Friday, December 1, 2017

साइकिल पर कन्याकुमारी

नगाड़े का पूर्वाभ्यास
1970 के मार्च महीने की शुरुआत तक हम पूरी तरह तैयार हो चुके थे । हम मतलब, मैं, चपल बनर्जी, बिष्टुपद दत्ता, असीत पर्वत और आशीष आयकत। हमारी साइकिलें तैयार थीं, 14 छेद वाले रेंच, रबड़ चिपकाने के सल्युशन, ट्यूब के टुकड़े, कैंची, सरेस कागज आदि के साथ किट भी तैयार कर लिये थे लेकिन छोड़ना पड़ा क्योंकि हैन्डपम्प खरीदने के पैसे नहीं जुट पाये। मेरे पास थे पचीस रुपये, चपल के पास भी लगभग उतने ही थे, बिष्टु बताया तो था कि उतने ही उसके पास भी हैं, पर बाद में शक के घेरे में आ गया था । असीत के पास नि:सन्देह ज्यादा रहा होगा; थोड़ा शौक रखता था बेचारा । आशीष निश्चिन्त था कि आधा रास्ता जाते जाते उसके वापसी की बुलाहट आ जायेगी – उसके बीमार पिता की जगह उसे नौकरी पर रखने के लिये औपचारिक अनुशंसायें आदि हो चुकी थीं । फिर भी इन्हे लेकर पाँच लड़कों की टीम बनाने का कारण थे हमारे प्रिन्सिपल सर एवं हमारे परिवार । हम सब वाणिज्य महाविद्यालय के छात्र थे एवं हमारे प्रिन्सिपल सर, पी॰ एन॰ शर्मा - जिनसे हम सभी डरते थे - को खुश करना था कि एक बड़ी टीम को उन्हे कॉलेज के गेट से रवाना करना है । दूसरी ओर, परिवार को तसल्ली देना था कि हम सब अपने अपने घरों के अकेले सिरफिरे नहीं हैं। हमारा छोटा सा दस्ता है । खैर सब कुछ तैयार था । घरों अपनी माँओं को भी हम, जहाँ तक मजबूरी थी रुला चुके थे । तारीख तो याद नहीं पर इतना याद है कि निकलने के बारह दिन बाद होली आई थी । वह भी एक खास कारण से याद है ।
घर से निकल कर पाँचों कॉलेज में जुटे और फिर कुछेक दर्जन छात्रों की उपस्थिति में प्रो॰ पी॰ एन॰ शर्मा ने हमें विदा किया । आखरी वक्त तक सुझाव देने वालों में ‘तैराक मिहिर सेन के एक्स्प्लोरर्स क्लब से स्पॉन्सर करा लेने’ से लेकर ‘साथ में रिवॉल्वर रख लेने’ को कहने वाले शामिल रहे पर हमने उनमे से किसी की नहीं सुनी । हाँ, दो साल पहले साइकिल से राजगीर जाते वक्त बख्तियारपुर से आगे हमने रास्ते में खजूर का ताजा ‘वैसक्खा’ (ताड़ का नहीं भई) उतार कर ले जाने वालों को पकड़ा था, उन्ही के टिफिन का डब्बा भर कर पिया था, इस बार भी पीना है, ये बात याद थी ।
लेकिन वे रास्ते में मिले नहीं । पहला दिन पैर सबका खुल नहीं रहा था । हम में से किसी का कोई परिचित भी था बिहारशरीफ में । वहीं हम खाना खाये और रात को रुक गये । किस तरह रुके, यानि कहाँ सोये बिल्कुल याद नहीं । लेकिन उनके एक सुझाव पर हमने तत्काल अमल करना शुरु किया जो बहुत काम आया पूरी यात्रा में । बल्कि जहाँ तक याद है उन्होने यानि, घर के जो अभिभावक थे, खुद ही शुरुआत करवा दी । एक मोटी कॉपी मंगवाई और बिहारशरीफ थाने पर हमे ले जा कर लिखवा लिया, “अमुक, अमुक (पाँच जनों का नाम) आज (तारीख) को पटना से शाम 7 बजे बिहारशरीफ पहुँचे । कल सुबह वे यहाँ से आगे के लिये गया के रास्ते रवाना होंगे ।” थाने का मुहर लगवा दिया उस पर । हिदायत भी दी कि जहाँ भी रात को रुकना हो पहले थाने पर जाकर इस डायरी पर इसी तरह लिखवा लें। बाद में, खास कर आंध्र प्रदेश में श्रीकाकुलम वगैरह का इलाका पार करते समय, यहाँ तक कि त्रिवन्द्रम (आज का तिरुअनन्तपुरम) पहुँच कर भी यह डायरी बहुत काम दिया । बल्कि कई जगह तो सिपाहियों से दोस्ती भी हो गई उस डायरी के कारण ।
अगले दिन सुबह राजगीर होते हुये गया पहुँचे और वहाँ भी रुक जाना पड़ा । किसी का कोई परिचित था वहाँ भी । फिर अगली सुबह आगे बढ़े तो बोध गया होते हुये डोभी पहुँचे । जी॰ टी॰ रोड पर चढ़ कर रोमांचित हुये । अब शुरु हुआ नैशनल हाइवे का सफर ।
रात में बरही रुक गये । और फँस गये । यानि लगा कि गये । सरकारी बंगला बिलकुल खाली था । चौकीदार को पटिया कर घुस गये एक कमरे में । रात के दस बजे गाड़ी की आवाज हुई । चौकीदार ने खबर दी कि दिल्ली से कलकत्ता जा रहे हैं सीआइडी या सीबीआई के कोई बड़ा अफसर । थोड़ी देर में बुलाहट भी आ गया । उस वक्त नक्सलवाद का आन्दोलन बिहार में युवाओं को रोमांचित कर रहा था । पर उस वक्त हमें एक दम ही रोमांच नहीं हो रहा था सोच कर कि झूठमुठ इन्टेरोगेशन के नाम पर अगली सुबह रोक लिये जायें । यह तो तय था कि दिल्ली से कलकत्ता यह बड़ा अफसर नक्सलवाद से ही सम्बन्धित काम से जा रहा था । … खैर, हम उनके कमरे में गये । जान बची जब लगा कि कल सुबह रुकना नहीं पड़ेगा । बल्कि उन्होने हमें शाही कप (जो सरकारी मेहमान के लिये रखा रहता था) में चाय पिलाया, विलायती सिगरेट 555 का पैकेट आगे बढ़ाया जिसमें से मैंने और शायद असीत ने एक एक सिगरेट लिया । हमारी साइकिल यात्रा की योजना के बारे में जानकारी ली और फिर हमें शुभकामना देते हुये गुडनाइट कहा ।
अगली शाम गोविन्दपुर से धनबाद के लिये मुड़ गये । जाना ही था, आशीष की फुआ (शायद) रहती थी और वहीं खबर को ‘इन्तजार’ करने के लिये भेजा गया था कि ‘आशीष आयेगा’ । नौकरी की खबर । आशीष को मिल गई और अगली सुबह हम आगे बढ़े चार ।
रात को दस बजे पहुँचे इसलामपुर, जिला बर्द्धमान । थाने पर लिखवाने काम तो हो गया पर कहीं जगह मिल नहीं रही थी ठहरने की । धरमशाला अगर था भी तो कोई बता नहीं पा रहा था । सड़क पर लोग भी कम थे । तभी किसी ने दिखाया कि वो सामने एक अनाथ आश्रम है, वहाँ पूछिये, शायद वे जगह दे दें, रात भर ठहरने की । हम पहुँचे तो एक बुढ़ीमाँ गेट में ताला लगा रही थी । हमारी बातें सुन कर, साथ में साइकिलें और सामान देख कर उन्हे भरोसा हुआ । रात में ठहरने के लिये उन्होने एक कमरा दे दिया । भूख लगी थी । बुढ़ीमाँ को कह कर हम निकले कि बस कुछ खा कर आ जायेंगे । वाह ! थोड़ी दूर आगे एक मोड़ पर पहुँचे तो दिखा कि बाज़ार पूरा रौशन है । हालाँकि सिर्फ मिठाई की दुकानें हैं, और उसमें भी, रात के ग्यारह बजे कड़ाही भर भर के समोसे छाने जा रहे हैं । पता किया तो मालूम हुआ कि अगले दिन कलकत्ता मैदान में समावेश है - लोग ट्रकों पर रवाना हो रहे हैं और साथ में समोसे से भरी टोकरियों जा रही हैं । हम भी समोसे खाये और लौट गये अनाथ आश्रम के उस घर में । हमें एहसास हो रहा था कि हमारे चारों तरफ कमरों में बच्चे हैं जो कुछ कुछ हमारे बारे में ही फुसफुसा रहे हैं । अगली सुबह दो-चार ने हमें उत्सुकता भरी नज़रों से देखा पर ज्यादा बातें नहीं हुई । हम भी निकल गये । हमारा लक्ष्य था कलकत्ता ।
कलकत्ता में कुछ हमारा इन्तजार कर रहा था । रात को आठ बजे हावड़ा का पुल पार करते हुये इतना तो पता चल गया था कि कलकत्ते में जोरदार बारिश हुई है । वह बारिश कितना था यह पता चला पुल से उतरते हुये । दूर से दिखाई दिया कि पानी जमा है । कितना होगा ! घुटना भर ! कमर तक ! इतना तो पटना में हर साल झेलते हैं । ब्रेक छोड़ कर साइकिल को हमने अपने मोमेन्टम में उतरने दिया । दुर्घटना की खास गुंजाइश नहीं थी क्योंकि सामने का मोड़ सूना था । … जब हम रुके तो सीना पानी के नीचे । हड़बड़ाकर साइकिल से उतरे तो ठुड्डी पानी छू रहा था और पैर जमीन ढूँढ़ रहा था । हालाँकि थोड़ी ही दूर तक यह स्थिति रही । उस वक्त फ्लाई ओवर नहीं थे । इसलिये कहीं घूमना नहीं था । स्ट्रैन्ड रोड पर चढ़ते चढ़ते पानी चलने लायक हो गया ।
चपल बनर्जी के भैया खिदिरपुर बन्दरगाह में नौकरी करते थे । हम वहीं ठहरे । और चार दिन ठहरे । मुझे भी बड़ी चाची के यहाँ जाना था और डाँट सुनना था । डाँट मिली और साथ में सख्त हिदायत कि वापस पटना ही लौटना है, आगे नही बढ़ना । बड़ी चाची लम्बी चौड़ी हुआ करती थी । पिताजी कहते थे ढाका में जब थी तो घोड़े पर चढ़कर पोलो खेलती थी । मानिकतल्ला में तीसरी मंजिल के उस फ्लैट में जब हम सारे बच्चे जुटते थे तो एक बड़ी थाली के चारों ओर हमें बिठाकर वह खाना खिलाती थी । … पैसे भी मिले पटना के टिकट के लिये । दिमाग में बात आई कि चलो आगे का जुगाड़ हो गया ।   
अगले दिन हम सब एक साथ गये राइटर्स । उस वक्त इतनी सख्ती भी नहीं थी । युनाइटेड फ्रॉन्ट सरकार के खेल मंत्री थे राम चटर्जी । उन्ही से मिले, आशीर्वाद बटोरे लेकिन अन्त में झिड़की खानी पड़ी । नेताजी से मिलना है सोच कर हाफ पैन्ट, गंजी उतार कर बैग में सलीके से रखा हुआ कुर्ता पाजामे का अकेला सेट पहन लिया था । मंत्रीजी जब नीचे उतर कर आये हमारे साथ एक तस्वीर के लिये तो डाँट दिया। “ये कौन सा ड्रेस है तुम लोगों का ? स्पोर्ट्समैन का ड्रेस पहन कर आना था, बाराती का ड्रेस पहन लिये !”
चारों रात जो हमने कलकत्ते के खिदिरपुर मोहल्ले के उस छोटे से घर में बिताये, नगाड़ों के आवाज से गूंजती रही । पीछे मोहमेडन स्पोर्टिंग का क्लब या फैन क्लब था । एक सप्ताह के बाद शील्ड का फाइनल होना था मोहमेडन के साथ किसी और – मोहन बागान या इस्ट बेंगॉल - के साथ । मोहमेडन स्पोर्टिंग फाइनल जीतेगा यह भरोसा था उनको । विजय जुलूस के लिये नगाड़ा बजाने का अभ्यास चल रहा था हर रात । उन्ही दिनों यह सच्चाई दिमाग में कौंधी थी, कि लड़ाई में जीतें या हारें, मेहनत सिर्फ विजय के लिये नहीं, विजय के उत्सव के लिये भी करनी पड़ती है ! कहीं भी, लड़नेवालों के मन के किसी भी कोने शक की गुंजाइश नहीं रहती है कि वे शायद नहीं भी जीतें ! …
कलकत्ता से आगे बढ़े तीन । असीत पर्बत थक चुका था, वह वापस लौट आया । जिस दिन सुबह को विदा हुये उस दिन बंगाल बन्द या आम हड़ताल का आह्वान था । हमें जल्दी हाइवे पर – एनएच6 – पर पहुँच जाना था । खिदिरपुर के रास्ते पर बच्चे निकल चुके थे कांटी (कील) का थैला और हथौड़ी लेकर । बीच सड़क पर कील ठोके जा रहे थे कि गाड़ी गुजरे और बुम, फुस्स …!
       
चिलका के किनारे रात, गर्म दूध
एन॰ एच॰ 6 यानि कलकत्ता-मुम्बई हाइवे पर थोड़ी दूर के बाद एन॰ एच॰ 5 यानि कलकत्ता-मद्रास हाइवे अलग हो जाता है । कांथी या कॉनटाइ थाने के ओसी द्वारा किया गया स्वागत याद है । भर तश्तरी मिठाइयाँ । और बहुत सारा उत्साह । रात को हम खड़गपुर से थोड़ा आगे एक कस्बे में रुके । क्या सोच कर रुके याद नहीं । एक आवासीय विद्यालय के परिसर में पहुँचे रात को और लड़कों ने हमे सर पर उठा लिया । हमारे लिये खाना बनाया, अपने हाथ से बिस्तर बिछाया मच्छरदानी के साथ । सामने अंधेरे में तालाब था । उसी में हम नहाये, फिर खाना खाये और सो गये । सुबह विदा होते वक्त बच्चे हाथ हिला हिला कर चिल्लाते रहे, “हम भी आ रहे हैं”! इस वाक्य के पीछे का परिदृश्य यह था कि उस समय इस तरह के यात्राओं की धूम मची थी, खास कर बंगाल में । कोई साइकिल पर, कोई पैदल तो कोई हिच-हाइकिंग करते हुये । रास्ते में कई बार हम मोतिहारी के एक लड़के को पार किये जो हिच-हाइकिंग कर रहा था । प्लानिंग पूरे भारत का था जैसा हमारा । हमारा तो पूरा हुआ नहीं, उसका हुआ कि नहीं हम नहीं जान पाये । एक और टीम मिला पाँच लोगों का, वे पैदल कन्याकुमारी जा रहे थे चावल, हँड़िया, नमक बांध कर । कहीं दोपहर हुआ, सूखी लकड़ी जुटाई, ईँटा जोड़ा कर चुल्हा बनाया और भात बना लिया । भात और नमक । एक दोपहर हम भी उनके साथ भात खाये थे तमिल नाडु में । फिर हमारी अगली भेँट तिरुचिरापल्ली में हुई थी क्योंकि चेन्नई में हम चार दिन रुक गये थे । खैर ये सब आगे की बातें हैं ।
उस रात को हम शायद बालेश्वर में रुके थे या भद्रक में, स्पष्टत: याद नहीं । भद्रक ही होगा । शायद थाने के ही परिसर में एक खुली जगह पर उन्होने बिस्तर लगाने की इजाजत दे दी थी । कुछ दे भी दिया था बिछाने को ।
भद्रक तक पहुँचने में और भद्रक से आगे कटक होते हुये भुवनेश्वर तक पहुँचने में कई नदियाँ आपको मिलती है । हमारे साथ उन नदियों के मुलाकात की खासियत यह थी कि हम उनकी धारा में नहाते हुये आगे बढ़े । कोई पुण्य-वुण्य की बात नहीं थी । हम महसूस कर रहे थे कि नहाने से स्फूर्ति मिलती है । पैर का भारीपन मिटाने के लिये तो हम किसी पेड़ के तने के पास गमछी बिछाकर लेट जाते थे और पैर चढ़ा देते थे तने पर । पैसे कम थे । बचा बचा कर खर्च करते थे । निपट भी जाता था क्योंकि जिस किसी पुलिस थाने में रिपोर्ट करने के लिये डायरी फैलाते थे वहीँ एक पहर के भोजन या नाश्ते का इन्तजाम हो जाता था । लेकिन बार बार नहा कर स्फूर्ति लाना अपने हाथ में था । नदी देखी, बांध देखा, बस उतर गये ।
कभी कभी बहुत छोटा सा तथ्य भी बहुत देर से जानने को मिलता है । जैसे दाँतन (मेदिनीपुर) में पहली बार जाना कि भात, दाल, मछली का झोल मील-प्लेट के हिसाब से खाने के लिये जो भोजनालय हैं वे पाइस होटल कहे जाते हैं । उसी तरह भद्रक से आगे जिस कस्बे के मोड़ पर हमने नाश्ता किया, वहीं हमने जाना कि ग्रामीण, धोती में मुढ़ी बांध कर लाते हैं और नाश्ते की दुकान पर सिर्फ एक प्लेट सब्जी खरीद लेते हैं साथ खाने के लिये । यानि सब्जी अलग से खरीदने को मिलता है ! जबकि पटना में हम जानते थे कि दाम सिर्फ कचौड़ी का होता है ! सब्जी फ्री मिलती है चाहे जितनी बार मांगो ! ज्यादा सब्जी मांगने वाला कोई दल पहुँच गया तो चुपके से सब्जी में मिर्ची का पाउडर मिला देता है दुकानदार !     
रात को कटक होते हुये भुवनेश्वर पहुँचे । मेरी चचेरी दीदी रहती थी उत्कल विश्वविद्यालय के परिसर में । उनके पति वहाँ पढ़ाते थे । दीदी बहुत खुश हुई । रात को गर्मागर्म पराठे खाने को मिले । लेकिन लगा कि रहने की बात होगी तो फँस जायेंगे । इसलिये बहाने बना कर रात को ही निकल लिये पुरी की तरफ ।
पुरी पहुँचे नहीं । एक तो रास्ता पूरा अंधेरा था । और नींद तो थी ही आँखों मे । पीपली के पास एक चौड़े कलभर्ट पर दोनो तरफ, साइकिल लगा कर सो गये । कलभर्ट पर नींद क्या आती, हमेशा पानी भरे नाले में गिरने का डर सताता रहा । सुबह उठे और पुरी की ओर बढ़े ।
यहीं वह घटना होनी थी । पुरी की तरफ बढ़ते ही बच्चे दिखने लगे रास्ते पर रंगों से भरी पिचकारियाँ लिये । समझ गये की होली का दिन है । साइकिल चलाते हुये अगर आँखों में रंग पड़ जाय तो स्थिति खतरनाक भी बन सकती है । हालाँकि होली के कारण रास्ते पर ट्रक वगैरह नहीं थे । बसें और गाड़ियाँ कम चलती थी उन दिनों । फिर भी पिचकारियों की वार से बचते हुये आगे बढ़ रहे थे । अचानक एक पिचकारी का रंग सीधे मेरी आँखों पर पड़ा । मैंने आँखें बन्द कर ली । लेकिन साइकिल रोकते रोकते घड़ा लिये एक बुढ़िया मेरे साइकिल के चपेट में आ गई । मैं काफी जोर से गिरा, बुढ़िया भी गिर गई । उसका घड़ा चकनाचूर हो चुका था । मेरे केहुनी, कंधा, चेहरा छिला गया था । फिर भी मैं उठ कर भागा बुढ़िया की ओर, उसे न कुछ हो गया हो । लो, वह तो मेरे से पहले उठ कर खड़ी थी ! मैं बंगला/हिन्दी में उसकी खैरियत पूछ रहा था और वह उड़िया में गरज कर अपने घड़े का दाम मांग रही थी । कुछ लोग और आगे बढ़ आये । बाकि दोनों मित्रों ने बीचबचाव किया । घड़े का दाम देकर छुटकारा मिला ।
साक्षीगोपाल के पास एक पंडा मिला रास्ते पर । वह भी साइकिल से जा रहा था । उसने प्रस्ताव दिया कि पाँच रुपये देने पर वह मंदिर के बाहर वाले भगवान का दर्शन करा देगा । “और, भीतर वाले भगवान का?” “दस रुपये”। मन तो किया उसे पीटूँ पर उसे अपने रास्ते भगा कर हम बढ़ गये । दूर से तोप दागने जैसी आवाज आ रही थी । वह पुरी के समुद्रतट पर लहरों (ब्रेकर्स) के गिरने की आवाज थी ।
अगले दिन दोपहर तक हम वापस भुवनेश्वर लौट आये ।
भुवनेश्वर में ए॰ जी॰ बिहार-ओड़िशा का दफ्तर ढूंढ़ने में दिक्कत नहीं हुई । माँ को खुश करने का यह एक तरीका था कि हिम्मत जुटा कर ए॰ जी॰, बड़े मामा के चेम्बर में घुस जाऊँ, पैर छूऊँ, और दाँत, 32 ऑल आउट करके बोलूँ, “बड़े मामा, मैं अमुक, पटना से…”
बोलना था और फिर क्या । मामा अपने भगीना से पन्द्रह साल बाद मिल रहे थे । सीधा हम सभी बड़े मामा के बड़े से क्वार्टर पहुँचा दिये गये । अगले तीन दिनों तक भोजभात होता रहा, मामी डाँटती फटकारती और ठूँस ठूँस कर खाना खिलाती रही । अपनी छोटी ममेरी बहन से होश में पहली बार मिला, उसके गाने सुने । मामा ने पैसे दिये और सीधा पटना वापस जाने को कहा । वही पैसे आगे काम आये ।
भुवनेश्वर से आगे बढ़ने वाले बचे दो । कुछ कारणों से बिष्टुपद दत्ता वहाँ से वापस पटना आ गया । मैं और चपल उस दिन देर से भुवनेश्वर छोड़ कर चिलका के किनारे किनारे चलते हुये रात में पहुँचे रम्भा । बाँये दूर तक मद्धिम चमकता हुआ चिलका का विशाल झील । थोड़ी चढ़ाई थी सड़क पर । दाहिने अकेली रोशनी दिखी एक बरामदे पर । अन्दर गया तो दिखा कि भरा पूरा राजस्थानी घरवार है । गाय है बथान में, अनाज के कोठे हैं, कारोबार भी है … अच्छा स्वागत हुआ, बड़े बड़े गिलास में दूध मिला पीने के लिये और रात को सोने का बन्दोबस्त बरामदे में ही हुआ । यही मैं भी चाहता था कि रात भर झील और उस पर झुके हुये अनगिनत तारे देखने को मिले । 

अमरूद
अगली रात हम कहाँ रुके थे यह याद नहीं । इतना याद है कि अगली सुबह हम बरहमपुर पहुँचे थे और बरहमपुर विश्वविद्यालय के कुलपति से भी मिले थे । फिर उसके आगे की सुबह हम श्रीकाकुलम थाना पहुँचे थे । अभी गुगल मैप देख कर लगा कि हम नरसन्नपेट या उसके आसपास कहीं रुके थे । बेशक पुलिस थाने में ही हमने रात बिताने की जगह मांगी होगी, यह तरीका हमने तब तक ढूंढ़ लिया था पुलिस के शक वगैरह से बचने के लिये ।
बरहमपुर विश्वविद्यालय के कूलपति से उनके आवास पर मुलाकात हो जाना एक बड़ी घटना थी । उन्होने दो किताबें भेँट की हमारे कॉलेज के लिये ।    
आंध्र प्रदेश में प्रवेश करते ही कुछ बातें आँखों में बरबस चुभ गई । शायद इछापुरम पहुँचते ही एहसास हुआ होगा । एक तो अब हिन्दी नहीं चल पा रही है और गाँवों में तो अंग्रेजी भी नहीं चल पा रही है । मोपेड पर सवार एक शिक्षक मिले थे आगे कहीं । उन्होने बल्कि थोड़ा जोर डाल कर कहा कि हिन्दी जानने पर भी वे हिन्दी नहीं बोलेंगे । दूसरी बात जो चुभी वह थी पीने के पानी की किल्लत । कई जगह लोग उसी नहर से पानी लाकर भोजन/नाश्ते की दुकानों में पिला रहे थे जहाँ कपड़े धोये जा रहे थे । और तो और, एक बार मेढ़क का बच्चा भी तैरता हुआ मिला । तीसरी बात थी गरीबी और पिछड़ापन । बूढ़ी औरत बीच सड़क पर साड़ी घुटने तक उठा कर पेशाब कर रही है – कई साल बाद आयमे सेज़ार की कविता पढ़ कर एहसास हुआ था कि यह दृश्य तीसरी दुनिया में विश्वजनीन है – उस वक्त हमारे लिये नया था । चौथी बात थी, खास कर गाँवों में, एक विरोधाभास – गरीब, आम लोग इतने अच्छे और धनाढ्य उतने ही बुरे ! इनमें से कुछ बातों का अनुभव आंध्र प्रदेश प्रवेश करते ही हो गया और कुछ बातों का अनुभव आगे, गोदावरी जिले में हुआ, पर आंध्र प्रदेश में देखा गया हर दृश्य, आगे चल कर देश के बारे में अध्ययन करते हुये आवश्यक परिदृश्य बना ।
दोपहर का वक्त था । मैं और चपल हाइवे से एक छोटे से कस्बे के रास्ते पर उतर गये । आगे बाँई ओर एक अमरूद का बगीचा दिखा । सारे पेड़ों में अमरूद लदे हुये थे । बाँस का गेट खोल कर एक बड़े से फूस के घर का दरवाजा खटखटाया । एक जवान लड़का निकल आया । दिख रहा था कि यह पारिवारिक घर नहीं है । अमरूद के बगीचे के साथ एक बड़ा कमरा खड़ा कर दिया गया है मालिक के बेटे के लिये, पढ़ाई भी करेगा, मौजमस्ती भी करेगा जब जी चाहे । हमने इशारों से समझाने की कोशिश की कि हम साइकिल यात्रा पर निकले हैं । भूख लगी है, प्यास भी लगी है । एक दो अमरूद अगर वह दे दे तो राहत मिलेगी । लगभग भीख मांगने के तेवर थे हमारे । पर एक भी अमरूद नहीं मिला । उल्टे (जो समझ में आया) गालीगलौज मिला और मुंह पर दरवाजा बन्द कर दिया गया । वापस लौट रहा था । हाइवे के ठीक पहले धूल भरी चढ़ाई पर छे-सात औरतें मिलीं जो कहीं से घड़े में पीने का पानी लेकर आ रही थीं । हमें साइकिल के साथ देख कर रोकीं । न उनका पूछना हमें समझ में आ रहा था न हमारा बताना उन्हे समझ में आ रहा था । फिर भी जो समझना था वो समझ गईं । हमें ले गईं आगे हाइवे के बगल में खड़ी एक झोपड़ी में । चाय की दुकान थी वह पर चुल्हा बुझा हुआ था और दुकानदार नींद में था । वे अपने पैसे जोड़ीं, साड़ी के खूंट से निकाल कर – कुल दो चाय के दाम निकल आये । वे तब दुकानदार को जगाईं, जबर्दस्ती उससे चुल्हा जोड़वाकर दो गिलास चाय बनवाई । हम चाय पिये । फिर हमे आशीर्वाद देकर उन्होने विदा किया ।
एक घटना आगे भी हुआ था दो दिनों के बाद । गन्ने के खेत के बगल से गुजर रहे थे । गन्ने तैयार थे और किसान (या खेत मजदुर, इतनी समझ नहीं थी उन दिनों) खेत से निकाल कर बड़े बड़े बन्डल बना रहे थे । फिर बैल गाड़ियों पर चढ़ाये जा रहे थे । हम आगे बढ़ कर दो गन्ने मांगे । उन्होने ने इशारा किया, यहाँ नहीं, नजरदारी है, आगे बढ़ कर इन्तजार करो । हम थोड़ा आगे बढ़ कर इन्तजार करने लगे । कुछ ही देर में एक, कटे हुये गन्नों का बड़ा सा गठरी लेकर आया । खुद हमारी साइकिल के रॉड के साथ बांध दिया । हमने पूछा, ‘इतना क्या होगा’ । ‘आह, खाते हुये जाना रास्ते में’ उसने इशारा किया ।
फिलहाल, नरसन्नपेट या आसपास किसी कस्बे में रात गुजारने के बाद लगभग सुबह दस बजे हम श्रीकाकुलम पहुँचे । सुबह में, वह भी ऐसे शहर में जहाँ हम रात को रुकनेवाले नहीं थे, थाना ढूंढ़ कर पहुँचने का कोई कारण नहीं था । फिर भी, चुँकि हम सुन रखे थे कि श्रीकाकुलम नक्सलवाद का महत्वपूर्ण केन्द्र है, हम थाना पहुँच कर डायरी पर लिखवा लिये ताकि कहीं कोई समस्या न हो । और संयोग देखिये कि उसी वक्त थाने के हाजत में किसी की जबर्दस्त पिटाई चल रही थी । यह तो पता नहीं था कि वह कोई नक्सलवादी युवक था या आम आरोपित, पर उसकी चीख से हमारी सिट्टी पिट्टी गुम हो चली थी । डायरी लिखवा कर जल्दी से खिसक लिये ।
उस दिन के सफर का आखरी हिस्सा बहुत खूबसूरत था । पता नहीं कब शाम होने लगी और सुनसान सड़क पहाड़ी पर चढ़ने लगी । कहीं कोई शहर या कस्बे की रोशनी दिख नहीं रही थी कि रात को वहीं रुक जाने को सोचें । पहाड़ी भी पहाड़ी नहीं पहाड़ है, यह हम सोच नहीं पाये थे । पूरा अंधेरा हो गया और हम चढ़ते जा रहे थे । काफी देर बाद चढ़ाई खत्म हुई । ढलान के शुरु होते ही सामने एक बहुत बड़ा जगमग शहर दिखने लगा । कौन सा शहर है यह ? यही विशाखापतनम है क्या ? स्पष्ट जानकारी तो नहीं थी पर लगने लगा कि जरूर विशाखापतनम होगा । हम ढलान पर साइकिल को मुक्त छोड़ देना चाह रहे थे कि वह मोमेन्टम पकड़े और गति तेज होती जाय । पर ऐसा करना खतरनाक हो गया । सामने की जगमग रोशनी आँखों को चौंधिया देने के कारण आसपास का अंधेरा और घना हो गया । साइकिल फ्री छोड़ने का मतलब था सड़क से बाहर जाना और खाई में गिरना । इसीलिये ब्रेक लेते हुये धीरे धीरे हम पहाड़ से उतरने लगे ।
शहर तो बिल्कुल अजनबी था । वह भी रात के दस बजे । याद नहीं कौन वह भलेमानुस था जो हमारे पूछने पर समझ गया कि हम बंगलाभाषी हैं और मित्राबाबु के होटल का रास्ता दिखा दिया ।
मित्राबाबु के होटल, होटल मतलब भात की दुकान पर आखरी बैच खा रहा था । हम भी पहले तो खाना खा लिये । फिर मित्राबाबु से हमने अनुरोध किया कि हमें एक रात ठहरने की जगह दी जाय ।
तभी एक जादु हुआ । एक जवान आदमी सींढ़ी पर खड़ा होकर मित्राबाबु से बतिया रहा था । उसने हमारी पैरवी की । हमें भोजन के हॉल के दाहिनी तरफ बने भंडार वाले कमरे के दरवाजे के पास फर्श पर बिस्तर बिछाने की अनुमति मिल गई । उस आदमी ने हमसे दोस्ती भी कर ली । मनोमय नाम था उसका । सीआरपी का जवान था । सीआरपी कैम्प में ही रहता था । उसकी दोस्ती के बदौलत अगले तीन दिनों तक मित्राबाबु के होटल में खाना, सोना फ्री हो गया । एक दिन वह रात्रिभोजन का आमन्त्रण देकर कैम्प में हमें ले गया । उसके खाट पर बैठ कर हम गर्मागर्म आलु की सब्जी और एक एक दर्जन घी लगी रोटी खा गये अचार के साथ ।
साइकिल से खूब घूमे हम विशाखापतनम या वाइजैग या वालटेयर । … पर उसके बाद की घटनायें सिलसिलेवार याद नहीं हैं । काकीनाड़ा कब पहुँचे, राजामुन्द्री कब पहुँचे, विजयवाड़ा कब पहुँचे, कब हमने पार किया गोदावरी और उसके पानी में नहाया !…
बस टाडेपल्लीगुडेम का एक सुबह याद है । हम नाश्ता करके नहर पर बने पुल पार कर रहे थे कि एक वयस्क आदमी, बुश शर्ट और लुंगी पहने हुये, ने हमें छेंक लिया । नहर के किनारे किनारे चल कर उनके घर पहुँचे तो दिखा कि एक डाक्टर का घर है । वह खुद ही डाक्टर थे । पर वह ऑटोग्राफ के शौकीन भी थे । उन्होने हमें काफी पिलाई और एक ऑटोग्राफ बुक पर हमारे दस्तखत लिये । हम तो फूल के कुप्पा हो गये । ऑटोग्राफ बुक में अशोक कुमार और लता मंगेशकर का भी ऑटोग्राफ दिख रहा था । …            

मेरी जो-नही-बनी तमिल बीवी
पता नहीं तमिल नाडु की स्मृति की मेरी पहली कड़ी यही क्यों है । …एक रेलवे क्रॉसिंग पार कर नेल्लोर बाजार पहुंचना था । शाम का वक्त था । थोड़ी ही देर पहले पुलिस की हिदायत मान कर हम साइकिल के सामने किरासन वाला लैम्प लगवा लिये थे और भरपेट गाली दे रहे थे प्रशासन को इस फालतू खर्च के लिये । और अब आफत के लिये भी क्योंकि सड़क की मरम्मत हो रही थी – टूटी सड़क पर उछल उछल कर लैम्प उलटने ही वाली थी । साइकिलों पर लगे लैम्पों के सिवा कोई रोशनी भी नहीं थी सड़क पर । सामने एक साइकिल पर लगे लैम्प को उलट कर आग पकड़ते देखा । हम खूब जोर से हँस रहे थे पुलिस को दिखा दिखा कर कि देखो, तुम्हारे पागलपन के चलते किस तरह आफत भोग रहें हैं लोग ! … अचानक हम बाजार में थे और बाल में लगे गेरुआ-लाल-सफेद फूलों की गदराई लड़ियाँ थी हमारे बहुत करीब । हम साइकिल से उतर गये । …तमिल नाडु की यह मेरी पहली स्मृति, बाद की यात्राओं से अधिक तमिल नाडु को लेकर मेरे बाद के सम्मोहन के नीचे दब गई है । पिछले बीस वर्षों से मैं संगम साहित्य, उस युग की युद्ध कवयित्रियों की कवितायें, फिर शिलप्पदिकम की कथा, काव्य एवं नैसर्गिक सौन्दर्य को लेकर इतना अधिक मोहित रहा हूँ कि 1970 के मार्च महीने में हम किन किन जगहों को छूते हुये तमिल नाडु से गुजरे थे, याद नहीं आता । बस …।
यही पहला दृश्य याद आता है नेल्लोर बाजार पहुँचने का और बालों में फूल लगाई हुई उतनी सारी लड़कियों को देख कर यह खयाल, कि इन्ही में से कोई मेरी दोस्त होती तो हम शादी करते और यहीं बस जाते । धीरे धीरे मेरी पहचान तमिल ही रह जाती । … या हो सकता है यह खयाल भी बाद का आरोपन हो ! पर, शायद नहीं ।
चेन्नई पहुँच कर शहर के बाहरी छोर पर किसी रेस्तराँ में हम नाश्ता कर रहे थे । वे हमारे आखरी पैसे थे जो नाश्ते में खर्च हो रहे थे । तभी एक लड़का कुर्सी टेबुल में बैठे ग्राहकों पर नज़र दौड़ाते हुये भीतर के अन्तिम टेबुल पर बैठे हमारे करीब आया और खालिस हिन्दी में पूछा, “आप बिहार से आ रहे हो ?” कैसे समझा वह ? तब याद आया कि खिदिरपुर में हमने टीन की नीली पट्टी बनवाई थी साइकिल के सामने लगवाने के लिये, खास कर मंत्रीजी के साथ फोटो खिँचवाने के लिये, वो अब भी टंगी है साइकिल के सामने । छोटी सी पट्टी पर अंग्रेजी में लिखा हुआ था अखिल भारतीय साइकिल यात्री - पटना, कलकत्ता, भुवनेश्वर … पूर्वतटीय सारे बड़े शहरों का नाम कन्याकुमारी तक । तय था कि उसके आगे बढ़ेंगे तो लिखवा लेंगे । दरअसल उसके आगे के शहरों का नाम सिलसिलेवार हम जानते भी नहीं थे । तो, हमने उस लड़के का सवाल सुन कर सर हिलाया । फिर वह खाली कुर्सी खींच कर बैठ गया, हम गपियाने लगे और वह दोस्त बन गया । मालुम हुआ कि वह भी मोतिहारी का ही लड़का (‘भी’ मतलब उस हिच-हाइकिंग करने वाले लड़के जैसा) था । जहाँ तक याद है उसने कहा था कि मद्रास इन्स्टीट्युट ऑफ टेक्नॉलॉजी में टेक्सटाइल इंजिनियरिंग कर रहा था । नाम याद नहीं । वह हमें ले गया किसी मजदूर बैरक की तरह मकान में, कतार से एक एक घर और सामने कॉमन बरामदा … हर घर में एक परिवार । बरामदे में रसोई, भोजन और शौच कॉमन शौचालयों में । वहीं उसके एक भैया या मुँहबोला भैया सपरिवार रहते थे । उसी घर के बरामदे में हमारे सोने की जगह बनी । वह लड़का भी चार दिनों तक हॉस्टल छोड़ कर हमारे साथ पड़ा रहा । दिन रात का खाना एक बहुत ही अच्छी भावीजी के हाथों ।
सुबह सुबह हम निकल जाते थे एलियट समुद्र तट पर । वह करीब था । उस वक्त वह पूरी तरह मछियारों का समुद्र तट था । सुबह होते ही समुद्र से नावों का वापस आना शुरु हो जाता था । जाल में से मछलियाँ उँड़ेली जाती थी और फिर बोली लगती थी । कुछ खुदरा के लिये बच जाता था । उसी में से हम खरीदते थे । एक दिन वह मछली पकड़ाई, बंगला में ‘शंकर’ कह्ते हैं, पतंग जैसा वदन और पूंछ पतंग की पूंछ जैसी ही, लम्बी । बचपन से सुनते आये थे कि उस पूंछ से चाबुक बनते हैं । उसी मछली का एक हिस्सा खरीद कर ले आये, भावी बनाई और हम मजे से खाये । बढ़िया स्वाद था उसका ।
एक दिन मद्रास आइआइटी ले गया वह लड़का हमें । हमारी आगे की यात्रा के लिये चंदा इकट्ठा करने । यह एक बहुत बड़ी जरूरत थी । एक पैसे भी नहीं थे हमारे पास । उस लड़के के कुछ मित्र थे वहाँ । उसी लिये हमें वहाँ लेकर गया । पहली बार हम किसी आइआइटी परिसर में प्रवेश कर रहे थे । क्या खूबसूरत था परिसर ! भवनों तक पहुँचने के लिये गेट से शुरु होता था लम्बा, घुमावदार रास्ता जिसके दोनों ओर कहीं बगीचे, कहीं जंगल – जंगल में हिरनें – कहीं टेनिस कोर्ट… !
बहुत अच्छा तो नहीं फिर भी ठीकठाक रेस्पॉन्स मिला । उस लड़के के एक मित्र, एक बंगाली लड़के ने पहल की । बाइस-तेइस रुपये जुटे । आखिर कन्याकुमारी तक का खर्च तो इतने ही निभ गया था ! आइआइटी में ही हमने उस दोपहर को खाना खाया ।
मद्रास छोड़ने के दिन सुबह से पहले उठ कर भावीजी ने हमारे लिये ‘निम्बु-भात’, और ‘दही-भात’ बनाया । रस्सी से बंधे, कागज और फिर पत्तों के दो बड़े पैकेट में उसे डाल कर हमें दे दिया ।
हम तब तक नहीं जानते थे कि यह लगभग पूरे दक्षिण भारत का पारम्परिक नाश्ता या भोजन है और चावल काफी देर तक रह जाता है बिना महके हुये । हमें लगा कि कहीं खराब न हो जाये इस लिये मद्रास छोड़ने के दो घन्टे बाद ही हम दोनों वह भात पूरा खा गये ।
फिर चल पड़े पॉन्डिचेरी की ओर । छोटे, चमकते नारियल के पेड़ों के पत्तों और फलों को छूते छूते दिन ढलने के पहले ही हम पॉन्डिचेरी पहुँच गये ।
अच्छे लोग मिल ही जाते हैं । पॉन्डिचेरी प्रवेश करते ही हम पूछते पूछते पहुँचे श्रीमाँ के आश्रम के गेट पर । सीधा स्वार्थ था । मुफ्त का खाना और रात को सोने का बन्दोबस्त । खाने का समय खत्म हो चुका था । कोई दिख नहीं रहा था । तभी एक सज्जन निकले अन्दर से बाहर । वह रुक गये और हमसे बातचीत हुई । वह बंगलाभाषी थे । बंगाल में या उधर ही कहीं किसी कॉलेज में वाणिज्य के प्राध्यापक रह चुके थे । वह अपने घर ले गये हमें । वहाँ हमे काली सख्त बनरोटी खाने को मिली आश्रमवासियों के अपने हाथों से बनाई हुई । चाय पीने के बाद उन्होने भी हमें दो किताबें दी एकाउन्टेन्सी और ऑडिटिंग के । एक शायद उनकी अपनी लिखी हुई थी । फिर वह हमें ले गये समन्दर किनारे आश्रम का ही या फिर सरकारी गेस्ट हाउज में । घर की तो जरूरत ही नही थी । बाहर बगीचे में ही दो चार खाट लगे हुये थे । हम दो खाटों पर अपनी जगह बना लिये । लेटने पर बस सर से पाँच फूट आगे गेस्ट हाउज की, कमर तक उँची दीवार जिसके बाद रात भर लहरों का फॉस्फोरस । रात को खाने के लिये उन्होने आश्रम आ जाने को कहा । अगले दिन ऑरोविल घूम आने को भी कहा जो हम नहीं गये ।          

मक्खन
पॉन्डिचेरी से निकल कर हम किधर गये ? याद नहीं । विरलीमलई कितना आगे था । पता नहीं । लेकिन स्मृति का यह आखरी हिस्सा विरलीमलई के एक कहवाघर से शुरु होता है । आधे बने मकान के दुमंजिले पर बने कहवाघर में हम लोगों ने शाम से थोड़ा पहले काफी पी और जब निकले तो वह घुंघरैले बालों वाला युवक भी हमारे साथ अपनी साइकिल पर निकला जो उस दुकान में दूध पहुँचाने आया था । यह कहवाघर शायद उसका आखरी ग्राहक था क्योंकि उसके साइकिल के पीछे बंधा दूध का ड्रम खाली था, ढनढना रहा था ।
घन्टों हम साथ साथ साइकिल चलाते रहे और बातें करते रहे । न हम एक अक्षर उसकी तमिल समझ रहे थे न वह एक अक्षर हमारी हिन्दी समझ रहा था । उसका न समझना भी बनावटी नहीं था क्यों कि वह विशुद्ध रूप से ग्रामीण था । उसकी वह न-समझ-में-आने-वाली बातों और शरीर की भाषा से जो समझ में आ रही थी कि वह आगे करीब ही (करीब का मतलब लगभग 50 किलोमीटर) अपने गाँव में अपने मालिक की कोठी में रहता है । मालिक के घर का सारा काम, गायों को सानी देना, आंगन बुहारना, पानी भरना आदि कामों के बाद दिन चढ़ते ड्रम भरे दूध लेकर शहर पहुँचता है, जहाँ जहाँ महीनवारी ग्राहक बंधा है वहाँ वहाँ दूध देता है फिर आखरी ग्राहक इस कहवाघर में दूध देकर एक काफी पीता है फिर घर के लिये चल देता है ।
हाइवे पर कहीं वह रुका । हम भी रुक गये । उसने सड़क की बाँई ओर उतरती हुई एक कच्चे रास्ते के अन्तिम छोर पर दूर टिमटिमाती रोशनी दिखाकर कहा, “वही, मेरा गाँव” । हमने उससे हाथ मिलाया और विदा कहा । पर वो गया नहीं । कुछ कहना चाह रहा था । शाम के उस धुँधलके मे हमारे शरीर और चेहरे की भाषा भी एक दूसरे के लिये अस्पष्ट होती जा रही थी । थोड़ी देर के बाद समझ में आई उसकी बात कि वह हमें कुछ देना चाह रहा था ताकि यह मुलाकात यादगार रहे । उसकी स्थिति को समझते हुये हमने काफी जोर से मना किया । फिर भी वह सोचते रहा । पॉकेट से पैसे निकाले । जो पैसे मालिक के हिसाब के थे उस हिस्से को अलग कर बाकि गिने तो बहुत कम निकले । फिर अचानक उसे कुछ याद आई । उसने दूध के खाली ड्रम को खोला और ढक्कन बाँई हाथ में रख कर दाहिने हाथ से भीतर काछना शुरु किया । ड्रम सुबह में दूध से भरा रहा होगा । फिर इतने लम्बे सफर में हिलते हुये उससे काफी मक्खन निकले होंगे । जब उसने ढक्कन बढ़ाया तो आधा ढक्कन से ज्यादा मक्खन जमा हो चुका था । हमें खाने के लिये अनुरोध करते हुये उसने यह भी अफसोस जताया कि चीनी नहीं है उपर से छिड़कने के लिये । पता नहीं वह ड्रम अगर मक्खन के साथ घर पहुँचता तो किस तरफ जाता ! कोठी के किनारे उसके कमरे की ओर या मालिक की रसोई की ओर ! शायद किसी बच्चे के निवाले में जाता ! मैं और मेरे साथी ने मिलकर वह मक्खन खाया । फिर उस लड़के ने कमर से बीड़ी निकाली । उसने दो हमारी ओर बढ़ाये । मेरा साथी बीड़ी नहीं पीता था । वह था भी ऐथलीट । चैम्पियन तैराक था कॉलेज में । मैं और उस लड़के ने एक एक बीड़ी सुलगाये । बीड़ी पीने के बाद हम अलग हुये । वह कच्चे रास्ते पर उतर गया । हम भी आगे की ओर चल दिये । बीच बीच में पीछे मुड़ कर बाँये खेतों के फैलाव से आगे वह कच्चा रास्ता और साइकिल पर उसे ढूँढ़ लेते रहे । फिर वह पूरी तरह ओझल हो गया ।
उसी रात को या अगली रात को हम तिरुचिरापल्ली पहुँचे थे याद है ।  
तिरुचिरापल्ली की याद में बहुत कुछ खास नहीं है, बस्र यही की रात का खाना खाने के बाद हमें बाजार में रोशनी दिखाई पड़ी थी । करीब पहुँचे तो दिखा की भीड़ लगी है, पारम्परिक कोई नृत्य हो रहा है, और उसी भीड़ में अचानक मिल गये वे पाँचों जो कुलटी से पैदल जा रहे थे कन्याकुमारी, जिनके साथ कुछ दिनों पहले हमने सड़क किनारे एक सूने अहाते में चुल्हा जोड़ कर नून-भात खाया था ।
नागेरोकोयेल के बाद ही कन्याकुमारी का एहसास होने लगा था । जब पहुँचे तो सबसे अधिक आकर्षित किया उस जगह पर धूप की एक खास चमक । खाड़ी की धूप जो पूरे पूर्वतट पर छाई मिलती है उसमें एक धूंधलापन है । यहाँ धूप बिल्कुल साफ, पता नहीं अरब सागर के कारण या भारत महासागर के कारण । रात को हम किसी सड़े हुये होटल में रुके क्यों कि थाना के परिसर में जगह नहीं थी । शाम और सुबह को देखने और तीनों समन्दर के अलग अलग रंग के पानी के मिलनस्थल को छूकर रोमांचित होने के सिवा बहुत कुछ वहाँ करने को नहीं था । पैसे खत्म हो गये थे और त्रिवन्द्रम पहुँचे बिना पैसे का जुगाड़ नहीं हो सकता था ।
त्रिवन्द्रम पहुँचे रात को । सड़कों पर काफी चहल पहल थी । पुलिस भी थे बहुत सारे । मैने विश्वविद्यालय और उसमें छात्रावासों का पता पूछा तो बुरी खबर मिली । मोर्चा सरकार गिर गई है, शहर में 144 है, विश्वविद्यालय बन्द कर दिये गये हैं साइन डाई, छात्रावासों में छात्रों का होना मुश्किल है । पुलिस थाना पहुँचे डायरी लिखाने के लिये तो प्रभारी थे नहीं, रात को सोने की जगह के लिये पूछे तो झिड़की मिली । बाहर आये तो किसी सज्जन ने कहा छावनी थाना में जाने के लिये । रास्ता पूछ पूछ कर छावनी पहुँचे, फिर थाना के अन्दर प्रवेश किये । बड़ी राहत मिली । डायरी लिखा गया और रात को सोने की जगह भी मिल गई ।
सुबह उठते उठते हमने फैसला ले लिया था । एक साइकिल कम से कम बेचना पड़ेगा । दिन चढ़ते चढ़ते वह फैसला दोनो साइकिल बेचने का हो गया । दाम की मांग नीचे उतरती जा रही थी । अंतत: रेलवे का ही एक कर्मचारी दोनों साइकिल को खरीद लेने का प्रस्ताव दिया । पर दाम बहुत कम दे रहा था वह । उसे समझ में आ गया था कि हम बेचैन हो गये हैं । फिर उसी के दाम, दोनों साइकिल के लिये कुल 80 रुपये, पर बेचना पड़ा ।
इसके आगे कुछ बचा नहीं, हम दोनों के किसी तरह पटना लौटने के कुछ हास्यास्पद वृत्तान्त के सिवा । फिर भी एक माँ का जिक्र करते हुये खत्म कर रहा हूँ ।

जो पैसे मिले थे उससे दोपहर के खाने की कीमत चुकाने के बाद भुवनेश्वर तक का टिकट हो पाया था । वेटिंग रूम में बैठे हुये थे । एक पंजाबी औरत जो उधर अपने परिवार के साथ थी हमें ध्यान से देखते हुये सामने आकर खड़ी हो गई । हम कुछ खास बताना नहीं चाह रहे थे कि वह क्या समझेंगी । लेकिन दबाव डाल डाल कर वह आखिर जान ही गई कि उतरे हुये चेहरों के साथ हम क्यों बैठे हैं । वह गईं अपने सामान के पास और दो डिब्बे उठा के ले आईं, “यह रख लो बेटे । एक में चूड़ा है और दूसरे में चीनी । भूखे मत रहना । यह चूड़ा, चीनी खाकर पानी पीना । बताओ, इस तरह भी कोई निकलता है घर से ?” 

Monday, November 20, 2017

বহির্বঙ্গে বাঙালি এবং তার সাহিত্য – বিহার প্রসঙ্গ

বাঙালির মন মননবিশ্বপ্রেক্ষিত
স্বদেশ বা স্বভূমি ছেড়ে বাইরে গিয়ে বিদেশে বিভূঁয়ে থাকার, থেকে যাওয়ার সামাজিক প্রবণতা স্বেচ্ছায় নয়, প্রধানতঃ রুজি- রোজগারের বাধ্যতায় দেড়শো বছরেরও আগে থেকে শুরু হয়েছিল। অবিভক্ত ভারতে শুরু হয়েছিল এই অভিনিষ্ক্রমণ। দেশভাগের পর বাঙালি দুটো দেশের নাগরিক হয়ে যেতে শুরু করল। যেহেতু এ সম্পর্কিত সার্ভেগুলো বেশির ভাগ দেশের নাগরিক হিসেবে; বাঙালি বা বাংলাভাষী হিসেবে নয় তাই সঠিক সংখ্যাগুলো পাওয়া মুশকিল। তবু কিছু হিসেব দিলে বুঝতে পারা যাবে এর প্রকৃতি।
ভারতের একটা হিসেব নিলে যে সময় পশ্চিমবঙ্গে বাঙালি জনসংখ্যা সাত কোটির কিছু বেশি, সে সময় আসামে ৭০ লক্ষ (যেহেতু এই হিসেবে ত্রিপুরার নাম নেই, তাই ধরতে পারি ত্রিপুরার তেইশ লক্ষ বাঙালি এরই মধ্যে আছে) এবং বাকি ভারতে ৭০ লক্ষের বেশি। সেই একই সময়ে বাংলাদেশে বাঙালি ১৪ কোটির বেশি এবং বাকি পৃথিবীতে বাঙালি, ইংলন্ডে সাড়েতিন থেকে চারের মধ্যে আর আমেরিকায় সব মিলিয়ে ২ লক্ষ নিয়ে মোট ১০ লক্ষের বেশি। একটা হিসেব বলছে ১৯৫১ সালে ইউনাইটেড কিংডমে বাংলাদেশী বা পূর্বপাকিস্তানী বাঙালির সংখ্যা ছিল ২০০০। ২০০১ সালে সেই সংখ্যাটা হয়েছে ২,৮৩,০০০। তেমনই আরেকটি সার্ভে বলছে যে এই বাঙালিদের ৮৫% তাদের সঞ্চয় নিজের দেশে পাঠাতো ১৯৬০-৭০এর দশক অব্দি। আজ নানা কারণে মাত্র ২০% এই কাজটা করে বা করতে পারে। এই দুটো প্রবৃত্তিতেই ভারতের বাঙালিদের সংখ্যা জুড়ে নিন। আবার তেমনই গ্রেট ব্রিটেনের সাথে জুড়ে নিন আরো অনেক দেশের নাম – আমেরিকা, অস্ট্রেলিয়া, ইওরোপের বিভিন্ন দেশ এবং  সিঙ্গাপুর-হংকং-মালয়েশিয়া সহিত দক্ষিণ-পূর্ব এশিয়ার দেশগুলি। চল্লিশ ঘর বাঙালি চিনেও আছে। বাঙালি আছে আফ্রিকার বিভিন্ন দেশে। আর ভারতের ক্ষেত্রে আমরা আছি বিভিন্ন রাজ্যে কমবেশি ছড়িয়ে। এসবেরই পরিণতি আজ বাঙালি ডায়াস্পোরা বা বিশ্বব্যাপী বাঙালিয়ানা, বা ভারতবর্ষের মত বহুজাতিক দেশে ভারতব্যাপী বাঙালিয়ানা।
প্রথম, দ্বিতীয়, তৃতীয় প্রজন্ম পেরিয়ে সেই সব বাঙালিদের অনেকেই, বাকি আরো অনেক জাতির বা ভাষাগোষ্ঠির মত পুরোপুরি সেখানকারই স্থানীয় হয়ে পড়েছেন। আর তাই সেই ডায়াস্পোরা, শুধু বাংলাভাষাভাষীর নয় সব ভাষাভাষীর ক্ষেত্রে, আবার সেই, প্রধানতঃ রুজিরোজগারে টিঁকে থাকার বাধ্যতায় বা সোজাসুজি পেটের দায়ে, নানা সুপথ ও (দায়ে পড়ে) কুপথ পেরিয়ে বহুজাতিক সত্ত্বা বা ট্রান্সন্যাশনাল আইডেন্টিটির জন্ম দিচ্ছে। মিশ্র পরিবার, মিশ্র সংস্কৃতির জন্ম দিচ্ছে।
ক্ষুদ্র পরিসরে এই ঐতিহাসিক গতিপথটিকে বোঝার চেষ্টা করার কথা বলাও বাতুলতা। তবু একটা ব্যাপারে আমরা নিশ্চয়ই আমরা অনেক পশ্চিমা সমাজশাস্ত্রীদের বিরুদ্ধে একমত হব যে ডায়াস্পোরা যেমন নেশন-স্টেটের বিপরীতে কোনো পোস্টমডার্ন ফেনমেনন নয়, পুরোপুরি বুর্জোয়া নেশন-স্টেটেরই কীর্তি – হয় এক দেশের বেকারত্ব অন্য দেশের সস্তাশ্রম – তেমনই আজকের ট্রান্সন্যাশন্যাল আইডেন্টিটিও সেই একই স্টেটের কীর্তি – মানুষটির বা পরিবারটির দিক থেকে, বিধিনিষেধের, আইনকানুনের বেড়াজাল কাটিয়ে রুজিরোজগারে টিঁকে থাকার প্রয়াস। মূলতঃ, মানুষ শেষ পর্য্যন্ত চায় নিজের ভাষা, নিজের সংস্কৃতিকে দাঁতে কামড়ে ধরে রাখতে।

ডায়াস্পোরিক সাহিত্য
এই চাওয়ার ছবিটা বহুবিধ এবং বিচিত্র – সংস্কৃতির শুদ্ধতাবাদী পন্ডিতদের চোখে ‘হাস্যকর’ হতে পারে। কিন্তু তাতে কিচ্ছু আসে যায়না। চেয়ে যেতে হবে। চেষ্টা করতে হবে। এই কথাটিই যথার্থ একটি লেখায় পেলামঃ
Diasporas need not apologize for their alleged lack of authenticity, for the hybridity of diasporan identity, as if it represented mere decline from some purer homeland form. Rather – and there is an inevitable element of utopian self-congratulation here – at its best the diaspora is an example, for both the homeland’s and hostland’s nation-states, of the possibility of living, even thriving in the regimes of multiplicity which are increasingly the global condition, and a proper version of which diasporas may help to construct, given half a chance. The stateless power of diasporas lies in their heightened awareness of both the perils and rewards of multiple belonging, and in their sometimes exemplary grappling with the paradoxes of such belonging, which is increasingly the condition that non-diasporan nationals also face in the transnational era. Tölölyan, Khachig, (Quoted in Two women writers of Bengali diaspora’ by Sumona Das Sur)
ডায়াস্পোরার গতি কেন্দ্রাতিগ। অথচ যে মানুষগুলোকে নিয়ে এই ডায়াস্পোরা তাদের মনের গতি কেন্দ্রাভিগ। এই কেন্দ্রাভিগ মনন ও কেন্দ্রাতিগ জীবনগতি থাকে প্রথম প্রজন্মের মননে। কিন্তু, যেমন যেমন দিন যায়… “immigrants build social fields that link together their societies of origin and settlement.develop and maintain multiple relations—familial, economic, social, organizational, religious, and political that span borders. Transmigrants take actions, make decisions, and feel concerns, and develop identities within social networks that connect them to two or more societies simultaneously.” (Basch, Glick Schiller and Blanc-Szanton, 1992)

সাহিত্যের মনোভূমি
একই সত্য ভারতের বিভিন্ন রাজ্যে বসবাসকারী বা আমাদের এই বিহারবাসী বাঙালিদের ক্ষেত্রেও প্রযোজ্য। এবং জীবন- যাপনের বিস্তৃতি থেকে যদি দৃষ্টির ক্ষেত্রটা সীমিত করি মন ও মননে বা আরো ছোটো ক্ষেত্রে, সাহিত্যে বীক্ষা ও সত্ত্বার অভিব্যক্তিতে তখনও আমাদের একশ্রেণীর পণ্ডিত ও তাদের স্পন্সর্ড দৃষ্টিভঙ্গীর বিপরীত মেরুতে অবস্থান নিতে হয়।
তাঁরা প্রকাশ্যে বলেন, সাহিত্য একটাই। বাংলা সাহিত্য। তার আবার ‘ভিতর-বাহির’ ভাগ হতে পারে না।
ন্যায্য বলেন! কিন্তু সেই এক ও অখন্ড সাহিত্যের মনোভূমিটা যে বিবিধ! বহুবিধ! প্লুরাল! এমনকি মাল্টিপোলার – মেরুবহুল! এটাও মানুন তাহলে! মানবেন?
কিন্তু না, এটা মানতে তাদের একটা অসুবিধা হয়ে যায়। কেউ খুলে বলেন কেউ বলেন না, কিন্তু তাঁদের অস্বীকৃতিটা স্পষ্ট টের পাওয়া যায়। তাঁরা স্বীকার করেন না যে বাংলা সাহিত্যের সমসাময়িকতা বা কন্টেম্পোরানিইটি কলকাতা বা ঢাকা তো নয়ই এমনকি পশ্চিমবঙ্গ বা বাংলাদেশেও নয়, সারা পৃথিবীতে পরিভাষিত হচ্ছে। ঠিক যেমন ইংরেজি সাহিত্যের। এবং তাঁদের এই রক্তচক্ষুর কারণে এমনকি ‘বাইরে থাকা’ বা ডায়াস্পোরিক লেখকেরাও দ্বিধাগ্রস্ত হয়ে পড়েন। উপরুল্লিখিত লেখিকা ভাষায়, “One wonders what could be the origin of such a denial of the obvious. Is it a reluctance to stand against the stream, an uncertainty about the medium of self-expression, or a fear that admitting a diasporic status might mean that the country of origin is being viewed as ‘the Other’?” এবং তারপর একটু apologetic ভাবে বলেন, “I think that if we examine and analyze the thinking of such people, as reflected in what they write, we can construct a map of the mental world of diasporic Bengalis from the second half of the twentieth century to the twenty-first century. …It is not an easy task to carry on writing in the mother tongue in a completely different environment and while immersed in the currents of a different language, but for those who do it, the task is an essential part of their sense of identity and self-esteem.” যখন নাকি তাঁর প্রবন্ধটি দুই প্রতিষ্ঠিত ‘ডায়াস্পোরিক’ লেখিকা, কেতকি কুশারি ডাইসন ও দিলারা হাশেমের সৃষ্টিকর্ম নিয়ে। এবং আরো বেশ কয়েকজন ডায়াস্পোরিক লেখক তাঁর চর্চায় উল্লিখিত।

আমরা যারা বিহারে বা সাধারণভাবে ভারতের বহির্বঙ্গে বাস করি, ভাষার অধিকারাদি নিয়ে আন্দোলন করি, মাঝে মধ্যেই একটা বক্তব্যের সম্মুখীন হই, “আগে ভাষা বাঁচলে তবে তো সাহিত্য!” বিহারে তো, আমরা যারা বাঙালি সমিতি ইত্যাদিতে রয়েছি, আমাদের সভায়, আলোচনায় আরো তীব্র ভাবে এই কথাটা উঠে আসে। তার কিছু বিশেষ কারণও আছে।

বিহারে বাঙালি
বিহারে বাঙালীর সাংস্কৃতিক গুরুত্ব ১৯৭৪এর পর থেকেই মোটামুটি কম হতে শুরু করেছিল। কেননা, চুয়াত্তরের আন্দোলনে বাঙালি সমুদায় সংস্কৃতিগত দিক থেকে অনুপস্থিত ছিল। পরে জাতিগত রাজনীতির বাড়বাড়ন্তে সে আরো পিছিয়ে পড়লো। তার পর সাম্রাজ্যবাদী বিশ্বায়নের সাংস্কৃতিক আক্রমণ ত্বরান্বিত করল সমাজের সবকটি ক্ষয়িষ্ণু প্রবৃত্তির বাড়। বিহারবাসী একটি ভাষাগত সংখ্যালঘু সম্প্রদায়ের জীবন তার ব্যতিক্রম নয়। নতুন শতকে বিহার থেকে ঝারখন্ড নামে এক নতুন রাজ্যের সৃজন হওয়ায় সংখ্যাগত অনুপাতে বিহারে বাংলাভাষী হঠাৎ দুর্বল হয়ে পড়লো। আর উপরোক্ত তিনটের ফলশ্রুতি হিসেবে, সামুদায়িক সাংস্কৃতিক জীবনের সমূহ ক্ষয় ও ধ্বংস দেখা দিল।
এভাবে, সম্পূর্ণ অসংগঠিত ও বিচূর্ণ হয়ে পড়া বাঙালী বিহারের জাতভিত্তিক রাজনৈতিক সংখ্যাবিন্যাসে সম্পূর্ণ অপ্রাসঙ্গিক হয়ে পড়ল। জাতভিত্তিক পালোয়ানির উত্থান, শহরে জমিজমার ব্যাবসার রমরমা ও আইনশৃংখলার সামগ্রিক অবনতি, এই সব কিছুর কারণে উঠতি প্রমোটার, অপহরণকারী, ছিনতাইবাজ ইত্যাদি সবরকমের দুর্বৃত্তের প্রধান লক্ষ্য (সফ্‌ট টার্গেট), বিশেষ করে বাঙালী-অধ্যুষিত শহরগুলোয় হয়ে দাঁড়ালো বাঙালী মধ্যবিত্ত।
এই রকম পরিস্থিতিতে বিহার বাঙালী সমিতির কুশল নেতৃত্ব ধীরে ধীরে সংগঠনে একটা বৈপ্লবিক পরিবর্তন সাধন করল। উত্তর বিহারের বিভিন্ন জেলায় গ্রামাঞ্চলে কলোনী গড়ে বসবাসকারী প্রায় পাঁচলক্ষ এককালীন উদ্বাস্তু বাঙালী জনসমুদায় নিজেদের যে আন্দোলন চালাচ্ছিল, তাদেরকে সাদরে আমন্ত্রণ জানিয়ে নিয়ে এল সমিতির ব্যানারে। পাটনার রাস্তায় বেরুলো মিছিল। জেলায় জেলায় রিলে ধর্না। জমির মালিকানা স্বত্ত্ব, জাতি প্রমাণপত্র, বিপিএল সূচীতে অন্তর্ভুক্তি, প্রাথমিক ও মাধ্যমিক স্তরে পাঠ্যক্রমে বাংলা বিষয়ের ও বাংলা মাধ্যমের অন্তর্ভুক্তি, শিক্ষক নিয়োগ, পাঠ্যপুস্তক মুদ্রণ ইত্যাদি দাবীসম্বলিত প্ল্যাকার্ড হাতে রাস্তায় দাঁড়িয়ে বিহারের বাঙালি টের পেল তার সামুদায়িক পরিচয়ে এক রূপান্তর ঘটছে। তার পর এল ভোট বয়কটের ডাক।… সমিতির সদস্যতার শ্রেণীগঠন, দাবীসমূহ এবং তা আদায় করার ধরণধারণ সব কিছু গেল বদলে। গণআন্দোলন একটা নিয়মিত ব্যাপারে দাঁড়িয়ে গেল।
তাই ‘ভাষা বাঁচলে’ কথাটার গুরুত্ব আমাদের মধ্যে অন্যরকম ও কিছুটা সাহিত্যবিরোধী হয়ে উঠেছে আজকাল। তবু, এটা দেখা দরকার যে কিসের প্রয়োজনে আমাদের মধ্যে বেঁচে আছে ভাষা, মানে বাংলা? অর্থনৈতিক প্রয়োজনে নিশ্চয়ই নয়। অদূর ভবিষ্যতে সে প্রয়োজন আসার সম্ভাবনাও নেই। তাহলে? কী বলে বোঝাই আমরা নিজের সন্তানকে বাংলা পড়ার প্রয়োজনীয়তা? মা-বাবার, দাদু-দিদিমার ভাষা, পরম্পরা ইত্যাদির কথা বলেও যখন বোঝাতে পারি না তখন কি বাংলার অনুপম সাহিত্যেরই উল্লেখ করি না? বলি না যে রবীন্দ্রনাথের মত বিশ্ববরেণ্যই বা সে কোথায় পাবে আর ফেলুদার মত গোয়েন্দাগল্পই বা কোথায় পাবে?… সাহিত্য, ভালো সাহিত্যই ভাষার জায়গা তৈরি করে। বিহারের বাঙালিরা সরকারি মহলে হোক আর বুদ্ধিজীবী মহলে, হুঁকো পান আজও সেই দ্বারভাঙ্গা কে বিভূতিবাবু, ভাগলপুর কে বনফুল আর পুর্ণিয়া কে সতীনাথ ভাদুড়ীর নামে!
কাজেই আমার কথা হল যে সাহিত্যকর্মকে কখনোই হেয় করা উচিৎ নয়। ‘যা হোক, কষ্ট করে বাংলায় লিখছে তো’ কথাটা শুধুমাত্র বালখিল্যদের জন্য প্রয়োগ করা উচিৎ। মনে রাখা উচিৎ যে ‘বাঙালির মন ও মননের সমসাময়িকতা, তার বীক্ষার সমসাময়িকতা বিশ্বব্যাপী ও মেরুবহুল, এই ধারণাটাকে অনুশীলিত সত্যে ও তথ্যে পরিণত করার চ্যালেঞ্জটা আমাদের।  

বাংলা সাহিত্যে বিহার; সাহিত্য ও সাহিত্যিক – নিসর্গ, মানুষ, কালভাবনা
বিগত শতাধিক বছরে বিভিন্ন সমাজ-সংস্কারক ও সাহিত্যিকদের রচনায় ও কর্মে বিহার (এবং ঝাড়খন্ড) তার নিসর্গ, তার মানুষ নিয়ে উপস্থিত থেকেছে। গড়েছে বাংলা ও ভারতের বেশ কয়েকটি যুগসন্ধিক্ষণের কালভাবনা।
আকছার বলা হয় যে ইশ্বরচন্দ্র বিদ্যাসাগর নিজের শেষ জীবনে নানান কারণে বীতশ্রদ্ধ, ক্লান্ত ও হতাশ হয়ে একটু শান্তির নীড় খুঁজে নিতে এসেছিলেন কর্মাটাঁড়ে! যাঁরা বলেন তাঁরা ভুলে যান যে বিদ্যাসাগর বাংলার নবজাগরণের শ্রেষ্ঠতম সন্তান ছিলেন। রেনেশাঁ-ব্যক্তিত্বের পরিচয় এটাই যে তাঁরা অক্লান্ত কর্মদৈত্য, মনন ও অনুশীলনের ঐক্যের দিকে ধাবিত একেকজন লেভিয়াথান। বাংলার রেনেশাঁর শ্রেণীগত সীমা নিয়ে যত বিতর্কেরই অবতারণা করা হোক, এটা প্রমাণিত তথ্য যে তার শেষ পর্বে একটি ধারা বাঙলা থেকে বেরিয়ে ঔপনিবেশিক অর্থনীতির ও সমাজের প্রত্যন্তে স্থিত মানুষজনের মধ্যে কাজ করতে গিয়েছিল। সেই ধারার সুত্রেই বিদ্যাসাগরের কর্মাটাঁড়ে আসা, বালিকা বিদ্যালয়, হোমিওপ্যাথিক দাতব্য চিকিৎসালয়, বয়স্ক শিক্ষা প্রতিষ্ঠান স্থাপনার প্রয়াস চালানো এবং আদিবাসি কৃষকদের জন্য উন্নত ধরণের চাষ শেখানো, ফলনশীল বীজের ব্যবস্থা করা, গ্রামীণ শিল্প, কারিগরির মাধ্যমে বৈকল্পিক রোজগারের দিকে তাদের দৃষ্টি আকর্ষণ ইত্যাদি।
বিহারে সরকারি কাজে হিন্দীর প্রচলনে ভুদেব মুখোপাধ্যায়এর অবদান সর্বজনস্বীকৃত। এই কাজটি ‘বাঙালির আত্মপরিচয়ে বিহার D বিহারের আত্মপরিচয়ে বাংলা’র, অর্থাৎ উপরুল্লিখিত ‘multiple belonging’ যথার্থ নজীর।
          বিহার আলাদা হওয়ার আগে অব্দি বেঙ্গল প্রেসিডেন্সীর অন্তর্গত ছিল। ওড়িশাও ছিল। কিন্তু বাংলায় পরিব্রাজক বাদে সাধারণ, মধ্যবিত্ত মানুষের এমনকি ঐশ্বর্যশালী বাবুদেরও যাত্রাপথ রেলের, সমান্তরাল লোহার পাতদুটোর সাথে এগিয়েছে। হাওড়া বেনারস রেলপথ ভায়া লুপলাইন, মানে ভাগলপুর, শুরু হয়েছে ১৮৬৩ সালে। আর হাওড়া থেকে কটক বা পুরী যাওয়ার রেলপথ খুলেছে ১৯০০ সালে। রেলের এই ইতিহাস ঔপনিবেশিক প্রশাসনের হাত শক্ত হওয়ারও ইতিহাস। তারই সাথে জড়িয়ে আছে বাঙালি মধ্যবিত্ত চাকুরে ও বুদ্ধিজীবীদের দেশের বিভিন্ন রাজ্যে ছড়িয়ে পড়ার ইতিহাস ও পর্যায়ক্রম।
প্রথম দিকের বিহারবাসী, বা বিহারে বেশ কিছু সময়ের জন্য বসবাসকারী বাঙালি লেখকদের লেখায় তাই সাধারণভাবে, বাঙালি চরিত্র বাদে বিহারের মুখ অস্পষ্ট। খুব বেশি হলে দরিদ্র, দুঃস্থ চাষীঘর, চাকর বা ফেরিওয়ালা ইত্যাদির স্টিরিওটাইপ। কিন্তু প্রথম বিশ্বযুদ্ধের পরপরই সাহিত্যের নতুন চিন্তাভাবনায়, দেশের সার্বিক মুক্তির স্বার্থেও আবার শহুরে মধ্যবিত্ত জীবনের ও মননের অসারতা প্রমাণেও, প্রত্যন্ত মানুষের মানবিক সৌন্দর্য ও দৃপ্তি প্রয়োজনীয় হয়ে ওঠে। এখানেই মানবিক মূল্যের ব্যাপ্তির প্রেক্ষাপট হিসেবে বিহারের নিসর্গ এবং সেই নিসর্গের সাথে একাত্ম মানুষের চেহারা নিয়ে বিহারের প্রবেশ ঘটে।
আর ওই একই প্রয়োজনীয়তার প্রসারে, অধুনা ঝারখন্ড (কিন্তু তখন বিহার)এর আদিবাসীদের ব্রিটিশশাসন বিরোধী সশস্ত্র সংগ্রামের কাহিনী নিয়ে গবেষণা প্রাসঙ্গিক হয়ে উঠতে থাকে। এমনকি তেমন লেখক, বুদ্ধিজীবীরাও এ নিয়ে ভাবতে শুরু করেন যাঁদের ব্যক্তিগত সম্পর্ক বিহারের সাথে সেভাবে ছিল না।
উল্লেখ করা অপ্রাসঙ্গিক হবে না যে হিন্দী সাহিত্যে বিহারের প্রবেশ, বিশেষ করে গ্রামীণ বিহারের প্রবেশ ওই একই সময়ে শুরু হল। আচার্য শিউপূজন সহায়ের ‘দেহাতি দুনিয়া’ প্রকাশিত হয় ১৯২৬ সালে।
স্বাধীনতাপ্রাপ্তির দিনগুলো এগিয়ে আসতে আসতেই সাহিত্যে গুরুত্বপূর্ণ হয়ে ওঠে শাসনের হস্তান্তরণ বনাম স্বাধীনতা, রাজনৈতিক স্বাধীনতা বনাম সাধারণ মানুষের সুখ-দুঃখ, স্বাধীনতা বনাম শোষণের বিরুদ্ধে অন্তিম মুক্তিসংগ্রাম ইত্যাদি প্রতর্কগুলো।
এই পর্যায়ে বিহারের বাঙালি সাহিত্যিক ও বিহারি চরিত্র দুয়েরই গুরুত্ব অপরিসীম। আলাদা করে নাম নিতে চাই না, তবু উদাহরণ হিসেবে বলছি, ‘জাগরী’ নিজের genreএ প্রথম বাংলা উপন্যাস – বিষয়ভাবনা ও টেকনিক, দুদিক থেকেই। আবার ওই একই লেখকের সৃষ্ট ‘ঢোঁড়ই তাৎমা’ বাংলা ও হিন্দী সাহিত্যের আগামি অনেক চরিত্রের পূর্বসূরী।
অনেকেই বলেন সত্তরের দশক মুক্তির দশক। ৭১এ বাংলাদেশের জন্ম, ৭২এ আলেন্দের নেতৃত্বে চিলিতে নতুন শাসন, ৭৫এ ভিয়েৎনাম, কম্বোডিয়া ও লাওসের মুক্তি এবং ৭৮এ আফগানিস্তানে নুর মুহম্মদ তারাকির নেতৃত্বে দাউদের রাজতন্ত্র উৎখাত। এই বিহারেও, চুয়াত্তরে জয়প্রকাশ নারায়নের নেতৃত্বে গণআন্দোলন যার অভূতপূর্ব সাড়া ছাত্র ও ঘরের মহিলাদের মাঝে। ৭৫এ আপাতকাল ঘোষণা কিন্তু তার জবাবও দিল ভারতের জনতা ওই দশকেরই সাতাত্তরে। ভারতে প্রথম অকংগ্রেসী কেন্দ্রীয় শাসন এল।
নকশাল আন্দোলনও ওই সময়ে ছড়ালো বিহারের ও বর্তমান ঝারখন্ডের বিভিন্ন জেলায়।
এই রাজনৈতিক পরিপ্রেক্ষিতটা সবার কাছে সমান অর্থে গ্রহণযোগ্য নাও হতে পারে। কিন্তু আমূল পরিবর্ত্তনের একটা হাওয়া যে চলেছিল এবং সেটা বিহারের যুবসমাজকে বিশেষভাবে প্রভাবিত করেছিল এটা তথ্য। যুক্তি-অযুক্তির, স্বপ্ন-বাস্তবের বিতর্ক এখানে টানছি না। সমাজবদলের সংগ্রামের এই নতুন ভাষা নানা ভাবে ছায়া ফেলতে লাগল বাংলা সাহিত্যে যেমন, হিন্দী সাহিত্যেও। ছায়া কথাটা এখানে এতটাই ব্যাপ্ত যে তার ভালোমন্দ ছেড়ে দিচ্ছি, আক্ষরিক অর্থে হিন্দী স্ল্যাং ও নানা ধরণের শব্দ ও শব্দজোট উঠে আসতে লাগল বাংলায়। এই পর্যায়েও আবার, এবং এর পরবর্তী পর্যায়েও এমন লেখকেরা বিহার নিয়ে লিখতে শুরু করলেন যাঁদের জীবনযাপন বিহারে নয়।
নব্বইয়ের দশক। যদিও মহারাষ্ট্র/গুজরাটের দলিত সাহিত্যের অনুবাদ ইত্যাদিরও এই প্রসঙ্গে বড় ভূমিকা রয়েছে, কিন্তু বাংলার সাধারণভাবে অসাম্প্রদায়িক মনন যখন দেখল যে অনগ্রসর জাত আর তপশীলী জাতের রাজনৈতিক ঐক্য রুখে দিচ্ছে আদবানির রথ, আর বাবরি মসজিদ ধ্বংসের পর সাধারণভাবে বজায় রাখছে শান্তি ও শৃংখলা… তখন জাত/বর্ণ ও শ্রেণীর অন্তর্সম্পর্ক নিয়ে পুনর্ভাবনা শুরু হল এবং সাহিত্যের ক্ষেত্রে সেই ভাবনার পটভূমি প্রায় পুরোটাই বিহার। কিছুটা কাজ অবশ্য তখন উঠে আসা বাংলার নিজস্ব ‘দলিত সাহিত্য’ও করেছে। আর, অবশ্যই সোভিয়েত সঙ্ঘে সমাজবাদের পতনও এই ‘ফিরে দেখা’য় একটা গুরুত্বপূর্ণ ভূমিকা নিয়েছে।  

শেষমেশ বিহারের বাংলা সাহিত্য নিয়ে কয়েকটি কথা।
১-       সাহিত্যের বিষয়ভাবনায়, বাংলাভাষী-হিন্দীভাষী/মৈথিলীভাষী/ভোজপুরীভাষী পরিবারের অন্তর্সম্পর্কের জায়গাটা এখনো সেভাবে আসেনি। বিশেষকরে পুনর্স্থাপিত উদ্বাস্তুদের কলোনিগুলোতে এ নিয়ে কাজ না করলে সামাজিক প্রেক্ষিতটা স্পষ্ট হবে না।
২-       বিহারের স্থানিক রাজনীতিতে বাঙালি – এ জায়গাটাও অনাবিস্কৃত।
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এই প্রবন্ধটি লিখতে ১৬-১৭ মার্চ ২০১৩ পাটনায় বিহার বাংলা আকাডেমি আয়োজিত সর্বভারতীয় আলোচনাচক্রে, আমারই রচিত দুটি বিষয়ভাবনার সাহায্য নেওয়া হয়েছে।

উদ্যমিতার সন্ধানে

অঁত্রপ্রেনিওর বা এন্ট্রপ্রেনিওর শব্দের মানে দেখলাম ‘ব্যবসায়ে যে ঝুঁকি নেয় বা তার পরিচালনার ভার গ্রহণ করে’। কিন্তু এন্টারপ্রাইজ শব্দের মানে পেলাম উদ্যম। চলন্তিকায় উদ্যম শব্দের অর্থ দেওয়া আছে ‘উদ্যমশীল, উদ্‌যোগী, চেষ্টাবান’। অর্থাৎ, মনে হচ্ছে স্পষ্টভাবে, যে ‘ব্যবসায়ে ঝুঁকি নেয় বা তার পরিচালনার ভার গ্রহণ করে’ তার জন্য উদ্যমী শব্দের প্রয়োগ বাংলায় নেই, বা ছিল না (নাকি এখন হয়েছে কিন্তু বাংলার বাইরে থাকি বলে জানিনা!)। অবশ্য না হলেই বা ক্ষতি কী? উদ্যম তো এখন আর শুধু ব্যবসা বা শিল্পবাণিজ্যের ক্ষেত্রেই প্রযোজ্য নয়!
তাহলে কী বলি? শিল্পোদ্যমী? শিল্পোদ্যোগী? তাও তো হবেনা! ব্যবসাবাণিজ্যের ক্ষেত্রেও তো উদ্যমী হয়! আর এখন তো উদ্যমী শব্দটাকে ব্যাপক অর্থ দিয়েছে সরকার (সে কথায় যথা সময়ে আসব)। কাজেই শেষ পর্য্যন্ত উদ্যমী শব্দটাই গ্রহণ করলাম। আপাততঃ এর প্রয়োগ এখানে শিল্প (ইন্ডাস্ট্রি অর্থে) ও ব্যবসাবাণিজ্যের ক্ষেত্রে সীমিত রাখছি।  

আমি জানিনা মনের মধ্যে যে প্রশ্নগুলো ঘুরপাক খাচ্ছে সেগুলোর উত্তর খুঁজতে কীভাবে এগোনো উচিৎ। বিষয়টা আমার জন্য এতটাই নতুন যে ভারতে উদ্যমিতার এবং উদ্যমী মানসিকতার বিকাশের অধ্যয়নে কোথায় কত কাজ হয়েছে বা হচ্ছে তা আমি জানিনা। তবে এখন বিষয়টা ধরার পর অন্তর্জাল ঘাঁটতে ঘাঁটতে যে সামগ্রীগুলো পাচ্ছি সেগুলোই আমার পাথেয়। নিঃসন্দেহে উদ্যমী মানসিকতা আমি পছন্দ করি, শ্রদ্ধা করি উদ্যমীদের, হয়ত কিছুটা রোমান্টিকতাও আছে উদ্যমী মানসিকতা নিয়ে। দেখা যাক!

মাথায় সবচেয়ে আগে ঘুরতে থাকে ভারতের সেই আদিবুড়ো, দাদাভাই নওরোজি সাহেবের কথাগুলো। ‘পভার্টি অ্যান্ড আনব্রিটিশ রুল’ বইটার ছত্রে ছত্রে বার বার, আগে ইস্ট ইন্ডিয়া কোম্পানি ও পরে ব্রিটিশ শাসনের কুকীর্তির হিসেব দিতে গিয়ে, যখনি আর্থিক বঞ্চনা ও লুন্ঠনের পরিণতি সম্পর্কে সাবধান করেছেন, রক্ত-নিংড়ে-শরীর-সাদা-করে-দেওয়া আর্থিক ক্ষয় ও উৎপাদন-ক্ষমতার ক্ষয়ের সাথে নৈতিক ক্ষয়, মানসিক ক্ষয়ের কথা বলেছেন। নিজের যুক্তি সাজাতে দক্ষ আইনজীবীর মত তিনি ইংরেজদের বিরুদ্ধে ইংরেজদেরই দাঁড় করিয়ে সাক্ষ্যপ্রমাণ হাজির করেছেন। সেই সমস্ত উদ্ধৃতির এখানে কোনো প্রয়োজন নেই। বইটার প্রধান বক্তব্যগুলো সবাই জানেন। যে দুর্নীতিপরায়ণ প্রশাসন ইস্ট ইন্ডিয়া কোম্পানি এখানে কায়েম করেছিল, পরে প্রত্যক্ষতঃ ব্রিটিশ শাসনাধীন হওয়ার পরেও সেই প্রশাসনে, পুলিসে ও বিচারব্যাবস্থায় দুর্নীতি ও অবিচার, অন্ততঃ সাধারণ মানুষের ক্ষেত্রে একই রকম ছিল। আর সেই দুর্নীতিপরায়ণতা, নৈতিক অবক্ষয়, আত্মমর্যাদাশূন্য ঔপনিবেশিক বশম্বদতা ব্যাপকভাবে চারিয়ে গিয়েছিল দেশের উচ্চশ্রেণী, মধ্যশ্রেণী এবং আংশিক ভাবে, সাধারণ মানুষের ব্যক্তিগত উচ্চাকাঙ্খী প্রবৃত্তিগুলোর ভিতরে।
এই অপ্রাসঙ্গিক কথাটা এখানে হয়ত খুব বেশী অপ্রাসঙ্গিক হবেনা যে বৈবাহিক সম্পর্কস্থাপনে বরের গুণাগুণের প্রশংসায় ‘সরকারী চাকরীতে উপরী’র প্রসঙ্গটা সর্বাগ্রে রাখার জন্য হিন্দীভাষী এলাকার যে মানুষদের নিয়ে আমরা হাসাহাসি করি, আমরা বাঙালিরাও কিন্তু একসময়, বা কে বলতে পারে, হয়ত আজও, তাদেরই সমকক্ষ ছিলাম! ‘সরকারি চাকরি’, অর্থাৎ ব্যাবসায়িক উদ্যমিতাকে নিচু নজরে দেখা তো বাঙালিদের জাতীয় গুণ হিসেবে আগে থেকেই ছিল এবং এখনও আছে (মনীষীরা তা নিয়ে অনেক ভর্ৎসনা করেছেন), আর তার ‘উপরি’ অর্থাৎ ঔপনিবেশিক সাহেবের দেওয়া মদের খোঁয়াড়িটাও একসময় অনেক উচ্চবিত্ত (এবং কিছুটা মধ্যবিত্তও) বাঙালির পছন্দের স্বাদ ছিল।
এই দ্বিতীয় জিনিষটা বিগত সাতাশ বছরের অর্থনীতি, বিশেষ করে ওপরমহলে আরো বাড়িয়েছে। দু’দশকের রাজনৈতিক উথালপাথালে খুব গুরুত্বপূর্ণ যে সামাজিক জ্ঞানটা সাধারণ মানুষ হাসিল করেছে সেটা হল, সমাজের মাথা ও হোতাগুলো, যাঁরা আগে শ্রদ্ধেয়/মাননীয় ছিলেন, দুর্মূল্য হতে পারেন, অমূল্য নন কেউই! এমনও জজসাহেবের কথা লোককে বলতে শুনেছি, অভিযুক্তকে বেকসুর খালাস দেওয়ার জন্য পঞ্চাশ হাজারে কথা হয়েছিল, পরে টাকা গুনতে গিয়ে দেখেন পঁয়তাল্লিশ হাজার, রাগে দশ বছরের সাজা থেকে আট বছর বাদ দিলেও, দু’বছর রেখে দেন। নতুন অর্থনীতির জমানায় দুর্নীতি সাধারণভাবে বেড়েছে, কিন্তু সে প্রসঙ্গে যাওয়ার, এমুহুর্তে কোনো প্রয়োজন নেই। আর সরকারি চাকরি? সবাই জানেন যে নানা কারণে (স্থায়ীত্ব, কাজের লঘু চাপ, বেশি মাইনে) ক্যাম্পাস/প্লেসমেন্ট/প্যাকেজের তাৎক্ষণিক নেশায় মেতে ওঠা নতুন প্রজন্ম এবং তাঁদের অভিভাবকদের কাছে ২০০৮এর বেশ আগে থেকেই ‘সরকারি চাকরি’ বেশি মূল্যবান হয়ে উঠতে শুরু করেছে আবার থেকে।

যা হোক, উপরোক্ত ঔপনিবেশিক পরিস্থিতিতে উদ্যমীর জন্মের সন্ধান করতে যাওয়ার আগে একটু ভেবে নিই যে উদ্যমী কাকে বলব। সবাই জানেন যে শব্দটার অর্থ বিগত তিনশো (মোটামুটি) বছরে ধীরে ধীরে পাল্টেছে, এবং শেষ একশো বছরে, একচেটিয়া পূঁজির আধিপত্য উদ্যমীর বিকাশের কন্ঠরোধ করার পর দ্রুত পাল্টেছে। উইকিপিডিয়ায় দেখলাম ১৯৯২ সালে নতুন শব্দও তৈরি করতে হয়েছেঃ ইন্টার-প্রেনিওর। ‘কর্পোরেট’ মহালের যে কর্মচারীটি একটি নতুন আইডিয়া দিয়ে তাকে কার্যে পরিণত করার ঝুঁকি নেয়! আবার ভারত সরকার এদিকে তার একটি ওয়েবসাইটে উদ্যমীদের আট ভাগে ভাগ করেছে – বিজনেস অন্ত্রপ্রেনিওর, সোশ্যাল অন্ত্রপ্রেনিওর, ট্রেডিং অন্ত্রপ্রেনিওর, ইন্ডাস্ট্রিয়াল অন্ত্রপ্রেনিওর, কর্পোরেট অন্ত্রপ্রেনিওর, এগ্রিকালচারাল অন্ত্রপ্রেনিওর, টেকনিক্যাল অন্ত্রপ্রেনিওর, নন-টেকনিকাল অন্ত্রপ্রেনিওর।   
এটা স্পষ্ট যে ‘ঝুঁকি’টা সাধারণ বৈশিষ্ট। নিশ্চিন্ত জীবন, নিশ্চিত আয়ের জগৎ স্বেচ্ছায় ত্যাগ করে উদ্যমী ঝুঁকি নেয় – নতুন আইডিয়া মাথায় নিয়ে কার্যে পরিণত করতে এগোয়, নিশ্চিত দামে কাঁচামাল ও শ্রম কিনে নতুন মাল তৈরি করে অনিশ্চিত বাজারে অনিশ্চিত দামে বিক্রি করতে এগোয়, জানা বাজার থেকে মাল কিনে অজানা বাজারে অথবা অজানা বাজার থেকে মাল কিনে জানা বাজারে বিক্রি করতে এগোয়, এখনকার এন.জি..র রমরমায় সরকারি স্কীমগুলো সফল করতে এগোয় – নতুন আইডিয়া নিয়ে খেলা করে, দুঃসাহস দেখায় ইত্যাদি, ইত্যাদি। এমনকি দুঃসাহসিক অভিযানেও যায়, ভাগ্যে থাকলে নতুন দেশও আবিষ্কার করে ফেলে। একটা মজার পরিভাষা পেলাম, পরিভাষাকার বেনামী। দেখলাম গবেষকদ্বয় উদ্ধৃত করেছেন, “উদ্যমিতা মানে তোমার জীবনের কয়েকটি বছর এমনভাবে কাটানো যেমনভাবে অধিকাংশ মানুষ কাটাতে চাইবেনা, যাতে তোমার বাকী জীবন এমনভাবে কাটাতে পারো যেমনভাবে অধিকাংশ মানুষ কাটাতে পারবেনা”! জিওঃ! কী দারূণ পরিভাষা! সত্যি বলতে, উদ্যমীর স্বপ্ন তো এটাই! কিন্তু, সত্যিই কি এটাই উদ্যমিতা?  

এটা ঠিক যে উদ্যমীদের নিয়ে আমাদের সমাজে নেতিবাচক চিন্তাভাবনা একটু বেশি ছিল। তার কারণের একটা পারম্পরিক দিক যেমন ব্যাবসায়ীদের প্রতি শিক্ষিত সমাজের মানুষজনের হেয় দৃষ্টি - যার সাথে বিংশ শতকের সমাজবাদী চিন্তাভাবনা (ওই শিক্ষিত সমাজের একদেশদর্শিতার সাথে) বেশ খাপ খেয়ে গেল -আরেকটা দিক কিন্তু ভারতের ঔপনিবেশিক এবং উপনিবেশ-পরবর্ত্তী পরিবেশে খোদ ব্যবসায়ীদের ফুলেফেঁপে ওঠার বাস্তব কাহিনীগুলো (যার কিছু অংশ ওই হেয়দৃষ্টিজনিত কল্পনা হলেও অনেকটাই সত্য)। একটা উদ্ধৃতি দিচ্ছি, আমার কথার সমর্থনে ঠিক নয়, কিন্তু ভাবনাচিন্তা যে চলছে সেটা দেখাতে।
“ভারতকে নিয়ে লেখা বেশির ভাগ ইতিহাসে ব্যাবসায়ী এক অস্পষ্ট আকৃতি। অংশতঃ এটা খোদ ইতিহাসবিদদের পটভূমির প্রতিফলন, কেননা অধিকাংশ ইতিহাসবিদ ব্রাহ্মণ, কায়স্থ এবং অন্যান্য তথাকথিত লেখনকর্মে নিযুক্ত সমুদায়ের মধ্যে থেকে এসেছেন। বেশি রকম ইংরেজি-শিক্ষিত এই সামাজিক স্তরটির জন্য বৈশ্য বা বানিয়াকে নিচু চোখে দেখা খুব স্বাভাবিক ব্যাপার। রাজনীতির প্রাচীন বিদ্বান কৌটিল্যও তো নিজের ‘অর্থশাস্ত্রে’ এই ব্যাবসায়ীদের ‘নামে না হলেও কাজে চোর’ বলে গেছেন। তার ওপর কম্পানি বাহাদুরের শুরুয়াতি দিনগুলোর দিনলিপি-রাখিয়েদের চোখেও ব্যাবসায়ীদের জাগতিক কাজকর্মগুলো রাজাদের বৈভব ও শৌর্য কিম্বা পন্ডিতদের জটিল আঁক কষার ক্ষমতার তুলনায় কম দৃষ্টি আকর্ষণ করত। এই উদাসীনতা জোর পেল জাতীয় আন্দোলনের সময়ঃ বানিয়াদের সুদখোর হিসেবে, কৃষকদের শোষণ এবং দুর্দশার জন্য দায়ী ঔপনিবেশিক যন্ত্রের অঙ্গ হিসেবে দেখা হতে লাগল। স্বাধীনতা-পরবর্ত্তী নেহরুবাদী রাষ্ট্র কর্ত্তৃক পূঁজিপতি-বিরোধী ভাবনাগুলোর সুবিধেবাদী লালনপালন, সামাজিক স্তরভেদের পারম্পরিক চিন্তাধারার সাথে খাপ খেয়ে ব্যাবসায়ীর নেতিবাচক স্টিরিওটাইপ তৈরি করল, যদিও বলা যাবেনা যে সেটা পুরোপুরি অসঙ্গত ছিল।”

আর সত্যিকারের উদ্যমিতা, ইয়োরোপে আমেরিকায় পূঁজিবাদের ধ্রুপদী বিকাশপথে যেভাবে দেখা দিয়েছিল, সেভাবে তো ভারতে কখনোই দেখা দেয়নি! আজও দেখা দেয়নি! আবার একটা ঈষৎ দীর্ঘ উদ্ধৃতি দেওয়ার জন্য ক্ষমা চেয়ে নিচ্ছি।
“যদি আপনারা যুক্তরাষ্ট্রের শিল্পপতিদের সূচীটার দিকে তাকান, দেখবেন হেনরি ফোর্ডের নামে ১৬১টা ইউএস পেটেন্ট রয়েছে, চার্লস গুডইয়ার ভাল্কানাইজড রাবার আবিষ্কার করেছিলেন, এলি হুইটনি জিন [কাপড়কলের] আবিষ্কার করেছিলেন। সাইরাস ম্যাককর্মিক রীপার আবিষ্কার করেছিলেন। এবং এঁরা সবাই সেই সময়েই মিলিয়নেয়ার হয়েছিলেন। তারপর দেখুন জর্জ ওয়েস্টিংহাউজ, যিনি রেলওয়ের এয়ারব্রেক আর বিদ্যুৎ প্রেরণে এসি প্রণালী আবিষ্কার করেন। স্যামুয়েল কোল্ট রিভল্ভিং কার্ট্রিজ সিলিন্ডারওয়ালা পিস্তল আবিষ্কার করেন। তারপর আছেন খোদ টমাস আল্ভা এডিসন। তেমনই আইজাক মেরিট সিঙ্গার। এমন নয় যে বিত্ত আর বাণিজ্যের লোকেরা একেবারেই ছিলেননা। জে পি মর্গানেরা ছিলেন, কার্নেগিরা ছিলেন। কিন্তু আসল কথা হল যে [পূঁজিবাদের বিকাশটা] মূলতঃ উৎপাদকদের নেতৃত্বে হয়েছিল আর একটা সংস্কৃতি ছিল নতুন কিছু প্রবর্তনের। যখন নাকি ভারতে সেটা হয়নি। প্রধানতঃ বণিকেরা এখানে পূঁজিবাদের বিকাশে নেতৃত্ব দিয়েছে। সেটাও একটা বড় কারণ যে এখানে এই বিকাশ আমাদের বিশেষ মনোযোগ আকর্ষণ করেনা। যদি উৎপাদকের নেতৃত্বে উদ্যমিতার ভারতে শুরু করেন, হয়ত কোয়েম্বটুরে খুঁজে পাবেন – যেমন জি ডি নাইডু! এমনকি কোয়েম্বটুরেও বেশি লোকে ওনাকে চেনেনা, যদিও এক উল্লেখযোগ্য মানুষ ছিলেন তিনি। তিনি ভারতের প্রথম ইলেক্ট্রিক মোটর এবং আরো কিছু বাছা বাছা নতুন জিনিষের প্রবর্তন করেছিলেন। বা, লুধিয়ানার রামগড়িয়াদের দেখুন, বাটালায় তাদের অনেকগুলো ফাউন্ড্রি আর মেশিন টুল শপ ছিল। কিন্তু এরা সবাই অত্যন্ত প্রান্তিক মানুষ। উৎপাদনের পথে বড় ব্যাবসায়ী হয়ে ওঠা একমাত্র নাম কির্লোস্করেরা, অথবা শেষাসেয়ীরা। নইলে সাধারণভাবে বণিকদের নেতৃত্বে এদেশে পূঁজিবাদের বিকাশ ঘটেছে।”

এটা ইতিহাস, বদলানো যাবেনা। প্রাক-ঔপনিবেশিক যুগের ভারতে পূঁজিবাদের বিকাশ, বড় বড় বণিক ও ব্যাঙ্কাররা থাকা সত্ত্বেও বাণিজ্যিক-পূঁজির স্তরেই কেন রয়ে গেল, কেন ম্যানুফ্যাকচারিং-পূঁজির (‘কারখানা-পূঁজি’ বলা যাবে কি?) জন্ম দিতে পারল না, এ নিয়ে দেশী-বিদেশী সমাজবিজ্ঞানীরা অনেক গবেষণা করেছেন, আর তার কারণ তাঁরা যাই পেয়ে থাকুন না কেন, ইতিহাসটা আবার থেকে তৈরি করা যাবেনা। প্রশ্ন এটাই, ঔপনিবেশিক পরিবেশ ভারতে উদ্যমিতার বিকাশের না হয় গতিরোধ করেছিল। স্বাধীনতা-পরবর্ত্তী অর্থনীতিতে উদ্যমিতার বিকাশের জন্য কী কী পদক্ষেপ নেওয়া হল। ১৯৯১এর পর যে নতুন অর্থনীতি এল তা কি সত্যিই, যেমন অনেকে বলেন, উদ্যমিতার বিকাশে কোনো নতুন জোয়ার নিয়ে এল? আর তাহলে আজকের পরিস্থিতিটা কী।

          আগে দেখা যাক, ভারতের কেন্দ্রীয় সরকার কর্তৃক গৃহীত শিল্পনীতি প্রস্তাব ও বক্তব্যগুলোতে অন্ত্রপ্রেনিওর শব্দটির ব্যবহার কবে কবে এবং কোন কোন প্রসঙ্গে হয়েছে।
- In the past, there has been a tendency to proliferate schemes, agencies and organisations which have tended more to confuse the average small and rural entrepreneur than to encourage and help him.... Under the single roof of the District Industries Centre, all the services and support required by small and village entrepreneurs will be provided.
... To guide entrepreneurs, Government will issue a revised illustrative list of industries where no foreign collaboration, financial or technical, is considered necessary since indigenous technology has fully developed in this field. 
A number of units have been set up in joint ventures in many developing countries by Indian Entrepreneurs in collaboration with local associates. At the present stage of the country’s industrial development, substantial export of capital from India will neither be feasible nor desirable. The contribution of the Indian entrepreneur to the joint ventures abroad shall, therefore, have to be mainly in the form of machinery and equipment, structurals and also technical know-how and management expertise.
If the objectives of the new Industrial Policy of accelerating the pace of industrial growth, rapid increase in levels of employment, productivity and income of industrial workers and a wide dispersal of small and village industries have to be achieved, the willing co-operation of industrial worker, trade unions, managers, entrepreneurs, financial institutions and various governmental authorities responsible for implementing schemes of assistance will be essential.
INDUSTRIAL POLICY STATEMENT, 23rd December, 1977
- ...Small is beautiful only if it is growing just as the phased manufacturing programme with a view to reducing reliance on imported components and material structure, a carefully worked out time bound programme for greater ancillarisation in certain industries will contribute considerably towards dispersal of industry and growth of entrepreneurship.
...The enhancement of the limit in terms of investment in plants and machinery will also help genuine small scale units particularly those being set up by young and technically qualified entrepreneurs, to come up.
... One of the major constraints to the growth of decentralised sector has been the difficulties of finance experienced particularly by industrial entrepreneurs in small, cottage and rural sector.
INDUSTRIAL POLICY STATEMENT July, 1980
- ...An exercise will be undertaken to identify locations in rural areas endowed with adequate power supply and intensive campaigns will be launched to attract suitable entrepreneurs, provide all other inputs and foster small scale and tiny industries.
...In order to widen the entrepreneurial bases the Government would lay particular emphasis on training of women and youth under the Entrepreneurial Development Programme. A special cell would be established in MSME-DO and State Directorates of Industries to assist women entrepreneurs.
...While the Government will continue to examine large projects in view of resource constants, decisions in respect of medium sized investments will be left to the entrepreneurs.
...For the import of Capital Goods, the entrepreneur would have entitlement to import upto a landed value of 30% of the total value of plant and machinery required for the unit.
In respect of transfer of technology, if import of technology is considered necessary by the entrepreneur, he can conclude an agreement with the collaborator, without obtaining any clearance from the Government, provided that royalty payment does not exceed 5% on domestic sales and 8% on exports. If, however, lumpsum payment is involved in the import of technology, the proposal will require Government clearance, but a decision will be communicated to the entrepreneur within a period of 30 days.                                                           
INDUSTRIAL POLICY 1990
- In 1956, capital was scarce and the base of entrepreneurship not strong enough. Hence, the 1956 Industrial policy Resolution gave primacy to the role of the State to assume a predominant and direct responsibility for industrial development. 
...New growth centres of industrial activity had emerged, as had a new generation of entrepreneurs. A large number of engineers, technicians and skilled workers had also been trained.
...Government will continue to pursue a sound policy framework encompassing encouragement of entrepreneurship, ...
...Industrial Policy Resolution of 1956 identified the following three categories of industries: those that would be reserved for development in the public sector, those that would be permitted for development through private enterprise with or without State participation, and those in which investment initiatives would ordinarily emanate from private entrepreneurs.
...Major policy initiates and procedural reforms are called for in order to actively encourage and assist Indian entrepreneurs to exploit and meet the emerging domestic and global opportunities and challenges. The bedrock of any such package of measures must be to let the entrepreneurs make investment decisions on the basis of their own commercial judgement. ... Government policy and procedures must be geared to assisting entrepreneurs in their efforts.
...Further impetus must be provided to these changes which alone can push this country towards the attainment of its entrepreneurial and industrial potential.
...The exemption from licensing will be particularly helpful to the many dynamic small and medium entrepreneurs who have been unnecessarily hampered by the licensing system.
...The Indian entrepreneur has now come of age so that he no longer needs such bureaucratic clearance of his commercial technology relationships with foreign technology suppliers.
...Entrepreneurs will henceforth only be required to file an information memorandum on new projects and substantial expansions.
STATEMENT OF INDUSTRIAL POLICY New Delhi, July 24, 1991

অর্থাৎ, শিল্পনীতি প্রস্তাব ১৯৪৮, ১৯৫৬ এবং বক্তব্য ১৯৭৩ এ শব্দটি একবারও প্রযুক্ত হয়নি। মাঝারি, ছোটো, ক্ষুদ্র ও কুটির শিল্পের বিকাশ সংক্রান্ত অনেক কথা আছে কিন্তু অন্ত্রপ্রেনিওর শব্দটি নেই! কেন? চারটে কারণ ভাবা যেতে পারে।
১- পরম্পরাগতভাবে ব্যাবসা-বাণিজ্য করা সমুদায়গুলো, যথা পার্সি, গুজরাটি, মারোয়াড়ি ইত্যাদি (এবং আরো কিছু ছোটো ছোটো দক্ষিণী জনগোষ্ঠি সম্ভবতঃ), যাদের মধ্যে উদ্যমিতার বিকাশ ঘটাতে সরকারের তরফ থেকে উৎসাহ দেওয়ার কোনো প্রয়োজন নেই, তারা ছাড়া আর সমস্ত রাজ্য ও জনগোষ্ঠির কথা নীতি-রচয়িতাদের মাথায় ছিল না। এমনকি, মনে হয়, পাঞ্জাবী বা শিখদের কথাও মাথায় ছিল না, কেননা যদি থাকত, অন্ততঃ দেশভাগের ফলে ছিন্নমূল হয়ে চলে আসা মানুষদের কথা ভেবে উৎসাহ প্রদানের কথা থাকত (বাঙালিদের কথা মাথায় রাখার তো প্রশ্নই ওঠেনা, কেননা সেটা বাঙালি ভাবুকদের মাথায়ও হয়ত ছিল না)। এবং হয়তো উদ্যমিতার পরিভাষায় তখন অব্দি শুধু কিছু ঝুঁকি-পূঁজি (ভেঞ্চার ক্যাপিট্যাল) হাতে বণিক সমূদায়ের যুবরা ছিল, চাকরি ছাড়া অন্য কিছু করে খেতে চাওয়া, পরিবারের অবলম্বন হতে চাওয়া যুবদের শামিল করতে পারার মত প্রসারিত হয়নি। 
২- নতুন উদ্যমিতা, প্রযুক্তিজ্ঞান-নির্ভর উদ্যমিতা, কারিগরীকুশল গিল্ডমাস্টার-ধরণের উদ্যমিতার কথা ভাবার সময় তখনও আসেনি, কেননা যে সীমিত সংখ্যায় তারা এই সদ্য-স্বাধীন দেশে ছিল তাদেরকে দেশে ধরে রাখা এবং সরকারি ক্ষেত্রে নেওয়া বিশাল পরিকল্পনাগুলির কর্মযজ্ঞে তাদেরকে শামিল করাটা, প্রথম ও একমাত্র উদ্দেশ্য হওয়াই ছিল স্বাভাবিক। আই.আই.টি.গুলো থেকে যন্ত্রবিদ এবং প্রযুক্তিবিদদের নতুন প্রজন্ম ষাটের দশকের প্রথম দিকে বেরুনো শুরু হয়ে থাকবে। তাছাড়া সাধারণভাবেও তখন ১৯৫৬র শিল্পনীতি অনুসারে ‘আরো, আরো বেশি চাকরি-সৃজন’ (জেনারেশন অফ মোর অ্যান্ড মোর এমপ্লয়মেন্ট) এর জমানা।
৩- বাকি রইল খাদি, হস্তচালিত তাঁত, নানারকম কুটিরশিল্পকে বাঁচিয়ে রাখার সরকারি সংকল্পের বুলি; সেটা তো ছিলই। সেগুলোর প্রমোশনের জন্যও উদ্যমিতার বিকাশের কথা বলার প্রয়োজন তখনও অব্দি অনুভূত হয়নি।
৪- উদ্যমীদের জন্য জরুরী, বড় শহরের প্রান্তে, ছোটো শহরে বা জনপদে নিয়মিত বিদ্যুৎএর ব্যবস্থা, বড় সরকারি পরিকল্পনাগুলোর ফল হিসেবে সম্ভাবিত ছিল, কিন্তু বাস্তবায়িত হয়নি

তারপর থেকে শিল্পনীতি সংক্রান্ত বক্তব্যে ১৯৯১ অব্দি সাকূল্যে আঠাশ বার শব্দটি প্রযুক্ত হয়েছে। অন্ত্রপ্রেনিওর শব্দের প্রথম উল্লেখ করল কেন্দ্রের প্রথম অকংগ্রেসী সরকার, জনতা পার্টির সরকার। ১৯৭৭এর ডিসেম্বরে গৃহীত এই শিল্পনীতি বক্তব্যে উদ্যমী-প্রসঙ্গের তিনটে দিক আছে। প্রথমতঃ বলা হচ্ছে যে উদ্যমীদের সম্পর্কে এতদিনকার (১৯৪৮-১৯৭৭) নীতি বিভ্রান্তিমূলক ছিল; সেসব বিভ্রান্তি দূর করে নীতিগুলো সহজ করা হবে এবং উদ্যমীদের একই ছাতের নীচে সব সুবিধে পাইয়ে দেওয়ার জন্য জেলা শিল্প কেন্দ্র গঠিত করা হবে। দ্বিতীয়তঃ, তাদেরকে সূচী দেওয়া হবে যে কোন কোন শিল্পে বিদেশী লগ্নীর কোনো প্রয়োজন নেই এবং একই ভাবে যেসব উদ্যমীরা অন্যান্য বিকাশশীল দেশে যৌথ উদ্যোগে কাজ করছে, তারা বিদেশে কারিগরী, যন্ত্রাদি এসব নিয়ে যেতে পারবে কিন্তু পূঁজি নয়, কেননা মহার্ঘ্য বিদেশী পূঁজির প্রয়োজন এদেশে এখন বেশি (এ কথাটা উদ্যমীদের জন্য না হয়ে কংগ্রেসের অপপ্রচারের জবাব দেওয়ার জন্য বলা হয়েছিল মনে হয়)। তৃতীয়তঃ, শিল্পের অগ্রগতি ও প্রসারের জন্য যে শিল্পনীতি প্রয়োজন তাতে শিল্পশ্রমিক, ট্রেড ইউনিয়ন, ম্যানেজার, অন্ত্রপ্রেনিওর ইত্যাদি সবাইকার সহযোগিতা প্রয়োজন (এ কথাটাও উদ্যমীদের জন্য ততটা নয় যতটা নতুন শ্রমিকনীতি গ্রহণের প্রস্তুতি, যা পরে শিল্প সম্পর্ক বিল হিসেবে দেখা দিয়েছিল, যদিও গ্রহণ করতে পারেনি সরকার)। 
দ্বিতীয়বার অন্ত্রপ্রেনিওর শব্দের উল্লেখ দেখতে পাচ্ছি অব্যবহিত পরে – ১৯৮০তে কংগ্রেস সরকার ফিরে এলে পর, জুলাই ১৯৮০তে। একটা প্রচ্ছন্ন ধ্যাঁতানি আছে এতে, উদ্যমীদের ওকালতি যারা করছিল আগের সরকারে, তাদের জন্য। ‘অ্যান্সিলিয়ারাইজেশন’ শব্দটি প্রয়োগ করে বুঝিয়ে দেওয়া হল যে উদ্যমীদের জন্য ইকনমিক স্পেস প্রথমতঃ, শুধু মাত্র বড় শিল্প বা প্রজেক্টের অ্যান্সিলিয়ারী বা সহযোগী হিসেবেই দেখছে সরকার, তার বাইরে নয়। অন্যদিকে একটি ইতিবাচক সতর্কতাবাণী দেওয়া হল যে কম্পোনেন্ট আমদানী করে এখানে মালটা ইস্ক্রু কষে খাড়া করে দেওয়াটায় বিশেষ উদ্যমিতা নেই। দ্বিতীয়তঃ, আগের সরকারকে টেক্কা দিতে, ছোটো শিল্পের জন্য প্ল্যান্ট আর মেশিনারির ক্ষেত্রে লগ্নীসীমা বাড়াবার আশ্বাস দেওয়া হল, আর তৃতীয়তঃ, লঘু ও কুটির শিল্পের জন্য একটু চোখের জল ফেলা হল যে তারা ঠিকমত আর্থিক সহায়তা পাচ্ছেনা।
এবার শিল্পনীতি, মে ১৯৯০। আবার অকংগ্রেসী, ন্যাশনাল ফ্রন্ট সরকার। লোকের কথায়, ক্রাচে ভর দিয়ে চলা সরকার, কেননা একদিকে কম্যুনিস্ট পার্টি (মার্ক্সবাদী)র সমর্থন অন্যদিকে ভারতীয় জনতা পার্টির সমর্থন। প্রধানমন্ত্রী ভি.পি.সিং। দুর্বল সরকার – রামরথযাত্রী আদবানিকে বিহারে মুখ্যমন্ত্রী লালু প্রসাদ গ্রেপ্তার করালেন, ভাজপা সমর্থন প্রত্যাহার করল, সরকার পড়ে গেল দেড় বছরের মাথায়। অথচ, উদ্যমিতার বিকাশ নিয়ে প্রথমবার কিছু স্পষ্ট চিন্তাভাবনা এই শিল্পনীতিতেই দেখা গেল।
প্রথম বার বলা হল যে সব গ্রামীণ এলাকায় যথেষ্ট বিদ্যুৎ সরবরাহ হচ্ছে সেগুলো চিহ্নিত করে সেখানে উদ্যমীদের আকর্ষণ করার জন্য তীব্র প্রচারাভিযান চালানো হবে। সব রকম সহায়তা দেওয়া হবে ক্ষুদ্র ও ছোটো এককের বিকাশে।
আরো বলা হল মহিলা ও যুব উদ্যমীদের প্রশিক্ষিত করতে ‘উদ্যমিতা বিকাশ কর্মসূচী’ (অন্ত্রপ্রেনিওরশিপ ডেভেলাপমেন্ট প্রোগ্রাম) চালানো হবে। মহিলাদের উৎসাহিত করতে মন্ত্রালয়ে বিশেষ সেল তৈরি করা হবে।
বলা হল, অর্থের যোগানে চাপ থাকার কারণে বড় শিল্পের ওপর সরকারের নজরদারি থাকলেও মধ্যম শিল্প বা এককগুলোর স্বাধীনতা থাকবে নিজের ইচ্ছে মত কাজের ক্ষেত্র বাছার, অর্থাৎ, একটা নতুন ইকনমিক স্পেসকে স্বীকৃতি দেওয়া হল (যার একটা অংশ যেমন দেশের আর্থিক বিকাশের ফল, আরেকটা অংশ কিন্ত রাজীব গান্ধীর জমানার নির্বাধ আমদানীনীতি আর বিদেশের বাজার থেকে নেওয়া মহার্ঘ্য ঋণের ফল, যার পরিণতি তার কয়েক মাসের মধ্যেই চমকে দেবে দেশের জনতাকে)।   
এছাড়া পূঁজিগত মালের (ক্যাপিট্যাল গুডস) আমদানি প্ল্যান্ট ও মেশিনারির ৩০%এ বাঁধা হল। বলা হল রয়্যাল্টির ভুগতান রপ্তানির ৮%এ এবং দেশে বিক্রির ৫%এ থাকলে, প্রযুক্তি আমদানির (টেকনোলজি ট্রান্সফার) জন্য সরকারের কাছে পূর্ব-অনুমতি নিতে হবেনা। (ব্যালেন্স শীটের খেলা করার সুযোগ দেওয়া হল আর কি!)।
কিন্তু এই নীতিসমূহের ফল হল চমকপ্রদ। কার্যরত স্মল স্কেল ইউনিটস সম্পর্কে একটা পরিসংখ্যান পাচ্ছি যেটা বলছে, ১৯৭৩-৭৪ থেকে ১৯৮৯-৯০ অব্দি ষোলো বছরে এই ইউনিটসের সংখ্যার বার্ষিক গড় বৃদ্ধিদর ছিল ১০%। আবার ১৯৯১-৯২ থেকে ২০০৬-০৭ অব্দিকার ষোলো বছরে এই গড় বৃদ্ধিদর মাত্র ৪%। কিন্তু একমাত্র ১৯৯০-৯১ সালে এই বৃদ্ধি হল ২৭৩%! অবিশ্বাস্য! আমিও বিশ্বাস করছিনা পুরোপুরি। পুরো পরিসংখ্যানটা তাই উৎস-সহ দিলাম
এরপর সেই জলদেয়াল! – ১৯৯১। কংগ্রেসের পুনরাগমন এবং নব-উদারবাদী অর্থনীতির সূচনা। আশ্চর্য! এবারও কংগ্রেসের শিল্পনীতি উদ্যমিতার বিকাশে নতুন কিছু করার প্রতিশ্রুতিহীন, শুধু অনুজ্ঞানীতি (লাইসেন্সিং পলিসি) আর আমলাতান্ত্রিক অনুমতির নীতি খতম করার নামে বেনোজল ঢোকানোর বন্দোবস্ত করা ছাড়া! হ্যাঁ, এটা গাওয়া আছে যে ১৯৫৬র শিল্পনীতির ফলেই উদ্যমিতার ক্ষেত্রে বিস্তার ঘটেছে; যেটা সর্বস্বীকৃত সত্য এবং ঐতিহাসিক তথ্য।

এই তথ্যগুলো দেখার পর কয়েকটা সিদ্ধান্তে তো পৌঁছোনো যেতেই পারে। প্রথমতঃ, উদ্যমীদের প্রসঙ্গ কেন্দ্রীয় সরকারের এজেন্ডায় প্রথম এনেছিল দেশের কংগ্রেস-বিরোধী রাজনীতির ধারা। খুব স্বাভাবিকভাবেই এই ধারার চিন্তায় দুটো বিপরীত দিক থেকে থাকবে – অতিদক্ষিণপন্থী, জনসঙ্ঘী, সাধারণভাবে সরকারিক্ষেত্র-বিরোধী চিন্তা এবং মধ্যবাম, লোহিয়াপন্থী-সমাজবাদী (যাই বলুন) মাঝারি ও ছোটোপূঁজি সমর্থক চিন্তা। দুটো দিকই পরিকাঠামো ও আধারগত নির্মাণের ক্ষেত্রে সরকারি একাধিকার এবং তার প্রতি চেম্বার অফ কমার্সগুলোর (যেগুলোর নেতৃত্ব একচেটিয়া ও বড় পূঁজির দখলে ছিল) সমর্থনকে একটা চুক্তি হিসেবে দেখছিল কি? জানিনা। এটুকু জানি যে সমর্থনটা ছিল। আর তাই কংগ্রেস অন্ততঃ ১৯৬৯ অব্দি ভারতের একচেটিয়া ও বড় পূঁজির একমাত্র পছন্দের দল ছিল। হতে পারে ১৯৬৯-পরবর্তী ঘটনাগুলোর প্রভাব একচেটিয়া ও বড় পূঁজির প্রচ্ছন্ন মদদ জনতা পার্টিকে যুগিয়েছিল আর প্রতিফলনও ১৯৭৭এর শিল্পনীতি সংক্রান্ত বক্তব্যে ছিল। সেদিকে যাওয়া বিষয়ান্তর হবে।
দ্বিতীয়তঃ, ১৯৫৬-৭৭এর দুই দশকে ‘আরো, আরো বেশি চাকরি-সৃজন’এর জায়গাগুলো সংপৃক্ত হয়ে আসছিল এবং বেকারির সংখ্যা সারা দেশেই ছিল ক্রমবর্ধমান। সেখানে তাদের জন্য বিকল্প-রোজগারের ব্যবস্থা হিসেবে উদ্যমিতার মানসিকতাকে উৎসাহিত করা সরকারের পক্ষে প্রয়োজনীয় হয়ে উঠেছিল। এবং তার সম্ভাবনাও গড়ে উঠেছিল কাঠামোগত ও আধারগত নির্মাণের দুটি দশকে।
তৃতীয়তঃ, কংগ্রেস কখনোই, এমনকি ১৯৯১এর পরেও উদ্যমিতাকে উৎসাহিত করা এবং উদ্যমীদের সংরক্ষণ দেওয়ার ব্যাপারে ভাসা ভাসা প্রতিশ্রুতি দেওয়া ছাড়া স্পষ্টভাবে সচেষ্ট হয়নি। অন্যুন কয়েক কোটি ছোটো ব্যবসা, দোকানপাটের কথা যদি ছেড়েও দিই, একটু আগে যে পরিসংখ্যানটা পেলাম তার সুত্র ধরেই বলতে পারি যে ১৯৯১এ স্ট্রাকচারাল এডজাস্টমেন্টের নামে সরকারি ক্ষেত্রের সমস্ত শিল্প ও পরিসেবাকে ধীরে ধীরে জাহান্নামে পাঠানোর বন্দোবস্ত করে প্রাইভেট সেক্টরের জয়গানে মেতে থাকার পরেও ষোলো বছর (১৯৯১-২০০৭) ধরে স্মলস্কেল ইউনিটসের গড় বার্ষিক বৃদ্ধিদর ৪% কেন? এগুলো প্রাইভেট সেক্টর নয়? নাকি দেশী-বিদেশী একচেটিয়া পূঁজিই (তথাকথিত ‘কর্পোরেট’) শুধু সেই কিম্বদন্তীপ্রতীম প্রাইভেট সেক্টর? এটা ঠিক যে নতুন নীতি ও নতুন প্রযুক্তি বিস্ফোরণ ‘স্কেল’টাই আমূল বদলে দিয়েছিল (আন্তর্জালিক দুনিয়ায় এখন দুই-তিন বন্ধুর সামান্য পূঁজি লাগিয়ে শুরু করা ব্যবসা, বাজার ধরলে দশ বছরে চোখ ধাঁধিয়ে দিচ্ছে প্রতিদিন), কিন্তু পুরোনো উদ্যমীদের, তাদের প্রতিষ্ঠানের কর্মচারিদের সংরক্ষণে সরকারের একটা কর্তব্যের কথা আমরা পড়তামনা পাঠ্যবইয়ে আর রকমারি বিভাগীয় ঘোষণাপত্রে? ২০০১-২০০২ সালে করা এস.এস.আই.ইউনিটসের সর্বভারতীয় সেন্সাস অনুসারে দেশে এস.এস.আই.ইউনিটসের মোট সংখ্যা ৯,০১,২৯১ যার ৬৯.৭৯% ব্যক্তিমালিকানাধীন অথবা পার্টনারশিপ (পাব্লিক লিমিটেড, প্রাইভেট লিমিটেড, জয়েন্ট হিন্দু ফ্যামিলি নাহয় ছেড়ে দিচ্ছি, কো-অপারেটিভও ছেড়ে দিচ্ছি)। এই ৯,০১,২৯১ ইউনিটসের মধ্যে ২,২১,৫৩৬টা অসুস্থ। এটাও মনে রাখার যে এদের জন্য কাজের যে সাতটি ক্ষেত্র সরকার কর্ত্তৃক স্বীকৃত, সেগুলো হল (১) হস্তশিল্প, (২) হস্তচালিত তাঁত, (৩) খাদি, গ্রামীণ এবং কুটির শিল্প, (৪) নারকেল ছোবড়া, (৫) রেশম ও গুটিপোকার চাষ, (৬) বিদ্যুৎ-চালিত তাঁত এবং (৭) রেসিডুয়াল স্মলস্কেল ইন্ডাস্ট্রিজ। অর্থাৎ প্রথম থেকে জানা যে বাজারের প্রভাবে এগুলো মার খাবেই, কেননা সেভাবে প্রতিস্পর্ধী হতেও পারেনা আর তাই সরকারের সংরক্ষণী সংকল্পটা দেশের স্বাধীনতার চার্টারের অন্তর্গত, নতুন কোনো ব্যাপার নয়।
১৯৯১এর পর সরকারে সরকারে ভেদ করার ব্যাপারটা অপ্রাসঙ্গিক, কেননা সবাই ‘আমাকে আগে দেখুন, শ্যামচাচা’র ধাক্কাধাক্কিতে নব-উদারবাদের শুধু সমর্থক নয়, স্বঘোষিত প্রবর্তক আর তাই ১৯৯৭ থেকে ২০০৩ এর মাঝে নতুন কোনো শিল্পনীতি সংক্রান্ত বক্তব্যের কথা অন্ততঃ আমার জানা নেই। ২০০০-০২ এর মধ্যে বি.জে.পি.নেতৃত্বাধীন এন.ডি.. সরকার কিছু সরকারি সিদ্ধান্ত নিয়েছিল বিশেষ করে কম্পিউটার, ইন্টারনেট নিয়ে এবং তার মাধ্যমে করা হচ্ছে যে কাজগুলো সেগুলোকে এস.এস.আই. এর এবং সাধারণভাবে শিল্পবাণিজ্যের গন্ডীতে আনতে, যাতে তারা সরকারি সুবিধে, ব্যাংক থেকে ঋণ ইত্যাদি পেতে পারে। মাঝারি ও ছোটো শিল্পের জন্য নতুন আইন ২০০৬এ গৃহীত হল ইউ.পি..র জমানায়। অনেক নোটিফিকেশনও হল সেই সুবাদে। একটি নোটিফিকেশনে মাইক্রো, স্মল, ও মিডিয়াম শিল্প এবং ব্যবসায়ের জন্য লগ্নীর উচ্চসীমা নির্ধারিত করা হল। ছোট শিল্পের ক্ষেত্রে পাঁচ কোটি আর মাঝারির ক্ষেত্রে দশ কোটি টাকা প্লান্ট-মেশিনারিতে খরচ করনেওয়ালাকে ‘উদ্যমী’র তকমা পরানো হল যাতে ব্যাংকের ঋণে আরো বেশি অংশ ধনী ও প্রতিষ্ঠিত পূঁজিপতিদের বেনামে দেওয়া যেতে পারে। বোর্ড-ফোর্ড তৈরি হল। সে কি অদ্ভুত বোর্ড! আইনে লেখা রইল, বোর্ড তৈরিতে, বোর্ডের সদস্যদের নিযুক্তিতে এমনকি বোর্ডের কার্যাবলীতে কোনো ত্রুটি থেকে গেলেও বোর্ডের সিদ্ধান্তগুলো বলবৎ হবে। মালের যোগান দেওয়া অতিক্ষুদ্র (মাইক্রো) বা ছোটো প্রতিষ্ঠানের যদি ভুগতান বা অন্য ব্যাপার নিয়ে বিবাদ লাগে সরকার বা বড় প্রতিষ্ঠানের সাথে তার জন্য চটজলদি আর্বিট্রেশনের ব্যবস্থা করা হল...ইত্যাদি, ইত্যাদি।
২০০৬-০৭ বিত্তবছরে, দেশে ১৬ লক্ষ অতিক্ষুদ্র, ছোটো ও মাঝারি শিল্প ছিল। যার মধ্যে ক্ষেত্রগত দিক থেকে অতিক্ষুদ্র ছিল ৯৪.৯%, ছোটো ৪.৯% এবং মাঝারি ০.২%। কাজের দিক থেকে ম্যানুফ্যাকচারিং ছিল ৬৭.১%, পরিসেবা ১৬.৮% এবং মেরামতি ও দেখাশোনা (মেনটেনেন্স) ১৬.১%। গ্রামে অবস্থিত ৪৫.২%, শহরে অবস্থিত ৫৪.৮%।


          ইতিমধ্যে অনেক কিছু পাল্টে গেছে। পঞ্চবার্ষিক পরিকল্পনাগুলোর গায়ে গায়ে লেগে থেকে রক্ত চুষে অনেক ফুলে উঠেছে বেসরকারি পূঁজির জগৎ। সবচে’ বেশি লুটেছে একচেটিয়া ঘরাণাগুলো, তারপর বড়পূঁজিপতিরা এবং নেহাৎ-কম-নয় চোর সরকারি মন্ত্রী ও আমলারা যাদেরকে সম্ভাবিত-পূঁজিপতি বলতে পারি। উৎপাদন ও বাণিজ্যের ক্ষেত্রটাও বড় হয়েছে। কাজেই উদ্যমীর সরকারি পরিভাষার ফাঁকফোকর দিয়ে অনেক এমন ব্যবসা এবং ব্যবসায়ী ঢুকে পড়েছে এবং পড়তে চাইছে যেগুলো সদর্থে উদ্যম নয় এবং যারা উদ্যমী নয়।
          কিন্তু সত্যিকারের উদ্যমিতার বিকাশ? নিঃসন্দেহে উদ্যমিতার ক্ষেত্র অনেক বড় হয়েছে এবং ১৯৯১এর পর প্রযুক্তি বিস্ফোরণ সে ক্ষেত্রে হঠাৎ নতুন দিগন্ত খুলে দিয়েছে। সেটা কাজে লাগাতে কতখানি এগিয়ে এসেছে দেশের সাধারণ যুব সম্প্রদায়? সাধারণভাবে তার মানসিকতায় কতটা পরিবর্তন এসেছে?
          অনেকে ভাবতে পারেন উদ্যমিতা নিয়ে এত কথা বলছি অথচ এখনো পর্য্যন্ত দেশের গর্ব বলে যে স্বাধীনতা সংগ্রামের যুগের উদ্যমীদের কথা শোনানো হয় তাদের নামটুকুও নিচ্ছি না কেন? জামশেদজি টাটা, ঘনশ্যামদাস বিড়লা, আর্দেশির গোদরেজ, কির্লোস্কর...! অথবা স্বাধীনতা-পরবর্তী যুগের বিখ্যাত র‍্যাগ্‌স টু রিচেজ কিম্বদন্তী ধিরুভাই অম্বানী! তার ছেলে মুকেশ আম্বানী, অনিল আম্বানী। আজকাল আবার গৌতম আদানী! ...
          এরা কি সত্যিই উদ্যমী? প্রথম প্রজন্ম নাহয় মেনেও নিলাম, দ্বিতীয় প্রজন্ম? তৃতীয় প্রজন্ম? অথচ আজকের এনডিএ সরকার এদেরকেই অন্ত্রপ্রেনিওর বলছে আর নতুন উদ্যমীদের জন্য নতুন নামকরণ হয়েছে ‘স্টার্ট আপ’!

          আসলে আমি একটু অন্য ভাবে প্রশ্নটা ধরতে চাই। একটা রিসার্চ পেপারে চীন সম্পর্কে নিম্নলিখিত তথ্যটা পেলাম।
          “হুনান প্রদেশের ২০১টি বেসরকারি উদ্যমীদের সার্ভে করেছিল হুনান এসোসিয়েশন অফ বিজনেস অ্যান্ড কমার্স অ্যান্ড দ্য ডিপার্টমেন্ট অফ হুনান ইউনিফিকেশন। তাতে তারা পায় যে ৪১.৭৯% উদ্যমীরা নিজেদের প্রতিষ্ঠান গঠন করেছে নিজেদের জীবনধারণের মান উন্নত করতে, ১৬.৯১% নিজেদের জীবনধারণের মূল মানটুকু বাঁচিয়ে রাখতে, ১৮.৪১% নিজেদের আত্ম-মূল্য বাস্তবায়িত করতে, ১৫.৯১% সমাজকে কিছু দিতে, ৪.৪৮% তাদের বিশেষত্বটা কাজে লাগাতে এবং ২.৪৯% অন্যান্য উদ্দেশ্যে।”
যদিও এটা চীনের কথা আমার মনে হয়না যে ভারতে এমন সার্ভে করলে প্রতিশতগুলো খুব কিছু আলাদা হবে। বরং, হয়তো একটা বড় প্রতিশত বলবে “চাকরিবাকরি পাইনি বলে”, বা “বেসরকারি চাকরিতে এত কম মাইনে দিচ্ছিল যে ঝুঁকিটা নিলাম...ব্যাস্‌ করে খাচ্ছি”।
          ওই রিসার্চ পেপারেই গ্লোবাল অন্ত্রপ্রেনিওরশিপ মনিটর রিপোর্ট, ইন্ডিয়া ২০০১ থেকে একটা পরিসংখ্যান উদ্ধৃত যাতে একটা পদ্ধতি ব্যবহার করে কিছু মন্তব্যের ওপর ভারতে মানুষের রায় নেওয়া হয়েছে। রায়ে ‘মিথ্যে’ বললে ১ আর ‘সত্যি’ বললে ৫, এই হিসেবে১০
মন্তব্য
২০০০
২০০১
সর্বনিম্ন
সর্বোচ্চ
উদ্যমিতা ধনী হওয়ার সম্মানজনক উপায়
৩.৪৪
৩.৩৩
২.২৭ জাপান
৪.৬৮ যুক্তরাষ্ট্র
বেশির ভাগ মানুষের জন্য উদ্যমিতা উন্নতির ভালো পথ
২.৮১
২.২৪
২.১৭ ফিনল্যান্ড
৪.৩১ ইজরায়েল
সফল উদ্যমীদের স্ট্যাটাস/কদর
৪.১৪
৩.৬৯
২.৫৬ অস্ট্রেলিয়া
৪.৬১ যুক্তরাষ্ট্র
সফল উদ্যমীদের অনেক গল্প শোনায় মিডিয়া
জানা নেই
৩.৭৯
২.৭৭ নরওয়ে
৪.২ ইসরায়েল
লোকে ভাবে শুধু বেকার মানুষেরাই নতুন প্রতিষ্ঠান শুরু করে
২.৯২
৩.২৪
২.৫৮ ব্রাজিল
৪.৪৪ ইজরায়েল
          যদিও এধরণের তথ্যগুলো র‍্যান্ডম সার্ভে থেকে পাওয়া হয়। গ্লোবাল অন্ত্রপ্রেনিওরশিপ মনিটর রিপোর্ট পড়ে জানলাম ২০০০ মানুষের সার্ভে করে পাওয়া তথ্যগুলো কয়েক রাউন্ড স্ক্রুটিনির মধ্যে দিয়ে যায়। তবুও, এটা কি শুধু যুবদের মতামতভিত্তিক? নাকি তাদের বাবা-মা বা বাবা-মার বয়সী মানুষজনেরও মতামতও আছে এতে? কেননা তাদের মতামত তাদের সন্তানদের মধ্যে উদ্যমিতা সম্পর্কে ভয় বা সাহস তৈরি করতে অনেকখানি ভূমিকা নেয়। তবুও, সব খামতি মেনেও উপরে দেওয়া চার্টের সাথে ২০১৩তে নেওয়া মতামতগুলোর সাথে যদি তুলনা করি, দৃশ্যটা আশাব্যঞ্জক মনে হবে। ২০১৩য় ওই গ্লোবাল অন্ত্রপ্রেনিওরশিপ মনিটর সংস্থা কর্তৃক সারা বিশ্বের অনেক দেশের করা সার্ভে থেকে ভারতের অংশটুকু নীচে উদ্ধৃত করলাম।
সুযোগগুলোর উপলব্ধি   ৪১.৪                উদ্যমী হওয়ার ইচ্ছে              ২২.৭
সক্ষমতাগুলোর উপলব্ধি ৫৫.৭                ভালো বৃত্তি হিসেবে উদ্যমিতা    ৬১.৪
অসফলতার ভয়          ৩৮.৯                 সফল উদ্যমীদের উঁচু স্ট্যাটাস    ০.৩
সফল উদ্যমীদের প্রতি মিডিয়ার নজর     ৬১.৩

ইষৎ ভিন্ন প্রশ্নাবলী যদিও, মিলটা চোখ এড়িয়ে যেতে পারেনা। আর তাই উদ্যমিতার সমর্থনে ইতিবাচক পরিবর্তনটা লক্ষণীয়।
অর্থাৎ, একচেটিয়া পূঁজির যুগে, নবউদারবাদের নামে দেশের জাতীয় সম্পদগুলো বিদেশি ও দেশি পূঁজিপতিদের হাতে তুলে দেওয়ার যুগে সত্যিকারের নিচুতলার উদ্যমীদের জন্য সংরক্ষিত থাকা উচিৎ যে আর্থিক জায়গাটা সেটায় বড় পূঁজির অনুপ্রবেশের সমস্ত সুযোগ করে দিতে দেশের কেন্দ্রীয় সরকার কর্তৃক আইনের নানারকম ফেরবদল সত্ত্বেও (এর মধ্যে খুচরো ব্যবসায় বিদেশি লগ্নীর জন্য ছাড় এবং আগে থেকেই দেশি বড় পূঁজির ক্রমবর্ধমান লগ্নীও ধর্তব্য, যদিও সেদিকটার বিশদে আর যাচ্ছিনা) উদ্যমতার ইচ্ছেটা বাড়ছে। দেশের মানুষ সেই ১৯৪৭ থেকেই এগোতে চাইছে, লড়ছে সুযোগগুলো পেতে।
কেন আমি একে ইতিবাচক বলছি? বন্ধুরা প্রশ্ন করতে পারেন। আরো বেশি চাকরির দাবীতে মিছিল করছি পথে, মুক্তবাজারের অর্থনীতির তীব্রতম বিরোধে আমি গর্বের সাথে শরিক, মাঝে মধ্যে ভাষণে, ইংরেজিতে যাকে বলে লক-স্টক-অ্যান্ড-ব্যারেল এই অর্থনীতিকে ছুঁড়ে ফেলে দেওয়ার কথা বলি এবং পূর্ণ বিশ্বাসের সাথে বলি যে সেন্সেক্স হঠাৎ ১০০০০ সূচক নেমে এলেও বা ব্যাপক ভাবে পূঁজির পলায়ন শুরু হয়ে গেলেও তাৎক্ষণিক আর্থিক দুর্যোগ কাটিয়ে অর্থনীতিকে আগের থেকে বেশি গণমুখী উন্নয়নের পথে নিয়ে আসা যাবে – সন্ধান আছে সে বিকল্প পথের তাহলে?
কেননা আমি মনে করি উদ্যমিতা শুধু ব্যবসাকেন্দ্রিক নয়, একটা জাতীয় গুণ। একটা নবজাগরণ-সম্পর্কিত গুণ। সেটা বেড়ে উঠলে অনেক কিছু বদলে যাবে। হয়তো আমাদেরই মিছিলে হাঁটার ছন্দ পাল্টে যাবে!


শেষ করার আগে
জানি অনেক প্রশ্ন অনুত্তরিত ছেড়ে দিলাম। অন্তর্জালে দেখছিলাম উদ্যমীদের মধ্যে নারীদের অংশীদারীর প্রশ্ন, তপশীলী জাতির অংশীদারীর প্রশ্ন নিয়েও বেশ কাজ হচ্ছে। তবে আমার মনে হয় এ প্রশ্নগুলো বৃহত্তর সামাজিক অংশীদারীর প্রশ্ন থেকে আলাদা করে দেখলে বিশেষ সুবিধে হবেনা। যে এতদিন পর্যন্ত তার প্রাপ্য সংরক্ষণের সুবিধেটুকুও পেল না, বা চুরি হয়ে যেতে দেখল, সে উদ্যমিতাতে উৎসাহ পাবে কেন? নিজের হকটা ছেড়ে দিতে?
ভারতের নতুন প্রজন্ম যে বদলাচ্ছে, গত দু’তিন বছর ধরে স্পষ্ট হয়ে ওঠা সে ছবিটাই উদ্যমিতার প্রসঙ্গেও যাচিয়ে নেবার চেষ্টা করলাম। শেষে একটা গুরুত্বপূর্ণ দিকের উল্লেখ করতে চাইব।
বড় শিল্প কম রোজগার সৃজন করে (পূঁজিনিবেশের তুলনায়) আর মাঝারি ও ছোটো শিল্প বেশি রোজগার সৃজন করে এই আপ্তবাক্যটা আবার স্পষ্ট হয়ে উঠে এসেছে গুজরাতে ভোটের হাওয়ায় – ‘গুজরাট মডেল’ নিয়ে আলোচনায়। পরিসংখ্যানে উঠে এসেছে যে পূঁজিনিবেশে গুজরাতের আদ্ধেকে থেকেও রোজগার সৃজনের নিরিখে তামিল নাডু গুজরাতের দ্বিগুণ। কেননা তামিল নাডুর পূঁজিনিবেশে মাঝারি ও ছোটো শিল্প শুধু সংখ্যাতেই বেশি নয়, তারা মোটামুটি ভালো ভাবে চলছে। যখন নাকি ‘মডেল’ গুজরাতের উন্নয়ন দাঁড়িয়েছে ছোটো ও মাঝারি শিল্পের কবরের ওপর। (২০০২ সালের দাঙ্গায় দাঙ্গাপীড়িতদের জন্য সবচেয়ে ভালো ‘শিবির’ গড়ে তুলতে পেরেছিল জেলা প্রশাসনগুলো বন্ধ মাঝারি ও ছোট শিল্পের শেডগুলোর ভিতরে)। কাজেই এটাও স্পষ্ট যে যতই ‘স্টার্ট আপ’ নিয়ে জাতীয়/আন্তর্জাতিক সেমিনার/এনক্লেভ ইত্যাদি হোক, বর্তমান কেন্দ্রীয় সরকারের নীতি । ক্ষুদ্র, ছোটো ও মাঝারি শিল্পের স্বার্থের বিরুদ্ধে। তা যদি না হত, তাহলে সারা দেশে ধুঁকতে থাকা ৮০র ও ৯০এর দশকের ‘উদ্যম’গুলোর রাজ্যওয়ারি সার্ভে করিয়ে তাদের যতদূর সম্ভব চাঙ্গা হতে সাহায্য করার কোনো প্রচেষ্টা হত না? শুধু রাষ্ট্রায়ত্ত ব্যাঙ্কগুলোর ক্রেডিট পোর্টফোলিওতে এমএসএমই বলে একটা সেগমেন্ট করে, আর মুদ্রা যোজনা করেই থেমে থাকত সরকার?      
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‘ইন্টারন্যাশনাল জার্নাল অফ সোশ্যাল সায়েন্স অ্যান্ড ইন্টারডিসিপ্লিনারী রিসার্চ’এর ভল্যুম ২(৭), ২০১৩য় প্রকাশিত   ‘এন্টারপ্রেনিওরশিপ ইন   ইন্ডিয়া’ নামে গবেষণাপত্রে (পরে এই জার্নালটার আরো সাহায্য নিতে পারি, তখন প্রসঙ্গপত্র-১ বলে উল্লেখ করব)
ক্লদ মার্কোভিৎস লিখিত ‘মার্চেন্টস, ট্রেডার্স, এন্ট্রপ্রেনিওরসঃ ইন্ডিয়ান বিজনেস ইন দ্য কলোনিয়াল এরা’ বইটির হরিশ দামোদরন কৃত সমীক্ষা, http://www.india-seminar.com । (আমার জন্য প্রসঙ্গপত্র – ২।)  
ইন্ডিয়ান ইন্সটিট্যুট অফ ম্যানেজমেন্ট, ব্যাঙ্গালোরের এন এস রাঘবন সেন্টার ফর এন্ট্রপ্রেনিওরাল লার্নিং ২০১১ সালে যে ওয়র্কিং পেপার সংখ্যা ৩২৯ প্রকাশ করেছে তার শীর্ষক ‘রিসার্চ অন বিজনেস অ্যান্ড এন্ট্রপ্রেনিওরশিপ হিস্ট্রী অফ ইন্ডিয়া – রিফ্লেকশন্স অন দ্য স্টেট অফ দ্য আর্ট অ্যান্ড ফিউচার ডিরেকশন্স’। অর্থাৎ, আমার জন্য ‘প্রসঙ্গপত্র-৩’। তাতে, জনৈক হরিশ দামোদরনের (হয়ত উপরোক্ত, একই মানুষ মনে হয়) বক্তব্যের এক অংশ।
নিজের ভাষায় না বলে নেহরুযুগের আলোচক এক অখ্যাত আমেরিকান গবেষকের ভাষায় বলার লোভ সামলাতে পারছিনা।
  Despite a sometimes disappointing rate of growth, the Indian economy was transformed between 1947 and the early 1990s. The number of kilowatt-hours of electricity generated, for example, increased more than fiftyfold. Steel production rose from 1.5 million tons a year to 14.7 million tons a year. The country produced space satellites and nuclear-power plants, and its scientists and engineers produced an atomic explosive device (see Major Research Organizations, this ch.; Space and Nuclear Programs, ch. 10). Life expectancy increased from twenty-seven years to fifty-nine years. Although the population increased by 485 million between 1951 and 1991, the availability of food grains per capita rose from 395 grams per day in FY 1950 to 466 grams in FY 1992.”- http://eternian.wordpress.com/2010/02/20/indias-economy/An Economic History of India from 1947-2013
PCMA Journal of Business, Vol. 1, No. 2 (June, 2009) pp. 135-146, Globalization and Its Impact on Small Scale Industries in India, Sonia, Research Fellow, Department of Commerce, Punjabi University, Patiala(Punjab).Dr. Rajeev Kansal, Reader, Department of Commerce, Punjabi University, Patiala(Punjab).
























5(1)/2001-SSI BD.& Pol. Dated 10th Sept., 2001
Source: Annual Report FY12, Ministry of Micro Small and Medium Enterprises, Government of India – Final Report of the  Fourth All India Census of Micro, Small & Medium Enterprises 2006-07, Aranca Research, as quoted in MSME and the growing role of industrial clusters, Indian Brand Equity Foundation, January 2013
৯ এবং ১০ ROLE OF ENTREPRENEURSHIP IN NATIONAL ECONOMIC GROWTH A COMPARATIVE ANALYSIS OF INDIA & CHINA PROF. AMIT GUPTA Doctoral Student, National School of Leadership, Pune, India. EXCEL International Journal of Multidisciplinary Management Studies Vol.2 Issue 4, April 2012, http://zenithresearch.org.in/www.zenithresearch.org.in 86