Monday, October 14, 2019

आवास का प्रश्न - फ्रेडरिक एंगेल्स


भाग 1
किस तरह प्रुधों आवास के प्रश्न का समाधान करते हैं
वोकस्टैट के दसवें एवं उसके बाद के अंकों में आवास के प्रश्न पर छ: निबंधों की एक शृंखला देखी जा सकती है1। इन निबंधों के ध्यान देने योग्य होने का एक मात्र कारण है कि चालीस के दशक के कुछ अर्से-से-भूले-गये संभावित साहित्यिक लेखनों के बाद वे निबंध, जर्मनी में प्रुधोंवादी विचारधारा को स्थापित करने की पहली कोशिश है। पच्चीस साल पहले2 जर्मन समाजवाद ने ठीक जिन प्रुधोंवादी विचारों पर निर्णायक चोट किया था, अभी के ये निबंध, जर्मन समाजवाद के विकास के पूरे मार्ग की तुलना में पीछे की ओर जाते हुए उन्ही प्रुधोंवादी विचारों का एक इतना बड़ा कदम है कि इसका तुरन्त जबाब देना आवश्यक है।
तथाकथित आवास की कमी से सम्बन्धित खबरों को आज खबरों की दुनिया में बहुत बड़ी जगह मिल रही है। इसलिये नहीं कि मजदूर वर्ग सामान्यत: बहुत बुरे, भीड़-भरे और बीमार आवासों में रहते हैं। आवास की यह कमी वर्तमान की कोई विशेषता नहीं है, बीते जमाने के पीड़ित वर्गों द्वारा झेले गये कष्टों से अलग जो कष्ट आधुनिक सर्वहारा झेल रहा हैं, आवास की कमी उनमें से भी कोई एक नहीं है। बल्कि, यह एक ऐसी कमी और उससे उपजा कष्ट है जिन्हे सभी जमाने के सभी पीड़ित वर्गों को समान रूप से झेलने पड़े हैं। आवास की इस कमी को मिटाने का एक ही उपाय है – शासक वर्गों द्वारा श्रमिक वर्गों के शोषण और उत्पीड़न को पूरी तरह मिटा दिया जाय। --- आज आवास की कमी का अर्थ है: बड़े शहरों में अचानक बड़ी तादाद में जनसंख्या का प्रवेश, मकान-किरायों में अत्यधिक वृद्धि, अलग-अलग घरों में पहले से और ज्यादा ठुँसाव, और लोगों को रहने की एक जगह तक न मिलने जैसी बात आ जाने के चलते श्रमिकों की बुरी आवासीय स्थिति आई विशेष बिगड़ाव। और इस आवासीय कमी पर इतनी बातें होने का एक मात्र कारण है कि यह कमी सिर्फ श्रमिक वर्गों तक सीमित नहीं बल्कि टुटपूंजिये भी इसक चपेट में आ गये हैं।
हमारे आधुनिक बड़े महानगरों में आवास की जिस कमी को सभी श्रमिक तथा टुटपूंजियों का एकांश झेलते हैं वह मौजुदा पूजीवादी उत्पादन प्रणाली के परिणामस्वरूप उपजी असंख्य छोटी, दूसरे दर्जे की बुराईयों में से एक है। यह कतई पूंजीपति द्वारा श्रमिक का श्रमिक के रूप में किए गए शोषण का सीधा परिणाम नहीं है। वह शोषण तो आधारभूत बुराई है जिसे सामाजिक क्रांति, पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली को खत्म कर, मिटाना चाहती है। श्रमिक के श्रमशक्ति को उसके मूल्य पर खरीदा जाता है, जबकि दी गई कीमत को पुनरुत्पादित करने के लिए आवश्यक से अधिक समय तक उससे श्रम करवा कर, उस मूल्य से कहीं अधिक चूस लिया जाता है; पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का आधारशिला यही है कि मौजूदा सामाजिक व्यवस्था पूंजीपति को उपरोक्त क्षमता और अधिकार प्रदान करती है। उपरोक्त तरीके से पैदा किए गए अतिरिक्त मूल्य का बँटवारा, पूरे पूंजीपति व भूमिपति वर्ग तथा उनके वेतनभोगी नौकर, पोप और सम्राट से लेकर रात के पहरेदार एवं और नीचे तक में होता है। यहां हमारा इस बात से ताल्लुक नहीं है कि यह बँटवारा कैसे होता है, लेकिन इतना तो निश्चित है कि वे सारे लोग जो कोई काम नहीं करते, इस अतिरिक्त मूल्य के टुकड़ों पर ही जी सकते हैं, और उन्हे यह टुकड़ा किसी न किसी तरह मिल भी जाता है। (मार्क्स की ‘पूंजी’ से तुलना कीजिए, जहाँ यह सच्चाई पहली बार स्थापित की गई थी।)
श्रमिक वर्ग द्वारा पैदा किये गये एवं बिना भुगतान के उससे लिए गए इस अतिरिक्त मूल्य का गैर-श्रमिक वर्गों के बीच बँटवारा, शिक्षाप्रद बतंगड़ी-झगड़ों और ठगबाज़ियों के बीच होता है। जहाँ तक यह बँटवारा खरीद-बिक्री के माध्यम से होता है, इस खरीद-बिक्री की मुख्य पद्धतियों में से एक होता है विक्रेता द्वारा क्रेता को दिया गया धोखा; और यह धोखा खुदरा व्यापार में, खास कर बड़े महानगरों में, विक्रेता के अस्तित्व की निरंकुश शर्त होती है। हालांकि जब श्रमिक को उसके किराने का या उसकी रोटियों का दुकानदार धोखा देता है, या तो कीमत या सामान की गुणवत्ता के मामले में, वह धोखा उसके श्रमिक होने के कारण नहीं होता है। बल्कि, जब भी किसी भी जगह पर धोखे का एक निश्चित परिमाण सामाजिक नियम बन चुका होता है, अन्तत: समयोपरान्त, मजदूरी की अनुरूप बृद्धि में उसका समायोजन हो जाता है। श्रमिक दुकानदार के सामने एक क्रेता के रूप में, यानि, पैसा या ॠण के मालिक के रूप में खड़ा होता है, अर्थात, श्रमिक की भूमिका में, श्रमशक्ति के विक्रेता की भूमिका में बिल्कुल नहीं। धोखा उस पर या सामान्यत: ज्यादा गरीब वर्गों पर, धनवान सामाजिक वर्गों से अधिक चोट कर सकता है, लेकिन यह ऐसी बुराई नहीं जो सिर्फ उस पर, उसके वर्ग की वजह से चोट करती हो।
और ठीक यही बात आवास की कमी के साथ है। बड़े आधुनिक महानगरों का विस्तार जमीन को – उसके कुछ, खास कर केन्द्र में स्थित हिस्सों को – एक नकली और अक्सर बेतहाशा बढ़नेवाला मूल्य दे देता है। इन हिस्सों, इलाकों में खड़े मकान इस मूल्य बढ़ाने के बजाय कम कर देते हैं क्योंकि बदलते हुए हालातों के साथ वे मेल नहीं खाते। इसलिए वे मकान गिराए जाते हैं और उनकी जगह खड़े होते हैं नये मकान। यह खास कर बीच-शहर में स्थित श्रमिकों के घरों के साथ होता है जिनसे मिलने वाला किराया, ज्यादा से ज्यादा लोगों को ठूँस कर भी एक निश्चित अधिकतम से आगे बिल्कुल बढ़ नहीं पाता या बहुत धीरे बढ़ता है। उनके घर गिराए जाते हैं और वहाँ दुकान, गोदाम और सार्वजनिक भवन खड़े किए जाते हैं। पैरिस3 में अपने हॉसमान [जॉर्जि-युजीन हॉसमान, नेपोलियन-3 के भवन-निर्माण-प्रशासक – अनु॰] के द्वारा बोनापार्टवाद ने इस रुझान का, ठगी और निजी धन-आहरण के लिए जबर्दस्त इस्तेमाल किया। लेकिन हॉसमान की आत्मा विदेशों में, लन्दन, मैंचेस्टर और लिवरपूल में भी सक्रिय थी, बर्लिन और वियेना भी उसे अपना घर जैसा महसूस होता था। परिणाम यह है कि श्रमिक अब शहरों के केन्द्र से बाहर की ओर ठेल दिए गए हैं तथा श्रमिकों के आवास तथा सामान्यत: छोटे आवास दुर्लभ और खर्चीले हो गये हैं जो अक्सर मिलते ही नहीं। क्योंकि उपर वर्णित परिस्थितियों में भवन-निर्माण उद्योग को कीमती आवास चुंकि सट्टे का बेहतर मौका देते हैं, श्रमि्कों के आवास वे अपवाद के तौर पर ही बनाते हैं।
अत:, आवास की यह कमी नि:सन्देह समृद्ध वर्ग पर जितनी चोट करती है, श्रमिक पर उससे अधिक चोट करती है, लेकिन सिर्फ श्रमिक वर्ग पर बोझ बनने वाली बुराईयों में यह उतनी ही छोटी है जितनी दुकानदार की धोखाधड़ी। और जहाँ तक श्रमिक वर्ग का सम्बन्ध है, जब यह बुराई एक निश्चित स्तर तक पँहुचती है तथा एक हद तक स्थिरता प्राप्त करती है, इसका भी अनुरूप आर्थिक समायोजन किसी तरह हो जाता है।
मोटे तौर पर सिर्फ उसी प्रकार के कष्टों को लेकर टुटपूंजिए समाजवादी विचारधारा - जिससे प्रुधों आते हैं - बातचीत करना पसन्द करती है, जो श्रमिक वर्ग अन्य वर्गों और खास कर टुटपूंजिए वर्ग के साथ झेलते हैं। और इसलिए यह कोई संयोग नहीं कि हमारे जर्मन प्रुधोंवादी मुख्यत: आवास के प्रश्न पर टूट पड़ते हैं। हमने देखा कि यह प्रश्न केवल श्रमिक वर्ग से जुड़ा हुआ प्रश्न नहीं, जबकि वे इसे विशुद्ध तौर पर केवल श्रमिक वर्ग से जुड़ा प्रश्न होने की घोषणा करते हैं।
मकानमालिक के साथ किरायेदार का ठीक वैसा ही रिश्ता है, जैसा पूंजीपति के साथ मजदूर का है।”4  
यह पूर्णत: असत्य है।
आवास के प्रश्न में हमें दो पक्ष आमने सामने खड़े मिलते हैं – किरायेदार और भूस्वामी या मकानमालिक। पहला पक्ष दूसरे से एक घर के अस्थाई इस्तेमाल के अधिकार का क्रय करना चाहता है। पहले पक्ष के पास पैसा होता है या ॠण लेने की क्षमता, भले ही वह क्षमता उसे मकानमालिक से ही, किराए के साथ जोड़ी गई रकम के रूप में उजरती कीमत पर प्राप्त करनी पड़े। यह माल की सामान्य बिक्री है, सर्वहारा और बुर्जुवा या श्रमिक और पूंजीपति के बीच का लेनदेन नहीं। किराएदार – अगर वह श्रमिक भी हो – पैसोंवाला आदमी के रूप में सामने आता है। जो उसका अपना माल है - खास अपना माल, उसकी श्रमशक्ति – उसे वह बेच चुका होता है, तभी वह, उस बिक्री के एवज मे मिले पैसों को लेकर एक घर के इस्तेमाल की खरीद के लिये सामने आने लायक होता है; या नहीं तो फिर उसे अपनी श्रमशक्ति की संभावित बिक्री की गारंटी देने लायक बनना पड़ता है। पूंजीपति को की गई श्रमशक्ति की बिक्री के जो अद्भुत परिणाम होते हैं वे यहाँ पूर्णत: अनुपस्थित हैं। पूंजीपति, खरीदी गई श्रमशक्ति से पहले उसका अपना मूल्य पैदा करवाता है, फिर उससे अतिरिक्त मूल्य पैदा करवाता है। यह अतिरिक्त मूल्य, पूंजीपति वर्ग में वितरित होने के पहले तक उसी पूंजीपति के हाथ में रहता है। इस मामले में, अत:, मूल्य की एक अधिकता पैदा होती है, बिद्यमान मूल्य के कुल योग में वृद्धि होती है। किराए के लेनदेन में परिस्थिति बिल्कुल भिन्न होती है। भूस्वामी चाहे कितना भी अधिक किरायेदार से ऐंठे, अन्तत: वह सिर्फ विद्यमान, पहले पैदा किया जा चुका मूल्य का ही बस हस्तांतरण होता है, एवं भूस्वामी तथा किरायेदार, दोनो के पास मिलाकर मूल्य की जो कुल राशि पहले थी वही रहती है। श्रमिक को हमेशा ही उसके अपने श्रम के उत्पाद के एक हिस्से का धोखा झेलना पड़ता है, चाहे पूंजीपति उसके श्रम की कीमत मूल्य [श्रमशक्ति के – अनु] से कम चुकाई हो, मूल्य के बराबर चुकाई हो या मूल्य से अधिक चुकाई हो। जबकि किराएदार को सिर्फ तब धोखा झेलना पड़ता है जब उसे आवास के मूल्य से अधिक भुगतान के लिए मजबूर किया जाता है। इसलिए, पूंजीपति और श्रमिक के बीच के सम्बन्ध के बराबर दिखाने की कोशिश भूस्वामी और किराएदार के बीच के सम्बन्ध को पूरी तरह गलत ढंग से पेश करता है। पूंजीपति और श्रमिक के बीच के सम्बन्ध के विपरीत, हम यहाँ दो नागरिकों के बीच माल के सामान्य लेनदेन की चर्चा कर रहे हैं और यह लेनदेन, मालों की, खास कर ‘भू-सम्पत्ति’ शीर्षक मालों को बिक्री को निर्देशित करने वाले सामान्य आर्थिक नियमों के अनुसार, आगे बढ़ता है। गणना में सबसे पहले आता है मकान के निर्माण एवं उसके या उस हिस्से का रखरखाव जो किराये में लगाया जा रहा है; जमीन का मूल्य, घर के कम या ज्यादा अनुकूल स्थान पर बने होने से निर्धारित, उसके बाद आता है; तत्काल विद्यमान मांग और आपूर्ति के सम्बन्ध अन्त में तय करते हैं लेनदेन। यह सरल आर्थिक सम्बन्ध प्रुधोंवादी के दिमाग में इस तरह अभिव्यक्त होता है :
“घर जो एक बार बन चुका होता है, सामाजिक श्रम के निर्दिष्ट भग्नांश के लिए निरंतर कानूनी हक देता है जबकि घर के वास्तविक मूल्य के पर्याप्त से अधिक भुगतान किराए के रूप में मालिक को काफी पहले किया जा चुका होता है। इसलिए ऐसा होता है कि एक घर को, मिसाल के तौर पर अगर पचास साल पहले बना हो, उसके बाद की पूरी अवधि में मूल लागत का दोगुना, तीनगुना, पाँचगुना, दसगुना और उससे भी अधिक किराया मिल चुका होता है।”5
यहाँ हमें प्रुधों एक साथ पूरा का पूरा मिल जाते हैं। पहले तो यह भूला दिया जाता है कि किराया सिर्फ निर्माण की लागत पर सूद का ही भुगतान नहीं करता है, बल्कि मरम्मत एवं अदायगी-नहीं-हुए कर्ज तथा भुगतान-नहीं-हुए किरायों का भी भुगतान करता है। साथ ही, उन आकस्मिक अवधियों का भी भरपाई करता है जब घर बिना किराएदार का था6। और अन्तत:, सालाना किश्त में, घर के निर्माण में निवेश किए गए पूंजी का भी भुगतान करता है; भूस्वामी के ध्यान में यह भी रहता है कि समय के साथ यह घर सड़ जायेगा, रहने लायक नहीं रहेगा और इसकी कोई कीमत नहीं रहेगी। प्रुधोंवादी यह भी भूल गये होते हैं कि किराये में उस जमीन के बढ़े हुए मूल्य पर सूद भी चुकाना पड़ता है जिस पर वह मकान खड़ा किया गया है और इसलिये उस सूद का एक हिस्सा जमीन का किराया (ग्राउंड रेंट) भी होता है। हमारे प्रुधोंवादी अविलम्ब घोषणा करते हैं - यही सच है कि चुँकि किराए में यह वृद्धि भूस्वामी द्वारा कुछ भी खर्च किए बिना की जाती है, इसलिए इस वृद्धि पर अधिकार उसका नहीं, पूरे समाज का होता है। हालांकि, इस यथार्थ को वह देख नहीं पाता है कि इस तरह वह वास्तव में भूसम्पत्ति का ही खात्मा चाहता है; इस मुद्दे पर अभी आगे बढ़ें तो बहुत दूर जाना पड़ेगा। और अन्तत: वह इस यथार्थ को भी देख नहीं पाता है कि पूरा लेनदेन घर के मालिक से घर खरीदने का नहीं बल्कि निश्चित समय के लिए उसके इस्तेमाल को खरीदने का होता है। प्रुधों, जिसने कभी भी किसी आर्थिक परिघटना के पीछे की सच्ची, वास्तविक परिस्थितियों को जानने का कष्ट नहीं किया, स्वाभाविक तौर पर असमर्थ रहे इसकी व्याख्या करने कि किस तरह किसी घर के मूल लागत की अदायगी, किराए के रूप में, अगले पचास सालों में दस गुना तक हो जाती है। मुश्किल न होते हुए भी इस सवाल की आर्थिक दृष्टि से परख किए बगैर कि यह सच में आर्थिक नियमों का अन्तर्विरोधी है या नहीं, और अगर है तो किस तरह, प्रुधों अर्थनीति से सीधा न्यायशास्त्र में साहसी छलांग लगाते हैं : “घर, जब बन जाता है, निरंतर कानूनी हक देता है” एक निश्चित वार्षिक भुगतान पर। कैसे यह होता है, कैसे घर कानू्नी हक बन जाता है, इस पर प्रुधों चुप रहते हैं। जबकि इसी की उन्हे व्याख्या करनी थी। अगर वह इस प्रश्न का परीक्षण करते तो पाते कि दुनिया के सारे कानूनी हक, कितना भी निरंतर क्यों न हो, पचास वर्षों में, किराए के रूप में किसी घर को उसके लागत के दस गुने की अदायगी की ताकत नहीं देती है। सिर्फ आर्थिक परिस्थितियाँ (जिन्हे, हो सकता है कानूनी हक के रूप में सामाजिक स्वीकृति मिल चुकी हो) ये ताकत नहीं देती है। और यह जानने के बाद वह फिर वहीं होते जहाँ से उन्होने शुरु किया था।
पूरी प्रुधोंवादी शिक्षा, आर्थिक यथार्थ से कानूनी पदावली की ओर इस बचाव वाली छलांग पर आधारित होती है। जब भी हमारे अच्छे प्रुधों को, चीजों का अर्थनीति से जुड़ाव छूट जाता हैं – और ऐसा उन को हर गंभीर समस्या के साथ होता है – वह कानून की दुनिया में पनाह लेते हैं और श्वाश्वत न्याय की गुहार लगाते हैं।
“प्रुधों पहले अपने न्याय – श्वाश्वत न्याय - का आदर्श उन न्यायशास्त्रीय सम्बन्धों से लेते हैं जो मालों के उत्पादन के अनुरूप होता है; और इस तरह – इसे नोट किया जाय – वह सभी अच्छे नागरिकों की सान्त्वना के लिये साबित करते हैं कि उत्पादन के एक रूप के तौर पर मालों का उत्पादन उतना ही स्थाई है जितना न्याय। तब वह घूमते हैं और मालों के वास्तविक उत्पादन में तथा उसके अनुरूप बने न्याय की वास्तविक प्रणाली में अपने आदर्श के अनुसार सुधार लाना चाहते हैं। हम उस रसायनशास्त्री के बारे में क्या धारणा बनायेंगे जो वस्तु के संघटन व विघटन में होते आणविक बदलावों के वास्तविक नियमों के अध्ययन के बजाय तथा उसके आधार पर निर्दिष्ट समस्याओं के समाधान करने के बजाय, ‘शाश्वत विचारों’ के द्वारा, ‘स्वाभाविकता’ एवं ‘आत्मीयता’ के द्वारा वस्तु के संघटन व विघटन को नियंत्रित करने का दावा करता है? अगर हम कहें कि ‘श्वाश्वत न्याय’, ‘श्वाश्वत समानता’, ‘श्वाश्वत सहअस्तित्व’ की धारणाओं का विरोधी है ‘सूदखोरी’, तो क्या हम ‘सूदखोरी’ के बारे में थोड़ा सा भी अधिक जान पायेंगे? क्या हम गीर्जाघर के उन पाद्रियों से भी थोड़ा अधिक जान पायेंगे जब वे कहते हैं कि ‘सूदखोरी’, ‘श्वाश्वत ईश्वरीय कृपा’, ‘श्वाश्वत आस्था’ और ‘श्वाश्वत ईश्वरीय ईच्छा’ से मेल नहीं खाता है?” (मार्क्स, पूंजी, पृ॰ 457)
हमारे प्रुधोंवादी उनके भगवान और मालिक से बेहतर कुछ कर नहीं पाते हैं:
“किराये का समझौता उन हजार विनिमयों में से एक है जो आधुनिक समाज में जीवन के लिए उतनी ही जरूरी है जितना पशुओं के शरीर में रक्त का संचालन। स्वाभाविक तौर पर यह इस समाज के हित में होगा अगर इन सारे विनिमयों को एक औचित्य की अवधारणा के अन्दर लाया जाय, यानी, अगर उन विनिमयों को हर जगह न्याय की सख्त आवश्यकताओं के अनुसार सम्पन्न किया जाय। कहा जाय तो, जैसा कि प्रुधों कहते हैं, समाज के आर्थिक जीवन को आर्थिक औचित्य तक उठना चाहिए, जबकि यथार्थ में, हम सब जानते हैं कि ठीक विपरीत होता है।”8
क्या यह विश्वासयोग्य है कि मार्क्स द्वारा प्रुधोंवाद का चरित्र इस निर्णायक पहलू से इतने संक्षिप्त व प्रामाणिक सटीकता के साथ उजागर करने के पाँच साल के बाद भी कोई जर्मन भाषा में इतना दिग्भ्रमित चीज छपवा सकता है? इन बेसिरपैर की बातों का मतलब क्या है? सिर्फ इतना कि आज के समाज को निर्देशित करने वाले आर्थिक नियमों के व्यवहारिक प्रभाव लेखक के न्यायबोध के खिलाफ जाता है और लेखक अपने इस पवित्र इच्छा पालते हैं कि व्यवस्था यूँ हों कि हालात में सुधार हो जाय – हाँ, अगर मेंढ़क के बच्चों के पूँछ होते तो वे मेंढ़क नहीं होते! और फिर, क्या पूरी पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में ‘औचित्य की एक अवधारणा व्याप्त’ नहीं है? श्रमिकों के शोषण करने के इसके अपने अधिकार का औचित्य? और अगर लेखक यह कहते हैं कि उनकी औचित्य की अवधारणा यह नहीं है, तो इससे क्या हम एक कदम आगे बढ़े?
खैर, हम आवास के सवाल पर वापस लौटें। हमारे प्रुधोंवादी अब उनकी ‘औचित्य की अवधारणा’ को खुला दौड़ाते हैं और हमारे लिये निम्नोक्त भावुक अभिव्यक्ति पेश करते हैं:
“हम बेहिचक इस बात पर जोर डालते हैं कि हमारे प्रशंसित देश की पूरी संस्कृति कि इस यथार्थ से अधिक भयानक विद्रुप कुछ नहीं है कि बड़े शहरों में 90% या उससे अधिक संख्या में जनता के पास कोई जगह नहीं जिसे वह अपनी कहे। नैतिक व पारिवारिक अस्तित्व, घरगृहस्थी के वास्तविक केन्द्रक विन्दु को बहा ले जा रहा है सामजिक भँवर … इस दृष्टिसे हम बर्बरों से भी काफी नीचे हैं। गुफामानव का अपना गुफा है, ऑस्ट्रेलियाई की अपनी मिट्टी की झोपड़ी है, भारतीय का अपना चुल्हा है लेकिन आधुनिक सर्वहारा व्यवहारिक तौर पर बीच-हवा में लटका हुआ है,” इत्यादि।9        
इस विलाप में हमें प्रुधोंवाद उसके पूरे प्रतिक्रियावादी रूप में दिखता है। सर्वहारा को आधुनिक क्रान्तिकारी वर्ग बनाने के लिये, जमीन के साथ कायम श्रमिक के अतीत गर्भनाल को काटना पूरा जरूरी था। बुनकर जिसके पास तांत के साथ अपना छोटा सा घर, बगीचा और खेत था, तमाम बदहाली और राजनीतिक दबाव के बावजूद एक शांत, संतुष्ट आदमी था; वह धनवान, पाद्री और सरकारी अधिकारियों के सामने अपनी टोपी उतार कर सलाम करता था और भीतर से पूरी तरह एक गुलाम था। निश्चित तौर पर आधुनिक बड़े उद्योगों ने ही उसे श्रमिक में तब्दील किया है - पहले जो जमीन के साथ जंजीरों से बंधा था उसे पूरी तरह सम्पत्तिहीन सर्वहारा बना दिया है, सारे पारम्परिक बन्धनों से मुक्त कर दिया है,10 एक उन्मुक्त कानून-बहिष्कृत । जिन एकमात्र परिस्थितियों में श्रमिक वर्ग के शोषण को उसके अंतिम रूप में, पूंजीवादी उत्पादन के रूप में उखाड़ फेंका जा सकता है उन्हे निश्चित तौर पर इसी आर्थिक क्रांति ने तैयार किया है। और तब आता है यह आँसूभरा प्रुधोंवादी और श्रमिकों को उसके घरगृहस्थी से भगाये जाने पर विलाप करता है जैसे कि यह उनके बौद्धिक मुक्ति की पहली शर्त होने के बजाय विराट प्रतिगमन हो।
27 वर्ष पहले, इंग्लैन्ड में श्रमिक वर्ग की स्थिति में मैने, 18वीं सदी के इंग्लैन्ड में चलने वाली, घरगृहस्थी से श्रमिकों के भगाये जाने की ठीक इसी प्रक्रिया का वर्णन किया था।11 इस काम के अपराधी जमीन व कारखाना मालिकों की दुष्टताओं का, अनिवार्य तौर पर सबसे पहले श्रमिकों पर इस बहिष्कार के पड़ रहे भौतिक व नैतिक हानिकारक प्रभावों का भी यथोचित ढंग से वर्णन किया गया था। लेकिन क्या मेरे दिमाग में घुस पाया था कि इसे, जो उन परिस्थितियों में विकास की, पूरे तौर पर आवश्यक एक ऐतिहासिक प्रक्रिया थी, ‘बर्बरों से नीचे’ ले जाने वाला प्रतिगमन माना जाय? असम्भव! सन 1872 का अंग्रेज सर्वहारा, अपनी ‘घरगृहस्थी’ सहित सन 1772 के ग्रामीण बुनकर से बेहद उँचे स्तर पर है। और, क्या गुफामानव अपनी गुफा के साथ, ऑस्ट्रेलियाई अपनी मिट्टी की कुटिया के साथ या भारतीयो अपने चूल्हे के साथ कभी कोई जून विद्रोह12 या पैरिस कम्यून कर पायेगा?
इस बात पर बुर्जुवा के अलावा कोई सन्देह नहीं करेगा कि बड़े पैमाने पर पूंजीवादी उत्पादन शुरु होने के बाद श्रमिकों की स्थिति भौतिक तौर पर बदतर हुई है। लेकिन क्या इसके चलते हम पीछे की ओर, उन ग्रामीण छोटे उद्योगों की ओर जहाँ सिर्फ गुलाम आत्मायें पैदा होती थी, या ‘बर्बरों’ की ओर चाहत भरी नजरों से, मिस्र के ‘गोश्त के कटोरों’13(जिसमें गोश्त भी पिछड़ी जिन्दगी की और चीजों की तरह थोड़े से होते थे) की तरह देखते रहें? ठीक इसके विपरीत हो हमारी नजर। इन आधुनिक बड़े उद्योगों के द्वारा सृजित सर्वहारा ही - जिसे जमीन सहित विरासत में मिले तमाम बन्धनों से मुक्त कर, झुंड में बड़े शहरों में लाया गया है - उस महान सामाजिक बदलाव को ला सकता है जो सभी तरह के वर्गीय शोषण एवं वर्गीय शासन को समाप्त करेगा। घरगृहस्थी वाले पुराने ग्रामीण हाथ के बुनकर कभी भी यह कर नहीं पाते; करने की इच्छा तो दूर, वे कभी इस बारे में सोच भी नहीं पाते।
दूसरी ओर, प्रुधों के लिए पिछले सौ वर्षों की पूरी औद्योगिक क्रांति, वाष्पीय शक्ति के इस्तेमाल की तथा बड़े कारखानों में उत्पादन की शुरुआत – जिसमें हाथों के श्रम की जगह मशीने ले लेती हैं और श्रम की उत्पादकता हजार गुना बढ़ा देती है – एक अरुचिकर घटना है जिसे वास्तव में कभी होना ही नहीं चाहिए था। टुटपूंजिया प्रुधों एक ऐसी दुनिया में जाना चाहता है जहाँ हर आदमी अलग अलग और स्वतंत्र चीज का उत्पादन करता है जो तत्काल उपभोग करने लायक एवं बाज़ार में विनिमय के लायक होता है। और उस स्थिति में, जब तक हर आदमी को उसके श्रम का पूरा मूल्य दूसरे उत्पादों के तौर पर वापस मिल जाता है तब तक ‘श्वाश्वत न्याय’ सन्तुष्ट होता है और सबसे अच्छी संभावित दुनिया का सृजन हो जाता है। लेकिन प्रुधों की यह सबसे अच्छी संभावित दुनिया को खिलने से पहले ही औद्योगिक विकास की अग्रगति के द्वारा कतर दिया गया है तथा पैरों तले रौंद दिया गया है। औद्योगिक विकास की अग्रगति ने बहुत पहले ही उद्योग की सभी बड़ी शाखाओं में व्ययक्तिक श्रम को ध्वस्त कर दिया था। प्रति दिन यह ज्यादा से ज्यादा छोटी यहाँ तक कि सबसे छोटी शाखाओं में भी इसे ध्वस्त कर रहा है। औद्योगिक विकास की अग्रगति, काबू में लाई गई प्राकृतिक शक्तियों एवं मशीन की मददप्राप्त सामाजिक श्रम को उन व्ययक्तिक श्रमों की जगह पर ला रही है। इस सामाजिक श्रम से तैयार उत्पाद अविलम्ब विनिमय-योग्य एवं उपभोग-योग्य हैं और जिन हाथों से होकर इसे गुजरना पड़ा उन सभी व्यक्तियों का संयुक्त काम हैं। और निश्चित तौर पर यही औद्योगिक क्रांति है जिसने मानव-श्रम की उत्पादक शक्ति को इतने उँचे स्तर तक पहुँचा दिया है कि मनुष्यजाति की इतिहास में पहली बार एक संभावना आई है – कि अगर श्रम का विभाजन तार्किक ढंग से सभी आदमी के बीच हो तो न सिर्फ समाज के सभी सदस्यों के प्रचुर मात्रा में उपभोग के लिये और आरक्षित कोष के लिए, बल्कि हर एक व्यक्ति को पर्याप्त अवसर प्रदान करने के लिए पर्याप्त उत्पादन किया जा सकेगा। वह पर्याप्त अवसर जिसके मिलने से, ऐतिहासिक विरासत में मिली संस्कृति का जो कुछ बचाये रखने लायक है - विज्ञान, कला, आदान-प्रदान के रूप इत्यादि – न सिर्फ बचाये रखे जायेंगे बल्कि शासक वर्ग के एकाधिकार से पूरे समाज की सामान्य सम्पत्ति में तब्दील किए जायेंगे; हो सके कि और विकसित किए जायेंगे। और यहीं वह निर्णायक विन्दु है: ज्यों ही मानवश्रम की उत्पादक शक्ति उपरोक्त ऊँचाई तक पहुँचती है, एक शासक वर्ग के अस्तित्व के सारे बहाने अदृश्य हो जाते हैं। क्योंकि, आखरी वह तर्क जिस पर वर्गीय विभेदों का बचाव किया जाता था, यही होता था कि एक वर्ग ऐसा होना चाहिये जिसे अपने प्रति दिन के भोजनादि के उत्पादन को लेकर परेशान न होना पड़े, ताकि उसे समाज के बौद्धिक कार्यों के प्रति ध्यान देने का समय मिल जाए। इस तर्क को अब तक बड़े पैमाने पर ऐतिहासिक समर्थन प्राप्त था। पिछले सौ वर्षों के औद्योगिक उत्पादन ने अंतिम रूप से इस तर्क का जड़ ही काट दिया है। शासक वर्ग का अस्तित्व प्रति दिन औद्योगिक उत्पादक शक्ति के विकास का बाधक तो बन ही रहा है, साथ में विज्ञान, कला और खास कर सांस्कृतिक आदान-प्रदान के रूपों के विकास के लिए भी बाधक बन रहा है। हमारे आधुनिक बुर्जुवा से अधिक उजड्ड कभी कोई था ही नहीं।
यह सब कुछ मित्र प्रुधों के लिए कुछ भी नहीं है। उन्हे बस ‘शाश्वत न्याय’ चाहिये। हर आदमी को उसके उत्पादों के एवज में उसके श्रम का पूरा वापस मिलेगा, उसके श्रम का पूरा मूल्य मिलेगा। लेकिन आज के आधुनिक उद्योग के  उत्पादों में इसकी गणना बहुत जटिल है। क्योंकि आधुनिक उद्योग का उत्पाद किसि व्यक्ति के हिस्से को धुंधला देता है। पुराने व्यक्तिगत हस्तशिल्प में बना एक उत्पाद नि:सन्देह एक व्यक्ति के श्रम का प्रतिनिधित्व करता था। फिर आधुनिक उद्योग व्ययक्तिक विनिमय को भी ज्यादा से ज्यादा खत्म कर देता है, जिसके उपर प्रुधों की पूरी व्यवस्था निर्मित है – यानी, दोनो उत्पादक एक दुसरे के साथ सीधा विनिमय कर एक दूसरे का उत्पाद उपभोग के लिये प्राप्त करेंगे। फलस्वरूप, एक प्रतिक्रियावादी धार, पूरे प्रुधोंवाद में है: औद्योगिक क्रांति के प्रति एक द्वेष तथा एक कामना, कभी खुली कभी छुपी हुई, कि मन्दिर से समूचा आधुनिक उद्योग को निकाल-बाहर कर दिया जाय – भाप का इंजन, यांत्रिक करघा एवं व्यावसाय का बाकी सबकुछ – और पुराने, सम्मानजनक हाथों के श्रम की ओर लौटा जाय। अगर हम विनिमय को इस तरह संगठित करें कि हर व्यक्ति को ‘उसके श्रम के लाभ की पूरी प्राप्ति’ हो जाय और ‘शाश्वत न्याय’ पूरा हो जाय, तो क्या फर्क पड़ता है अगर हमारी उत्पादक शक्ति का, हजार में से नौ सौ निन्यानवें भाग खत्म हो जाय, पूरी मानवता भयानकतम श्रम-दासता में जीने को अभिशप्त हो जाय और भुखमरी सामान्य नियम बन जाय? न्याय हो, भले दुनिया बर्बाद हो जाय!14
न्याय हो, भले दुनिया बर्बाद हो जाय!
और यह दुनिया सचमुच खत्म हो जाती अगर प्रुधोंवादी प्रतिक्रांति का होना जरा सा भी संभव होता।
हालाँकि, यह अब स्वत:-प्रमाणित है कि आधुनिक बड़े उद्योगों के दौर में हो रहे सामाजिक उत्पादन में भी हर आदमी को ‘उसके श्रम के लाभ की पूरी प्राप्ति’ की गारंटी संभव है, बेशक अगर इस मुहावरे का कोई अर्थ बनता हो।15 और इस मुहावरे एक अर्थ तभी बन सकता है अगर इसे फैलाया जाय, कि हर एक व्यक्ति-श्रमिक को ‘उसके श्रम के लाभ की पूरी प्राप्ति’ नहीं बल्कि पूरा समाज, जिसमें सभी श्रमिक हों, अपने श्रम के कुल उत्पाद का कब्जा ले सके, जिसका एक हिस्सा वह समाज अपने सदस्यों के बीच उपभोग के लिए बाँटे, एक हिस्सा उत्पादन के साधनों को बदलने व बढ़ाने में लगाये और एक हिस्सा उत्पादन व उपभोग हेतु आरक्षित कोष के रूप में रखे।
उपर जो कुछ कहा गया, उसके बाद हम अब पहले से जानते हैं कि हमारे प्रुधोंवादी आवास के विराट प्रश्न का कैसे समाधान करेंगे। एक तरफ हमारी यह मांग है कि हर एक श्रमिक का अपना आवास होना चाहिए एवं उसे उस आवास का मालिक भी होना चाहिए ताकि हम बर्बरों से नीचे अब न रहें। दूसरी तरफ, हमारे पास यह आश्वासन है कि किराए के रूप में घर के मूल लागत की दो, तीन, पाँच और दसगुना अदायगी, जैसा कि वास्तव में हो रही है, कानूनी हक पर आधारित है और यह कानूनी हक ‘शाश्वत न्याय’ का विरोधी है। समाधान सरल है: हम कानूनी हक को खत्म कर दें और शाश्वत न्याय के अनुसार घोषणा कर दें कि किराए में दी गई रकम घर के लागत में किया गया भुगतान है। अगर किसी ने अपने तर्कों के आधार यूँ सजाए हैं कि अन्तिम निर्णय उसमें पहले से मौजूद हो, तब पहले से तैयार परिणाम को थैले से निकाल कर सामने रखने में और गर्व के साथ यह दिखाने में कि देखो, कितने अडिग तर्कशास्त्र का परिणाम है यह, किसी फर्जी डाक्टर से अधिक कौशल की जरूरत नहीं पड़ेगी।  
और यहाँ वैसा ही होता है। किराए के आवासों की व्यवस्था मिटाने को एक लक्ष्य के रूप में तथा एक मांग के रूप में कि हर किराएदार को उसके आवास का मालिक बना दिया जाय, पेश किया जाता है। अब हम कैसे इसे करें? बिल्कुल आसान:
“किराये के आवासों को फिर से मोल कर छुड़ाया जाएगा। … भूतपूर्व मकानमालिक को अंतिम कौड़ी तक उसके मकान का मूल्य चुका दिया जाएगा। अब तक किराएदार ने पूंजी पर उसके निरंतर हक के सम्मानस्वरूप किराया देता रहा। जिस दिन किराते के आवासों को मोल लेकर छुड़ाए जाने की घोषणा हो जाएगी, किराएदार द्वारा दिया गया निश्चित स्थिर रकम उसके कब्जे में चले गये आवास का वार्षिक किश्त हो जाएगा। … समाज … इस तरह खुद को आवासों के मुक्त और स्वतंत्र मालिकों के कुल समूह में तब्दील हो जाएगा।”16  
प्रुधोंवादी को लगता है कि मकानमालिक जो बिना किसी काम के भूमि-किराया एवं मकान मे निवेश की गई पूंजी पर व्याज17 वसूल कर लेता है यह शाश्वत न्याय के खिलाफ एक अपराध है। वह फर्मान जारी करता है कि यह अविलम्ब बन्द होना चाहिए, मकानों में लगी पूंजी पर व्याज नहीं मिलेगी; भूमि-किराया भी नहीं अगर वह खरीदी गई भूसम्पत्ति है। अब हम यह देख चुके हैं कि इससे वर्तमान समाज का आधार, पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली पर कोई असर नहीं पड़ेगा। वह धूरी जिस पर श्रमिकों के शोषण का चक्का घूमता है, वह है श्रमिक द्वारा उसके श्रमशक्ति का पूंजीपति को बेचा जाना एवं इस कारोबारी लेनदेन का पूंजीपति द्वारा इस्तेमाल – यह सच्चाई कि पूंजीपति श्रमिक को उसकी श्रमशक्ति के चुकाए गए मूल्य से काफी अधिक उत्पादन करने के लिए मजबूर करता है। यही वह कारोबारी लेनदेन है पूंजीपति और श्रमिक के बीच का जो पूरा अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन करता है और जिसका बाद में भिन्न भिन्न प्रकार के पूंजीपतियों एवं उनके सेवकों में भूमिकिराया, वाणिज्यिक मुनाफा, पूंजी पर व्याज18, कर आदि के रूप में विभाजन होता है। और अब हमारे प्रुधोंवादी चले आते हैं और विश्वास करते हैं कि अगर हम एक अकेले प्रकार के पूंजीपति के, ऐसा पूंजीपति जो न तो सीधे तौर पर कोई श्रमशक्ति खरीदता है और न फलस्वरूप कोई अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन का कारण बनता है, मुनाफा कमाने पर या व्याज19 प्राप्त करने पर प्रतिबंध लगा दें तो यह आगे बढ़ने वाला एक कदम होगा! कल अगर मकान-मालिकों को भूमिकिराया और व्याज प्राप्त करने से वंचित कर भी दिया जाय, श्रमिक वर्ग से लिए गए भुगतान-न-किए-गए श्रम का परिमाण ठीक उतना ही रहेगा जितना पहले था।20 फिर भी, हमारे प्रुधोंवादी घोषणा करने से बाज नहीं आते:
“इस तरह, किराए के आवासों को मिटाया जाना, क्रांतिकारी विचार के गर्भ से निकला सबसे सार्थक एवं भव्य आकांक्षाओं में से एक है और इसे सामाजिक जनवाद के प्राथमिक मांगों में से एक अवश्य होना चाहिए।21
यह ठीक प्रुधों की अपनी बाजारु चीख के अनुरूप है जिसमें कुकुड़कूँ की आवाज, दिए गये अंडों के आकार के उल्टे अनुपात में होती है।
और अब कल्पना कीजिए वह बेहतरीन स्थिति जब हर एक श्रमिक, टुटपूंजिए एवं बुर्जुवा को वार्षिक किश्त चुका कर अपने आवासों का, पहले आंशिक मालिक फिर पूरा मालिक बनने के लिए मजबूर किया जाएगा! इंग्लैन्ड के औद्योगिक जिलों में जहाँ बड़े उद्योग हैं लेकिन श्रमिकों के छोटे छोटे घर हैं और हर शादीशुदा श्रमिक अपना एक नन्हा सा घर लेकर रहता है, उपरोक्त योजना का कोई मतलब भी निकल सकता है। लेकिन पैरिस तथा महादेश के अधिकांश बड़े शहरों के छोटे उद्योगों के साथ बड़े मकान हैं जिनमें से प्रत्येक में दस, बीस या तीस परिवार एक साथ रहते हैं। मान लीजिए कि विश्व को मुक्त करनेवाले फर्मान के दिन, जब किराए के आवासों की मुक्ति की घोषणा की जाएगी, पीटर बर्लिन के अभियंत्रण कारखाने में काम कर रहा होगा। एक साल बाद वह, हमबर्गर टोर के इलाके में स्थित एक मकान के पाँचवें मंजिल पर स्थित छोटे से एक घर के अपने फ्लैट या उसके पन्द्रहवें हिस्से का मालिक होगा। उसके बाद उसकी नौकरी चली जाएगी और जल्द ही वह खुद को, हैनोवर के पोटहोफ में स्थित एक मकान की तीसरी मंजिल पर वैसा ही एक फ्लैट में पाएगा जिसकी खिड़की से आंगन का अद्भुत सुन्दर दृश्य दिखेगा। वहाँ पाँच महीने रहते हुए वह इस सम्पत्ति के 1/36वाँ हिस्से का बस मालिक बन पाया होगा जब एक हड़ताल उसे म्युनिख भेज देगा। म्युनिख में इग्यारह महीने रहकर वह ओबेर-ऐंगरगैस के पीछे वाले रास्ते के बराबर एक मनहूस से घर के 11/180वाँ हिस्से का मालिक बनने को मजबूर होगा। उसके बाद के बहिष्कार, जैसा कि आजकल श्रमिकों के साथ अक्सर हो रहा है, उस पर सेंट-गैल के भी पसन्दीदा आवास का 7/360वाँ हिस्सा, लीड्स के आवास का 23/180वाँ हिस्सा और सेरैंग के तीसरे फ्लैट का 347/56223वाँ हिस्सा लाद देगा ताकि ‘श्वाश्वत न्याय’ की ओर से कुछ भी शिकायत न रहे। और अब, पीटर के लिए इतने फ्लैटों के ये सारे हिस्से किस काम के होंगे? कौन उसे इन हिस्सों का वास्तविक मूल्य देगा? कहाँ उसे उसके विभिन्न कुछ-दिनों-तक-रहे-हुए फ्लैटों के बाकी हिस्सों का मालिक मिलेगा या मालिकगण मिलेंगे? और, ठीक क्या होगा सम्पत्ति सम्बन्ध उन बड़े मकानों का जिसके कई मंजिलों में मान लीजिए बीस फ्लैट हैं एवं, जब उद्धारकालीन समय पार हो जाएगा तथा किराये के फ्लैट मिटा दिये जाएंगे, उन बीस फ्लैटों के शायद तीन सौ आंशिक मालिक पूरी दुनिया में बिखरे हुए होंगे? हमारे प्रुधोंवादी जवाब देंगे कि तब तक प्रुधोंवादी विनिमय बैंक22 बन चुके होंगे जो किसी को किसी भी समय किसी श्रमोत्पादित वस्तु का पूरा श्रम भुगतान कर दिया करेगा और इसीलिए, किसी फ्लैट में हिस्से का भी पूरा मुल्य दे देगा। लेकिन पहले तो हमारा सरोकार प्रुधोंवादी विनिमय बैंकों से नहीं है क्योंकि आवास के प्रश्न पर छपे निबंधों में कहीं भी उसका जिक्र नहीं है। दूसरा, यह एक अजीब चूक पर टिका है कि अगर कोई किसी माल को बेचना चाहेगा तो उसे निश्चित ही, हमेशा उस माल को पूरे मूल्य पर खरीदने वाला कोई क्रेता मिल जाएगा। और तीसरा, प्रुधों द्वारा इजाद किए जाने से पहले इस तरह का बैंक, इंग्लैन्ड में श्रम विनिमय बाज़ार23 के नाम से एकाधिक बार दिवालिया हो चुका है।
श्रमिक को अपना आवास खरीदना चाहिये वाली पूरी अवधारणा, प्रुधोंवाद की आधारभूत प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण पर खड़ी है कि आधुनिक बड़े उद्योगों के कारण बनी परिस्थितियाँ बीमार रसौलियाँ हैं। समाज को जबर्दस्ती, पिछले सौ वर्षों से बढ़ रही बड़े-उद्योग-जनित परिस्थितियों से खींच कर उन परिस्थितियों में ले जाया जाय जहाँ व्यक्ति द्वारा संचालित पुराना स्थिर हस्तशिल्प ही सिर्फ रहेगा। सामान्यत:, यह उन लघु उद्यमों की आदर्शवादी पुनर्स्थापना की बात है जो मिट चुके हैं और तेजी से मिट रहे हैं। इस दृष्टिकोण को पहले ही रेखांकित किया गया है। एक बार उन स्थिर परिस्थितियों में श्रमिक वापस फेंक दिये गये हों और ‘सामाजिक भँवर’ को खुशी-खुशी हटा दिया गया हो तो श्रमिक स्वाभाविक तौर पर ‘घरगृहस्थी’ में सम्पत्ति का इस्तेमाल करेंगे। अगर ऐसा हो तो उद्धार का सिद्धांत कम बेतुका लगेगा। प्रुधों बस भूल जाते हैं कि यह सब कुछ करने के लिए उन्हे विश्व इतिहास की घड़ी की सुई को एक सौ साल पीछे ले जाना पड़ेगा। और अगर वह ऐसा करें तो वह आज के दिन के श्रमिकों को उनके परदादों की तरह संकीर्ण सोच वाले, रेंगनेवाले, चापलूसी करनेवाले गुलाम आत्माओं में तब्दील कर देंगे।        
हालाँकि, आवास के प्रश्न के इस प्रुधोंवादी समाधान में अगर कुछ तार्किक और व्यवहारिक तौर पर लागू किए जाने लायक तत्व हैं तो उन्हे पहले से ही लागू किया जा रहा है। लेकिन ‘क्रांतिकारी विचार के गर्भ’ से अवतरित कार्यसम्पादन के रूप में नहीं बल्कि खुद बड़े पूंजीपतियों के द्वारा। बेहररीन स्पेनीय अखबार, माद्रिद से प्रकाशित ला इमैन्सिपैसिओन का मार्च 16, 187224 अंक क्या कहता है, सुना जाय:
“आवास के प्रश्न का प्रुधों द्वारा सुझाया गया समाधान पहली नज़र में तो चौंधिया देता है लेकिन करीब से जाँचने पर उसकी नित्तांत दुर्बलता दिखती है। पर वैसा ही समाधान के दूसरे भी साधन हैं। प्रुधों ने सुझाया कि किराएदारों को पहले किश्त की योजना के द्वारा खरीदारों में तब्दील किया जाय, सालाना दिए जा रहे किराए को एक विशेष आवास के मूल्य के उद्धारक भुगतान के किश्त के तौर पर दर्ज किआ जाय ताकि एक निश्चित समय के बाद किराएदार उस आवास का मालिक बन जाएगा।25 यह पद्धति, जिसे प्रुधों बहुत क्रांतिकारी मानते थे, सभी देशों में सट्टेबाजों की कम्पनियों द्वारा लागू की जा रही है – किराए को बढ़ाकर वे मकान के मूल्य का दुगना तिगुना हासिल कर रहे हैं। एम्॰ डॉलफस एवं पूर्वोत्तर फ्रांस के अन्य बड़े कारखानेदारों ने इस प्रणाली को न सिर्फ पैसा कमाने के उद्देश्य से बल्कि दिमाग के पिछले खाने में एक राजनीतिक विचार को रखते हुए लागू किया है।
“शासक वर्ग के सबसे चतुर नेताओं ने हमेशा ही छोटे मालिकों की संख्या में वृद्धि की तरफ अपने प्रयासों को निर्देशित किया है ताकि सर्वहारा के खिलाफ उनकी अपनी एक सेना का निर्माण किया जा सके। पिछली सदी की बुर्जुवा क्रांतियोँ ने कुलीन वर्गों एवं गिर्जाओं के बड़ी रियासतों को छोटे छोटे अंशों में बांट दिया था। स्पेनीय प्रजातंत्री भी आज बचे हुए बड़ी रियासतों को खत्म करना चाहते हैं। इस तरीके से उन्होने छोटे भूमिमालिकों के एक ऐसे वर्ग का सृजन कर दिया है जो समाज के सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी एक वर्ग बन गए हैं एवं वे शहरी सर्वहारा के क्रांतिकारी आन्दोलनों के लिये स्थाई बाधक हैं। नेपोलियन III ने, सार्वजनिक ॠण के व्यक्तिगत ॠणपत्रों का मान कम कर, शहरों में भी वैसा ही एक वर्ग के सृजन का लक्ष्य रखा था। उधर एम॰डॉलफस एवं उनके सहमार्गी वार्षिक किश्तों के भुगतान पर श्रमिकों को छोटे छोटे घर बेच कर उनके तमाम क्रांतिकारी उत्साह का गला घोँटना चाह्ते थे, साथ ही, उस सम्पत्ति के माध्यम से श्रमिकों को, एक बार किसी कारखाने में काम लग जाने के बाद उसी कारखाने के साथ बांधे रखना चाह्ते थे।26 इस तरह प्रुधों की योजना, श्रमिक वर्ग को कोई राहत देना तो दूर, सीधे तौर पर श्रमिकों के खिलाफ भी खड़ी हो गई थी।”27
तो फिर, आवास के प्रश्न का समाधान कैसे किया जाय? दूसरे किसी भी सामाजिक प्रश्न का आज के समाज में जिस तरह निपटारा किया जाता है, यानि मांग एवं पूर्ति में क्रमश: आने वाली आर्थिक समानता के द्वारा। एक ऐसा निपटारा जो उस प्रश्न को ही बार बार पैदा करता है और फलस्वरूप कोई निपटारा नहीं होता है। किस तरह एक सामाजिक क्रांति इस प्रश्न का निपटारा करेगा यह न सिर्फ हर एक विशेष मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करेगा बल्कि दूसरे, काफी अधिक दूरगामी प्रश्नों के साथ जुड़ा होगा, जिनमें सबसे बुनियादी होगा शहर और गाँव के बीच के विरोधाभासों को मिटाया जाना। चुँकि भविष्य के समाज को संगठित करने के लिये आदर्शलोकीय व्यवस्थाओं का सृजन हमारा कार्यभार नहीं है, इसलिये इस प्रश्न यहाँ विचार करना आलस्य से भी अधिक होगा। लेकिन एक बात निश्चित है: बड़े शहरों में पहले से ही वास्तविक ‘आवासीय कमी’ के तत्काल इलाज हेतु पर्याप्त परिमाण में घर बने हुए हैं, बशर्ते उनका उचित इस्तेमाल हो। स्वाभाविक तौर पर यह वर्तमान मालिकों के घरों को जब्त कर, बेघर या अभी भीड़-भरे घरों में रह रहे श्रमिकों को उन जब्त घरों में टिकाने का इन्तजाम करने के द्वारा ही होगा। ज्यों ही सर्वहारा का राजनीतिक सत्ता पर विजय होगा, सार्वजनिक हित के लिए उठाए गए इस तरह के कदम उतने ही आसान होंगे जितना मौजूदा सत्ता के द्वारा की गई बेदखलियाँ और सैनिकों-को-टिकाने-के-लिये-जब्तियाँ आज हुआ करती हैं।
हालाँकि हमारे प्रुधोंवादी, आवास के प्रश्न पर अपनी पूर्व की उपलब्धियों पर संतुष्ट नहीं हैं। उन्हे इस प्रश्न को सतह से उठा कर उच्चतर समाजवाद की दुनिया में ले जाना होगा ताकि वह साबित कर सकें कि वहाँ भी, यह “सामाजिक प्रश्न का” आवश्यक “आंशिक हिस्सा” होगा:
“मान लिया जाय कि पूंजी की उत्पादकता को वास्तविक तौर पर सिंग-से-पकड़ा [‘नियंत्रण’ शब्द के लिए एक मुहावरा – अनु॰] जा चुका है। ऐसा होना ही है, मसलन, एक संक्रमणकालीन कानून के द्वारा जो सभी पूंजी पर व्याज की दर एक प्रतिशत पर स्थिर कर देगा। लेकिन आप लिख लें, प्रवृत्ति यह होगी कि व्याज की इस दर को भी ज्यादा से ज्यादा शून्य के करीब लाया जाय ताकि अन्त में पूंजी को पुनरुत्पादित करने के लिए आवश्यक श्रम से अधिक कुछ भी न दिया जाय। दूसरे तमाम उत्पादों की तरह, मकान एवं आवास भी स्वाभाविक तौर पर इस कानून के दायरे में आयेंगे… मालिक खुद सबसे पहले अपने मकान को बेचने के लिए राजी होंगे क्योंकि नहीं होंगे तो उनका मकान का कोई इस्तेमाल नहीं होगा और उसमें लगी पूंजी बिल्कुल बेकार हो जाएगी।”28
इस उद्धृत अंश में प्रुधोंवादी प्रश्नोत्तरी के मुख्य धर्मसिद्धांतों में से एक शामिल है जो उस दृढ़विश्वास में मौजूद भ्रम का अनोखा उदाहरण है।
पूंजी की उत्पादकता” एक बेतुकी अवधारणा है जो प्रुधों, बुर्जुवा अर्थशास्त्रियों से बिना जाँचे ले लेते हैं। यह सत्य है कि बुर्जुवा अर्थशास्त्री भी शुरु करते हैं इसी प्रस्तावना के साथ कि श्रम ही सारी धनदौलत का स्रोत एवं सारे मालों के मूल्य का मान है, लेकिन उन्हे इस बात की भी व्याख्या करनी होती है कि कैसे पुंजीपति, जो एक औद्योगिक या हस्तशिल्प व्यवसाय में पूंजी लगाता है, अन्त में न सिर्फ लगाई गई पूंजी बल्कि उसके उपर एक मुनाफा भी कमाता है। फलस्वरूप वे अपने तर्कजाल में तमाम किस्म के अन्तर्विरोधों में फँसने और पूंजी में भी कुछ उत्पादकता होने की बात करते हैं। पूंजी की उत्पादकता के इस मुहावरे को ले लेना, किसी दूसरी बात से अधिक दिखाता है कि प्रुधों किस कदर बुर्जुवा सोच में उलझे रहते हैं। हम शुरु में ही यह देख चुके हैं कि तथाकथित “पूंजी की उत्पादकता”, पूंजी में अन्तर्जात (मौजूदा सामाजिक सम्बन्धों में, जो न होते तो पूंजी पूंजी ही नहीं होती) मजदूरों के भुगतान-न-किए-गए श्रम को हड़प जाने के गुण के अलावे और कुछ नहीं है।
हालाँकि, बुर्जुवा अर्थशास्त्रियों से प्रुधों भिन्नता रखते हैं। वह “पूंजी की उत्पादकता” को मंजूर नहीं करते बल्कि इसमें वह “शाश्वत न्याय” के उल्लंघन का खोज करते हैं। इसी उत्पादकता के कारण श्रमिक को उसके श्रम की पूरी प्राप्ति नहीं हो पाती है। इसलिए इसे अवश्य समाप्त किया जाना चाहिए। लेकिन कैसे? बाध्यतामूलक कानून जारी कर व्याज की दर को कम करते हुए अन्तत: शून्य में पहुँचाकर। तब, हमारे प्रुधोंवादी के अनुसार, पूंजी उत्पादक नहीं रहेगा।
ॠण दी गई नगद पूंजी पर व्याज, मुनाफे का सिर्फ एक हिस्सा होता है। औद्योगिक पूंजी हो या वाणिज्यिक, व्याज उस अतिरिक्त मूल्य का बस एक हिस्सा होता है जो पूंजीपति वर्ग श्रमिक वर्ग से भुगतान-न-किए-गए श्रम के रूप में ले लेता है। किसी एक व एकरूप समाज के दो कानूनों में एक दूसरे से जितना स्वातंत्र्य हो सकता है उतना ही व्याज की दर सम्बन्धी कानून और अतिरिक्त मूल्य की दर सम्बन्धी कानून के बीच है। लेकिन जहाँ तक व्यक्ति पूंजीपतियों के बीच इस अतिरिक्त मूल्य के बँटवारे का ताल्लुक है, यह स्पष्ट है उन उद्योगपतियों एवं वणिकों के लिए जिनके व्यवसायों में दूसरे पूंजीपतियों की पूंजी बड़ी मात्रा में लगी हुई है, मुनाफे की दर अवश्य उतनी बढ़ेगी जितनी व्याज की दर गिरेगी, बशर्ते बाकी बातें बराबर हों। व्याज का कम किया जाना और अन्त में समाप्त किया जाना, फलस्वरूप, तथाकथित “पूंजी की उत्पादकता” को वास्तव में कतई “सिंग से” नहीं पकड़ती है। यह बस श्रमिक वर्ग से बिन-चुकाए लिए गए अतिरिक्त मूल्य के, व्यक्ति पूंजीपतियों के बीच विभाजन को पुनर्व्यवस्थित करता है। यह औद्योगिक पूंजीपति के विरुद्ध श्रमिक को कोई बढ़त नहीं देता है, बल्कि किरायाजीवी [उजरती - अनु॰] पूंजी के विरुद्ध औद्योगिक पूंजीपति को बढ़त देता है।
प्रुधों सामाजिक उत्पादन के शर्तों के द्वारा नहीं, बल्कि कानून की नज़र से व्याज की दर की व्याख्या करते हैं। ऐसा ही वह सभी आर्थिक तथ्यों के साथ करते हैं। ये राज्यसत्ता के वही कानून होते हैं जिनमें सामाजिक उत्पादन के उन शर्तों को अपनी सामान्य अभिव्यक्ति मिलती है। प्रुधों के इस नजरिए से, जिसमें समाज में उत्पादन के शर्तों के साथ राज्यसत्ता के कानूनों के अन्तर्सम्बन्धों का आभास तक नहीं होता है, ये कानून नि:सन्देह मनमाना आदेश जैसे दिखते हैं जिन्हे किसी भी समय ठीक उनके विपरीत कानूनों से बदल दिया जा सकता है। इसलिए प्रुधों के लिए – ज्यों ही उन्हे आवश्यक शक्ति प्राप्त हो जाय – व्याज की दर को घटा कर एक प्रतिशत करने का हुक्मनामा जारी करने से आसान कुछ भी नहीं है। अगर सारे सामाजिक शर्त यथावत रहें, प्रुधोंवादी यह हुक्मनामा बस कागज पर रहेगा। व्याज की दर उन्ही आर्थिक नियमों के द्वारा शासित होंगी जिनके द्वारा वे आज हो रही हैं, चाहे कुछ भी हुक्मनामा रहे। जिनके पास ॠण देने लायक पैसा होगा वे पहले की ही तरह, परिस्थिति के अनुसार दो, तीन, चार और उससे अधिक प्रतिशत पर पैसा ॠण देंगे और सिर्फ एक ही फर्क होगा कि किरायाजीवी अत्यंत सावधान होंगे और उन्हे ही पैसा अग्रिम देंगे जिनकी तरफ से कानूनी झगड़े की आशंका न हो। और सबसे बड़ी बात कि पूंजी को उसकी “उत्पादकता” से वंचित करने की यह महान योजना उतना ही पुराना है जितने ये पहाड़। ये उतने ही पुराने हैं जितने कि सूदखोरी कानून जिनके लक्ष्य व्याज की दर को सीमित करने के अलावे और कुछ नहीं थे और जिन्हे हर जगह इसीलिए समाप्त कर दिया गया है क्योंकि व्यवहार में वे बार बार तोड़े या दरकिनार किये जाते थे, और राज्यसत्तायें यह स्वीकार करने को मजबूर हुईं कि सामाजिक उत्पादन के नियमों के सामने वे कानून बेअसर हैं। और फिर से उन्ही मध्ययुगीन एवं निष्प्रभावी कानूनों को “पूंजी की उत्पादकता को सिंग से पकड़ने” के लिए लागू किया जाय? जितने करीब से प्रुधोंवाद की जाँच की जाती है वह उतनी ही प्रतिक्रियावादी दिखती है।
और जब इस तरीके से व्याज की दर घटा कर शून्य कर दी जाएगी और पूंजी पर व्याज मिटा दिया जाएगा, तब “पूंजी की वापसी के लिए जरूरी श्रम से अधिक कुछ भी भुगतान नहीं किया जाएगा”। इसका यही अर्थ माना जा रहा है कि व्याज की दर की समाप्ति मतलब मुनाफे की समाप्ति, यहाँ तक कि अतिरिक्त मूल्य की समाप्ति। लेकिन, वास्तव में अगर हुक्मनामे के द्वारा व्याज की समाप्ति सम्भव भी होता तो उसका परिणाम क्या होता? किरायाजीवियों के वर्ग के लिए अग्रिम के रूप में पूंजी ॠण देने का कोई प्रलोभन नहीं बचता। लेकिन तब वे औद्योगिक तौर पर उस पूंजी का निवेश करते, या तो खुद या जॉयंट स्टॉक कम्पनियों के माध्यम से। पूंजीपति वर्ग द्वारा श्रमिक वर्ग से निचोड़े गये अतिरिक्त मूल्य की मात्रा एक ही रहती, सिर्फ बँटवारे में बदलाव आया होता, वह भी अधिक नहीं।
सच तो यह है कि हमारे प्रुधोंवादी यह देखने से चूकते हैं कि बुर्जुवा समाज में मालों की खरीद में औसतन “पूंजी की वापसी के लिए जरूरी श्रम” से अधिक कुछ भी भुगतान नहीं किया जाता है (पढ़ें, सम्बन्धित माल के उत्पादन के लिए जरुरी)। सभी मालों के मूल्य का मान है श्रम, और वर्तमान समाज में – बाज़ार के उतारचढ़ावों से अलग – यह पूर्णत: असम्भव है कि कुल जोड़ में मालों को औसतन, उन्हे उत्पादित करने लिए आवश्यक श्रम से अधिक का भुगतान मिले। नहीं, नहीं मेरे प्रिय प्रुधोंवादी, कठिनाई किसी दूसरी जगह पर है। कठिनाई इस तथ्य में है कि “पूंजी की वापसी के लिए आवश्यक श्रम” (आपके भ्रामक पारिभाषिक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए) का बस पूरा भुगतान नहीं किया जाता है ! कैसे यह होता है आप मार्क्स के ग्रंथ में देख सकते हैं (पूंजी, पृ॰ 128-6029)।
लेकिन, उतना ही नहीं। अगर पूंजी पर व्याज समाप्त हो जाए, आवास किराया भी उसी के साथ समाप्त ह जाएगा, क्योंकि, “दूसरे उत्पादों की तरह, घर और आवास भी स्वाभाविक तौर पर इस कानून के दायरे में शामिल हो जायेंगे”। यह बिल्कुल उस बुढ़े मेजर के उत्साह के साथ मेल खाता है जिसने अपने एक साल के लिए स्वयंसेवक बने रंगरूट को बुलाया और घोषणा किया:
“मैंने सुना है कि तुम डाक्टर हो। तुम कभी कभी मेरे क्वार्टर में आ जाया करना। जब किसी को एक पत्नी और सात बच्चे हों तो हमेशा ही कुछ न कुछ इलाज की जरुरत पड़ती है।”
रंगरूट: क्षमा कीजिए मेजर साहब, मैं तो दर्शनशास्त्र में डाक्टर हूँ।”
मेजर: मेरे लिए एक ही बात है, सारे हड्डीकाट [डाक्टर या सर्जन के लिए अपशब्द – अनु॰] एक ही तरह के होते हैं।”
हमारे प्रुधोंवादी उसी तरीके का आचरण करते हैं: आवास किराया या पूंजी पर व्याज, व्याज मतलब व्याज30, दोनों बराबर हैं उनके लिए; हड्डीकाट हड्डीकाट होते हैं।
हमने उपर देखा कि किराया-कीमत, आम तौर पर जिसे आवास किराया कहा जाता है, में निम्नांकित अंश हैं: 1) भूमि किराया [लगान – अनु॰] का एक हिस्सा; 2) मकान बनाने में लगी पूंजी पर व्याज का एवं साथ ही निर्माता के मुनाफे का एक हिस्सा; 3) मरम्मत एवं बीमा के लिए लगने वाली राशि; 4) एक वो हिस्सा जो वार्षिक कटौतियों में घर के क्रमश: विमूल्यन [डेप्रेसियेशन] की दर के अनुसार, मुनाफा सहित निर्माण-पूंजी का परिशोधन करता है।
और अब यह बिल्कुल अंधे के लिए भी निश्चित स्पष्ट हो गया होगा कि
मालिक को ही सबसे पहले बिक्री के लिये राज़ी होना होगा नहीं तो उसका मकान बिना इस्तेमाल के रह जाएगा और उसमें लगी पूंजी बस बेकार चली जाएगी”।
बेशक्। अगर ॠण दिए गए पूंजी पर व्याज समाप्त हो जाय, किसी मकान-मालिक को अपने मकान के लिए एक कौड़ी भी किराए के एवज में प्राप्त नहीं होगा, क्योंकि आवास किराए को भी किराया-व्याज कहा जा सकता है और उस किराया-व्याज में एक हिस्सा वास्तव में पूंजी पर व्याज होता है। हड्डीकाट मतलब हड्डीकाट। जबकि पूंजी पर साधारण व्याज से सम्बन्धित सूदखोरी कानूनों को धोखा देकर बेअसर किया जा सकता है, तब भी उन्होने आवास किराए की दर को दूर से भी नहीं छुआ। वह कल्पना करना प्रुधों के लिए आरक्षित रहा कि उनका नया सूदखोरी कानून बिना झूठझमेला के न सिर्फ पूंजी का साधारण व्याज बल्कि घरों का जटिल आवास किराया को भी नियंत्रित करेगा तथा क्रमश: समाप्त कर देगा।31 तो फिर उस “बस बेकार” घर को अच्छा पैसा लगाकर मकान मालिक से खरीदा क्यूँ जाय? और क्यूँ, इन परिस्थितियों में मकान मालिक खुद ही पैसे देकर इस “बस बेकार” घर से छुटकारा पाना नहीं चाहेगा ताकि मरम्मत आदि का खर्च बच जाय – इस बारे में हमें अंधकार में रख दिया गया है।
उच्चतर समाजवाद (उस्ताद प्रुधों इसे अतिसमाजवाद32 कहते हैं) के क्षेत्र में इस विजयी उपलब्धि के बाद हमारे प्रुधोंवादी और ऊँचा उड़ने को खुद के लिए न्यायसंगत मानते हैं:
“अब जो कुछ अभी भी करने को बचा है वह है कुछ निष्कर्ष तक पहुँचना ताकि हमारे इतने महत्वपूर्ण विषय पर सभी तरफ से पूरी रौशनी डाली जा सके।”33
और वे निष्कर्ष क्या हैं? अब तक कही गई तमाम बातों से उन निष्कर्षों का उतना ही रिश्ता है जितना व्याज की समाप्ति से आवासीय मकानों के बेकार होने का है। लेखक के गर्वित और गंभीर कथनशैली को हटा दिया जाय तो उनका अर्थ सिर्फ इतना है किराये के घरों के उद्धारकार्य की सुविधा के लिए  निम्नलिखित किया जाना चाहिए: 1) विषय पर ठोस आंकड़े; 2) एक अच्छा सफाई जाँच बल; 3) नये मकान बनाने का काम लेने के लिए निर्माण श्रमिकों की सहकारितायें। ये सभी चीजें भली और अच्छी हैं, लेकिन उन पर लिपटे गये तमाम शोरगुल वाले मुहावरों के बावजूद वे कहीं से भी प्रुधोंवादी मानसिक भ्रम की अस्पष्टता पर “पूरी रौशनी” नहीं डालती हैं।
जिसने इतनी महान चीजों को प्राप्त किया है उसे जर्मन श्रमिकों से गंभीर आग्रह करने का अधिकार है:
“इसी प्रकार की एवं अनुरूप सवालों पर, हमें लगता है कि सामाजिक जनवाद को ध्यान देना चाहिए… जैसे यहाँ आवास के प्रश्न पर, वैसे ही दूसरे एवं समान महत्वपूर्ण प्रश्नों, जैसे ॠण, राज्यसत्ता के कर्ज, निजी कर्ज, कर… पर यह अपने दिमाग को स्पष्ट करने की इच्छा व्यक्त करे” इत्यादि।34
इस तरह हमारे प्रुधोंवादी “अनुरूप प्रश्नों” पर निबंधों की एक शृंखला की सम्भावना लेकर सामने आते हैं, और अगर वे उन तमाम प्रश्नों पर उतनी ही गहराई से विचार करें जितना कि उन्होने मौजूदा “इतने महत्वपूर्ण विषय” पर किया, तो वोकस्टाट को एक वर्ष के लिए प्रतियों की सामग्री मिल जाएगी। लेकिन हम पूर्वानुमान करने की स्थिति में हैं कि सारे विचार अन्तत: उस एक बात पर आयेंगे जो पहले ही कह दिया जा चुका है – पूंजी पर व्याज को मिटा दिया जाएगा और उसके साथ सार्वजनिक व निजी ॠण पर व्याज खत्म हो जाएगा, ॠण धर्मार्थ में मिलेगा इत्यादि। एक ही जादुई नुस्खा हर एक विषय में लागू किया जाता है और हर एक विशेष मामले में कठोर तर्क के साथ एक ही आश्चर्यजनक परिणाम मिलता है कि जब पूंजी पर व्याज मिटा दिया जाएगा तब कर्ज लिए गए पैसे कोई व्याज नहीं देना पड़ेगा।
बेहतरीन प्रश्न हैं वे, जिनके सहारे प्रुधोंवादी हमे धमकी देते हैं: ॠण! घर का सामान बंधक रखने वाली दुकान से जो कर्ज श्रमिक को हफ्ता दर हफ्ता लेना पड़ता है, उसके अलावे उसे कौन से ॠण की जरूरत पड़ती है? वह कर्ज उसे मुफ्त में मिले या व्याज पर, बंधकी-दुकान की ऊँची दर की व्याज पर भी, उससे उसे क्या फर्क पड़ता है? और अगर उसे सामान्यत:, कर्ज पर व्याज के न लगने से कुछ बढ़त भी मिले, मतलब, यूँ कहे कि श्रमशक्ति के उत्पादन का खर्च कम हो तो क्या श्रमशक्ति की कीमत का गिरना भी अवश्यम्भावी नहीं होगा? – लेकिन बुर्जुवा के लिए, खास कर टुटपूंजिए के लिए ॠण एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, और खास कर टुटपूंजिए के लिये यह बहूत अच्छी बात होगी अगर ॠण किसी भी समय उपलब्ध हो, वह भी व्याज के भुगतान के बिना। “राज्यसत्ता के कर्ज!” श्रमिक वर्ग जानता है कि उसकी देन नहीं है यह कर्ज, और जब वह खुद सत्ता में आएगी तो उन कर्जों का भुगतान उन पर छोड़ देगी जिन्होने उस कर्ज के लिए अनुबंध किया था। “निजी कर्ज!” – देखें ॠण। “कर!” एक मुद्दा जिसमें बुर्जुवा को बहुत रुचि है लेकिन श्रमिक को बहुत कम। जो श्रमिक भुगतान करता है कर के तौर पर वह दूरगामी प्रभाव में श्रमशक्ति के उत्पादन के खर्च में शामिल होता है और इसीलिए पूंजीपति उसकी क्षतिपूर्ति करता है। ये सारी चीजें जो हमारे सामने श्रमिक वर्ग के लिए अति महत्वपूर्ण प्रश्नों के रूप में रखे गये हैं, वास्तव में सिर्फ बुर्जुवा के, और भी अधिक टुटपूंजियों के लिए आवश्यक तौर पर रुचिकर हैं। प्रुधों के आह्वान के बावजूद, हम यही खयाल रखते हैं कि श्रमिक वर्ग को इन वर्गों के हितों की रक्षा करने के लिए कोई बुलावा नहीं आया है।
हमारे प्रुधोंवादी को एक शब्द भी उस बड़े प्रश्न पर नहीं बोलना है जिसका वास्तव में श्रमिकों से सरोकार है – पूंजीपति एवं मजदूर के बीच का सम्बन्ध; यह प्रश्न कि किस तरह यह होता है कि पूंजीपति अपने श्रमिकों के श्रम पर खुद को धनवान बना ले पाता है। यह सही है कि हमारे प्रुधोंवादी के प्रभु एवं मालिक ने इस प्रश्न पर खुद को नियोजित किया था लेकिन वह इस मामले में कुछ भी स्पष्टता नहीं ला पाए। अपने हाल के लेखनों में भी वह अपनी कृति दरिद्रता का दर्शन के सारतत्व से आगे नहीं जा पाए। सन 1847 में मार्क्स ने उक्त पुस्तक को मर्मभेदी तरीके से शून्य बना दिया था।35
यह यथेष्ट बुरी स्थिति थी कि पिछले पचीस वर्षों तक रोमांस भाषाएं [फ्रांसिसी, इतालवी, स्पेनी, पोर्तुगीज, रुमानी आदि भाषाएं – अनु॰] बोलने वाले श्रमिकों के लिए इस “द्वितीय साम्राज्य के समाजवादी” के अलावे कोई दूसरा मानसिक खुराक, फीका खुराक भी नहीं था। अब यह दुगना दुर्भाग्य होगा अगर प्रुधोंवादी सिद्धांत जर्मनी को भी डुबा दे। खैर, इससे डरने की कोई जरूरत नहीं है। जर्मन श्रमिकों की सैद्धांतिक समझदारी प्रुधोंवाद से पचास साल आगे है, और इस दिशा में आगे के झंझटों से बचने के लिए इस एक प्रश्न, आवास के प्रश्न को उदाहरण बनाना ही पर्याप्त होगा।

        
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1- [ए॰ मुलबर्गर] ‘डाय वोनुंग्सफ्राय्जे’, डेर वोकस्टैट, संख्या 10-13, 15, 19, फरवरी 3, 7, 10, 14, 21, मार्च 6, 1872 - सम्पादक
2- मार्क्स द्वारा रचित ‘मिजेरे द्य ला फिलोसोफी…’ (दरिद्रता का दर्शन), ब्रसेल्स एवं पैरिस, 1847
3- सम्पूर्ण रचनावली के सम्पादक (स॰र॰स॰) लिखते हैं कि ‘पैरिस’ शब्द को एंगेल्स ने 1887 ईसवी में जोड़ा था।
4- [ए॰ मूलबर्गर] उद्धृत कृति, डेर वोकस्टाट, संख्या 12, फरवरी 10, 1872 – स॰र॰स॰
5- [ए॰ मूलबर्गर] उद्धृत कृति, डेर वोकस्टाट, संख्या 10, फरवरी 3, 1872 – स॰र॰स॰
6- वाक्य का बाकी हिस्सा एंगेल्स ने 1887 ईसवी के संस्करण में जोड़ा था – स॰र॰स॰
7- एंगेल्स सन 1867 के पहले जर्मन संस्करण से उद्धृत करते हैं। एंगेल्स द्वारा सम्पादित पूंजी, खंड 1, लंदन, 1867 का पृ॰ 56 देखें – स॰र॰स॰  
8- [ए॰ मूलबर्गर] उद्धृत कृति, डेर वोकस्टाट, संख्या 11, फरवरी 7, 1872 – स॰र॰स॰
9-                      - वही -                           – स॰र॰स॰
10- डेर वोकस्टाट  में ‘बन्धनों’ के बजाय ‘संस्कृति’ शब्द है - स॰र॰स॰  
11- देखें सम्पूर्ण रचनावली, मौजुदा संस्करण, पृ॰ 307-27 – स॰र॰स॰
12- जून 1848 में पैरिस के श्रमिकों का वीरतापूर्ण विद्रोह; मार्क्स-एंगेल्स रचित ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ एवं उसका फ्रांसिसी संस्करण उसी द्रोहकाल में प्रकाशित हुआ था।    
13- बाइबिल की कथाओं के अनुसार मिस्र से भाग रहे इजराइलियों में से जो कमजोर दिल वाले थे, यात्रा की कठिनाइयों एवं भूख के कारण उन्हे मिस्र में कैदियों का जीवन बिता रहे वे दिन याद आ रहे थे जब उन्हे यथेष्ट भोजन गोश्त के कटोरों के रूप में मिल रहा था।
14- पवित्र रोमक साम्राज्य के सम्राट फर्दिनान्द 1 का लक्ष्य-वाक्य – स॰र॰स॰
15- अगला वाक्य एंगेल्स द्वारा 1887 संस्करण में जोड़ा गया था - स॰र॰स॰
16- [ए॰ मूलबर्गर] उद्धृत कृति, डेर वोकस्टाट, संख्या 12, फरवरी 10, 1872 – स॰र॰स॰
17- डेर वोकस्टाट में ‘व्याज’ के बजाय ‘मुनाफा’ है - स॰र॰स॰
18- ‘पूंजी पए व्याज’ शब्द एंगेल्स द्वारा 1887 संस्करण में जोड़े गये थे - स॰र॰स॰
19- ‘या व्याज प्राप्त करने से’ शब्द एंगेल्स द्वारा 1887 संस्करण में जोड़े गये थे - स॰र॰स॰
20- डेर वोकस्टाट में ‘व्याज’ के बजाय ‘मुनाफा’ है – स॰र॰स॰
21- [ए॰ मूलबर्गर] उद्धृत कृति, डेर वोकस्टाट, संख्या 12, फरवरी 10, 1872 – स॰र॰स॰         
22- गैर-मौद्रिक विनिमय के आदर्शलोकीय नीति के आधार पर विनिमय बैंक संगठित करने की कोशिश सन 1848-49 की क्रांति के दौरान प्रुधों द्वारा की गई थी। प्रुधों को विश्वास था कि इस तरह का एक बैंक, ॠण सुधार के द्वारा सामाजिक अन्याय को समाप्त करेगा तथा प्रुधों को उनका आदर्श – बराबर की हैसियत वाले माल-उत्पादकों का एक समाज जहाँ उन्मुक्त ढंग से श्रम के सेवाओं एवं उत्पादों का विनिमय होता हो – हासिल करने में मदद करेगा। हालाँकि, पैरिस में दिनांक 31 जनवरी 1849 को उनके द्वारा स्थापित बैंके दु पिउप्ल, नियमित काम शुरु करने से पहले ही दिवालिया हो गया और उसी साल अप्रैल की शुरुआत में बन्द हो गया।   
23- श्रम विनिमय बाज़ार या निष्पक्ष श्रम विनिमय बाज़ार या कार्यालय इंग्लैन्ड के विभिन्न शहरों में सहकारी श्रमिक समितियों द्वारा संगठित किए गए थे। पहला वैसा बाज़ार रॉबर्ट ओवेन द्वारा सितम्बर 1832 में लन्दन में बनाया गया था जो 1834 के मध्य तक चला। श्रमोत्पादित वस्तु वहाँ श्रम-कागजी-मुद्रा के साथ विनिमय किया जाता था; मूल्य की इकाई हुआ करती थी काम का घन्टा। वैसे उद्यम पूंजीवादी मालों की अर्थव्यवस्था के अन्दर गैर-मौद्रिक विनिमय संगठित के आदर्शलोकीय प्रयास थे जो जल्द ही दिवालिया हो गये।
24- [पी॰लाफार्ग] “आर्टिकुलोस द्य प्रिमेरा नेसेसिदाद, II, ला हैबितासिओन”, ला इमैन्सिपैसिओन, संख्या 40, मार्च 16, 1872 – स॰र॰स॰
25- प्रुधों ने आवास के प्रश्न का ऐसा समाधान उनके द्वारा रचित आइडिए जेनेराले द ला रिवोल्युशोन अ XIXए सिएक्ल (पहला संस्करण सन 1851 में पैरिस में निकला था; सन 1868 के पैरिस संस्करण का पृ॰ 199-204 देखें)। सन 1851 में ही एंगेल्स ने मार्क्स के अनुरोध पर पुस्तक का विशद आलोचनात्मक विश्लेषण किया था। प्रुधों के सामान्य सुधार्वादी विचार एवं उनके अराजकतावादी मतों की अव्यवहार्यता को दिखाते के उपरांत एंगेल्स ने, घर के किराएदार को मालिक बनाने की प्रुधों की परियोजना के आदर्शलोकीय चरित्र को नोट किया। प्रुधों ने अपनी परियोजना को तथाकथित ‘सामाजिक परिसमापन’ – टुटपूंजिया आदर्शों से प्रेरित होकर समाज का शांतिपूर्ण परिवर्तन - को लागू करने के एक कदम के रूप में सुझाया था (देखिए मौजुदा संस्करण, खण्ड 11, पृ॰ 560-61)। एंगेल्स के अपने ग्रंथागार में प्रुधों की किताब के 1868 संस्करण की प्रति मौजूद थी। उस प्रति के हाशिए पर लिखे गए नोट शायद एंगेल्स के हैं जब वह आवास के प्रश्न पर काम कर रहे थे।
26- लुई बोनापार्ट द्वारा जनवरी 22, 1852 को हस्ताक्षर किए गए हुक्मनामे की ओर ध्यान खींचा गया है। इस हुक्मनामे के द्वारा राज्यसत्ता ने, श्रमिकों के लिए आवास के निर्माण हेतु 10,000,000 फ्रांक (आवश्यक पूंजी का एक तिहाई) का ॠण जारी किया था। मुलहाउज (आलसाशे) में कारखानादार जाँ डॉलफस ने इस उद्देश्य से सोसाइटे द सिटी ओवरियेरे [शहर के श्रमिकों की समिति] स्थापित किया। लगभग 15 वर्षों तक बढ़ा हुआ मासिक किराया देने के बाद श्रमिक, इस समिति द्वारा निर्मित घरों के मालिक बन गए।
‘आवास के प्रश्न’ के द्वितीय भाग में एंगेल्स ने इस उद्यम के वास्तविक लक्ष्य एवं इसकी परिणति पर विशद ढंग से लिखा है।  
27- आवास के प्रश्न का यह, श्रमिक को अपने ‘घर’ के साथ बांधने के माध्यम से किया गया समाधान कैसे स्वत:स्फूर्त ढंग से अमरीका के बड़े या तेजी से बढ़ रहे शहरों में सामने आ रहा है, इलिऑनर मार्क्स-एवलिंग द्वारा लिखित एक चिट्ठी के निम्नलिखित अंश से स्पष्ट होता है:
इन्डियानापोलिस, नवम्बर 28, 1886: “कैनसस सिटी में या उसके निकट के इलाकों में हमने लकड़ी के छोटे, दयनीय झोपड़ियाँ देखी। हर एक झोपड़ी में तीन कमरे थे। अभी भी जंगल में थीं वे झोपड़ियाँ। जमीन की लागत थी 600 डॉलर और बस उतनी ही बड़ी थी कि वह छोटा सा घर उस पर खड़ा हो सके। उस घर की भी लागत थी 600 डॉलर यानि कुल मिलाकर 4,800 मार्क [अमरीकी डॉलर को जर्मन मार्क में तब्दील किया गया – अनु॰] उस मनहूस छोटी सी चीज के लिए जो शहर से एक घंटे की दूरी पर, एक कीचड़भरे रेगिस्तान में थी।” इस तरह श्रमिक अब वैसे घरों को भी प्राप्त करने के लिए बंधकी ॠण की भारी रकम अपने कंधों पर ढोयेंगे और अब सच में अपने मालिकों के गुलाम बनेंगे। वे अब घरों से बंधे हैं, वे कहीं नहीं जा सकते हैं, और जैसी भी परिस्थितियोँ में उन्हे काम करने को कहा जाय, वे करेंगे। [यह नोट एंगेल्स ने सन 1887 के संस्करण में जोड़ा था।]
28- [ए॰ मूलबर्गर] उद्धृत कृति, डेर वोकस्टाट, संख्या 13, फरवरी 14, 1872 – स॰र॰स॰
29- मिला लें, पूंजी का अंग्रेजी संस्करण, खण्ड 1, लन्दन, 1887, पृ॰ 143-178 - स॰र॰स॰  
30- मूल जर्मन संस्करण में आवास किराया एवं पूंजी पर व्याज के लिए जर्मन शब्द, क्रमश: “मियेतज़िन्स” एवं “कापिटालज़िन्स” में से लेकर व्यंग में “ज़िन्स इस्ट ज़िन्स” लिखा गया है - स॰र॰स॰
31- “हमने उपर देखा कि किराया-कीमत …… क्रमश: समाप्त कर देगा” अंश को एंगेल्स ने सन 1887 के संस्करण के लिए सम्पादित किया था। डेर वोकस्टाट की संख्या 53, जुलाई 3, 1872 में यह अंश यूँ है:
“हमने उपर देखा कि किराया-कीमत, आम तौर पर जिसे आवास किराया कहा जाता है, निम्नांकित चीजों से बना है: 1) एक हिस्सा जो भूमि किराया होता है; 2) एक हिस्सा जो निर्माण-पूंजी पर व्याज नहीं, मुनाफा होता है; 3) एक हिस्सा जो मरम्मत, रखरखाव एवं बीमा का खर्च होता है। इसका कोई हिस्सा पूंजी पर व्याज नहीं होता है, जब तक मकान बंधकी ॠण का भारग्रस्त न हो जाय।
“और अब यह बिल्कुल अंधे के लिए भी स्पष्ट हो गया होगा कि ‘मालिक खुद ही सबसे पहले बिक्री के लिए राज़ी होगा क्यों कि नहीं तो उसके मकान का कोई इस्तेमाल नहीं होगा और उसमें लगी पूंजी बस बेकार हो जाएगी’। बेशक। अगर ॠण में दी गई पूंजी पर व्याज खत्म कर दिया जाय तो किसी मकान मालिक एक कौड़ी भी उसके घर के किराए के रूप में नहीं मिलेगा, इसलिए कि मकान किराया को किराया-व्याज भी कहा जा सकता है। हड्डीकाट मतलब हड्डीकाट्।“
“इसका कोई हिस्सा पूंजी पर व्याज नहीं होता है, जब तक मकान बंधकी ॠण का भारग्रस्त न हो जाय” वाक्य के बाद, सन 1872 में प्रकाशित आवास का प्रश्न भाग 1 के अलग मुद्रण में एंगेल्स ने निम्नलिखित नोट दिया था जिसे सन 1887 संस्करण में हटा दिया गया:
उस पूंजीपति को जो एक तैयार मकान खरीदता है, किराया-कीमत का एक हिस्सा जो भूमिकिराया एवं उपरी प्रभारों से न बना हो, पूंजी पर व्याज के रूप लग सकता है। लेकिन इससे बदलता कुछ भी नहीं क्योंकि कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मकान का निर्माता घर को किराए पर लगाता है या इसी उद्देश्य से किसी दूसरे पूंजीपति को मकान बेच देता है।“ – स॰र॰स॰
32- पी॰ जे॰ प्रुधों, सिस्तिएम द कॉन्ट्रादिक्शन्स इकोनमिक्स, औ फिलोसफी द ला मिसेरे, खण्ड I, पैरिस, 1846, भाग III, (प्रुधों “अतिसामाजिक” लिखते हैं) – स॰र॰स॰
33- [ए॰ मूलबर्गर] उद्धृत कृति, डेर वोकस्टाट, संख्या 13, फरवरी 14, 1872 – स॰र॰स॰
34-                     - वही – स॰र॰स॰
35- कार्ल मार्क्स, एम॰ प्रुधों रचित “दरिद्रता का दर्शन” के जवाब में लिखा गया “दर्शन की दरिद्रता” - स॰र॰स॰