Thursday, September 23, 2021

भूमिका [पैरिस कम्यून पर अनीश अंकुर की पुस्तिका के लिये]

यह बहुत खुशी की बात है कि मजदूरवर्ग द्वारा सत्ता पर कब्जा करने की पहली सफलता, पैरिस कम्यून के 150वें वर्ष के अवसर पर, युवा रचनाकार नाट्यकर्मी अनीश अंकुर ने चार महत्वपूर्ण आलेख लिखे एवं अब उन चार आलेखों की शृंखला पुस्तक रूप में रही है।

सन 1871 के 18 मार्च को स्थापित पैरिस कम्यून दुनिया में मजदूरों का पहला राज था। राज का इतिहास तो ढाई महीने का भी नहीं है पर उसके कत्ल का इतिहास बहुत लम्बा है; बल्कि आज भी जारी है। सबसे पहले तो हुए उसमें भाग लेने वाले मजदूरनवजवानों, बूढ़ों, औरतों एवं बच्चोंका कत्ल। अगर हम तत्कालीन अनौपचारिक आँकड़ों को भी माने तो खुद आज के विकिपीडिया में दर्ज है कि 20,000 कम्यूनार्ड (कम्यून की स्थापना में शरीक होने वाले श्रमिक उनके परिवार) दीवारों के सामने खड़े कर गोलियों से भून दिये गये, 7,500 भेज दिये गये देश से बाहर। जो बाहर यानि फ्रांसीसी उपनिवेशों में भेजे गये, वहाँ उनमें से अधिकांश को तरह तरह की यातनाएं देकर मार डाला गया) पैरिस और पूरे फ्रांस में ढूंढ़-ढूंढ़ कर यह कत्ल चलता रहा दशक के अन्त तक। जो कम्यूनार्ड भाग कर यूरोप के दूसरे देशों में गये लेकिन पहचान लिये गये, उन्हे भी तरह तरह की प्रताड़नाएं झेलनी पड़ी, मसलन कहीं रोजगार नहीं मिलना, किसी भी शक पर जेल में डाल दिया जाना

कत्लका दूसरा सिलसिला शुरु हुआ तत्काल, यूरोप के सभी देशों में। वह था संगठनों काकत्ल चूंकि यूरोप के सरकारों, उनके प्रायोजक शोषक वर्ग एवं पोषित समाचार-माध्यमों को मालूम था कि पैरिस कम्यून के पीछे एक बड़ी प्रेरक शक्ति है आइ॰डब्ल्यु॰ए॰ यानि इन्टरनैशनल वर्किंगमेन्स एसोसियेशन (परिचित नाम, ‘पहला अन्तरराष्ट्रीय), इस संगठन के राष्ट्र-स्तरीय इकाइयों को प्रताड़ित करना या अगर सम्भव हो तो जबरन भंग करना, भीतर में पुलिसिया जासूस घुसवाकर आतंकवादी गतिविधियों का जालीप्रमाणरखवाना एवं उसके आधार पर फर्जी मामला बनाकर जेल में डलवाना शुरु हो गया।

कत्ल का तीसरा सिलसिला था वैचारिक कत्ल, या इतिहास का कत्ल। यह कितना भयानक था कि आज भी, इन्टरनेट पर, विकिपीडिया के या एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के पेज पर कम्यून की संक्षिप्त कालपंजी तो मिल जाएगी, तत्कालीन फ्रांस में श्रमिकों की दुखभरी जिन्दगी पर दो-चार हमदर्दी भरे वाक्य भी मिल जायेंगे, कम्यूनार्डों की हत्या के ऐतिहासिक तथ्य मिल जायेंगे, लेकिन सत्ता में आने के बाद कम्यून ने क्या किया, क्या उनकी नीतियाँ थी, गरीबों की राहत के लिये क्या क्या कदम उठाये उन्होने, इस पर एक वाक्य नहीं मिलेगा (एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में उनके सामाजिक कदम के रूप में एक, दस घंटे का श्रमदिवस लागू किये जाने का जिक्र मिलेगा) यहाँ तक कि पूरे पेज पर या नीचे रेफरेन्स में एक हाइपरलिंक वाले शब्द भी नहीं मिलेंगे कि उस पर क्लिक कर पढ़ा जा सके। अगर डेढ़ सौ बरस के बाद भी यह हाल है, तो सोचिये कि पिछले पन्द्रह दशकों से चल रहा वैचारिक कत्ल कितना भयानक रहा होगा।

खैर, आज की आभासी दुनिया उतनी भी एकतरफा नहीं है; वर्गसंघर्ष का एक आधुनिक रणक्षेत्र यह भी तो है। इसलिए जो पढ़ना चाहें, दस्तावेज मिल ही जाएंगे।

अक्सर जब हम फटेहाल, भूखमरी से ग्रस्त एवं हथियारों से लैस गरीबों के राजमहल पर कब्जा करने के दृश्य की कल्पना करते हैं तो हमारा दिमाग पूंजीवादी फिल्म-तंत्र से प्रभावित रहता है। बरबस हम सोचने लगते हैं कि वे बुभुक्षु नजरों से टेबुल पर पड़े फलों को देख रहे होंगे, मेज पर रखे कीमती गुलदस्तों को देख रहे होंगे (कोई चुराने को भी सोच रहा होगा)! पूंजीवादी दिमाग तो रोज की जिन्दगी में भी सोच नहीं पाता है एक मजदूर, एक किसान के व्यक्तित्व की सौम्यता के बारे में; फिर वे तो देश की सत्ता हाथ में लेने के ऐतिहासिक दायित्व का निर्वाह करने वाले मजदूर थे!

लेखक अनीश अंकुर ने बिल्कुल सही लिखा है – फ्रांस के इतिहास में सबसे इमानदार सरकार!

बहुत कम दिनों तक कम्यून की सरकार रह पाई। मजदूरों की इस सत्ता की रणनीतिक कमजोरियों पर बहुत कुछ लिखे जा चुके हैं पिछले डेढ़सौ वर्षों में। पैरिस कम्यून के 46 वर्षों बाद रूस की क्रांति हुई। सोवियत संघ की स्थापना हुई। तेजी से बदलने लगी दुनिया। हर एक देश में खड़े होने लगे सामाजिक न्याय के सवाल, शुरु हो गये सामाजिक बदलाव के संघर्ष। अगले तीस वर्षों के अन्दर दुनिया के लगभग सभी देशों में मजदूरों-किसानों की पार्टियाँ बन गई, लगभग आधी दुनिया समाजवादी खेमें में आ गई, जहाँ समाजवाद नहीं भी आया वहाँ मेहनतकशों के संघर्षों ने सत्ता को मजबूर किया बेहतर मजदूरी, फसलों के बेहतर दाम, बेहतर सामाजिक सुरक्षा, बेहतर नारी-अधिकार देनें के लिये। रंग-भेद के खिलाफ, नस्ल-भेद के खिलाफ, जात-पात के खिलाफ संघर्ष बढ़ने लगे। जबकि सत्तर वर्षों तक पूंजीवादी साम्राज्यवाद हर कोशिश में जुटा रहा कि सोवियत संघ बिखर जाये, विश्व का समाजवादी खेमा मटियामेट हो जाये। नाजीवाद, फासीवाद अपने अपने देशों में क्रांतिकारी आन्दोलनों की ही प्रतिक्रियायेँ थीँ जिन्हे बड़े थैलीशाहों का पूरा समर्थन मिला। वे तो खुश थे कि अब सोवियत संघ की खैर नहीं, हिटलरी सेना कुचल देगी क्रांति-वांति। … लेकिन उल्टा हुआ। तब चला शीत-युद्ध का दौर।

आखिर युद्ध ही तो था। कहीं चूक हुई। मार्क्सवाद की मूल प्रस्थापनाओं में से एक है कि उत्पादन की पुरानी प्रणाली के साथ उत्पादन की विकसित शक्तियों के संघर्ष से पैदा होती है उत्पादन की नई प्रणाली। समाजवादी क्रांति से पैदा हुई इस नई प्रणाली के सामने चुनौती थी कि पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली से वह हर समय उत्पादन की वृद्धि में आगे रहे। लगभग पचास वर्षों तक, तमाम मुश्किलों को झेलते हुये भी सोवियत समाजवादी उत्पादन प्रणाली दुनिया में अपनी बढ़त बनाये रखी। लेकिन फिर वह वृद्धि कम पड़ने लगी। आगे बीसवीं सदी के अस्सी के दशक का इतिहास है। पूर्वी योरोप के देश और फिर सोवियत संघ में समाजवाद के ध्वस्त होने का, क्रांति के बिखरने का इतिहास है।

वस्तुत: हम सोवियत क्रांति के बिखरने के बाद की दुनिया में पिछले तीस वर्षों में जी रहे हैं। तीस वर्षों की नव-उदारवादी अर्थनीति आई ही थी मजदूरों की मजदूरी कम करने के लिये, किसानों की आय कम करने के लिये, सार्वजनिक क्षेत्र को विघटित कर तथाकथित ‘कल्याणकारी अर्थनीति’ को खत्म करने के लिये, जल-जंगल-जमीन पर जनता के जो कुछ भी अधिकार एवं स्वायत्तता पूंजी की मुनाफाखोरी पर अंकुश लगाते हैं उन्हे खत्म करने के लिये। मानवता के लिये बेहतर होने के उसके सारे दावे ताश के पत्तों की तरह बिखर चुके हैं। अब वह घोर दक्षिणपंथ एवं तानाशाहियत के माध्यम से सत्ता पर पकड़ बनाये रखने की कोशिश में, धर्म-जात-नस्ल-रंग के भेदों पर जनता को बाँटने और आपसी हिंसा में उलझाने के नये नये नारे तलाशने में मशगूल है। अमीरी और गरीबी की विस्फोटक खाई पर, धरती को बर्बाद कर देनेवाली परिवेश-दूषण के साथ दुनिया को धकेल कर ले आई है नवउदारवादी अर्थनीति। जिस प्रौद्योगिकी व सूचना क्रांति की निर्णायक भूमिका थी उत्तर-सोवियत दुनिया पर नवउदारवाद का आधिपत्य कायम करने में, जिस क्रांति को सामने रख कर उसने दावा किया कि व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं मानवाधिकार के मामलों में वह ‘कम्युनिस्ट प्रयोगों’ से बेहतर है, उसी प्रौद्योगिकी व सूचना तकनीकों का इस्तेमाल कर वह गिरफ्त में रखना चाह रही है व्यक्ति का पूरा जीवन, हनन कर रही है सारे मानवाधिकार।

अगर आज यह स्थिति है तो हम सोच सकते हैं कि पैरिस कम्यून के पराजित होने के बाद दुनिया की क्या स्थिति हुई होगी। उस समय सूचना व्यवस्थायें आज जैसी नहीं थीं। उस समय के अखबार आदि उन देशों के ग्रंथालय आदि में होंगे जिन्हे खंगालना कम से कम मेरे लिये नामुमकिन है। मजदूरों की मजदूरी, उसके लिये संघर्ष, ट्रेड युनियनों की गतिविधियाँ इन सबों की जानकारी मिलना मुश्किल है। वैसे सामान्यत: दिखता है कि उन्नीसवीं सदी के अस्सी के दशक के अन्त एवं नब्बे के दशक की शुरुआत से ही मजदूर-वर्गीय गतिविधियाँ जोर पकड़ती है। मजदूरी में बढ़ोत्तरी भी उसी समय से होने लगती है। जुझारू ट्रेड युनियनें समझौता-परस्त युनियनों की जगह लेने लगते हैं। वैसे, पैरिस कम्यून के पराजय के तत्काल बाद योरोप की सरकारों का क्या बर्ताव था मजदूरवर्ग के प्रति? नीचे का उद्धरण सन 1872 में हुये, इन्टरनैशनल वर्किंगमेन्स एसोसियेशन (पहला इन्टरनैशनल) के हेग कांग्रेस में, साधारण परिषद द्वारा रखे गये प्रतिवेदन से लिया गया है। स्वाभाविक तौर पर यह मार्क्स का ही लिखा हुआ है, लेकिन यह कांग्रेस का स्वीकृत व पारित दस्तावेज है।

“पहले उन्हे फाँसी दो, फिर उनके लिये प्रार्थना करो!

“बिस्मार्क, बेउस्ट और प्रशियाई जासूस-प्रधान स्टिबर का समर्थन प्राप्त करते हुये ऑस्ट्रिया एवं जर्मनी के सम्राट सन 1871 के सितम्बर महीने की शुरुआत में सॉल्जबर्ग में मिले। प्रकट उद्देश्य था इन्टरनैशनल वर्किंगमेन्स एसोसियेशन के खिलाफ एक पवित्र गँठजोड़ की स्थापना।

“ ‘ऐसा योरोपीय गँठजोड़’, नॉर्ड्युश ऐल्गेमेइन ज़ाइटुंग [उत्तरी जर्मन गेजेट], बिस्मार्क के निजी घोषक ने घोषित किया, ‘राज्यसत्ता, गीर्जा, सम्पत्ति, सभ्यता – एक शब्द में कहें तो उन तमाम चीजों का जिनसे योरोप की राज्यसत्तायें बनी हैं – का एकमात्र सम्भव मुक्तिपथ है।’

“बिस्मार्क का वास्तविक उद्देश्य हालाँकि रूस के खिलाफ होने वाले युद्ध के लिये गँठजोड़ तैयार करना था और उसी के लिये ऑस्ट्रिया को इन्टरनैशनल उसी तरह दिखाया गया जैसे साँड़ को लाल कपड़ा दिखाया जाता है।

“इटली में लान्ज़ा ने महज एक डिक्री के जरिये इन्टरनैशनल को दबा दिया। स्पेन में सगास्ता ने इसे, शायद इंग्लैंड के शेयर बाजार की कृपादृष्टि पाने के लिये गैरकानूनी घोषित कर दिया। रूसी सरकार, जो भुदासों की मुक्ति के बाद से ही, आज जनता की मांगों पर कुछ छूट दे देने और कल वापस ले लेने के खतरनाक रास्ते पर चल रही थी, इन्टरनैशनल के खिलाफ चीखपुकार के बहाने देश में प्रतिक्रिया को फिर से बढ़ाने का रास्ता ढूंढ़ ली। …… कम्यून के शरणार्थियों को थियर्स के हाथों सौंपने से स्विट्जरलैंड की प्रजातांत्रिक सरकार को सिर्फ स्विस इन्टरनैशनलों के आन्दोलन रोके हुये है।

अन्त में, मिस्टर ग्लैडस्टोन की सरकार ने, चुँकि ग्रेट ब्रिटेन में कुछ कर नहीं पा रही है, आयरलैंड में बन रहे हमारे [इन्टरनैशनल के] प्रभागों पुलिसिया आतंकवाद जारी कर कम से कम अपनी सदिच्छा जाहिर कर दिया, और विदेशों में अपने प्रतिनिधियों को आदेश दिया कि वे इन्टरनैशनल वर्किंगमेन्स एसोसियेशन के बारे में सूचनायें इकट्ठी करें।

“लेकिन योरोप की संयुक्त सरकारी बौद्धिकता दमन के जितने कदम ईजाद कर सकती है, वे कुछ भी नहीं है सभ्य दुनिया की झूठ बोलने की शक्ति द्वारा चलाये जा रहे मिथ्यापवाद-युद्ध के मुकाबले। इन्टरनैशनल के संदिग्ध इतिहास और रहस्य, जाली सार्वजनिक दस्तावेज व व्यक्तिगत पत्र, तेजी से एक के बाद सामने आते सनसनीखेज तार! बिकाऊ इज्जतदार प्रेस की औकात में आने वाले झूठी निंदा के सारे दरवाजे एक साथ कलंक की बाढ़ प्रवाहित करने के लिये खोल दिये गये ताकि घिनौना शत्रु बह जाये। सभी रंगत के शासकवर्गओं की राय की एकात्मता के बीच वास्तविक अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चलाये गये इस मिथ्यापवाद-युद्ध की कोई सानी नहीं है।”

और यह सब क्यों? इन्टरनैशनल की स्थापना तो पैरिस कम्यून के सात साल पहले हुई थी। पैरिस कम्यून की घटना होने के पहले ही इस संगठन की सदस्यता सर्वोच्च संख्या हासिल कर चुकी थी। इसलिये कि शासक वर्ग जान रही थी कि भले ही पैरिस कम्यून की स्थापना के पीछे फ्रांस की अस्थिर राजनीतिक स्थिति उत्तरदायी हो, भले ही इन्टरनैशनल की ओर से कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मदद न दी गई हो पैरिस कम्यून के क्रांतिकारी हमले को संगठित करने में (मार्क्स-एंगेल्स तो सावधान ही किये थे बल्कि फ्रांस के प्रतिनिधियों को; हाँ बन जाने के बाद जी-जान से समर्थन किये थे जरूर), अन्तत: मजदूरवर्ग की उभरती अन्तरराष्ट्रीय एकता ही महत्वपूर्ण कारक शक्ति रही है पैरिस के मजदूरों के साहस और उद्यम को जगाने में। फिर दोबारा कोई पैरिस कम्यून नहीं बन सके इसी उद्देश्य से, मजदूरवर्ग की अन्तरराष्ट्रीय एकता की रीढ़ को तोड़ने के लिये ही इन्टरनैशनल पर हमला चलाया गया।

लेकिन पैरिस कम्यून लौट लौट आती रही सर्वहारा की हर क्रांति में – रूस में, पूर्वी योरोप के देशों में, चीन में, क्यूबा और वियतनाम में … हमेशा आती रहेगी।



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