कर लिया गया था। भाषा ऐसी ही थी, जैसी मार्क्स सामग्री संकलन करते समय इस्तेमाल करते थे: शैली में लापरवाही, बोलचाल के रूप बहुत ज्यादा, अक्सर रुक्ष, हास्यपूर्ण शब्दावली और मुहावरे, जहाँ-तहाँ अंग्रेजी और फ्रांसीसी भाषाओं के पारिभाषिक शब्द, और कभी कभी तो पूरे वाक्य ही नहीं, पन्ने के पन्ने अंग्रेजी में लिखे हुए। लेखक के दिमाग में जैसे-जैसे विचार उठते थे और रूप ग्रहण करते थे, वैसे ही वह उन्हे लिखते जाते थे। कहीं तो वह पूरी बात कहते हैं और कहीं सिर्फ इशारे से काम लेते हैं, भले ही तर्क के विषय का महत्व दोनों जगह बराबर हो। उदाहरण के लिए, तथ्य सामग्री इकट्ठा तो की गई है, लेकिन बहुत कम ही व्यवस्थित की गई है, उसे परिष्कृत करने का काम और भी कम हुआ है। अध्याय समाप्त करने पर लेखक की अगला शुरू करने की जल्दी में अक्सर अन्त में कुछ असम्बद्ध वाक्य ही हुआ करते थे, जो यह दिखाते थे कि यहाँ अपूर्ण छोड़ी गई सामग्री आगे और विकसित की जानी है। और आखिरी कठिनाई उस प्रसिद्ध लिखावट की थी, जिसे कभी-कभी लेखक खुद भी नहीं पढ़ पाते थे।”  

यह भूमिका में नहीं लिखा है कि जब ऐसा होता था कि मार्क्स अपनी लिखावट खुद नहीं पढ़ पा रहे हों तब उनका उद्धार करती थी या तो पत्नी जेनी या दोपहर के बाद पहुँचने वाले मित्र एंगेल्स।

15 अक्तूबर 1884 को एंगेल्स जोहान फिलिप बेकर को लिखते हैं, “मेरा दुर्भाग्य है कि जब से हमने मार्क्स को खोया है, मुझे उसका प्रतिनिधित्व करना पड़ रहा है। पूरी जिन्दगी मैंने उस भूमिका में  बिता दी जिसका मैं योग्य था, कहो तो दूसरा बजैया, और निश्चय ही मैं विश्वास करता हूँ कि मैंने अपना काम बढ़िया किया। और मैं खुश था कि मैं मार्क्स जैसे पहले बजैये के साथ हूँ। लेकिन अब, जब मुझसे अचानक सिद्धांत की बातों में मार्क्स की जगह लेने की और पहला बजैया बनने की उम्मीद की जा रही है, निश्चित ही बड़ी गलतियाँ होंगी और इस बारे में मुझसे ज्यादा जागरूक और कोई नहीं है। और जब तक समय थोड़ा अशांत नहीं होगा, हम वास्तव में नहीं जान पायेंगे कि मार्क्स की मृत्यु में हमने क्या खोया है। हममें से किसी के पास दृष्टि की वह विशालता नहीं है जिसके कारण, ठीक उस समय जब फौरी कार्रवाई की मांग होती थी, वह घटनाओं के तह तक पहुँच जाता था और अचूक ढंग से सही समाधान सामने ले आता था। अधिक शांतिपूर्ण समय में हो सकता था कि घटनाएं मुझे सही और उसे गलत साबित कर देती, लेकिन क्रांति की घड़ी में उसके निर्णय वास्तव में अचूक होते थे।”

‘आधुनिक सर्वहारा का श्रेष्ठ पंडित एवं आचार्य’

शीर्षक के शब्द लेनिन के हैं। वर्ष 1895 के अगस्त-सितम्बर में लिखे गये उक्त आलेख में लेनिन आगे लिखते हैं, “मार्क्स की मृत्यु के बाद अकेले एंगेल्स योरोपीय समाजवादियों के परामर्शदाता और नेता बने रहे। उनका परामर्श और मार्गदर्शन जर्मन समाजवादी भी चाहते थे जिनकी ताकत, सरकारी उत्पीड़नों के बावजूद तेजी से और सतत बढ़ रही थी, और स्पेन, रुमानिया, रूस आदि जैसे पिछड़े देशों के प्रतिनिधि भी समान रूप से चाहते थे जो अपने पहले कदम को तौलने और उठाने के पहले सोचने को मजबूर होते थे। वे सभी, वयोवृद्ध एंगेल्स के ज्ञान और अनुभव के समृद्ध भंडार का लाभ उठाते थे।”

लन्दन में एंगेल्स का घर अब पूरी दुनिया के समाजवादी नेताओं एवं कार्यकर्ताओं के लिये ज्ञान, सूचना, परामर्श और क्रांतिकारी मित्रता की ऊर्जा ले आने का ठौर बन गया था। अस्वस्थ रहने के बावजूद वह झुकते नहीं थे – छे फूट की कदकाठी तब तक उन्होने सीधी रखी जब तक सीधी रखना बिल्कुल असम्भव नहीं हो गया। शरीर में कष्ट के बावजूद वह खुशमिजाज रहते थे। कितने लोग आते थे उनके पास! कुछ तो उन्ही के घर पर रुक जाते थे, कुछ, जिन्हे लन्दन में रुकने की कोई दूसरी जगह होती थी, मिलने चले आते थे। और फिर, अक्सर साथ रहनेवाले रसायनविद दोस्त स्कोर्लेमर होते थे। पम्प्स और उसके पति पर्सी (रोशर), उनके बच्चे, कभी लॉरा और पॉल, इलियानोर और एडवर्ड चले आते थे। या शार्ल लोंग्वे भी होते थे। हेलेन डेमुथ और एंगेल्स सबों के लिए उष्ण आतिथ्य की व्यवस्था करते थे। मदद भी करते थे कितनों को। याद कर कर के कितने साथियों को थोड़े थोड़े पैसे भेजते रहते थे, जब जितना सम्भव होता था।    

और फिर चिट्ठियाँ! खूब चिट्ठी लिखते थे वह। जर्मनी, फ्रांस, रूस, ऑस्ट्रिया-हंगरी, इटली, स्पेन, अमरीकी संयुक्त राज्य, हॉलैंड, स्विट्जरलैंड, डेनमार्क, रुमानिया के अलावे लन्दन से बाहर इंग्लैंड के विभिन्न शहरों से चिट्ठियाँ आती थी उनके पास। सबके सवालों का भरसक पूरा जबाब देते थे। परामर्श देते थे। अपने काम के बारे में बताते थे।

सुबह में अखबार आते थे - एक दो नहीं अनेक - विभिन्न भाषाओं के और वह सभी अखबार पढ़ते थे। अतिथियों से बात करते थे उनकी भाषाओं में – जर्मन से जर्मन में, फ्रांसीसी से फ्रांसीसी में, रूसी से रूसी में, इतालवी से इतालवी में, पुर्तगाली से पुर्तगाली में, पोलैन्डवाले से पोलिश और स्पेन या रुमानिया वाले से स्पेनी और रुमानी में, अंग्रेज से अंग्रेजी में … किसी एशियाई अतिथि का नाम नहीं मिलता हैं नहीं तो तुर्की भी वह जानते थे। एडवर्ड एवलिंग ने उनके भाषाज्ञान की चर्चा करते हुए मजाक के लहजे में बोलते हैं, “अब इस तुच्छ बात की क्या जरूरत कि यूनानी और लैटिन भी वह जानते ही थे।”

एंगेल्स के भाषाज्ञान से सम्बन्धित एक और रोचक प्रसंग की चर्चा यहीं कर देना मुनासिब रहेगा। एंगेल्स से नियमित पत्राचार करनेवालों में से एक थे पास्केल मार्तिनेत्ति। उनकी किसी चिट्ठी के जबाब में एंगेल्स ने 22 अगस्त 1883 को लिखा, “भाषा सीखने के लिये मैं यूँ आगे बढ़ता हूँ:” [उस भाषा के] “सबसे कठिन क्लासिकीय लेखक जो मिले, उनको मैं, बिना व्याकरण की परवाह किए हुए (सिर्फ विभक्ति-रूप, धातु-रूप और सर्वनामों को छोड़ कर), साथ में अभिधान रख कर पढ़ता हूँ। इस तरह, इतालवी मैंने दान्ते, पेत्रार्क और अरियोस्तो से शुरु किया, स्पेनी शुरू किया सेर्वान्तेस तथा कैल्डेरन से और पुशकिन से शुरू किया रूसी। फिर मैं अखबार आदि पढ़ता हूँ।”

रूस की नारोदनिक क्रांतिकारी लेखिका वेरा जासुलिच, मार्क्स के जीवित रहने के दिनों से ही परिचित रूसी साथी थी। वह आती भी थी और नियमित चिट्ठी भी लिखती थी। एडवर्ड एवलिंग अपने संस्मरण मे, वहाँ आने वाले या पत्राचार करने वाले साथियों पर एंगेल्स के वैचारिक एवं साथ ही साथ नैतिक प्रभाव की चर्चा करते हुए वेरा जासुलिच का नाम लेते हैं। वेरा जासुलिच कहती थीं कि कई बार वे कोई बुरी बात कहने से या बुरा काम करने से सिर्फ यह सोच कर रुक जाते थे कि ‘जेनरल’ क्या सोचेंगे इस बारे में।

लिखने पढ़ने का काम वह दिन में ही करते थे अधिक। रात में आँखें काम नहीं करती थी। और इस काम में, लेखन या सम्पादन से अलग एक बहुत बड़ा क्षेत्र था सांगठनिक नजरदारी का। घनिष्ट सम्पर्क रखते थे सभी देशों में सर्वहारा आन्दोलनों या गतिविधियों के नेता एवं कार्यकर्ताओं के साथ। पूरे योरोप और अमरीका के सर्वहारा आन्दोलन एवं तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति की अद्यतन जानकारी रखते थे।

अठारहवीं सदी में अस्सी के दशक से पूंजीवादी उत्पादन में नई विशिष्टताएं आने लगी थीं इसे एंगेल्स ने भी गौर किया था। पहले हर दस वर्ष पर अति-उत्पादन के संकट आते थे, उत्पादक शक्तियों की बर्बादी होती थी, फिर उत्पादन चालू होता था। अब पूंजीपति, संकट को सरकाने में सक्षम हो गये थे उपनिवेशों की ओर। फलस्वरूप अंदेशा बढ़ गया था कि आने वाला संकट बहुत बिकराल और विश्वव्यापी होगा। पूंजीवादी उद्योगों का तेजी से विकास हो रहा था, नये नये आविष्कार उत्पादन के साधनों को और अधिक शोषण में सक्षम बना रहे थे। योरोपीय देश आपस में दूसरे महादेशों में बढ़ती हुई औपनिवेशिक प्रतिस्पर्धा का शांतिपूर्ण समाधान ढूंढ़ रहे थे। दर असल, पैरिस कम्यून के बाद से ही बड़े देशों के सरकारों के बीच आपसी तनाव कम करने की कोशिशें चल रही थी ताकि एक साथ मिल कर श्रमिक आन्दोलन एवं समाजवादी गतिविधियों को कुचला जा सके। रूस इंग्लैंड से दोस्ती चाह रहा था ताकि रूसी राजनीतिक आप्रवासियों को इंग्लैंड में पनाह नहीं मिले, इंग्लैंड अमरीका की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा रहा था ताकि आइरिश क्रांतिकारियों को अमरीका से निकाल कर इंग्लैंड भेज दिया जाय। जर्मनी तो अपने यहाँ समाजवादी-विरोधी कानून ही लागू किए हुए था और ऐसे समझौतों के इन्तजार में था ताकि वह भी अपने यहां के राजनीतिक आप्रवासियों को इंग्लैंड, स्विट्जरलैंड, अमरीका आदि से वापस मंगवा कर जेल में ठूंस सके। फ्रांसीसी राजनीतिक आप्रवासी, खास कर कम्यून के बचे हुए योद्धा, वर्ष 1879 के सरकारी फैसले के बाद फ्रांस चले गये थे (जैसे खुद मार्क्स के दामाद शार्ल लोंग्वे), लेकिन कम्यून के पराजय के कारण प्रतिक्रिया की ताकतें बढ़ी थीं। एक तरफ आर्थिक विकास के साथ साथ पूंजीवादियों का राजनीतिक विजय, सर्वहारा आन्दोलन को कुचलने के लिए प्रतिक्रियावाद से समझौते और दूसरी तरफ इन विषम परिस्थितिओं के बीच पूरे योरोप एवं अमरीका में श्रमिक आन्दोलन एवं समाजवादी राजनीतिक गतिविधियों के विकास की चुनौतियाँ मार्क्सवाद की भी चुनौतियाँ थीं। फलस्वरूप, वैज्ञानिक समाजवाद के दोनों प्रणेताओं के लिए यह व्यक्तिगत चुनौती बनती अगर मार्क्स जीवित रहते। पर मार्क्स गुजर चुके थे। अकेले एंगेल्स उन चुनौतियों से जूझ रहे थे।

वर्ष 1885 में फ्रांस में चुनाव हुए। उसी वर्ष एक महीना बाद ब्रिटेन में चुनाव हुए। जर्मनी में चुनाव हुए 1887 में। उसी साल संयुक्त राज्य अमरीका में भी चुनाव हुए। इन तमाम चुनावों में मार्क्सवादी दृष्टि से समाजवादियों की क्या कार्यनीति होनी चाहिए, उदारवादी या उग्रवादी पूंजीवादी या टुटपूंजियों के साथ समझौतों की क्या गुंजाइश बनती है, उसकी क्या शर्तें होंगी यह सारी बातें एंगेल्स की चिन्ताओं में शामिल होती थी और उन देशों के साथियों को वह चिट्ठियों में विशद विश्लेषण करते हुए ठोस सुझाव देते थे। उसी तरह, रूस में जारशाही के खिलाफ लड़ाई में सामाजिक जनवादियों को कैसे आगे बढ़ना चाहिए, इतालवी राजशाही में काम करते हुए समाजवादियों को क्या करना चाहिए, स्पेन या बेल्जियम या हंगरी … पूरा योरोप और संयुक्त राज्य अमरीका में समाजवादियों के मार्गदर्शन को वह, अन्तरराष्ट्रीय के एक सिपाही की तरह अपना कार्यभार मानते थे। वर्ष 1894 में जब पूंजी का तीसरा खण्ड छपा, उसकी भूमिका में, प्रकाशन में विलम्ब के कारण बताते हुए उन्होने कहा: “साहित्य में आई बृद्धि” [मार्क्सवादी साहित्य] “खुद अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक-वर्ग आन्दोलन में, साथ ही साथ हो रही बृद्धि का संकेतमात्र थी। और इस बृद्धि ने मेरे ऊपर नये कार्यभार डाल दिए। हमारी जन-गतिविधियों के प्रारम्भ से ही, विभिन्न देशों में समाजवादियों एवं श्रमिकों के राष्ट्रीय आन्दोलनों के बीच का सम्पर्क-सुत्र बने रहने के काम का मुख्य भार, मार्क्स और मेरे कंधों पर था। जिस अनुपात में आन्दोलन फैले, उसी अनुपात में यह काम भी फैलता गया। अपने मृत्यु के समय तक, मार्क्स भी इस काम का बोझ उठाते रहे। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद, लगातार बढ़ता हुआ यह काम मुझे ही करना था। तब से, विभिन्न राष्ट्रीय श्रमिक पार्टियों के लिए, एक दूसरे से सीधा सम्पर्क स्थापित करना नियम बन गया है। फिर भी, मेरे सैद्धांतिक कामों के मद्देनजर, जितना मैं चाहता था उससे कहीं अधिक अनुरोध, अभी भी मेरी सहायता मांगते हुए आते रहते हैं। लेकिन, मुझ जैसा आदमी, जो पचास वर्षों से अधिक समय आन्दोलन में सक्रिय रहा है, आन्दोलन से सम्बन्धित काम को अपने विवेक का कर्तव्य समझता है, जिसमें देर नहीं की जा सकती है। हमारे इस घटना-बहुल समय में, ठीक 16वीं सदी की तरह ही, सामाजिक मामलों में विशुद्ध सिद्धांतकार सिर्फ प्रतिक्रिया के तरफ पाए जाते हैं और इसीलिए, ऐसे भद्रमहोदय सही अर्थों में सिद्धांतकार भी नहीं होते, सिर्फ प्रतिक्रिया के रक्षक होते हैं।

“चूँकि मैं लन्दन में रहता हूँ, जाड़े में पार्टियों से मेरा सम्पर्क पत्राचार तक सीमित रहता है, जबकि गर्मी में वे अधिकतर व्यक्तिगत होते हैं। साथ ही, लगातार बढ़ती संख्या में देशों के आन्दोलनों और अधिकतर तेजी से बढ़ती संख्या में मुखपत्रों को समझते रहने की भी आवश्यकता रहती है। इसलिए, जिन कामों को पूरा करना, बाधा पड़ने से सम्भव नहीं होता, उन्हे मैं जाड़े के महीनों में, मुख्यत: साल के शुरुआती तीन महीनों में करने को मजबूर होता हूँ।”

वस्तुत:, विचारधारात्मक प्रभाव से अलग, अपने जीवनकाल में मार्क्स और एंगेल्स की, तथा मार्क्स के निधन के बाद अकेले एंगेल्स की जो व्यक्तिगत भूमिका रही विभिन्न देशों के समाजवादियों को संगठित करने में, पार्टी के निर्माण में एवं उन देशों की आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितियों का विश्लेषण कर नेतृत्व का मार्गदर्शन करने में, उस पर अच्छी पुस्तिकाएं लिखी जा सकती हैं – मार्क्स-एंगेल्स एवं जर्मनी का समाजवादी आन्दोलन, मार्क्स-एंगेल्स एवं रूस का समाजवादी आन्दोलन और इसी तरह, फ्रांस का, इंग्लैंड का, इटली का, स्पेन का, बेल्जियम का, संयुक्त राज्य अमरीका का, हंगरी, पोलैंड, या डेनमार्क का … - शायद लिखे गये भी होंगे उनकी अपनी भाषाओं में।

पूंजी के दूसरे खण्ड की प्रेस-प्रति तैयार होते होते 1884 का अन्त हो गया था। लेकिन उस काम के साथ साथ एंगेल्स सम्पादन का काम भी करते रहे। पुराने पुस्तकों के नए संस्करणों का सम्पादन एवं दूसरी भाषाओं में अनुवादों का सम्पादन। एवं अक्सर सभी के साथ एक नया आमुख या नई भूमिका, जिनमें इतनी नई बातों का समावेश होता था कि वे सभी फिर स्वतंत्र आलेखों के रूप में भी अखबारों या पत्रिकाओं में छपते थे। वर्ष 1884 एवं 1885 के बीच उन्होने, पूंजी के पहले खण्ड के अंग्रेजी अनुवाद का सम्पादन किया, परिवार, निजी सम्पत्ति एवं राज्यसत्ता की उत्पत्ति के इतालवी एवं डैनिश संस्करण का सम्पादन किया, लुइ बोनापार्ट का 18वीं ब्रुमेर के फ्रांसीसी संस्करण का सम्पादन किया एवं संयुक्त राज्य अमरीका से अंग्रेजी में छपने वाला इंग्लैंड में श्रमिकवर्ग की स्थिति का सम्पादन किया। पहले ही जिक्र हो चुका है कि बर्नस्टाइन एवं काउट्स्की द्वारा जर्मन में अनुदित दर्शन की दरिद्रता का भी न सिर्फ उन्होने सम्पादन किया, बल्कि एक लम्बा एवं महत्वपूर्ण आमुख तथा अनुपूरक भी जोड़ा। मजदूरी, श्रम और पूंजी के नए संस्करण की भी नई भूमिका लिखी। इसी अवधि में, या वर्ष 1884 में ही उन्होने 35 साल पहले लिखे गए पुस्तक जर्मनी में किसान युद्ध को दोबारा लिखना शुरू किया, क्योंकि उस पुस्तक में लिखे गये ऐतिहासिक घटनाक्रमों से सम्बन्धित नये यथार्थ सामने आये थे, जिससे उन पर नई रोशनी डाली जा सकती थी। हालाँकि, यह काम वह पूरा नहीं कर पाए।

सबसे अधिक वह व्यग्र रहते थे कि कम्युनिस्ट घोषणापत्र का ज्यादा से ज्यादा प्रचार हो। वह यह भी कहते थे कि इसका अनुवाद बहुत कठिन है। आलोच्य अवधि में इस पुस्तिका के, जर्मन में नये संस्करण के अलावे फ्रांसीसी, रूसी, डैनिश एवं अंग्रेजी में भी अनुवाद हुए। एंगेल्स ने उन सभी का सम्पादन किया एवं कुछेक के लिए नए आमुख लिखे।

एंगेल्स ने सोचा था कि वर्ष 1884 के अन्त तक अगर पूंजी के दूसरे खण्ड को तैयार कर मुद्रण के लिए भेजने का काम पूरा हो जाएगा तो तीसरे खण्ड का काम वह अगले एक साल यानि वर्ष 1885 में पूरा कर लेंगे। 22 फरवरी 1885 को उन्होने ज्युरिख में हर्मन श्लुटर को लिखा, “पूंजी के दूसरे पुस्तक की आखरी पाण्डुलिपि कल जाएगी, और अगला दिन मैं तीसरे पूस्तक पर काम करना शुरु करूंगा।”

लेकिन जब उन्होने काम करना शुरू किया तो देखा कि यह तो रत्नों से भरा हुआ एक अथाह सागर है! पन्द्रह दिन काम करने के बाद, 8 मार्च 1885 को उन्होने लॉरा लाफार्ग को लिखा, “जितनी अधिक गहराई में मैं जा रहा हूँ, पूंजी” [का] “तीसरा पुस्तक तो भव्यतर से भव्यतर होता जा रहा है! जबकि अभी मैं 525 पृष्ठों के 230वें पर हूँ, वह भी बीच के 70 पृष्ठ हटाते हुए, क्योंकि उन पृष्ठों के लिए बाद में लिखी गई एक दूसरी पाण्डुलिपि है। समझना मुश्किल है कि कैसे एक आदमी जिसके दिमाग में इतने जबर्दस्त आविष्कार थे, समग्र और पूर्ण एक वैज्ञानिक क्रांति थी, 20 वर्षों तक दिमाग में ही रखे रहा। क्योंकि जिस पाण्डुलिपि पर मैं काम कर रहा हूँ, वह या तो पहले खण्ड के ही समय या उसके पहले तैयार किये गए थे, और इसके आवश्यक अंश सन 1860-62 की पुरानी पाण्डुलिपि में ही मौजूद थे।” आगे एक दूसरी चिट्ठी में निकोलाई डैनियेलसन को वह लिखते हैं कि शायद यह तीसरा पुस्तक दो खण्डों में जाय और उसके बाद होगा इतिहास, अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांतों का, जिसे अलग से प्रकाशित करना होगा (पाठक जानते हैं कि तीन खण्डों में अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांतों का इतिहास, अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत एंगेल्स प्रकाशित नहीं कर पाए; उनके निधन के कई दशकों बाद सोवियत संघ द्वारा इन खण्डों को प्रकाशित किया गया)।

जब उन्होने पूंजी के तीसरे खण्ड से सम्बन्धित पाण्डुलिपियों, मसविदों एवं अन्य कागजों में हाथ लगाना शुरू किया तो पाया कि लगभग पूरे पुस्तक - जिसका शीर्षक था समग्रता में पूंजीवादी उत्पादन – को लिखना पड़ेगा। जबकि वह खुद लिखते तो पढ़ता कौन? पहले ही जिक्र किया जा चुका है कि मार्क्स को लिखावट को मार्क्स खुद भी ठीक से पढ़ नहीं पाते थे। इस विवशता से उन्हे उद्धार करने के लिए रोज होती थी उनकी पत्नी। या, एंगेल्स के आ जाने पर एंगेल्स। अब तो न जेनी मार्क्स थी, न खुद मार्क्स। उनके दोनों बेटियों की भी अपना वैवाहिक जीवन था। साथ ही, इलियानोर सैमुएल मूर के साथ पूंजी के पहले खण्ड के अंग्रेजी अनुवाद में लगी हुई थी। लॉरा के हिस्से में भी कुछ काम थे। अन्तत:, एंगेल्स को पूरी पाण्डुलिपि को ठीक से लिखवाने के लिए एक सचिव रखना पड़ा – ऑस्कर एइसेनगार्टेन। दिन भर एंगेल्स मार्क्स की बिखरी हुई पाण्डुलिपियों में से पढ़ पढ़ कर लिखवाते थे और पूरे पुस्तक की एक समग्र पाण्डुलिपि तैयार करवाते थे जिसे लेकर फिर वह खुद सम्पादन के लिए बैठते।

इस काम में करीब साढ़े पाँच-छे महीने लग गए। दिनांक 22-24 जून 1885 के बीच अगस्त बेबेल को लिखी गई उनकी एक चिट्ठी है जिसमें वह कहते हैं, “पूंजी, पुस्तक III का अधिकतर हिस्सा अब पाण्डुलिपियों से लिखवाया जा चुका है। अब यह पढ़ने लायक लिखावट वाली एक पाण्डुलिपि है। यह प्रारम्भिक काम लगभग 5-6 हफ्तों में पूरा हो जाएगा। फिर बहुत ही कठिन एक अन्तिम सम्पादन शुरू होगा जिसके लिए काफी काम करने पड़ेंगे।”

और इस काम में उन्हे दस साल लग गये। पूंजी के तीसरे खण्ड का प्रकाशन अन्तत: वर्ष 1894 में हो पाया। सोवियत संघ द्वारा प्रकाशित एंगेल्स की जीवनी के अनुसार, तीसरे खण्ड का काम उन्होने वर्ष 1884 के फरवरी के अन्त में शुरू किया था, और 12 जनवरी 1894 को वह वोर्वार्ट्स में घोषणा कर पाए कि तीसरा खण्ड मुद्रण के लिए चला गया है – सितम्बर तक प्रकाशित हो जाएगा।

शरीर की अस्वस्थता के कारण अपने मित्र मार्क्स का साहचर्य भी वह रचनाओं के सम्पादन में ही अनुभव करते थे। दिनांक 8 मार्च 1885 को वह लॉरा लाफार्ग को लिखते हैं, “शनिवार को निम और टुसी हाइगेट जायेगी, पम्प्स भी जाएगी। मैं नहीं जा सकता हूँ। चलनेफिरने की क्षमता के मामले में मैं बहुत ज्यादा बदलने वाला शख्स हूँ और अभी मुझे शांत रहने के लिए एक छोटा सा निर्देश मिला था। जो भी हो, मैं उस पुस्तक पर काम करता रहूंगा जो मोह्र का” [मार्क्स का घरेलू नाम] “स्मारकस्तंभ होगा – ऐसा स्मारकस्तंभ जिसे उसने खुद बनाया और दूसरे लोग जो बना पाते उससे अधिक भव्य है। शनिवार को दो साल हो जाएगा! फिर भी, सच में मैं कह सकता हूँ कि जब मैं इस पुस्तक पर काम कर रहा होता हूँ, मैं उसके साथ जीवित सम्पर्क में रहता हूँ।”

पूंजी के सम्पादन एवं विभिन्न देशों के साथियों को चिट्ठी लिखने के अलावे पुन:प्रकाशित या अनुदित होने वाले पुस्तकों/पुस्तिकाओं के लिए आवश्यकतानुसार आमुख, प्राक्कथन या भूमिका लिखने ही पड़ते थे। इन्ही में से कुछेक महत्वपूर्ण स्वतंत्र आलेख के भी रूप ले लेते थे। छोटे राजनीतिक आलेख भी इस बीच, आवश्यकता पड़ने पर लिखने ही पड़ते थे। इसी क्रम में वर्ष 1885 के अक्तूबर नवम्बर में एंगेल्स ने कम्युनिस्ट लीग के इतिहास पर तथा प्रुशियाई किसानों के इतिहास पर दो बड़े आलेख लिखे।

काम के बोझ से वह दबे हुए थे। वर्ष 1886 की शुरुआत में (29 जनवरी) ऐडोल्फ सोर्ज को एक चिट्ठी में बताते हैं कि एक महिला ने अमरीका में उनकी लिखी हुई इंग्लैंड में श्रमिकवर्ग की स्थिति का अनुवाद किया है; उसकी पाण्डुलिपि वह सुधार रहे हैं। आगे फेहरिश्त गिनाते हैं, “आगे मेरे हाथों में है – सिर्फ पुनरीक्षण का काम बता रहा हूँ: (1)” [लुई बोनापार्ट की] “18वीं ब्रुमेर, फ्रांसीसी में; … (2) … मजदूरी-श्रम और पूंजी, इतालवी में; (3) परिवार,” [निजी सम्पत्ति और राज्यसत्ता] “की उत्पत्ति, डैनिश में; (4)” [कम्युनिस्ट] “घोषणापत्र, एवं समाजवाद: काल्पनिक एवं वैज्ञानिक, डैनिश में – ये दोमो छप चुकी हैं पर गलतियों से भरी पड़ी है; (5) परिवार … की उत्पत्ति, फ्रांसीसी में; (6) समाजवाद: काल्पनिक एवं वैज्ञानिक, अंग्रेजी में। आगे और आ रहे हैं। देख रहे हो न, मैं बस एक स्कूलमास्टर बन गया हूँ जो कॉपियाँ जाँच रहा है। सौभाग्य से मेरी भाषाज्ञान ज्यादा विस्तृत नहीं है। अगर होता तो वे रूसी, पोलिश, स्वीडिश आदि भाषाओं के अनुवादों का भी ढेर लगा देते मेरे सामने।”

सन 1885 के बाद 1886 आ गया। काम और बढ़ते चले गए। हर्मन श्लुटर को नवम्बर महीने में एंगेल्स लिखते हैं मजदूरी-श्रम और पूंजी का इतालवी अनुवाद दस महीने से और 18वीं ब्रुमेर … का फ्रांसीसी अनुवाद आठ महीने से अधूरा पड़ा है। ऊपर से श्लुटर ने चार्टिस्ट आन्दोलन पर एक पाण्डुलिपि भेज दिया है, उसकी भूमिका लिखनी है। एंगेल्स का अपना लिखा हुआ आवास का प्रश्न, उसके दूसरे संस्करण की तैयारी करनी है …। और भी दो चार काम जो श्लूटर ने सुझाया था उसके चर्चे हैं उस चिट्ठी में। उसमें से एक था, रूस में सामाजिक सम्बन्धों पर एंगेल्स की एक पुरानी रचना को दोबारा छापने के लिए नई भूमिका का लेखन। एंगेल्स ने मना कर दिया क्योंकि फिर रूस के साम्प्रतिक इतिहास के अध्ययन में जाना पड़ता। दूसरा था, ड्युहरिंग मतखण्डन का एक अध्याय, इतिहास में बल, जिसे श्लूटर अलग से छापना चाहते थे और इसके लिए चाहते थे कि एंगेल्स कुछ बदलाव करें। बदलाव तो उन्होने कर ही दिया, वह छपा भी, लेकिन एंगेल्स को लगा कि इसे और विस्तृत रूप देकर एक पुस्तिका बनानी चाहिए। हालाँकि, पुस्तिका का काम पूरा नहीं हो पाया लेकिन वह अधूरी पुस्तिका, इतिहास में बल की भूमिका आज मार्क्सवादियों के लिये एक महत्वपूर्ण सैद्धांतिक रचना है।

वैसे, इतिहास में बल की भूमिका की रचना का काल 1887 के शुरुआती महीने हैं। उसके पहले वर्ष 1886 में ही एंगेल्स ने एक सैद्धांतिक पुस्तिका तैयार की, जो तुरंत लोकप्रिय हो गया और आज भी लोकप्रिय है – लुड्विग फायरबाख एवं शास्त्रीय जर्मन दर्शन का अन्त

योरोप हो या भारत, जगत के सैद्धांतिक समझ को आगे बढ़ाने में, दार्शनिक दृष्टि को स्पष्ट करने में खण्डनात्मक रचनाओं की बहुत बड़ी भूमिका है। सर्वहारा राजनीति के लिए तो और भी ज्यादा क्योंकि शिक्षा की पूरी पूंजीवादी व्यवस्था, शोषण की विकराल सच्चाइयों को छुपाने के तंत्र पर आधारित है।

मार्क्स की मृत्यु के तुरंत बाद, 1883 के 2 अप्रैल को एंगेल्स प्योत्र लाभरोव को लिखते हैं, “अन्तत: कल मुझ्र उन पाण्डुलिपियों की छानबीन करन्र के लिए कई घंटे मिलेंगे; खास कर द्वंद्वात्मकता की एक रूपरेखा जो वह हमेशा लिखना चाहते थे।” ऐसा लिखने का कारण था। पचीस साल पहले मार्क्स ने एंगेल्स को लिखा था, “अगर ऐसा समय आए कि मेरे लिए वैसा” [सैद्धांतिक] “काम करना सम्भव हो, तो मैं दो या तीन कागजों” [अंग्रेजी में ‘शीट’; पहले के दिनों में बड़ा होता था जिसका तह करके आज का फुलस्कैप पन्ना बनता था] “में आम पाठकों की समझ में उस पद्धति के तार्किक पहलू को उजागर करना चाहूंगा जिसका, हेगेल ने ही आविष्कार किया लेकिन रहस्यमय भी बना दिया।”

मार्क्स इस काम को कर नहीं पाए। एंगेल्स भी, सोचने के बावजूद तत्काल नहीं कर पाए। सन 1885 में एक पुस्तक आया – सी॰ एन॰ स्टार्क लिखित ‘लुड्विग फायरबाख। एंगेल्स ने पुस्तक को पढ़ा और तभी तत्काल उस लेखक द्वारा प्रतिपादित विचारों का खण्डन करने को सोचे। लेकिन फिर भी उन्होने पूरी तरह पुस्तिका को खण्डनात्मक नहीं बनाया। क्यों? … इसका जबाब खुद एंगेल्स उस आमुख में देते हैं जब सन 1888 में लुड्विग फायरबाख एवं … (जो डाय न्यु ज़ेइट में सन 1886 में छपा था) पुस्तिका के रूप में छपा। सबसे पहले उन्होने, मार्क्स के साथ मिल कर जर्मन विचारधारा लिखने, उसके नहीं छपने एवं फिर भी अपने मुख्य उद्देश्य की पूर्ति – “आत्म-स्पष्टीकरण” - का जिक्र किया। उसके बाद उन्होने लिखा:

“उसके बाद चालीस वर्षों से अधिक गुजर गये और मार्क्स मर गए, लेकिन दोनों में से किसी को उस विषय पर लौटने का अवसर नहीं मिला। हेगेल के साथ हमारे सम्बन्धों के बारे में हमने कई जगह पर अपनी बाते कही हैं, लेकिन कहीं भी एक सामग्रिक, सुसंगत रूप में नही। फायरबाख के पास तो हम कभी नहीं लौटे, जबकि हेगेलीय दर्शन एवं हमारी अवधारणा के बीच वह कई मायनों में बीच की एक कड़ी बनते हैं।

“…………

“इन परिस्थितियों में, मुझे लगा कि हेगेलीय दर्शन के साथ हमारे सम्बन्ध का एक संक्षिप्त सुसंगत वर्णन की जरूरत बढ़ती जा रही है, कि कैसे हम आगे बढ़े, और साथ ही, कैसे हम इससे अलग हुए। उसी प्रकार समान रूप से, किसी भी दूसरे उत्तर-हेगेलीय दार्शनिक से ज्यादा, फायरबाख का हम पर, हमारे ‘स्टर्म उन्ड ड्रैंग’ जमाने में” [फ्रांसीसी नए चिन्तन से प्रभावित जर्मनी का साहित्य आन्दोलन] “क्या प्रभाव पड़ा, इसकी भी पूर्ण स्वीकृति, मुझे लगा कि इमान पर एक कर्ज है जिसे चुकाना जरूरी है। इसलिए, न्यु जेइट के सम्पादकों ने मुझसे ज्यों ही फायरबाख पर स्टार्क के पुस्तक की आलोचनात्मक समीक्षा लिखने को कहा मैने अवसर को लपक लिया।”

जर्मन विचारधारा का पहला प्रकाशन सोवियत रूस द्वारा सन 1932 में किया गया। यानि पैंतालीस वर्षों तक मार्क्सवाद के उद्भव से सम्बन्धित एकमात्र विशद सैद्धांतिक कृति जो पाठकों के लिए उपलब्ध हुई, वह थी लुड्विग फायरबाख एवं शास्त्रीय जर्मन दर्शन का अन्त । स्वाभाविक तौर पर यह पुस्तक तुरंत लोकप्रिय हुई। सन 1888 में जब यह पुस्तिका के रूप में छपी तब इसके साथ मार्क्स लिखित थिसिस ऑन फायरबाख भी जोड़ दिया गया। यह भी इसी पुस्तिका के साथ पहली बार प्रकाशित हुआ। सन 1889 में इसका एक अनधिकृत रूसी अनुवाद प्रकाशित हुआ, जिसमें लेखक का नाम भी नहीं था और बहुत कुछ ईच्छानुसार जोड़ा-घटाया गया था। सन 1890 में पोलिश भाषा में इसका अनुवाद हुआ। सन 1892 में जॉर्जी प्लेखानोव द्वारा किया गया सही और पूरा रूसी अनुवाद जेनेवा से प्रकाशित हुआ। उसी साल यह पुस्तिका बुल्गारियाई भाषा में भी अनुदित हुई। सन 1894 में पैरिस से प्रकाशित एक पत्रिका की दो संख्याओं में इसका फ्रांसीसी अनुवाद प्रकाशित हुआ; अनुवाद लॉरा लाफार्ग ने किया था। सन 1903 में यह पहली बार अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ।

दूसरे अन्तरराष्ट्रीय की शुरुआत

अपने पैत्रिक, व्यवसायी परिवार से अलग रास्ता चुनने के बाद से एंगेल्स आजीवन दो परिवारों को अपनी जिम्मेदारी मान कर चलते रहे – एक, मार्क्स का, दूसरा, अपना, मैंचेस्टर में और, फिर लन्दन में। अब वे कई परिवार हो गये थे। मार्क्स नहीं थे, उनकी पत्नी जेनी नहीं थी, उनकी बड़ी बेटी भी अब नहीं रही। लेकिन बड़ी बेटी के पति थे, बच्चे थे। दूसरी बेटी, उसके पति और बच्चे थे। छोटी बेटी और उसके पति थे। उन सबों के बारे में वह खबर रखते थे। मार्क्स के बड़े दामाद शार्ल तो पैरिस के पास अर्जेन्तेल में रहते थे। समाजवादी आन्दोलन के साथ वह भी थे लेकिन नौकरी से घर चला लेते थे। इधर लॉरा के पति पॉल लाफार्ग पेशे से डाक्टर होने के बावजूद मूलत: समाजवादी आन्दोलन में ही सक्रिय थे – समस्याएं, कई मुकदमों में पेशी, गिरफ्तारी का डर आदि से परिवार घिरा रहता था। इलियानोर और एडवर्ड एवलिंग दोनों पूरा समय आन्दोलन एवं संस्कृतिकर्म को देते थे। एंगेल्स को जब भी लगा कि इनमें से किसी परिवार को आर्थिक मदद की जरूरत है तो खुद, जितना सम्भव हो भेज दिया करते थे। उन्हे यह भी अच्छा लगता था की उनकी मदद अन्तत: आन्दोलन के काम में ही लग रही है। लिडिया की भांजी पम्प्स अब शादीशुदा और बच्चोवाली थी। उसके पति रोशर अपना काम करते थे लेकिन आर्थिक परेशानी में फँस जाते थे। इसलिए पम्प्स को तो अक्सर एंगेल्स से आर्थिक मदद की जरूरत पड़ती थी।

इसके अलावा, जर्मनी से देश-निकाले या राजनीतिक आप्रवासी, समाजवादी आन्दोलन में शरीक किसी भी साथी को कभी भी मदद की जरूरत हो तो एंगेल्स सबसे पहले मदद करते थे। सिर्फ एक ही बात का खयाल रखते थे कि व्यक्ति समाजवादी आन्दोलन से जुड़ा हो या समाजवादी आन्दोलन में भागीदारी के कारण उत्पीड़न या दमन झेल रहा हो। कई लोगों को पता था कि एंगेल्स इस तरह मदद किया करते हैं। एकबार यूँ ही एक छात्र ने अपनी पढ़ाई के खर्च के लिए दो-तीन सालों तक माहवारी रकम देने का अनुरोध किया; कहा कि यह कर्ज होगा। उसे इंकार करते हुए एंगेल्स ने स्पष्टत: लिखा, “बरसों से मैं जिन लोगों की मदद करता आ रहा हूँ, वे सिर्फ जर्मनी और इंग्लैंड में ही सीमित नहीं हैं और उनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है। इनमें से अधिकांश ऐसे लोग हैं जिनसे, निजी या पार्टीगत सम्बन्धों के कारण मैं खुद को अलग नहीं कर पाऊँगा। इस तरह, मैंने इतनी बड़ी मात्रा में स्थाई नियमित जिम्मेदारियाँ ले ली हैं कि मैं इस वक्त खुद हैरानी में हूँ कि इन्हे निभाऊँ कैसे।” [जोहान वेस को लिखी गई चिट्ठी, 10 अक्तूबर 1887]

दूसरी ओर, किस तरह वह समाजवादी योद्धाओं एवं उनके परिवारों का खयाल रखते थे उसका मिसाल एक दूसरी चिट्ठी में है। कार्ल फैन्डर एक जर्मन क्रांतिकारी थे। मार्क्स-एंगेल्स के साथी थे, कम्युनिस्ट लीग और अन्तरराष्ट्रीय का साधारण परिषद दोनों के सदस्य थे। सन 1876 में, 58 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया। उनके परिवार के बारे में वह विल्हेल्म लिब्नेख्त को दिनांक 29 फरवरी 1888 को लिखते हैं:

“अगर आपलोग हर तिमाही पर श्रीमती फैन्डर के लिए 100 मार्क्स का इन्तजाम कर दें, तो उतनी ही रकम मैं भी करूंगा। तब उनके पास सालाना 40 पौंड होगा और वह अत्यधिक अभाव से बच जाएंगी।

“फैन्डर की मृत्यु के बाद उनके पास थोड़े से पैसे थे, जिससे उन्होने एक लॉज खोला। लेकिन एक तो लॉज दोयम दर्जे के मोहल्ले में था और दूसरे कारण भी थे उनके दुर्भाग्य के … संक्षेप में वह चला नहीं। फिर उन्होने एक छोटा सा दुकान लिया। लेकिन जो बेटी उस किस्म के छोटे व्यवसाय को चला सकती थी वह मर गई। यानि, पैसे खत्म हो गये। फैन्डर का एक भाई था जिसे फैन्डर ने सेना में जबरन-बहाली से पैसे देकर छुड़ा लिया था और एक लम्बे समय तक देखरेख किया था। वह अभी न्यु अल्म, मिनेसोटा में है। उसने बहन को उनकी दूसरी बेटी के साथ वहाँ आ जाने को कहा। वहाँ जा कर श्रीमती फैन्डर ने पाया कि उन्हे ‘गरीब रिश्तेदार’ कह कर घर के कामकाज के लिए बुलाया गया है। श्रीमती फैन्डर ने फैसला लेने में देरी नहीं की। वह पन्द्रह दिनों के अन्दर वापस चली आईं। जो पैसे बचे थे वे आने-जाने में ही खत्म हो गए। उसके बाद यहाँ उनके लिए जो कुछ सम्भव हो किया गया है, लेकिन लम्बे समय तक उनकी मदद सिर्फ मैं ही कर सकता हूँ। वह पर्याप्त नहीं होगा क्योंकि मुझे दूसरी जगहों पर भी मदद भेजनी पड़ती है। …”

इसी तरह सब का ध्यान रखते थे एंगेल्स।

सप्ताह भर घर में बस लिखने-पढ़ने का काम करते थे और सादा खाना खाते थे। चूँकि, आँखें भी कमजोर थीं, इसलिए सिर्फ दिन में काम करते थे। शाम को लोगों से मिलते थे। रविवार को मेहमान आते थे। बच्चों के परिवार भी और उस दिन लन्दन में मौजूद या मैंचेस्टर से पहुँचने वाले मित्र और साथी भी। कुछ तो नियमित थे जैसे स्कोर्लेमर (रसायनशास्त्री), काउट्स्की (उन दिनों लन्दन में रहते थे), लेस्नर, और भी कई लोग। सारा काम बन्द कर उस दिन एंगेल्स दिल खोल कर मेहमान-नवाजी करते थे। लेंचेन साथ रहती थी। घर गपशप और ठहाकों से गूंजता रहता था। ये दोनों ही पहलू एंगेल्स के अनुशासित जीवन के दिनचर्या के अंग थे। कभी कभी इस क्रम में भी बाधा आती थी। कभी अचानक, बिना इत्तिला दिए पम्प्स ही चली आती थी बच्चों को लेकर, और बच्चे, नानाजी का लिखना-पढ़ना बन्द कर देते थे। एंगेल्स को तब उनके लिए ‘सबसे अच्छा’ कागज का नाव बनाना पड़ता था।

एंगेल्स लिए खुशी का एक दिन आया जब जर्मनी के राइखस्टैग में सरकार की हार हुई और कुख्यात समाजवादी-विरोधी कानून को और पाँच साल के लिए बढ़ाने का प्रस्ताव गिर गया। बिस्मार्क की सरकार ने इस श्रमिक-विरोधी काले कानून को 1878 में लागू किया था। प्रस्ताव को गिराने में अगस्त बेबेल एवं अन्य समाजवादी सांसद सिंगर के भाषणों की मुख्य भूमिका रही। अन्तत:, अन्तिम दो साल के लिए कानून को बढ़ाने का मत सरकार ने किसी तरह राइखस्टैग से हासिल कर लिया, वह भी प्रस्तावित नई धाराओं को बिना। 23 फरवरी 1888 को एंगेल्स ने लिब्नेख्त को लिखा, “समाजवादी-विरोधी कानून पर बहस, संसदीय क्षेत्र में अब तक की हमारी सबसे बड़ी जीत है ….”। (30 सितम्बर 1890 को यह कानून, श्रमिकों के निरन्तर संग्राम के फलस्वरूप खत्म हुआ था)।

एंगेल्स का शरीर तो कमजोर हो ही रहा था, आँखों की कमजोरी उन्हे ज्यादा सता रही थी। एक तरह के नेत्र-शोध (कॉन्जांक्टिवाइटिस) की बीमारी हो गई थी उन्हे; दो घंटे से ज्यादा लगातार पढ़ने-लिखने का काम नहीं कर पा रहे थे। और चिढ़ होती थी जब दोबारा बैठने के बाद, पिछले दो घंटे के काम को फिर से देखना पड़ता था आगे बढ़ने के लिए; समय बर्बाद होता था। काउट्स्की उस समय लन्दन में ही रहते थे। उन्हे भी कुछ रोजगार की जरूरत थी। उधर बर्नस्टाइन भी लन्दन आ गए थे। एंगेल्स ने प्रस्ताव दिया कि अपने सचिव, ऑस्कर एइसेनगर्टेन का अनुबंध खत्म होने के बाद उन्हे दोबारा रखने के बजाय वह काउट्स्की या बर्नस्टाइन दोनों में से किसी एक को, उतने ही पैसों पर रख सकते हैं। इससे उन्हे, यानि एंगेल्स को फायदा होगा कि मार्क्स की लिखावट पढ़ सकने वाला कोई तैयार हो जाएगा। और तब, अगर काम अधूरा छोड़ते हुए दुनिया से जाना पड़े तो मन में शांति रहेगी कि मार्क्स की रचनाओं का प्रकाशन होता रहेगा। अगर वे राजी हों तो मार्क्स की बेटियों से बात करेंगे।

अमरीका यात्रा - खैर। फिलहाल तो थोड़े दिनों की छुट्टियाँ चाहिए थीं और वह भी समन्दर की हवाओं में। डाक्टरों ने कहा था कि इससे शरीर की ताकत भी दोबारा लौटेगी और आँखें भी ठीक होंगी। पहले भी कई बार कार्यक्रम बने लेकिन अन्तत: रद्द करने पड़े। इस बार सब कुछ पक्का हुआ। 8 अगस्त 1888 को एंगेल्स, स्कोर्लेमर, इलियानोर, एडवर्ड एवलिंग ‘सिटी ऑफ बर्लिन’ नाम के जहाज से संयुक्त राज्य अमरीका के लिए रवाना हुए। यात्रा को पूरी तरह निजी और गुप्त रखा गया क्योंकि एंगेल्स अमरीका में अपरिचित नाम नहीं थे। जिन वर्षों में वहाँ गृहयुद्ध चल रहा था, मार्क्स और एंगेल्स, दोनों के आलेख वहाँ के अखबारों में छपते रहे थे। हाल के दिनों में दोनों के पुस्तकों का अंग्रेजी संस्करण उस देश से प्रकाशित हुआ था। और डेढ़ साल पहले 1987 के जनवरी में, वहाँ से छपने वाले इंग्लैंड में मजदूरवर्ग की स्थिति के लिए उन्होने एक नया आमुख लिखा था, अमरीका में श्रम आन्दोलन, जो अलग से छपा भी था एवं काफी चर्चित हुआ था। फिर, इसी साल चार महीने पहले, मार्क्स की पुस्तिका, मुक्त व्यापार के सवाल पर भाषण के पुनर्मुद्रण के लिए भी उन्होने एक आमुख लिखा था संरक्षणवाद एवं मुक्त व्यापार । यह आमुख भी चर्चित हुआ था क्योंकि इसमें अमरीका में पिछल्रे कई वर्षों से अपनाई जा रही संरक्षणवाद की नीति की समीक्षा थी। स्वाभाविक था कि पत्रकार, खास कर जर्मनभाषी अमरीकी श्रमजीवी अखबारों के, साक्षातकार लेने के लिए बन्दरगाह से ही लगे रहते।

एंगेल्स के लिए यह यात्रा उनके अनुभव-संसार के लिए एक बड़ी घटना थी। संयुक्त राज्य अमरीका उस वक्त ‘नई दुनिया’ के नाम से प्रसिद्ध था और कई वर्षों से एंगेल्स को यह ‘नई दुनिया’ देखने की चाह थी। लेकिन, बात बनी तो इतने वर्षों के बाद। अटलान्टिक महासागर पार होने में एक सप्ताह लगे और एंगेल्स ने खुब आनन्द उठाया। एक सप्ताह वह न्युयार्क में पहले होटल में फिर ऐडॉल्फ सोर्ज के घर पर रहे। सोर्ज के साथ बातचीत करते हुए उन्होने वहाँ के श्रमिक आन्दोलन की स्थिति, समाजवादी श्रमिक पार्टी एवं आम जनता के बारे में बहुत सारी जानकारियाँ हासिल की।

न्युयार्क से एंगेल्स बोस्टन गए। वहाँ विली बर्न्स थे, एंगेल्स की पत्नी का भांजा, जो काफी पहले अमरिका आ गए थे। एंगेल्स को अच्छा लगा देख कर कि एक रेल कम्पनी में काम करता हुआ विली सक्रिय रूप से श्रमिक आन्दोलन से जुड़ा हुआ है।

नायाग्रा जल-प्रपात के पास वह पाँच दिन बिताए। फिर ओन्टारिओ झील पार कर मॉन्ट्रील (कनाडा) पहुँचे। कनाडा से एंगेल्स और उनके सहयात्री कई जगह घूमते फिरते हडसन नदी के रास्ते न्युयार्क पहुँचे। पूरी यात्रा निजी रही। सिर्फ योरोप क्र लिए रवाना होने से पहले उन्होने अन्तरराष्ट्रीय के पुराने साथी, पत्रकार थियोडोर कुनो को एक साक्षातकार दिया जो न्युयार्कर वोक्स्जाइटुंग में प्रकाशित हुआ।

29 सितम्बर को एंगेल्स लन्दन लौट आये। पूरी यात्रा का उन पर काफी अच्छा शारीरिक एवं मानसिक प्रभाव पड़ा। समुद्र की हवाएं, पहाड़ों पर दूर दूर तक चलना, झीलों और नदियों का सफर और सबसे अधिक, एक नये देश के जन-जीवन के विचित्र अनुभवों ने उन्हे तरोताजा कर दिया। वापसी में जहाज पर बैठे बैठे उन्होने अपने भाई हेर्मान को चिट्ठी में लिखा, “यात्रा से मुझे जबर्दस्त लाभ पहुँचा है। लग रहा है कि मेरी उम्र पाँच साल कम हो गई है। मेरी सारी छोटीमोटी बीमारियाँ पीछे छूट चुकी है; मेरी आँखें भी पहले से अच्छी हैं …”

अमरीका को जानने की जरूरत के बारे में भी उन्होने कईयों को चिट्ठी में लिखा। 8 अक्तूबर को कॉनराड श्मिड्ट को उन्होने लिखा, “अमरीका ने मेरा कौतूहल जगा दिया। हर किसी को अपनी आँखों से देखनी चाहिए इस देश को जिसका इतिहास मालों के उत्पादन से पीछे नहीं जाता है और जो पूंजीवादी उत्पादन का ‘प्रतिश्रुत देश’ है।”

दूसरे अन्तरराष्ट्रीय की शुरुआत – पहले अन्तरराष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक समिति के विसर्जित होने से सर्वहारा क्रांति के सभी योद्धाओं को तकलीफ हुआ था। लेकिन मार्क्स और एंगेल्स इस सच्चाई को देख पा रहे थे कि वह विसर्जन अवश्यम्भावी था। श्रमिकों के पहले अन्तरराष्ट्रीय संगठन ने पैरिस कम्यून के रूप में एक क्रांतिकारी कार्रवाई को प्रोत्साहित किया, सभी देशों के सर्वहाराओं के बीच के भाइचारे को परिभाषित हर स्थानीय/देशीय संघर्ष में अन्तरराष्ट्रीय समर्थन सुनिश्चित किया, पूंजीवादी-सामन्ती-राजतंत्री जंगबाज-राष्ट्रवाद के खिलाफ खड़ा होना सिखाया और दूर दूर तक के देशों में समाजावादी विचारों को फैलने में मदद किया। “हमारी राय है कि …” [अगला अन्तरराष्ट्रीय] “महज प्रचार समिति नहीं होगी”, एंगेल्स ने 1882 के 10 फरवरी को जोहान फिलिप बेकर को लिखा था, “बल्कि सिर्फ कार्रवाईयों की समिति होगी।” मार्क्स जीवित थे उस समय। दोनों का कहना था कि अन्तरराष्ट्रीय तो जीवित है! हर एक देश से निकलती हुई एक समाजवादी पत्रिका एक अन्तरराष्ट्रीय केन्द्र है। सभी देशों के संगठन अब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। अभी तो हालात भी क्रांतिकारी नहीं हैं। तेज पूंजीवादी विकास का एक कालखंड है। समय का इन्तजार करना होगा, जब “एक आधिकारिक, औपचारिक अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठित होगी।”

और वह समय अस्सी के दशक के अन्त तक दिखने लगा। योरोप और अमरीका में श्रमिकों की व्यापक हड़ताली कार्रवाईयाँ होने लगी। वे हड़ताली कार्रवाइयाँ जन संघर्ष का रूप लेने लगी। सन 1886 के ही मई महीने में, हे मार्केट स्क्वायर (शिकागो) की घटना हुई। सन 1887 के नवम्बर में पार्सन्स, फिशर, स्पाइस एवं एंजेल को फाँसी दी गई। हड़तालें नये ट्रेड युनियनों को जन्म दे रही थी। साथ ही, श्रनिकों की राजनीतिक पार्टियां भी जन्म ले रही थी। वर्ष 1889 के मध्य तक, जैसा कि भूतपूर्व जर्मन डेमोक्रैटिक रिपब्लिक द्वारा प्रकाशित एंगेल्स की जीवनी से सूचना प्राप्त होता है, बेल्जियम, डेनमार्क, जर्मनी, इंग्लैंड, फ्रांस, हॉलैंड, इटली, नॉरवे, ऑस्ट्रिया, स्वीडेन, स्विट्जरलैंड, स्पेन, हंगरी एवं संयुक्त राज्य अमरीका में श्रमिकों की पार्टियाँ बन चुकी थी जबकि रूस सहित अन्य देशों मार्क्सवादी गुट या सर्वहारा संगठन बन चुके थे।

वर्ष 1887 के सितम्बर महीने में इंग्लैंड के ट्रेड युनियनों ने अपने अधिवेशन में ट्रेड युनियनवादी नेताओं के खिलाफ जा कर श्रमिकों का एक स्वतंत्र राजनीतिक दल बनाने का फैसला लिया। साथ ही, नवम्बर 1888 में लन्दन में एक अन्तरराष्ट्रीय श्रम अधिवेशन बुलाने का फैसला लिया। उधर फ्रांस में भी कुछ हो रहा था। जर्मनी में भी समाजवादियों के अन्तरराष्ट्रीय संगठन बनाने को लेकर चर्चा चल रही थी। दिनांक 16 सितम्बर 1887 को एंगेल्स ने ऐडॉल्फ सोर्ज को लिखा, “यहाँ आयोजित ट्रेड युनियन कांग्रेस ने दिखा दिया कि पुराने ट्रेड युनियनों में एक क्रांति हो रही है। नेताओं एवं … श्रमिक सांसदों के खिलाफ जा कर इस कांग्रेस ने स्वतंत्र श्रमिक दल बनाने का फैसला लिया है।” आगे यह भी लिखा कि फ्रांस के बारे में कोई खबर नहीं मिली है अब तक क्योंकि पॉल लाफार्ग अभी वहाँ नहीं हैं। और जर्मनी के बारे में तब लिखेंगे जब अगस्त बेबेल से बात हो जायेगी।

जर्मन समाजवादी-जनवादी पार्टी का कांग्रेस गैर-कानूनी तौर पर स्विटजरलैंड स्थित सेंट गैलेन में, वर्ष 1887 के अक्तूबर महीने में हुआ। इस कांग्रेस ने फैसला लिया कि वर्ष 1888 के शरद ॠतु में पार्टी के प्रतिनिधि संगठनों एवं अन्य देशों के श्रमिक-वर्गीय संगठनों को शामिल कर एक अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक कांग्रेस का आयोजन किया जाएगा। उन्होने इस दिशा में इंग्लैंड के ट्रेड युनियनों से बातचीत करने पर भी विचार किया। एंगेल्स से सुझाव मांगे जाने पर उन्होने इस सोच की सराहना की और सम्भावना तलाशने को कहा ताकि दोनों मिलकर एक ही कांग्रेस का आयोजन करे। लेकिन दोनों में बात नही बनी। उधर जर्मन समाजवादियों ने समय रहते अधिवेशन के लिए खास कुछ तैयारी किया भी नहीं। एंगेल्स ने उन्हे सावधान किया था कि जल्दबाजी में फैसले लेकर अधकचरा काम करने से सुधारवादियों को हावी होने में मदद मिल जाएगा। अन्तरराष्ट्रीय कांग्रेस के लिए पेशकश हो तो मार्क्सवाद के ठोस आधार पर हो तथा फ्रांसीसी और जर्मन समाजवादी मिल कर इसका आयोजन करे। साल घूमते घूमते एंगेल्स की आशंका सही प्रतीत होने लगी जब नवम्बर 1888 में लन्दन में अन्तरराष्ट्रीय श्रम अधिवेशन का आयोजन हुआ। बहुत थोड़े से श्रम संगठन पहूँचे। और, शायद इसी के फलस्वरूप अधिवेशन में एक प्रस्ताव लिया गया कि फ्रांसीसी समाजवादियों में से एक सुधारवादी पार्टी को, जो ‘पॉसिबिलिस्ट्स’ [संभववादी] कहलाते थे, जुलाई 1889 में पैरिस में अन्तरराष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित करने का जिम्मा दिया जाय। लगभग साथ ही साथ, फ्रांस की उस सुधारवादी पार्टी ने एक और अवसरवादी संगठन, सामाजिक-जनवादी फेडरेशन से बातचीत कर, 1889 के जुलाई में अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक अधिवेशन की तैयारी शुरू कर दी।

रोचक बात यह है कि वर्ष 1889 के जुलाई का महीना कभी बातचीत या पत्राचार में एंगेल्स द्वारा ही सुझाया गया था। क्योंकि, जुलाई 1889 में फ्रांसीसी क्रांति की शताब्दी पूरी हो रही थी। लेकिन अब, आयोजकों के राजनीतिक चेहरे देख कर एंगेल्स चिन्तित हो उठे। उन्होने सभी साथियों – जर्मनी में बेबेल, लिब्नेख्त, फ्रांस में पॉल लाफार्ग …- से पत्राचार किया। पॉसिबिलिस्ट्स के नेताओं से बातचीत करने को भी कहा, ताकि अधिवेशन में मार्क्सवादियों की भी पैठ बन सके, और पूरा अधिवेशन सुधारवाद के गिरफ्त में न चला जाय।

लेकिन अधिवेशन को अपने ही गिरफ्त में रखने की, सुधारवादियों की पूरी तैयारी थी। उनकी तिकड़मबाजी और कुछ अपने ही साथियों के ढीलेपन से क्षुब्ध होकर एंगेल्स ने पूरी घटनाक्रम को ‘अभिशप्त कांग्रेस’ कह कर अन्तत: खुद कूद पड़े। जर्मन अनुयायियों, खासकर बर्नस्टाइन को साथ लेकर वह अधिवेशन की राजनीतिक तैयारी में जुट गये। सभी देशों में अपने अनुयायियों, परिचित समाजवादियों एवं श्रमिक नेताओं से बातचीत कर उन्होने कई संगठनों के अधिवेशन में भागीदारी को सुनिश्चित किया। अधिवेशन से सम्बन्धित सारे दस्तावेज खुद लिखवाये। कुछेक महीनों तक पूंजी के तीसरे खण्ड के सम्पादन का काम रुका रहा।

अन्तत: पैरिस में, 14 जुलाई 1889 को (सौ साल पहले बैस्तिल जेल पर हमले के दिन) दो अधिवेशन शुरू हुए। जबकि, फ्रांसीसी और अंग्रेज सुधारवादियों एवं अवसरवादियों द्वारा आयोजित अधिवेशन में मात्र नौ देशों के प्रतिनिधि आए, पैरिस के साल पेत्रेल में मार्क्सवादियों द्वारा आयोजित अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक अधिवेशन में 20 देशों से 407 प्रतिनिधि आए। नॉरवे, फिनलैंड, बुल्गारिया, रुमानिया या अर्जेन्टिना जैसे देश जहाँ क्रांतिकारी श्रमिक आन्दोलन की बस शुरुआत हो रही थी, वहाँ से भी प्रतिनिधि आए। सभास्थल में प्लेकार्ड लगे थे – ‘दुनिया के मजदूरों, एक हो’, ‘पूंजीपति वर्ग का राजनीतिक एवं आर्थिक समाप्ति; उत्पादन के साधनों का राष्ट्रीयकरण’ …। अधिवेशन में ये बातें आ भी गईं कि श्रम की मुक्ति सिर्फ सर्वहारा के हाथों ही हो सकती है - पूंजीपतियों को उखाड़ फेँकने और उत्पादन के साधनों को समाजीकृत करने के लिए राजनीतिक सत्ता हासिल करने के द्वारा। आठ घंटे श्रम-दिवस तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर औद्योगिक श्रम की स्थिति में सुधार हेतु कानून की मांग कर, अधिवेशन में अन्तरराष्ट्रीय श्रम कानून के बुनियाद रचे गए। अधिवेशन ने फैसला लिया कि 8 घंठे श्रम-दिवस एवं श्रम कानून सम्बन्धी अन्य मांगों के समर्थन में 1 मई, 1890 की तारीख को सभी देशों में प्रदर्शन एवं सभाओं द्वारा मनाया जाएगा।  

कई वर्षों बाद लेनिन ने इन दिनों का जिक्र करते हुए लिखा, “एंगेल्स, जो उस समय 68 वर्ष के हो चुके थे, युवावस्था के पूरे उत्साह के साथ उस लड़ाई में कूद पड़े।”

हालाँकि एंगेल्स ने खुद अधिवेशन में भाग नहीं लिया। न ही, अधिवेशन के फैसलों को शक्ल देनें में कोई मदद की। कई महीनों की उनकी मेहनत इस बात के लिए थी कि अवसरवादियों एवं सुधारवादियों के खिलाफ एक मार्क्सवादी बहुमत एकजुट होकर दृढ़ता के साथ खड़ा हो जाय तथा सही दिशा में फैसले ले सके। उनके हिसाब से सबसे अच्छा फैसला रहा सभी देशों में एक मई को मनाने का। 27 अगस्त को उन्होने लॉरा लाफार्ग को लिखा, “अधिवेशन का सबसे अच्छा काम यही रहा।” अधिवेशन में औपचारिक तौर पर नया अन्तरराष्ट्रीय संगठन बनाने का कोई फैसला नहीं लिया। एंगेल्स की भी राय यही थी कि देश देश में आन्दोलन थोड़ा और आगे बढ़े। हाँ, लेकिन अधिवेशन खत्म करने से पहले अगला अधिवेशन कब होगा इसका फैसला होना था जो हुआ ही नहीं। एंगेल्स ने बाद में इसकी आलोचना भी की। कहा कि सबसे महत्वपूर्ण सवाल को अनसुलझा छोड़ दिया गया। लेकिन सबसे बड़ी तसल्ली की बात थी, जैसा कि लेनिन ने बाद में नोट किया, कि अधिवेशन ने “सभी आवश्यक बिन्दुओं पर मार्क्सवादी समझ को ग्रहण किया।”

एंगेल्स फिर से तल्लीन हो गए थे पूंजी के तीसरे खण्ड की पाण्डुलिपि तथा साथ ही, पहले खण्ड के चौथे जर्मन संस्करण के सम्पादन में। अमरीका का सफर, और हाल के दिनों के उत्साहबर्धक घटनाक्रमों का उनके शरीर पर अच्छा प्रभाव पड़ा था। भाई को उन्होने 9 जनवरी 1890 को लिखा, “डाक्टरलोग भी विश्वास नहीं करते हैं जब मैं उन्हे कहता हूँ कि मैं अपनी उम्र के सत्तरवें वर्ष में हूँ। … वे कहते हैं कि मैं उससे दस-पन्द्रह साल कम उम्र का दिखता हूँ।” और सच में, उनके काम करने की स्फूर्ति देख कर लोग अवाक रह गये। दो दो ग्रंथों के सम्पादन के साथ साथ वह दिन भर में जर्मनी, फ्रांस, ऑस्ट्रिया-हंगरी, इटली, संयुक्त राज्य अमरीका एवं अन्य देशों से बड़ी संख्या में आने वाले राजनीतिक साहित्य को पढ़ते भी रहते थे। फिर से अखबारों में भी वह लगातार लिखने लगे। सोवियत रूस द्वारा प्रकाशित एंगेल्स की जीवनी में डैनिएलसन को लिखी गई पॉल लाफार्ग की एक चिट्ठी की पंक्तियाँ उद्धृत है, “एंगेल्स एक असाधारण आदमी हैं। … मैंने कभी ऐसा दिमाग नहीं देखा जो इतना जवान हो, इतना फुर्तीला हो, और जिसमें विश्वकोष की तरह इतना ज्ञान हो।”

और क्यों न हो! फरवरी 1890 में एक और बड़ी अच्छी खबर आ गई। 20 फरवरी को जर्मनी के संसदीय चुनाव में सामाजिक जनवादियों की भारी जीत हुई। एंगेल्स को विश्वास था कि वे जीतेंगे। पिछले वर्षों में वह लगातार मेहनत कर जर्मनी की बदलती राजनीतिक परिस्थिति का विश्लेषण करते रहे थे। एक एक घटना का सुत्र जोड़ते हुए उन्होने दिखाया था कि किस तरह तेजी से बिस्मार्क सरकार की नीतियाँ अलोकप्रिय होती जा रही है और सामाजिक-जनवादियों की पैठ जनता में बढ़ रही है। इतनी अधिक उनकी रुचि थी चुनाव में कि बेबेल को उन्होने एक विशेष सांकेतिक भाषा में हर घड़ी टेलिग्राम करने को कहा और स्थानीय डाक घर को बोल आये कि दिन हो या रात, उन्हे हर टेलिग्राम तत्काल पहुँचाया जाय। उनकी उम्मीद से भी बढ़ कर आए नतीजे। सामाजिक-जनवादी प्रत्याशियों के पक्ष में लगभग पन्द्रह लाख मत पड़े और वे पैंतीस आसन जीते। खेतीबाड़ी के इलाकों से भी सामाजिक-जनवादियों को मत प्राप्त होने से एंगेल्स और प्रभावित हुए। उन्होने कहा कि बिस्मार्क युग के अन्त की शुरुआत है। और, वास्तव में बिस्मार्क 20 मार्च को इस्तीफा देने को बाध्य हुए।

मई आ गया। अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक अधिवेशन के आह्वान के अनुसार, 1 मई 1890 फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, अमरीका सहित कई देशों में मनाया गया। इंग्लैंड में मई दिवस का बड़ा आयोजन 1 मई को सम्भव नहीं था इसलिए अगले रविवार, यानि 4 मई को बड़ा समावेश करने के लिए हाइड पार्क का आरक्षण कराया गया था। इसलिए, 1 मई को एंगेल्स घर पर थे और कम्युनिस्ट घोषणापत्र के चौथे जर्मन संस्करण का आमुख लिख रहे थे। उन्होने लिखा, “… एक दूरी तक, घोषणापत्र सन 1848 से आगे आधुनिक श्रमिक वर्ग के इतिहास को प्रतिफलित करता है। आज नि:सन्देह यह पुस्तिका, समाजवादी साहित्य का सबसे व्यापक तौर पर प्रचारित, सबसे अधिक अन्तरराष्ट्रीय उत्पाद है – साइबेरिया से कैलिफोर्निया तक सभी देशों के लाखों-लाख श्रमिकों का सामान्य कार्यक्रम है।”

लन्दन का कार्यक्रम महत्वपूर्ण था क्योंकि इंग्लैंड में पूंजीवादी उद्योगों का विकास बाकी देशों से बहुत आगे था। 4 मई को लन्दन के हाइड पार्क में श्रमिकों का विशाल समावेश हुआ। इसमें सात मंच (अस्थाई, बड़ी खुली मालगाड़ी लगा कर) बनाने के लिए अनुमति ली गई थी, क्योंकि श्रमिक संगठनों के अलग अलग तबकों या गुटों को एक साथ समावेश करना था जिनमें मालिकपंथी एवं अवसरवादी ट्रेड युनियन गुटें भी थी और, आठ घंटा श्रमदिवस के लिए अन्तरराष्ट्रीय कानून की मांग पर एकजुट  जुझारू श्रमिकों के संगठन भी थे। दर असल मई दिवस मनाने का फैसला इन्ही जुझारू संगठनों का था। लेकिन सबको साथ लेकर चलने के लिए उन्होने अन्य ट्रेड युनियन गुटों को भी बुलावा भेजा था। जबकि, शहर के सरकारी प्राधिकार ने मात्र दो मंच जुझारू संगठनों को दिए थे और बाकी उन मालिकपंथी और अवसरवादी ट्रेड युनियन गुटों को। फिर भी, सबसे पहले झंडा, पताका, प्लेकार्ड आदि के साथ सबसे अधिक संख्या में बड़े बड़े जुलूस जुझारू श्रमिकों के ही पहुँचे। उनके नेतृत्व में औरों के साथ थी इलियानोर मार्क्स-एवलिंग् एवं उनके पति। खुद मार्क्स को कितना अच्छा लगता अगर वह अपनी बेटी को इस लड़ाकू भूमिका में देखते!  

समावेश में भाग लेने के बाद, 9 मई को एंगेल्स ने अगस्त बेबेल को लिखा, “पूंजीवादी समाचार-माध्यमों को भी स्वीकार करना पड़ा कि यहाँ 4 मई का प्रदर्शन जबर्दस्त था। मैं मंच संख्या 4 (एक भारी मालगाड़ी) पर था और पूरे समावेश का एक हिस्सा - पाँच या आठ बटा दसवाँ - ही देख पा रहा था। लेकिन जितनी दूर तक नजरें जाती थी, यह चेहरों का एक विशाल सागर था। 2,50,000 से 3,00,000 लोग थे जिसके तीन-चौथाई प्रदर्शनकारी श्रमिक थे। एवलिंग, लाफार्ग और स्तेप्न्याक मेरे मंच से बोले – मैं खुद बस दर्शक था। … सातों मंच एक दूसरे से 150 मीटर की दूरी पर थे, आखरी वाला पार्क के किनारे से 150 मीटर पहले था। मतलब कि हमारी सभा (जो 8 घंटा श्रम-दिवस को अन्तरराष्ट्रीय कानून के द्वारा लागू करने के पक्ष में थी), लम्बाई में 1200 मीटर से ज्यादा और चौड़ाई में कम से कम 400-500 मीटर जगह छेँके हुए थी। पूरी जगह ठसाठस भरी थी।….”

आगे अन्य मंचों की स्थिति का जिक्र करने के बाद एंगेल्स ने कहा, “मार्क्स को यह जागरण दिखा पाने के लिए मैं क्या कुछ नहीं न्योछावर करता! … उस पुराने मालगाड़ी से उतरते हुए मेरा सर दो इंच ऊँचा हो गया था।”

4 मई के प्रदर्शन पर एंगेल्स का जो आलेख आर्बेइटर जाइटुंग में छपा उसके शुरु में ही उन्होने लिखा, “मई दिवस के आयोजन से सर्वहारा ने एक नये युग का निर्माण किया। सिर्फ इसलिए नहीं कि इस दिवस का चरित्र विश्वजनीन है और इस कारण से यह आयोजन जुझारू श्रमिक वर्ग की पहली अन्तरराष्ट्रीय कार्रवाई थी। बल्कि इसलिए कि विभिन्न देशों को एक एक कर देखने पर इस आयोजन ने” [श्रमिक आन्दोलन में] “सन्तोषप्रद प्रगति को चिन्हित किया।”

70वाँ जन्मदिन, ब्रसेल्स का अन्तरराष्ट्रीय अधिवेशन एवं एरफुर्ट कार्यक्रम  

पूंजी के तीसरे खण्ड एवं उसके आगे मार्क्स की बची हुई पाण्डुलिपियों का सम्पादन एंगेल्स के जीवन का मुख्य कार्यभार बन गया था। अपनी तमाम शारीरिक अक्षमताओं की उपेक्षा करते हुए वह प्रतिदिन उसी काम में लगे रहते थे। ऊपर से थे आन्दोलन सम्बन्धित काम। खास कर अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक अधिवेशन को सही दिशा में संचालित करने के लिए काफी मेहनत करने पड़े थे। एंगेल्स फिर अस्वस्थ हो गए। डाक्टरों ने तत्काल उन्हे लन्दन छोड़ किसी दूसरी, बेहतर मौसम वाली जगह पर जाकर गर्मी बिताने का सुझाव दिया। 1 जुलाई 1990 को वह स्कोर्लेमर के साथ, भाप से चलने वाली एक बड़ी नाव पर समुद्री सफर के लिए निकल पड़े। तीन हफ्ते से अधिक समय तक वह सफर चलता रहा। नॉर्वे के पश्चिमी तट बराबर चलते हुए नाव उत्तर की ओर सबसे दूर की जगह, नॉर्थ केप तक गई और फिर वापस लौट आई। इस बार भी सफर को गोपनीय रखा गया क्योंकि जर्मन जहाज ऑर्वे के बन्दरगाह पर लगे थे और उनमें से एक में प्रशिया के राजा विल्हेल्म II भी थे। एंगेल्स ने सफर का पूरा आनन्द लिया और बन्दरगाहों पर उतर उतर कर नॉर्वेवासियों की जीवनयात्रा देखते रहे। लौटने के बाद उन्होने पाया कि उनके आवास का मकानमालिक बदल रहा है और नया मकानमालिक घर का रंगरौगन करवा रहा है। इसलिए एक महीना और उन्होने इंग्लैंड के समुद्रतट फॉकस्टोन पर बिताया।

काफी स्वस्थ होकर लौटने के बाद, पूरी ऊर्जा के साथ वह फिर से काम पर लग गये। सबसे पहले तो एक एक कर पिछले दो महीनों में जमा हुए चिट्ठियों का जबाब दिया। जैसी कि उनकी आदत थी, एक भी चिट्ठी वह बिना जबाब दिए नहीं छोड़ते थे और कुछेक को छोड़कर बाकी सभी चिट्ठियों में प्रेषक के प्रश्नों या सन्देहों का उत्तर वह विशद में जा कर देते थे। या उनके अपने ही सोच में जो सवाल आते थे उस पर वह खुल कर विचार करते थे अपने साथियों के साथ। मार्क्स और एंगेल्स की चिट्ठियाँ इसीलिए समसामयिक विश्व-इतिहास के, विभिन्न देशों में घट रही राजनीतिक घटनाओं के मार्क्सवादी विश्लेषणों का खजाना है।

दो तीन महत्वपूर्ण सवालों पर उन्हे तत्काल हस्तक्षेप करना था। सम्बन्धित आलेख रचनासमग्र में मौजूद हैं। उनमें से एक का थोड़ा विशद में जिक्र करना हमारे लिए जरूरी है। वह है वर्ष 1889 के बाद वर्ष 1891 में अन्तरराष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित करने की तैयारी। पाठकों को याद होगा कि 1889 में पैरिस में दो अन्तरराष्ट्रीय शमिक अधिवेशन का आयोजन किया गया था। मार्क्सवादियों द्वारा किया गया आयोजन ही ज्यादा सफल हुआ था लेकिन उन्होने एक गलती की थी। अगला अधिवेशन कब और कहाँ होगा इसका फैसला नहीं लिया था। अब, फ्रांसीसी ‘सम्भववादियों (पॉसिबिलिस्ट्स) एवं अवसरवादियों ने बेल्जियन श्रमिक पार्टी से बात कर उन्हे ब्रसेल्स में अन्तरराष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित करने का अनुरोध किया। बेल्जियन श्रमिक पार्टी ने इसे मान लिया और 1891 में ब्रसेल्स में अन्तरराष्ट्रीय अधिवेशन करने की घोषणा कर इंग्लैंड के ट्रेड युनियनों को उसमें आने का आमंत्रण दिया। इंग्लैंड के ट्रेड युनियनों ने और खास कर उन नये बने जुझारू युनियनों ने, जिनके झंडे पिछले मई दिवस में सबसे बुलन्द थे, आमंत्रण को खुशी खुशी स्वीकार कर लिया। तब एंगेल्स चकित हुए और उन्होने फिर से हस्तक्षेप किया।

उन ट्रेड युनियनों के लिये आमंत्रण को स्वीकार करना स्वाभाविक था क्योंकि उन्हे पहलीबार किसी अन्तरराष्ट्रीय मंच पर जाने का अवसर मिल रहा था। गलती तो जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड या अन्यत्र मार्क्स-एंगेल्स के अनुयायियों की ही थी कि वे हाथ पर हाथ धरे बैठे रह गए। अब सम्भावना यह थी कि वे, यानि अवसरवादी आयोजक, इन्हे भी आमंत्रण भेजते। लेकिन इस तरह भेजते कि इनके लिए अधिवेशन में भाग लेना सम्भव नहीं होता। ये सारे पेंच एंगेल्स बखूबी जानते थे। वह जान रहे थे कि समाचार-माध्यमों में यही खबर जाती कि ‘आयोजकों ने एकता के लिए कोशिश की थी पर मार्क्स-एंगेल्स के अनुयायी समाजवादियों ने ही इन्कार कर दिया’। तब, एक समानान्तर अधिवेशन का आयोजन करने पर भी इनकी छवि ही खराब होती, कहा जाता कि ये ही श्रमिकों की एकता में फूट डालनेवाले हैं। और, आम श्रमिकों पर भी इसका बुरा असर पड़ता।

एंगेल्स ने अविलम्ब जर्मनी और फ्रांस में अपने साथियों को चिट्ठी लिखा। उनकी कार्यनीति यही थी कि अविलम्ब जाओ, आयोजकों से अपने तरीके से सम्पर्क करो और एकीकृत अधिवेशन की बात करो। एकीकरण के लिए शर्तें क्या क्या होंगी यह भी उन्होने सुझा दिया। चिट्ठियों के अलावे एक लम्बी टिप्पणी भी उन्होने इसी विषय पर तैयार किया जो एंगेल्स की पाण्डुलिपियों में मौजूद थे एवं अब रचनासमग्र में प्रकाशित हैं।

आगे चल कर जब उनके कथनानुसार काम हुआ और आयोजक एकीकृत अधिवेशन के लिए मान गए तब उन्होने सुझाया था कि अधिवेशन में जाने वाले जर्मन सामाजिक-जनवादी पार्टी के प्रतिनिधि, योरोप के तमाम समाजवादी पार्टियों से अधिवेशन में जानेवाले प्रतिनिधियों का एक प्रारंभिक सम्मेलन बुलाए। उक्त सम्मेलन में इस एकीकृत अधिवेशन के पक्ष में राय बना ले। वह भी किया गया था। हैल (जर्मनी) में आयोजित इस सम्मेलन में ब्रसेल्स अधिवेशन को एकीकृत अधिवेशन के रूप में सफल करने की सर्वसम्मत राय बनी थी।

एंगेल्स को पूरा भरोसा था कि अधिवेशन में बहुमत उनकी, यानि उनके अनुयायी, क्रांतिकारी समाजवादियों की ही रहेगी और फैसलों में वे हावी रहेंगे।

4 नवम्बर का दिन एंगेल्स के लिए गहरे आघात का साबित हुआ। हेलेन डेमुथ, दोनों परिवार में सबका प्रिय लेंचेन या निम, चल बसीं। पश्चिम जर्मनी स्थित सारलैंड राज्य के एक किसान परिवार की बेटी हेलेन, अपनी किशोरावस्था में ही वॉन वेस्टफैलेन परिवार (यानि मार्क्स की पत्नी का पैत्रिक परिवार) में रख ली गई थी। सन 1843 में मार्क्स के साथ जेनी वेस्टफैलेन की शादी के दो वर्षों बाद, सन 1845 में दोनों को जर्मनी छोड़ कर ब्रसेल्स (बेल्जियम) आना पड़ा। उस समय जेनी की गोद में थी एक साल की जेनी कैरोलीन (जेनिचेन) और पेट में थी लॉरा। उसी समय जेनी वेस्टफैलेन की माँ ने घर से हेलेन को ब्रसेल्स में जेनी के पास भिजवा दिया। हेलेन जेनी से लगभग छे साल छोटी थी।        उस दिन मार्क्स की मृत्यु तक अड़तीस वर्ष वह मार्क्स परिवार का घर सम्हालने वाली, पारिवारिक मित्र एवं सबसे करीबी राजनीतिक विश्वासपात्र बन कर रही। मार्क्स की मृत्यु के बाद वह घर भी खाली हो गया और एंगेल्स बिल्कुल अकेले पड़ गए। इसलिए हेलेन एंगेल्स के घर पर चली आई। वहाँ भी वह घर सम्हाल ली। पम्प्स बड़ी हो रही थी। उसके लिए भी अभिभावक बन गई। निकटतम राजनीतिक विश्वासपात्र तो वह शुरू से ही थी। अब एंगेल्स को, मार्क्स के दस्तावेजों को सहेजने में भी मदद करने लगी। चूँकि वह और एंगेल्स एक ही उम्र के थे, एंगेल्स को अपना अकेलापन दूर करने में काफी मदद मिला। बहुत अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थी हेलेन। लेकिन फुरसत में बैठ कर, जोर जोर से बोलते हुए किताबें पढ़ती थीं। रात को अपने कमरे में बैठ कर चिट्ठी लिखते हुए एंगेल्स हेलेन के पढ़ने की आवाज सुनते थे। हेलेन को कैंसर हुआ था। मृत्यु के बाद, मार्क्स की इच्छानुसार उन्हे हाईगेट कब्रिस्तान में, मार्क्स की कब्र के बगल में दफनाया गया।

हेलेन की मृत्यु के अगले दिन एंगेल्स ने अमरीका में बसे हुए अपने मित्र ऐडोल्फ सोर्ज को लिखा, “आज मैं आपको एक दुखदायी समाचार देने वाला हूँ। मेरी अच्छी, प्यारी और विश्वस्त लेंचेन, कुछ दिनों की लगभग पीड़ाहीन अस्वस्थता के बाद कल अपराह्न में शांति से सो गई। हम दोनों खुशी के सात साल इस घर पर साथ बिताए। सन 1848 के पहले के हम ही दो पुराने साथी बचे थे। अब फिर मैं अकेले हूँ यहाँ। पिछले सात साल यहाँ मैं लेंचेन की मौजूदगी के कारण, जिस तरह शांति से काम कर पाया, उसी तरह शांति से मार्क्स अनेकों वर्ष काम करने में सक्षम हुए, और वहाँ भी सबसे महत्वपूर्ण कारण थी लेंचेन की मौजूदगी। अब मैं कैसे सब कुछ सम्हालूंगा मुझे नहीं मालूम। एक और चीज जिसकी कमी मुझे खलती रहेगी वह है पार्टी के मामलों में उसके अद्भुत कुशल व्यवहारिक सुझाव।”

हेलेन के मरणोपरांत, एंगेल्स को ही उनके ईच्छापत्र का अनुपालन करना था। ईच्छापत्र यही था कि उनका संचित धन उनके दत्तक पुत्र फ्रेडरिक लुइस डेमूथ को दे दिया जाय। हेलेन की मृत्यु और इस ईच्छापत्र की सूचना देने के लिए हेलेन के एक भतीजे ऐडॉल्फ रीफर को एंगेल्स ने 12 नवम्बर को चिट्ठी लिखा। चिट्ठी में और बातों के अलावे उन्होने लिखा, “मेरे और मार्क्स की बेटियों के साथ, सभी राष्ट्रों के हजारों मित्र – चाहे वे अमरीका के मैदानों मे हों या साइबेरिया के राजनीतिक कारागारों में, और योरोप के सभी देशों में - उनकी मृत्यु से शोक में हैं।”

यह तो सच था कि अपने सत्तरवें जन्मदिन से कुछ दिन पहले हुई इस क्षति के कारण, एंगेल्स बहुत तन्हा हो गए थे। उन्हे यह एहसास था कि अब बाकी जीवन शायद इसी अकेलेपन में गुजारना पड़े। लेकिन साथ ही साथ एक व्यवहारिक समस्या भी थी। घर के कामकाज के लिए तो लन्दन शहर में औरत मिल जाती। लेकिन वह कैसी होगी? पूरे घर में रखे कागज, किताबें, दस्तावेज, पाण्डुलिपियाँ आदि के साथ वह क्या बर्ताव करेगी? विभिन्न देशों के साथी आते रहेंगे, उस राजनीति की बात होगी जो अधिकांश देशों की खुफिया पुलिस के नजरों पर चढ़ी हुई है – उस बातचीत के प्रति उस औरत का क्या रुख होगा? और उस स्थिति में उस पर कौन नजर रखेगा? खुद एंगेल्स रखेंगे तो काम कैसे होगा?

इन्ही चिंताओं के बीच एंगेल्स को कार्ल काउट्स्की की तलाकशुदा बीवी लुइसा स्ट्रेसर की याद आई। बहुत अच्छी औरत थी वह और एंगेल्स, लेंचेन (हेलेन), इलियानोर, लॉरा सब उसे पसंद करते थे। बल्कि परोक्ष तौर पर तलाक के लिए काउट्स्की का तिरस्कार भी करते थे। वह वियेना (ऑस्ट्रिया) में थी और वहां के समाजवादी आन्दोलन के नेता विक्टर ऐडलर के सम्पर्क में थी। एंगेल्स ने लुइसा को स्पष्टत: लिखा सोच लेने के लिए, ऐडलर से बात कर लेने के लिए और यहाँ, यानी एंगेल्स के घर पर आकर फैसला लेने के लिए। … स्ट्रेसर मान गईं और एंगेल्स की समस्या खत्म हुई। कुछ दिनों बाद, 28 नवम्बर को जब बर्लिन से बेबेल, लिब्नेख्त और सिंगर तथा स्थानीय तौर पर और कई लोगों ने आकर एंगेल्स का 70वाँ जन्मदिन मनाया तब एंगेल्स के साथ लुइसा स्ट्रेसर भी थी। अगले वर्षों में लुइसा स्ट्रेसर ही एंगेल्स के घर को भी सम्हाली और सचिव के तौर पर भी काम करती रही।

एंगेल्स के सत्तरवें जन्मदिन मनाए जाने को सभी जीवनी में बड़ी जगह दी गई है। कारण यह है कि यह कोई व्यक्तिगत प्रसंग नहीं था। व्यक्तिगत तौर पर तो एंगेल्स का शोक खत्म नहीं हुआ था। इस उम्र में साथी, मित्र जुदा होते जायेंगे इसका एहसास भी था। बारह साल पहले पत्नी लिज्जी को खो देने के बाद व्यक्तिगत जीवन में एंगेल्स अकेला हो गए थे। सात साल पहले मार्क्स के गुजर जाने से, पिछले पाँच दशकों की बसाई गई दुनिया ही एंगेल्स के लिए खत्म सी हो गई। अब वह सिर्फ उस दुनिया को यथासम्भव लोगों के दृष्टिगोचर कर रहे थे – यही उनका मानना था। पुराने जोशीले योद्धाओं के अग्रज जैसे साथी जोहान फिलिप बेकर तीन साल पहले गुजर गए। और अब हेलेन के जाने से उनके अकेलेपन का सबसे बड़ा सहारा चला गया था। जन्मदिन के दो दिन पहले, 26 नवम्बर को उन्होने ऐडोल्फ सोर्ज को लिखा, “जन्मदिन मनाने जैसी मानसिक स्थिति मेरी बिल्कुल ही नहीं है। और ऊपर से ये सब बेकार के शोर-शराबे हैं जो मेरे लिए, सबसे अच्छे समय में भी असहनीय होता है। और अन्तत:, एक बड़े हद तक, मैं बस एक सामान्य आदमी हूँ जो मार्क्स की बोई हुई ख्याति का फसल काट रहा है।”

लेकिन एंगेल्स का सत्तरवाँ जन्मदिन, पिछले बयालीस वर्षों में जो बृद्धि हुई मार्क्सवाद की पहुँच में, उसका गवाह बना। व्यक्तिगत अभिनन्दन पत्र ओ आए ही, पूरी दुनिया से आये। लेकिन जो तार आये अभिनन्दन के, वे खास कर संगठनों या संस्थाओं या गुटों से आये। बर्लिन से तीन, वियेना से तीन, पैरिस से रुमानियाई छात्र, बर्न (स्विट्जरलैंड) से ‘रूसी सामाजिक-जनवादी’, लाइपजिग से ‘शहर और देश’, बोचम (जर्मनी) से ‘वर्ग-सचेत खनिक’, स्टुटगार्ट से ‘सामाजिक-जनवादी’ और भी कई देशों, कई शहरों और कई दलों के आए। कई ने तोहफे भी भेजे, तस्वीरों के ऐलबम और भी चीजें। सोवियत रूस से प्रकाशित जीवनी में प्योत्र लावरोव लिखित अभिनन्दन पत्र से उद्धृत है, “आपको बधाई। समाजवाद के इतिहास में कार्ल मार्क्स के बगल में अकेला आपका नाम अमिट अक्षरों में लिखा है और उनके भव्य नाम की चमक से आपका नाम फीका नहीं पड़ता है।” प्लेखानोव ने लिखा, “सर्वहारा के लिए किए गये कामों के मामले में आज किसी की भी एंगेल्स से तुलना नही हो सकती है।”

एंगेल्स ने सभी पत्रों का उत्तर दिया, जैसी कि उनकी आदत थी। मजाक में उन्होने लॉरा को लिखा था कि एक दिन की कविता (पत्रों का मिलना) के बाद इतने दिनों गद्य (पत्रों का उत्तर देना) होता है। सभी उत्तरों में एंगेल्स ने वही कहा जो लावरोव वाले से हम उद्धृत कर रहे हैं, “पिछले शुक्रवार को मुझ पर जो सम्मानों की बारिश की गई उसके सिंह-भाग पर मेरा अधिकार नहीं बनता है और यह बात मुझसे ज्यादा और कोई नहीं जानता है। …. जहाँ तक उस छोटे से हिस्से का सवाल है जो मेरा बनता है, उसे मैं बिना धृष्टता के स्वीकारता हूँ, और उसके लायक बने रहने के लिए मैं पूरा प्रयास करूंगा।”

काम बहुत थे और एंगेल्स के लिए लगातार बैठना सम्भव नहीं हो रहा था। वह खुद किसी चिट्ठी में लिखते हैं कि उन्हे अब साल में कुल मिला कर आठ हफ्तों की छुट्टी चाहिए होती है। काम के बोझ और तनाव के कारण अगले वर्ष, यानि 1891 में उन्हे कई बार लन्दन के गुमसुम बदराए आबोहवा से बाहर समुद्री या खुली हवा में जाना पड़ा। जून के अन्त से अगस्त के अन्त तक वह लगभग बाहर ही रहे, विट द्वीप के राइड नाम की जगह पर। साथ में थे स्कोर्लेमर और जुलियन हार्ने। होटल ढूंढ़ने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि उस समय उनकी पत्नी की भांजी पम्प्स अपने पति के साथ यहीं रहती थी। उसके पति पर्सी रोशर, यहाँ अपने भाईयों के साथ रह कर कुछ रोजगार की कोशिश कर रहे थे। फिर सितम्बर में दो हफ्ते वह आयरलैंड और स्कॉटलैंड की ओर चले गए। उस यात्रा में पम्प्स या मेरी एलेन रोशर (शादी के बाद का नाम) और लुइसा स्ट्रेसर (उनके तत्कालीन सचिव) उनके साथ थीं।

लेकिन जून में बाहर जाने से पहले 3 मई को मई दिवस मनाने वह हाइड पार्क जरूर गये थे। वस्तुत:, वर्ष 1890 के 4 मई को जो वह हाइड पार्क के समावेश में शामिल हुए, उसके बाद से हर साल वह मई दिवस के समावेश का इन्तजार करते थे और एक उत्सव में शामिल होने जैसी खुशी महसूस करते थे। बाद में चिट्ठी लिखते हुए गर्व के साथ लन्दन के समावेश में खुद के शामिल होने का जिक्र करते थे और दूसरे देशों में कहाँ और कैसे मनाया गया उसके बारे में जानना चाहते थे। वर्ष 1891 में समावेश 3 मई को हुआ, जिसमें एंगेल्स न्यु जेइट अखबार के पत्रकार के रूप में मंच संख्या 6 पर थे। उनके अपने आकलन के अनुसार उस समावेश में ढाई लाख श्रमिक शामिल हुए थे। पत्रकार के रूप में उनके नाम से जारी प्रेस-कार्ड की तस्वीर उनकी जीवनियों में उपलब्ध है।

उनके कामों के उन्ही हिस्सों पर हम यहाँ प्रकाश डाल रहे हैं जिनके साथ हम आज, भारत में काम करते हुए, खुद को जोड़ सकते हैं। उन्होने फ्रांस और इटली के समाजवादियों को कैसे मदद किया, स्पेन के समाजवादियों के लिये क्या किया, हंगरी और ऑस्ट्रिया के लिए क्या किया, अमरीका के लिए क्या किया यह सब बताने में इस संक्षिप्त जीवनी के पृष्ठ बढ़ते जायेंगे। इंग्लैंड में चूँकि वह रह रहे थे इसलिए वहाँ उनकी भूमिका की चर्चा जरूरी हो जाती है (वैसे वहाँ फिलहाल सबसे महत्वपूर्ण घटना थी, आठ घंटे श्रमदिवस की मांग के इर्दगिर्द, पुराने मालिक-परस्त ट्रेड युनियनों के विरुद्ध नए अप्रशिक्षित मजदूरों के जुझारू संगठनों का खड़ा होना। और इस काम में सबसे प्रमुख भूमिका में थी इलियानोर, मार्क्स की छोटी बेटी; वह वहाँ ‘माँ’ कहलाने लगी थी)।

रूस पर मार्क्स और एंगेल्स दोनों ने प्रमुखता के साथ काम किया क्योंकि योरोपीय प्रतिक्रिया की सबसे मजबूत गढ़ थे रूस और उसका सैन्यवाद। प्रशियाई साम्राज्य को बने रहने में, बुर्जुवा-क्रांति और पैरिस कम्यून के देश फ्रांस में प्रतिक्रिया को मजबूत करने में या ब्रिटेन में रक्षणपंथियों को राजनीतिक लाभ पहुँचाने में कारक बन जाते थे रूस की जारशाही और उसकी सैन्यनीति। लेकिन उस काम पर भी चर्चा, भले शोधकर्ताओं के लिए जरुरी हो, आज सामान्य पाठकों को रुचिकर नहीं प्रतीत होगा। क्योंकि हम रूस को जानने ही लगे अक्तूबर क्रांति के बाद से, लेनिन की जीवनी से। वैसे एक मजेदार बात का जिक्र किया जा सकता है। पहले ही बताई गई है रूसी कृषि से सम्बन्धित सांख्यिकी और दस्तावेज, मार्क्स ने इतने जमा किए थे पूंजी के लिये कि वे “दो घन मीटर” जगह लिए हुए थे। पॉल लाफार्ग अपने संस्मरण में जिक्र करते हैं कि जब कभी मार्क्स एंगेल्स को डाँटते थे कि “इन्सानियत के लिए काम करने के बारे में न सोचते हुए” उन्हे बस हर विषय में ज्ञान आहरण करने में आनन्द आता है, तो एंगेल्स पलट कर जबाब देते थे, “तुम्हारे इन कृषि सम्बन्धित रूसी प्रकाशनों को जला डालने में भी मुझे आनन्द आएगा, यही तुम्हे बरसों से पूंजी को खत्म करने से रोक रहा है”।  

लेकिन सबसे ज्यादा काम उन्होने जर्मनी पर किया। इसलिए नहीं कि वे जर्मन थे। खुद को वे विश्वनागरिक तो कहते ही थे, यह भी सच्चाई है कि एक कम्युनिस्ट का, मार्क्सवादी विश्वदृष्टि के अनुयायी एक वैज्ञानिक समाजवादी का, मानवता के लिये किया गया काम तभी सार्थक होगा जब वह अपनी सोच में विश्वनागरिक होगा। जहाँ तक भाषा का सवाल है, एंगेल्स की तरह अगर नहीं, तो भी चार पाँच भाषा तो जानते ही थे मार्क्स। जर्मनी पर उन्होने इसलिए अधिक काम किया क्योंकि जर्मनी के समाजवादी आन्दोलन में उस सदी के चालीस की दशक से, उनके ही शुरुआती कामों के फलस्वरूप, सामाजिक-जनवादी पार्टी की मार्क्सवादी या वैज्ञानिक समाजवादी धारा, या सर्वहारा क्रांति की धारा सबसे अधिक मजबूत हो गई थी। और उस धारा के द्वारा किए जा रहे वैचारिक, सांगठनिक एवं बाद में संसदीय काम तत्काल दूसरे देशों के क्रांतिकारी आन्दोलन को प्रभावित करते थे। यही हुआ एरफुर्ट कार्यक्रम पर बहस में।

जर्मनी में समाजवादी-विरोधी कानून की वापसी के बाद सामाजिक-जनवादी पार्टी ने अपने लिए नया कार्यक्रम बनाने का फैसला लिया। यह फैसला अक्तूबर 1890 में, हैल में आयोजित अधिवेशन में लिया गया था। इस नये कार्यक्रम का मसौदा, जर्मनी के सामाजिक-जनवादी पार्टी की कार्यकारिणी द्वारा एंगेल्स सहित अन्य जर्मन सामाजिक-जनवादी नेताओं को जून 18, 1891 को भेज दिया गया था। गोथा कार्यक्रम, या एकता कार्यक्रम (इसी जीवनी में पहले के अध्याय में जिक्र है) के 16 वर्षों के बाद पार्टी का नया कार्यक्रम बनने जा रहा था।

एंगेल्स को आशंका थी कि लासालपंथी भले ही पिछले 16 वर्षों के विकासक्रम से अप्रासंगिक हो गए हों, अवसरवाद किसी न किसी रूप में हमेशा सर उठा सकता है। समाजवादी-विरोधी कानून की वापसी, पार्टी की संसदीय जीत आदि कई परिप्रेक्ष थे इसके। एंगेल्स ने पहला काम किया कि नए कार्यक्रम बनने के अवसर पर गोथा कार्यक्रम की आलोचना को एक नये आमुख के साथ न्यु जेइट में छपने के लिए भेज दिया। वर्ष 1875 में यह कहीं छपी नहीं थी। मार्क्स के जीवनकाल में कहीं नहीं छपी। पहलीबार इसे छपने के लिए भेजते हुए एंगेल्स ने पाण्डुलिपि में थोड़ा संशोधन किया। खास कर जिन शब्दों में व्यक्तिगत आक्षेप थे और इतनी लम्बी अवधि में निरर्थक हो गए थे, उन शब्दों की जगह बिन्दु-चिन्ह डाल दिया। जिन शब्दों से सेंसर को आपत्ति हो सकती थी उनकी जगह पर भी वही किया। जर्मनी में पार्टी के अन्दर संसदीय दल के एक हिस्से को एवं कुछ लोगों को इस दस्तावेज का इस समय छपना नागवार गुजरा। लेकिन आम तौर पर लोगों ने इसका स्वागत किया।

दूसरा काम, जब नये कार्यक्रम का मसौदा पहुँचा तो एंगेल्स ने उसकी एक आलोचना तैयार किया – 1891 के सामाजिक जनवादी कार्यक्रम के मसौदे की आलोचना । यह आलोचना उस समय कहीं छपी नहीं। रचनासमग्र में दी गई टिप्पणी के अनुसार यह आलोचना वर्ष 1901 में (यानि एंगेल्स की मृत्यु के छे साल बाद) न्यु जेइट में छपी, एवं इसकी पाण्डुलिपि लिब्नेख्त के कागजातों में मिली। हालाँकि आलोचना की शुरुआत ही एंगेल्स ने नये कार्यक्रम के समर्थन द्वारा किया और कहा कि “विशेष रूप से लासालपंथी एवं भद्दे समाजवादी, दोनों पुरानी पड़ चुकी परम्पराओं के मजबूत अवशेषों को मोटे तौर पर हटा दिया गया है”, विशद में जा कर उन्होने कार्यक्रम में इस्तेमाल किए गए कुछेक उन शब्दावलियों की आलोचना की, जो भ्रम पैदा करते हैं। उनका सुधार भी पेश किया। इतिहास बताता है कि उन सुधारों को सामान्यत: ग्रहण कर अन्तत: कार्यक्रम को अन्तिम रूप दिया गया। इसका मतलब है कि समय पर ही यह आलोचना जर्मन पार्टी की कार्यकारिणी के पास पहुँची थी।

अक्तूबर 14 से अक्तूबर 20 तक जर्मनी के एर्फुर्ट में पार्टी का जो कांग्रेस हुआ उसके नतीजों से एंगेल्स निश्चिन्त और प्रसन्न हुए। सोवियत रूस द्वारा प्रकाशित जीवनी लिखता है, “जर्मन सामाजिक-जनवादियों द्वारा मार्क्सवादी कार्यक्रम ग्रहण किए जाने का पूरे अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक-वर्ग आन्दोलन पर मजबूत प्रभाव पड़ा। यह, टुटपूंजिए समाजवाद की विभिन्न धाराओं पर मार्क्सवाद की वैचारिक जीत थी। अगले कई वर्षों तक यह कार्यक्रम, दूसरे देशों के समाजवादियों के लिए मॉडल बना रहा।”

वैसे इसके दो महीने पहले, 16 से 22 अगस्त तक ब्रसेल्स में अन्तरराष्ट्रीय समाजवादी श्रमिकों का अधिवेशन ब्रसेल्स में हो चुका था। इसकी तैयारी में एंगेल्स के कामों का जिक्र इसी अध्याय में पहले हो चुका है। चिंतित तो एंगेल्स थे ही। 20 जुलाई को उन्होने लॉरा लाफार्ग को लिखा था, “पॉल सोचता है टुसी जरूरत से ज्यादा ब्रसेल्स को लेकर परेशान है – पर मुझे नहीं लगता है। हो सकता है सब कुछ ठीक से हो जाए, और निश्चित ही होगा अगर सभी बुनियादी कामों में लगे रहें, लेकिन मुझे ऐसे अधिवेशनों के अत्यधिक अनुभव हैं। मैं जानता हूँ कि कितनी आसानी से सब कुछ गलत हो जा सकता है। … हमारी एक गलती के कारण, एक अवसर के कारण, जिसकी उपेक्षा की गई, अगले कई वर्षों तक हमें निष्प्रयोजन लेकिन अपरिहार्य काम करते रहने पड़ेंगे।”

खैर, ऐसा हुआ नहीं। अधिवेशन में कई योरोपीय देशों एवं संयुक्त राज्य अमेरिका के समाजवादी पार्टियों एवं अनेकों ट्रेड युनियनों से कुल लगभग साढ़े तीन सौ प्रतिनिधि आये थे। श्रम कानून, हड़ताल, बहिष्कार, सैन्यवाद एवं मई दिवस मनाने पर विचार किया गया। सभी देशों के श्रमिकों को पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष का आह्वान किया गया। हड़ताल और बहिष्कार को श्रमिकों के लिए एकमात्र हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की बात हुई। यह भी कहा गया कि श्रमिकों के लिए ट्रेड युनियनों का होना अत्यावश्यक है। सैन्यवाद एवं युद्ध को पूंजीवाद के अनिवार्य परिणाम के रूप में चिन्हित किया गया। समाजवादियों को शांति का पक्षधर माना गया। सभी देशों में मई दिवस मनाने का आह्वान किया गया।

सैन्यवाद पर इतनी अधिक चर्चा का मुख्य कारण था योरोप की स्थिति। रूस सहित सभी देशों अनाज के उत्पादन में भयानक कमी और अकाल की परिस्थिति उत्पन्न हो गई थी। इसके सम्भावित परिणाम थे पूंजीवादी संकट और उससे निजात पाने के लिए एकमात्र पूंजीवादी अस्त्र का इस्तेमाल - युद्ध की तैयारी और अंधराष्ट्रवाद का प्रचार। इस पर एंगेल्स के आलेख भी आये थे तत्कालीन अखबार में।

ब्रसेल्स के परिणामों से मोटे तौर पर संतुष्ट होते हुए 2 सितम्बर 1891 को एंगेल्स ने ऐडॉल्फ सोर्ज को लिखा, “सिद्धांत के मामलों में मार्क्सवादी पूरे अधिवेशन में विजयी रहे हैं।” साथ ही अधिवेशन के दो मुख्य घटनाक्रम गिनाए थे एंगेल्स ने। पहला, अधिवेशन के प्रारम्भ में ही बहुमत के द्वारा अराजकतावादी प्रवृत्तियों को परास्त किया जाना। और दूसरा, इंग्लैंड के सशक्त ट्रेड युनियनों, खास कर नये बने, अप्रशिक्षित श्रमिकों के जुझारू ट्रेड युनियनों को शामिल किया जाना।

पूंजी के तीसरे खण्ड का प्रकाशन

मार्क्स के और अपने पूर्वप्रकाशित रचनाओं के नये संस्करणों का प्रकाशन एंगेल्स को, सम्पादन, पत्र-लेखन एवं विभिन्न देशों के पार्टी प्रतिनिधियों-अतिथियों से मिलने के नियमित काम से अलग, चिन्तन और लेखन का एक अवसर देता था। क्योंकि अनुवादक या प्रकाशक उनसे एक नया आमुख, प्राक्कथन या भूमिका मांगते थे। फलस्वरूप, पूंजी के तीसरे खण्ड के सम्पादन का काम सर पर रहने के बावजूद एंगेल्स कुछ दिनों के लिए अपने प्रिय विषयों – दर्शन, राजनीतिक इतिहास, प्राचीन इतिहास, विज्ञान आदि – के अध्ययन और लेखन में डूब जाते थे। कई ग्रंथों एवं पुस्तिकाओं के लिए कई भाषाओं में उनके लिखे गये आमुख ये बताते हैं कि जिस समाज के पाठकवर्ग के पास एक रचना पहुँच रही है – या तो दूसरी भाषाओं के या दूसरी पीढियों के – उनके समकालीन ऐतिहासिक परिस्थिति के साथ रचना के अन्तर्वस्तु को कैसे जोड़ा जाना चाहिए।

फिर भी, समाजवाद: काल्पनिक और वैज्ञानिक के साथ कुछ और भी बात हुई। एडवर्ड एवलिंग का अनुवाद था, अंग्रेजी संस्करण के प्रकाशन के लिए प्रकाशक से बात हो चुकी थी। प्रकाशक वैचारिक आलेखों पर पुस्तिकाओं की एक शृंखला बना रहा था, सब एक - कुछ महंगे - दाम के, उसी में इस आलेख को भी जगह देना था। दाम के अनुपात में आलेख छोटा था, तो प्रकाशक ने प्रेसवाले तरीके से ‘लीडिंग’ को बदल कर आलेख को अधिक पृष्ठों का बनाया। लेकिन, आखिर कितना फैलाए! तब एंगेल्स को प्रकाशक ने खबर भिजवाया कि उसे आमुख नहीं, भूमिका चाहिए, लम्बी सी।

सात दिन लग गए भूमिका लिखने में। और इस तरह अन्तत:, हमें एक असाधारण आलेख मिल गया। 16 अप्रैल 1892 को उन्होने अगस्त बेबेल को लिखा, “वैसे यह इतना सीधा नहीं था। पहली बार मुझे ‘छिक्षित’ [तथाकथित शिक्षित लेकिन दिलदिमाग से जाहिल के लिए व्यंगात्मक अपशब्द] अंग्रेज जनता के सामने खुद को पेश करना था और इसके लिए कुछ चिन्तन जरूरी था। खैर, जो निकल कर आया वह इधर-उधर की कई चीजों के बारे में एक लम्बा निबन्ध है जिसके पूरे में एक सुसंगत आवर्ती विचार है – ब्रिटिश पूंजीवादियों का तीखा उपहास।”   

दशकों पहले लिखे गए पवित्र परिवार से उद्धरण दे कर उन्होने दिखाया कि भौतिकतावाद के विकास में इंग्लैंड कि भूमिका के बारे में मार्क्सवादी क्या सोचते हैं। पवित्र परिवार में मार्क्स ने लिखा था कि “… सत्रहवीं सदी से आगे सारे आधुनिक भौतिकतावाद का आदि आवास इंग्लैंड है।” उसके आगे मिनिमैलिस्ट्स, फ्रांसिस बेकन, हॉब्स, लॉक आदि के दर्शनों में भौतिकतावाद के विकास को दिखाते हुए वह समकाल तक पहुँचे थे। “यही कार्ल मार्क्स ने आधुनिक भौतिकतावाद के ब्रिटिश उत्पत्ति के बारे में कहा था” एंगेल्स ने कहा। उसके बाद, इतिहास की धारा में फ्रांसीसी भौतिकतावाद और जर्मन भौतिकतावाद का उन्होने एक संक्षिप्त परिचय दिया। फिर चले आये इंग्लैंड के इतिहास में, अंग्रेज पूंजीवादियों के विकासक्रम पर। दर्शाया कि क्यों पूंजीवादी वर्ग, जिसने अपनी ही वर्गीय जरूरत से विज्ञान एवं भौतिकतावादी दर्शन का इतना विकास किया, अन्तत: गिर्जा और धर्म के शरण में चला गया – बल्कि, सामंतों का भी हाथ चूम लिया। अपने स्वतंत्र राज की जगह पर उसे धर्म की छत्रछाया में, सामन्तों के साथ मिल कर, कभी कभी तो उनकी अगुवाई में राज करना ज्यादा भा गया। सिर्फ एक ही कारण – सर्वहारा का डर। फ्रांसीसी क्रांति के अगले ऐतिहासिक चरण के रूप में पैरिस कम्यून का जिन्दा मिसाल!

इस भूमिका का जर्मन अनुवाद अलग से न्यु जेइट पत्रिका में छपा। फिर आगे इसके कई मुद्रण हुए।

27 जून 1892 को कार्ल स्कोर्लेमर की मृत्यु हो गई। अपने एक अच्छे करीबी मित्र एवं एक आदर्श व्यक्ति की मृत्यु ने उन्हे विचलित कर दिया। स्कोर्लेमर मैंचेस्टर में ही रहते थे। सन 1858 में विज्ञान के क्षेत्र में आगे काम करने के लिए वह इंग्लैंड आ गए थे। एंगेल्स, खबर मिलते ही मैंचेस्टर गये। लेकिन उनके पहुँचते पहुँचते स्कोर्लेमर दफनाये जा चुके थे। वोर्वार्ट्स में जो शोक-संदेश-सह-जीवनी प्रकाशित हुई उसमें पहले ही पैरा में एंगेल्स ने लिखा, “अपनी प्रतिबद्धता को गुप्त रखना तो दूर, अपनी मृत्यु तक वह जर्मनी की समाजवादी पार्टी के नियमित बकाया-भुगतान करने वाले सदस्य थे। … वर्ष 1871 में उनका नाम रॉयल सोसाइटी, विज्ञानों की अंग्रेज अकादमी, की सदस्यता के लिए प्रस्तावित किया गया और, जैसा कि अक्सर नहीं होता है, उन्हे अविलम्ब चुन लिया गया। … लेकिन इन सार्वजनिक सम्मानों से उन्हे कोई फर्क नहीं पड़ता था। विनम्रता की आत्मा थे वह …”। विज्ञान पर एंगेल्स के कामों में वह आजीवन मददगार रहे।

इसी वर्ष के अन्तिम महीनों में एंगेल्स के पास, जर्मन भाषा में प्रकाशित हो रहे राजनीतिविज्ञान के एक अभिधान/शब्दकोष में शामिल करने के लिए कार्ल मार्क्स की एक संक्षिप्त जीवनकथा लिखने का अनुरोध आया। मार्क्स की जीवनकथा वह तीसरी वार लिख रहे थे। इस बार वाले आलेख में, प्रथम अन्तरराष्ट्रीय, पूंजी (खण्ड 1) एवं मार्क्स के अन्तिम वर्षों की विशद चर्चा तो थी ही, एक अतिरिक्त काम भी इस सिलसिले वह करके रखे, जो मार्क्सवादियों की अगली पीढ़ी के लिये बहुत लाभदायक साबित हुआ। शुरु से मृत्यु तक प्रकाशित एवं मृत्यु के बाद प्रकाशित या प्रकाशन के इन्तजार में (पूंजी III) कुल रचनाओं की उन्होने एक सूची बनाई।

शायद इसी समय, या इसके पहले या बाद में, यानि जब उन्हे लगा होगा कि उन्हे खुद याद रखने में सुविधा होगी, उन्होने अपनी रचनाओं (आमुख/भूमिका लेखन एवं सम्पादन सहित) की भी एक सूची बनाई थी। इन दोनों में अखबारी लेख, उनके अपने सैन्य-सम्बन्धित लेख शामिल नहीं थे। मार्क्सवादी वैचारिक रचनाओं को उन रचनाओं से अलग दिखाने के लिए उन्होने - जैसा की रचनासमग्र की सम्बन्धित टिप्पणी कहती है - अपनी वाली सूची के ऊपर उपशीर्षक भी दिया “मेरी अमर रचनाएँ”।  दोनों सूचियाँ उनकी पाण्डुलिपियों में मिली।

वर्ष 1993 के प्रारम्भ में उनके दो स्वतंत्र आलेख प्रकाशित हुए। यानि कि ये भूमिकाएं या आमुख नहीं थे। मार्क्स के ग्रंथों एवं विचारों पर ‘चोरी’ के लगे झूठे आरोपों के खण्डनात्मक आलेखों की शृंखला भी नहीं थे जैसा दो वर्ष पहले ब्रेन्तानो नाम के एक शख्स के खिलाफ उन्हे लिखना पड़ा था। वैसे, मार्क्स के खिलाफ ईर्षाजनित, ‘चोरी’ के झूठे आरोप आजीवन लगते रहे। हर दो-टकिया बुद्धिजीवी खुद को प्रचारित करने के लिए अखबारों में आ जाता था कि मार्क्स ने अमुक विचार उससे ‘चोरी’ की है। और आजीवन, एंगेल्स ही मुख्यत: उन दो-टकियों के खिलाफ लड़ते रहे।

लेकिन इन दो लेखों का परिप्रेक्ष अलग था। 1892-93 में इटली में एक बड़ा घोटाला हुआ था जिसमें सरकार के मंत्री, सांसद, वकील, पत्रकार एवं कुछ निजी व्यक्ति भी शामिल थे। इटली के समाजवादी दार्शनिक ऐन्तोनिओ लैब्रिओला एंगेल्स के मित्र थे। उन्होने ही सारे कागज जुटाकर दिए। एंगेल्स ने यह आलेख वोर्वार्ट्स में छपवाते हुए सम्पादक लिब्नेख्त को कहा लेखक को गुमनाम रखने के लिए, ताकि इटली की पुलिस या गुप्तचर उनका पीछा करते हुए लैब्रिओला तक न पहुँच जाय। आलेख का नाम उन्होने दिया इतालवी पनामा । वर्ष 1879 में फ्रांस के मंत्रियों, अधिकारियों और समाचार माध्यमों को घूस देकर एक घोटाला किया गया था। पनामा स्थल-डमरुमध्य या इस्थमस के आर-पार नहर खोदने के नाम पर पैसे लूटे गए थे। उसी से एंगेल्स ने इस आलेख का नाम रखा इतालवी पनामा

दूसरा आलेख था, क्या योरोप में निशस्त्रीकरण सम्भव है? यह आलेख भी वोर्वार्ट्स में छपा था, आठ किश्तों में। वैसे तो तात्कालिक कारण था जर्मनी के राइखस्टैग में रक्षा-व्यय बढ़वाने के लिए आने वाला एक विधेयक। लेकिन आलेख लोकप्रिय हुआ। पुस्तिका के रूप में कई बार छपा। जब पुस्तिका के रूप मे छपा तब उसके लिए उन्होने एक प्राक्कथन लिखा। उक्त प्राक्कथन में एंगेल्स ने कहा कि उन आलेखों की शृंखला में वह “बढ़ते हुए लोगों द्वारा मानी जा रही एक बात से आगे बढ़ते हैं कि स्थाई सेना की प्रणाली बेहद अतिरेक के साथ पूरे योरोप में लागू की जा चुकी है। अब या तो इसके चलते सैन्यजनित बोझ से सभी देशों के जनता की आर्थिक बर्बादी होगी या एक दूसरे को खत्म करने के सामान्य युद्ध में यह स्थाई सेना नष्ट होगी। एकमात्र उपाय है कि थोड़ा समय लेते हुए इन स्थाई सेनाओं को, जनता के सार्वजनिक शस्त्रीकरण पर आधारित जनसेनाओं में बदल दिया जाय।

“मैंने साबित करने की कोशिश की है यह बदलाव अभी इसी वक्त सम्भव है – मौजूदा सरकारों के लिए भी और मौजूदा राजनीतिक परिस्थिति में भी। बल्कि इसी परिस्थिति को मैंने आधार बनाया है और फिलहाल ऐसे साधन सुझाए हैं जिसे कोई भी सरकार, राष्ट्रीय सुरक्षा को कमजोर किए बिना ग्रहण कर सकता है।”

इसके आगे वह अन्ततराष्ट्रीय समझौतों की बात करते हैं। यह भी दर्शाते हैं कि इसके बाद भी कोई सरकार अगर स्थाई सेना के पक्ष में रहता है तो मानना होगा कि उसके दुश्मन बाहरी नहीं, आंतरिक हैं। निशस्त्रीकरण पर विमर्श के सन्दर्भ में एंगेल्स के आलेखों की वह शृंखला, दो विश्वयुद्धों के बाद नाभिकीय शस्त्रों के अंबार पर खड़ी आज की दुनिया के लिए और अधिक प्रासंगिक है।

वर्ष 1893 के अगस्त और सितम्बर महीनों में एक लम्बे अर्से के बाद एंगेल्स योरोप भ्रमण के लिए निकले। चिट्ठियों से प्रतीत होता है कि पिछले वर्ष भी उन्होने जाने की तैयारी थी लेकिन ऐन वक्त पर बीमार पड़ गये थे। इस बार इसीलिए, एक सप्ताह पहले ही इस्टबोर्न जाकर उन्होने समुद्री हवा में थोड़ी ताकत जुटा ली और फिर एक अगस्त को महादेश की ओर जाने के जहाज पर चढ़े। साथ में थी उनकी सचिव लुइसा स्ट्रेसर। साथियों से, अपने भाई से मिलने-जुलने के अलावे दो अतिरिक्त कारण थे इस यात्रा के। पहला तो यह कि 6 अगस्त से ज्युरिख में अन्तरराष्ट्रीय समाजवादी श्रमिक अधिवेशन होने वाला था जिसमें वह भाग लेना चाहते थे। दूसरा यह था कि पूंजी के तीसरे खण्ड के सम्पादन के काम का अन्त नजर आने लगा था। 12 जुलाई 1893 को एंगेल्स ने फिलिपो तुराती को लिखा, “तीसरा खण्ड अभी भी मुझे परेशान कर रहा है, लेकिन खुशी है कि अन्त दिखने लगा है।”

महादेश पहुँचकर सबसे पहले वे कोलोन गये। वहाँ वे अगस्त बेबेल एवं उनकी पत्नी से मिले। फिर बेबेल दम्पति के साथ माइन्ज और स्ट्रॉसबर्ग होते हुए ज्युरिख पहुँचे। स्वीट्जरलैंड में ही ग्रॉबुन्डेन में उनके भाई हेर्मन रहते थे। ज्युरिख से वह अपने भाई से मिलने चले गये और फिर 12 अगस्त को ज्युरिख वापस चले आये अन्तरराष्ट्रीय समाजवादी श्रमिक अधिवेशन के अन्तिम सत्र में भाग लेने के लिए। अधिवेशन में 18 देशों के 411 प्रतिनिधि भाग ले रहे थे। कक्ष में मार्क्स की तस्वीर लगी हुई थी। अधिवेशन के ब्युरो ने उन्हे सत्र की अध्यक्षता कर सत्र की समाप्ति घोषित करने का आग्रह किया।

एंगेल्स का समापन भाषण तीन भाषाओं – अंग्रेजी, फ्रांसीसी और जर्मन – में हुआ। अपने भाषण में उन्होने मार्क्स को याद किया, प्रथम अन्तरराष्ट्रीय की भूमिका को चिन्हित किया एवं सभी देशों के सर्वहारा के बीच अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध के इस मंच को बनाए रखने का आह्वान किया। उन्होने कहा कि सम्प्रदाय बनने से बचने के लिए विचार-विमर्ष की गुंजाइश रखनी होगी लेकिन आम समझ को बनाई रखनी होगी।

स्विट्जरलैंड में कुछ दिन घूम-फिर कर वह म्युनिख एवं साल्जबर्ग होते हुए वियेना गए। विएना में 14 सितम्बर को उन्होने सामाजिक-जनवादियों की एक बैठक को सम्बोधित किया। विएना से प्राग और कार्ल्सबड (कार्लोवी वैरी) होते हुए वह बर्लिन पहुँचे। बर्लिन में एंगेल्स 16 से 28 सितम्बर तक रहे। तमाम पुलिसिया नजर के बावजूद उन्होने सामाजिक-जनवादियों की एक सभा को सम्बोधित किया जिसमें 4000 लोग भाग ले रहे थे। 26 सितम्बर को एंगेल्स के लिए एक अभिनन्दन समारोह हुआ जिसमें भाषण देते हुए विल्हेल्म लिब्नेख्त ने जर्मन श्रमिक-वर्ग के आन्दोलन में एंगेल्स की भूमिका को रेखांकित किया। सितम्बर के अन्त में रॉटरडैम होते हुए एंगेल्स लन्दन वापस आ गये।

आने के बाद वह पूरी तरह से पूंजी के तीसरे खण्ड का काम पूरा करने में लग गए। जैसा कि उन्होने पहले ही कहा था कि अब अन्त नजर आ रहा है, इसलिए वर्ष 1994 के शुरुआती महीनों से एंगेल्स एक एक भाग को अन्तिम रूप देते हुए प्रकाशक के पास भेजना शुरू कर दिए। एक तरफ बाकी हिस्सा पूरा कर रहे थे तो दूसरी तरफ, कुछेक हफ्तों के बाद से जब प्रुफ आने लगे तो प्रुफ देख कर प्रकाशक को वापस भी भेज रहे थे। साथ ही, एक एक हिस्सा अन्तिम छपाई के लायक बनता था तो उसका आखरी प्रुफ रूसी अर्थशास्त्री विद्वान निकोलाइ डैनियेलसन को अनुवाद के लिए भी भेज देते रहे। पहला, दूसरा खण्ड भी इसी प्रकार, यानि प्रुफ भेज भेज कर, उन्ही के द्वारा किए गए अनुवाद में छप चुका था।

यह उल्लेखनीय बात है कि मूल जर्मन के बाद, रूसी अनुवाद में ही सबसे पहले पूंजी का प्रकाशन हुआ। रूसी में पहला खण्ड 1872 में (जर्मन मूल 1867 में), दूसरा खण्ड 1885 में (मूल जर्मन 1885 में) और तीसरा खण्ड 1896 में (मूल जर्मन 1894 में) प्रकाशित हुआ। यह भी मजेदार बात है कि सख्त जारशाही सेंसर को पूंजी में आपत्तिजनक कभी कुछ नही मिला। उसकी राय थी कि यह विशुद्ध वैज्ञानिक ग्रंथ है। और बिक्री! पहले खण्ड के जर्मन मूल की एक हजार प्रति पाँच साल में बिकी जबकि उसी के रूसी अनुवाद के तीन हजार प्रति एक साल में बिक गई। मार्क्स खुद कहते थे कि रूस ही वह देश हैं जहाँ उनकी पूंजी “किसी भी दूसरी जगह से अधिक पढ़ी जाती है और मूल्यवान मानी जाती है।”

इधर तीसरे खण्ड के काम में एंगेल्स लगे हुए थे कि इसी बीच घर में एक अच्छी बात हो गई। मार्च 1894 में एंगेल्स की सचिव लुइसा (लुइसा स्ट्रेसर, हालाँकि तलाक के बावजूद वह लुइसा काउट्स्की के नाम से ही जानी जाती थी) एक डाक्टर एल॰ फ्रेबर्गर से शादी कर ली। फ्रेबर्गर भी मूलत: ऑस्ट्रियाई एवं विएना के ही रहने वाले थे। लेकिन लन्दन के अस्पताल में डाक्टरी पेशे से जुड़े हुए थे। दोनों एंगेल्स से मिले तो एंगेल्स ने फ्रेबर्गर को उन्ही के घर में रह जाने का प्रस्ताव दिया। फ्रेबर्गर और लुइसा मान गए। इससे एंगेल्स को फायदा हुआ कि लुइसा सचिव बनी रही और लुइसा को फायदा हुआ कि बीमारी की हालत में एंगेल्स का देखरेख करना, आराम करने के लिए मजबूर करना, नियमित चिकित्सकीय जाँच करवाना आदि काम में फ्रेबर्गर की मदद मिलने लगी।

जून महीने में एंगेल्स एक महत्वपूर्ण आलेख – प्रारम्भिक ईसाइयत के इतिहास पर - के लेखन में कुछ दिनों के लिए व्यस्त हो गए। काउट्स्की को उन्होने एक पत्र में कहा कि सन 1841 से यह विषय उनके दिमाग में घूम रहा था। इसके पहले भी दो बार वह इस विषय पर विचार कर चुके थे। मुख्यत: उन्होने ईसाई साहित्य का विश्लेषण करते हुए यह दर्शाया कि ईसाईयत ने अपने प्रारम्भिक अवस्था में रोम साम्राज्य के दबे, कुचले लोगों को ही प्रभावित किया था, वे ही इसके प्राथमिक अनुयायी बने थे; विपरीत दिशा से देखा जाय तो किसी भी समय के दबे, कुचले, सताये गए, समाज में तिरष्कृत लोगों की भावात्मक अभिव्यक्ति ऐसे ही धार्मिक पंथों, आध्यात्मिक सभाओं आदि के माध्यम से होती है। आधुनिक श्रमिक वर्ग के आन्दोलन के साथ उन तमाम अभिव्यक्तियों के अन्तर्वस्तु का एक सम्पर्कसुत्र है। बस, फर्क ये है कि उनके विचारों में ‘मुक्ति’ दूसरी दुनिया में ही सम्भव होती है जबकि श्रमिक वर्ग के आन्दोलन की विचारधारा के अनुसार मुक्ति इसी दुनिया में सम्भव होती है।

एंगेल्स ने अपने सामने लक्ष्य रखा था कि सितम्बर तक वह पूंजी के तीसरे खण्ड का सम्पादन खत्म कर लेंगे। नियत समय पर उन्होने कर भी लिया। लेकिन प्रुफ देखने का काम चल ही रहा था कि इस बीच किराए का नया घर लेना पड़ गया। लुइसा की शादी और उनके पति फ्रेबर्गर के इस घर में चले आने के बाद से ही घर थोड़ा छोटा पड़ रहा था। अब लुइसा गर्भवती थी। प्रसव के बाद और अधिक जगह की जरूरत पड़ती। इसलिए एंगेल्स ने उस घर को छोड़ दिया और उसी रिजेन्ट पार्क रोड पर एक दूसरा, थोड़ा बड़ा घर ले लिया। किसी बड़े शहर में किराए का नया घर लेने के लिए परेशान होना पड़ता है। एंगेल्स भी हुए। लेकिन अपने अध्ययन कक्ष से प्रसन्न थे। 9 अक्तूबर को नये घर में आए और 6 नवम्बर लुइसा ने एक बेटी को जन्म दिया। इन्ही सब व्यस्तताओं के बीच उन्होने पूंजी के तीसरे खण्ड के अन्तिम हिस्सों के बाकी प्रुफ प्रकाशक को भेज दिया।

कैसा रोजमर्रा था एंगेल्स का, उन दिनों? दिनांक 17 दिसम्बर 1894 को वह लॉरा लाफार्ग को लिखते हैं:

“तुम कहती हो तीसरा खण्ड समाप्त करने के बाद, चौथा शुरू करने से पहले मुझे कुछ आराम की जरूरत महसूस हो रही होगी। अब मैं तुम्हे बताता हूँ कि मेरी स्थिति क्या है। मुझे योरोप के पाँच बड़े और कई छोटे देश तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के आन्दोलनों को देखते रहना पड़ता है। इस उद्देश्य से मुझे तीन जर्मन, दो अंग्रेजी और एक इतालवी दैनिक लेनी पड़ती है। जनवरी से वियेना से भी एक दैनिक” [ऑस्ट्रियाई आन्दोलनों के लिए] “आ रहा है। यानि कुल सात। साप्ताहिक मेरे पास दो जर्मनी से आते हैं, सात ऑस्ट्रिया से, एक फ्रांस से, तीन अमेरिका से (जिसमें दो अंग्रेजी और एक जर्मन भाषा के होते हैं), दो इटली से तथा पोलैंड, बुल्गारिया, स्पेन और बोहेमिया से एक एक आते हैं। इन आखरी चार में से तीन ऐसी भाषा के हैं जो अभी मैं धीरे धीरे सीख रहा हूँ। इसके अलावे विभिन्न किस्म के लोग आते हैं मुझसे मिलने … फिर लगातार बढ़ती हुई संख्या में पत्रकार, अन्तरराष्ट्रीय के समय से भी ज्यादा। … यह सब कुछ करते, निभाते, तीसरे खण्ड पर काम करते हुए मेरी यह स्थिति रही है कि पूरे 1894 में, जिस अवधि में तीसरे खण्ड का मैं सिर्फ प्रुफ देख रहा था, बस एक किताब से ज्यादा मैं नहीं पढ़ पाया हूँ।”

पूंजी का तीसरा खण्ड अन्तत: वर्ष के अन्त में प्रकाशित हो गया। एक साल की जगह नौ साल लगे। पहले के पृष्ठों में ही जिक्र हो चुका है देरी के शारीरिक, बौद्धिक एवं सांगठनिक कारणों का। सन 1884 के 20 जून को उन्होने मित्र जोहान बेकर को लिखा था कि साल के अन्त तक पूंजी का दूसरा खण्ड और अगले साल, यानि 1885 के अन्त तक तीसरा खण्ड निकल जाएगा। जबकि उसके आठ साल से अधिक बीत जाने के बाद 1894 के 12 जनवरी को वह वोर्वार्ट्स में घोषित कर पाए कि तीसरा खण्ड मुद्रक के पास भेज दिया गया है। छपते छपते पूरा 1894 बीत गया। वोर्वार्ट्स में छपी सूचना के साथ एंगेल्स ने खण्ड तीन के विषयवस्तु पर प्रकाश डाला था।

पूंजी के तीसरे खण्ड के विषयवस्तु पर

“मार्क्स रचित पूंजी का तीसरा पुस्तक, समग्रता में पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया अगले शरद ॠतु तक प्रकाशित हो जाएग। सम्बन्धित घोषणा वोर्वार्ट्स में हो चुकी है। याद किया जाय कि पहला पुस्तक पूंजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया को लेकर था जबकि दूसरे पुस्तक में पूंजी के परिचलन की प्रक्रिया की जाँच की गई थी। तीसरा पुस्तक समग्रता में पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया पर विचार करेगा। इस तरह, उत्पादन एवं परिचलन के प्रक्रियाओं की अलग अलग नहीं, बल्कि एक दूसरे से उनके सम्पर्क में, पूंजी की गतिविधि की एकरूप प्रक्रिया के पूर्वशर्तों के तौर पर, एवं मात्र कड़ियों के रूप में जाँच की जाएगी। चूँकि पहले के दोनों पुस्तकों में से प्रत्येक का सरोकार उपरोक्त प्रक्रिया के दो मुख्य पहलुओं में से किसी एक से था, उनके विषयवस्तु में अनुपूरकों की आवश्यकता दिखने लगी, और उनकी शैली एकतरफा तथा अमूर्त होती गई। यह खास कर इस तथ्य में प्रकट हुआ कि दोनों पुस्तकों में अतिरिक्त मूल्य का अन्वेषण उतनी ही दूर तक किया जा सका जितनी दूर तक वह पहले हड़पने वाले, औद्योगिक पूंजीपति, के हाथों में रहता है। जरुरी नहीं कि यह पहला हड़पनेवाला ही अन्तिम हड़पनेवाला हो, और सामान्यत: होता भी नहीं है - इसका संकेत दोनों पुस्तकों में सिर्फ आम तौर पर दिया जा सका। लेकिन हितबद्ध भिन्न भिन्न तबकों – व्यवसायी, साहुकार, भूस्वामी आदि – के बीच अतिरिक्त मूल्य का वितरण ही है जिसमें पूंजी की कुल गतिविधि सबसे अधिक और, अगर कहें तो, समाज की सतह पर होती हुई दिखती है। पहले के दोनों पुस्तकों में विश्लेषित प्रक्रियाओं से गुजरने के उपरांत अतिरिक्त मूल्य का वितरण, इस तरह, पूरे तीसरे पुस्तक में प्रवहमान विचार है। इस वितरण को परिचालित करनेवाले नियम विशद में निरूपित किए गए हैं: मुनाफे की दर के साथ अतिरिक्त मूल्य की दर के सम्बन्ध; मुनाफे की औसत दर का निर्माण; आर्थिक विकास की राह पर मुनाफे के इस औसत दर की निरन्तर और अधिक गिरने की प्रवृत्ति; वाणिज्यिक मुनाफे का दिक-परिवर्तन; ॠण-पूंजी का हस्तक्षेप और मुनाफे का, ब्याज एवं उद्यम के मुनाफे में बँटवारा; ॠण-पूंजी के आधार पर खड़ी की गई साख की प्रणाली एवं उसके आधार-स्तम्भ – बैंक एवं धोखेबाज फूल, प्रतिभूति-बाजार; अतिरिक्त मुनाफे का जन्म और खास मामलों में इस अतिरिक्त मुनाफे का भूमि-किराया में रूपांतरण; भूमि-सम्पत्ति जो इस किराए को प्राप्त करता है; फलस्वरूप, श्रम द्वारा नव- सृजित उत्पाद मूल्य का तीन किस्म की आय – मजदूरी, मुनाफा (ब्याज सहित), भूमि-किराया - में कुल वितरण; अन्तत: इस तीन किस्म की आय के प्रापक: श्रमिक, पूंजीपति, भूस्वामी – वर्तमान समाज के वर्ग। दूर्भाग्यवश यह अन्तिम भाग – वर्ग – मार्क्स विस्तारपूर्वक नहीं लिखे।”

एक महान जीवन का अन्त

हम जान रहे हैं कि सन 1895 उनके जीवन का अन्तिम वर्ष था। एंगेल्स नहीं जानते थे। उत्साह से भरपूर वह काम किए जा रहे थे और नये कामों की योजनाएं बना रहे थे। पिछले साल नवम्बर में ही वह सोच रहे थे कि अब पूंजी के चौथे खण्ड की अधूरी पाण्डुलिपियों को लेकर बैठने के साथ साथ अपनी दो रचना तो वह अवश्य पूरी करेंगे: पहला, जर्मनी में किसान युद्ध का पुनर्लिखन और उसके परिप्रेक्ष्य में विस्तार ताकि जर्मनी का ऐतिहासिक विकास दिखे उस रचना में; और दूसरा, सन 1842-52 के बीच की अवधि एवं अन्तरराष्ट्रीय की अवधि में मार्क्स का जीवनप्रसंग जो, वह कहते भी थे कि और कोई लिख भी नहीं पाएगा। इन कामों के अलावे नये संस्करणों की भूमिका आदि लिखने की फरमाइशें भी पूरी करनी थी।

पूरी जोश के साथ काम के बारे में सोचते थे और अपने जोशीले तेवर से दूसरों को उत्साहित भी करते थे। लेकिन, शरीर में बढ़ रही कमजोरियों का एहसास था। 10 नवम्बर 1894 को, ऐडोल्फ सोर्ज को लिखी गई एक चिट्ठी का अन्त करते हुए उन्होने मजाकिया लहजे में लिखा, “हालाँकि अपनी तबियत मुझे खराब बिल्कुल ही नहीं लग रही है, लेकिन एक समय के बाद इन्सान गौर करता है कि 73 और 37 के बीच कितना बड़ा फासला है।”

ईच्छापत्र या वसीयतनामा तो एंगेल्स ने मार्क्स के जीवित रहते ही एक बार तैयार कराया था। उसमें अपनी सारी सम्पत्ति यानि, अपना सारा संचय, विनियोग एवं ग्रंथों का संग्रह, रचनाओं की रॉयल्टी आदि सब कुछ मार्क्स के नाम कर दिया था। मार्क्स के निधन के बाद एक और ईच्छापत्र तैयार करवाया जिसके अनुसार उनकी सारी सम्पत्ति का, लॉरा, इलियानोर, जेनी (मार्क्स की मृत बड़ी बेटी) के बच्चे तथा हेलेन डेमुथ के बीच बराबर बँटवारा होना था। फिर इस ईच्छापत्र को बदला गया 29 जुलाई 1893 को। पुराने सारे ईच्छापत्रों को खारिज करते हुए इसे अन्तिम घोषित किया गया। इस ईच्छापत्र के अनुसार:

1 – सैमुएल मूर एवं लुइसा काउट्स्की (यानि स्ट्रेसर जो बाद में फ्रेबर्गर बनी) को ईच्छापत्र का निष्पादक बनाया गया एवं उनके इस काम की फीस 250 पौंड प्रति व्यक्ति धार्य किया गया।

2 – घर में रखे पिता का तैलचित्र हेर्मान को या हेर्मान की मृत्यु हो जाने की स्थिति में उनके पुत्र को देने के लिए कहा गया।

3 – घर के सारे असबाब एवं वे अन्य चीजें जिन्हे ईच्छापत्र के माध्यम से व्यक्ति या संस्था विशेष को देने के लिये नहीं कहा गया हो, लुइसा काउट्स्की को देने के लिए कहा गया।

4 – जर्मन राइखस्टैग के सदस्य अगस्त बेबेल एवं पॉल सिंगर को या उनके उत्तराधिकारियों को, उनके ईच्छानुसार, जर्मन चुनाव में उनके या उनके प्रत्याशियों के द्वारा इस्तेमाल करने के लिए एक हजार पौंड की राशि देने को कहा गया [अंग्रेजों के कानून के अनुसार पार्टी को चन्दा देने का यही एकमात्र जरिया था, और एंगेल्स ने बाद में चिट्ठी लिख कर ये बातें समझा दी थी]।

5 – अपनी भांजी मेरी एलेन रोशर (पति: पर्सी व्हाइट रोशर), को तीन हजार पौंड देने को कहा गया।

6 – निर्देश दिया गया कि अपने या मृत दोस्त कार्ल मार्क्स के हस्तलिखित, साहित्यिक प्रकृति की सारी पाण्डुलिपियाँ एवं एंगेल्स के मृत्युकाल में घर में मौजूद वे सारे पारिवारिक पत्र जो या तो मार्क्स को लिखे गए या मार्क्स द्वारा लिखित हो, मार्क्स की छोटी बेटी इलियानोर मार्क्स-एवलिंग को दे दिये जाएँ।

7 – निर्देश दिया गया कि उनकी मृत्यु के समय जो भी पुस्तकें उनके पास हों, एवं उनके सारे कॉपीराइट या सत्वाधिकार, अगस्त बेबेल एवं पॉल सिंगर को दे दिए जाएँ। वे पाण्डुलिपियाँ भी जो मृत्युकाल में घर पर हों (उपर वर्णित कार्ल मार्क्स की साहित्यिक पाण्डुलिपियों के अलावे) और वे पत्र भी, जो घर पर हों (ऊपर वर्णित कार्ल मार्क्स की पारिवारिक पत्रों के अलावे), अगस्त बेबेल एवं एडवर्ड बर्नस्टाइन को दे दिया जाए।

8 – निर्देश दिया गया कि बाकी बची सम्पत्ति आठ बराबर भाग में बाँटी जाए। उसमें से तीन भाग मार्क्स की बड़ी बेटी लॉरा लाफार्ग को दिया जाए, तीन भाग इलियानोर मार्क्स-एवलिंग को दिया जाय एवं बचा दो भाग लुइसा काउट्स्की को दिया जाए।

अन्त में सम्पत्ति के मूल्यांकन सम्बन्धि तकनीकी अधिकार निष्पादकों को दिए गये थे। गवाह के रूप में फ्रेडरिक लेस्नर एवं लुडविग फ्रेबर्गर ने हस्ताक्षर किया था।

इस ईच्छापत्र के कुछ निर्देशों में, मृत्यु के दस दिन पहले, 26 जुलाई 1895 को सुधार किया गया था; खास कर उनकी पारिवारिक चिट्ठियाँ एंगेल्सक्रिश्चेन में परिवार को दे देने के लिये, पम्प्स या मेरी एलेन के पति, पर्सी को दिए गए कर्ज का व्याज मेरी को देने के लिए एवं डा॰ लुडविग फ्रेबर्गर जो इतने दिन बिना फीस लिए उनकी चिकित्सा किए उन्हे फीस की एक मुश्त रकम देने के लिए।

लेकिन, 14 नवम्बर 1894 को, उपरोक्त ईच्छापत्र से आगे एक और महत्वपूर्ण ईच्छा जताई गई थी तथा ईच्छापत्र के स्पष्टीकरण में दो चार तकनीकी निर्देश जोड़े गए। और 14 नवम्बर को ही, लॉरा एवं इलियानोर के संयुक्त रूप से पत्र लिख कर एंगेल्स ने ईच्छापत्र सम्बन्धी कुछ बातों का खुलासा लिया था।

एक ही दिन, ईच्छापत्र में जुड़ाव के रूप में एक महत्वपूर्ण ईच्छा का जताया जाना, कुछेक निर्देशों को (जिनमें कुछ तकनीकी थे) जोड़ा जाना और फिर दोनों बहनों को चिट्ठी लिखना यह दर्शाता है कि एंगेल्स अपनी शारीरिक स्थिति को लेकर थोड़ा आशंकित हो रहे थे और इसीलिए कुछ बातें स्पष्ट दर्ज कर देना चाहते थे ताकि बाद में अन्यथा न हो। क्या थी वे बातें?

14 नवम्बर 1894 को एंगेल्स ने अपने ईच्छापत्र के निष्पादकों को पत्र लिखते हुए शुरु में ही स्पष्ट किया कि आगे की पंक्तियाँ सिर्फ उनकी ईच्छाएँ हैं और निष्पादकों को मानने के लिए ‘कानूनन’ बाध्य नहीं करती। अगर निम्नलिखित ईच्छाएं उनके मूल ईच्छापत्र के निष्पादन को प्रभावित करे तो इन्हे बिल्कुल न मानी जाए।

सबसे पहले उन्होने एक ईच्छा जताई कि उनके शव का दाहसंस्कार किया जाए (यानि दफन नहीं किया जाए) एवं जितनी जल्दी सम्भव हो, राख को समुद्र में प्रवाहित की जाए। आगे, सैमुएल मूर की अनुपस्थिति में बर्नस्टाइन एवं लुइसा फ्रेबर्गर (स्ट्रेसर या काउट्स्की) को ईच्छापत्र के निष्पादन के लिए नियुक्त किया। मार्क्स के और उनके हस्तलिखित कागजात एवं पत्रों का क्या किया जाय इसके बारे में बताया। ईच्छापत्र की एक प्रति अविलम्ब अपने भाई हेर्मान को देने को कहा। यह भी लिखा कि उनके बहियों में समय समय पर लॉरा, इलियानोर, मेरी (पम्प्स) या अन्य कईयों को दिए गए पैसों का व्योरा लिखा होगा – वे कतई कर्ज नहीं हैं, उन्हे दिए गए उपहार हैं (यानि, ईच्छापत्र के अनुसार सम्पत्ति के हिस्से के बँटवारे में वे पैसे घटा नहीं लिए जाएँ)। अनुदित पुस्तकों की रॉयल्टी पूरी की पूरी अनुवादकों के नाम कर दी (जिसमें इंग्लैंड में मजदूरवर्ग की स्थिति के अमरीकी अनुवादक फ्लोरेंस केली का भी नाम था) तथा मार्क्स के पुस्तकों की रॉयल्टी अब उनके माध्यम से नहीं बल्कि सीधे उनकी बेटियों को देने के लिये कह दिया। फिर, आगे कुछ निर्देश थे कि बैंक और सॉलिसिटर या विनियोग सम्बन्धित कम्पनी से किस तरह बात कर काम को आगे बढ़ाया जाय।

हर काम को अनुशासित और सुनियोजित तरीके से करना उनकी आदत थी, वैसा ही उन्होने किया। साथ ही, अपने शव का दाहसंस्कार सम्बन्धी ईच्छा जताकर उन्होने अपने आपको तत्कालीन समाज की नागरिक आधुनिकता के साथ जोड़ा। इंग्लैंड, जर्मनी आदि कहीं भी उस समय शवदाह का प्रचलन नहीं था। इंग्लैंड में शवदाह का प्रचार-आन्दोलन बीस साल पहले शुरु हुआ था और दस साल पहले एक अदालती लड़ाई के बाद कानूनी मान्यता मिली थी। एकमात्र शवदाहगृह भी उसी समय वोकिंग में बना था। आज इन्टरनेट बताता है कि इंग्लैंड मे 75% से अधिक शवों का दाह संस्कार होता है। जर्मनी ने भी, जो इस मामले में थोड़ा अधिक रूढ़िवादी है, इस प्रथा को कानूनन लागू कर दिया है। ठीक जिस तरह आज के भारत में कम्युनिस्ट, वैज्ञानिक आवश्यकताओं को प्राथमिकता देकर मरणोत्तर देहदान करते हैं, एंगेल्स ने भी, तत्कालीन इंग्लैंड के स्वच्छता एवं जनस्वास्थ्य सम्बन्धी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर दाहसंस्कार की ईच्छा जताई। राख को कलश में या तो श्मशान के पास ही सरकार की ओर से बनाए गए सुरक्षित भवन में रखना या घर के बगीचे में समाहित करना और नहीं तो समुद्र में प्रवाहित करना आज दोनों देशों में प्रचलित हैं। चूँकि एंगेल्स के शरीर का राख कोई घर में समाहित करे ऐसी कोई सम्भावना नहीं थी, इसलिए सरकारी भवन में रखे रहने से उन्होने बेहतर समझा कि उसे समुद्र में प्रवाहित करने को कह दिया जाए; इस प्रकार, समुद्र से उनकी नजदीकियाँ बनी रहेंगी।

उसी 14 नवम्बर को, लॉरा एवं इलियानोर को उन्होने संयुक्त रूप से जो पत्र लिखा, उसमें उन्होने सूचना दी कि उनके पास जितनी भी किताबें थीं (उनकी अपनी जुटाई हुई या मार्क्स की, बेटियों के द्वारा मिली हुई) वे सभी उन्होने जर्मन पार्टी को दे दी है। ऐसा करने का आग्रह उनसे बेबेल एवं जर्मन समाजवादी पार्टी के अन्य नेताओं ने काफी पहले किया था। उन्होने उम्मीद जताई कि दोनों बेटियाँ उनके इस काम में स्वीकृति देंगी। दूसरा उन्होने इंग्लैंड के कानून का जिक्र किया जिसके कारण वह सीधे तौर पर जेनी के सन्तानों को कुछ दे नहीं पाएंगे। इसलिए अपनी सम्पत्ति के उस हिस्से (यानि उन्हे दिया जाने वाला 3/8 में से 1/3 भाग) के लिए लॉरा एवं इलियानोर को रखवाला एवं अभिभावक बनाया ताकि वे हिस्से जेनी के सन्तानों को मिल सकें। साथ ही मार्क्स के किताबों की रॉयल्टी अब सीधे बेटियों को पास जाएगी यह भी बता दिया।

…….………

14 नवम्बर को ही वोर्वार्ट्स अखबार में पूंजी के चौथे खण्ड (यानि, अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत) के बारे में एक गलत सूचना छपी थी कि “सिवाय कुछेक टिप्पणियों के, उनके ग्रंथ के अन्तिम खण्ड से सम्बन्धित कोई प्रारम्भिक सामग्री नहीं मिली है।” यह सूचना पढ़ते ही एंगेल्स चिन्तित हो गए। मार्क्स द्वारा किया गया इतना सारा काम बेकार चला जाएगा? समाजवादी हतप्रभ हो जाएंगे और उनके दुशमन राहत की साँस लेकर मुस्कुराएंगे? तो फिर मार्क्स का दोस्त एंगेल्स किस काम के लिये है? 22 नवम्बर को उन्होने न्यु जेइट अखबार में एक गुमनाम सूचना छपवाई कि, “हमें लगता है कि वोर्वार्ट्स में छपी यह सूचना गलत है। बहरहाल, फ्रेडरिक एंगेल्स हमें पूंजी के दूसरे खण्ड के आमुख में जो सूचना देते हैं वह इतनी निराश स्थिति का बयान नहीं करता है। उक्त आमुख के अनुसार, 1472 क्वार्टो पृष्ठों में लिखी गई, वर्ष 1861-63 की एक पाण्डुलिपि है राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान, जिसमें अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत शीर्षक एक भाग है (पृष्ठ 220-972)। इस भाग के बारे में एंगेल्स कहते हैं, ‘इस भाग में राजनीतिक अर्थशास्त्र के सारतत्व’” [मूल में शब्द हैं ‘तने का गुदा और मज्जा’] “‘अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत का एक विशद आलोचनात्मक इतिहास है। …. दूसरे और तीसरे पुस्तक में शामिल हो चुके कई हिस्सों को हटाने के उपरांत मैं इस पाण्डुलिपि के आलोचनात्मक हिस्से को चौथे पुस्तक के रूप में छपवाना चाहता हूँ’।”

हालाँकि, हम जानते हैं कि एंगेल्स इस काम को कर नहीं पाये। इस पाण्डुलिपि के कुछेक हिस्से कार्ल काउट्स्की के सम्पादन में अगली शताब्दी में वर्ष 1905-10 के बीच छपवाए गए। पूरा पुस्तक अन्तत: सोवियत संघ द्वारा ही छपावाया गया।

वर्ष 1894 के नवम्बर महीने के उन्ही दिनों में, यानि – जैसा कि रचनासमग्र में जिक्र है - 15 तारीख से 22 तारीख के बीच एंगेल्स ने किसानों के सवाल पर, खास कर फ्रांस और जर्मनी के समाजवादियों का कार्यभार बताते हुए एक महत्वपूर्ण आलेख तैयार किया। न्यु जेइट में छपा यह आलेख। समाजवादियों के लिए किसानों के सवाल के महत्व पर वह पहले भी चर्चा चुके थे। पूंजीवाद के विकास के साथ साथ ग्रामीण क्षेत्र में हो रहे वर्गीय पृथक्करण पर भी वह ध्यान आकर्षित कर चुके थे। प्रस्तुत आलेख वैसे तो बुनियादी तौर पर खण्डनात्मक था। जर्मन समाजवादी पार्टी में वोल्मर नाम के एक अवसरवादी नेता, किसानी के प्रति समाजवादियों की नीति से सम्बन्धित कुछ गलत बातें कर रहे थे एवं उसमें एंगेल्स का नाम ले रहे थे। एंगेल्स ने 12 तारीख को वोर्वार्ट्स अखबार में इसका प्रतिवाद किया तथा उसी में उन्होने घोषणा किया कि न्यु जेइट में इस विषय पर वह आलेख प्रकाशित करने वाले हैं।

आलेख के शुरुआती पंक्तियों में ही वह लिखते हैं “राजनीतिक सत्ता के एक कारक के तौर पर किसान की अभिव्यक्ति अभी तक, आम तौर पर उसकी उदासीनता में हुई है जिसकी जड़ें उसके देहाती जीवन के एकांत में है। आबादी में एक विशाल जनसमुदाय की यह उदासीनता, न सिर्फ पैरिस एवं रोम के संसदीय भ्रष्टाचार बल्कि रूसी निरंकुशतावाद का भी सबसे मजबूत खंभा है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि यह कोई अलंघ्य बाधा है।” इसके आगे वह संक्षेप में ही, और विभिन्न देशों की स्थिति में फर्क के प्रति सावधान करते हुए, चर्चा करते हैं कि किसानों के पास समाजवादियों को कैसे जाना चाहिए। कृषिक्षेत्र में भू-स्वामित्व के वर्तमान नक्शे को तथा पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के प्रवेश को ध्यान में रखते हुए एक एक ग्रामीण वर्ग के प्रति समाजवादियों का क्या रुख होना चाहिए एवं किस तरह श्रमिकों के साथ उनकी दोस्ती कायम करनी चाहिए ताकि सर्वहारा आन्दोलनों के खिलाफ किसानों, खास कर छोटे किसानों को खड़ा कर देने की जो घृणित पूंजीवादी साजिश चलती है उसे पूरी तरह समाप्त कर दिया जा सके। उन्होने साफ लिखा, “समाजवादी पार्टी राजनीतिक सत्ता पर जीत हासिल करेगी - यह भविष्य अब दिखने लगा है। लेकिन राजनीतिक सत्ता पर जीत हासिल करने के लिए पार्टी को शहरों से गाँवों की ओर जाना पड़ेगा, उसे ग्रामीण क्षेत्र की एक ताकत बननी पड़ेगी।”

यह बात जिक्रतलब है कि फरवरी 1903 में जब लेनिन को पैरिस स्थित रूसी समाजविज्ञान महाविद्यालय में व्याख्यान देने जाना था तब उन्होने इस आलेख के पहले भाग का रूसी में अनुवाद कर, इस्तेमाल करने के लिए अपने पास रख लिया था; अब यह रूस द्वारा प्रकाशित लेनिन के विविध संग्रह में उपलब्ध है।         

रचनासमग्र के अनुसार एंगेल्स का अन्तिम प्रकाशित महत्वपूर्ण एक आलेख है, मार्क्स लिखित फ्रांस में वर्गसंघर्ष 1848 – 1850 का प्राक्कथन। बीस पृष्ठों के इस आलेख को लिखना उन्होने फरवरी के बीचोबीच शुरु किया था। इस आलेख तथा मार्क्स लिखित मूल रचना के पुन:प्रकाशन की एक पृष्ठभूमि है। जर्मनी में उस समय एक खतरनाक कानून पेश किया जाने वाला था। संक्षेप में ‘विध्वंसी कार्रवाई विधेयक’ के नाम से जाना जाने वाला यह विधेयक कई कानूनों मे सुधार चाहता था जिसके तहत “राज्य-सत्ता की मौजूदा व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का इरादा” रखने वालों को कठोर सजा दी जा सके; भले ही वे कोई आपराधिक गतिविधि में शामिल न रहे हों। दिसम्बर 1894 में सरकार ने इस विधेयक को राइखस्टैग में पेश किया। हालाँकि, मई 1895 में उच्चतम जर्मन विधायी सभा ने इसे खारिज कर दिया।

इस पृष्ठभूमि में, उक्त प्राक्कथन के लेखन के साथ ही साथ एंगेल्स को मार्क्स की रचनाओं का कुछ सम्पादन करना पड़ा। वस्तुत: फ्रांस में वर्गसंघर्ष 1848 – 1850 चार अलग अलग आलेख थे जो 1850 में न्यु राइनिशे जाइटुंग में छपे थे और वोर्वार्ट्स इसे पहली बार एक संकलन के रूप में छापना चाह रहा था। जब एंगेल्स ने पाण्डुलिपियाँ भेज दीं तो जर्मन सामाजिक-जनवादी पार्टी के कार्यकारी सम्पादक रिचर्ड फिशर (जिन्होने संकलन को छापने का आग्रह व्यक्त किया था) ने अनुरोध किया ‘विध्वंसी कार्रवाई विधेयक’ के मद्देनजर कुछेक हिस्से बदल दिए जाएँ या सम्पादित कर दिए जाएँ, ताकि कानूनी कोई समस्या न उत्पन्न हो। एंगेल्स थोड़ा गुस्से में भी आये, पार्टी द्वारा कानूनों का इतना लिहाज किए जाने की आलोचना भी की लेकिन चुँकि पार्टी के कार्यकारिणी परिषद का फैसला था इसलिए उन्होने आलेखों में कुछ संशोधन किया; खास कर पूंजीवादियों के खिलाफ सर्वहारा के हथियारबन्द संघर्ष की जरूरत का प्रसंग हटा दिया। खेद व्यक्त करते हुए एंगेल्स ने चिट्ठियों में कहा कि उन्हे मूल पाठ को क्षति पहुँचाना पड़ा।

उधर वोर्वार्ट्स के सम्पादकों को एंगेल्स का प्राक्कथन भी रास नहीं आया और एंगेल्स को बिना बताए उन्होने उसका कुछ सम्पादन करने के बाद संकलन में छापा। फिर उसी में से कुछ हिस्से उद्धृत कर वोर्वार्ट्स में सम्पादकीय लिखा गया कि एंगेल्स सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण के पक्षधर हैं। गुस्से से एंगेल्स ने पहले लिब्नेख्त को चिट्ठी लिखा और फिर काउट्स्की को, पूरा प्राक्कथन अलग से न्यु जेइट में छापने के लिए लिखा। लेकिन न्यु जेइट भी सम्पादित प्राक्कथन को ही छापा। एंगेल्स की मृत्यु के बाद, पाण्डुलिपियों में से मार्क्स के मूल आलेखों एवं एंगेल्स के मूल प्राक्कथन का पुनर्निमाण किया गया।

दिनांक 6 मार्च 1895 को समाप्त किए गये एंगेल्स के इस प्राक्कथन में ऐतिहासिक भौतिकतावादी विश्लेषण से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बिन्दु पर प्रकाश डाला गया है। 26 फरवरी को उन्होने पॉल लाफार्ग को लिखा, “भूमिका काफी लम्बी हो गई है, क्योंकि उन दिनों से आज तक की घटनाओं की सामान्य समीक्षा के साथ इस बात की व्याख्या करनी जरूरी थी कि क्यों सर्वहारा की आसन्न और निर्णायक विजय की हमारी अपेक्षा सही थी, क्यों वह नही हुई, और उस समय चीजों को हम जिस प्रकार देख रहे थे उस दृष्टि में आगे की घटनाओं के कारण क्या बदलाव आया। जर्मनी में जो नये कानून हमें डरा रहे हैं उसके चलते व्याख्या जरूरी है।”

प्राक्कथन के प्रारम्भ में ही एंगेल्स उक्त व्याख्या का दार्शनिक पक्ष प्रस्तुत करते हैं:

“अगर घटनाओं एवं घटनाओं की शृंखला को जारी इतिहास की कसौटी पर आँका जाय तो आधारभूत आर्थिक कारणों तक पहुँचना कभी भी सम्भव नहीं होगा। … किसी अवधि के आर्थिक इतिहास का स्पष्ट सम्पूर्ण अवलोकन समसामयिक नहीं, सिर्फ उपरांत हो सकता है – सामग्रियों के संग्रहण एवं छान-बीन के बाद। … कारणस्वरूप, जारी इतिहास में यह अक्सर आवश्यक होता है कि इस, सर्वाधिक निर्णायक कारक को स्थिर मान लिया जाय, अवधि के प्रारम्भ में मौजूद आर्थिक परिस्थिति को पूरी अवधि के लिए पूर्वानुमानित एवं अपरिवर्तनीय मान लिया जाय, या, हो रहे सिर्फ उन परिवर्तनों को गौर किया जाय जो, स्पष्टतया प्रकट घटनाओं में ही दृष्टिगोचर हो जाते हैं और फलस्वरूप, खुद भी स्पष्टतया प्रकट होते हैं। इस स्थिति में भौतिकतावादी पद्धति को, राजनीतिक टकरावों को समझने में, आर्थिक विकास से उपजे मौजूदा सामाजिक वर्गों, वर्गों के अंशों के हितों के संघर्ष तक खुद को सीमित रखना पड़ता है और इतना ही साबित करने में सीमित रहना पड़ता है कि खास खास राजनीतिक पार्टियाँ कमोबेश इन्ही वर्गों एवं वर्गों के अंशों की पर्याप्त राजनीतिक अभिव्यक्तियाँ हैं।

“यह स्वत:-प्रमाणित है कि आर्थिक स्थिति में हो रहे समसामयिक परिवर्तनों की - जाँची जाने वाली सभी प्रक्रियाओं के आधार की - यह अपरिहार्य उपेक्षा निश्चय ही त्रुटि का स्रोत होगी। लेकिन जारी इतिहास की सामग्रिक प्रस्तुति के लिये जरूरी शर्तों में अनिवार्यत:, त्रुटि के स्रोतों को भी शामिल करना पड़ेगा – और इसके चलते, जारी इतिहास लिखना कोई बन्द नहीं कर देगा।”

शरीर की स्थिति के कारण ज्यादा देर तक काम पर बैठ नहीं पाते थे। फिर भी पूरा जोर लगा रहे थे हाथ में लिए हुए कामों को पूरा करने में। 28 मार्च को भी उन्होने लॉरा को लिखा कि पूंजी के चौथे खण्ड की पाण्डुलिपियों का नकल, काउट्स्की ने ठीक से पढ़ कर तैयार कर दिया है, अब वह उसके सम्पादन में हाथ लगाएंगे और टुसी (इलियानोर) से बात करेंगे कि आगे काम वह जारी रखे।

वर्ष 1894 में साल भर वह ठंड से परेशान रहते थे और अस्वस्थ हो जाते थे। लोगों को चिट्ठियों में वह यही लिखते थे कि ‘अभी थोड़ा अस्वस्थ हैं’ लेकिन भरोसा देते थे कि जल्द ठीक हो जाएंगे। कभी कभी भीतर से थोड़ा स्वस्थ्य महसूस करते थे तो लम्बी चिट्ठियाँ लिखते थे। अन्तरराष्ट्रीय समाजवादी आन्दोलन और विभिन्न देशों के संगठनों के बीच सम्पर्क, पहले मार्क्स के साथ मिल कर और बाद में अकेले जो उन्होने तैयार किया था उसका कोई भी सिरा कमजोर न पड़े इस पर नज़र रखते थे।

लेकिन डा॰ फ्रेबर्गर ने विक्टर ऐडलर (ऑस्ट्रियाई पार्टी के नेता; फ्रेबर्गर भी ऑस्ट्रियाई थे) को बता दिया था कि एंगेल्स को घेघा यानि भोजन-नालिका में कैंसर है। मई महीने में एंगेल्स के गले में सुजन दिखने लगा। दर्द के कारण रात रात भर वह जगे रहने लगे। इस्टबोर्न का समुद्रतट उनकी प्रिय जगह थी। लॉरा, टुसी सबसे बात कर, उन्हे बुलाया कि एक साथ कुछ दिन इस्टबोर्न में बिताएंगे। जून की शुरुआत में वह इस्टबोर्न जाकर रहने लगे। 29 जून को पॉल लाफार्ग को जो छोटी सी चिट्ठी लिखी उन्होने (पॉल को भी उन्होने बुलाया था) उससे प्रतीत होता है कि उनके साथ उस समय लॉरा लाफार्ग, इलियानोर मार्क्स-एवलिंग और एडवर्ड एवलिंग मौजूद थे। कष्ट उनका बढ़ता जा रहा था। लोग आते जाते थे। परिवार के लिए लॉरा चली गई। उधर लुइसा आ गई। फ्रेबर्गर भी आकर देख जाते थे। उतने कष्ट में भी उन्होने साथियों के द्वारा भेजी गई रचनाओं को यथासम्भव पढ़ना एवं सुझाव देना जारी रखा। 8 जुलाई को ऐन्तोनिओ लैब्रिओला द्वारा भेजा गया, फ्रांसीसी भाषा में लिखित आलेख, ‘कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र की याद में’ पढ़ कर उन्होने अपनी टिप्पणियाँ दी। इस्टबोर्न से लन्दन लौटने के एक दिन पहले 23 जुलाई को जब उन्होने लॉरा को मजाकिया लहजे में लिखा कि “लगता है मेरे गले पर बने आलू के इस खेत पर संकट आ रहा है”, उस चिट्ठी में भी उन्होने इंग्लैंड में हुए संसदीय चुनाव के नतीजों के बारे में बताया। रचनासमग्र के अनुसार, यही उनकी अन्तिम चिट्ठी थी। 28 जुलाई को एंगेल्स के भाई हेर्मन ने (जो तब तक पहुँच चुके थे) लिखने में अक्षम एंगेल्स से डिक्टेशन लिया। चिट्ठी एल॰ सिबोल्ड के नाम थी। चुँकि चिट्ठी का मसविदा कागजों में मिला, यानि बाद में लुइसा बढ़िया से लिख कर इसे भेजी होंगी। चिट्ठी में एंगेल्स के मृत दोस्त, रसायनशास्त्री स्कोर्लेमर के पुस्तक के मुद्रण से सम्बन्धित निर्देश थे।    

5 अगस्त 1895 को रात के साढ़े दस बजे, 41 रिजेन्ट पार्क रोड वाले घर में एंगेल्स की मृत्यु हुई। एंगेल्स ने ईच्छा जताई थी कि उनके अन्तिम संस्कार में कोई धूमधाम न हो। इलियानोर ने, जो सारा इन्तजाम अपने देखरेख में कर रही थी, वैसा ही किया।

10 अगस्त को, एक विशेष रेलगाड़ी से शव सहित ताबूत को सरे जिला में स्थित इंग्लैन्ड का एकमात्र शवदाहगृह ब्रुकवुड, वोकिंग ले जाया गया। रास्ते में वाटरलु रेलस्टेशन के प्रतीक्षागार में एक छोटी सी श्रद्धांजलि सभा हुई जिसमें करीब अस्सी लोग मौजूद थे। ताबूत फूलों एवं मालाओं से ढका था। लाल फीते लगे थे जिन पर जर्मनी, ऑस्ट्रिया, फ्रांस, ब्रिटेन, इटली, बेल्जियम, हॉलैंड, रूस, पोलैंड, बुल्गारिया के समाजवादियों द्वारा अपने शिक्षक व नेता के प्रति आभार एवं शोक के उद्गार लिखे थे। समाजवादियों के प्रतिनिधि के रूप में जर्मनी से विल्हेल्म लिब्नेख्त, बेबेल, सिंगर एवं बर्नस्टाइन, फ्रांस से पॉल लाफार्ग, बेल्जियम से एडुवर्ड अन्सीले, हॉलैंड से वैन डर गोज, रूस से वेरा जासुलिच, वोल्शोव्स्की एवं स्तेप्न्याक थे। पोलैंड एवं इटली के भी प्रतिनिधि थे। इंग्लैंड के श्रमिक वर्ग आन्दोलन के प्रतिनिधि के रूप में थे एडवर्ड एवलिंग (इलियानोर भी), विल थोर्न, क्वेल्च तथा समाजवादी लीग का प्रतिनिधिमंडल। और थे काउट्स्की, लेस्नर एवं एंगेल्स के परिवार के कुछ सदस्य। इलियानोर ने लिज्जी बर्न्स के भाई जॉन बर्न्स को भी खबर दिया था, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि वह आये थे या नहीं।

वोकिंग के शवदाहगृह में कुछेक ही लोग पहुँचे थे। सत्रह दिनों के बाद, 27 अगस्त को एंगेल्स के शरीर का राख (अस्थिकलश) इस्टबोर्न में ले गए इलियानोर, एडवर्ड, लेस्नर एवं बर्नस्टाइन। फिर उसे समुद्रतट से पाँच समुद्र-मील आगे लहरों में प्रवाहित कर दिया गया। शरद का एक तूफानी दिन था वह, जीवनीकार कहते हैं।

अथक संघर्ष का उत्तराधिकार

मार्क्स से सन 1844 में हुई मित्रता के बाद अगले पाँच दशकों के रचना कर्म के बीच एंगेल्स को तीन बार मार्क्स का जीवन-प्रसंग लिखने का अवसर मिला। दो कालखण्डों के बारे में वह थोड़ा विस्तार से जाना चाहते थे लेकिन अन्त्तत: नहीं जा पाए। एक बार मार्क्स को भी एंगेल्स के बारे में लिखने का मौका मिला। साल था 1880, जब फ्रांसीसी भाषा में, समाजवाद: काल्पनिक एवं वैज्ञानिक एक पुस्तिका के रूप में निकलने वाला था। फ्रांसीसी समाजवादी मैलॉन द्वारा जो भूमिका लिखी गई थी वह सही नहीं थी। इसलिए एंगेल्स से बात कर, 4-5 मई 1880 को मार्क्स ने वह भूमिका लिखी और पॉल लाफार्ग को यह कह कर भेज दिया कि, ”सार को ज्यों का त्यों रखते हुए, वाक्यांशों को थोड़ा साफ-सुथरा कर देना।” उस भूमिका में मार्क्स ने एंगेल्स के बारे में लिखा:

“समसामयिक समाजवाद के अग्रणी प्रतिनिधियों में से एक, फ्रेडरिक एंगेल्स ने, सन 1844 में मार्क्स एवं रूज द्वारा प्रकाशित ड्युश-फ्रांज़ोइशे जाह्रबुखेर में पहली बार छपी रचना राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना की रूपरेखा से अपनी पहचान बनाई। वैज्ञानिक समाजवाद के कुछ सामान्य सिद्धांत रूपरेखा में सुत्रबद्ध हो चुके हैं। एंगेल्स उस वक्त मैंचेस्टर में रहते थे, जहाँ उन्होने (जर्मन भाषा में) इंग्लैंड में श्रमिक-वर्ग की स्थिति (1845) नाम का पुस्तक लिखा। यह एक महत्वपूर्ण काम था जिसे मार्क्स लिखित पूंजी में पूरा न्याय मिला। इंग्लैंड में पहली बार रहने के दौरान वह द नॉर्दर्न स्टार एवं न्यु मोरल वर्ल्ड में भी लिखते रहे। ब्रसेल्स जाने के बाद भी उक्त पत्रिकाओं में उनका लिखना जारी रहा। द नॉर्दर्न स्टार समाजवादी (चार्टिस्ट) आन्दोलन की अधिकृत पत्रिका थी एवं न्यु मोरल वर्ल्ड रॉबर्ट ओवेन की पत्रिका थी।

“ब्रसेल्स में रहते वक्त एंगेल्स एवं मार्क्स ने जर्मन श्रमिकों के कम्युनिस्ट क्लब का गठन किया [यह जिक्र कम्युनिस्ट पत्राचार समितियों के गठन का है] जिसके रिश्ते फ्लेमिश एवं वालून श्रमजीवियों के क्लबों से था। साथ ही उन दोनों ने, बोर्नस्टेड्ट के साथ मिल कर ड्युश-ब्रसेलर जाइटुंग का प्रकाशन किया। … [फिर आगे कम्युनिस्ट लीग के गठन की चर्चा है] …

“सन 1847 में, लन्दन में आयोजित, लीग के अन्तराष्ट्रीय कांग्रेस ने मार्क्स और एंगेल्स को कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र का मसविदा तैयार करने को कहा। फरवरी क्रांति के ऐन पहले यह घोषणापत्र प्रकाशित हुआ एवं लगभग सभी योरोपीय भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ। उसी वर्ष मार्क्स और एंगेल्स डेमोक्रैटिक ऐसोसिएशन ऑफ ब्रसेल्स की स्थापना में लगे थे। यह एक अन्तरराष्ट्रीय एवं आम लोगों का संगठन था जिसमें आमूल परिवर्तनवादी पूंजीवादी एवं सर्वहारा श्रमिकों के प्रतिनिधि मिलते थे।

“फरवरी क्रांति के बाद एंगेल्स न्यु राइनिशे जाइटुंग के सम्पादकों में से एक बने। यह अखबार सन 1848 में कोलोन शहर में मार्क्स द्वारा स्थापित किया गया था एवं जून 1849 में प्रशियाई सैन्य-अभ्युत्थान के द्वारा इस अखबार को बन्द करवा दिया गया था। एल्बरफेल्ड के विद्रोह में भाग लेने के बाद एंगेल्स प्रशियाईयों के खिलाफ, विलिच के सहयोगी के रूप में बैडेन अभियान में लड़े; विलिच उस समय फ़्रांक्स-तिरर्स के बटालियन के कर्नल थे।

“वर्ष 1850 में लन्दन में रहते हुए एंगेल्स ने, मार्क्स द्वारा प्रकाशित तथा हम्बुर्ग में मुद्रित न्यु राइनिशे जाइटुंग की समीक्षा में योगदान दिया। उसी में एंगेल्स ने जर्मनी में किसान युद्ध शीर्षक आलेख को पहली बार प्रकाशित किया। यह आलेख 19 साल बाद फिर लाइपजिग से पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुआ एवं उसके तीन संस्करण हुए।

“जर्मनी में समाजवादी आन्दोलन दोबारा शुरू होने के बाद, एंगेल्स ने अपने सबसे महत्वपूर्ण आलेखों के द्वारा वोकस्टाट एवं वोर्वार्ट्स में अपना योगदान दिया। उन आलेखों के अधिकांश, मसलन, रूस में मौजूद सामाजिक सम्बन्धों पर, जर्मन राइखस्टैग में प्रशियाई श्नैप्स, आवास का प्रश्न, स्पेन में कैन्टनालिस्ट विद्रोह [काम में लगे बाकुनिनवादी का जिक्र है] इत्यादि बाद पुस्तिका के रूप में पुनर्मुद्रित हुए।

“वर्ष 1870 में, मैंचेस्टर छोड़ लन्दन आ कर एंगेल्स ने अन्तरराष्ट्रीय का साधारण परिषद में योगदान किया एवं उन्हे स्पेन, पोर्तुगाल एवं इटली से पत्राचार की जिम्मेदारी दी गई।

“आलेखों की उनकी अन्तिम शृंखला जो विज्ञान में हेर ड्युहरिंग की क्रांति की व्यंग्यात्मक शीर्षक के साथ वोर्वार्ट्स में छपी थी, बाद में एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई एवं जर्मन समाजवादियों के बीच इस पुस्तक को बड़ी सफलता मिली। विज्ञान में हेर ड्युहरिंग की क्रांति, सामान्यत: विज्ञान के क्षेत्र में एवं विशेषत: समाजवाद के क्षेत्र में श्रीमान ई॰ ड्युहरिंग द्वारा प्रतिपादित, तथाकथित नए सिद्धांतों के जबाब में लिखा गया है। वर्तमान पुस्तिका में उक्त पुस्तक के सैद्धांतिक भाग से सबसे ज्यादा सामयिक उद्धरणों को हम पुन: प्रस्तुत कर रहे हैं। इस पुस्तिका को वैज्ञानिक समाजवाद की भूमिका कहा जा सकता है।”

तो, ये थे एंगेल्स के योगदान के बारे में मार्क्स के अपने वस्तुपरक पर्यवेक्षण एवं मूल्यांकन। जाहिर है कि इसमें प्रकृति की द्वंद्वात्मकता, परिवार, निजी सम्पत्ति एवं राज्य की उत्पत्ति, फायरबाख एवं क्लासिकीय जर्मन दर्शन का अन्त एवं सन 1880 के बाद की रचनाओं का जिक्र नहीं है (पूंजी के अगले खण्डों के ऐतिहासिक सम्पादन कार्यों का भी जिक्र नहीं है जो मार्क्स नहीं जानते थे कि उन्हे अधूरी पाण्डुलिपियों के रूप में छोड़ जाना पड़ेगा)। दो महत्वपूर्ण ऐतिहासिक शोधकार्यों का भी जिक्र नहीं है – आयरलैंद और जर्मनी का – जिन्हे वे पूरा तो नहीं कर पाये, पर जितने हिस्से वह लिखे वे उन देशों के विकासक्रम पर नै रोशनी डालते हैं। पत्राचार एवं वैचारिक हस्तक्षेप के माध्यम से किए गए उन सांगठनिक कामों का भी जिक्र नहीं है जो योरोप के विभिन्न देशों में पार्टी के निर्माण में एवं एक हद तक द्वितीय अन्तरराष्ट्रीय की सैद्धांतिक बुनियाद रचने में सहायक हुए। गौरतलब है कि एंगेल्स के सैन्यविशारद होने, हमेशा नई भाषा सीखते रहने, साहित्य में रुचि रखने या उन अनगिनत सैन्यसम्बन्धी आलेखों के लिखे जाने का भी जिक्र नहीं है क्योंकि मार्क्स इस भूमिका में एंगेल्स की सिर्फ एक ही छवि – ‘समसामयिक अग्रणी समाजवादी’ की छवि – को पेश करना चाहते थे। व्यक्तिगत मित्रता पर भी इसीलिए इस भूमिका में एक भी शब्द नहीं हैं।  

लेकिन सन 1880 तक किए गए कामों का जो संक्षिप्त लेखाजोखा मार्क्स प्रस्तुत करते हैं उसमे, ‘समसामयिक समाजवाद के अग्रणी प्रतिनिधि’ के रूप में एंगेल्स के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के छे पक्ष उजागर होते हैं:

1 – वैज्ञानिक समाजवाद के कुछ सामान्य सिद्धांतों को स्वतंत्र रूप से सन 1844 में ही सुत्रबद्ध कर लेना; साथ ही, उस समाजवाद को यथार्थ बनाने वाली ऐतिहासिक शक्ति, श्रमिक वर्ग की क्रांतिकारी स्थिति को भी जमीनी स्तर पर उजागर कर देना (जिसका पूरा विश्लेषण बाद में पूंजी ने किया)

2 – समाजवादी नजरिए से योरोप के विभिन्न देशों की राजनीतिक घटनाओं का विश्लेषण करने वाली क्रांतिकारी पत्रकारिता में लगे रहना;

3 - सम्पादकीय कार्य में कुशल होना;

4 - सांगठनिक कार्यों में कुशल होना (जरूरत पड़ने पर हथियारबन्द संघर्षों में शामिल होने से भी पीछे नहीं हटना) एवं भाषाज्ञान का इस्तेमाल करते हुए विभिन्न देशों के समाजवादियों के साथ सम्पर्क बनाने की क्षमता का होना;

5 – किसान समस्या सहित विभिन्न सामाजिक प्रश्नों पर वैज्ञानिक समाजवादी दृष्टिकोण को इतने सहज ढग से रखना कि वे खूब लोकप्रिय हो जाएँ;

6 – विज्ञान (प्राकृतिक एवं सामाजिक) के क्षेत्र में वैज्ञानिक समाजवादी दृष्टिकोण का दक्षता के साथ प्रयोग करना।

दिनांक 10 अगस्त 1895 को वाटरलू रेलवे स्टेशन (वेस्टमिनिस्टर ब्रिज) के प्रतीक्षागार में, एंगेल्स के शवाधार को घेर कर जो अस्सी लोग जमा हुए उन्हे सम्बोधित करते हुए विल्हेल्म लिब्नेख्त ने कहा था: “हम बहुत थोड़े से लोग जुटे हैं यहाँ, लेकिन ये थोड़े से, लाखों का प्रतिनिधित्व करते हैं, एक दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं … जो पूंजीवाद की दुनिया का अन्त प्रस्तुत करेगा … वह एक आदमी था जिसने वह रास्ता दिखाया जिस पर हमें चलना है, उस रास्ते पर हमारा नेतृत्व किया, एक अगुवा योद्धा एवं एक साथी; सिद्धांत एवं व्यवहार उसमें एकताबद्ध था।”   

एंगेल्स क्या थे, इस पर सबसे सटीक मन्तव्य शायद उनके दुशमन का है। जीवनीकार गुस्ताभ मेयर पोस्ट नाम के एक अखबार में प्रकाशित शोकसंवाद का जिक्र करते हैं। पोस्ट के मालिक थे फ्रेइहर वॉन स्टाम, जो जर्मनी स्थित सार राज्य के बड़े उद्योगपति थे एवं सामाजिक कानूनों पर प्रशियाई सम्राट के उपदेष्टा थे। एंगेल्स की मृत्यु पर पोस्ट ने लिखा, “राष्ट्र बहुत कम खतरे में होता है जब इसे बहकाने वाले सोचते हैं कि अराजकता अपने आप में एक उद्देश्य है (जैसा बाकुनिन सोचते थे)। खतरा ज्यादा तब होता है जब बहकानेवाला, नया और बेहतर कुछ सृजन करने के बहाने धीरे धीरे मौजूदा व्यवस्था की बुनियाद को कमजोर कर रहा होता है। अगर कोई आदमी ऐसा था जिसके जीवन का कार्यभार था पूरी मौजूदा व्यवस्था, अनुशासन, नैतिकता आदि के खिलाफ विनाश-युद्ध चलाना, वह आदमी था समाजवादी फ्रेडरिक एंगेल्स।”

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बेहतर होगा कि हम एंगेल्स के ही एक पाठ से इस जीवनी का अंत करें।  

“मनुष्य द्वारा प्रकृति पर किए गए विपरीत क्रिया को हटा देने पर, प्रकृति में सिर्फ अंधे, अचेत, एक दूसरे पर क्रियाशील होते हुए कारण होते हैं, जिनके पारस्परिक प्रभाव से सामान्य नियम प्रभावी होता है। जो कुछ घटित होता है – चाहे सतह पर दिखने वाले असंख्य प्रकट संयोग में या अन्तिम परिणाम में जो उन संयोगों में अन्तर्निहित नियमितता की पुष्टि करता है – कुछ भी सचेत रूप से चाहे गए लक्ष्य के तौर पर नहीं होता है। इसके विपरीत, समाज के इतिहास में, क्रियाशील सभी के पास चेतना होती है, वे मनुष्य होते हैं जो सोच-विचार या जुनून के साथ सक्रिय होते हैं, निर्दिष्ट उद्देश्य के लिए काम कर रहे होते हैं; एक विचारित अभिप्राय के बिना, इच्छित लक्ष्य के बिना कुछ भी नहीं होता है। लेकिन यह अंतर, जो खास कर किसी एक युग एवं प्रसंग के ऐतिहासिक अनुसन्धान के लिये नि:सन्देह महत्वपूर्ण है, इस तथ्य को बदल नहीं सकता है कि इतिहास के दिशा का निर्धारण करते हैं अन्तर्जात सामान्य नियम। क्योंकि यहाँ भी, सभी व्यक्तियों के सचेत, आकांक्षित लक्ष्यों के बावजूद, कुल मिला कर प्रत्यक्षत: सतह पर संयोग का ही राज होता है। कम ही ऐसा होता है कि जो चाहा गया वही हुआ। अधिकांश दृष्टांतों में, अनगिनत इच्छित लक्ष्य एक दूसरे को काटते हैं या विवाद में उलझे होते हैं, या वे लक्ष्य खुद ही, शुरू से अव्यवहारिक होते हैं; ऐसा भी होता है कि उन्हे हासिल करने के साधन अपर्याप्त हों। इस तरह, इतिहास के क्षेत्र में भी, अनगिनत व्ययक्तिक ईच्छाओं एवं व्ययक्तिक क्रियाओं के विवाद वैसी ही हालत में पहुँच जाते हैं जैसी अचेत प्रकृति के जगत में मौजूद है। क्रियाओं के लक्ष्य आकांक्षित होते हैं लेकिन उन क्रियाओं के वास्तविक फल आकांक्षित नहीं होते। और अगर कभी ऐसा लगता भी है कि फल आकांक्षाओं अनुरूप हैं, फिर भी उन फलों की परिणति आकांक्षाओं से बिल्कुल अलग होती है। इस तरह, ऐतिहासिक घटनाएँ भी कुल मिला कर, संयोग द्वारा संचालित प्रतीत होते हैं। लेकिन जहाँ कहीं भी सतह पर संयोग का प्रभुत्व दिखे, भीतर में हमेशा उन्हे संचालित करने वाले आन्तरिक, गुप्त नियम होते हैं और बस उन नियमों की खोज करनी पड़ती है।

“मनुष्य अपना इतिहास खुद बनाता है कहने का अर्थ यही है कि परिणाम चाहे जो हो, हर आदमी अपने सचेत रूप से आकांक्षित लक्ष्य की ओर बढ़ता है और विभिन्न दिशाओं की ओर क्रियाशील इन्ही बहुत सारी अभिप्रेरणाओं एवं बाहरी दुनिया पर उनके बहुविध प्रभाव ही इतिहास होता है। इस तरह इसमें, अनेकों व्यक्ति चाहते क्या हैं यह भी एक सवाल है। अभिप्रेरणाओं का निर्धारण करता है जुनून या विवेचन। लेकिन वे प्रभावोत्पादक साधन जो तत्काल जुनून या विवेचन को निर्धारित करते हैं, बहुत ही भिन्न भिन्न किस्म के होते हैं। अंशत: वे बाहरी वस्तु हो सकते हैं, अंशत: आदर्शगत अभिप्रेरणा या महत्वाकांक्षा हो सकते हैं, “सत्य एवं न्याय के लिए उत्साह” भी हो सकते हैं, व्यक्तिगत घृणा हो सकते हैं। यहाँ तक कि सभी प्रकार के व्यक्तिगत सनक भी हो सकते हैं। लेकिन एक तरफ हमने देखा है कि इतिहास में सक्रिय कई व्यक्तिगत अभिप्रेरणाएँ, अधिकांशत:, आकांक्षित फलों से बिल्कुल भिन्न परिणाम उत्पन्न किए हैं; बल्कि, विपरीत परिणाम उत्पन्न किए हैं। यानि, कुल परिणाम की दृष्टि से उनकी अभिप्रेरणा का महत्व दूसरे दर्जे का है। दूसरी तरफ, सवाल उठता है कि: उन अभिप्रेरणाओं के पीछे खड़ी चालक शक्तियाँ कौन सी हैं? कौन से वे ऐतिहासिक कारण हैं जो स्वयं रूपान्तरित होकर कर्ताओं के मन में अभिप्रेरणा बन जाते हैं?

“पुराने भौतिकतावाद ने कभी खुद से यह प्रश्न नहीं पूछा। इसलिए, इतिहास की उसकी अवधारणा, जो भी जितनी भी है, आवश्यक तौर पर व्यवहारमूलक है। सब कुछ पर वह अपनी राय, क्रिया के प्रेरकों से बनाता है। इतिहास में क्रियाशील लोगों को वह सज्जन और दुर्जन में बाँटता है और उसके बाद एक नियम की तरह हासिल करता है कि सज्जन ठगे जाते हैं और दुर्जन विजयी होते हैं। अत:, पुराना भौतिकतावाद यही नतीजा निकालता है कि इतिहास के अध्ययन से कोई विशेष ज्ञान प्राप्त नहीं होगा। जबकि हम यह सीख लेते हैं कि इतिहास के क्षेत्र में पुराना भौतिकतावाद खुद को ही झुठलाता है। क्योंकि वह इतिहास में संचालित होने वाली आदर्श की शक्तियों को अन्तिम कारण मान लेता है। वह नहीं जाँचता है कि उनके पीछे क्या है। इन चालक शक्तियों की चालक शक्तियाँ कौन हैं? विसंगति इस तथ्य में नहीं कि आदर्शगत चालक शक्तियों की पहचान की जाती है, बल्कि इस तथ्य में है कि जाँच में इनके पीछे, इनके प्रेरक कारणों तक नहीं जाया जाता है। दूसरी ओर, इतिहास का दर्शन, खास कर हेगेल जिसका प्रतिनिधित्व करते हैं, मानता है कि प्रकट तौर पर दिखने के और यथार्थ में होने के बावजूद भी, इतिहास में सक्रिय लोगों की संचालक अभिप्रेरणाएं, ऐतिहासिक घट्नाओं के अन्तिम कारण नहीं हैं। यह भी मानता है कि इन अभिप्रेरणाओं के पीछे दूसरी प्रेरक शक्तियाँ मौजूद हैं जिनका आविष्कार करना है। लेकिन उन शक्तियों को खुद इतिहास में ढूंढ़ने के बजाय, हेगेलीय दर्शन उन शक्तियों को बाहर से, दार्शनिक विचारधारा से इतिहास में आयात करता है। उदाहरण के तौर पर हेगेल, प्राचीन यूनान के इतिहास की व्याख्या उसकी आन्तरिक सुसंगति में करने के बजाय बस यही मानते हैं कि वह इतिहास सिर्फ उसके “सुन्दर व्ययक्तिकता के शैलियों” का बहिष्करण है, एक “शिल्पकर्म” की प्रस्तुति है। इस प्रसंग में हेगेल प्राचीन यूनान के बारे में बहुत कुछ कहते हैं जो उत्कृष्ट है और गहन है, लेकिन ऐसी व्याख्या, जो सिर्फ खोखली बातें हैं, उन्हे नहीं मानने से हमें रोक नहीं पाती।

“इसलिए, जब उन चालक शक्तियों की जाँच का सवाल होता है जो सचेत या अचेत तौर पर – और बेशक अक्सर अचेत तौर पर ही – इतिहास में सक्रिय लोगों की अभिप्रेरणाओं के पीछे मौजूद होती है और जो इतिहास की वास्तविक मूल चालक शक्तियाँ होती हैं, तब वहाँ व्यक्तियों की अभिप्रेरणाओं का सवाल नहीं होता है, चाहे वे व्यक्ति कितने भी विशिष्ट क्यों न हों, बल्कि उन अभिप्रेरणाओं का सवाल होता है जो बड़े जनसमुदाय को, पूरी जनता को, और फिर हर एक जनता में पूरे के पूरे वर्गों को गतिशील करती है। और वह भी तात्कालिक तौर पर नहीं, कि तिनके की आग जैसी जल उठे और तुरन्त बुझ जाय, बल्कि देर तक ठहरने वाली सक्रियता हो जिसका परिणाम हो एक महान ऐतिहासिक रूपान्तर।

“उन चालक शक्तियों को सुनिश्चित करना ही - जो इस प्रसंग में सक्रिय आमजनों एवं उनके नेताओं, तथाकथित महान लोगों, के मन में सचेत अभिप्रेरणा बन कर प्रतिफलित हों, स्पष्टत: या अस्पष्टत:, सीधे तौर पर या विचारधारागत या पवित्र रूप में भी – एक मात्र रास्ता है जो हमें उन नियमों के मार्ग पर ले आएगा जिनका प्रभुत्व इतिहास में सामग्रिक तौर पर तो होता ही है, विशेष विशेष कालखंडों एवं देशों के दायरों में भी होता है। उन सभी कुछ को, जो लोगों को गतिशील करता है, निश्चित ही उनके मन से होकर गुजरना होता है, लेकिन मन में वे कैसे रूप ग्रहण करते हैं यह परिस्थितियों पर ही सबसे अधिक निर्भर करता है।” [लुडविग फायरबाख एवं जर्मन क्लासिकीय दर्शन का अन्त]        

 

                                                                         :: समाप्त ::