यह
कहना गलत होगा कि नीतिगत तौर पर निजीकरण सिर्फ इसी केन्द्रीय सरकार की नीति है। यह
नीति तो पिछले तीस वर्षों से जारी है। यह भी कहना गलत होगा कि सिर्फ घाटे पर चलने वाली
नहीं, मुनाफा कमाने वाली सार्वजनिक उद्यमों, उपक्रमों को भी, या उनकी हिस्सापूंजी को
बेचना, एवं सही बाजारबभाव पर नहीं, औने पौने भाव बेचना सिर्फ इसी सरकार की नीति है।
वह भी नव-उदारवाद की अर्थनीति के तीस वर्षों का नुस्खा है। आर्थिक मसलों पर इस सरकार
की नीतियों के खासियत हैं चार:
1 –
दरबारी पूंजीपतियों को मालामाल करना; चोरी में पकड़े गये यारों को देश से बाहर भाग जाने
में मदद करना;
ये
बातें सबकी जानी हुई हैं। पर कुछ सवाल तो बनते हैं। अपने चहेते पूंजीपतियों को कुछ
ज्यादा फायदा पहुँचाने वाली बात तो समझ में आती है। लेकिन रणनीतिक क्षेत्रों में –
बन्दरगाह का प्रबन्धन, नागरिक उड्डयन का प्रबन्धन, प्रतिरक्षा सम्बन्धित उद्योग, नाभिकीय
क्षेत्र आदि - जहाँ उन पूंजीपतियों के कम्पनियों की कोई दक्षता नहीं है, न ही किसी
कमिटी ने दक्षता-जाँच की है, आप कैसे उन्हे पैठ दे सकते हैं? क्या इसके लिये कोई दस्तावेज
आपने जारी किया कि उन्हे ही क्यों चुना गया? कितने और थे निजी क्षेत्र के पूंजीपति
जिन्होने आपको अपना प्रस्ताव दिया था? या वहाँ भी वही खेल खेला गया जो स्थानीय स्तर
पर होता है? – किसी छोटे अखवार में विज्ञापन देकर टेन्डर बुला लिया जाता है ताकि कोई
पढ़े नहीं। जिनका टेन्डर लेना पहले से तय है उनका मुलाजिम आखरी दिन शाम के पाँच बजे
पहुँचता है तीन कम्पनियों का तीन सील्ड टेन्डर लेकर। मिठाइयाँ पहुँच जाती है घरों पर
… कमसे कम एक बन्दरगाह के बारे में तो ऐसी ही बातें सुनने में आई हैं!
कानून
अभी संसद में पारित हुआ नहीं। यहाँ तक कि मंत्रीमंडल में भी पारित नहीं हुआ। लेकिन
उस कानून स्र होने परिवर्तन एवं नये निवेश सम्बन्धी जानकारियाँ दरबारियों तक पहुँच
जाती है और पूरे देश में उनके एजेन्ट निवेश में पैसे लगाने, ढाँचे बनाने शुरु कर देत
हैं!
और
फिर, भगोड़े! कैसे भाग जाते हैं वे? उनका पासपोर्ट इम्पाउन्ड करने में क्यों हर बार
देर हो जाती है? अब तो कोई पढ़ता भी नहीं है जब खबर छपती है कि सरकार उन मे से किसी
को देश में वापस लाने की “पूरी कोशिश” में लगी है!
2 –
अपनी शाहखर्ची के लिये कुछ भी, कहीं भी देश के लिये आरक्षित धन बचने नहीं देना; बैंकों
के प्रबंधन को कमजोर कर, गलत ॠण दिलवाना, एनपीए बढ़वाना और फिर उसे राइट ऑफ की प्रक्रिया
में ले जाना;
आज
तक किसी सरकार ने रिजर्व बैंक के आरक्षित कोष पर हाथ नहीं डाला। लेकिन इस सरकार ने
दो दो बार हाथ डाला, वह भी कोविड-19 की महामारी के कारण गहराये आर्थिक समस्याओं के
पहले ही।
इस
सरकार के काल में एनपीए बढ़ने की दर में भी बृद्धि हुई है और कर्जमाफी का तो क्या कहना!
दसियों लाख करोड़! हम सब बैंक वाले हैं – आन्दोलन भी किये हैं इसके खिलाफ! और अब बनाने
जा रहे हैं बैड बैंक – करदाताओं के पैसे से एनपीए खरीदेंगे और बैंकों का बैलेंसशीट
साफ होने पर फिर उन्ही दरबारी पूंजीपतियों को कर्ज दिलवायेंगे।
3 –
ऊपर से नीचे तक हर स्तर पर पारदर्शिता का अभाव; जनता से चोरी-छुपे काम करना;
इस
सरकार के पूरे दौर में सूचना का अधिकार कानून की धज्जियाँ उड़ाई गई हैं। लोकपाल आज तक
नियोजित नहीं हुआ। सभी संवेदनशील मामले में जनता से जानकारी छुपाई गई। रफेल सौदे की
कीमत सम्बन्धी दस्तावेज, आइ॰एस॰आर॰ओ॰ जासूसी मामला, कृषि कानून सम्बन्धी कमिटी रिपोर्ट,
अयोध्या विवाद, सीबीआई के निदेशक सम्बन्धी विवाद, यहाँ तक कि प्रधानमंत्री के बायोपिक
सम्बन्धी विवाद – सारे कागजात बन्द लिफाफे में सर्वोच्च न्यायालय को सौंपे गये।
राष्ट्रीय
राहत कोष के रहते पीएम केयर्स फन्ड कायम किये गये, पर उसे सरकारी ऑडिट के दायरे से
बाहर रखा गया। चुनाव में पार्टियों को चन्दा देने के लिये चुनावी बॉन्ड जारी करने का
प्रावधान किया गया। लेकिन कौन चन्दा दे रहा है, कौन चन्दा ले रहा है, ये सारी बातें
जनता की आँखों से ओझल रखा गया है।
4 –
बड़बोली, कुतर्की नीतियाँ जिनकी असफलताओं को छुपा जाना एवं मानविक-कीमत (ह्युमैन कॉस्ट)
को स्वीकारने से भी इनकार
नोटबन्दी
अपने सारे घोषित लक्ष्यों को पूरा करने बुरी तरह विफल रहा। जबकि, मानविक-कीमत चुकाने
में संगठित क्षेत्र में लाखों लोगों का रोजगार चला गया, डेढ़सौ लोगों की जानें गईं।
सरकार ने एक बार दुख तक जाहिर नहीं किया। जीएसटी के चलते धंधे बन्द हुये सो अलग, राज्यों
का हाथ पैर काट दिया गया। वह अब अलग से कर नहीं लगा सकते, जबकि केन्द्रीय कर में उनका
हिस्सा बकाया पड़ा हुआ है – यही है सहकारी संघवाद, कोऑपरेटिव फेडरलिज्म की तस्वीर।
इसी
परिप्रेक्ष्य में आया है नैशनल मॉनिटाइजेशन पाइपलाइन, राष्ट्रीय मौद्रीकरण प्रक्रिया।
गौर करें कि यह आया है कोविड-19 का पहला और दूसरा लहर बीत जाने के बाद, तीसरा लहर आने
की आशंकाओं के बीच। अगर वह आया तो संसद का शीतकालीन सत्र हो पायेगा कि नहीं, कहना मुश्किल
है। 2021 के बजट के धोखे पकड़े जा चुके हैं, किसान नौ महीने सड़कों पर हैं, श्रम कानूनों
में श्रम संशोधनों को लेकर आन्दोलित हैं, भारतीय श्रमिकों के लिये श्रमदिन आठ घन्टे
से बढ़ा कर बारह घंटे किया जा रहा है, जबकि वर्ल्ड बैंक ने इडीबी (इज ऑफ डुइंग बिजनेस)
में दिखाई गई भारत की प्रगति को खारिज कर दिया है यह कह कर कि आँकड़े फर्जी हैं।
नैशनल
मॉनिटाइजेशन पाइपलाइन पर निति (नीति नहीं, ध्यान रखियेगा) आयोग ने जो दो खण्डों मे
निर्देशिका जारी किया है उसके पहले खण्ड का आमुख शुरु होता है कुछ आम महत्व की बातों
से:
“Infrastructure is critically linked to
growth and economic performance. Benefits of higher investment in good quality
Infrastructure manifest in the form of increased employment opportunities,
access to market and materials, improved quality of life and empowerment of
vulnerable sections. …”
उसकी अगली पंक्तियों में सरकार की प्रशस्ति
गाते हुये वह एक पारिभाषिक शब्द घुसाता है, “asset recycling”। और ठीक उसके बाद अपने
उद्देश्य को वह रखता है:
“Asset recycling and monetization is the
key to value creation in Infrastructure by serving two critical objectives,
unlocking value from public investment in Infrastructure and tapping private
sector efficiencies in operations and management of infrastructure.”
फिलहाल यहीं रुका जाय।
कैसे महाशय? “सम्पत्ति का पुनर्चक्रण एवं मौद्रीकरण,
आधारभूत संरचना में मूल्यसृजन की कुंजी” (Asset recycling and monetization is the key to value creation
in Infrastructure) कैसे है? और अगर ऐसा है, तो बताइये कि यह देश जब आजाद हुआ तो इसके
पास कौन सी सम्पत्ति थी जो अंग्रेज छोड़ गये थे और जिसे इसने मौद्रीकरण के लिये पुनर्चक्रण
के जरिये निजी पूंजी को दिया? देश तो बल्कि जनता के पैसों से और कुछ बाहरी सरकारी मदद
से अपने पंचवर्षीय परिकल्पनाओं को अंजाम दिया और आधारभूत संरचना को खड़ा किया! बिजली,
सड़क, रेलमार्ग, लौह एवं इस्पात उद्योग एवं अन्य कई बुनियादी उद्योग खड़ा किये गये, खाद्य-उत्पादन
में आत्मनिर्भर हुआ गया, उच्चस्तरीय शिक्षा एवं शोध संस्थायें निर्मित किये गये, करोड़ों
रोजगार का सृजन हुआ, आणविक एवं नाभिकीय ऊर्जा केन्द्र एवं अंतरिक्ष शोध केन्द्र बनाये
गये!
हाँ,
अब आपके पास जनता की विशाल सम्पत्तियाँ हैं जिनका आप पुनर्चक्रण के जरिये मौद्रीकरण
करना चाहते हैं। लेकिन, कौन सी आर्थिक बुद्धिमत्ता के कारण आपने एक शाश्वत वचन के तौर
पर कहा कि “निवेश निर्देशित विकास का पूर्वशर्त है … सम्पत्ति का पुनर्चक्रण” (one
of the pre-requisites of Investment led growth is … asset recycling)? और क्यों?
क्योंकि, आप कहते हैं कि इससे दो “संकटपूर्ण लक्ष्य” (critical objectives) पूरा होता
है, जिसमें आपकी नज़र में पहला है, “सार्वजनिक निवेश से मूल्यों को बाहर निकालना” (unlocking
value from public investment)। और क्यों? “संचालन एवं प्रबन्धन में निजी क्षेत्र की
दक्षता” (private sector efficiencies in operations and management) को तलाशने के
लिये। क्या आप संचालन एवं रबन्धन में सारे सार्वजनिक क्षेत्र की दक्षता को जाँच चुके
हैं? कम से कम एक नमूना सर्वेक्षण भी? उसके क्या परिणाम आये हैं? क्या आप दिखा सकते
हैं? क्या सारा सार्वजनिक क्षेत्र खुद को संचालन एवं प्रबन्धन में अकुशल एवं अदक्ष
साबित कर चुका है? प्लीज, जरा दिखाइये देश की जनता को क्यों आप “सार्वजनिक निवेश से
मूल्यों को बाहर निकालने” को मजबूर हैं? आप तो सरकार के बनाये हुये ‘थिंक-टैंक’ हैं!
वह
भी एक या दो, प्रयोग के तौर पर नहीं। थोक भाव से – सड़क, रेलमार्ग, नगरविकास, शक्ति,
पाइपलाइन, टेलिकॉम, भंडारण, लॉजिस्टिक, बन्दरगाह, हवाईअड्डा, जमीन, मकान … ! ये सम्पत्तियाँ
आइ कैसे? किसी पुरानी ‘तालाबन्द’ औपनिवेशिक सम्पत्ति के मौद्रीकरण से तो नहीं आई! ये
तो बनी जनता की गाढ़ी कमाई से! उन्ही सत्तर सालों में, जिसमें, हमारे प्रधानमंत्री कहते
हैं कि “कुछ नहीं हुआ”! आप ही ने बनाई है यह संक्षिप्त सूची (पूरा नहीं), जिसमें से
‘थोड़ा’ आप अभी ‘अनलॉक’ कर पुनर्चक्रण के जरिये मौद्रीकरण करेंगे!
स्पष्ट है कि उद्यम, उद्योग आदि इस सूची में नहीं है। उनके निजीकरण
का अलग प्रक्रिया है। कॉर्पोरेटाइज करो, हिस्सापूंजी बेचो, विलय करो ताकि कमजोर हो
जाय … जैसा बैंकों के साथ हो रहा है। जीवन एवं साधारण बीमा के साथ हो रहा है। कोयला,
ईस्पात, तेल, प्रतिरक्षा, अंतरिक्ष कुछ भी निजी पूंजी की गिद्ध-दृष्टि से बाहर नहीं
है। नैशनल मॉनिटाइजेशन पाइपलाइन सिर्फ संचालन एवं प्रबन्धन क्षेत्र का पट्टा निजी क्षेत्र
को देने के लिये है। ‘उत्पादन करने का जहमत फिलहाल हम उठाते हैं, जब तक जनता पूरी तरह
मुट्ठी में न चली आये; तब तक आप सामान पहुँचाने और बाँटने में माल कमाइये’।
बिजली का उत्पादन सार्वजनिक क्षेत्र में और
वितरण निजी कम्पनियों के हाथ में - लगभग सारे शहर के लोग अपने अनुभव से जानते हैं कि
इस व्यवस्था की क्या कीमत चुकानी पड़ती है। कितनी तेजी से बिजली की कीमत बढ़ाई जाती है।
और अगर जनरोष का मुकाबला करने के लिये राज्य सरकारें कुछ सीमायें लागू करती हैं तो
उन निजी कम्पनियों के घटते मुनाफे की भरपाइ करती है अनुदान के माध्यम से। यही हाल सारी
सेवाओं का होना है। जब तक असन्तोष का विस्फोट उनके नियंत्रण से बाहर न चला जाय, तब
तक ये निजी पट्टेदार जनता को निचोड़ेंगे, लूटेंगे, उन सार्वजनिक ढाँचों को रखरखाव में
लापरवाही के द्वारा बर्बाद करेंगे और फिर आज से तिगुनी, पाँचगुनी हिसाब से जनता का
पैसा सरकार से लेकर उन सम्पत्तियों का ढूह फेंक कर हट जायेंगे। अस्सी के दशक में ब्रिटिश
रेल का उदाहरण सामने है। उन सभी देशों के इतिहास में, जहां ‘पुनर्चक्रण’ के द्वारा
‘मौद्रीकरण’ किया गया यह किस्सा दर्ज है।
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