Saturday, February 26, 2022

কাল সকালে

 কাল সকালে কুয়াশা থাকবে খুব।
দুধ আনতে গিয়ে দেখব
প্যাকেটগুলো ধোঁয়াটে হয়ে আছে।  
একটা গন্ধ উঠবে গেট, রেলিং, সাইকেল
                             ও যাবতীয় লোহার জিনিষগুলো থেকে।
রোদ দেখা দিতে অনেক দেরী থাকবে তখনও।
আমার ইচ্ছে হবে কোনো জলাশয়ের ধারে যাই।

আমার ইচ্ছে হবে আমার কোনো বন্ধুও
সেই জলাশয়ের ধারে আসুক।
সে বলুক, সে এক্ষুনি আবার ফিরছে একটা কাজ সেরে
আর সে যতক্ষণে আসবে
ততক্ষণে
দুটো পাখিও এসে বসবে সেই জলাশয়ের ধারে।

স্বাভাবিকভাবেই আমার জানতে ইচ্ছে হবে
কি বলছে পাখিদুটো নিজেদের ভাষায়
নিজেদের প্রাত্যহিক ব্যস্ততায়
কিন্তু আমি পক্ষীবিশারদ নই।

বস্তুতঃ আমার বন্ধুরা আমার সবচেয়ে প্রিয় ও পরিচিত পাখির দল,
তাদের খাঁচা ও আকাশ দুই-ই আরো অনেক বন্ধুদের
ডানা দিয়ে গড়া তাদেওও খাঁচা ও আকাশ
এবং এভাবে আমি প্রয়োজনীয় খড়ের কাছে পৌঁছোই।

খড়ের ওম্‌ পাই স্বপ্নে সারারাত
চাঁদ গলা বাড়িয়ে টান দেয় তাতে;
আমি বলি হুস! হুস! এখন সময় নয়।
ডানার ঝাপটে তাকে তাড়াই।
আমার ডানা আমার বন্ধুদের খাঁচা ও আকাশ।

কাল সকালে কুয়াশা থাকবে খুব।
জলাশয়ের ধারে
বন্ধুর ফিরে আসার প্রতীক্ষায় আমি থাকব।
এক্ষুনি ফিরে আসার নামে তো রোজই যাই
                                                আমরা, একে অন্যের কাছ থেকে
প্রতীক্ষার এই পরিভাষাটা থাকে না।



গীতারহস্য - সহজানন্দ সরস্বতী

 [দন্ডী সন্ন্যাসী থেকে কিসানসভার প্রথম সর্বভারতীয় সভাপতি]

অবশ্যই গীতার সাথে আমার প্রাথমিক সম্পর্ক শুধুমাত্র ধার্মিক ছিল – সে অর্থেই ধার্মিক যে অর্থে সাধারণভাবে শব্দটার ব্যবহার করা হয়, এবং এখনো সে সম্পর্কটা ধার্মিকই। তফাৎ শুধু এটুকুই যে আগের ‘শুধুমাত্র’ শব্দটা সরে গেছে। বা বলতে পারেন ধর্মের রূপ অনেক ব্যাপক হয়ে গেছে। ব্যাপক তো অন্যান্য মানুষেরাও বলে এবং মানে। কিন্তু আমার কাছে এর ব্যাপকতা বিশেষ, এবং “গীতা-হৃদয়”এর পংক্তিগুলোয় সেটা স্পষ্ট। সারকথা এই যে গীতার সার্বভৌম ধর্ম আমার ধর্মকেও নিজের করে নিয়েছে এবং সেটাকেও সার্বভৌম করে দিয়েছে। এটাই তো আমার বেদান্তের আসল অদ্বৈতবাদ। একটা সময় ছিল যখন গীতায় আমি সঙ্কুচিত মুক্তির পথ দেখতাম, নিষ্ক্রিয় বেদান্তবাদ এবং অধ্যাত্মবাদের ঝলক পেতাম। কিন্তু আজ এ সমস্তকিছুই ব্যাপক এবং সার্বভৌম হয়ে গেছে, পুরোপুরি সক্রিয় হয়ে পড়েছে।  একটা সময় ছিল – এমনকি আজ থেকে ছ’বছর আগে অব্দি – যখন আমার অভিমত ছিল যে মার্ক্সবাদে আমার মত গীতা-প্রেমীর স্থান নেই। মার্ক্সবাদের সাথে গীতাধর্মের কোনো মিল নেই – বিরোধ রয়েছে! কিন্তু আজ? আজ সে চিন্তা স্বপ্নের বস্তুতে পরিণত হয়েছে এবং আমার অভিমত শুধু এটুকুই নয় যে মার্ক্সবাদের সাথে গীতাধর্মের কোনো বিরোধ নেই; আমার জ্ঞাতানুসারে গীতাধর্ম মার্ক্সবাদের পোষক। আমার মতে, সাচ্চা মার্ক্সবাদীরা ছাড়া আর কারা গীতার “সর্বভূতাত্মভূতাত্মা” এবং “সর্বভূতহিতেরতাঃ” হতে পারে? একমাত্র তারাই তো সমগ্র মানবসমাজের এমনভাবে পুনর্নির্মাণ করতে চায় যাতে একজনও মানুষ দুখী ও পরাধীন না থাকে, সমুন্নত হওয়ার সমস্ত সাধন থেকে বঞ্চিত না থাকে।

নিঃসন্দেহে, শুরুতে গীতার যে অর্থ আমি বুঝেছিলাম এবং যে অর্থ অনেকদিন অব্দি আমার ভিতরে ছিল, সে অর্থ ঠিক সেভাবেই বদলেছে যেভাবে জীবন সম্পর্কিত অন্যান্য ধারণাগুলোর আমূল পরিবর্তন হয়েছে। এটাই স্বাভাবিক।  জীবনের চল্লিশটা বছর পেরোলেই ভাবনাগুলোয় স্থায়িত্ব আসে এবং পরিপক্ক হয়। ফলে যখন আমি পিছনে তাকাই তখন সেই পশ্চাদ্মুখী জগতটা দেখে বিস্মিত হই আর আনন্দিত হই যে ভালো হয়েছে রেহাই পেয়েছি।

[স্বামী সহজানন্দ সরস্বতী রচিত ‘গীতারহস্য” গ্রন্থের ভূমিকার একাংশ। ১লা জানুয়ারি ১৯৪২ সালে সেন্ট্রাল জেল, হাজারিবাগে বসে লেখা।]

সুপ্রভাত দেশ

সমৃদ্ধি এসেছে, ডালে দোল খাচ্ছে ভাড়াটে খুনেরা।
হিংসক চাহনি ধুয়ে, নেমেছে মদির সৌম্য ঢল;
রোদ্দুরে ঝিলিক দিচ্ছে কার্বাইন, ইস্পাতশীতল,
প্রহরীর কাঁধে;
এখন রাতের অন্ন নিরামিষ
                             বউ নয়, বেশ্যা নয়, বাবুর্চিরা রাঁধে;
যকৃতের ব্যথা বলে স্থিতি, জল, গগন, সমীরা
পঞ্চমে পাবক সত্য।
                             আর সব বাঁচার জঞ্জাল
হদ্দ চেনা পাড়াটায় নতুন চাতাল,
                                     ভীড়ে অচেনা ওস্তাদ,
বেটাইমের হীরু ডাকাত, ঘোলাজলে
বিলোচ্ছে পুঁটি, ধরতে রুই, পাট্টাদারী জবর-দখলে
যদিও এত চট করে প্রমাদ
গুনবে না মূল বন্দোবস্তকটি,
শাসনে ছিলেন ভালো
এখন যে নেই তাও বেশ পান রুচিস্নিগ্ধ আলো
                                       ডালরুটি,
বুদ্ধিবলে সৈন্যদল বেচে
যখন যেদিকে দর ভারী;
                               আছে ঠিকাদারী
                                            ধার্য দেয় রাজকার্য ছেঁচে।

এলাকায় মাটি আছে, নেমেছে শিকড়
বেওয়ারিশ স্বপ্ন আছে ঘরে ঘরে, পোষক-নির্ভর
এবং পাবক সত্য; নিরভ্র টাটা সুমো থামে
কবেকার রামজীওয়া, সার্বভৌম বটবৃক্ষ নামে। 



Tuesday, February 22, 2022

কিছুটা বদলে দিয়ে বদলের …

কিছুটা ভিন্ন আলোয় ভরে দিয়ে যাব এই জীবনের মুখ,
কিছুটা বদলে দিয়ে বদলের স্বর্গীয় সুখ!
বিরাট বাজার, যাকে তাক করে শিল্পমেলায়
আমিও ভেবেছি দেব উপহারে এবং কবিতায়
প্রচারের ছোট স্টল; মূলতঃ যন্ত্র কিছু উদ্ভাবনী
রাখা হবে স্টলটাতে বোতাম টিপবে ঈশ্বরী পাটনী
ভিডিওতে দুধভাত এবং সন্তানের মুখের খবর
উপমহাদেশটির অপ্রধান ইতিহাসে সাঁঝের ডহর
কত কি করার আছে! কত কি করার থাকে বাজার জানুক,
কিছুটা বদলে দিয়ে নিশ্চই যাবে তারা পৃথিবীর মুখ।
 
তাহাদের মানবিক উন্নতি, কল্যাণকামী রপ্ত নাগরিকী
মেধাদীপ্ত উচ্চারণে পলকে ধ্বসিয়ে দেয় শতকের ফাঁকি
কি হবে এসবে? এই রাষ্ট্রিক বদলের কাঠামোয় ভেবে
(অলক্ষ্যেতে জীবনের জটিলতর অসুখ ঘনায় নীরবে);
কবে কি হবে না হবে, সংহতি পদাবলী রচে তার তরে?
বরং এখানে এস, ফ্রেমে এস, আঁধারের ব্যথার শিয়রে
 
মূল প্রশ্নে ফেরে তবু দেশ ক্রমে আত্মিক প্রসারে শতমুখী
সংকটের রূপে, প্রতিবাদে।
                                  মৃতস্ফীতি বহনে-দেয় ভর্তুকি
বাড়ে, আর সাথে বাড়ে বাহকের চিত্তমুক্তি সাধন-প্রয়াস
অর্বাচীন বোঝেনাকো বস্তুতঃ বিপ্লবী তারা, পরিস্থিতি-দাস!

৬.৩.১৯৯৯



Monday, February 21, 2022

দেশভাষা

 ১
মাতৃভাষা মাতৃদুগ্ধ –
না পেলে কী করি?  
জমছে শিশুর হাড়ে, দিব্যি,
বেবি ফুডের খড়ি। 

ভাষা জীবন – কিন্তু জীবন 
ঠিক মত কি বাঁচি?
রুজির দৌড়ে ভোগের এঁটো
‘লাইফ’ বলে চাঁছি!  

বাঁচার সবটা বাঁচতে হলে
বাঁচিয়ে রাখো ভাষা, 
দুধের শক্তি হাড়ে জাগায়
প্রেম ও জিজ্ঞাসা। 

বাংলা থেকে কাছে দূরে
বাংলা নিয়ে লড়ি,
ঐক্য, যেমন কথা ছিল
তেমনি সুরে গড়ি। 

থাকে যদি মাথার জোর
শিখবো ভাষা আরো,
(তবে) জোরটা যে দেয় মাতৃভাষাই
না করতে পারো? 

একটা ভাষা মায়ের মুখের
একটা কাজের, শিখি
পড়শিরটা শিখতে মনের 
বিকাশে বাধছে কি?

ভারত নামে ঘর বেঁধেছি
অনেক ভাষার ভিতে –
মনের মিলের বেশিটা পাই
না-বোঝার সঙ্গীতে।


২৬.৩.১৮



Saturday, February 19, 2022

इक्कीस फरवरी - अब्दुल गफ्फार चौधरी

भ्रातृ-रक्त से रंजित दिन क्या सकता हूं मैं भूल –
                              इक्कीस फरवरी?
सकता हूं क्या भूल, खोये बच्चों के माओं की
                               आँसू ये फरवरी?
चूमा था रतजगा चांद ने हंस कर
शीत शेष के नील गगन के चादर को उस दिन भी
रजनीगंधा खिली हुई पथ पर ज्यों अलकानन्दा,
उसी समय तूफान उठा, तूफान – पागल बहशी

अंधेरे में पशुओं के थे परिचित चेहरे जिनसे
माँ, बहन व भाइयों को था नफरत केवल नफरत
दाग देश के प्राणों पर वे गोली
रौंद डालते मांग वे आजादी की
घृणित जानवर – लात है इस बंगाल में उनकी खातिर
हैं नहीं इस देश के वे –
                  भाग्य देश का बेच
छीना आदमियों का अन्न, वस्त्र, अमन उन्होने …
इक्कीस फरवरी! इक्कीस फरवरी!

जगो आज तुम जगो आज इक्कीस फरवरी,
कैद में जालिम के
आज भी हैं मरते वीर, मरते वीर नारी
मेरे शहीद भाई की है आत्मा बुलाती
जगती है जो इंसानों की सोई ताकत
                  बाजारों में, मैदानों में , घाटों पर, मोड़ों पर
तीव्र क्रोध की आग से सुलगाऊँ फरवरी
इक्कीस फरवरी! इक्कीस फरवरी!
 


मधुर है मेरी बंगला भाषा - जसीमुद्दीन

मधुर है मेरी बंगला भाषा
भाई बहन की लाड़ भरी है
                                मां की छाती का है प्यार।
भाषा इन्द्रधनुष पर चढ़ यह
स्वर्ण-स्वप्न फैलाता जग में
युग-युगांतर इन राहों पर
                                नित है उनका जाना आना;
 
लाया पूर्वी बंगदेश की नदी से धुन इसका मै,
हवा जो लहराती फसलों में दिये हैं मीठे बोल,
वज्र ने इसे दी रोशनी
झंझावात झुलाया झूला
                                सर्वनाश कहलाई पदमा।

मधुर है मेरी बंगलाभाषा …
रंगा वस्त्र इसका मैं सीने की ताजा शोणित से
बुना गोलियों के धुंये से ओढ़नी मैं इसकी
 
इस भाषा का मान बचाने अगर पड़े देना यह जीवन
भाई चार करोड़ अपना रक्तदान कर इसकी
                                                पूर्ण करेंगे मन की आशा।
मधुर है मेरी बंगला भाषा … 



वर्णमाला, मेरी दुखियारी वर्णमाला - शमसुर रहमान

नक्षत्रपुंज की तरह
दमकता परचम फहराते हुये तुम
मेरे वजूद में हो।
ममता कहलाती, सराबोर प्रांत का श्यामल
निविड़ रूप से
तुम्हे घेरे रहते हैं हमेशा।
स्याह रात काटने के बाद की घड़ियों में
हरसिंगार के फूल की तरह बचपन मेंपक्षी सारे
                                                करते शोरबोलते हुये मदमोहन तर्कालंकार
कितने धीर उदात्त स्वर में बुलाते थे हर रोज।
तुम और मै
निरंतर एक दूसरे की ममता में लीन
घूमे हैं उनके बगीचों में, नाचते हुये, जहाँ सारे फूलों की कली
खिलते हैं, जुटते हैं भँवरे मौसम के इशारे पर।

आजन्म मेरे साथी हो तुम
हर पल सपनों का पुल बनाकर दिया था तुमने मुझे
तभी तो तीनों लोक आज
                                मोहक जहाज बनाकर
लगता है मेरे ही बन्दरगाह में।
पिघले हुये काँच की तरह पानी पर
गुल्ली देखते हुये
रंगीन मछली की आस में चिकनी बंसी थामते हुये
बीत गई है बेला। याद आता है
कैंची से नक्शा बनाये गये कागज
                                और बोतल का कॉर्क फेंक कर
कब मैं हंसी खुशी का खेवन पार कर
पहुँच गया हूँ रत्नद्वीप, बिना कम्पास के।

तुम आती हो मेरी नींद के बगीचे में भी
                                                                किसी महाकाय
वृक्ष की खोह से कूदती फांदती उतर आती
                                आती हो गिलहरी के रूप में
प्रफुल्लित मेघमाला से अचानक
छलांग लगाती
ऐरावत बनकर
सुदूर पाठशाला की, इक्यावन सतत हरित
                चेहरे की तरह हिल हिल उठती हो
बार बार,
या सुर्ख मिर्च-होंठ वाला सुग्गा बन कर
किस तरह झुला देती हो
                                                स्वप्नमयता में
चैतन्य की पतवार।

तुम्हे उखाड़ लेने पर
बोलो, तब क्या बचता है मेरा?
उन्नीस सौ बावन के कुछ तरुणों के लहू की
                                पुष्पांजलि वक्ष में लिये
                                गौरवान्वित हो तुम महीयसी।
उस फूल की एक भी पंखुड़ी आज
किसी को तोड़ने नहीं दूंगा।

अभी तुम्हे घेर कर नीच लफंगापन बेसुध चल रहा है
अभी तुम्हे लेकर झाड़ु की गन्दगी
अभी तुम्हे घेर कर गालीगलौज की बहार।
तुम्हारे चेहरे की तरफ आज और देखा नहीं जाता
वर्णमाला, मेरी दुखियारी वर्णमाला।   



Friday, February 18, 2022

সময়ের সাথে চলা

মহীরুহ টাইপের উঁচু গাছ আর নেই, বৃক্ষও লোপাট,
এখন সব তন্বী পুষ্পতরু, পাতাবাহার বা গুল্ম যাতে
উড়ালপুলে এবং মেট্রোর আকাশপথে ব্যাঘাত না ঘটে। 
এমনিতেও গড় উচ্চতা কমেছে মানুষের – আশাব্যঞ্জক 
তথ্য বলছে, যেমন উন্নয়নী প্রমোদতরণী ফস্কে যাওয়া
মানুষ-মানুষির জীবনসময় কমেছে তিনটে দশকে। 

কিছুদিনে দু’একশো টাকায় সেন্সর-চিপ পাব একমুঠো,
চিরুনি, ঘড়ি, নেলকাটার বা আরো সমস্তকিছুতে সাঁটতে
হারাতে থাকে যা প্রতিনিয়ত – এবং হারালেই সেলফোনে 
নম্বর টিপে বাজাব রিংটোন – বেজে উঠবে নেলকাটার, 
ঘড়ি, চিরুনি, টিভির রিমোট এবং এখন, হয়ত মাস্কও – 
সম্মোহক টুংটাংএ …আরো সহজ হবে সময়ের সাথে চলা।

এখনো জাগে কিনা আকাশ, পাখি, মেঘ, প্রায়ান্ধকার অবেলা
বিশেষ ভাবি না কবিতায়। প্রতিবেশি জুয়া-ঠেকের মালিক 
আধেক বৌদ্ধ আধেক বৈষ্ণব – বন্দুক, গুন্ডামি, সম্পত্তি তার
তিনদশকে জমিয়েছে সুবচন এবং আখাড়া প্রণয়ন; 
বরং বুদ্ধচর্চা করি কখনো সখনো পরবের পাড়াতুতো
অভিভাবক-প্রণামে, ভক্তিলাস্যে ডিস্কোভজন শুনি মাইকে।

১৯.২.২০২২



Wednesday, February 16, 2022

জানলার কথা


এটাই সাবেক বাড়ি,
সব জানলায় জগত দেখায় ভিন্ন!
বুলি ঝাড়বি ঝাড়  বাড়ি এক।
জানলা আমার বনের পথচিহ্ন।

এক জানলা তোর, এক জানলা আমার,
বাকি অন্য ভাইবোনেদের সাড়ার;
সাড়াও এক, তবু ভিন্ন আলোছায়ার পটে 
একই সূর্য দিচ্ছে জ্ঞানের ভিতে,
ভিন্ন তাপ - পাতার, ঝুরির জটে
 
আমার গাছের ডালে আছে আমার ব্রহ্মদত্যি
তোর গাছের মূলে আছে তোর দিদার গান,
জানলা দিয়েই লাফ মারি বাপ ডাকলে, ক্ষেতে,
আমরা সবাই হেঁসোয় নিয়ে ভিন্ন ভাষার শান।


ইতিহাসের ব্যথা, আমার ভাষার আধেক বিদেশ,
ইতিহাসের জয়, আমার জানলা দুই বাড়ির,
ইতিহাসের বান, রক্ত কাঁটার তার চিবোয়
উনিশ মে, একুশ ফেব্রুয়ারি -
এটাই আমার বাড়ি।

১৭.২.২২



হড়কা বান

অনেক আগেই সামলে যাওয়া উচিৎ ছিল
এখন তো বেশ গভীর স্রোতে থই ধরছি
ডোবার টানে ফিরে ওঠা কঠিন আয়াস
জল নামছে ভালো কিন্তু পিছল চড়াই
 
এমনই হয় চললে নিজের বাঁধা গতে
হড়কা বানের শব্দ শুনেও স্পর্ধা দেখাই
বেঁচেও উল্টে মাতি বন্য জলের তোড়ে
আগুনেও তো মাতে বন-মাংস লোভী
 
এগোতে পার হতে হবেই কিন্তু আগে
উঠে এপাড় ধরে স্রোতের বিপরীতে
খুঁজি দল পারাপারের, মিলে বাঁধি
শিকড় লতার দড়ি প্রাচীন কারিগরি
 
আপাততঃ ওঠার জন্য হাঁচড়ে-পাঁচড়ে
কাদায় আঙুল শক্ত গেঁথে শরীর টানি
বেলা থাকতে বানের শুরুর অংশে গিয়ে
বুঝি জলের পাথরগুলোর অনড়তা।

১৬.২.২২ 



বিকেলের ঘুম

বিকেলে এখনো ঘুম পায় একটি বার।
অথচ সেই বন্ধুঘর নেই যে পৌঁছব,
দিদিদের কেউ ফিরে ভিতরে ঢোকার সময়
গায়ে চাদরটা টেনে দিয়ে যাবে।
বন্ধু এসে ভাত খেয়ে সিগারেট ধরাবে একটা।
চোখ ধাঁধানো সোনালি অস্তরাগ মাথায় নিয়ে ভেনেস্তার ফুলগুলো
উঁকি দেবে জানালায়। আরো একটু আঁধার হলে, তারা ফুটলে
গাইবেন ভিতরের ঘরে জর্জ।
জেগে উঠব ধীরে কোনো কবিতার তৃতীয় স্তবকে।
বিকেলেরই ঘুমের পরে জাগত সে পৃথিবীর
অনুচ্চ সমুদ্রকন্ঠ, সাড়া। বিকেলে এখনো ঘুম পায়।
এত আচ্ছন্ন ঘুম যেন তুষারমৃত্যু অথবা চিরবসন্তজন্ম হবে।

১০.২.২২

মিছিল

নিহত, নিখোঁজ মানুষগুলো থাকবে
আমাদের নিজেকে চেনার প্রয়োজনে।
এই বীভৎস অপশাসন নয়, যেখানে
ঘাতকগুলো অভিনন্দিত হয় বারোমাস
ফুলমালায়, নিয়োগপত্রে এলেম দেখালে
গণতন্ত্রীর হারামি করজোড়ে।
নিহত, নিখোঁজ মানুষগুলোকে বরং
গুনে দেখে নিই, চিনে নিই চেহারায়
 
ওই তো আখলাক, ওই তো নাজিব,
ওই তো আসিফা, ওই আফরাজুল
আমি সেই রোদেই আছি যেখানে ওরা
সবাই রয়েছে; গড়ে নিয়েছি রোদটা
ছবি দেখে দেখে, আজকাল তো এটাই
সুবিধা, পৃথিবীর প্রতিবাদী রক্ত,
তার রঙ, সুর, শব্দ মিশিয়ে নেওয়া যায়
নিজেদের আকাশে ও মেঘে!

না, ব্যানার নয়, মিছিলটা বড় করি ভাই,
এস! শুধু মানুষ তো নয়, স্মৃতিকেও
দিতে হবে ছায়া, পতাকার; দুঃসহতা কাটাতে
একটু বেশি জায়গা নিয়ে হাঁটব।

৮.১০.২১

 


নতুন পাড়ায়

মনে আছে, অঞ্জলির সময়?
পুজোর মন্ডপের ভীড়ে কত ইচ্ছে ছিল এগিয়ে যাওয়ার।
ঠেলেঠুলে পুরুতমশাইয়ের ঠিক সামনে পৌঁছোলে
মুঠোভর্তি ফুল পেতাম, অথচ শক্ত করে ধরে রেখেছিল মা।
মুঠো থেকে মুঠোয় সে ফুল ভাগ হতে হতে পেয়ে,
হাতে দোপাটির একটা পাপড়ি রেখে বাকিটা
মা আমায় দিয়ে দিল। মন্ত্রপাঠ শেষে,
ছুঁড়ে দিলাম দেবীর পায়ে কি পৌঁছোল?
নাকি সামনের কারো টাকে? রাগ হল।
দ্বিতীয়বার রাগেই ইচ্ছে করে ছুঁড়ে মারলাম ফুলগুলো,
সামনের বিচ্ছিরি পিঠ আর মাথাগুলোয়।
যারা দেবীর মুখ ঢেকে রেখেছে। তৃতীয়বার
মা বলল, ছুঁড়িস না, আমায় দে, একসাথেই ছুঁড়ব।
তবুও সেই মাথাতেই পড়ল। ওরা এবার
পিছনে তাকাল, আগে কটমটিয়ে দেখে,
হাসল, যখন মা আমাকে দেখালেন।
মন খুশি হল যে এই প্রথম আমিই মাকে আড়াল করলাম।

২৩.১০.২১   



কাঠবিড়ালি

সত্যি যদি বল
এমন নয় যে মন ভালো থাকে সব সময়
নদীরই তো মন ভাল নেই অনেক বছর হল
জল, গভীরতা কী বাদ রাখছি কাড়তে
কাজের জায়গাতেও
কোনোদিন এমন হয় যে সবাই হাজির
কারোর যাওয়ার ছিল না কোথাও
অথচ তবুও কথায় সুর ধরে না মাতানো
এমনকি ডাইরিরও ধর মন রইল না ভালো
পাতাটা সাদাই বন্ধ হল রাতে
অটোচালক বিকেলে থুথু ফেলে বলেছিল
কেমন হয়ে যাচ্ছে দুনিয়া দেখছেন?

বস্তুতঃ শুধু পেটের দায়টাই বিমর্ষ আকাশে
বাধ্যতার এক বিরক্তমুখো বুড়ো হয়ে
তাও সবার আগে ভোরবেলায়
আগুন ঢোকায় উনুনের তলপেটে আর ঠিক তখনই
ইচ্ছে করে তার মাথায় ছুঁড়ে মারে সাইকেলের ছেলেটি
সুতোয় বাঁধা খবরের কাগজ
যদি এমন হত যে পাশ থেকে বুড়োর কয়লা ভাঙা বৌ
রে রে করত, মারিস কেন রে মাথায়? লাগে না?
আর বুড়ো, কাগজটা বিস্কুটের বয়ামের মাঝে গুঁজে
বলত, হোঃ, আসল মার তো এর পাতাগুলোয়! …?
সেটুকুও যে হয় না একদিন!

ঠিক তখনই,
সূর্য ওঠার পুরো অক্ষাংশ-রেখা ভরে মানুষের বসতিগুলোয়
মাটির নিচে জল খলবলিয়ে উঠছে ওপরের টানে
লেজে ঈশ্বরীয় আভা নাচিয়ে কাঠবেড়ালি
ভাঙা কার্ণিশে খুঁজছে খাদ্য কী দেখছে বারবার চমকে চমকে?
এত বিস্ময় এত আবিষ্কারের সতর্কতায় এখনো পূর্ণ ওর জগত! 

১০.১২.২১



  

 

Saturday, February 12, 2022

আবার আরেকটিবার

মধ্যরাতে ট্রেন থেকে নেমে
সেই ছোট্ট নির্জন প্রায়ান্ধকার স্টেশনে
গাছের নিচে গিয়ে দাঁড়ালাম।
 
এ স্টেশনটার কোনো নাম নেই।
এ স্টেশনে কোনো দূরপাল্লার ট্রেনের দাঁড়ানোর কথা নয়
অথচ সব ট্রেন
ঠিক দাঁড়িয়ে পড়ে।
সব ট্রেনের মধ্যরাতেই
এই স্টেশনটা আবির্ভূত হয়।
এই স্টেশনের স্টেশনমাস্টার, রেলপথের জন্মকাল থেকে
এক বেদনাঘন
                   অলিখিত উপন্যাসের
স্মিতভাষ নায়ক।
তার আগে
তিনি ঘোড়াবদলকারী ছিলেন
সরাইয়ের যাত্রীদের।
 
এই স্টেশনেরই স্বল্পালোকে
তার আসবার কথা থাকে

কার? প্রেম না মৃত্যুর?

একদিন সিগারেট ধরাতাম
তারা-ভরা আকাশের দিকে চেয়ে, কিন্তু আজ
আমি সযত্নে পরিহার করি চাওয়া,
সিগারেট ধরানো, সংশয়
                             প্রেম না মৃত্যু!
আমি নিজেকে জেরা করি
সাদাপোষাকে টিকটিকির মত,
কোনো কাজ আছে এখানে আপনার? তাহলে?
 
ট্রেনের ভিতরে আমাদের ছোট্ট ছেলেটা;
সিঁড়ি বেয়ে উঠে
                             আমি চাইলাম
তার যৌবনে যেন আর
মৃত্যুর সংশয় না থাকে কোনো প্রেমের মুখে,

কোনো নামহীন স্টেশন যেন না থাকে।