Monday, September 24, 2018

संगीत में तर्कवाद – कुछ व्यक्तिगत सोच


संगीत1 के बारे में हमारे जैसे आम लोगों की धारणायें आज भी एक तिलिस्मी महल में कैद है। संगीत के उद्गम की कुछ कल्पकथायें महादेव की जटा घूमती रहती हैं। इससे ही समझा जा सकता है कि आज से सवासौ, डेढ़सौ साल पहले कैसी भीषण परिस्थिति थी। रागरागिणी की संख्या की बात करो तो ‘खरबों/असंख्य’, प्रामाणिकरण की बात करो तो ‘घरानों की रहस्यमय विशिष्टतायें’, श्रेणीगत समता की बात करो तो ‘श्रुतियों का भेद’, समयसीमा की बात हो तो ‘अनहदनाद के ब्रह्म तक विस्तृत होने’ की कहानियाँ… जबकि बुनियादी बात यह थी कि उन्नीसवीं की सदी का अन्त होते होते शास्त्रीय संगीत, युग के साथ कदम न मिला पाने के कारण जनता से दूर और गतिहीन होती जा रही थी।
किस ने, कब, कहाँ पहली बार देश की संगीत को नई सदी की रोशनी मे जाँचने का प्रयास शुरू किया था, कितना आगे बढ़ा था वह पहला कदम, यह मालूम नहीं है। लेकिन सांस्कृतिक परम्परा के सभी क्षेत्रों में जो एक राष्ट्रवादी-तर्कवादी2 पुनराविष्कार प्रक्रिया शुरू हुआ था उन्नीसवीं सदी में – संगीत के क्षेत्र में भी शायद उसी समय शुरू हुआ होगा।
कुछ बहुचर्चित नाम व कामों के आधार पर मैंने निम्नलिखित शृंखला बनाई है - इसे संगीत के तर्कवादी पुनराविष्कार व पुनर्निर्माण को समझने का ऐतिहासिक-तार्किक पद्धति कह सकते हैं। (वैसे काम एवं नाम के लिहाज से भारतीय संगीत के दो महापुरुष – पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर एवं पंडित विष्णुनारायण भातखण्डे – में पलुस्कर का नाम पहले आना चाहिये। उनका क्रांतिकारी कदम, संगीत विद्यालय की स्थापना एवं अन्य सम्बन्धित काम 1901 में ही किया गया था जबकि भातखण्डे की कालजयी कृति 1909 में आई थी, फिर भी ऐतिहासिक मुहुर्तों का सिलसिला बनाते हुये उनके काम का जिक्र मैंने आगे किया है।)   

1 – रागरागिणियों के प्रामाणिक ठाटों का निर्द्धारण
सन 1960 कोल्हापुर, महाराष्ट्र में जन्मे थे विष्णु नारायण भातखंडे। पेशे से वकील थे। सफल थे अपने पेशे में। भारत की शास्त्रीय संगीत (उत्तर भारतीय एवं कर्णाटकी, दोनों) या मार्ग संगीत पर अध्ययन का नशा शुरू से ही था। पत्नी एवं पुत्री असामयिक निधन के बाद निकल गये भारत-भ्रमण पर। वकालत में इतने दिनों तक कमाये गये रुपये काम आ गया। एक एक घरानों के जीवित विशारदों से उन्होने मुलाकात किया। मुलाकात आसान नहीं था। अधिकांश उस्ताद, गुरु या विशारद अपने अपने अहंकार में खोये थे। मिलने को आये इस आदमी के प्रति अपना क्रोध जाहिर करने में उन्होने कोई कसर नहीं छोड़ी। जैसे कि यह आदमी बड़ा पाप करने निकला हो। असीम को नापने निकला हो दर्जी के फीते से! कितनी स्पर्धा! संगीत को नापेगा! अभी शिव का तृतीय नेत्र खुलेगा और यह नापाक रोषानल में जलकर राख हो जायेगा!… फिर भी भातखन्डे घूमते रहे। कोई कुछ बोलना ही नहीं चाहे। फिर भी भातखन्डे लगे रहे। डायरी भर गया नोट्स से। फिर लौट आये घर। पहले एक छोटा  पुस्तक रागों का परिचय देते हुये - ‘स्वरमालिका’। फिर मित्रों के सुझाव पर मराठी में लिखा उन्होने अपना ‘मैगनम ओपस’ – हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति। इस पुस्तक शृंखला के चौथे खण्ड के प्रस्तावना में उन्होने लिखा:-
“ग्रंथ रचना आरम्भ करने से पूर्व नैपाल को छोड़ कर अन्य तमाम प्रान्तों में प्रवास कर के वहाँ के गायक-वादकों से संगीत चर्चा करके तथा प्रवास में जो भी उपयोगी ग्रंथ मुझे दिखाई दिये, वे सम्पादित करके मैंने उन सबका भली प्रकार मनन किया है। इतना ही नहीं वरन अनेक ख्यातिप्राप्त गायकों के सन्निकट स्वयं बैठकर उनसे ख्याल-ध्रुपद के हजार-पन्द्रह सौ गीत सीखे और उनके नोटेशन भी तैयार किये।…
“सर्व प्रथम मैंने समाज में प्रचलित वर्तमान रागों का सूक्ष्मरूप से निरीक्षण किया। उनमें मुझे ऐसा दिखाई दिया कि समाज में आज सवासौ-डेढ़सौ से अधिक राग नहीं गाये जाते हैं। यह भी देखने में आया कि स्थूल दृष्टि से ये सारे राग मुख्यत: निम्न तीन वर्गों में विभाजित करने योग्य हैं:-
जिन रागों में रे, ध तथा ग स्वर तीव्र रहते हैं।
जिन रागों में रे कोमल तथा ग, नि तीव्र रहते हैं।
जिन रागों में ग तथा नि कोमल रहते हैं।
यह भी मुझे दिखाई दिया कि प्रचार में कुछ रागों में द्विरूपी स्वर आते हैं, परन्तु कुल मिलाकर उन रागों के चलन एवं रचना को देखते हुये मेरी समझ से उनके पृथक वर्ग करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। ये वर्ग निश्चित हो जाने के पश्चात इन तमाम रागों के वर्गीकरण के हेतु निम्नांकित दस मेल अथवा थाटों को मैंने हिन्दुस्तानी संगीत की नींव मानना पसन्द किया:-
1) यमन             2) बिलावल         3) खमाज           4) भैरव               5) पूर्वी  
6) मारवा            7) काफी            8) आसावरी        9) भैरवी             10) तोड़ी
तोड़ी थाट में ग कोमल है तथा कुछ तोड़ी प्रकारों में ग, नि कोमल है। अत: थाट को ग, नि प्रयुक्त वर्ग में ही लिया है। इस प्रकार से समस्त रागों को इन दस थाटों में वर्गीकृत करके,……” (हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति, चौथा भाग, संगीत कार्यालय, हाथरस)
सोचा जा सकता है कि कितना बड़ा क्रांतिकारी काम था भातखण्डे का यह वर्गीकरण।
कर्णाटकी संगीत में शायद लक्षण-गीतों की एक परम्परा थी। रागों का लक्षण समझाने के लिये। थाटों की अवधारणा तक पहुँचने से पहले भातखण्डे ने उन्ही लक्षण-गीतों से प्रेरित होकर प्रामाणिक सुरों के ‘विहार’ की रचना की मराठी में। उस पुस्तिका को लिखने के क्रम में उन्हे एक और महत्वपूर्ण काम करना पड़ा। अपने तरीके से स्वरलिपि लिखने की पद्धति को विकसित किया। (बाद के दिनों में धीरे धीरे पूरे देश के लिये समान मान की लिपि व रचना-पद्धति स्वीकृत हुआ।)
ऐसा नहीं है कि रागरागिणियों के वर्गीकरण का प्रयास इसके पहले नहीं हुआ। आरोह-अवरोह का चक्राकार विन्यास, भाव, और कई प्रकार से वर्गीकरण का प्रयास हुआ था। लेकिन एक सप्तक में आरोह के न्यूनतम जितने भिन्न रूपों को थाट कहकर चिन्हित किया जा सकता है उस आधार पर रागरागिणियों का वर्गीकरण पहली बार भातखण्डे ने किया। अभी भी बहुत सारे लोग इस काम को हवा में उड़ा देते हैं। अभी हाल में इन्टरनेट पर नज़र आया एक शख्स कह रहे हैं कि थाट से राग-रूप का थाह भी पाना सम्भव नहीं है। कौन कहता है भाई कि सम्भव है? भातखण्डे ने कहा है? भाव का थाह, प्राण का थाह सचमुच नहीं मिलता है। लेकिन हड्डियों का थाह तो मिलता है! और उस समय यही सर्वाधिक क्रांतिकारी काम था। सात स्वरों के सप्तक में सा और पा स्थिर; बाकी बचे पाँच में से मा की कड़ी और शुद्ध तथा रे, गा, धा, नि का कोमल और शुद्ध – दस स्वर, दस रूप। जितनी भी हो राग व रागिणियाँ, उनके दस अमूर्त वर्ग या श्रेणी का निर्माण।
बाँध दिया उन्होने। ऐसा बाँधा कि पूरा भारत मान लिया वह बंधन। गायक हैं आप? वादक? जौनपूरी साध रहे हो उस्ताद? साधो! शायद तुम्हारे मन तस्वीरें उभर रही हैं… शरदॠतु में छोटे कस्बे के रास्ते को जब तुम सुबह स्कूल जाने के लिये पार करते थे, रामतीरथ की दुकान पर जलेबियों का गंध भुला देता था संस्कृत शिक्षक की पिटाई… दो पैसे की जलेबी खरीद कर बैठ जाते थे आम के बगीचे में… धूप चढ़ती थी धीरे धीरे, पत्तों की ओट से छन कर आती थी रोशनी… गाओ, बजाओ, जी भर कर याद करो उस सुबह की आनन्द भरी वेदना! तुम्हे बिल्कुल याद रखने की जरूरत नहीं कि जौनपुरी का थाट क्या है। लेकिन भाव के विस्तार में कहीं आसावरी का कोई अंग छू जाने का मन करे तो बाद में सोच लेना कि थाट जौनपुरी का भी तो आसावरी ही है।
तो क्या थाट की अवधारणा संगीत की स्वाभाविक गति को अवरुद्ध करता है? कमल की कलियों को नारियल की रस्सियों से बाँधने की कोशिश करता है? सीताजी के दिये हुये मोतियों की माला में से मोती तोड़ कर दाँतों से चबा कर देखना कि खाने की चीज तो नहीं – जैसी हास्यास्पद कोई बात हुई?
या तर्क की राह पर एक बड़ी मुक्ति को सम्भावित किया गया? यही सवाल है। आधुनिक युग के साथ तथा भारत के राष्ट्रीय अभ्युदय के साथ भारत की सांस्कृतिक परम्परा को जोड़ने की सही दिशा का एक निर्णय है यहाँ – भातखण्डे के काम में।
मदुरई स्थित मीनाक्षी मन्दिर के अन्दर एक खम्भा है जो वस्तुत: बाईस पतले खम्भों का एक गुच्छा है। पतले खम्भों के बीच में खाली जगह है। कोई पतली सी चीज से अलग अलग बजाने पर बाइस भिन्न स्वर उत्पन्न होते हैं। लोग कहते है कि वे बाइस श्रुतियाँ हैं। है न अद्भुत? इतनी जटिल एक ट्युनिंग फॉर्क, वह भी पत्थर की बनी और एक सप्तक के बाइस स्वरों के लिये! सदियों पहले बनाई गई!
भारत की शास्त्रीय संगीत परम्परा का जो विपुल वैभव है, सदियों से उस परम्परा के जीवित रहने का जो अनन्य फल है रागरागिणियों का प्रतिष्ठित सामाजिक सम्बन्ध (लगभग सामाजिक अवचेतन का अंग बन चुका उनका, दिन-रात के प्रहरों के अनुसार सुर व भावजनित सूक्ष्म भेद), अनहद नाद की कल्पना की जो गूंज प्राच्य की विश्वदृष्टि पर भी एक खास रंग चढ़ा रखा है इतने वर्षों से… इन सभी बातों को छोटा कर के आँकने का आरोप अगर कोई करता है तो वह पागल का प्रलाप होगा।

2 – संगीत सम्मेलनों का आयोजन
थाट के आधार पर रागरागिणियों के वर्गीकरण के बाद दूसरा महत्वपूर्ण काम या जिसे कहा जाता है दूसरा ऐतिहासिक मुहुर्त था संगीत सम्मेलनों का आयोजन। तथाकथित शुद्धता के तिलिस्म से संगीत को बाहर निकालने का, घरानाओं के exclusivity को तोड़ने का एवं शास्त्रीय संगीत के एक लोकप्रिय (विशारदों की भाषा में चटकीला और सस्ता) लघु रुप का जो विकास हुआ था उसके प्राण3 को जीवित रखने का कदम था यह, संगीत सम्मेलनों का आयोजन।
इस काम में भी भातखण्डे साहब ने राह दिखाया। हालाँकि जालन्धर का हरिबल्लभ संगीत सम्मेलन का दावा है कि उनका सम्मेलन सबसे पुराना है – सन 1875 से शुरू हुआ है। हो सकता है। पर जिस उद्देश्य की बात कर रहा हूँ उस उद्देश्य के साथ सम्मेलन बीसवीं सदी के दूसरे दशक से शुरू हुआ था। क्योंकि भातखण्डे साहब को तब तक इस काम में सफलता हासिल होना सम्भव नही था जब तक वह खुद संगीत पर अपने ऐतिहासिक शोध के कारण संगीत-समाज में प्रतिष्ठित नहीं हो जाते। हुआ यूँ कि बड़ौदा के महाराजा (भारतीय कला, शिक्षा, पुस्तकालय आदि के आधुनिकीकरण को प्रोत्साहित करने वाले  संरक्षक के तौर पर यह प्रसिद्ध हैं) के बुलावे पर भातखण्डे (एवं शायद विष्णु दिगम्बर पलुस्कर भी) वहाँ एक संगीत विद्यालय की स्थापना के लिये सन 1916 में गये। उसी विद्यालय की तैयारी के क्रम में भातखन्डे ने संगीत सम्मेलन का प्रस्ताव दिया। इसी तरह बड़ौदा में आयोजित हुआ ऐतिहासिक पहला अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन। इस सम्मेलन में पूरे देश से 400 से अधिक प्रतिभागी संगीतज्ञ आये थे। कार्यक्रम की शुरुआत में भातखण्डे ने एक दीर्घ सारगर्भित भाषण दिया जो बाद में A SHORT HISTORICAL SURVEY OF THE MUSIC OF UPPER INDIA के नाम से प्रकाशित हुआ। इस भाषण के शुरु का एक पैराग्राफ थोड़ा लम्बा होते हुये भी मैं उद्धृत करना चाहुंगा क्योंकि राष्ट्रवादी-तर्कवादी जिस पुनराविष्कार की मैं बात कर रहा हूँ उसका स्पष्ट परोक्ष जिक्र इस पैराग्राफ में है:-
A satisfactory feature of the Renaissance of Indian culture and Indian ideals, which characterises the intellectual activity in India of the present day, is the attention that is paid to the revival of our ancient music. The keen interest evinced by the present generation in the preservation and further progress of this national heirloom has materialised itself broadly speaking, in two different aspects. On the one hand, one notices the movement of learned scholars from all parts of India meeting in national conferences with a view to focus attention on and co-ordinate the results of research grappling with the technical side of the question; su;h as for instance, the working out of a system of uniform and adequate notation; the systematising of the ragas at present sung in the northern part of the country, so as to make the same easy of instruction and assimilation, and so forth. On the other hand, one welcomes the growth of numerous music clubs and schools of music,- and with it the facilities offered for a serious and thorough-going study of the art,-and its gradual introduction into our homesteads.
Both these aspects are complementary of each other, neither is complete without the other. The learned but. dry-as-dust disquisitions of our theorists would be fruitless waste of time if they did not succeed in evoking some interest on the part of the public in the art; while the Gayan Samaj would be a deplorably shaky superstructure without the firm foundation of the science.
बाद में तो देश के विभिन्न शहरों में इस तरह का संगीत सम्मेलन अत्यन्त लोकप्रिय हो उठा। स्वतंत्रता के बाद ऑल इन्डिया रेडिओ या आकाशवाणी द्वारा आयोजित संगीत सम्मेलनों को एक विशेष महत्व कायम हुआ संगीत जगत में।  देश के अन्य शहरों में बड़े संगीत सम्मेलनों में तो गेटपास आदि की व्यवस्था होती थी, पर पटना ने एक खास मुकाम बनाया। दुर्गापूजा से कालीपूजा तक की अवधि में दर्जनों सांगीतिक आयोजन, सम्मेलन नहीं तो उससे कम भी नहीं! गेटपास यहाँ भी होते थे पर सड़क पर या कॉलेज ग्राउंड या पार्कों में पंडाल लगाकर कार्यक्रम होता था रातभर एवं हजारों श्रोता उस पंडाल के घेरे के बाहर मैदान में बैठकर या खड़े, संगीतज्ञों को सुनते थे, देखते थे। जनता के साथ रिश्ता बनाने के इस संघर्ष में, जनता का प्यार बटोरने की व्यग्रता में कई कलाकार (जैसा कि सुनने को मिलता था) अपनी फीस तक नहीं लेते थे। बच्चों की पढ़ाई की शुरुआत हाथ में खल्ली थमाकर किया जाता है। एक महत्वपूर्ण पर्व होता है वह परिवार का। तो संगीत का श्रोता बनने की शुरुआत को अगर ‘कान में खल्ली’ कहा जाय तो वह पर्व तो हमारा भी पटना के ही स्टेशन गोलम्बर, चिल्ड्रेन्स पार्क, बीणा सिनेमा परिसर, सचिवालय परिसर, गोविन्द मित्रा रोड, सब्जीबाग मोड़, पटना कॉलेजियेट, स्टेट बैंक - महेन्द्रु परिसर, गांधी मैदान आदि में बिताई गई रातों में हुआ है। किस किस को सुनने व देखने का सौभाग्य हुआ उन्हे याद करने में भी पटना की जनता के प्रति कृतज्ञता से सर झुक जाता है।
संगीत सम्मेलनों/आयोजनों में बजती हुई तालियाँ एवं ‘जनता की मांग’ अगर भारतीय संगीत के यात्रापथ में एक महत्वपूर्ण सकारात्मक कारक के रूप में विशारदों के भौंहों के सिकुड़न के आगे नहीं जा पाता तो शायद हम शास्त्रीय संगीतज्ञों को अपने बीच इतना अपनेपन के साथ नहीं पाते।

3 – संगीत विद्यालय की स्थापना
    महान संगीतज्ञ हमें गुरु-शिष्य परम्परा के माध्यम से ही मिले हैं। आज भी, बाहरी रूपों में सन्तुष्ट न रह कर अगर संगीत की गहरी सच्चाई का सामना करना ध्येय हो तो गुरु के पास गन्डा बाँधना पड़ेगा। रविशंकर, अली अकबर हों या आमीर खाँ और भीमसेन जोशी – एवं उनके गुरु भी – इसी परम्परा में संगीत के शिखरों का निर्माण किया (दक्षिण के संगीत के श्रोता क्षमा करेंगे कि चूंकि दक्षिण भारतीय संगीत इतना कम सुनने और समझने को मिला, सुब्बुलक्ष्मी या बालमुरलीकृष्ण जैसे किम्बदंतियों का नाम जानते हुये भी नहीं ले रहा हूँ)। लेकिन यह भी सच है कि उन्निसवीं सदी के अन्त तक जैसे जैसे संगीत की दुनिया क्षय के तिलिस्म में कैद होता जा रहा था, बुरे गुरु एवं बुरे शिष्य दोनों पैदा हो रहे थे। जिनके कारण इस तरह की बातें चल निकली कि ‘संगीत सीखना हो तो गुरुजी के हुक्के को फूंक फूँक कर लहकाते रहो साल दर साल, पैर दबाते रहो… तब कहीँ उनका आशीर्वाद मिलेगा’ वगैरह।
फिर सब को उस्ताद बनना भी तो नहीं रहता है। कोई थोड़ा सा सीखना चाहता है, कला को समझने के लिये, फुरसत में अपनी खुशी से कुछ गाने बजाने के लिये। किसी के पास ज्यादा वक्त नहीं है – कुल तीन साल, फिर पिताजी रिटायर करेंगे, परिवार का बोझ उसके कंधों पर आ जायेगा। किसी के पास पैसे भी नहीं है!
पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर, महान गायक एवं संगीतज्ञ ने सन 1901 के 5 मई को लाहौर में स्थापित किया देश का पहला संगीत विद्यालय – गन्धर्व महाविद्यालय। स्वतंत्रता के उपरांत यह महाविद्यालय मुम्बई में स्थानान्तरित हो गया।
पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के महान कामों का जिक्र अलग से होना चाहिये। श्रोतावर्ग को सम्मोहित करने वाले एक महान गवैया थे वह। तत्कालीन रिवाज के अनुसार मेरज के राजा उनके संरक्षक भी बने। लेकिन वह राष्ट्रवादी थे, जनता के करीब संगीत को ले जाना चाहते थे। राजा-रजवाड़ों से डरते भी नहीं थे। अपने गायन कार्यक्रम में उन्होने राजाओं या अंग्रेज अतिथियों का सिगरेट पीना बन्द करवा दिया। सौराष्ट्र गये तो अपना खर्चा उठाने के लिये अपने गायन कॉन्सर्ट का आयोजन किया बिना किसी रजवाड़े के संरक्षण के। कॉन्सर्ट का आनन्द लेने के लिये टिकट के व्यवस्था की शुरुआत की और जनता पर भरोसा किया। लाहौर में गन्धर्व महाविद्यालय के लिये किसी राजा से मदद नहीं ली, सिर्फ अपने कॉन्सर्ट में मिले पैसे एवं जन-अनुदानों पर चलाते रहे। अपनी नोटेशन पद्धति विकसित की, पाठ्यक्रम तैयार किया। बाद के दिनों के के कई बड़े संगीत-महारथी उस महाविद्यालय के छात्र रहे। संगीत स्वरलिपि की रचना की एवं 70 से अधिक पुस्तकों - संगीत परिचय, गायनविधि एवं विभिन्न वाद्ययंत्रों पर – की रचना की। विख्यात रामधुन, ‘रघुपति राघव राजाराम’ उन्ही की रचना है। कांग्रेस के अधिवेशनों में उनका ‘वन्देमातरम’ एवं अन्य राष्ट्रवादी गीतों का गायन एक अनन्य अनुभव होता था। ऑल इन्डिया गन्धर्व महाविद्यालय मंडल आज अपनी शाखाओं के साथ उनके कामों के विरासत को आगे बढ़ा रहा है। इस संस्था के वेबसाइट पर अंकित है पलुस्कर की वाणी:-
“सभी को अल्प शुल्क में उच्च संगीत शिक्षा आसानी से प्राप्त होने के लिये विद्यालयों की स्थापना करना तथा निर्व्यसनी, अनुशासनपर और सच्ची निष्ठा से काम करने वाले संगीत कलाकार-शिक्षकों का निर्माण करना, यह मेरा एकमात्र ध्येय था।
“इसके लिये ही आजतक मैंने कष्ट उठाये, और अन्तिम क्षणों तक उठाता रहूंगा।”   
भातखण्डे की सारी किताबें इस महाविद्यालय की स्थापना के बरसों बाद प्रकाशित हुई, इस लिहाज से ऐतिहासिक कालक्रम में इस घटना का जिक्र पहले होना चाहिये! लेकिन जैसा कि शुरु में कह चुका हूँ कि मैं इस निबन्ध में ऐतिहासिक-तार्किक पद्धति का प्रयोग कर रहा हूँ। विद्यालय या महाविद्यालय की स्थापना मानकीकरण (रागों का वर्गीकरण), मानकीकरण पर सामान्य सहमति (संगीत सम्मेलन) के बाद तीसरा ऐतिहासिक मुहुर्त है। इसीलिये इसका जिक्र अब कर रहा हूँ।
आज संगीत महाविद्यालय बहुत सारे हैं। उनके स्तरों में भी गिरावट आया है। थोड़ी सी पढ़ाई और परीक्षा पर डिप्लोमा एवं स्नातक की डिग्री के सर्टिफिकेट आसानी से मिल जाते हैं। पत्राचार पर भी कोर्स चल रहे हैं। पर जब पलुस्करजी ने महाविद्यालय स्थापित किया उस समय वह एक क्रांतिकारी कदम था और बहुतों के लिये सोचना भी मुश्किल था।

4 लोकसंगीत एवं शास्त्रीय संगीत के बीच के सम्बन्धों का पुनराविष्कार
मैंने भरसक ढूँढ़ा लेकिन इस दिशा से अतीत को खंगालने का कोई काम 1920, 30 या 40 के दशक में होने का सबूत नहीं मिला। एक सिद्धांत के रूप में शायद जिक्र हुआ होगा पुस्तकों में लेकिन शोध की शुरुआत नहीं हुई। शायद वह काम निरर्थक भी होता क्योंकि दो हजार से अधिक वर्ष पहले से (जैसा कि प्राचीन ग्रंथों का रचनाकाल तय करनेवाले विद्वान बताते हैं) जो संगीत अपने लोकायत जड़ों से खुद को अलग कर एक विशद शास्त्र के रूप में विकसित हो रहा था, उसके जड़ों को दोबारा ढूंढ़ा नहीं जा सकता था। शास्त्रीय संगीत का पुनर्जीवन नये तौर पर जनता से जुड़ने एवं लोकसंगीत के साथ जुड़ने के माध्यम से ही हो सकता था। वही हुआ। विष्णु दिगम्बर पलुस्कर से कुमार गन्धर्व तक एवं उसके बाद भी, बड़े शास्त्रीय संगीतज्ञ बार बार यही करते रहे। हाँ, ऐसा जरूर प्रतीत होता है कि शास्त्रीय गायन, गायकी एवं उसके विभिन्न अलंकारों को सरल रूप में जनता तक पहुँचाने के लिये शुरुआती दौर के राष्ट्रवादी संगीतज्ञ, विभिन्न लघु शास्त्रीय रूपों में से भजन को प्रधान माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया – नये नये भजन भी रचे या सुर में बांधे गये; बाद के संगीतज्ञ ठुमरी, दादरा और फिर कजरी, होरी आदि सभी रूपों को लेकर जनता के बीच पहुँचे। रागों के भाव के प्रसार में सचेत रूप से लोकगीत के पास पहुँच जाना आज बहुत स्वाभाविक लगता है। यह काम किया गया, कई दशकों में।
लेकिन फिर भी, यह तो कहना ही पड़ेगा कि शोध की एक धारा के रूप में शास्त्रीय संगीत के साथ इस विशाल देश के अलग अलग प्रान्तों या क्षेत्रों के लोकसंगीत के सम्बन्धों के पुनराविष्कार पर जो काम संभावित था, आज भी संभावित है, वह नहीं हुआ। कुछेक किताबें या लेख जरूर मिलेंगे जहाँ तहाँ, कुछेक राग, लोकधुनों के साथ जिनका रिश्ता अभी भी स्पष्ट एवं श्रुतिगोचर है, उन पर चर्चा करते हुये विडियो मिल जायेंगे लेकिन एक सांस्कृतिक टास्क के रूप केन्द्रीय या राज्य सरकार के स्तर पर इसे लिया नहीं गया। इस क्रम में ढूँढ़ते हुये दक्षिणी संगीत के विद्वान Dr. S.A.K.Durga का एक निबन्ध http://www.indianfolklore.org/journals/index.php/Music के साइट पर मिला - Transformation of Folk tunes into Ragas of Classical Music यह जानकर भी तकलीफ हुई कि इनके इस निबन्ध के बारे में जानकारी मिलने के ठीक तीन दिन पहले, 20 नवम्बर 2016 को इनका निधन हो गया। निबन्ध का शीर्षक ही बताता है कि कितनी गंभीरता के साथ इस दिशा में वह सोच रही थी। चुँकि वह सिर्फ संगीतज्ञ ही नहीं, संगीत-वैज्ञानिक, एथ्नोमुजिकोलोजिस्ट थीं, इस छोटे से निबन्ध में भी अपने वैज्ञानिक सोच का प्रमाण रखीं। लेख में उदाहरण के तौर पर उन्होने एक दक्षिणी राग पर विचार किया है, उस हिस्से का उद्धरण हमें समझ में नहीं आयेगा। लोकगीत/धुन को राग में बदलने की प्रक्रिया को एवं उसे विश्लेषित करने की पद्धति को कितनी स्पष्टता के साथ वह समझती थीं यह गौर करने लायक है।    
The transformation process of a folk tune into a raga of Indian Music is a smooth transition with the expansion of the folk tune by:
1. The extension of the range by having a minimum of one octave.
2. Framing a scale for the tune within the octave.
3. Codification of rules for the elaboration of the melody within the framework of the scale.
4. A name for each scale for its identity of the Raga.
5. Melodic pattern with certain type of gamaka within the framework of the same scale will also give the identity are called allied ragas.

5 लोकसंगीत का संग्रह-कार्य एवं शोध
भारत सरकार की संस्था सेन्टर फॉर इन्डियन लैंग्वेजेज के पोर्टल पर लोकसंस्कृति पर शोधकार्य के विशेषज्ञ जवाहरलाल हांडु का एक सुन्दर, विशद निबन्ध है लोक लोकसंस्कृति के विभिन्न पहलुओं के बारे में। उसमें वह लोकसंस्कृति के अध्येताओं, अध्ययन व शोधकार्य को तीन कालखण्डों में विभाजित करते हैं – मिशनरी काल (जिसमें मिशनरियों के अलावे अंग्रेज सिविल सर्वेन्ट्स भी शामिल हैं), राष्ट्रवादी काल एवं एकैडेमिक काल। (http://ccrtindia.gov.in/regionalmusic.php Centre for Cultural Research and Training, Government of India)
इस काल विभाजन के सही या गलत होने पर यहाँ विचार करने की जरूरत नहीं। क्योंकि सामान्य नजरों से भी तीन कालखण्ड तो दिखते ही हैं, नामकरण जो भी किया जाय। फिलहाल, यह कहना चाहता हूँ की लोकगीतों के अध्ययन व शोधकार्य के भी वे ही कालखण्ड होंगे। लेकिन उन गीतों का सांगीतिक पक्ष – धुनें, गायन पद्धति, वाद्ययंत्रों का प्रकार, वादन पद्धति – पर अध्ययन स्वाभाविक तौर पर थोड़ा बाद में शुरू हुआ होगा एवं तकनीकी प्रगति के बाद यानि छायांकन, फिल्मांकन, विडियो/ऑडिओ रेकॉर्डिंग आदि सुविधाओं के विकास के बाद तेजी से आगे बढ़ा होगा।
जितना यह क्षेत्र आगे बढ़ा, विभिन्न क्षेत्रों के गीतों, धुनों व वाद्यों के बारे में जानकारी मिलने लगीं, शास्त्रीय संगीत विशारद, गायक और वादकों ने क्या कोशिश कीं कि उन धुनों व बोलों में से कुछ और अधिक को अपने गायन, वादन में शामिल किया जाय? या वे पहले से चले आ रहे बोलों व धुनों के शास्त्रीय विस्तार में ही सिमटे रहे?    
साथ ही, पहले किसी और सन्दर्भवश चर्चा किये जाने के बावजूद फिर यहाँ कहना चाहूंगा कि बिहार में लोकगीतों (धुनों, गायन पद्धति, वाद्यों आदि की रेकॉर्डिंग सहित) पर अध्ययन अभी भी कमजोर है, और दिन बीतने के साथ साथ यह और अधिक कठिन होता जा रहा है क्योंकि कुछेक गीत लुप्त हो रहे हैं एवं कुछेक गीतों को भोंड़ा बाजारीकरण लगभग खा गया है।

6 नये संगीत की रचना
यह एक विशाल क्षेत्र है एवं इसके कई आयाम हैं। इस क्षेत्र में काम चौथे एवं पाँचवें ऐतिहासिक मुहुर्त के काफी पहले से जारी है। फिर भी इस काम को मैं छठे मुहूर्त के रूप में रख रहा हूँ। इसकी चार धारायेँ परिलक्षित होती हैं – (क) शास्त्रीय संगीत को लोकप्रिय बनाने एवं जनता की भावनाओं तक पहुँचाने के लिये रचे गये भजन व अन्य लघु शास्त्रीय गीत, (ख) थियेटर एवं बाद में सिनेमा के गीत, (ग) सुगम संगीत – आधुनिक गीत (यह शब्द बंगला में चलता है, हिन्दी क्षेत्र में गैर-फिल्मी एक शब्द चल पड़ा है जो अटपटा है), (घ) स्वदेशी गीत, देशप्रेम के गीत, आन्दोलनों के गीत, जनवादी गीत, लोकगीतों में नये बोल। इन चारों से अलग, भारतीय संगीत के विकास का एक और पहलू इसी मुहुर्त के साथ मैं गिनाना चाहूंगा और वह है वाद्यवृन्द या ऑर्केस्ट्रा; सृजन की एक बिल्कुल नई, फॉर्म में योरोप से आयातित धारा।
इन सभी धाराओं का प्रभाव एक दूसरे पर पड़ते रहा है एवं इनके विकास के प्रमुख कारकों में स्वाधीनता-संग्राम, क्रांतिकारी जनाआन्दोलनों का विकास तथा (अत्यन्त महत्वपूर्ण) श्राव्य/दृश्य प्रौद्योगिकी का चमत्कारिक विकास।
इनमें सबसे पहली धारा थियेटरी संगीत और आन्दोलन के गीतों की ही है। और भाषाओं को तो नहीं जानता हूँ पर उन्नीसवीं सदी के मध्य से ही बंगला थियेटर में रचे जाने लगे नये गीत जो रागाश्रयी भी होते थे (कीर्तन सहित) एवं योरोपीय धुनों पर आधारित भी होते थे। शायद थोड़े ही दिनों के अन्दर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नाटक हिन्दी क्षेत्र में खेले जाने लगे एवं उनके क्रान्तिकारी गीत जनता के बीच आने लगे।
साथ ही, पार्श्वसंगीत के तौर पर कुछेक विलायती वाद्ययत्रों के साथ अधिक से अधिक भारतीय वाद्यों, तालवाद्यों को एकत्र कर तैयार किया गया भारतीय वाद्यवृन्द एवं वृन्दगान की नई सम्भावना। ढोल, खोल, मृदंग, करताल, पखवाज, एस्राज, सारंगी आदि यंत्रों का कॉन्सर्ट शायद पहले भी होता था पर थियेटर की जरुरत ने वृन्द-संगीत को भी नया मात्रा दिया।
दूसरी ओर, इसके साक्ष्य हैं कि 1857 में हुये प्रथम स्वाधीनता-संग्राम में पूरे प्रभावित क्षेत्र में खड़िबोली हिन्दी, राजस्थानी एवं अन्य बोलियों में नये गीत रचे गये एवं खूब गाये गये। दुखद है कि वे गीत किन धुनों में गाये गये यह हम आज नहीं जान पायेंगे।                   
एक तरफ शास्त्रीय संगीत के नये लोकप्रिय रूप तो दूसरी ओर थियेटरी संगीत (जिसमें योरोपीय धुनों के पुट भी थे), साथ में नव-आविष्कृत लोक व ग्राम्य गीतों शहरी मध्यवर्ग में स्वीकृति, इस तीन-तरफा सांगीतिक परिप्रेक्ष्य में उभर कर आये स्वदेशी गीत, देशप्रेम के गीत। खास कर बंगाल में रवीन्द्रनाथ ठाकुर से कुछ वरिष्ठ तो कुछ कनिष्ठ, गीतकार-सह-सुरकार-सह-गायकों की एक पीढ़ी आई जिनमें द्विजेन्द्र लाल राय, काजी नज़रुल इसलाम, अतुल प्रसाद सेन आदि के नाम प्रमुख हैं।   
इसी समय पहला ग्रामोफोन आया 78 आरपीएम का रेकॉर्ड लेकर। तीन मिनट तक बजता है। तीन मिनट के अन्दर किसी राग या रागिनी का चलन, लघु संगीत में भी, कभी ‘पाप’ समझा जाता होगा। लेकिन उपाय नहीं रहा।
कथासाहित्यिक शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के बारे में कहा जाता है कि जब उनके किसी मित्र ने उनसे किसी शास्त्रीय गवैये की तारीफ की तो उन्होने पूछा, “कह रहे हो बड़ा गवैया है, रुकना तो आता होगा उसे?” रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी बहुत चिढ़ते थे कुछ शास्त्रीय गायकों की, निरर्थक पुनरावृत्ति के साथ गायन को लम्बा खींचते जाने की इस आदत से। ग्रामोफोन यानि कि प्रौद्योगिकी और बाज़ार ने एक हद तक इस आदत में सुधार ला दिया। पहले तो किसी राग का परिचय तीन मिनट के अन्दर देने का अभ्यास और फिर 33 आरपीएम का रेकॉर्ड आने पर 20 मिनट में राग की अभिव्यक्ति। यह पाबन्दी सिर्फ रेकॉर्डिंग के लिये थी पर सामान्य गायन/वादन पर भी इसका असर पड़ा। पुनरावृत्तियाँ कम हुई। बेहतर, कल्पनाशील, सृजनात्मक गायक/वादकों को ज्यादा अवसर मिलने लगा।
इस समय के थोड़ा पहले से ही एक महत्वपूर्ण कार्य चल रहा था बड़े कलावन्तों के गायन को स्वरलिपि में उतारने की कोशिश एवं प्रकाशन।
आ गया सिनेमा, टॉकी, साउन्ड-रेकॉर्डिंग। साथ ही साथ एक नई चुनौती आई गीतों की दुनिया में। ऐसा नहीं कि यह चुनौती थियेटर में नहीं थी। लेकिन सिनेमा ने इस चुनौती को अधिक गहराई दिया। यह चुनौती थी गीतकारों के लिये। एकतरफ सिनेमा के गीत मांगते थे acute incidentality या तात्क्षणिक घटना-निर्भरता। दूसरी ओर गीतकारों का कवि-हृदय उन्हे खींचता था शाश्वत मानवीय भावों की अभिव्यक्ति की ओर। इन दोनों के टकराव व सही मिश्रण से ही पैदा हुई नई चीज, सिनेमा के गीत एवं सिनेमा से अलग नये गीत (हिन्दी में सुगम संगीत एवं बंगला में आधुनिक गान)।
इनमें खास कर सिनेमा के गीत पूरी तरह से संगीत निर्देशक की अवधारणा पर निर्भर था। गायक एवं हर एक संगतकार/वादक को अपने निजस्व को अलग रखकर या संगीत निर्देशक के निर्देशानुसार काट छाँट कर सामने बोर्ड में लिखित स्वरलिपि या नोटेशन्स, समय के निर्धारित स्लॉट के अनुसार गाना/बजाना पड़ा (आज जैसे डिजिटल साउन्ड सिस्टेम्स की एडिटिंग भी सम्भव नहीं थी शुरू के दिनों में)।

7 बंगला में गीत लेखन की परम्परा एवं रवीन्द्रनाथ ठाकुर
यह निबन्ध संगीत के क्षेत्र में राष्ट्रवादी-तर्कवादी पुनराविष्कार एवं नवनिर्माण के काम को ऐतिहासिक-तार्किक पद्धति के अनुसार देखने की एक कोशिश है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर चर्चा किये बिना यह निबन्ध अधुरी रह जायेगी क्योंकि खुद एक महान गीतकार व संगीतकार होने के अलावे संगीत पर इतने अधिक आलोचनात्मक लेखन शायद ही किसी ने किया।
लेकिन रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर चर्चा से पहले बंगला भाषा/साहित्य की उस परम्परा पर थोड़ी बातें जरूरी है जो हिन्दी से अलग है।
हिन्दी के लोकप्रिय गीतों की दुनियाँ में फिल्मी गीतों का बड़ा महत्व है। शैलेन्द्र, साहिर एवं कई अन्य बड़े गीतकारों ने गीतों के शब्द में जो परिष्कार एवं सामाजिक चेतना के पुट लाये वह अद्भुत है (इसमें कोई शक नहीं कि वे हिन्दी/उर्दु के बड़े कवियों/शायरों की परम्परा में ही बने)। आज भी हिन्दी फिल्में मूलत: म्युजिकल्स हैं – गीत पहले रिलीज होती हैं फिल्मों का आकर्षण बढ़ाने के लिये और बाद में भी गीत ही याद दिलाती है फिल्म की (अब वो अच्छे या बुरे हों यह अलग विषय है)। गैर-फिल्मी, सुगम संगीत एवं आज के एलबम्स, बस नये गायकों के लिये फिल्म में ब्रेक मिलने या ब्रेक मिल चुके गायक के लिये बाजार में उपस्थिति बढ़ाने के रास्ते हैं सिर्फ।
जहाँ तक हिन्दी काव्य-जगत के नये गीतों का प्रश्न है वे बहुत कम सुरों में संयोजित किये गये या कवि के काव्य-पाठ के अलावे अलग से गाये गये। लोकप्रियता भी उनकी, काव्यप्रेमियों की दुनिया से बाहर नहीं बन पाई।
फिल्म से बाहर शायद सिर्फ गज़ल (एवं कुछ भजन और कव्वालियाँ) ही हैं, जो पूरी तरह शहरी एवं लघु शास्त्रीय गायन का हिस्सा बन कर अपने शब्दों एवं भावों की आधुनिकता पर टिका है।
जबकि दूसरी ओर, बंगला गीतों की दुनिया बिल्कुल अलग है। आज भी वहाँ व्यक्ति गीतकार-संगीतकार-गायकों/गायिकाओं के गान, आधुनिक गान, बैन्ड के गान और फिर वामपंथी आन्दोलनों में पैदा हुये संगीतकारों के जनगीत, नये गायक-रचनाकारों के ‘जीवनमुखी’ गान आदि की लोकप्रियता फिल्मी गीतों से टक्कर लेते हैं। बस श्वेत-श्याम फिल्मों के जमाने के कुछ अमर गीत, उत्तम-सौमित्र के फिल्मों के कुछ गीत एवं हाल के जमाने के कुछ फिल्मी गीत (जिनकी लोकप्रियता इसलिये भी बढ़ी क्योंकि तुरन्त हिन्दी फिल्मों में भी उन गीतों का हिन्दी व्हर्जन इस्तेमाल किया गया) आज भी लोग सुनते हैं।
पिछले डेढ़सौ बरस में बंगला गीतों की दुनिया में शब्द और सुर की प्रगति जो कुछ हुई वह प्रधानत: बड़े गीतकारों के सांगीतिक सृजन के माध्यम से ही हुई। हर के अपने नाम से वे गीत जाने जाते हैं – द्विजेन्द्रगीति, रवीन्द्रसंगीत, नज़रुलगीति, अतुलप्रसाद के गान, सजनीकान्त के गान आदि। शहरों और मुफस्सिलों में तो लोकगीति भी व्यक्ति-गायकों के नाम के साथ जुड़ कर लोकप्रिय हुये। गाँवों में स्वाभाविक तौर पर धार्मिक ग्रामीण गीतों की एक अलग परम्परा बनी रही (वे लोकगीति के ही हिस्सा थे) पर व्यक्ति-गीतकारों के गान वहाँ की संस्कृति को भी काफी प्रभावित किया।
बंगाल की इस विशिष्टता के बारे में रवीन्द्रनाथ ने कहा, “बंगाल में संगीत की नैसर्गिक विशेषता है गीत, अर्थात वाणी व सुर का अर्द्धनारीश्वर रूप। बंगाल में हिन्दुस्तानी संगीत को विशेष परिणति मिलते मिलते एक नये सृजन की शुरूआत हो चुकी है; यह सृजन प्राणमय है, गतिशील है, शौकिया ऐय्याश का नहीं है यह सृजन – कलाविधाता का है”…
अठारहवीं एवं पूरी उन्नीसवीं सदी में गीत रचते रहे हैं ख्यातिप्राप्त, स्वल्पख्यात, ख्याति से दूर कवि, गीतिकार, कवियाल, भक्त एवं सन्न्यासी। इसीलिये रवीन्द्रनाथ तक पहुँचने eक पहले ही बंगला गीतों की दुनिया में:-
 परम्परागत कीर्तन (व्यक्तिनाम से प्रचलित सहित), श्यामासंगीत (व्यक्तिनाम से ही मुख्यत:), कवियाल-गान (कवियाल के नाम के साथ), भजन, बांग्ला टप्पा के अलावे पूरी तरह सुर के ढाँचे में बैठाये गये रोमान्टिक गीत भी आ चुके थे एवं शास्त्रीय परम्परा से लिये गये सुरविहार के तरीके (हालाँकि कीर्तन के कई अलंकार खास तौर पर बंगाल का अपना है) के अलावे, एक तरफ लोकगीति-ग्राम्यगीति के धुन तो दूसरी तरफ विलायती धुनों का भी इस्तेमाल शुरू हो चुका था।

7 संगीत में तर्कवाद के सन्दर्भ में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की भूमिका
रवीन्द्रनाथ ठाकुर विष्णु नारायण भातखन्डे से उम्र में एक साल छोटे थे। कहाँ कोल्हापुर और कहाँ कलकत्ता। फिर भी जब विश्वभारती में संगीत विभाग खोलने का फैसला लिया जाने लगा तब रवीन्द्रनाथ ने पहले प्राचार्य के रूप भातखण्डे का नाम प्रस्तावित किया। हालाँकि भातखण्डे ने अपनी असमर्थता जताई। 
तर्कवाद, राष्ट्रवाद आदि शब्दों का इस्तेमाल न करते हुये भी इस दिशा में संगीत पर सबसे अधिक चिन्तन रवीन्द्रनाथ ही किया। गीत लेखन, सुर-योजना आदि का तो उनका एक अलग सृजन-संसार है ही। मिसाल के तौर पर 7 जनवरी 1935 को उन्होने धुर्जटी प्रसाद मुखोपाध्याय (एक अन्य महत्वपूर्ण संगीत-चिन्तक) को लिखा, “कई युगों में सृजित जो भारतवर्ष की संगीत का महादेश है, उसे अस्वीकार करने पर खड़ा कहाँ होउंगा? – मेरे शुरु के दिनों के रचित गीतों में हिन्दुस्तानी ध्रुव-पद्धति के रागरागिणियों के गवाह, पूरे विशुद्ध सबूतों के साथ आगामी सदी के पुरातात्विकों के जोरदार बहस-मुबाहिसे का इन्तजार कर रहे हैं। चाहने पर भी उस संगीत को मैं इन्कार नहीं कर सकता हूँ; उसी संगीत से मुझे प्रेरणा मिलती है यह बात जो नहीं जानते, वही नहीं जानते कि हिन्दुस्तानी संगीत क्या है। हिन्दुस्तानी संगीत को रीति के शिकंजों में बाँधकर जिन्होने अचल कर रखा है उन डिक्टेटरों को मैं नहीं मानता हूँ। जो कहते हैं कि भारतीय संगीत की जो विराट भूमिका है उसके बाद फिर नये नये युगों के नये नये सृजनों के आत्मभिव्यक्ति की कोई जगह नहीं – वहाँ सिर्फ हथकड़ी पहने हुये बन्दियों का बार बार गोल गोल घूमते रहने का गलियारा है जिसे लांघा नहीं जा सकता… ऐसे निन्दा-वचन के जयघोष जो स्पर्धा के साथ करते हैं उनका प्रतिवाद करने के लिये ही मेरे जैसे बागियों का जन्म हुआ है”         
यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के लिखे व धुन में बांधे गये गीत एक ही दिन में रवीन्द्रसंगीत नहीं बन गये। फिर भी कही गई क्योंकि कविगुरु ने खुद ही खुद के सामने जो चुनौती खड़ी की थी उसमें जीत मुश्किल थी। फिर भी जीत मिली क्योंकि वह रवीन्द्रनाथ थे। अन्य किसी ने भी उस चुनौती को उस तरह देखा नहीं।
बंगाल में संगीत काव्य का अनुचर नहीं सहचर था – भाव वाणी पर निर्भर था। पश्चिमी हिन्द में संगीत था स्वतंत्र, वाणी पर निर्भर नहीं, खुद ही खुद को अभिव्यक्त करने वाला। फिर भी एक क्षय की ओर जाते हुये समाज में दोनों की एकता बन गई थी उनके विपरीतों की अतिशयता में। बंगाल के संगीत में भाव की अतिशयता के कारण आँखों से आँसू रुकते नहीं थे। और पश्चिम के संगीत, या हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में भाव-शून्य गमक और अलंकारों की कलाबाजी में आँखों की कोई जरूरत ही नहीं पड़ती थी। यानि दोनों परिस्थिति में श्रोता दृष्टि-शून्य या अंधा होता था।
इसी जगह पर खड़े होकर, बचपन में शास्त्रीय संगीत के परिवेश में पाले गये, जवानी में आमजनता के संगीत समागमों के कुछ रूपों से आकर्षित एवं कुछ रूपों की विकृति से चिन्तित, जमीन्दारी के परिदर्शन के दौरान ग्राम्यसंगीत/बाउलसंगीत सुन विह्वल एवं सबसे महत्वपूर्ण बात कि संगीत को लेकर सोच की आधुनिक धारा के बारे में वाकिफ-ए-हाल रवीन्द्रनाथ ने अपने गीत-लेखन के सृजनसुख की समीक्षा की। समीक्षा के बाद कमसे कम दो नियम तो अपने उपर लागू कर डाला, यह स्पष्ट है। लागू करना सिर्फ अपने लिये ही संभव था लेकिन दिशानिर्देश सब के लिये दे गये।
पहला, सुरों की गैरजरूरी कलाबाज़ी, कन्ठस्वर की गैरजरूरी नक्काशी का इस्तेमाल नहीं किया जाय (गीत के धुनों के अलावे जहाँ शब्द-विहीन सिर्फ सुरों का ही विहार है वहाँ के लिये भी यह मार्गदर्शन रहा) और गीतों की प्रस्तुति यानि रूपायण, उच्चारण में (बेशक शब्दों में भी क्योंकि काव्यगुण का प्रश्न है) भावुकता को कठोरता के साथ परिहार किया जाय।
कवि ने अपने तरीके से कहा, “शतदल पर एक पंखुड़ी भी अतिरिक्त लगाना मंजूर नहीं। अपनी सम्पूर्णता में वह रुक पाया है इसीलिये वह असीम है।”
वस्तुत: संगीत से की गई यह पहली मांग भारतीय संगीत के लिये नई नहीं थी। हाँ, बहुत दिनों के बाद एवं लोकायत भाषा में कही गई थी। गायन या वादन के सभी क्षेत्र में, सभी अंश की प्रस्तुति (शब्दहीन अंश सहित) में भावचित्र के सांगीतिक रूप का विकास ही एकमात्र लक्ष्य हो, गायक या वादक का कलाकौशल सिर्फ उसी उद्देश्य को निवेदित हो, तार्किक यह सोच संगीत के पूरब और पश्चिम से निरपेक्ष तो है ही आधुनिक और पुरातन से भी निरपेक्ष है। यह सर्वकालीन एवं विश्वजनीन सत्य है। पूरी दुनिया सभी बड़े संगीतज्ञ, गायक, वादक या कम्पोजर जब सृजन के उन्माद में खो जाते हैं, मन के भावचित्र के अलावा कुछ भी उनके ध्यान में नहीं रहता है। भारतीय संगीत जगत के महान कलाकार इनसे अलग नहीं। कवि के समसामयिक दुनिया में भी कई ऐसे गुणी कलाकार थे। कुछ के नाम तो कवि खुद ही लेते हैं। पर वह सामाजिक क्षय की त्वरित हो रही गति को देख रहे थे। क्योंकि मनोरंजन की वाणिज्यिक दुनिया उस समय इस देश में शुरूआती दौर में थी। इस काल-व्याधि एवं कविगुरु की दुश्चिन्ताओं के महत्व पर फिर लौटूंगा अन्त में।
रवीन्द्रनाथ की दूसरी मांग थी असुन्दर एवं विद्रुप की संगीत का सृजन। उन्होने कहा, “संगीत का काम है मन को उस कल्पनालोक में उत्तीर्ण कर देना जहाँ रूप की पूर्णता है। वहाँ सृजन प्रकृति के सृजन की तरह होता है अर्थात रूप को कुरूप होने में संकोच नहीं होता है; क्योंकि उसमें भी सत्य की शक्ति है – जैसे रेगिस्तान का ऊँट, बारिश के पानी में मेंढक, जैसे रात के आसमान में चमगादड़, जैसे रामायण की मंथरा, महाभारत की शकुनी, शेक्सपीयर का यागो।”
अब इन चीजों के लिये फिल्मों के बैकग्राउन्ड स्कोर में कुछ विशेष वाद्यछन्द या तालवाद्य का इस्तेमाल, कुछ डरावने या रहस्यमय आविर्भाव के सुर के टुकड़े तो हमने डालना सीख लिया है, लेकिन शास्त्रीय संगीत में, भावचित्र के विस्तृत रूप में इन्हे स्थान देने का अर्थ होता है हार्मनि की अवधारणा, काउन्टरपॉयेंट्स की अवधारणा का भारतीय प्रयोग।
संगीत के क्षेत्र में रवीन्द्रसंगीत के अलावे भी कवि का एक सृजन-क्षेत्र था। उनके हर एक नाटक या नृत्यनाट्य के गीतों के धुनों के बाद नेपथ्य-संगीत के सृजन में उनकी अकेली कितनी भूमिका रहती थी यह तो अध्ययन का विषय है लेकिन पूरे ट्रैक के वारे में एक स्पष्ट दृष्टि तो रहती ही थी। फिल्मों की दुनिया के साथ भी उनके सम्बन्ध थे।
सबसे बड़ी बात थी कि प्राच्य एवं पाश्चात्य की संगीत की विशिष्टताओं के बारे में उनकी स्पष्ट राय के बावजूद वह समझ रहे थे कि युग के परिप्रेक्ष्य में एक नया, नाटकीय अभिघात को व्यक्त करने में सक्षम संगीत की जरूरत। विशाल रवीन्द्रसाहित्य में यह बात प्रत्यक्ष रूप से कहाँ व्यक्त है मैं नहीं जानता हूँ लेकिन कवि की द्वन्दात्मक विचारपद्धति इसे सम्भावित करती है। ‘संगीत की मुक्ति’ शीर्षक निबन्ध में कवि कहते हैं, “इस विश्वयात्रा की ताल में ताल मिलाकर न चलने पर हमारे संगीत का भी अब उद्धार नहीं है।… समय के साथ मेल नहीं रख पाने से बड़ी से बड़ी मजबूत चीजें भी टूट जाती है।… [शास्त्रीय संगीत की गिरती स्थिति बनाम लोकसंगीत के स्थायित्व पर कुछ चर्चा के बाद] लेकिन हमारे देश का वर्तमान जीवन सिर्फ ग्रामीण नहीं है। उसके उपर भी और एक, अधिक बड़ा लोक-स्तर जमा हो रहा है जिसके साथ विश्व-जगत का सम्पर्क बन चुका है। अब तक चली आ रही प्रथा के अनुसार खोलियों के अन्दर उस आधुनिक चित्त का अब गुजर नहीं होता है। नये नये अनुभवों के पथ पर वह चल रहा है। अभी हम दो युगों के संधिस्थल पर हैं। हमारे जीवन की गति जिस तरफ है, जीवन की नीति पूरी तरह उस तरफ की नहीं बनी है। दोनों में टक्कर चल रहा है। लेकिन जीत उसी की होगी जो सचल होगा।”
इसके बाद उस निबन्ध में नये किस्म के गीतों की चलन, मुहल्लों में हार्मोनियम बजाकर गाना सीखने की चलन, नई चलन वाले गीतों में विकृतियाँ कभी कभी असहनीय हो जाने के बावजूद प्राण की चंचलता की प्राथमिक अभिव्यक्ति के रूप में उन्हे स्वीकार कर लेने की बातें कही गई हैं। आगे कवि कहते हैं, “एक सवाल हमारे मन में अभी भी रह गया है, उसका जबाब देना पड़ेगा। योरोपीय संगीत में जो हार्मनी अर्थात स्वरसंगति है, हमारे संगीत में वह चलेगा या नहीं। पहले ही धक्के में लगता है – ‘नहीं, वह हमारे गीतों में नहीं चलेगा, वह योरोपीय है’। लेकिन हार्मनी का इस्तेमाल योरोपीय संगीत में होने के कारण अगर उसे सिर्फ योरोपीय मान लिया जाय तब तो यह भी कहना पड़ेगा कि शरीर-विज्ञान के अनुसार जो शल्यचिकित्सा योरोप में किया जाता है वह योरोपीय है, बंगालियों के शरीर पर वह किया जायगा तो गलती हो जायेगी। हार्मनी अगर किसी देश का कृत्रिम सृजन होता तब तो कोई बात ही नहीं होती। पर यह सत्य है, इस पर देशकाल की पाबन्दी नहीं है। इसके अभाव के कारण हमारे संगीत में जो असम्पूर्णता है उसे अगर अस्वीकार करें तो कन्ठस्वर की ताकत या दम्भ की ताकत ही अभिव्यक्त होगा।” फिर कवि किसी और को कहते हैं, “तुम जानते हो कि संगीत में मैं निर्मम तरीके से आधुनिक हूँ, अर्थात जात बचाकर या आचार मान कर नहीं चलता हूँ।”
लेकिन आखरी बात, वह तर्क मान कर चलते हैं। उनका पूरा सौन्दर्यशास्त्र ही, उनके अपने बनाये गये आत्मानुशासन की कसौटी पर, तर्क की कसौटी पर जाँचे जाने के लिये हमेशा तैयार रहता है।

अन्त में
योरोपीय दर्शन व संगीत में तर्कवाद बनाम सौन्दर्यशास्त्र एक महत्वपूर्ण विमर्श है। उस प्रसंग को मैं यहाँ छेड़ना नहीं चाह रहा हूँ। सिर्फ जिक्र कर रहा हूँ क्योंकि इस विमर्श या बहस के शुरू होने का शायद एक वैश्विक मुहूर्त है। समसामयिक समाजव्यवस्था व शासकीय संस्कृति का क्षय जब त्वरित होता है, तर्कहीनता व तर्कविरोध का बोलबाला बढ़ने लगता है। व्यवस्था अपने अस्तित्व की तर्कहीनता को जनमानस में तर्कसंगत दिखाने के लिये खड़ा करता है तर्कहीन सौन्दर्यशास्त्र एवं संस्कृति का प्रचारतंत्र (हमारे देश में आज मनोरंजन की दुनिया इसी प्रचारतंत्र के अधीन है)। तब जो संग्राम शुरू करते हैं इसके विरुद्ध, परिस्थिति का बदलाव चाहने वाले लोग, उसी संग्राम का एक पहलु है सौन्दर्यशास्त्र (यानि तर्कहीन सौन्दर्यशास्त्र) बनाम तर्कवाद का बहस। योरोप में इस बहस का समय था रेनेसाँ; भारत में रवीन्द्रनाथ के समय से अधिक सही कुछ कल्पना करना सम्भव नहीं है।
भारत में मनोरंजन की वाणिज्यिक दुनिया का जन्म रवीन्द्रनाथ के समय में हुआ था। आज वह एक सब कुछ लील जाने वाली मारक बीमारी है।
मुझे लगता है कि ‘सौन्दर्यशास्त्र बनाम तर्कवाद’ के बहस को हमें आज आगे बढ़ाने की जरूरत है।

────────────────────

1॰ भारतीय संगीत परम्परा कहने पर कर्णाटकी संगीत या दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत को भी शामिल करना चाहिये। वह नहीं कर रहा हूँ क्योंकि उत्तर भारतीय संगीत में आधुनिक सोच के आविर्भाव के बारे में जो भी दो-एक बातें कथा-कहानी के तौर पर जानता हूँ, दक्षिण भारतीय संगीत के बारे में वह नहीं जानता। ज्ञान की इस सीमा के बावजूद सामान्यत: संगीत शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ। वैसे विष्णु नारायण भातखण्डे (इस महान संगीतज्ञ व संगीत-विज्ञानी पर चर्चा आगे करूंगा) ने सन 1916 में ही बड़ौदा में भाषण देते हुये, दक्षिणी या कर्णाटकी संगीत को अपने शोध कार्य में शामिल नहीं करने के कारण के रूप में कहा था कि अपने संगीत की कला व विज्ञान के संरक्षण एवं शोध में, जनता के बीच पहुँच बनाने में दक्षिणी संगीत एवं संगीतज्ञ काफी आगे बढ़े हुये हैं। आज भी यह सच है। मेरे ही इस निबन्ध में यह स्पष्ट होगा क्योंकि कई आगे बढ़े हुये शोध-क्षेत्र की चर्चा करते हुये मुझे दक्षिणी लेखकों को ही उद्धृत करने पड़ेगा।  
2॰ भारत के प्रसंग मे मैं इन दो नजरिये की एकता पर जोर दे रहा हूँ; हालाँकि राष्ट्रवाद और तर्कवाद इन दो नजरिये की तीव्र आपसी बहस का अधिक महत्वपूर्ण स्थान है हमारे सांस्कृतिक इतिहास में।
3॰ यह प्राण शास्त्रीय संगीत का ही था जो उसे लोकसंगीत के सान्निध्य में लौट कर मिला था – सिर्फ कजरी, होरी या चैती नहीं बल्कि ठुमरी, दादरा और टप्पा या अन्य रूप भी। बंगाल का कीर्तन भी तो शास्त्रीय संगीत का ही लघु रूप है। इसीलिए इन सभी रूपों का विकास जनता के बीच ही हुआ था। बाईजी और नर्तकियाँ हों या अखाड़े के भक्त, आम जनजीवन का अविच्छिन्न अंग था उनका जीवन धारण।  


Courtesy: Pakhi magazine (Published in their March 2018 issue)

মেধাজগতের দুর্নীতি


ব্যাপারটা এভাবে শুরু করার চেষ্টা করি। ধরুন একটা সেতু – ঘটা করে উদ্বোধন হল, আর কয়েক বছরের মাথায় ভেঙে পড়ল। খবরের কাগজগুলোয় প্রচুর লেখালিখি হল যে নির্মাণকারী কম্পানি বা তার ঠিকেদারেরা সঠিক জিনিষ দেয়নি, অর্থাৎ কংক্রীটের মিশেলে খাদ ছিল, সঠিক গুণমানের ইস্পাত দেয়নি ভিতরে, মন্ত্রী ও আধিকারিকদের ঘুষ খাইয়েছে, এলাকার বড় দাদাদের তোলা জুগিয়েছে… বা তার থেকে আরেকটু এগিয়ে নির্মাণকৌশল বা সেতুটির ডিজাইন নিয়েও কিছু চর্চাটর্চা হল।
কিন্তু কোনো নদীর ওপর সেতু তৈরি করার আগে সেই নদীর দুই পাড়ের ও নদীতলের জমির ভূতাত্ত্বিক তথ্য এবং নদীতে বিভিন্ন মরশুমে জলপ্রবাহের পরিমাণ ও ধারার গতিবেগ সম্পর্কিত কিছু তথ্যের সংগ্রহ ও প্রয়োগভিত্তিক কিছু গবেষণা হওয়ার কথা থাকে, সেই সংগৃহীত তথ্যের ভিত্তিতে বিভিন্ন ডিজাইন ও নির্মাণকৌশল পর্যালোচিত হওয়ার কথা থাকে। এমনকি আবহাওয়া ও সেতুটির ওপর যানবাহনের সম্ভাবিত সর্বাধিক চাপটিও নির্ধারণ করার ব্যাপার থাকে।
সেগুলো যদি না হয়ে থাকে ঠিকমত? আর না হওয়ার কারণ যদি রাজনৈতিক চাপ বা অর্থকরী দুর্নীতি না হয়ে হয় আরো গভীর কোনো ক্ষয়? যদি তথ্য সংগ্রহের কোনো স্তরে বা সবকটি স্তরে এবং প্রয়োগভিত্তিক গবেষণার স্তরে কাজগুলো আংশিক হয়ে থাকে? তাৎক্ষণিক ও বাস্তবিক কাজের জায়গায় পুরোনো কিছু কাজের ওপর ভরসা করা হয়ে থাকে? সংগৃহীত তথ্যের ভিত্তিতে বিভিন্ন ডিজাইন ও নির্মাণকৌশল পর্যালোচিত হওয়ার জায়গায় সংশ্লিষ্ট কমিটির ইঞ্জিনিয়ারেরা যদি নামজাদা ও একাজে অভিজ্ঞ কিছু সংস্থার তরফ থেকে দেওয়া ‘ইনফর্মাল বা ফর্মাল ব্রীফিং’এর ওপর ভরসা করে থাকেন? এবং এসবকিছু কোনো রাজনৈতিক চাপে তাড়াহুড়োর কারণে নয় বরং একাজে জড়িত সরকারি ও বেসরকারি এক্সপার্টদের কাজের সাধারণ ধরণ হিসেবে হয়ে থাকে? তাহলে যে সামাজিক ক্ষয়টি চিহ্নিত হয় আমি তাকেই মেধাজগতের দুর্নীতি বলছি।
ইচ্ছে করে বলছি। জানি এক্ষেত্রে ‘ক্ষয়’ শব্দটিই সঠিক। তা সত্ত্বেও বলছি কেননা দুর্নীতি আজ একটা ইস্যু। অবশ্যই ইস্যু। হওয়াও উচিৎ, সবার জন্য। কিন্তু, ‘সুইস ব্যাঙ্কে রাখা টাকাগুলো দেশে ফিরে এলেই দেশটি সবার জন্য ধনধান্যে পরিপূর্ণ হয়ে উঠবে’ – এধরণের কথা একজন অর্থনীতিবিদ বললে কি বলব না, “মশাই, নিজের ভাষ্যে মেধার যে দুর্নীতি ঘটাচ্ছেন, তার সম্বন্ধেও সাধারণ মানুষকে একটু ওয়াকিবহাল করুন!”      
আর যদি দেশের সার্বিক লাভক্ষতির কথা ভাবি তাহলে, নিচের তলার ঘুষঘাসের কথা তো ছেড়েই দিই (টেবিলের দুপাশে একই জাতের কাক, কাক বলেই কাকের মাংস খাচ্ছে, যেমন যেমন কাক থাকবেনা, মাংসও খাবেনা), লক্ষ লক্ষ কোটি টাকার পলিটিকো-কর্পোরেট আর্থিক দুর্নীতি দেশের যা ক্ষতি করছে (ওই দুর্নীতিটি না হলে দেশের সাধারণ মানুষের জীবনে বিশেষ কিছু ‘অতিরিক্ত’ লাভ হত কিনা সেটাও বিচারসাপেক্ষ) তার থেকে অনেক গভীরে ক্ষতি করছে মেধাজগতের দুর্নীতি।
                 *                                    *                                   *                                     *
লেখাটা মনের তাগিদে একবার প্রায় শেষ অব্দি খসড়া করে নেওয়ার পর অভ্যাসবশতঃ নেট খুলে দেখলাম কী পাওয়া যায়। যদি ঠিক আমি যা বলতে চাইছি সে কথাগুলো কোনো লেখায় পেয়ে যেতাম, ঝঞ্ঝাট কমে যেত – অনুবাদ করে নিতাম। তবু যা পেলাম তা কম নয়। আসলে সাধারণ মানুষ ভাবনাচিন্তায় সবচেয়ে সুরক্ষিত বোধ করে তখনই যখন দেখে যে সে একা নয় অনেকেই এটা নিয়ে ভাবছে। আর ভাবনাচিন্তারও সবচেয়ে সুন্দর দিক বোধহয় এটাই যে কোনো ভাবনা পুরোপুরি একজনের ভাবনা কখনই নয়। ভাবনার রেণুগুলো উড়তে থাকে সারা পৃথিবীতে। কোনো একজন সে ভাবনাটাকে নির্দ্দিষ্ট পারিভাষিক বাঁধনে বাঁধতে সক্ষম হয়। আর তখন সেটা আর ভাবনা থাকেনা। নির্দিষ্ট পারিভাষিক বাঁধনে পৌঁছোনো তো আর ভাষার কারিগরি নয়! ফর্মুলেশন – আবিষ্কার! সেটা ব্যক্তিমনীষার কৃতিত্ব।…
‘ইন্টেলেকচুয়াল কোরাপ্‌শন’ শব্দটা নেটে সার্চ মারতেই উঠে এল ভারত থেকে পাকিস্তান, নেপাল, আয়ারল্যান্ড, ক্যানাডা অব্দি বহু কন্ঠস্বর। প্রত্যেকেই ইন্টেলেকচুয়াল কোরাপ্‌শন নিয়ে উদ্বিগ্ন, তাঁরা সবাই মনে করেন যে আর্থিক দুর্নীতি থেকে মেধাজগতের দুর্নীতির দুষ্প্রভাব সমাজে অনেক বেশি সুগভীরপ্রসারী। এবং যারা ওই বলয়ে দুর্নীতি করছে, তাদের ধরা অনেক বেশি কঠিন। তাদের চারদিকের সামাজিক সম্মানের দেয়াল দুর্ভেদ্য।
তবে একটা জিনিষ দেখলাম যে মেধাজগতের দুর্নীতি হিসেবে তাঁরা দেখছেন, প্রথমতঃ স্বজনপোষন, দ্বিতীয়তঃ গতানুগতিক শিক্ষাপ্রণালী, তৃতীয়তঃ মধ্যমেধা বা রাজনৈতিক দাসত্বের মানসিকতা ইত্যাদি ইত্যাদি। যেমন সোনু বলে একটি ছেলে ব্লগে সামাজিকভাবে শক্তিশালী লোকেদের নৈতিক দুর্নীতির কথা লিখেছে। তবে ধারণাগুলো ভাসাভাসা। আরেকটি লেখা কানাডার একটি দৈনিক পত্রিকায় প্রকাশিত। ইউথেনেসিয়া এবং সাহায্যকৃত আত্মহত্যার সপক্ষে কানাডার রয়াল সোসাইটির রায়ের বিরুদ্ধে লেখা।  করাচির একটি সংবাদপত্রে প্রকাশিত আলচনাচক্রের খবরে বক্তা ইন্টেলেকচুয়াল কোরাপ্‌শনকে “Sifarish, nepotism and misuse of power” বলে পরিভাষিত করছেন। নেপালের এক ভদ্রলোক নেপালের শিক্ষাব্যবস্থার বর্তমান অবস্থা নিয়ে প্রশ্ন তুলেছেন “how lecturers are appointed and promoted, their methods of teaching, and the way they carry out their other duties এবং সেখানে ইন্টেলেকচুয়াল কোরাপ্‌শনের উপস্থিতি দেখিয়েছেন।
তার মানে আমারও কিছু বলার থেকে যায়। তাই লেখাটার প্রতি আবার থেকে মন দিলাম।
                 *                                    *                                   *                                      *
মেধাজগতের হাল্কামাপের ক্ষয় বা দুর্নীতিগুলো এখন প্রাতিষ্ঠানিক রূপ পেয়ে গেছে। দুর্নীতিগ্রস্ত (অর্থাৎ, সাধারণ বাংলায় ‘ক্ষয়গ্রস্ত’) মেধাই এখন তৈরি করছে মধ্যমেধার শিক্ষাপ্রণালীর বিভিন্ন স্তরের পাঠ্যক্রম।…পনের বছর আগে, ক্লাসঘরে কম্পিউটারে শিক্ষা পাওয়া প্রথম প্রজন্মের কিছু শিক্ষক/শিক্ষিকা মেয়েদের একটি প্রতিষ্ঠিত উচ্চবিদ্যালয়ে যোগদান করেন। প্রাণীবিজ্ঞানের ক্লাসে যখন ব্যাং বা আরশোলা কেটে বোঝাবার পিরিয়ডটি আসে, নতুন শিক্ষক পুরোনোকে বলেন, “ওই ক্লাসটা আপনিই নিন না! আমরা তো বাস্তবে করিনি, কম্পিউটারে ডাইসেক্ট করেছি!” পাশে বসা তাঁরই মত নতুন আরেক শিক্ষক বলেন, “এসব কী এখনও বাঁচিয়ে রেখেছেন আপনারা, পুরোনো পাশবিক পদ্ধতি? জানেন না, পশুকীটপতঙ্গহত্যা নিষিদ্ধ?”
সে যা হোক। আপাততঃ ওইদিকে যেতে চাই না। আমি শুধু সাদা চোখে মেধাজগতে দুর্নীতির বা ‘ক্ষয়ের’ যে কটি রূপ দেখতে পাই সংক্ষেপে শেয়ার করতে চাই। আপনাদেরও যদি মনে হয় যে হ্যাঁ, এগুলো সত্যিই দুর্নীতি (অর্থাৎ নীতিবিগর্হিত) বা হিন্দিতে যাকে বলে ভ্রষ্টাচার (আচার-ভ্রষ্ট কাজ) অথবা কোরাপশন (যা কোরাপ্ট করে, ক্ষয় ধরায়) এবং অনেক বেশি ক্ষতি করছে দেশের, তাহলেই যথেষ্ট।
তবে আসল দুর্নীতির জায়গাটায় পৌঁছোবার আগে দুটো পরিচিত জায়গায় একটু হাঁটাচলা করে নিই।

১- থিয়োরী ও প্র্যাক্টিস
মেধাজগতের বা মেধাগত বা বৌদ্ধিক/বুদ্ধিজীবীতার দুর্নীতির প্রথম রূপটিতে কিন্তু আমরা সবাই ধরা পড়ব। মিটিংএর পর চা-পানে এক স্বনামধন্য, ও আমাদের প্রিয়, নেতা টেবিল চাপড়ে বলে উঠলেন, “ওসব তাত্ত্বিক মার্ক্সবাদের কচকচি ছাড়ুন, প্র্যাক্টিসে আসুন, প্র্যাক্টিসে! বুঝলেন শিবনাথবাবু, গরীব বস্তিতে গিয়ে হাতজোড় করে ভোট চেয়ে কিস্যু পাবেন না। সবচে’ আগে আপনার নিজের জাতের ভালো ভালো লোকগুলোকে, ডাক্তার, প্রফেসর এদেরকে নিজের দলে টানুন! লালঝান্ডার কাছে আনুন।…কী পালবাবু, মার্ক্সবাবা বেঁচে থাকলে কী বলতেন, এ বিষয়ে?… আরে থিয়োরী দিয়ে সব জায়গায় কাজ হয় না!” শিবনাথবাবু সহজ কথাটা সহজ ভাবে বুঝতে চেষ্টা করছিলেন। তাই আমি এর মধ্যে লেনিনকে টেনে বোঝাবার চেষ্টা করলাম না যে স্থিতি নয় গতি (তাও দিকচিহ্নিত গতি, ভেক্টরে) তে পদার্থকে দেখা মার্ক্সবাদেরই থিয়োরী। এটাও বলার চেষ্টা করলাম না যে থিওরী ও প্র্যাক্টিসের পূর্ণ একতার কারণেই মার্ক্সবাদ অন্য সব দর্শন থেকে এগিয়ে ও সমাজবদলের দর্শন হতে সক্ষম। বরং ভাবতে বসলাম যে নেতার কথাটা আজ এই দেশে বুদ্ধিজীবিতার জগতে প্রায় সুবিখ্যাত ‘কমনসেন্স’, সাধারণবোধের পর্যায়! অথচ এটাই আবার মেধাগত দুর্নীতির প্রথম রূপ! তত্ত্বে আর অনুশীলনে তুমি দ্বিচারিতা আনছ নিজের ব্যক্তিগত স্বার্থসিদ্ধিতে, আনো, কিছু বলার নেই। দ্বিচারিতাটাকে সত্য মেনেই তুমি নিজের অভিষ্টের দিকে এগোতে চাইছ, তাতেও কিছু বলার নেই। কিন্তু তাহলে তুমি যে তত্ত্বটিকে ধরে আছ সেটি দুর্নীত! আর সেটি যদি তুমি অন্যকে বোঝাতে যাও, যে এটিই তত্ত্ব, তাহলে তুমি মেধাগত দুর্নীতিতে অংশীদার!
আমাদের অংশীদারীর ব্যাপারটা শুধু প্রথম রূপটির ব্যাপকতা বোঝাতে বললাম। শাসকশ্রেণী সৃষ্ট সাংস্কৃতিক পরিমন্ডলেই আমরা বড় হয়েছি, তত্ত্ব ও অনুশীলনের সম্পূর্ণ একতায় পৌঁছোনো কঠিন তো হবেই। আর এটাও ঠিক যে পৌঁছোলে নেতাজীই আগে পৌঁছোতে পারবেন, কেন না তিনি অনুশীলনে আছেন। আমার মত তাত্ত্বিকেরা, যদি অনুশীলনে না নামি, সারা জীবনেও পৌঁছোতে পারব না। শুধু ওই, মাঝে মধ্যে খুঁত ধরব বসে বসে।
আমাদের ক্ষেত্রে মেধাগত দুর্নীতির এই প্রথম রূপটির আওতায় থাকা বস্তুতঃ আমাদের এগিয়ে চলার পথে অন্তরায়, অতিক্রম করতে হয়, যত সত্বর সম্ভব। শাসকশ্রেণীর ক্ষেত্রে কিন্তু এটি তাদের আবশ্যকতা অস্ত্র শাসন বজায় রাখার। তাদের মধ্যে বিরাজমান বিভিন্ন, বিচিত্র শ্রেণীগত দর্শন ও দার্শনিক তত্ত্বের মধ্যেকার একতার অক্ষ। ওই শ্রেণীর স্বার্থের শরিক থেকেও যে যত বেশি নিজের তত্ত্বটিকে ধরে রাখতে চাইবে, তাকে তত বেশি, হয় নিজের তত্ত্বটিকে মেধাগত দুর্নীতির দ্বিতীয় নয় তো তৃতীয় রূপের আওতায় নিয়ে যেতে হবে।   

২- মিডিওক্রিটি/মধ্যমেধা
আদৌ এটিকে দুর্নীতির দ্বিতীয় রূপ বলা যায় কিনা সন্দেহ আছে। তবু বলছি। মেধাগত দুর্নীতির উচ্চস্তরে আসীন ব্যক্তিগণ নিজেরা এটি তুলনামূলক ভাবে হয়ত কম এই দুর্নীতিটি করেছেন নিজের জীবনে, কিন্তু করান। তাঁরা করান বলে এটাকে দুর্নীতির পর্যায়ে ফেলছি। যে বেচারারা করে, তারা তো এটাই জানে যে এভাবেই করতে হয়। বেশ কয়েক বছর আগে সংবাদপত্রে একটি লেখায় একটি তথ্য দেখেছিলাম যে নব্য-উদার অর্থনীতির সূচনার পরবর্তী বছরগুলোতে, যে বছরগুলি আবার ভারতের ক্ষেত্রে তথ্যপ্রযুক্তি-বিপ্লবের স্বর্ণশস্য ফলানোর বছর - সারা ভারতের নতুন প্রজন্ম দৌড়োচ্ছে প্রযুক্তিশিক্ষার আধুনিক পীঠস্থানগুলিতে – বিশ্বের বিজ্ঞানজগতে ভারত থেকে পৌঁছোনো গবেষণাপত্রগুলোতে চর্বিতচর্বন, নকল, টুকলি, মধ্যমেধার সংখ্যা সর্বাধিক এবং উল্লেখজনক ভাবে বৃদ্ধি পেয়েছে। আর সেদিন তো দেশের রাষ্ট্রপতিই শুনলাম আক্ষেপ করে বলছেন যে আমাদের ছাত্রদের মধ্যে স্বাধীন গবেষণার প্রবৃত্তি উৎসাহিত করা উচিৎ। আমি যতদূর জানি কোনো গবেষণাপত্র এমনি এমনি বিশ্বের দরবারে পৌঁছে যায় না, গবেষক ছাত্রটির মাস্টারমশাইকে সেটি দেখতে হয়। এমনকি ইউজিসি বা অন্য কোনো ডোনর সংস্থার রিসার্চ-গ্রান্ট পাওয়ার জন্য যে প্রজেক্ট জমা দিতে হয় সেটিও খতিয়ে দেখে কোনো না কোনো বিশেষজ্ঞ কমিটি।
আর এই ব্যাপারটা শুধু তাত্ত্বিক প্রকৃতি-বিজ্ঞানের ক্ষেত্রে সীমিত নেই। ফলিতবিজ্ঞান বা প্রযুক্তির ক্ষেত্রে এর ব্যাপকতা তো আমরা সাধারণ জীবনে হাড়ে হাড়ে টের পাই। প্রায় আপ্তবাক্যে দাঁড়িয়ে গেছে যে গ্রামে প্রাইমারী হেলথ সেন্টারের এমবিবিএস ডাক্তার থেকে ‘কোয়াকেরা’ বেশি ভালো রোগনির্ণয় করে। আর ইঞ্জিনিয়ার থেকে অনেক বেশি ডিজাইন আর মশলা বোঝে ওস্তাদ মিস্ত্রি। বাংলার ম্যাঞ্চেস্টার হাওড়ার মিস্ত্রির কথা তো পুরোনো কিম্বদন্তী। এমনকি আজকের প্রযুক্তির ক্ষেত্রেও কথাটি সত্য। বড় কম্পানিতে কার্যরত হার্ডওয়্যার আর সফটওয়্যার ইঞ্জিনিয়ারদের কথা জানি না। আমার এই ল্যাপটপ, যাতে আমি লিখছি, বা আমার সেল, যাতে আমি কথা বলছি, খারাপ হলে সার্ভিস সেন্টারে যাই না। গেলে শুনি একটাই কথা, ওয়ারেন্টি পিরিয়ডে বিনেপয়সায় রিপ্লেসমেন্ট, ওয়ারেন্টি পিরিয়ড পেরিয়ে গেলে পয়সা দিয়ে রিপ্লেসমেন্ট। অথচ পাড়ার যে ছেলেটি রিপ্লেসমেন্ট না করেই ঠিক করে দেয় বার বার, সে ম্যাট্রিক পাস করে দোকানে কাজ করতে করতে শিখেছে। সরকারি আইটিআইতে জায়গা পায়নি ঘুষ দিতে পারেনি বলে। অনেক বেসরকারি আইটিআই খুলেছে আজকাল, তারা পয়সা নিয়ে সোজাসুজি সার্টিফিকেট দেয়, তাদের দেওয়ার জন্য পয়সা জমাচ্ছে ছেলেটি।
সমাজবিজ্ঞানের ক্ষেত্রে এই মধ্যমেধার আরও বেশি ব্যাপকতা। কেন না, এখানে গবেষণার জায়গাটা অনেক বেশি গোলমেলে। তাত্ত্বিক প্রকৃতি-বিজ্ঞানের ক্ষেত্রে তো অনেক বাধা পেরিয়ে তবে বিশ্বমানের জার্নাল অব্দি পৌঁছোনো যায়। আর না পৌঁছোতে পারলে ভালো চাকরি হয়ত জুটিয়ে নেওয়া যায় কিন্তু বৈজ্ঞানিক হিসেবে স্বীকৃতি পাওয়া যায় না। আর বিজ্ঞানসাধনার পরিস্থিতিটাই বা কী? আমি একজন অতিউচ্চপদস্থ সরকারি আধিকারিককে ব্যক্তিগতভাবে জানি, যিনি বিজ্ঞানের কৃতি ছাত্র হয়েও একটি বিজ্ঞান সংস্থায় বৈজ্ঞানিকের পদ ছেড়ে এদিকে এসেছিলেন শুধুমাত্র উপরি আয়টার দিকে তাকিয়ে। আবার ওই একই সংস্থার এমন তরুণ বৈজ্ঞানিকের কথা আপনারাও জানেন যিনি আত্মহত্যা করেছেন কেননা সংস্থার হালচাল দেখে তাঁর বিজ্ঞানসাধনার স্বপ্ন চুরমার হয়ে গিয়েছিল।
সে যা হোক, সমাজবিজ্ঞানের ক্ষেত্রে তো স্বীকৃত বিশ্বমানটানের কোনো ব্যাপারই নেই। অমর্ত্য সেন আছেন তো আছেন! প্রভাত পট্টনায়েক আছেন তো আছেন! কোশাম্বি, ইরফান হাবিব আছেন তো আছেন। আম্মো আছি! খুব দরকার হলে নিজের দলকে বলে একটা পুরস্কারের ব্যবস্থা করেই নেব। নামের পরে এমএ, পিএচডি (গোল্ড মেডালিস্ট), সাড়ে বত্রিশটা রিসার্চপেপার বিভিন্ন জার্নালে প্রকাশিত, পাঁচটি গ্রন্থ প্রকাশিত, উচ্চপ্রশংসিত… এসব লেখা আটকাচ্ছে কে?  
একটা হয় উচ্চমানের কিন্তু সুপরিকল্পিত, অভিসন্ধিপূর্ণ গবেষণা। দুর্নীতি আছে কিন্তু পরবর্তী, উচ্চতর স্তরের। আবার, এমনও হয়, সত্যিই উচ্চমানের গবেষণাধর্মী, প্রাইমারি রিসোর্সের ওপর কাজ, যথাযথ ফীল্ড সার্ভে কিন্তু বিশ্লেষণে কিম্বা সিদ্ধান্তনিরূপণে ভুল। এসমস্ত কাজের প্রয়োজনীয়তা আছে। কিছু না কিছু দিচ্ছে সমাজকে। নাহয় চ্যালেঞ্জ হিসেবেই দিচ্ছে, “খারিজ কর আমায়! দেখি কত বিদ্যে আছে পেটে!” এর পরবর্তী কাজটা এর থেকে বেশি ভালো হলে তবেই টিঁকবে। কিন্তু মধ্যমেধার কাজগুলো? পাঠ্যের মাধ্যমে অথবা বাইরে, প্রজন্মের পর প্রজন্মের মেধাশক্তিকে কুন্ঠিত করে রাখছে। দুর্নীতি হিসেবে দ্বিতীয় স্তরের হলেও এর সামাজিক ধ্বংসক্ষমতা অপরিসীম।
  
দুর্নীতির ঘাঁটি
বিদ্বানেরা বলেন যে গবেষণাকর্মকে সাধারণভাবে তিন পর্বে ভাগ করা যায়। প্রথম পর্ব, তথ্যসংগ্রহ। দ্বিতীয় পর্ব, তথ্যের বিশ্লেষণ। তৃতীয় পর্ব, তত্ত্বনিরূপণ।
তথ্যসংগ্রহঃ
তথ্যসংগ্রহের জায়গাটাই হল দুর্নীতির বেস ক্যাম্প। সমাজবিজ্ঞান বা মানববিজ্ঞানের যে কটা ডিসিপ্লিনে কাজ চলছে, প্রত্যেকটি ডিসিপ্লিনে তথ্যসংগ্রহের ক্ষেত্রে দুর্নীতির প্রমাণ আমরা পেয়েছি। প্রথমতঃ, রাজনৈতিক স্বার্থে। দ্বিতীয়তঃ, পূর্বনিরূপিত সিদ্ধান্তের প্রয়োজনে। তৃতীয়তঃ, মধ্যমেধাপ্রসূত।  
পুরাতাত্ত্বিক গবেষণা। অযোধ্যায় রামমন্দিরের অস্তিত্ত্ব প্রসঙ্গে সম্পর্কিত সার্ভের ভূমিকা সর্বজনবিদিত। “While the ASI videographed and photographed the graves on April 22, it has avoided further analysis of the important evidence. The skeletons found at the site have not been sent for carbon-dating, neither have the graves been measured.” [আউটলুক, ৩০শে এপ্রিল, ২০০৩]। কঙ্কালের কার্বনডেটিং তো ‘ইসলামী ভাবাবেগ’এর জন্য করা যায় নি। আবার আর্কিওলজিক্যাল সার্ভের নিজের রিপোর্ট বলছে “The centre of the central chamber of the disputed structure falls just over the central point of the length of the massive wall of the preceding period which could not be excavated due to presence of Ram Lala at the spot in the make-shift structure.” অর্থাৎ হিন্দু ভাবাবেগ আগেই জায়গাদখল করে নিয়েছে। পুরো খননকার্যটি সম্পর্কে এলাহাবাদ হাইকোর্ট নিযুক্ত পর্যবেক্ষক কলকাতা বিশ্ববিদ্যালয়ের ড০ অমল রায় বলেছিলেন, “It's a very superficial investigation. They have trenches all around the temple and in none of the trenches have they hit virgin soil. It looks like a very haphazard sort of investigation.” আর সবচেয়ে মজার কথা, সেসময় থেকেই রাতারাতি প্রায় সমস্ত ইংরেজি মিডিয়া, হিন্দি মিডিয়া এবং পুরাতাত্ত্বিক সার্ভের ততকালীন ডিরেক্টরের কলমে, ‘বাবরি মসজিদ’ এর বদলে লেখা হতে শুরু করল ‘ডিস্প্যুটেড স্ট্রাকচার’!
ঐতিহাসিক গবেষণা। এদেশে মুসলমান শাসনের সময়টিকে বিধৃত করার প্রচেষ্টায় প্রথমদিকে একটা প্রবৃত্তি ছিল। মুসলমান শাসনের পুরো সময়টাকে ইওরোপীয় ইতিহাসের নবজাগরণ-পূর্ববর্ত্তী ‘অন্ধকার যুগ’এর সমপ্রকার হিসেবে দেখবার। সেটাকে দোষ দেওয়া যায়না। কিন্তু পরের দিকেও প্রবৃত্তিটা রয়ে গেল। শুধু সাম্প্রদায়িক ইতিহাস-রচনার সুপরিকল্পিত ছক হিসেবেই নয়, জনপ্রিয় স্কুলপাঠ্য ইতিহাস-রচনার ক্ষেত্রেও। সাধারণ মানুষের মনে বিতর্কটাকে এখনো দাঁড়িয়ে থাকে তিনটে বিষয়ের ওপর। (১) ধর্মান্তকরণে জবরদস্তি কতটা হয়েছিল; (২) কতলক্ষ হিন্দু মরেছিল; (৩) আকবর কতটা ধর্মনিরপেক্ষ ছিল আর আওরঙ্গজেব কতটা হিন্দুবিদ্বেষী ছিল। এসবকিছুর বিচারের পর আমরা কিছুটা জানতে পারতাম ইসলামের সাংস্কৃতিক প্রভাবে সূফী পরম্পরার প্রভাবের কথা, ভক্তি আন্দোলন ইত্যাদি ইত্যাদি। মুসলমান শাসনের কালখন্ডে দ্রুত নগরীকরণ, কারখানা তৈরি ইত্যাদি কয়েকটি গুরুত্বপূর্ণ প্রভাবের কথা থাকলেও আসল কথাটা নেই যে যেটাকে, এমনকি ইওরোপের প্রসঙ্গেও মধ্যযুগ বলা হচ্ছে, সেই সময়টাতে জ্ঞানবিজ্ঞানের যে আলোকবর্তিকা আরবদুনিয়ায় জ্বলে উঠেছিল, সেই আলোকবর্তিকার আলোয় যেমন ভারত আলোকিত হয়েছে, ইয়োরোপও আলোকিত হয়েছে। (এমনকি চীন ইত্যাদি দেশের নানান নতুন জিনিষও আরবেরই মাধ্যমে এদেশে এসেছিল। জ্ঞানের সেই আলো, বিজ্ঞান, কারিগরীর কিছু নতুন বিদ্যা, জিনিষ আর মুসলমান ও পরবর্তী মোগল শাসনে করা বেশ কিছু কৃষি সংস্কারাদি বিপূল ভাবে বাড়িয়ে দিয়েছিল বাণিজ্য। আবার সেই বাণিজ্যের ফলশ্রুতি শ্রমজীবী জাতগুলোর বড় সংখ্যায় নগরে আগমন। তাদেরই মধ্যে শুরু হয়েছিল প্রতিষ্ঠিত ধর্মমতের বিরুদ্ধে ভক্তি-সূফি আন্দোলন। ভারতের আধুনিক ভাষাগুলোও সেই সময় গড়ে উঠল। আকবরের সময় ভাষাভিত্তিক রাজ্য ‘সুবা’ গঠনেরও একটা প্রয়াস হয়েছিল।)
এসব সম্পর্কিত সমস্ত তথ্য ও সামগ্রী আজ হাতের কাছে থাকা সত্ত্বেও যেমন ইরফান হাবিব বলেন, “That different views on medieval India should be influenced by the individual historian's subjective views of the contemporary world is only to be expected; these must, however, first meet the criterion of support from historical evidence. … historical evidence must always remain the touchstone.” ইতিহাস রচনায় ঐতিহাসিক প্রমাণ আজও টাচস্টোন নয়। এটাকে মেধাগত দুর্নীতি বলব না?
ঠিক তেমনই এক দুরভিসন্ধিমূলক ভূল তথ্যপ্রচার অভিযান শুরু হয়েছে ১৯৯১এর পর। স্বাধীনতাপরবর্তী চল্লিশ বছরের আর্থিক ইতিহাসের পুনর্লিখনে। করছে কারা? একচেটিয়া শিল্পঘরানা আর সাম্রাজ্যবাদের তাঁবেদার বুদ্ধিজীবী সম্প্রদায়!
অর্থনৈতিক গবেষণা। পুরোপুরি তাত্ত্বিক গবেষণায় কোথায় কী গোলমাল চলছে সে বিষয়ে অর্থনীতির বিশেষজ্ঞরাই ভালো বলতে পারবেন। তবে এটাও ঠিক যে তুলনামূলকভাবে অর্থনীতির বিদ্বানেরা বিভিন্ন সরকারি/বেসরকারি চিন্তন-সংস্থা বা ইংরেজিতে যাকে বলে ‘থিংক-ট্যাঙ্ক’এর শীর্ষপদে থাকেন। ‘১৯২৯’ নামে জে কে গ্যালব্রেথএর একটা বই একবার পড়েছিলাম। গ্যালব্রেথসাহেবকে কোনো ভাবেই কম্যুনিস্ট অপবাদ দেওয়া যায় না। ওই বইতে উনি দেখিয়েছিলেন কিভাবে এমেরিকান এবং সাধারণভাবে সমস্ত পূঁজিবাদী অর্থব্যবস্থায়, বিশেষকরে শেয়ার ও বিনিয়োগ বাজারে ‘উন্নয়নের বেলুন’ ফোলাবার সময় সমস্ত শীর্ষস্থানীয় অর্থনীতিবিদেরা খুবই সাধারণ ও প্রচলিত সাবধানবাণীগুলো মনে করাতে (উদ্দেশ্যমূলকভাবে) ভুলে যান। বেলুন ফোলে। একটা বিপূল পরিমাণ ধন সাধারণ মানুষের পকেট থেকে বিত্তশালী প্রভুদের পকেটে পৌঁছে যায়। তারপর যখন বেলুনটি ফাটে, সবাই জনদরদী সেজে সেই সব ভুলে যাওয়া আপ্তবাক্যগুলো আওড়াতে থাকেন, নানা রকম নিয়ন্ত্রক-সংস্থা ও উপকরণ তৈরি করার উপদেশ দিতে রত হয়ে পড়েন।
ভারতেও ঠিক তাই আমরা দেখেছি। বেলুন ফাটার পর যে উপদেশগুলো বর্ষণ করা হয় তার প্রতিটিই কি আগে থেকেই জানা থাকে না? শুভবোধসম্পন্ন মানুষেরা মনে করাতে থাকে না যে এক্ষুণি সাবধান হওয়া জরুরি?
আসুন, একটি পরিচিত তথ্যের গল্পে। কন্সিউমার প্রাইস ইন্ডেক্স। প্রাইস-কালেক্টরের ওপরে যে সুপারভাইজারেরা থাকে তারা সবাই অর্থনীতি/পরিসংখ্যান/গণিতের স্নাতক। স্বাভাবিক ভাবেই তাদের ওপর তলার লোকেরা, রিজিওনাল ডায়রেক্টর, ডায়রেক্টর জেনেরাল ইত্যাদি যথেষ্ট বিদ্বান ও অভিজ্ঞ মানুষ! তার ওপর আছেন মন্ত্রী, তাঁর বিভিন্ন যন্ত্রী এবং পুরো ব্যাপারটার মেকানিজম তৈরি করে সুপারিশ করার লোকজন। অথচ ১৯৩০ থেকে শুরু করে স্বাধীনতা-পরবর্তী সময়ে ১৯৬০, ১৯৭১, ১৯৮২…হয়ে আজ অব্দি প্রতিবার প্রাইস ইন্ডেক্সে কারচুপি এবং কারচুপিটা সবসময় ইন্ডেক্স কমানোর জন্য! আর প্রতিবার শ্রমিকশ্রেণী হড়তাল করেই তার কিছুটা শোধরাতে পেরেছে। লেখালিখি, মন্ত্রীর সাথে দেখা ইত্যাদিতে কোনো কাজ হয়নি। বুদ্ধিজীবী সম্প্রদায় বুদ্ধির কথা বোঝে না! ১৯৮৭তে সিটুর তৎকালীন সাধারণ সম্পাদক এম কে পান্ধে লেখেন, “Surprisingly all the methods were statistically considered as justified and whenever workers and trade unions expressed doubts they were given a curt reply that these were all technical matters to be dealt with by the technical experts.” অথচ হড়তালের চাপে পড়লেই সব টেকনিক্যালিটি বেরিয়ে পড়ে! এটা কী? বিচ্যুতি? সরকারি ষড়যন্ত্র, অবশ্যই। কিন্তু বুদ্ধিজীবীতার? দুর্নীতি ছাড়া আর কিছু বলা যায়? 
দারিদ্র দূরীকরণ। যদিও ব্যাপারটা সর্বজনবিদিত তবু ২০০৮ সালের ২রা সেপ্টেম্বর দৈনিক ‘হিন্দু’ সংবাদপত্রের সম্পাদকীয় ‘দারিদ্রের ধারণার পুনর্নির্মাণ’ প্রসঙ্গে উৎসা পটনায়েকের যে চিঠিটি ৩রা সেপ্টেম্বর প্রকাশিত হয়েছিল তার একটি অংশ আমি, ‘উৎসার বক্তব্য বেদবাক্য’ হিসেবে নয়, ভিতরের ব্যাপারটার দিকে অঙ্গুলিনির্দেশ করতে উদ্ধৃত করছি, যে “though the robust nutrition norm method was given up in practice long ago by the Planning Commission, the real reason it is being criticized anew on incorrect grounds is because independent scholars applying it find a substantial rise in under-nutrition and hence in true poverty in countries undergoing economic reforms. This is not palatable outcome to admit for authorities anywhere including in the U.N. system who would like to maintain the fiction that poverty percentages are declining.” এ কি শুধু দুটো ধারণার লড়াই? পুষ্টির ভিত্তিতে দারিদ্র নির্দ্ধারণ বনাম ১৯৭৩-৭৪এর দৈনিক খরচটাকে দ্রব্যমূল্যসূচকের ভিত্তিতে আজকের মত করে দারিদ্র নির্দ্ধারণ? না কি মেধাজগতে সুনীতি বনাম দুর্নীতির লড়াই? এমনকি প্ল্যানিং কমিশনের ডেপুটি চেয়ারম্যান সাহেবও মিষ্টি হেসে পক্ষ নিয়ে দাঁড়িয়ে যান! বেহায়াপনার একশেষ!
সমাজতাত্ত্বিক বা নৃতাত্ত্বিক গবেষণা। আমি জানি আমি বাংলার বাইরে বসে বাংলাভাষায় লিখছি। সেই বাংলাভাষা যা গড়ে তুলেছে জনতার নিরবচ্ছিন্ন গণতান্ত্রিক সংগ্রাম। সেই ভাষায় সমাজতাত্ত্বিক বা নৃতাত্ত্বিক গবেষণায় দুর্নীতির বিষয়টিকে আর উদাহরণ দিয়ে বোঝাতে হবে না। দুর্নীতি বলতে আমি কী বোঝাতে চাইছি, তা এতক্ষণে নিশ্চয়ই পাঠকের চোখে স্পষ্ট। আর পাঠক জানেন যে ফ্যাসিবাদের পুরো প্রজেক্টটার ভিত্তিতে রয়েছে সমাজতাত্ত্বিক বা নৃতাত্ত্বিক গবেষণায় দুর্নীতি। সে শুধু হিটলারের সময়কার নয়, আজকের ফ্যাসিবাদী প্রবৃত্তিগুলো, তাদের কুখ্যাত সোশ্যাল ইঞ্জিনিয়ারিং সহিত, এই দুর্নীতির ভিত্তিতে ক্রিয়াশীল।
তথ্যের বিশ্লেষণ ও তত্ত্বনিরূপণঃ
তথ্যসংগ্রহ পর্ব সাঙ্গ হলে শুরু হয় দ্বিতীয় পর্বে বিশ্লেষণ। বিশ্লেষণ সর্বদাই কিছু উপকরণের সাহায্য নেয়। প্রথম, অর্থাৎ তথ্যসংগ্রহের পর্বের উদ্দেশ্যমূলক ত্রুটিবিচ্যুতিকে যদিও বা দুর্নীতি হিসেবে চিহ্নিত করা যায়, এই পর্বে তা করা বেশ কঠিন। পুর্ববর্তী বিশ্লেষণের পদ্ধতি, তথ্যের বর্গীকরণ, তর্কশাস্ত্রের বিভিন্ন নিয়ম, মডেল সবই কাজে লাগে বিশ্লেষণে এবং প্রতিটি উপকরণ কাজে লাগানোর পিছনে যুক্তি খাড়া করা যায়। তবু কিছু কিছু ব্যাপার যখন চোখে বেশ খটকায় তখন সন্দেহ হয় যে একটা দুরভিসন্ধি কাজ করছে। তবু এই বিশ্লেষণকে তত্ত্বনিরূপণের সাথে একযোগে দেখলে কিছু ব্যাপার স্পষ্ট দেখা যায়।
যেমন, ১৯৯১এর পর একটা শব্দজোট উঠে এসেছে ‘ওনারশিপ নিউট্র্যালিটি’, মালিকানা নিরপেক্ষতা। মজার ব্যাপার যে ধারণাটা তখনই ব্যবহৃত হয় যখন লক্ষ্যটা হয় সরকারি বা সার্বজনিক ক্ষেত্রের শিল্প ও পরিষেবার ডানা ছাঁটা। ওই সব শিল্প বা পরিষেবার ওপর ন্যস্ত সামাজিক দায়িত্বটাকে শুধু উপেক্ষা করে নয়, বরং ওই দায়িত্ব থেকে তাদের সরিয়ে নিয়ে আসার উদ্দেশে এবং ওই সামাজিক দায়িত্ব পালিত হওয়াতে জনতার যে পিছিয়ে থাকা বা দরিদ্র অংশ কিছু সুবিধা পাচ্ছে তা থেকে তাদের বঞ্চিত করার উদ্দেশে করের প্রশ্নে, লাভজনকতার প্রশ্নে, পূঁজিগত রিজার্ভের প্রশ্নে, ভর্তুকির প্রশ্নে এবং আরো নানা রকম প্রশ্নে ধারণাটা ব্যবহৃত হয়। অথচ, রাইট টু ইনফর্মেশন এ্যাক্টএর আওতায় আসার প্রশ্নে, প্রশাসনিক স্বচ্ছতার প্রশ্নে ধারণাটা হাপিশ হয়ে যায়। (আবার বেসরকারি শিল্পের জন্য করছাড় দেওয়ার প্রশ্নে, নানারকমের সুবিধা দেওয়ার প্রশ্নে পুরোনো দাগী ভাম ঘরাণাগুলোও, পঞ্চাশ বছরের সরকারি সম্পত্তি লুন্ঠনের ইতিহাস লুকিয়ে ‘নতুন উদ্যমী’ হয়ে ওঠে; যা হোক সেটা আলাদা প্রসঙ্গ।)
ঠিক তেমনই, যদিও ঠিক সেভাবে কথাটা উঠে আসেনি, মানে ‘শাসন নিরপেক্ষতা’, কিন্তু ওই ধরণেরই একটা চিন্তা থেকে চীনের মডেল ভারতের সমস্যায় কাজে লাগানো হয়। বোধ হয়, ‘অর্থনৈতিক ভুগোল নিরপেক্ষতা’ বলেও একটা ধারণা কাজ করে যখন পিছিয়ে থাকা কৃষিপ্রধান রাজ্যে বড় শিল্প ছাড়াই মাঝারি ও ছোটো শিল্পের বাড়বাড়ন্ত দেখার প্রচেষ্টা হয়। আবার কৃষিতে উন্নয়নের প্রশ্নে যেমন, (ভূমিসংস্কারের কথা বাদ দিচ্ছি), যে সাবসিস্টেন্স ‘ক্ষুনিবৃত্তি’ কৃষির স্তরে প্রদেশটি এতদিন পিছিয়ে থাকা সত্ত্বেও প্রয়োজনীয় খাদ্যশস্য উৎপাদন করে নিচ্ছিল, তাকে সেই ভিত্তি থেকে সরিয়ে নিয়ে যাওয়া হয় সম্পূর্ণ বাজার-নির্ভর এক কৃষির দিকে।
এই প্রসঙ্গেই আরেকটি ব্যাপার উল্লেখযোগ্য। বিহারের একটি অংশ ঝারখন্ড রাজ্য হিসেবে আলাদা করা হয়েছিল আদিবাসী অস্মিতার প্রশ্নে। যখন রাজ্য তৈরি হল, দেখা গেল আদিবাসী ভাষাসমূহ, শিডিউল্ড ও ননশিডিউল্ড মিলিয়ে দাঁড়াচ্ছে ২৭%। হিন্দি যথারীতি, অনেকগুলো ভাষাকে নিজের উপভাষা হিসেবে দাবী করে সংখ্যাগরিষ্ঠ হল। যদি তাও হয়, আদিবাসী অস্মিতার ভিত্তিতে তৈরী রাজ্যের প্রধান বা প্রথম সরকারি ভাষা কেন আদিবাসী হবে না? শুধুমাত্র সংখ্যাগরিষ্ঠতাকেই কেন পরিমাপ করা হবে? যদি আদিবাসী জনগোষ্ঠীগুলোর মধ্যে ঐক্যমত্য না থাকে, কেন তাদের একসাথে বসিয়ে ঐক্যমত্য করার চেষ্টা করা হবে না? পৃথিবীতে, একের বেশি ভাষা একসাথে প্রথম সরকারি ভাষা হিসেবে স্বীকৃত এমন দেশ কি নেই? না থাকলেও, দৃষ্টান্ত স্থাপন করা যেতে পারে না কি? হিন্দিকে প্রথম ভাষা হিসেবে স্বীকৃতি দেওয়া আর বারোটা ভাষাকে দ্বিতীয় স্থানে রেখে নিজেদের মধ্যে কলহ করতে প্ররোচিত করা কি নিছক সরকারি বেসরকারি লুন্ঠন থেকে জনতার দৃষ্টি সরানোর জন্য করা হয়নি? জানি না কোনো ভাষাতাত্ত্বিক এই ভাষানীতি আউড়েছেন কিনা যে সংখ্যাগরিষ্ঠ ভাষাকেই একমাত্র প্রথম সরকারি ভাষা করা উচিৎ। যদি বলে থাকেন, তাহলে সেটাকে কি দুর্নীতি বলা হবে না?  
সব শেষে ট্রিক্‌ল ডাউন থিয়োরী। সত্তর বছর পুরোনো তত্ত্ব। ধিকৃত ও উপহসিত তত্ত্ব, তবু চলছে। দেশের মাননীয় রাষ্ট্রপতি দেশের মানুষের দুর্দশায় পীড়িত হয়ে বলছেন যে আমাদের (মানে সরকারকে) ট্রিকল ডাউন থিয়োরীতে আটকে থাকলে চলবে না। কিন্তু কথা হল যে এটা থিয়োরী কী করে হয়? পাত্র ভরে উঠলে উপচে পড়বে! পড়তে পারতো। প্র্যাক্টিক্যালী না হোক, থিয়োরিটিক্যালী। যদি পাত্রটি কোনো স্থিতিশীল পদার্থ দিয়ে তৈরি হত! কিন্তু পাত্রটি তো নিজেই থিয়োরিটিক্যাল! কন্সেপচুয়্যাল! ক্রমবর্ধমান সম্পত্তি (ওয়েল্‌থ) ধারকের ধারণা দিয়ে তৈরি, অর্থাৎ সমভাবে ক্রমবর্ধমান! কী করে ভরবে?

এরকম আরো অনেক ধারণা আছে। চলছে। রোজ চালানো হচ্ছে আজকের দুনিয়ায়। সরকারি/বেসরকারি বুদ্ধিজীবীরা চালাচ্ছে, মিডিয়া আমাদের খাওয়াচ্ছে, আমরা খাচ্ছি। ওপরে উল্লিখিত কানাডার লেখাটিতেই ম্যাক্স ওয়েবারের একটি উক্তি পেয়েছিলাম, “not simply situational acceptance of wrongdoing but its pervasive normalization into the very structures of society such that social and political life comes to seem impossible in its absence”, আর্থিক দুর্নীতির ক্ষেত্রে যেমন, মেধাগত দুর্নীতির ক্ষেত্রেও শাসকশ্রেণী আমাদের বোধজগৎটিকে ওই জায়গাটতেই পৌঁছে দিতে চাইছে।

আমি জানি, লেখাটি প্রাসঙ্গিক বিষয়ের বিস্তৃতিটাকে ঠিক মত ধরতে পারল না। আমার সীমিত জ্ঞানে সেটা সম্ভবও ছিল না। আমার লেখাটা পড়ে যদি কেউ মনে করেন যে বিষয়টি জরুরি, যদি ভাবেন যে এ বিষয়ে আরো অনেক ভালো লেখা হতে পারে এবং যদি তিনি লিখতে উদ্যোগী হন সেটাই হবে আমার লেখার সার্থকতা।