Monday, October 25, 2021

धर्म का आतंक

घर में शादी हो रही थी। फेरे लग रहे थे। वह बच्चा अपनी दादी के साथ खड़े देख रहा था; दादी उसका हाथ पकड़े हुए थी। बच्चा बहुत ध्यान से बीच में उठ रही आग की लपटों को देख रहा था जिसे बार बार ढक दे रहे थे धीरे धीरे घूमते हुये दुल्हा-दुल्हन के पैर और उन दोनों के बंधे हुये पल्लू। बच्चे की कल्पना भी साथ दौड़ रही थी। बरबस उसके दिमाग में बात आ गई कि झूलता हुआ पल्लू अगर आग पकड़ ले तो? तो क्या होगा, पानी से बुझा दिया जाएगा, बच्चे के दिमाग ने समाधान सोच लिया। लेकिन फेरा तो रुक जाएगा! फिर? उसने दादी से पूछा, “दादी, अगर सात फेरे नहीं लग पाये तो?” दादी शंकित हुईं, “क्या मतलब? क्यों नहीं लग पायेंगे?” “नहीं, अगर पल्लू आग पकड़ ले और उसे बुझाने …”। “चुप, चुप! क्या अशुभ बातें सोचता रहता है तू! छी, छी, ऐसी अशुभ बातें सोचनी भी नहीं चाहिये।”

अच्छा हुआ कि उस शादी में ऐसी कोई घटना नहीं हुई। होती तो बच्चे पर ख्वामखाह ‘कालाजीभवाला’ होने का सन्देह फैल जाता। क्योंकि दादी तो बोलती ही, कि बच्चा दो मिनट पहले यही कह रहा था।

फेरे चलते रहे। लोग आनन्द लेकर गिन रहे थे, “तीन, चार”, …… “ए ए, चार नहीं हुआ है अभी, तीसरा चल रहा है” …… बच्चे का दिमाग फिर सोचने लगा – अगर सात गिनने में लोग गलती कर दें? फिर उसने दादी से पूछा, “दादी, दादी, अगर सात की जगह आठ फेरे लग गये तो?” “ओफ! तेरा यह ऊलजलूल सोचना बन्द करना पड़ेगा। बिना सोचे देख नहीं सकता है? किसी दिन तू किसी अमंगल को बुला लायेगा इस तरह!”

गनीमत है कि दादी थी। अगर बच्चे का बाप होता तो पिटाई भी पड़ चुकी होती। पूरे प्रसंग को हम एक सामान्य हास्यप्रसंग के रूप में देख सकते हैं। लेकिन सोचिये कि इस सामान्य प्रसंग में भी बच्चे के दिमाग को, दिमाग की कल्पनाशक्ति को ‘अशुभ’ कहा गया, ‘ऊलजलूल’ कहा गया, ‘बिना सोचे’ देखने की हिदायत दी गई और ‘अमंगल’ बुला लाने की आशंका व्यक्त की गई।

यही बर्ताव करते हैं हम बच्चों के साथ। बच्चियों के साथ और भी ज्यादा। पूजा की जगह पर बिना नहाए या कपड़ा बदले चला गया, नैवेद्य के लिये रखे गये फल या मिठाई को छू लिया, खा लिया एक उठा कर तब तो कोहराम मच जाएगा, वैसे सबकुछ ‘अपवित्र’ कर देने का तोहमत तो मिल ही जाता है।

कितने ऐसे काम हैं जिन्हे करने से, या ऐसे सोच हैं जिन्हे सोचने से ‘पाप लगते हैं’, और फिर कितने ऐसे काम हैं जिन्हे करने से, या ऐसे सोच हैं जिन्हे सोचने से ‘अमंगल’, अकल्याण’ होता है। कितने ऐसे काम हैं जिन्हे, या ऐसे सोच हैं जिन्हे, बस करना या सोचना नहीं चाहिये। क्यों? क्यों क्या? बस कह दिया न? लोग कहते हैं। सदियों से मानते आये हैं। सारे के सारे गलत थे क्या?

यह सब उस धर्म के पालन का सामान्य रोजमर्रा है जिसके भीतर से किसी बच्चे या बच्ची को हर दिन गुजरना पड़ता है और गुजरते गुजरते वे अपने दिमाग में खुद असंख्य अदृश्य दीवारें खड़ी करने लगते हैं – ये न करो, ये न सोचो, ये न छुओ …। पाप लगने से वे ज्यादा नहीं डरते। बचपन हमेशा साहसी और खोजी होता है। पाप लगेगा तो लगेगा, अपने ऊपर लगेगा। लेकिन ‘अमंगल’, अकल्याण’ से वे डरते हैं। ये दोनों ‘चीजें’ तो घर पर मंडरायेंगी। जिसमें माँ रहती हैं, पिताजी रहते हैं, दादी रहती हैं, दीदी या बहन या भैया या छोटा भाई रहते हैं। हो सकता है कोई बुआ या मौसी भी रहती हों जो खुद तो किस्मत की होती हों पर घर के बच्चों की दोस्त हो जाती हैं। कोई दोस्ताना नौकर या दाई भी हो सकता है हो। इनमें से किसी के अमंगल की आशंका, वह भी उसी के किसी काम या सोच के कारण … बच्चों की रुह काँप जाती है।

सोचिये कि ये डरे हुये बच्चे जो आज तक बड़े होते रहे उनके डर का क्या इस्तेमाल हुआ भविष्य के जीवन में?

जबकि घर, परिवार सिर्फ फुनगी या पत्ता होता है उस विशाल विषवृक्ष का जिसे धर्म कहते हैं। गांठ पर सार्वजनिक आराधनास्थल – मन्दिर, मस्जिद, गिर्जा आदि – होते हैं और तना होता है उसका जीवन-यंत्र। इस तने में धर्म के ठेकेदारों की बैठका होते हैं – देश और दुनिया-स्तरीय। संगठित धर्म के इस जीवन-यंत्र की जड़ें गड़ी हुई रहती है सभ्यता की विजयी राज्यसत्ताओं के अहाते में। जिसे असंगठित धर्म या लोक-जीवन में मौजूद हजारों पंथ के रूप में जानते हैं उनके जीवन-यंत्र की जड़ें गड़ी रहती है सभ्यता की पराजित सत्ताओं के अहाते में या ऐसे तंत्रों में जिन्हे सत्ता हासिल नहीं हो सका। मनुष्य के द्वारा मनुष्य के शोषण की जो व्यवस्था है समाज में, जो उसका ऐतिहासिक यथार्थ है, उसी से राज्यसत्ता को बौद्धिक पोषण मिलता है, और उसी ऐतिहासिक यथार्थ से धर्मों का भी बौद्धिक पोषण होता है।

जब हम कहते हैं, धर्म अपनी अपनी आस्था है भाई, मन में मानो, घर में मानो … तब भी दिमाग में खाका वैसे ही किसी तंत्र का होता है जिसे सत्ता का प्रश्रय हासिल नहीं हो सका, या ज्यादा सही होगा कहना कि सत्तासीन वर्ग ने उसे काम का नहीं समझा और इसलिये आज वह बिखरा बिखरा, घरों में सिमटा सा दिखता है। फिर भी हम कहते हैं, कहेंगे क्योंकि उसमें लोकायत जीवन का एक ऐतिहासिक स्वरूप निहित है, जिसकी जरूरत है, तात्कालिक तौर पर सामाजिक शक्तियों की गति को सही परिप्रेक्ष्य और सही दिशा देने के लिये।         

अक्सर हम धर्म और साम्प्रदायिकता में फर्क करते हुये सारी बुराई साम्प्रदायिकता के मत्थे मढ़ देते हैं। धर्म को आस्था और मन की शांति के दायरे में लाकर पूरी तरह निर्दोष साबित कर देते हैं। साम्प्रदायिकता मेरी समझ से एक आधुनिक ऐतिहासिक परिघटना है जिसका विवेचन अभी प्रासंगिक नहीं होगा। लेकिन जिस ठोस रूप में धर्म आज हमारे घरों में है वही आतंक की जमीन तैयार करता है; भविष्य का आतंकित नागरिक भी तैयार करता है और आतंकवादी भी तैयार करता है।

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धर्म का आतंक मूलत: सत्ता का आतंक है। क्योंकि धर्म सत्ता का ही सांस्कृतिक हथियार है।

सीधे तौर पर ऐसा कह देने से बहुत अजीब सा लगता है। इसके विरुद्ध तर्क देनेवाले अपनी बात शुरू ही करते हैं एक खास नाम का हवाला देकर। कार्ल मार्क्स। “क्यों? कार्ल मार्क्स ने जैसे कहा था कि धर्म अफीम है, उन्होने यह भी तो कहा था कि धर्म उत्पीड़ित प्राणी की आह है, हृदयहीन दुनिया का हृदय है, आत्माशून्य परिस्थितियों की आत्मा है”?

बेशक। पर उत्पीड़क है कौन? दुनिया को हृदयहीन और परिस्थितियों को आत्माशून्य या विवेकशून्य बनाया कौन?

ठीक है, मान लिये कि सत्ता ने, राज्यसत्ता ने, शासकों ने ही बनाया, तो फिर इसका मतलब है कि उस सुरक्षित मर्मस्थल को भी उन्होने ही बनाया “हृदयहीन दुनिया का हृदय है, आत्माशून्य परिस्थितियों की आत्मा है” और जहाँ “उत्पीड़ित प्राणी की आह” निकलती है तो उसे करुणा के प्रलेप से शांत कर देता है वह हृदय और वह आत्मा!

बिल्कुल! उन्होने ही तो बनाया! अपने परिश्रम से जीवन-धारण-रत मनुष्यसमाज की उत्पादक शक्तियों के विकास के जिस मुकाम पर वर्गों का पहला विभाजन सम्पन्न हुआ, एक वर्ग दूसरे वर्ग के परिश्रम से प्रतिपालित होने को अपना अधिकार घोषित किया, जिस तरह वह वर्ग उत्पादन की भौतिक शक्तियों – उपकरण, अस्त्र, जमीन, पशु, गुलाम के रूप में मनुष्य आदि – को अपने कब्जे में किया, उसी तरह वह उत्पादन की आत्मिक शक्तियों – यानि, अनुभवों के द्वारा उस समय तक आहरित सामूहिक मानव-ज्ञान, संवेदन व कल्पनालोक को भी अपने कब्जे में ले लिया। जिस तरह भौतिक शक्तियों को अपने कब्जे में रखने के लिये उन्होने अस्त्रशाला, कर्मशाला, गोदाम, आवास या कैदखाने बनवाये, आत्मिक शक्तियों को भी अपने कब्जे में रखने के लिये उन्होने उपासनागृह बनवाये।

यह प्रवृत्ति आज भी आप थोड़ा अलग रूप में देख सकते हैं। एक छोटे साहब भी, सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद, काफी पैसे कमाने के बाद जब सोचते हैं कि अब जरा अपने ‘जड़ों की ओर’ चला जाय, कुछ ‘सेवाकार्य’ किये जायें, पुश्तैनी जमीन-जायदाद को जरा ‘सही काम’ में लगाया जाय … तो सबसे पहले गाँव पहुँचकर अपने जमीन-जायदाद को ‘गोतिया’ लोगों के, और जमाने के साथ उभरते लफंगों की जबरिया दखल से सुरक्षित करने में जुट जाते हैं। इस काम में उन्हे प्रशासन एवं स्थानीय लोगों की मदद की जरूरत पड़ती है। इस मदद को लेने के लिये वह अपनी जमीन पर (जगह के हिसाब से) एक विद्यालय या एक प्राथमिक (या ऑक्सिलरी) स्वास्थ्य्केन्द्र बनाने की घोषणा करते हैं और साथ ही साथ एक मन्दिर बनवाने की घोषणा करते हैं। उस मन्दिर में नया कुछ भी नहीं होता है सिर्फ एक अतिरिक्त सामूदायिक चबूतरे के सिवा, जहाँ सामुदायिक कार्य होते है। बाकि देवता, मंत्र आदि सब वही होते हैं जो पहले से उस इलाके के घरों में मौजूद है। घरों की आत्मिक शक्तियों को मन्दिर कैद करता है और धीरे धीरे, सामुदायिक भक्ति को विभिन्न सांस्कृतिक उपकरणों (जागरण, कीर्तन-भजन) से अपनी ओर खींच कर, किसी एक समय अगर वह ‘जागृत’ देवता या देवी का मन्दिर बन जाता है तब तो संस्थापक महोदय की धाक में चार चांद लग जाती है। एकाध अपवाद को छोड़ कर ऐसे महानुभवों का सेवाकार्य यहीं तक सीमित रहता है और इसी की आड़ में वह नव-स्थापित जमींदारी, उसमें ग्रामीण औद्योगीकरण के नाम पर व्यवसाय आदि को चमकाने में लग जाते हैं।

खैर। मूल बात यह है कि “हृदयहीन दुनिया का हृदय”, “आत्माशून्य परिस्थितियों की आत्मा” वही बनाते हैं जो परिस्थितियों को आत्माशून्य एवं दुनिया को हृदयहीन बनाते हैं। और उस आत्मा और हृदय को वे वस्तुत: जनता की आत्मा और हृदय को सोख कर अपने कब्जे में करते हैं और उसे धर्म का रूप और नाम देते हैं। और इस बात की गारंटी कर कि “उत्पीड़ित प्राणी की आह” उसी सुरक्षित गर्भगृह या मर्मस्थल में निकले, वे आह को चिंगारी बनने से रोकने में सफल हो जाते हैं।

 


Sunday, October 24, 2021

প্যাঁক

আমরা সবাই ভালোমানুষ এক থাকতে চাই,
এক থাকতে অন্ন লাগে সেটাই ভুলে যাই।

একের ভিতর ফাটল ধরায় অন্নচোরের দল,
অন্নগর্ভা মানুষ দেখে নির্মম সে দখল।

বলে, হলাম পথের কুটো, ঘুর্ণিতে হই এক  
সেই এককে ভাঙতে বেরোয় অন্নচোরের প্যাঁক।

প্যাঁক বলতে চশমখোর ধর্মগুরুর ঘোঁট,
এক ভাঙে, গুঁড়িয়ে যায় পথের কুটোর জোট।

রক্ত বইলে রাজা পাঠায় সশস্ত্র শান্তি,
অন্নগর্ভা একের মাথায় বাড়াতে ভ্রান্তি।
 
নীতিকথাঃ একের শরিক চেন দেখে পা,
অন্নচোরের দরজায় কি যাচ্ছে দিতে ঘা?          

২৪.১০.২১


Thursday, October 21, 2021

খেলা

তোমাকে তোমার খেলা ঠিক মত খেলে যেতে হবে।
দেখবে নিয়মে জাল, কাদায় জুতোর ভাঙা নাল
খুবলে ধরবে হাঁটু, রেফারির বাঁশি হবে ঝুঠো,
যতক্ষণ খেলা, পুরো মাঠ ধরে রাখতেই হবে।
 
কথাটা পুরোনো, বহু শিক্ষকেরা বলেছেন, শীতে
সন্ধ্যার কুয়াশা ঢাকা মাঠের বেড়ার কাছে ফিরে,
বলেছেন মাঝেমধ্যে চিনে নিবি গিয়ে বড় মাঠ,
এমাঠের খেলা, বোঝ, সেই মত বাড়াবি পেশিতে।

এই মাঠ চিনি না তো, এখনো জানিনা ঠিক, দূরে
গন্ডিগুলো আঁকা কিনা ঠিক; ওরাই এঁকেছে, সব
মুঠোয় ওদের, এই খেলাটাও খেলাচ্ছে ওরাই।
জিতব ওদের ভূল ধরে নয়, নিজেদের সুরে।

গড়ছি উদ্ভিন্ন সুর, মাঠ ভরা ছন্দে এগোবার
ছড়াতে পারব গান, ওদের ফাটলে বেঁধে তার?

২১.১০.২১

 


 

একটু পিছিয়ে

একটু পিছিয়েই বরং
থাকতে দিন আমায়!
একটু পিছিয়ে তুললে, সুরে
লহরী তৈরি হয় সমবেতে।
পিছিয়ে থাকলে যাওয়ার
ভেতরটা দেখা যায়,
এগিয়ে থাকার কাঁধগুলো
রাখা যায় চোখে চোখে।
ইচ্ছে হলে চুপ থেকে
শুনেও নেওয়া যায়
সমবেতে সুরটা উঠছে কিনা ঠিক,
গানে বা স্লোগানে।
পিছিয়ে থাকলে মাঝেমধ্যে
মাঝখান ধরে এগিয়ে
দুদিকে ঈষৎ দুহাতের
ধাক্কা দিয়ে বলা যায়,
কমরেড, লাইন, লাইন,
লাইন বেঁধে চলুন!

একটু পিছিয়েই বরং
থাকতে দিন আমায়!
আমরা জানিনা কিন্তু আমাদের
নারীরা বাধ্যতায় জানে
হাজার বছর ধরে জানে,
যে পিছিয়ে থাকে
বস্তুতঃ সে এগিয়ে রাখে
কত কাজ! কত স্নিগ্ধ
রঙে স্বাদে শ্রবণে অবয়ব পায়
এগিয়ে যাওয়া, মানুষের!
জানি না ঠিক সেভাবে
পারব কিনা, ওটা
নারীদেরই দক্ষ এক্তিয়ার,
তবে সেটাও তো
বদলাতে হবে, তাই
বলছি পিছিয়ে থাকি একটু।

পিছিয়ে থাকতে থাকতে
জানি বেখেয়ালে অনেকবার
থেকেই যেতে পারি
দিকবোধ হারিয়ে একা!
কোনদিকে গেল মিছিল?
পাওয়া যায় না উত্তর।
হাঁটা দিই ভুল দিকে অনেকক্ষণ;
বসে পড়ি রোদে।
নানান কাজে ব্যস্ত
জনবসতের চোখের দিকে তাকিয়ে
কিছুটা যেন টের পাই
কেন উত্তর পেলাম না যে আমরা
কোন দিকে গেলাম,
কতটা গিয়ে থাকতে পারি, দৌড়ে
ধরা যায় কিনা ……
কারোর পিছিয়ে থাকা খুব জরুরি।

২০.১০.২১  

 


Sunday, October 17, 2021

ছেঁড়া তবু রবীন্দ্রনাথ

চোখদুটো এখনো জ্বলছে, 
কালি হচ্ছে পুড়ে, ভিতরের অসহ আগুনে,
পিছনের পট আর চুলদাড়ি অনেকটা 
খেয়ে গেছিল সময় অথবা উই
বা বলা যায় সেটাই বাধ্য করেছে আমায়,
ফ্রেম থেকে বার করে আনতে তাঁর
মুখের ওই কালো গোন্ডয়ানা ধাঁচ
গঙ্গারিডি থেকে মগধ হয়ে মালাবার অব্দি শস্যসাধকদের …

কে যেন বলল সেদিন,
ভুল ইতিহাস শেখান হয় বাচ্চাদের
একের পর এক এসে হামলা করেছে বহিরাগতরা
আর আমরা হেরেছি বার বার …
জিতেছি হে!
জিতিয়েছে শস্যসাধকেরা!
বিজয়ীর তরোয়াল শেষ অব্দি মাটি খুঁড়তে লেগেছে কাজে,
আর তাই তো গর্বের সাথে বলি আমাতেই সব, তোমাতেই সব!

হ্যাঁ, এক ইংরেজ, তারা এদেশের হলনা, তাই
হারটাকে জিতে বদলাতে আমরাই ভারততীর্থ হয়ে উঠলাম!তাই তো আঁকতে হল আত্মপ্রতিকৃতি, ছেঁড়া, 
তবু রবীন্দ্রনাথ!

আত্মপ্রতিকৃতি আঁকা যে বড় কঠিন!
ছিঁড়তে হয় শুধু অন্যের নয় নিজেরও শৈশবসাথী মুখ,
ছিঁড়ে, হাত ডুবিয়ে রক্তে,
মগজের অন্ধকারে দ্রুত বৈদ্যুতিক ঝিলিকমিলিকে –
আছে কি প্রতিনিয়ত মৃত্যুর চিহ্নগুলো জমাট
শিরায়, করোটিতে?... কিভাবে তা হবে মুখ?
সেটা ঠিক সিঙ্ঘু বর্ডারের ভীড়ে সেলফি নেওয়ার মত নয়।

ছেঁড়া তবু রবীন্দ্রনাথ
ভাঙা তবু বিদ্যাসাগর
উৎপাটিত তবু লেনিন, গান্ধি, আম্বেদকর …
সব বার করছি ফ্রেম থেকে।
ছাড়ান নেই, সময়েরও, উইপোকাদেরও।

১৭.১০.২১



Saturday, October 16, 2021

নিজের গ্রামোফোনের সাথে রোক্কো

এখন আর মনেও নেই, বোধহয়
সোভিয়েতল্যান্ডের পাতা থেকেই কেটে রাখতাম
ছবিগুলো। হঠাৎ চমকে গেলাম একদিন।
আরে এ তো আমার ছবি!
ঠিক আছে, মুখটা এক নয়, নামটাও
রোক্কো; শিল্পী রেনাতো গুত্তুসো।
গুঁড়ি মেরে বসে গ্রামোফোনে গান শুনছে লোকটা,
নাকি ১৯৫০ থেকে, ছুটির রোববারগুলোয়
পিছনে যেমন-তেমন শহর,
সামনের চালাবাড়ির আধখোলা জানলায় কেউ আসবে,
আঙুলের ফাঁকে তুবড়ে যাওয়া সিগরেট,
লাল-কালো চেকের জামায় চড়া মেজাজ
কত বছর একসাথে কাটালাম দুজনে তারপর।

তারপর তো সোভিয়েত গেল, ল্যান্ডও গেল।
রোক্কো আর আমি রয়ে গেলাম।
মাঝে কিছুদিন আমার প্রোফাইলে গিয়ে আপনারাও
পেয়েছেন নিশ্চয়ই তার তেলচিটে প্যান্টের গন্ধ।  
সেদিন ফেসবুকে দেখলাম
বোমাবিধ্বস্ত আরবের কোনো দেশের শহরে সকাল।
ভগ্নস্তুপ থেকে বেরিয়ে এসেছে এক বুড়ো,
গ্রামোফোনটা চালিয়ে
বোমারু বিমানের ফিরে আসার সাথে পাল্লা দিয়ে
শুনছে গান।

রোক্কো আছেই। আমিও আছি এখনও। আরেকজন হল।

১৪.১০.২১  


 

Tuesday, October 12, 2021

दलितों पर बढ़ते जुल्म एवं उनके अधिकारों के हनन के सात साल

राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिये, धीरे धीरे, मेहनतकशों के हासिल अधिकारों को कुन्द करने एवं संवैधानिक जनतंत्र पर हमले तेज करने के लिये हिन्दुत्व की जिस अवधारणा को गठित किया गया था, मनुवादी सवर्ण-आधिपत्य उसका आवश्यक अंग था। स्वाभाविक परिणाम के तौर पर, सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर दलितों के मुद्दे पर जो भी कहा जाय, कितनी भी विकास योजनाओं का ढिंढोरा पीटा जाय, जिस सामाजिक शक्ति-समीकरण पर इस सत्ता का निर्माण हुआ था, उसका अवश्यम्भावी परिणाम था दलितों पर बढ़ते हुये हमले और हासिल दलित अधिकारों का हनन ।

एक बात और समझना जरूरी है । इस सरकार के जिस नारे में बीज-मंत्र के तौर पर कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के हितों के साथ इनके हितों का जुड़ाव है, वह है, हकदारी (एनटाइटिलमेंट) नहीं, सशक्तिकरण (एमपावरमेंट) । सुनने में यह नारा बहुत सकारात्मक लगता है। सही बात तो है, सालोंसाल कुछ लोगों को आर्थिक तौर पर लाचार और अपाहिज मान कर कुछ टुकड़ों का मोहताज बनाये रखना कहाँ की बात है ? उन्हे ताकत दो ! ऐसी मदद करों कि वे खुद स्वावलम्बी और सशक्त हो जायें ! … लेकिन हिन्दुत्व के सत्ताबाजों को और सन 2008 के बाद नव-उदारवाद के पैरोकार कॉर्पोरेट पूंजी की दुनिया को स्पष्टत: मालूम था कि यह संभव नहीं । यह तब संभव होता है जब आर्थिक नीतियों की मुख्यधार उस सशक्तिकरण को बनाया जाय और उसे धारण करने लायक उछाल भी होती है अर्थनीति में ! बल्कि वह एक अलग उछाल होती है – ‘मांग प्रबंधन’, यानि रोजगार बढ़ाने की अर्थनीति की; बाजारवाद की नहीं ! लेकिन आर्थिक नीतियों की धार यहाँ तो पूंजी को सशक्त करने की थी ! मजदूरी और किसानों की आय कम कर, गरीबों का पेट काटकर मुनाफा बढ़ाने की थी ! और अर्थनीति में उतनी उछाल भी नहीं थी कि कुछ बचे, गरीबों के किसी छोटे हिस्से को भी सशक्त करने के लिये ! तो बचा क्या ? हकदारी पर हमला ! बीपीएल पर हमला, मनरेगा पर हमला, आरक्षण पर हमला, रोस्टर पर हमला, श्रम-अधिकारों पर हमला, कृषि-अधिकारों पर हमला, स्त्री-अधिकारों पर हमला, सूचना के अधिकार पर हमला, व्यक्ति के अधिकारों पर हमला – आधे हमले कॉर्पोरेट पूंजी के हित में और आधे हमले मनुवादी-हिन्दुत्व के हित में !

तथ्य

14 अप्रैल 2018 को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक खबर में लिखा गया, “सन 2014 से, अनुसूचित जातियों के खिलाफ अपराध कुल एक प्रतिशत बढ़े, हालांकि सन 2016 में यह बृद्धि बहुत अधिक, 5॰5% की थी । 2016 के आँकड़ों के अनुसार, इन अपराधों के एक-चौथाई (25॰6%) उत्तर प्रदेश में हुये; क्रम में उसके बाद आता है बिहार एवं राजस्थान ।”

ढाई वर्षों के बाद, 2 अक्तूबर 2020 को टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक खबर बता रही है, “नैशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्युरो द्वारा हाल में जारी किये गये आँकड़ों के अनुसार, पूरे देश में दलितों के खिलाफ हुये कुल अपराधों का 84% नौ राज्यों में हुये, जबकि वहाँ अनुसूचित जाति की आबादी का मात्र 54% रहती है । अधिकतम दर (दलितों की हर एक लाख की आबादी पर अपराधों की संख्या) हैं राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार एवं गुजरात में । राष्ट्रीय औसत के ऊपर दूसरे राज्य हैं तेलंगाना, युपी, केरल, ओडिशा एवं आंध्र प्रदेश ।”

अगर हम नैशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्युरो के आँकड़ों को देखें तो पूरे देश में (सभी राज्य एवं केन्द्रशासित क्षेत्र का जोड़) अनुसूचित जातियो के खिलाफ हुये दर्ज अपराधों की संख्या 2017 में थे 43203, 2018 में कुछ घट कर हुये 42793 जबकि 2019 हो गये 45935 । ये सारे अपराध एससी/एसटी ऐक्ट के तहत हैं, ऐक्ट के दायरे में नहीं आने वाले अपराध हटा दिये गये हैं । यानि सारे अपराध, दलितों पर अदलितों (सवर्ण या पिछड़ी जातियाँ) द्वारा किये गये हैं ।

वर्ष 2020 के 25 मार्च को कोविड-19 के संक्रमण के फैलाव को रोकने के लिये पहला लॉकडाउन जारी हुआ । तो क्या उसके बाद दलितों पर अत्याचार कम हुये ? 16 सितम्बर 2021 के हिन्दुस्तान टाइम्स में छपी एक खबर में दर्ज किया गया कि, “सिवाय कोविड उल्लंघनों के, पिछले साल कुछ मुख्य किस्म के अपराधों में कमी देखी गई, लेकिन अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजतियों के खिलाफ होने वाले अपराधों में बृद्धि पर कमी की उस सामान्य प्रवृत्ति का कोई असर नहीं पड़ा …” । डेक्कन हेराल्ड में 21 मई 2021 को छपी एक खबर बताती है कि यह बृद्धि 9% है।

अपराधों में बृद्धि के साथ साथ यह भी चिंताजनक प्रवृत्ति है कि अपराध साबित नहीं हो पाते । बड़े रसूख वाले सवर्ण, पुलिस एवं अदालतों की भी मिलीभगत होती है । एक आँकड़ा देखिये:

एन॰सी॰आर॰बी॰ के 2019 वाले प्रतिवेदन (खण्ड 2, पृष्ठ 541, टेबुल संख्या 7ए॰5) के अनुसार वर्ष 2019 में, साल भर में कुल वैसे मामलों जिनमें अपराध प्रमाणित हुआ की संख्या रही 3583 । डिसचार्ज कर दिये गये मामलों की संख्या 986 एवं प्रमाण के अभाव में अभियुक्त छोड़ दिये गये ऐसे मामलों की संख्या 6410 !

यही आँकड़ा अगर बिहार का लें (खण्ड 2, पृष्ठ 549, टेबुल संख्या 7ए॰6) तो पायेंगे कि कुल मामलों जिनमें जुर्म साबित हुआ, की संख्या रही 44, डिस्चार्ज किये गये 13 और बिना सबूत के छोड़ दिये गये आरोपी ऐसे मामलों की संख्या है 305 ! हालाँकि कई दूसरे राज्य बिहार से आगे हैं ! आंध्र प्रदेश है 38 495। लेकिन जरा मॉडल स्टेट गुजरात का हालत देखिये – 7 ≤ 362 !

आगे वही प्रतिवेदन और क्या बताता है ? उपरोक्त टेबुल में ही आगे है कि साल 2019 में अदालत द्वारा पूरा किये गये ट्रायलों/सुनवाइयों की संख्या रही 362 (44+13+305), जबकि साल के अन्त में लम्बित मामलों की संख्या रही 43455 ! यानि, साबित जुर्म (कॉन्विक्शन) की दर 12॰2% और मामलों के लम्बित रहने की दर 99॰2% !

 

बिहार

अब थोड़ा विस्तार से आयें बिहार की बात पर।

यहाँ जिक्र करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि नीतीश कुमार के नेतृत्वाधीन बिहार सरकार के फैसले एवं बाद में हुये संशोधनों के तहत लगभग दो दर्जन जातियों को दलित से अलग कर महादलित परिभाषित किया गया है । कहा जाता है कि उन्हे सुविधायें एवं अवसर अधिक मिलते हैं । दलित व महादलित, दोनों की ही सूचियाँ ‘धर्मनिरपेक्ष’ हैं, यानि हिन्दु एवं मुसलमान दोनों धर्म के अन्तर्गत आने वाले जातियों का जिक्र है ।

7 मार्च 2016 को थी महाशिवरात्रि की रात । नवादा जिला के कछिया गाँव में महादलितों के सैंकड़ों झोपड़ियों में आग लगा दी गई । 24 मार्च, होली । मुजफ्फरपुर जिला के सांगोपट्टी गाँव में दलित बस्ती में आग लगा दी गई, एक दलित बच्ची उस आग में जल कर मर भी गई ।

उसी साल, होली के दो दिनों के बाद बेगुसराय के बलिया दियारा में दो दलित युवक को गोली दाग कर मार दिया गया । फरवरी 2016 में सहरसा जिले के नौहट्टा बरियारी एवं बबुनिया गाँव में सरकारी जमीन पर बरसों से बसे हुये सैंकड़ों दलित परिवार को जमीन से बेदखल करने के लिए हमला चलाया गया था । नवादा जिले के खँटारी गाँव में भी इस प्रकार का हमला हुआ था ।  

2017 की जनवरी में वैशाली जिले में, अम्बेदकर कन्या विद्यालय छात्रावास में रहने वाली 10वीं कक्षा की एक महादलित छात्रा के साथ सामूहिक दुष्कर्म कर उसे मार डाला गया । फरवरी महीने में राजधानी के दानापुर अंचल  में एक महादलित महिला को घर से उठा कर उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म कर बेहोशी की हालत में छोड़ दिया गया।

इसी साल, कोविड-19 की दूसरी लहर के बीच पुर्णिया के नियामतपुर गाँव में, 19 मई को 100-150 की संख्या में स्थानीय उपद्रवियों ने मिलकर दलित समुदाय की बस्ती को जला दिया।  

वर्ष 2005 से ही दलित उत्पीड़न की घटनायें बढ़ रही थीं। इन्डियन एक्सप्रेस में 19 अक्तूबर 2014 को प्रकाशित एक प्रतिवेदन में पत्रकार सन्तोष सिंह ने लिखा कि नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री रहने के पहले पाँच साल (2005 – 10) में दलित उत्पीड़न के 10798 मामले दर्ज किये गये जबकि अगले मात्र चार साल (2011 – अगस्त 2014) में दर्ज किये गये मामलों की संख्या हुई 19097 । नवम्बर 2015 में राजद + जद(यु) + कांग्रेस के महागठबन्धन की सरकार सत्ता में आने के बाद इस संख्या में और बृद्धि हुई है । 2016 में हिन्दु अखबार में प्रकाशित एक प्रतिवेदन में दिखाया गया कि अनुसुचित जातियों के खिलाफ किये गये आपराधिक कृत्यों की संख्या में उत्तर प्रदेश पहले स्थान पर है जबकि बिहार दूसरे स्थान पर । बिहार की जनसंख्या का 15॰9% दलित है जबकि दर्ज मामलों का 40-41% दलितों पर किये गये आपराधिक कृत्यों का है।

इससे स्वाभाविक तौर पर एक अवधारणा बनाई जा सकती है कि सरकारी अनुसूची में पिछड़ी जाति के रूप में चिह्नित समुदाय के लोग सवर्णों से भी अधिक दलितविरोधी हैं । बुद्धिजीवियों के कई तबकों में, यहाँ तक कि दलित बुद्धिजीवियों में भी यह अवधारणा काफी प्रचलित है । और यह भी तो तथ्य है कि बिहार के मुख्यमंत्री पिछड़ी जाति के ही हैं एवं उत्तर प्रदेश के भी (इस चुनाव के पहले तक) मुख्यमंत्री पिछड़ी जाति के ही थे। इसलिये बात में आंशिक सच जरूर है । जातपात की सामाजिक बीमारी तो पिछड़ी जातियों में भी है और दलित जातियों में भी ।

लेकिन, कम-से-कम बिहार की स्थिति के पीछे तो उससे बड़ी और कई बात है । उसमें से एक है पिछड़ी जातियों के नव-धनिकों के साथ राज्य के भूस्वामी समुदाय (जिनमें से बहुसंख्यक सवर्ण हैं) का समझौता । इस समझौते को जिन्दा रखने के लिये ही नीतीश-जमाने के शुरूआती दौर में वह अजीबोगरीब घटना सामने आई – सरकार ने खुद ही भूमिसुधार के प्रश्न पर डी॰ बन्दोपाध्याय आयोग का गठन किया लेकिन उस आयोग का प्रतिवेदन एवं की गई अनुशंसायें विधानसभा में पेश नहीं कर सकी । प्रसंगवश जिक्र किया जा सकता है, लालू-जमाने की शुरूआत में भी ऐसी ही घटना हुई थी । सरकार ने भूस्वामियों के खिलाफ खूब तर्जन-गर्जन किया । विधानसभा में 29 सबसे बड़े भूस्वामियों के नामों एवं उनकी जमीन के कुल क्षेत्रफल की सूची पेश की गई । बस्… उसके बाद चुप्पी !

नीतीश-जमाने में इस समझौते का खेल देखा गया राजधानी के सड़कों पर, ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद । मुखिया के समर्थक गाड़ियों के कॉन्वॉय पर, हथियार लेकर आरा से पटना आये, कोतवाली थाने के सामने गाड़ी में आग लगाई गई, खुले तलवारों के साथ घन्टों तक पूरे शहर में उन्होने तांडव मचाया, लोग डर कर घरों की ओर भागे और पुलिस खामोश बैठी रही । पुलिस प्रधान ने कहा, “उन्हे रोकने की कोशिश करने पर कुछ और अधिक खतरनाक बारदातें हो जातीं”!

दूसरी बात है नौकरी का अभाव । भूमंडलीकरण के बाद से सरकारी-अर्द्धसरकारी संस्थाओं एवं विभागों में नियुक्तियाँ घट गई हैं । आखिर, ‘आराम’ की नौकरी, सवर्णों की कुछेक जमात को पैसे और पैरवी पर पुश्त-दर-पुश्त मिलने वाली नौकरियाँ तो वहीं रखी थीं । अनारक्षित पूरी रिक्तियों पर उन्हे नौकरी मिलती थी और आरक्षित रिक्तियाँ बस रोस्टर में बैकलॉग बन कर रह जाती थी । प्राइवेट नौकरियों में भी कमोवेश वही स्थिति है । एक दिन पटना में हुये एक सेमिनार में, एक लड़के ने उनके एक ग्रुप द्वारा किये गये शॉर्ट सर्वे के रिपोर्ट से उद्धृत किया कि पटना के मीडिया हाउजों में पत्रकारों की संख्या है 290 । उसमें दलित है सिर्फ एक । यही पैटर्न सभी जगहों पर है । छोटे-मझौले व्यापारिक संस्थाओं में भी । स्वाभाविक तौर पर तथाकथित विकास की अर्थनीति का नकारात्मक प्रभाव ही ज्यादा है । यही नकारात्मक प्रभाव उनके स्कूली शिक्षा एवं उच्चशिक्षा पर भी पड़ता है । अत्याचारी सामन्तवादी मानसिकता का और कोमल लक्ष (सॉफ्ट टार्गेट) बन जाते हैं दलित, उनके घरों की महिलायें ।

तीसरी बात है गाँवों से पलायन । या बहिर्गमन । कृषि के काम, कृषि-सम्बन्धित काम, कलकारखानों में काम, शहरों में मकान-सड़क-पुल आदि बनाने के काम के लिये लाखों की संख्या में लोग बिहार के गाँवों से पूरे देश में फैल जाते हैं । इनमें से अधिकांश पिछड़ी जातियों या दलित जातियों के गरीब होते हैं । गाँव का गाँव सूना हो जाता है । लेकिन गाँव के सवर्ण धनिकों के घरों में ऐसे बहुत से काम रहते हैं जो वो खुद नहीं करेंगे । तब वे दलित टोले पर हमला बोलते हैं । जो कुछ बचे होते हैं अगर वे काम न करना चाहें तो हमले का शिकार बनते हैं ।

एक बात है कहने की । एक कल्पकथा है कि विकास की अर्थनीति के कारण दलितों का भी आर्थिक सशक्तिकरण कुछ सम्भव हुआ है – इसीलिये वे पहले से अधिक प्रतिवाद कर पा रहे हैं और उन पर हमले की हिंस्रता भी उसी कारण से बढ़ी है । यह महज एक कल्पकथा ही है । प्रौद्योगिकी में हुये क्रांतिकारी परिवर्तनों का एक प्रभाव जरूर पड़ा है । किसी के घर में सेकन्ड हैंड टीवी, हाथ में मोबाइल ! कोई उसी के बल पर शायद बोलने का हिम्मत करता होगा, “नहीं करूंगा” ! लेकिन यह प्रवृत्ति भी तो नई नहीं है । इतिहास के पन्नों में बार बार देखा गया है । लेकिन आर्थिक विकास ? बिल्कुल ही नहीं । बल्कि, और पिछड़ गये हैं वे; इसके आँकड़े भी उपलब्ध हैं । और इसीलिये, बात बात पर हमला ज्यादा आसान हो गया है ।

अन्त में

20 मार्च 2018 को सर्वोच्च न्यायालय ने अ॰जा॰ एवं अ॰जजा॰ (अत्याचारों का रोकथाम) कानून 1989 में कुछ संशोधन की जरूरत को रेखांकित किया । एक तरफ जहाँ दलितों के खिलाफ हो रहे जुल्म के मामलों में पूरे देश का कॉन्विक्शन रेट (आरोप सिद्ध होने की दर) मात्र 32॰1% हो, वहाँ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस बात पर चिन्ता जताना कि कानून का इस्तेमाल गलत उद्देश्य से हो रहा है, निर्दोष लोग फँस रहे हैं …आदि, पूर्णत: विवेकशून्यता का परिचायक था, भले ही ऐसी घटनायें कुछेक होती हों । एक पृष्ठभूमि भी तैयार हो रही थी । केन्द्रीय सरकार में आसीन व्यक्तियों की मनुवादी सोच, सरकारी आयोजनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं की उपस्थिति, दलितों पर हमलों की बढ़ती घटनायें … । फलस्वरूप 2 अप्रैल 2018 को एक अभूतपूर्व भारत बंद संघटित हुआ । किसी बड़े राजनीतिक दल के प्रत्यक्षत: शामिल न होने के बावजूद बंद पूर्णत: सफल रहा । मार्के की बात तो यह कि सरकार भी पशोपेश में पड़ गई । आज जिस तरह वह किसानों के आन्दोलन को कुचलकर लहुलुहान कर रही है, उन दिनों दलित आन्दोलन को कुचलने में आगे नहीं बढ़ी, बल्कि संसद के मॉनसून सत्र में विधेयक लाकर कानून को पूर्ववत बना दी क्योंकि अगले साल की शुरुआत में ही संसदीय चुनाव होने थे और भाजपा को दलित वोटों की सख्त जरूरत थी ।

लेकिन, मौके मौके पर इतने ताकतवर दिखने वाले दलित संगठन क्यों नहीं एकजुट होकर कोई निर्णायक कदम उठा पाते? बड़े दलित नेताओं का स्वार्थीपन, भ्रष्टाचार, परिवारवाद आदि से अलग सिर्फ एक बात को रखना चाहुंगा।

गुजरात के ऊना शहर वाली घटना याद है? चार दलित युवकों को नंगे बांधकर बेरहमी से पीटे जाने के विरोध में पूरे ऊना शहर में हड़ताल हुआ। मुर्दा पशुओं की लाश सड़क पर से हटाना बंद कर दिया गया। त्राहि त्राहि मच गया शहर में। सड़कों पर, तबेलों में लाश सड़ने लगे – हटाने वाला कोई नहीं। ऐसा लगने लगा था कि आम नागरिकों की गुहार सुनते हुये जिलाधीश या अन्य उच्च अधिकारी दलितों से बात करेंगे, कुछ आश्वासन देंगे, ऊँची जाति के दबंग बनने वाले शोहदों को कुछ पाठ पढ़ायेंगे … उसके पहले खुद दलित ही पहुँच गये उनके पास, कि वह अपना काम फिर से शुरू करना चाहते हैं, नहीं तो उन्हे भूखा मरना पड़ रहा है, दूसरा रोजगार है कहाँ, – बस, मरे हुये पशुओं को उठाने का काम शुरू हो गया ! जबकि, याद होगा उस साल, यानि 2016 के 15 अगस्त को ऊना में ‘आजादी कुन’ (आजादी मार्च) में 350 किलोमीटर पैदल चल कर आये लाखों दलित ने, देश का झंडा फहराकर शपथ लिया था कि वे मरे हुये पशु को सड़क पर से हटाने, चमड़ा काटने, माथे पर या गाड़ी से टट्टी ले जाने को अपनी जाति की पेशा के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे।

यही जाति और वर्ग के एक दूसरे में मिले होने की विड़म्बना है। आर्थिक या वर्गीय सवालों को साथ लिये बगैर सामाजिक न्याय की लड़ाई एक सीमा के बाद कमजोर पड़ने लगती है। दलितों की जाति आधारित राजनीतिक पार्टियाँ इस सच्चाई के प्रति अंधी बनी रहती है। और अन्तत: उनमें पैदा होता है एक एक पूंजीवादी स्वयम्भू नेता जो अमूमन भ्रष्ट होता जाता है। सिर्फ कम्युनिस्ट विचारधारा इस सच्चाई को स्वीकारती है एवं उसी के अनुरूप आगे बढ़ती है।

 

 


 

 

         

Sunday, October 10, 2021

ভাঙা পুল

নির্জন ভাঙা পুলের ওপরে দাঁড়িয়ে
অবশ হয়ে উঠছি সন্ধ্যার মায়ায়
গাঁথনির ভাঁজে ভাঁজে সদ্য বর্ষান্ত সবুজ
বাঁকা নদীর স্বর্ণিম নিরুদ্দেশ!
 
কিছুক্ষণ মুখ ডুবিয়ে বৎসল হাওয়ায়
হঠাৎ আমি অস্থির হয়ে উঠলাম
আমার ভালো মেজুনের দুপুর।
ভাঙা পুল মানে একটেরে গ্রামটার মুখে সবেধন
উন্নয়নী ইতিহাস
পঞ্চাশ ফুট নীচের
তিরতিরে স্রোত দেখানো কংক্রীটের কংকাল
আর তার ওপর দিয়ে একের পর এক
লম্বা করে বেছানো লোহার জোড়া পাত
 
ভাঙা পুল মানে ছোট্টো বাচ্চাগুলোর, একে অন্যেকে দাবিয়ে প্রস্তাব
দুটাকা লাগবে স্যার! পার করে দেবো বাইক, বলুন!
আর অবাক হয়ে দেখা তাদের ওস্তাদী, বিপজ্জনক।  

পাটনা, ৩১।৫।২০১২



Thursday, October 7, 2021

ফয়েজ আহমদ ফয়েজ - ভি. জি. কিয়ের্নান

বিংশ শতাব্দির কবিরা অভাবিত কিছু জায়গা থেকে উঠে এসেছেন। ‘ফয়েজ’এর পূর্বপুরুষেরা পাঞ্জাবের চাষী ছিলেন। সেই পাঞ্জাব – মধ্য এশিয়া ও ভারত মহাসাগরের মাঝে, পর্বতমালা ও মরুভূমির মাঝে মহামরুদ্যান! তাঁর বাবা যাযাবর ছিলেন – কিছু পয়সা রোজগারের মুখ দেখেছিলেন এবং আফগানিস্তানে গিয়ে সামন্ত যুবদের কিছু কিছু অভ্যাস রপ্ত করেন। তারপর রাজার সাথে তাঁর ঝগড়া হয় – ছদ্মবেশে পালিয়ে যেতে বাধ্য হন আফগানিস্তান ছেড়ে। চলে যান ইংল্যান্ডে। কেম্ব্রিজে, ‘লিঙ্কন্স ইন’এ পড়াশুনো করেন। শেষে একজন আইনজীবী হয়ে ফিরে আসেন নিজের জন্মস্থানে। ফয়েজ যদি বংশানুক্রমে এই যাযাবর প্রবৃত্তি পেয়েও থাকেন তবে সেটা চিত্তের অভিসারে; বড় হওয়ার অনেক পর অব্দি তাঁর নিজের প্রদেশ ছেড়ে দূরে কোথাও যাওয়ার সুযোগ হয় নি। বোধহয় তাঁর পক্ষে ভালোই হয়েছিল যে তিনি ইয়োরোপে পড়তে যান নি। উনিশশো তিরিশের দশকের ভাবনাচিন্তাগুলো কোনো না কোনো ভাবে তিনি ঘরে বসেই আয়ত্ত করতে থাকেন – বইয়ের মাধ্যমে, গোপনে হাতে আসা প্যাম্ফলেটের মাধ্যমে, যাত্রীদের কাছে শোনা কাহিনীর মাধ্যমে আর সেই অস্পর্শনীয় কিন্তু সমৃদ্ধ দৈত্যটির মাধ্যমে যাকে যুগসত্ত্বা বলা হয়ে থাকে। তাঁর নিজের মাটিতে এসব ভাবনাচিন্তাগুলো তাঁর মধ্যে শিকড় গাড়ে আর পরিচিত সূর্যালোকে এসবের শরীর ও ছায়া তিনি দেখতে পান।

ফয়েজ লাহোরে পড়াশোনা করলেন এবং সময়কালে অমৃতসরে কোনো বিষয়ে অধ্যাপনা শুরু করলেন। এই দুটো শহরের মাঝে তখন কোনো বিভাজক সীমারেখা ছিল না। ফয়েজের দিন কাটতে লাগল কফিহাউজে, ব্রডকাস্টিং স্টুডিওতে এবং চন্দ্রালোকিত বনভোজনে। আপাতদৃষ্টিতে সবই খুব অগভীর। পদ্যকার হিসেবে খুব তাড়াতাড়ি তিনি সেই সব অসংখ্য উঠতি কবিদের থেকে আলাদা হয়ে যেতে পেরেছিলেন, প্রতিটি বছর যাদের একরাশ নতুন প্রজন্ম উঠে আসে। আবার কিছু কবিদের চেহারায়, পোষাকে যেমন একটা কবি-ছাপ থাকে, ফয়েজ তাদের থেকেও আলাদা ছিলেন। ভদ্র, সহজ মানুষ, ক্রিকেট-প্রেমিক এবং সবসময়, নিজে কথা বলার চেয়ে অন্যকে কথা বলতে দিতে বেশি তৈরি। এটা তাঁর বিশেষত্ব ছিল যে কয়েকজন বন্ধুদের মাঝে হোক বা কলেজের বড় শ্রোতৃসমাবেশে হোক, কবিতা আবৃত্তি করতে হলে শান্ত, আবেগশূন্য কন্ঠে পড়ে যেতেন। কক্ষনো ওই ধরণের আবেগদৃপ্ত মন্ত্রোচ্চারের ভঙ্গী ব্যবহার করতেন না, যা ব্যবহার করে বস্তাপচা ছড়া অথবা অন্তঃসারশূন্য আবেগকেও ভাবগম্ভীর দেখানো যায়।

ফয়েজের প্রথম কবিতার বইয়ের সুন্দর প্রথম চতুস্পদীটি প্রথম লিখিত নয়। শুরু করেছিলেন চিরাচরিত ধরণে; কাল্পনিক এক প্রেয়সীর নিষ্ঠুরতায় দীর্ঘশ্বাস তুলে – সে নারী আবার জোসেফ কনরাডের নায়িকার মত প্রায়-অশরীরী – অথবা মদের বোতলটির মোহিনী রূপের প্রশস্তি গেয়ে। তাঁর ক্ষেত্রে এসব বরং কম কাল্পনিক ছিল। বন্ধুদের বকবকানির চোটে বা কুঁড়েমির জন্য যখন একটা অসমাপ্ত পদের সুর হারিয়ে যেত অথবা এক ঘন্টা বাদে পড়বার জন্য কিছু পংক্তি খসড়া করতে হত এক কোনে বসে, তখন সত্যিই হয়ত এসবের প্রয়োজন হত। যদিও পাঞ্জাব তখন ঘটনাবিহীন, ভূমিবেষ্টিত পোতাশ্রয়, ইতিহাসের জোয়ার এসে ধুয়ে দিয়ে যাচ্ছিল বাইরের জগৎ আর সেই জোয়ারের প্রান্তিক ঢেউগুলো মাল রোডে, কাশ্মিরি গেটে, লরেন্স গার্ডেনে পৌঁছে যাচ্ছিল। ফয়েজের কাব্যের অন্তর্বস্তু সত্বর রাঙিয়ে উঠছিল দেশাত্মবোধে, তারপর আরো সত্বর সমাজবাদী অনুভবে। কল্পনাশক্তির সাথে সাথে তাঁর মধ্যে সহজাত ছিল বাস্তবকে চেনার শক্তি। তিনি বুঝতেন যে কবি সে নাগরিকও বটে। প্রগতিশীল লেখক সঙ্ঘে অংশগ্রহণ করতেন, স্থানীয় শ্রমিকদের সাথে পরিচয় ঘটল তাঁর; সন্ধ্যেগুলো কাটতে লাগল তাদের দলগুলোকে পড়া, লেখা ও সমাজবাদের সুত্রগুলো শিখিয়ে।

যুদ্ধ আসার আগে ফয়েজ সাহিত্যে নিজের জায়গা করে নিয়েছিলেন; যুদ্ধ এবং তার পরবর্তী ঘটনাবলি রাজনৈতিক ইতিহাসেও তাঁর জায়গা করে দিল। জার্মানি কর্তৃক রাশিয়া আক্রমণের পর যখন দুনিয়ার ভারসাম্য পাল্টে গেল, ফয়েজ যুদ্ধটিকে মানবমুক্তির যুদ্ধ হিসেবে দেখলেন এবং সরকারি চাকরিতে ঢুকলেন। যুদ্ধপরবর্তী দিনে তিনি নিজের এই খোলস থেকে বেরিয়ে খোলাখুলিভাবে রাজনীতিতে এলেন। মুসলিম লীগের কট্টর সমর্থক তিনি কখনোই ছিলেন না। তাঁর অভিমত ছিল যে দেশভাগের ভয়াবহ অভিজ্ঞতাকে স্মৃতি থেকে মুছবার একমাত্র রাস্তা হল সামাজিক ন্যায়ের ভিত্তিতে পাকিস্তান নামে নতুন রাষ্ট্রটিকে গড়ে তোলা। কিছুদিনের মধ্যেই স্বপ্নভঙ্গ ঘটে। মুসলিম লীগ ধুয়ে মুছে যায়। প্রতিশ্রুত স্বর্গ, জমিদার আর উচ্চাভিলাষীদের জন্য বইতে থাকা দুধ আর মধুর বন্যার একটি নরকে পরিণত হয়। এই স্বপ্নভঙ্গ ফয়েজের সুন্দরতম কবিতাগুলির একটিতে পঁচিশটি নিখুঁত পংক্তিতে বিধৃত রয়েছে।

ইতিমধ্যে ফয়েজ লাহোর থেকে প্রকাশিত ‘পাকিস্তান টাইমস’এর সম্পাদক হয়েছেন। গদ্য এবং পদ্য, দুয়েতেই দেশের প্রতিক্রিয়াশীল প্রবৃত্তিগুলির ওপর হামলা চালাচ্ছেন। দেশের বাইরের প্রগতিশীল চিন্তাগুলির প্রতি তাঁর সমর্থনও পুরোদমে চালিয়ে যাচ্ছেন। নিজের হাতে খবরের কাগজটাকে এমন করে গড়ে তুললেন যে কাগজে মুদ্রিত মতামতগুলো সারা দুনিয়ায় সবাই জানতে শুরু করল এবং উদ্ধৃত করতে লাগল। বৃটিশ প্রেস মাঝে মধ্যেই ব্যাজার মুখে পাকিস্তান টাইমসএর মতামত উদ্ধৃত করত। তা সত্ত্বেও যখন ভোটের ঠিক আগে ৯ই মার্চ ১৯৫১ তারিখে ফয়েজকে আরো বেশ কয়েকজন গুরুত্বপূর্ণ রাজনৈতিক ও সামরিক ব্যক্তির সাথে হঠাৎ গ্রেপ্তার করা হল, ‘লন্ডন অবজার্ভার’ একটি ‘চমৎকার’ খবরের কাগজ হিসেবে ‘পাকিস্তান টাইমস’এর নাম নিল। সম্পাদকের প্রশংসা করল “ভারত ও পাকিস্তানের মাঝে তীব্রতম ঘৃণার বাতাবরণকে উপেক্ষা করে মহাত্মা গান্ধীর শেষকৃত্যে লাহোর থেকে বিমানে উড়ে যাওয়ার মত বুকের পাটা রাখা সাহসী ব্যক্তি” হিসেবে। ‘লন্ডন অবজার্ভার’এর সাংবাদিক এটুকুতেই থেমে থাকলেন না। বললেন, “মুসলিম লীগের সদস্যেরা ফয়েজকে যে ঘৃণা করে, তা ওদের দুর্বলতাগুলো এত তিক্ত, স্পষ্ট ভাবে তিনি দেখিয়ে দেন বলে, কম্যুনিস্টদের প্রতি তাঁর দরদের জন্য নয়”।

১৯৫৫ সাল অব্দি ফয়েজ জেলে ছিলেন। দীর্ঘকাল মৃত্যুদন্ডের খাঁড়া তাঁর ওপর ঝুলেছিল। তাঁর স্বাস্থ্যের ওপর এসবের প্রভাব পড়ল। পড়ার জন্য চশমা পরতে হল। তা সত্ত্বেও পড়া তিনি চালিয়ে যেতে পেরেছিলেন এবং বহুদিন যাবৎ প্রতিশ্রুত উর্দু সাহিত্যের ইতিহাসের জন্য সামগ্রী জোটাতে পেরেছিলেন। এমনকি সুদূর স্কটল্যান্ড থেকে বীজ আনিয়ে ফুল চাষ করার চেষ্টাও তিনি করলেন। উর্দু কবিরা, যাঁরা লাগাতার ফুলের কথা লিখতে কখনো হাঁপান না, প্রায়শ কিছুই জানেন না ফুলের বিষয়ে। এখানেও বোধহয় ফয়েজের বাস্তবতাবাদের বোধ নিজেকে জাহির করছিল, যদিও ফয়েজের সঙ্গী কয়েদীটি নিজের বাগানের জমিতে মুর্গীপালন করে নিঃসন্দেহে বাস্তববাদকে আরো বেশি ব্যবহারিক রূপ দিচ্ছিল।

সবচেয়ে বড় কথা যে ফয়েজ, জেলে থাকাকালীন যথেষ্ট পরিমাণে – তাঁর নিজের মাপে – কবিতা লিখতে এবং প্রকাশিত করাতে পারছিলেন। লেখার মধ্যে দিয়ে তাঁর রাজনৈতিক মতাদর্শগুলি কঠোর ব্যক্তিগত অভিজ্ঞতার মিশেল পেয়ে নতুন শক্তিতে বলীয়ান হয়ে উঠছিল। সরকার তাঁকে অস্পষ্ট কিন্তু অতিনাটকীয় কিছু অভিযোগে অভিযুক্ত করা সত্ত্বেও নতুন কবিতাগুলি প্রকাশ পাওয়ার সাথে সাথে গিলে খাচ্ছিল লোকে। সব মিলিয়ে খুব কমই লিখেছেন কবি। হিমালয়ের দক্ষিণে সামাজিক অস্তিত্ব, সেই সব মানুষের সময় নষ্ট করার অদ্ভুত প্রতিভা রাখে যাদের নিজের জীবনের সময়টা নিয়ে কিছু করার থাকে। ‘ফলস্টাফ’এর ‘ট্যাডার্ন বিল’এ রুটির সাথে বস্তার অনুপাতের মত, সামাজিক জীবন এখানে সবার ওপর সমানভাবে কথা বলার সাথে ভাবনাচিন্তার একটা বিদঘুটে অনুপাত চাপিয়ে দেয়। সৈন্য প্রশাসনে, ফয়েজের ওপর যুদ্ধকালীন কাজের বিরাট চাপ ছিল; ফয়েজ নালিশের সুরে বলতেন যে যখনই একটা ভালো শে’র তাঁর মনে নাড়া দিয়ে উঠত, তখনি তাঁকে উঠে অফিসে ফিরতে হত। যুদ্ধের পর সম্পাদকীয় কাজের টেবিলে তাঁর দাসত্ব আরো বেড়ে গেল। সাহিত্যিক দিক থেকে দেখতে গেলে বলা যায় জেলের মেয়াদ তাঁর জন্য শাপে বর ছিল।

ফয়েজ সাহিত্যের জগতে তখন এসেছিলেন যখন আধুনিক উর্দুর মহানতম ওস্তাদ বিদায় নিচ্ছিলেন। ইকবাল নিজের দর্শনের বা স্টাইলের কোনো উত্তরাধিকারী রেখে যান নি। তবু যদি কাউকে উত্তরসুরি বলতে হয় তাহলে অনেক দিক থেকে ফয়েজের কথাই মাথায় আসবে। দুটো ব্যক্তিত্বের মাঝে এর বেশি তফাৎ হতে পারে না। ইকবাল নিজের সম্ভ্রান্ত একাকীত্বে গুটিয়ে থাকা প্রথিতযশা বৃদ্ধ, ফয়েজ, লাহোরের রাস্তায় টাঙ্গায় চেপে ঘুরে বেড়ানো এক ছোকরা যাকে কেউ চেনে না। ইকবাল নতুন প্রভাদীপ্ত ইসলামের ধর্মগুরু, ফয়েজ আজাদ-ভাবুক, মার্ক্সবাদের দিকে পথ খুঁজে খুঁজে এগোচ্ছেন। বৃদ্ধ মানুষটির গাম্ভীর্যের আর তরুণটির উচ্ছল আনন্দময়তার নিচে তবু একই মনোনিবেশ রয়েছে নিজেদের দুনিয়া আর শিল্পের প্রতি। কবিতাকে অলঙ্করণ হিসেবে বা আরামদায়ক, কাজকর্মহীন কোনো পদের দিকে এগোবার সিঁড়ির হাতল হিসেবে নেওয়ার বদলে সেই অগ্নিস্তম্ভের মত ভাবা, যা তীর্থযাত্রীদের গভীর অরণ্যে পথ দেখায়, দুজনেরই খুব স্বাভাবিক মনে হয়েছে।

তাছাড়া, ইকবালের ধার্মিক পুনরুত্থানবাদ বিংশ শতাব্দীতে এশিয়ার পুনরুজ্জীবনেরই অঙ্গীভূত ছিল। চলতি ধরণের জাতীয়তাবাদের সীমার বাইরে গিয়ে ইকবাল দলিত শ্রেণী এবং জাতিগুলির বিদ্রোহের প্রচার করেছেন। যার প্রতীক্ষায় তিনি দীর্ঘকাল রইলেন, ইসলামের সেই দীপ্ত নতুন দিন আর এল না। অন্যদিকে একটা বড় ভুখন্ড, প্রগতির আধুনিক ঢেউটাকে আটকাবার প্রভাবশালী বাধা হিসেবে আর নেই … যা নিয়ে মধ্যপ্রাচ্যের পশ্চিমী পন্ডিতরা ইদানিং দুঃখ প্রকাশ করেছেন। ইকবালের বাণীর ভুষিটা খসে গেছে, দানাটা – এশিয়ার বিদ্রোহ – রয়ে গেছে; বৈপ্লবিক সমাজবাদ তার নতুন পোষাক। এই অর্থে, ঐতিহাসিক দিক থেকে ফয়েজই ইকবালের উত্তরসুরি, ঠিক যেমন কবি হিসেবেও ইকবালের পর আসা কবিদের মাঝে ফয়েজ বিশিষ্টতম।

স্টাইলের দিক থেকে দুজনে একই ট্র্যাডিশনের। এটা সত্যি যে ফয়েজ শুধু উর্দুতেই লেখেন, লেখার মাধ্যম হিসেবে ধ্রুপদী ফারসীতে – যে ভাষাটির চর্চা ইকবাল এত বেশি করলেন – তাঁর রুচি পাঞ্জাবী দেশীয় ভাষার প্রতি তাঁর রুচি থেকে বেশি নয়। তা সত্ত্বেও, কোনো কোনো মুহুর্তে যদিও ফয়েজ প্রকাশভঙ্গীতে পরম সহজ হতে অএরেছেন, অধিকাংশ সময়ে তাঁর কাব্যভাষা ততটাই বিলক্ষণ ফারসী কিম্বা আরবী যতটা ইকবালের। তার ওপর, দুজনেই পরম্পরাগত রূপ ও ছন্দ এবং অধিকাংশ সময়ে চিরাচরিত অর্দ্ধ-প্রতীকী রূপকল্পের পুরোনো নমনীয় প্রণালীটি ব্যবহার করেন। দুজনেই নিছক প্রয়োগধর্মী হওয়ার জন্য প্রয়োগ করেন না, যেমন নাকি আমাদের যুগের কিছু উর্দু লেখক এবং অনেক বেশি সংখ্যায় পশ্চিমি লেখকেরা করে থাকেন। দুজনের মাঝের তীব্রতম বৈপরীত্য দুজনের কবিতার রঙে। ইকবাল নিজের সবচেয়ে স্বাভাবিক ক্ষণে ব্যগ্র, অস্থির এবং সোজাসুজি কথা বলতে ভালোবাসেন, ফয়েজ সেখানে সূক্ষ্ম ব্যঞ্জনাময়, অনুবাদ করাও বেশি শক্ত। একজনের আঁকা ছবি মনে হয় সূর্য্যালোকে দীপ্ত, আরেকজনের চন্দ্রালোকে।

এই যে একজনের সূর্য্যালোকের প্রেরণা ছিল একটি প্রাচীন ধর্ম আর আরেকজনের চন্দ্রালোকের প্রেরণা ছিল তাঁর যুগের সবচেয়ে বৈপ্লবিক জীবনদৃষ্টি, প্রথম দর্শনে এতে যতটা বিরোধাভাস মনে হয়, ততটা বোধহয় ছিল না। ইকবালের ‘ইসলামবাদ’ তাঁকে আবেগে সংপৃক্ত চিন্তাধারার একটা তৈরি কাঠামো দিয়েছে; ওই ধরণের চিন্তাধারা দিয়ে ইংরেজিতেও যেমন একজন উটকো কবিও ‘শোলোক’ লিখতে পারে আবার মিলটনের মত কবির হাতে পড়লে একখানা ‘প্যারাডাইস লস্ট’ বেরিয়ে আসতে পারে। এধরণের কিছু ফয়েজ সমাজবাদী চিন্তাধারা থেকে পান নি। সমাজবাদের চিন্তাভাবনাগুলো ছিল নতুন, নগ্ন, গাম্ভীর্যপূর্ণ, ইকবালের চিন্তাভাবনা থেকে অনেক বেশি আমরা যে দুনিয়ায় বাঁচছি তার কাছাকাছি। কিন্তু ওই একই কারণে সমাজবাদের চিন্তাভাবনাগুলো শিল্পের মত নম্র করে নেওয়া বা শিল্পের সুরে বেঁধে নেওয়া সহজ নয়, বরং কঠিন। নিষ্পত্তি করতে ফয়েজের মন ভেঙে যেত যে কবিতা পরগাছার চাষ, যুক্তির অসঙ্গতিতে বাড়ে ভালো। অবাস্তবের চাইতে বাস্তবের সাথে কাজ করা কল্পনার পক্ষে বেশি লাভজনক, যদিও আকচার তা খুব স্বতঃস্ফূর্ত ভাবে হয় না। যুগটা কাঁচে নয়, গ্রানাইট পাথরে খোদাই করা যুগ, ফয়েজ একবার বলেছিলেন। যখন ফয়েজ নিজেকে গ্রানাইটে খোদাই করার কাজে নিয়োজিত করলেন, তিনি সহজে সহজ হতে পারার আশা ছেড়ে দিলেন। ফলতঃ, কিছু অন্ধকারে হাতড়ানো, কিছু অসফলতা, কিন্তু বিশিষ্ট নতুন কিছু হাসিল করার সম্ভাবনাও।

এই অভিজ্ঞতা আমাদের শতাব্দীর সবচেয়ে গুরুত্বপূর্ণ শিল্প-সমস্যার ওপর – শিল্পী এবং প্রগতিশীল আন্দোলনের মাঝে সম্পর্ক – কিছুটা আলোকপাত করে।

ফয়েজের পাঠকেরা লক্ষ্য করে থাকবেন, মাঝেমাঝেই তাঁর কবিতায় ফয়েজ এক ধরণের দ্বৈততায় ফিরে যান – যেমন ‘দুটি কন্ঠস্বর’ কিম্বা ‘দুটো ভালোবাসা’ – যেন দুটো বিপরীত জীবনদৃষ্টি ছিল তাঁর এবং সবসময় দুটোকে তিনি মেলাতে চাইতেন। এটা আশ্চর্য নয় যে তিনি বিভাজিত মনের যন্ত্রণায় ভুগে থাকবেন। জাতীয়তাবাদী লেখক হওয়া সহজ, জাতীয় লেখক হওয়া কঠিন,; এবং ফয়েজ এমন একটি জাতি, সংস্কৃতি ও আকাঙ্খার সন্তান ছিলেন যারা তখনো তাদের আত্মার সন্ধানে মগ্ন ছিল। সত্যি বলতে, পাঞ্জাবের যে মুসলমান সম্প্রদায়ে তিনি বড় হয়েছিলেন, আপাতদৃষ্টিতে ঝিমন্ত ও গতানুগতিক জীবন কাটানো মনে হলেও অস্বাভাবিক রকম জটিলতা ও দ্বন্দ্বে জর্জরিত ছিল ওই সম্প্রদায়। এমনও বলা যায় যে উর্দু কবিতার মুখ্য প্রেরণা আরো দক্ষিণ থেকে এই প্রদেশে এসেছিলই আরো বেশি দ্বন্দ্ব, আরো বেশি আততিতে উদ্দীপিত হতে। নিজেদের হিন্দু প্রতিবেশীদের থেকে আধুনিক পরিস্থিতির সাথে মিশ খাইয়ে নিতে কম অভ্যস্ত পাঞ্জাবী মুসলমানদের ব্যবহারিক বোধ ছিল কম এবং কল্পনাশীলতা ছিল বেশি; তাদের মধ্যে সবচেয়ে বেশি জগৎ-সচেতন যারা, সূক্ষ্ম বিষয়গুলো স্পর্শ করত তাদের।

বেশির ভাগ লেখকের মত (ইকবাল ছাড়া) ফয়েজও মুসলিম লীগের কার্যক্রমের প্রতি সন্দেহ থেকে নিজের পথ শুরু করলেন। তাঁর মনে হল যে লীগের কার্যক্রম আধুনিক দুনিয়া ও তার সমস্যাবলি থেকে মুখ ফিরিয়ে সামন্ততান্ত্রিক গ্রামের জড়তায় ফিরে যেতে চায়। অন্য দিকে যারা অখন্ড ভারতে বিশ্বাস করত তারা উর্দুকে মেঠো করে হিন্দির মধ্যে মিলিয়ে দিয়ে প্রাথমিক বিদ্যালয় এবং হাটবাজারের মুখের ভাষা ‘হিন্দুস্তানি’তে পরিণত করার চিন্তা করছিল। ফয়েজের সহজাত সাহিত্যিক বোধ এধরণের সম্ভাবনার প্রতিক্রিয়ায় গুটিয়ে গিয়ে ফয়েজকে প্রাচীন ফারসি শব্দাবলির ঘুরপথে, মধ্য এশিয়ার হৃদয়ে অবস্থিত পানপাত্র এবং মিনার, গোলাপ-বাগিচা আর পরীদের বিলাসিতাপূর্ণ স্বপ্নজগতে টেনে নিয়ে গেল।

সব মানুষই ক্রিয়া ও ভাবনার পরস্পরবিরোধী প্রবৃত্তির শিকার হয়, আর বেশির ভাগ মানুষের থেকে বেশি ভোগে শিল্পীরা। ফয়েজের পরিবেশের এইসব বিপরীতমুখী স্রোতগুলির অভিঘাত তাঁর চেতনায় যেন কর্তব্য ও ইচ্ছার, ব্যবহারিক সক্রিয়তা ও কাব্যিক দিবাস্বপ্নের নিরন্তর দ্বন্দ্ব তৈরি করল। সামাজিক দায়িত্ববোধ প্রখর ছিল বলে নিজেরই শিল্প সম্পর্কে বিবেকশূন্য বা বীতশ্রদ্ধ হওয়ার বিপদ ছিল ফয়েজের সামনে, যেমন বোধ করি সব সৎ সাহিত্যিকদের সামনেই থেকে থাকে। ‘যুদ্ধের কী করা উচিৎ এই সব নাচিয়ে কবিদের সাথে?’ তাঁর মাথায় দুটো ছবি একে অন্যের সাথে ধাক্কাধাক্কি করতঃ শুকিয়ে যাওয়া, রুগ্ন, সর্বস্বান্ত মানুষ নালায় পড়ে মরছে; পুরোনো সামন্ততান্ত্রিক রোমান্টিকতার আয়নায় রঞ্জিত-কপোল, কাজলকালো আঁখিপল্লব, ক্ষীণকায়া সুন্দরী নিজের মুখটি চেয়ে চেয়ে দেখছে। এ দুটি দৃশ্যের মাঝে তিনি জীবনের দুটো বিপরীতমুখী চুম্বক দেখতে পেতেন, একটি তাঁর ইতিবাচক, প্রগতিশীল সত্ত্বা ধরে, অন্যটি তাঁর পশ্চাৎপদ, পুনরুজ্জীবনহীন সত্ত্বা ধরে টানছে।

ফয়েজের সৃজনপথের এই দ্বন্দ্বগুলো সব দেশের প্রগতিশীল আন্দোলনের সাধারণ সমস্যাগুলোরই রকমফের ছিল। পুরোনো ও নতুনের দাবির মাঝে সংঘাত (দুদলই নিজের জায়গায় ঠিক); ক্ষুধিত বর্তমান বনাম পঞ্চবর্ষীয় পরিকল্পনা নিয়ে ভবিষ্যৎ, অলীক কল্পনা বনাম সম্ভাব্যতা, আবেগ বনাম যুক্তি, শ্রমিক বনাম বুদ্ধিজীবী, ব্যক্তি বনাম সমাজ, জনতা বনাম সরকার। বিশ্ববিপ্লব, বেগবান ও অনুশাসিত ভাবে কবির জীবনযাপনে ঢুকে পড়ছিল। সমানভাবে আত্মসচেতন এবং প্রতিরোধী এক সংস্কৃতির বিরুদ্ধে এই বিপ্লবের চাপ, কবির মনে জাগাচ্ছিল চেতনার ওই দ্বৈরথ।

কবি নিজে এবং অন্যরা এই দ্বৈরথকে তাঁর দুর্বলতা মনে করতে পারেন। কিন্তু এই দ্বৈরথই সেই জেদি নান্দনিক শিকড়ের প্রমাণ যা কবিকে আন্দোলনের শক্তিশালী জোয়ারে মুছে যাওয়ার হাত থেকে বাঁচিয়েছিল। অন্য অনেকেই বাঁচতে পারেনি। সমস্ত মহান ও বীরত্বপূর্ণ আন্দোলনের মত আমাদের যুগের এই বিপ্লবেরও সহজ প্রবৃত্তি ছিল নারীপুরুষদের নিজের সৈন্যদলের একক, নিজের হিসেবের সংখ্যা করে নেওয়ার; নিজের ও তাদের, দুতরফেরই ক্ষতি করেও। ব্যক্তি কেউ নয়, উদ্দেশ্যই সব, ১৭৯৩ সালে জ্যাকোবিনরা বলেছিল। দুনিয়াকে পাল্টে দেনেওয়ালা সবাই তবে থেকে ওই কথাটিরই প্রতিধ্বনি করে আসছে। যাদের সাথে ফয়েজের সম্পর্ক হয়েছিল, তারা তখন একপাথুরে দলের, এমন একটি সংগঠনের ফর্মুলা গড়ে তুলছিল যার প্রতিটি সদস্য পুরোপুরিভাবে ওই দলেরই পরিচয়ে পরিচিত হবে – পরবর্তী সময়ে যা স্টালিনের তত্ত্ব হয়ে দাঁড়িয়েছিল। এই আদর্শ একটি লৌহযুগের আদর্শ ছিল। অনেক বড় বড় উদ্দেশ্য সফল হয়েছিল এই আদর্শে। কিন্তু ট্র্যাজিক বিচ্যুতিও ঘটেছিল, যেমন নাকি হালফিলে জানা গেছে।

যারা ভবিষ্যতে ঝাঁপ দিতে চেষ্টা করার সাথে সাথে ঢিলে করে ফেলে অতীতে তাদের পায়ের ভর, সাধারণতঃ তারা দুটোর মাঝের শূন্যে দোদুল্যমান হয় আর প্রখর সূর্যের তাপে কুঁকড়ে যায়; বিশেষ করে হিমালয়ের দক্ষিণ দিকের যে তপ্ত সূর্য, আমদানি করা ভাবনা ও উৎসাহে ফেঁপে ওঠা যুবদের অনেক প্রজন্মকে কুঁকড়ে ছেড়েছে। বিপ্লবগুলিরও একই গতি হয় যখন তারা অতীতকে সাংস্কৃতিক ও রাজনৈতিক, দুদিকেই ঝেঁটিয়ে বিদেয় দিতে চায়, ‘পুরোনোপন্থী নৈতিকতা’ শুধু এই জন্য ছুঁড়ে ফেলতে চায় কেননা তা পুরোনো এবং যারা সবচেয়ে জোর গলায় তার মুখপাত্র হয় তারা হিপোক্রিট। ফরাসি বিপ্লব যখন গর্ববোধ করল যে সে মুক্ত, বন্ধনহীন এবং শুধু নিজের প্রতি দায়ী, আর তাই নৈতিকতার এবং দিনক্ষণের একটা নতুন ক্যালেন্ডার তৈরি করার ইচ্ছা প্রকাশ করল তক্ষুনি সে ভূপতিত হল। প্রতিকূল পরিস্থিতিতেও মানুষের একসাথে বেঁচে থাকার পরম্পরা যে সাধারণজ্ঞানপ্রসূত নৈতিকতা গঠন করেছে, সেই নৈতিকতার মজবুত ভিত্তিটা না থাকাতে পথ হারিয়ে ফেলল ফরাসি বিপ্লব। ১৭৯৩ খৃষ্টাব্দের আতঙ্কে অপরাধীর সাথে নিরপরাধও কাটা পড়ল – ফ্রান্স বেঁচে গেল, স্বাধীনতা হারিয়ে গেল। আমাদের সময়ের বিপ্লব যদি ইতিহাসের এই শিক্ষার প্রতি আরো বেশি নজর দিত তাহলে নিদারূণভাবে তার অগ্রগতি রোধ করা ট্র্যাজিক বিচ্যুতিগুলোর কয়েকটি এড়িয়ে যেতে পারত।

ইংল্যান্ডের বিপ্লব পতনের আগে পর্য্যন্ত কমই কাব্যের সৃষ্টি করতে পেরেছিল, ফ্রান্সের বিপ্লব নাম করার মত একটিও নয়, রাশিয়ার বিপ্লবও তার থেকে বেশি কিছু করতে পারেনি। অন্ততঃ আংশিকভাবে এর কারণ ছিল নিজেদের লেখকদের প্রতি এইসব মহান আন্দোলনের দৃষ্টিভঙ্গি। ফ্রান্সের কোনো সাহিত্য নেই বলে নালিশ উঠেছিল। ‘ব্যবস্থা গ্রহণ করা গৃহমন্ত্রীর কাজ’ বলে নেপোলিয়ন বিপ্লবের যোগ্য উত্তরাধিকারীর মত জবাব দিয়েছিলেন। শিল্পকলার জগতে ‘একপাথুরে’ তত্ত্বটি শিল্পীদের প্রচারকর্তার শ্রেণিভুক্ত করল (সামন্ততান্ত্রিক তত্ত্ব, সব মিলিয়ে কম ক্ষতিকারক ভাবে উইলিয়াম শেক্সপিয়র এবং তাঁর সহ-অভিনেতাদের বাজিকর ও হাতুড়েদের শ্রেণিভক্ত করেছিল), কাজের ক্ষেত্রে কবিদের, খবরের কাগজের সম্পাদকীয়গুলোকে গদ্য থেকে পদ্যে অনুবাদকারী হিসেবে ধরল। বলতে গেলে কবিকে চ্যাপ্টা করে, দ্বিমাত্রিক প্রাণীতে রূপান্তরিত করে, তার ভিতর থেকে সমস্ত ব্যক্তিবাদী মাথামুন্ডু এবং তার নিজের মনেরও বৈপরীত্য ও অন্তর্দৃষ্টি নিংড়ে বার করে নেওয়া হল। কিন্তু মুশকিল হল যে কবিতার পক্ষে সবকিছুকে একই সময়ে দুই কোণ থেকে বা দ্বৈতবীক্ষণেই দেখা সম্ভব, polyphemus একচক্ষুতে – এবং একপাথুরে কবি স্বাভাবিকভাবেই একচক্ষু হবে, বার্টনের শব্দে বলতে গেলে – গভীরতা, বৈপরীত্য, আততি, সমস্ত পরিপ্রেক্ষিত উবে যায়।

ফয়েজ এই পরিস্থিতি থেকে, যাকে বলে একটিও আঁচড় না খেয়ে বেরিয়ে আসতে পারেন নি। তাঁর কাজের একটা অংশের সমালোচনা হতে পারত খুবই পরম্পরাগত অথবা বিমূর্ত বলে; অন্য অংশ, যেখানে তিনি ‘প্রগতিশীল’ হওয়ার চেষ্টা করছিলেন, কাব্যিক থেকেও বেশি রাজনৈতিক হয়ে উঠছিল। কিছু সমালোচনা উদ্দেশ্যমূলক হয়ে থাকতে পারে। কিন্তু স্পষ্টতঃ অসাধরণ কবিতাগুলোতেও শেষের দিকে একটা টলে যাওয়া বা পড়ে যাওয়া টের পাওয়া যায়, যেখানে মনে হয় ফয়েজ জোর করে তাঁর ভিতরের বেসুরগুলো মেলাবার চেষ্টা করছেন, কিন্তু ঠিক সুরটা কিছুতেই খুঁজে পাচ্ছেন না।

এতদিনে বিপ্লবের ইতিহাসে, আমাদের যুগে শিল্পীর কাজ সম্পর্কে স্পষ্ট ধারণা গঠন করা সম্ভব হয়ে যাওয়া উচিৎ। কবিতা প্রদর্শনীয় সত্য নিয়ে কাজ করে না, ধাঁধা ও সন্দেহ, সম্ভাব্যতা ও জটিলতা নিয়ে কাজ করে। বেশি ব্যবহারিক মানুষেরা যে পথ তৈরি করে দিয়েছেন সেই পথে প্রশ্নহীন, দিকনির্দেশকারী থামের মত দাঁড়িয়ে থাকা, নিজেকে অনমনীয় একপাথুরেতে রূপান্তরিত করা লেখকের কাজ নয়। বরং কাজটা, রাষ্ট্রশক্তির অংশ হিসেবে হোক বা কারাগারে নিক্ষিপ্ত অবস্থায় হোক, প্রয়োজনীয় দায়িত্ববোধের সাথে, স্থায়ী বিরোধীপক্ষের মত হয়ে আন্দোলনের সেবা করার কাজ। অভিজ্ঞতা একটু বেশিই স্পষ্ট করে দিয়েছে যে সমাজবাদী দল এবং সরকারেরও নিতান্ত প্রয়োজন আভ্যন্তরীণ বিরোধী পক্ষ। সমাজ পরিবর্তনকারী শক্তিগুলিকে উদ্দীপিত করার কাজে শিল্পের কম ব্যস্ত থাকা উচিৎ - তাদের উদ্দীপিত করার জন্য অন্যান্য বুনিয়াদি সংগঠনগুলি রয়েছে – শিল্পকে বরং ব্যস্ত থাকা উচিৎ নৈরাজ্য অথবা পাশবিকতায় ওই শক্তিগুলির পতন রোধ করার কাজে।

এই কাজে তাকে অতীতের মূল্যবোধগুলির সংরক্ষক হিসেবে দেখা যেতে পারে। বর্তমানের তোলপাড়ে অতীতের নীতিশাস্ত্র ততটাই অপরিহার্য যতটা, রাজনীতিতে এবং অর্থনীতিতে এর আবিষ্কারগুলি। শিল্প একটি প্রাচীন ও নবীন সভ্যতার মাঝে সংযোগ স্থাপনকারী; আর প্রাচ্যে, যেখানে কবিতা একটি জীবন্ত শক্তি সেখানে, সেই সমস্ত কিছুকে প্রভাবিত করতে শিল্পের সক্ষম হওয়া উচিৎ যা ব্যবহারিক কাজের মানুষেরা মূর্খের মত উপেক্ষা করবে। পুরোনোর মন্দের বিরুদ্ধে শিল্প হবে নতুনের দূত, আর নতুনের মন্দের বিরুদ্ধে ঐতিহ্যগত বুদ্ধিমত্তার সংগ্রাহক, যে জানে যে অন্যায় ভালো উদ্দেশ্য নিয়েই করা হোক বা মন্দ উদ্দেশ্য নিয়ে, শেষ বিচারের দিন আসবেই। পরিবর্তনের প্রক্রিয়ায় অবশ্যম্ভাবী যে দ্বন্দ্বগুলোর আবির্ভাব, শিল্প সে দ্বন্দ্বগুলোর নিষ্পত্তি করতে সমাজকে সাহায্য করবে এমন ভাণ করে নয় যে দ্বন্দ্বগুলো উবে গেছে, বরং দিনের আলোয় এবং কল্পনার আলোয় সে দ্বন্দ্বগুলোকে এনে। এর জন্য প্রয়োজন শিল্পীর নিজের দৈনন্দিন চেতনায় ওই দ্বন্দ্বগুলো অনুভব করা, যেমন নাকি সব মানুষেরাই অনুভব করে থাকে, একটু কম তীব্রতায়, আর একপাথুরেরা করতে পারে না।

ফয়েজের প্রতি বিশ্বাস রাখা যেতে পারে যে তিনি নিজের ক্ষমতাকে প্রয়োজনীয় গুরুত্ব দিয়ে থাকেন, এবং যেমন যেমন যুগের শিক্ষাগুলো বেরিয়ে আসে তিনি তেমন তেমন সেগুলো গ্রহণ করেন। তাঁর কাছে যুগের ধাক্কা ও ভ্রমমুক্তিগুলো, সমাজবাদের শিকল থেকে নয়, সমাজবাদের অর্থবিভ্রাটের শিকল থেকে মুক্তির মত মনে হওয়া উচিৎ। পুরাতনী রূপে তাঁর উল্টোছবি – জাহাজের তরঙ্গপীড়িত ডেকে দৃঢ়সংকল্প অডিসিয়ুস, বিপদজনক শিলাখন্ডের ওপর চুম্বকের মত টানতে থাকা বাঁশি – সরলীকরণ ছিল। যে সহজাত কু-বোধগুলিকে সে রামনাম করে দূর করতে চাইছিল সেগুলো একেবারেই একপাথুরে ছিল না এবং একান্তই মনোগত ছিল। বাস্তবে সেগুলো এমন কোনো পদচিহ্নের মত ছিল না যা থেকে বেরিয়ে যেতে, পিছনে ছেড়ে আসতে হবে। সেগুলোর সাথে জড়িয়ে ছিল বাস্তবের অন্য এক প্রজাতি – অতীতের অনেক অনেক কিছু যা ভালো ছিল এবং যার বাঁশির গানের প্রতি কান বন্ধ রাখা যাত্রীর পক্ষে নির্বুদ্ধিতার পরিচায়ক হবে। এখন ফয়েজের হ্যাঁ-এবং-না, আরো বিশিষ্ট ও মৌলিক দ্বন্দ্বে বিকশিত হয়ে গিয়ে থাকবে। তাঁর চিন্তাভাবনার মূলে রয়েছে মানুষের দৈত্যাকার কদমে এগিয়ে যাওয়ার অথবা দৈত্যাকার অপরাধে আত্মধ্বংসে পতিত হওয়ার নতুন-পাওয়া ক্ষমতা। এই পরিস্থিতিতে একজন শিল্পীর একটি দলে থাকা এবং সব দলের দোষত্রুটি ধরা উচিৎ।

[ভি.জি.কিয়ের্নান কৃত ফয়েজের কবিতার অনুবাদ গ্রন্থটির ভূমিকা – এডিনবরা, ২৪শে মার্চ, ১৯৫৭]




Wednesday, October 6, 2021

অন্নস

এটি একটি চলতি শব্দ। শিকড় জানি না।

অনেক বছর আগে পাটনার রাজেন্দ্রনগর পাড়ার ছয় নম্বর রোডের উল্টোদিকে, মানে কাজিপুরের মুখে একটা পান-সিগারেটের দোকানে দাঁড়িয়ে সিগরেট ধরাচ্ছিলাম। সেটা রেডিওর যুগ। দোকানির ট্রাঞ্জিস্টরে বিবিধ ভারতীতে ভূলে-বিসরে গীত শুরু হল। মুকেশের গলায় পুরোনো একটি গান, বোধহয়, আয়া হ্যায় মুঝে ফির ইয়াদ উও জালিম। দোকানি এক ঝটকায় হাত বাড়িয়ে রেডিওটা বন্ধ করে দিল। জিজ্ঞেস করলাম, বন্ধ করলে কেন? এত সুন্দর গান! দোকানি ছোটো করে জবাব দিল, অন্নস লাগে। অন্নস মানে? মানে... কি বলব, হাত চলে না, কাজ করতে অসুবিধে হয়, এসব ফুরসতে বসে শোনার জিনিষ।

জানিনা, হতে পারে, শব্দটা আলস্য থেকে এসেছে। নেশা থেকে এসেছে। এও হতে পারে এত দিন কার ইংরেজ শাসনের ফলে শব্দটা আনইজিনেস থেকে এসেছে। পরে, পাহাড়ি রাস্তায় গাড়িতে বসেও এটা লক্ষ্য করেছি। ড্রাইভার, তার নিজের কাছে পুরোনো, ধীরগতি গানের সিডি বা কার্ড থাকলেও সেটা কাজের সময় বাজায় না। যাত্রী হিসেবে আমরা বাজাতে দিলে দুরকম হয়। যদি বাংলা গান, রবীন্দ্রসঙ্গীত দিই, ওর অসুবিধে হয় না, চালিয়ে দেয়। কেন না ও বোঝেই না। ওর গায়েও লাগে না। কিন্তু যদি হিন্দীর পুরোনো, ধীরগতি গান বাজাতে দিই, ওর অসুবিধে হয়, স্পষ্ট বলে সেটা।

তারপর নিজে স্কুটার চালাতে গিয়েও দেখেছি। ওয়াকিতে, পরে মোবাইলে, ধীরগতি গানের টেপ চালিয়ে কানে ইয়ারফোন গুঁজে (বা এখনকার ব্লুটুথে) দেখেছি, স্কুটার চালানোর ছন্দ হারিয়ে ফেলি। তাও তো স্কুটার। বেশি গতিবেগের গাড়ি চালাতে হলে?

তার মানে, কাজের লয়ে আর সঙ্গীতের লয়ে একটা সঙ্গতি থাকা দরকার। আবার, মুম্বইয়ে ভীড়ের রাস্তায় পাশের গাড়িতে এক যুবক যে ধরণের সঙ্গীতের সাথে কাঁধ নাচিয়ে গাড়ি চালাচ্ছিল, তা দেখে অন্য একটা কথাও মাথায় এল। এমনও সঙ্গীত হতে পারে যেটা কাজের লয়ের সাথে সঙ্গতি না রেখে বরং কাজের লয়কে অযথা উত্তেজিত এবং তীব্রতর করে ফলে দুর্ঘটনা আশঙ্কা তৈরি হয়।

এই সমস্যাগুলো তৈরি হয়েছে যন্ত্রেরই কারণে। যন্ত্রের মাধ্যমে আজকাল যে কোনো কাজ করতে করতে, কোথাও যেতে যেতে চব্বিশ ঘন্টা কানে ইয়ারফোন লাগিয়ে বা পকেটে যন্ত্র রেখে সঙ্গীত শোনা যায়। একশ বছর আগে এই অবস্থা ছিল না। কাজকর্ম শেষ করে আসরে এসে বসে তবেই সঙ্গীত শোনা যেত।

তবে মানুষ গাইত তো তখনও। জানতে ইচ্ছে হয়, কোনো ঘোড়সওয়ার বা যুদ্ধবাজ খানদানী গায়ক ছিলেন কি না। তিনি কি ভোরবেলায় ঘোড়া ছোটাতে ছোটাতে, বা তরোয়াল চালাতে চালাতে আহির ললিতে আলাপ সারতে পারতেন? আমাদের অভিজ্ঞতা আছে এর বিকৃত দিকটার। সিনেমায় খলনায়ককে দেখেছি ধীরগতি শাস্ত্রীয় সঙ্গীত শুনতে শুনতে বা গাইতে গাইতে জঘন্যতম কোনো অপরাধে, হয়ত হত্যায় লিপ্ত কি যেন বলে, হরকত একটা কঠিন হরকতে রেয়াজ করতে করতে রক্ত লাগা ছুরিটা বেসিনের জলে ধুচ্ছে। নতুন শার্লক হোমসের একটা ফিল্মে মরিয়ার্টি জার্মান সঙ্গীতজ্ঞের সুর ভাঁজতে ভাঁজতে হোমসকে রক্তাক্ত করে তুলছিল। একটা হিন্দী ফিল্মে খলনায়ক হিসেবে অমরীশ পূরীকে ঘড়া বাজাতে দেখেছিলাম। যদ্দূর মনে হয়, হিচককও এই অনুসঙ্গটা ব্যবহার করেছেন।

আবার এটাও ভেবে দেখার যে সমস্যাটা কি শুধুই লয়ের,বা গতির? নাকি সামগ্রিক (গায়কী, বাদ্যের ব্যবহার ইত্যাদি নিয়ে) চালের সমসাময়িকতার? সব জায়গায় না হলেও, কিছু গানে বা কিছু সঙ্গীতের চালে নতুনত্ব এনে দেখা যায় যে সেগুলো কাজের মধ্যে মানুষ শুনছে এবং তার কাজের গুণ তাতে বাড়ছে।

আর অন্নস? সেটা কি একেবারেই বিষবৎ পরিহার্য?

সেদিন নেটফ্লিক্সে একটা কোনো সিরিজের প্রথম এপিসোড দেখছিলাম। বোধহয় বন্দিশ ব্যান্ডিটস। প্রথম তো নাটকীয়তা আনার জন্য যে দ্বন্দ্বটা ব্যবহার করা হয়েছে সেটা দেখেই নিজের ওপর হাসি পেল। এক মেরুতে রাখা হয়েছে শুদ্ধ শাস্ত্রীয় গায়নের ঘরাণা যার ওস্তাদ রাজপ্রাসাদে সম্মানিত উঁচুতে গাওয়ার জন্য একমুহুর্তের ফলসেটো ব্যবহার করার অপরাধে নিজের পুত্রকে, সবার সামনে সকালের ক্লাস থেকে বার করে দেন। অর্থাৎ এতটাই শুদ্ধতাবাদী, এবং সে শুদ্ধতার সম্মান দেওয়ার অওকাত একমাত্র রাজাই রাখে। অন্যদিকে, ছেলের প্রণয় দানা বাঁধতে শুরু করল জিন্স, টপ্স পরা একটি মেয়ের সাথে যে ল্যাপটপে বা মোবাইলে গান লেখে, সুর করে, গায় অত্যাধুনিক গান একঅর্থে রকস্টার; তবে ভারতীয় অর্থে রক।

আমার হাসি পেল যে মিছিমিছিই দেড় দশক আগে সঙ্গীতে যুক্তিবাদের প্রশ্নের অবতারণা করেছিলাম এবং উনিশ শতকের ভারতে সাংস্কৃতিক পরম্পরার সব ক্ষেত্রেই ... জাতীয়তাবাদী-যুক্তিবাদী পুনরাবিষ্কার এর ধারায় সঙ্গীতকে দেখার চেষ্টা করেছিলাম। দেখতে চেয়েছিলাম কিভাবে সঙ্গীতের ক্ষেত্রে নতুন পথিকৃৎ যাঁরা এলেন তাঁরা শাস্ত্রীয় সঙ্গীতকে সাধারণ মানুষের কাছে পৌঁছে দিলেন। রহস্যের কয়েদখানা থেকে তার ভাষাকে উন্মুক্ত করলেন, সর্বজনবোধ্য ব্যাকরণ তৈরি করলেন, সবার জন্য অবাধ বিদ্যালয় তৈরি করলেন, মানুষের ভীড়ে গিয়ে গাইতে শুরু করলেন! ...

সব বেকার। হবে নাই বা কেন? স্বাধীন ভারতে আবার যে নতুন রাজারা জন্ম নিল! তাদের মহফিল বসবে না, পুরোনোদের মত? নতুন সঙ্গীতজ্ঞেরাও সুযোগ বুঝে কুলীনতাবাদী হয়ে গেলেন। আমরা হয়ে গেলাম, পূঁজিপ্রধানদের ভাষায় বরবাদ বছরএর (ওয়েস্টেড ইয়ার্স) এর উৎপত্তি, যারা ভোরের বৃষ্টির মধ্যে প্যান্ডালের বাইরে খোলা আকাশের নিচে দাঁড়িয়ে, ভাঁড়ে কালো চা খেতে খেতে চিৎকার করে গিরিজা দেবীকে বলতাম, গেয়ে চলুন দিদি ! আর তিনি, নিজের নথটা নাড়িয়ে হেসে কর্মকর্তাদের বলতেন তিনচারটে ছাতার ব্যবস্থা করতে। একটা ছাতা তাঁর মাথার জন্য, দুটো তবলচির মাথা আর তার বাদ্যের জন্য, একটা তানপুরার ওপর ... এভাবেই ... স্টেজের ছাত থেকে জল ঝরত আর গিরিজা দেবী খেয়াল শেষ করে ঠুমরি ধরতেন, কাজরি, ভজন ...। রাজন মিশ্র, সাজন মিশ্রর গাওয়ার মাঝে এক বোদ্ধা মদ খেয়ে স্টেজের কাছে গিয়ে ওদের ভূল ধরতে আরম্ভ করল তো আমরা পিছন থেকেই তাকে হাঁক দিয়ে ভাগিয়ে দিলাম। অতিথি আমাদের, গাইতে দিন! বিসমিল্লা আলাপ ধরলে কাঁদতে কাঁদতে ছুটতাম। বাহাদুর খাঁর সরোদের তার ছিঁড়ে গেল এক নম্বর রোডের অনুষ্ঠানে বাজনার মাঝেই। পাকারা বলল এ তো ওঁর পুরোনো রোগ আমরা মনে মনে বললাম কোই বাত নহি উস্তাদসাহব, আমরা দাঁড়িয়ে আছি, নতুন ভারতের স্বপ্ন দেখছি তো আমরা একসাথে, তাই না? বেগম আখতার, নিখিল ব্যানার্জি, মালিনি রাজোলকর, এন রাজম ... কেন আসতেন তাঁরা? অনেকে তো পয়সাও নিতেন না বা কম করে নিতেন। মানুষের কাছে পৌঁছোনোর জন্য। নব্যধনিকেরা আবার তাদের বন্দী করে নিল নিজেদের প্রাসাদে, আশ্রমে বা কোঠায়।

ভেদটা আবার তীক্ষ্ণ হতে শুরু করেছে শাস্ত্রীয় ও জনপ্রিয়ের মধ্যে। হ্যাঁ, শ্রেণী-পৃথকীকরণের নতুন বিন্যাস অনুযায়ী ভেদগুলো হয়েছে স্তর-বহুল। সবচেয়ে ওপরের স্তরে আছেন শাস্ত্রীয় ঘরাণার সংবাহক গুরুজীরা, যাঁদের নাম নিতে গেলেও কান ছুঁতে হয়। তাঁরা অন্নসেরও ওপরে। বস্তুতঃ যাঁরা শোনেন, বা বিশেষ করে যাঁরা পৃষ্ঠপোষক, তাঁদের জন্য ওই সঙ্গীতানুষ্ঠান তাঁদের শ্রেণীর উচ্চতাসংকেত, যেমন বসার দরবারে কয়েক লাখ টাকা দামের পেন্টিং। তার নিচের স্তরে সবচেয়ে বেশি উপ-বিভাজন মধ্যশ্রেণী যে! তাতে কোক-স্টুডিও থেকে ইন্ডিয়ান আইডল অব্দি সবই আছে এবং সব অনুষ্ঠানের সব গানেই শাস্ত্রীয় ধরণের কারুকার্য (সম্পূর্ণ অপ্রয়োজনে বা বাজারের প্রয়োজনে) বাড়ানোর ... আর শ্রোতারাও তাতেই বিস্মিত হয়, কী হরকৎ নিল দেখলে! ... বিদেশি অনুষঙ্গও তাতে যোগ হয়, ওই হরকতেরই মত। রকও একটা হরকৎ। জ্যাজও একটা হরকৎ। ইতালীয় হোক বা আফ্রিকী, সব একেকটা হরকৎ। গানের কথাবস্তু তো ঘুরিয়ে ফিরিয়ে সেই এক!

বাংলা গানের শ্রোতারা অবশ্যই আপত্তি করবেন। হয়তো অন্য কোনো ভাষার শ্রোতারাও আপত্তি করতে পারেন যাঁদের ভাষায় আধুনিক মন ও মননের, হৃদয়ানুভুতির গান লেখার পরম্পরাটা ছিল, রবিঠাকুরের মত বিশাল মাপের কেউ একজন সেই ধারাটাকে, বৈপ্লবিক ভাবে এগিয়ে নিয়ে যাওয়ার মধ্যে ধরে রাখতে পেরেছেন এবং তাই, এখনও সে সব ভাষায় গানওলাদের একটা ধারা প্রতিষ্ঠিত হয়ে গেছে।

কিন্তু হিন্দী দুনিয়ায়? তিরিশ-চল্লিশ-পঞ্চাশের দশকের কাব্যক্ষেত্রে আবির্ভূত নবগীতি-পরম্পরা কবিমন্ডলীতেই আটকে রয়ে গেল। হাফ-এলিটদের জন্য রইল গজল, অর্ধ-শাস্ত্রীয় অর্থাৎ ঠুমরি, দাদরা, ভজন ইত্যাদি এবং প্রোগ্রামের প্রথম দিকে প্রধান অতিথিদের অনুপস্থিতির অবসরে সুগম-সঙ্গীত ও গয়ের-ফিল্মী গীত। এদের থেকে অনেক এগিয়ে গেল শহরের গরীবেরা। তাদের মুখে এল পঞ্চাশের দশকের ফিল্ম থেকে শৈলেন্দ্র, সাহির, মজাজ, মজরুহ ও আরো অনেকের নতুন গান, নতুন সুর, প্লাস উপরি পাওনা হিসেবে, জনসাধারণের হৃদয়ে জায়গা পেতে উৎসুক শাস্ত্রীয় সঙ্গীতজ্ঞেরা, যাঁদের কথা ওপরে বললাম। তাঁরা ওপর মহলেও যেতেন আগের মতই, কিন্তু নিচেও নেমে আসতে শুরু করলেন, বিনি-পয়সার মুক্তমঞ্চে।

কিন্তু সেই স্বপ্ন-সম্মিলন ভাঙা অবধারিত ছিল। ভাঙল। তার ইতিহাস আছে। কেউ চাইলে লিখবে। ... একটা বই বেরিয়েছিল কয়েক বছর আগে, নয়েজ আপরাইজিং (বিদ্রোহী কোলাহল?)। লেখক অসাধারণ অনুসন্ধিৎসার সাথে পথ নির্দেশ করেছেন জনপ্রিয় ও লোকসঙ্গীতের আন্তর্জাতিকীকরণের; দেখিয়েছেন কিভাবে তাতে সাহায্য করেছে গ্রামোফোন। কিভাবে মুম্বাইয়ের পার্সী কফিঘরের গান চলে যাচ্ছে আমেরিকার উপকূলে, কিভাবে ভিয়েতনামের বাদামওলার গান বা তাহিতির ছন্দ চলে আসছে মুম্বইয়ের বেসমেন্টে। কিভাবে হাওয়াইয়ান গীটার ভারতে এল, ভারতের নিজের হয়ে গেল আর জন্ম নিলেন অজস্র গীটার শিক্ষক। তা সে গীটারও ভারতীয় হতে গিয়ে দুভাগ হয়ে গেল। জানিনা হাওয়াইয়ে দুভাগ আছে কিনা।  

যাই হোক। এসব কথা যাক। আমার উদ্দেশ্য হল দেখা যে কাজিপুরে ঢোকার মুখে বসা সিগারেটের দোকানদার ছেলেটি কোথায় পৌঁছোলো (১) অন্নস! সেটা কি একেবারেই বিষবৎ পরিহার্য? যে গানে ওর অন্নস হয়, সে গানের প্রয়োজন ওর জীবনে আছে কি নেই? আর, (২) ও এখন কী গান গাইছে?

প্রথমটার উত্তর আমার মতে, আছে। সবার জীবনে সেই সঙ্গীত শোনার প্রয়োজন আছে যে সঙ্গীতে অন্নস জাগে, কাজের ছন্দ হারিয়ে যায়। কেননা সে সঙ্গীত তো কাজের সঙ্গীতই নয়। অবসরে বসে শোনার, পরিশীলিত মননের, কল্পনার ডানা জাগাবার সঙ্গীত। যে কোনো সময় শুনলে তা বিচলিত করতে পারে। প্রত্যেকটি মানুষের জীবনে সেই অবসরটুকু থাকা উচিৎ, সেই অবসরে ওই সঙ্গীত শোনার জন্য মনের যে পরিশীলন, সে পরিশীলনের পাঠ বিদ্যালয়ী শিক্ষার অঙ্গ হওয়া উচিৎ এবং সবার বিদ্যালয়ে যাওয়ার, শৈশবের সাধারণ নিয়মে পরিণত হওয়া উচিৎ। বোঝাই যাচ্ছে যে ব্যাপারটা আর সঙ্গীতের আওতায় থাকছে না। জীবনটা বদলাবার প্রসঙ্গে চলে যাচ্ছে।

যাক না। ক্ষতি কি? এই যে বড় বড় কথা হয় মিউজিক-থেরাপি, সঙ্গীত-চিকিৎসা নিয়ে চিকিৎসা কি শুধু অসুস্থ হয়ে হাসপাতালে পৌঁছোনো, বা আইনের চোখে অপরাধী হয়ে জেলে পৌঁছোনো মানুষটার দরকার? একটা এমন জীবন-প্রণালী যেখানে মানুষগুলোই আদ্ধেক-মানুষ হয়ে থেকে যাচ্ছে, অনেক সময় প্রায় অমানুষ হয়ে থেকে যাচ্ছে, তাদেরকে পুরোপুরি মানবিক সুস্থতায় ফিরিয়ে আনাটা থেরাপি হবে না? এবং সেই থেরাপিটা যাতে সবাই পায় তার ব্যবস্থার কথা বলাটা অসাঙ্গীতিক হয়ে যাবে?

[ক্রমশঃ]