विषय पर आने से पहले मुझे लगता है कि भाषा से सम्बन्धित जो भी अधिकार एवं कर्तव्य, नागरिकों के एवं राज्यसत्ता के, इस देश के संविधान में वर्णित हैं उनकी एक संक्षिप्त चर्चा हो जानी चाहिये। क्योंकि जिन समस्याओं की चर्चा आगे करूंगा, उन सभी का निराकरण संविधान के ही आलोक में हो सकता है और होना भी चाहिये ।
संघ की राजभाषा
इस देश के संविधान के अनुसार “भारत, अर्थात इन्डिया, राज्यों का संघ” है1 । इस कारण से संवैधानिक तौर पर इस देश का कोई राष्ट्रभाषा नहीं है । हिन्दी भी राष्ट्रभाषा नहीं है2 ।
भाषा के मुद्दे पर संविधान कहता है “संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी”3 । आगे, इस ‘राजभाषा’ सम्बन्धित समस्याओं के निदान या सन्दर्भित बातों पर सुझाव देने के लिये संविधान राष्ट्रपति को निर्देशित करता है कि इस संविधान के संसद द्वारा गृहित होने के पाँच साल पर एवं फिर उसके दसवें साल पर “आदेश द्वारा, एक आयोग गठित करेगा जो एक अध्यक्ष एवं आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट विभिन्न भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले ऐसे अन्य सदस्यों से मिलकर बनेगा जिनको राष्ट्रपति नियुक्त करे और आदेश में आयोग द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया परिनिश्चित की जायेगी।”4 [कुछ शब्दों पर जोर लेखक का]
आगे, भविष्य में बनने वाले इस आयोग को यह भी निर्देश दिया गया है कि “अपनी सिफारिशें करने में आयोग, भारत की औद्योगिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक उन्नति का और लोकसेवाओं के सम्बन्ध में अहिन्दीभाषी क्षेत्रों के व्यक्तियों के न्यायसंगत दावों और हितों का सम्यक ध्यान रखेगा।”
संघ के संविधान में संघ की राजभाषा तय तो हो गई लेकिन हिन्दी को तत्काल प्रभाव से संघ की एकमात्र राजभाषा बनाये जाने के प्राथमिक प्रस्ताव पर अहिन्दीभाषी राज्यों, खासकर दक्षिण के राज्यों में जबर्दस्त विरोध-आन्दोलन हुये। तब अंग्रेजी को भी राजभाषा के रूप में जारी रखने का प्रावधान किया गया। समयसीमा तय किया गया उस समय एवं आगे भी, पर हर बार उसे बढ़ाना पड़ा।
पर सवाल उठता है कि आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट विभिन्न भाषाओं की जो चर्चा आई उन भाषाओं को कौन सा दर्जा दिया गया। यह संविधान में स्पष्ट नहीं है। राज्यों को जरूर हिन्दी से अलग किसी दूसरी भाषा को राजभाषा बनाने (उस राज्य के क्षेत्रान्तर्गत) का अधिकार दिया गया पर उसे आठवीं अनुसूची के द्वारा सीमित नहीं किया गया। राज्य किसी गैर-अनुसूचित भाषा को भी पहली या दूसरी राजभाषा का दर्जा दे सकते थे।
ऐसा प्रतीत होता है कि संविधान निर्माताओं के सामने भाषा-सम्बन्धित मुद्दा सिर्फ, (1) औपनिवेशिक अंग्रेजी को यथाशीघ्र हटाकर स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान विकसित सम्पर्कभाषा हिन्दी को संघ की राजभाषा का दर्जा देने; (2) भाषाई अल्पसंख्यकों के भाषा सम्बन्धी अधिकारों को परिभाषित एवं संरक्षित करने तक ही सीमित था ।
आठवीं अनुसूची बनाई ही गई संविधान की धारा 344(1) एवं 351 के तहत ‘संघ की राजभाषा’ के तौर पर हिन्दी को जल्द से जल्द प्रसारित करने से सम्बन्धित मार्गदर्शन के लिये। एवं जो भाषायें अनुसूचित की गई उन्हे न तो राष्ट्रभाषा न तो राज्यों में मान्यता प्राप्त भाषा के रूप में परिभाषित किया जा सकता था, सिर्फ इतना कहा जा सकता था कि ये इस देश की प्रमुख और विकसित, एवं संस्कृत (जो प्राचीन व स्रोतभाषा थी) को छोड़कर आधुनिक भाषायें थीं। इन भाषाओं को बोलने वाली जनता इसी देश के किसी न किसी इलाके में या कई इलाकों में एक साथ रहती थीं एवं (उर्दू को छोड़ कर, जिसकी राष्ट्रीय एवं भौगोलिक पहचान हिन्दी के साथ ही जुड़ी थी) अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ स्वतंत्रता के संग्राम में अपनी अपनी अलग राष्ट्रीय पहचान कायम कर चुकी थीं।
इसीलिये आठवीं अनुसूची एक खुली सुची रही जिसमें बाद के दिनों में भाषायें जुटती गईं। शुरू में इस अनुसूची में 14 भाषायें थी। भाषायें जुटती गई और वर्ष 2004 तक 22 हो गई। अभी 38 भाषाओं की, आठवीं अनुसूची में शामिल किये जाने की मांग सरकार के पास लम्बित है।
भाषाई अल्पसंख्यकों के भाषा व शिक्षा सम्बन्धी अधिकार
संविधान के मौलिक अधिकारों में सर्वपरिचित है: “वाक-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य”5। इसका प्रयोग विस्तृत है और भाषा के क्षेत्र को भी शामिल करता है।
आगे उसी मौलिक अधिकारों वाले भाग में संविधान कहता है:-
अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण6
(1) भारत का राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाये रखने का अधिकार होगा।
(2) राज्य द्वारा पोषित या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमे से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा।
शिक्षा संस्थाओं कि स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक-वर्गों का अधिकार7
(1) धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक-वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा।
(1क) खंड (1) में निर्दिष्ट किसी अल्पसंख्यक-वर्ग द्वारा स्थापित और प्रशासित शिक्षा संस्था की संपत्ति के अनिवार्य अर्जन के लिये उपबंध करने वाली विधि बनाते समय, राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि ऐसी संपत्ति के अर्जन के लिये ऐसी विधि द्वारा नियत या उसके अधीन अवधारित रकम इतनी हो कि उस खंड के अधीन प्रत्याभूत अधिकार निर्बन्धित या निराकृत न हो जाए।
(2) शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने में राज्य किसी शिक्षा संस्था के विरुद्ध इस आधार पर विभेद नहीं करेगा कि वह धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक-वर्ग के प्रबंध में है।
संविधान आगे अभिव्यक्ति की भाषा सम्बन्धी एक मौलिक अधिकार की व्याख्या करता है कि ‘प्रत्येक व्यक्ति किसी व्यथा के निवारण के लिये संघ या राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को, यथास्थिति, संघ में या राज्य में प्रयोग होने वाली किसी भाषा में अभ्यावेदन देने का हकदार होगा8। और वहीं अगले पैरा में ‘मातृभाषा’ का जिक्र है, जो कहता है:-
प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएं – प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के बालकों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास करेगा और राष्ट्रपति किसी राज्य को ऐसे निदेश दे सकेगा जो वह ऐसी सुविधाओं का उपबंध सुनिश्चित कराने के लिये आवश्यक या उचित समझता है9।
फिर आगे:-
भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के लिये विशेष अधिकारी – (1) भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के लिये एक विशेष अधिकारी होगा जिसे राष्ट्रपति नियुक्त करेगा। (2) विशेष अधिकारी का यह कर्तव्य होगा कि वह इस संविधान के अधीन भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के लिये उपबंधित रक्षोपायों से संबंधित सभी विषयों का अन्वेषण करे और उन विषयों के संबंध में ऐसे अंतरालों पर जो राष्ट्रपति निर्दिष्ट करे, राष्ट्रपति को प्रतिवेदन दे और राष्ट्रपति ऐसे सभी प्रतिवेदनों को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाएगा और संबंधित राज्यों की सरकारों को भिजवाएगा।
2
अब, जब इस देश के नागरिकों एवं राज्यसत्ता के भाषा सम्बन्धी अधिकारों एवं कर्तव्यों की संक्षिप्त चर्चा हो गई तो आगे बढ़ें? वैसे इस संक्षिप्त चर्चा को अधूरी ही कही जानी चाहिये क्योंकि अव्वल तो यह कि मैं विधिवेत्ता नहीं हूँ और दूसरा यह कि संविधान के कई सुत्र तब बदलते समय के साथ क्रियान्वयन के लायक बनते हैं जब कानूनी वाद उत्पन्न होते हैं, वे अन्तत: उच्च या सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचते हैं और एक विवेकपूर्ण फैसला आता है। कभी कभी तो उसके बाद भी समस्या के छोर खुले छुट ही जाते हैं। जैसे हाल में, कर्णाटक सरकार द्वारा कन्नड़ या अपनी मातृभाषा की पढ़ाई आवश्यक किये जाने सम्बन्धी आदेश एवं उसके खिलाफ निजी स्कूलमालिकों की शिकायत पर सर्वोच्च न्यायालय के खंडपीठ का फैसला।
लेकिन उन प्रसंगों पर ध्यान न देकर मैं अब बल्कि उन दुखद घटनाक्रमों की चर्चा करना चाहूँगा जिनके कारण मातृभाषा को क्षति पहुँची, नतीजतन मैत्रीभाषा कुछ कुछ वैरीभाषा जैसी दिखने लगी और देशभाषा सही ढंग से बन ही नहीं पाई।
जनता की भाषा हिन्दी बनाम राजभाषा हिन्दी
हिन्दी, खड़ीबोली, परिष्कृत हिन्दुस्तानी या हिन्दी-उर्दू युग्म उत्तरी भारत के एक बड़े हिस्से के शहरों में प्रधान भाषा के रूप में विकसित हो रही थी। भले ही बाद के दिनों में हिन्दी खुद को उर्दू से अलग करने की कोशिश करे, पूरी तरह संस्कृत में ही न सिर्फ उद्गम वल्कि वर्तमान रूप ढूढ़ने लगे, यथार्थ है कि उत्तर भारत के शहरों में मुघलिया और फिर बर्तानवी वर्दीधारी हिन्दुस्तानी फौजियों के माध्यम से ही वर्दी की भाषा यानि उर्दू-हिन्दी प्रचारित हुआ। स्वतंत्रता संग्राम के विकास की भाषा बनकर यह आधुनिक हिन्दी (देवनागरी लिपि में) का रूप ग्रहण किया और इस रूप को कई अहिन्दीभाषियों ने स्वत: सम्पर्कभाषा के रूप में स्वीकार किया। उन्नीसवीं सदी में ही औपनिवेशिक बिहार में सरकारी कामकाज में हिन्दी को राजभाषा बनाने के लिये संघर्ष करने का श्रेय कलकत्ता से आये एक बांग्लाभाषी राजकर्मचारी भुदेव मुखोपाध्याय को जाता है। सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय राजभाषा आयोग 1955 का सदस्य के रूप में अपनी आपत्ति दर्ज करने तक बंगाल में हिन्दी प्रचारिणी सभा के अध्यक्ष थे।
राजभाषा के रूप में हिन्दी स्वीकृत होने के बाद स्थिति में एक दुखद परिवर्तन आया। परिवर्तन का कारण फैसला नहीं था। हिन्दी के अलावे और कोई भाषा संघ की राजभाषा बनने की स्थिति में थी भी नहीं। लेकिन एक तरफ हिन्दीभाषी प्रांतों में एक अहिन्दीभाषीविरोधी सोच का बोलबाला तो दूसरी तरफ संघ की नई राजभाषा के रूप में हिन्दी को विकसित और प्रसारित करने के नाम पर करोड़ों रुपयों का सरकारी आबंटन – संघीय बजट के माध्यम से, हिन्दीभाषी राज्यों के बजट के माध्यम से एवं 1976 के बाद सभी सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों/उपक्रमों के राजभाषा विभाग के खाते में वार्षिक व्यय के माध्यम से। लाखों राजभाषा पदाधिकारिओं के वेतन के मद में, राजभाषा पुस्तकालयों में वार्षिक खरीद के मद में, विभिन्न प्रकार के अकादमियों के रखरखाव के मद में … करोड़ों रुपये हर साल निकलने लगे। वर्ष 2013-14 के सिर्फ संघीय बजट में राजभाषा के लिये आबंटित राशि थी 46·98 करोड़! इसमें जोड़िये रेलबजट का राजभाषा मद में आबंटन और फिर सभी सार्वजनिक उद्यमों/उपक्रमों (केन्द्रीय एवं राज्यस्तरीय) का अपना अपना बजट!
स्वाभाविक तौर पर मिलतेजुलते हितों का एक बड़ा गँठजोड़ तैयार हुआ जो हिन्दी के विकास की बात तो करता था पर हिन्दी की क्षति कर रहा था। दुख की बात यह है कि सही सोच रखने वाले हिन्दीभाषी बुद्धिजीवी भी कभी भी खुल कर इस गँठजोड़ की चर्चा कर रहे हों, हिन्दी की क्या क्षति की जा रही है इनके द्वारा इसकी चर्चा कर रहे हों, ऐसा सुनने को नहीं मिला।
अहिन्दीभाषियों की बदलती स्थिति
अहिन्दीभाषियों की क्षति प्रत्यक्षत: इस गँठजोड़ से तो नहीं, पर इनके बढ़ते प्रभाव के कारण अहिन्दीभाषीविरोधी राजनीतिक सोच के बढ़ते वर्चस्व से हुई। सूची अधूरी ही रहेगी फिर भी अगर क्षति के पहलुओं को सूचीबद्ध किया जाय तो निम्नलिखित बातें खास कर 1976 से 1991 के बीच देखी गई।
(1) केन्द्रीय एवं हिन्दीभाषी राज्यों के राज्य शिक्षा बोर्डों के प्राथमिक, माध्यमिक या उच्चतर माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रमों में त्रिभाषा सुत्र के अन्तर्गत मातृभाषा या हिन्दी के अलावे कोई दूसरी आधुनिक भारतीय भाषा पढ़ने/पढ़ाने की जो भी गुंजाइशें थीं सरकारी विद्यालयों में उन्हे समाप्त कर हिन्दी एवं संस्कृत ठूंस दिया गया; स्कूल में दाखिले की बेचैनी के कारण छात्र या अभिभावक दोनों स्थिति से चुपचाप समझौता करने को वाध्य हुये; निजी विद्यालय तो पहले से ही इस लाइन पर थे ताकि खर्च बचे; यहाँ तक कि भाषाई अल्पसंख्यकों द्वारा चलाये जा रहे विद्यालय अगर थे और उन्हे सरकारी अनुदान मिल रहा था तो वहाँ भी कई प्रकार से दबाव का माहौल पैदा करने की कोशिश की गई कि भाषा की पढ़ाई मतलब अंग्रेजी, हिन्दी और संस्कृत!
(2) स्वाभाविक तौर पर अगले साल से इसका प्रभाव पड़ना शुरू हुआ। सरकारी प्रशासनों में आँकड़ा दर्ज होना शुरू हुआ कि सारे छात्र हिन्दीभाषी ही हैं। तो फिर, अंग्रेजी, संस्कृत और हिन्दी (100 अंकों एवं 50 अंकों का) इसके अलावा किसी भी दूसरी भाषा के लिये न तो पाठ्यक्रम की जरूरत है, न पाठ्यपुस्तकों की और न ही शिक्षकों की!
वर्चस्व सोच का एक माहौल पैदा करता है। किसी साजिश की जरूरत पड़ती ही नहीं। एक उदाहरण देता हूँ। जनगणना। हर दस साल पर होता है। हमारे आपके जैसे आम इन्सान होते हैं जनगणना के कार्यकर्ता। अमूमन सरकारी शिक्षकों में से लिये जाते हैं। उन्हे प्रशिक्षण में अनौपचारिक सुझाव दिया जाता है कि वे उस पंजी को लेकर न घूमें जो विभाग की ओर से उन्हे मुहैया कराया जाएगा। ‘आप किसी घर में जाकर पूछ पूछ कर भरियेगा, वो बोलने में गलती करेगा, आप कटींग करेंगे तो फंसेंगे! बेहतर है कि जो पैसे आपको मिल रहे हैं उसमें से दस-बीस रूपये खर्च करके एक कॉपी खरीद लीजिये। हल्का भी रहेगा घूमने में! सारा डेटा उसी में नोट कीजिये और शाम में लौट कर समझ बूझ कर पंजी में सावधानी से दर्ज कीजिये ताकि कटिंग/ओवरराईटिंग न हो और जवाबदेही न करनी पड़े।‘
कितना सरल, सुविधाजनक उपाय है! कार्यकर्त्ता आपस में चाय पीते हुये बातें करते हुये इसे और सरल बना देते हैं। घरों में जाकर बोलते हैं ‘सिर्फ नाम लिखाइये सबका, पुरूष महिला… और उमर। और शिक्षा। बाकी हम भर लेंगे।‘ और जब रात को बैठ कर भरते हैं तो धर्म तो नाम से ही पता लग जाता है, जाति भी (कुछ नोट भी रहता है) और मातृभाषा जैसे एक ‘गौण प्रश्न’ के खाने में ऊपर से नीचे एक लाइन से ‘ह…ह्…ह’ लिख देते हैं। हो गये सब हिन्दीभाषी! यह मनगढ़न्त कहानी नहीं, यही होता रहा पिछले पाँच जनगणनाओं में खासकर बिहार के, उत्तरप्रदेश या अभी के उत्तराखंड के, मध्यप्रदेश या अभी के छत्तीसगढ़ के एव देश के अन्य कई इलाकों में।
सेन्सस का रिपोर्ट नेट पर उपलब्ध है, खोलिये और देखिये चमत्कार की अन्य सभी भाषा के लोगों की संख्या इन इलाकों में या तो स्थिर है या घट रहा है, सिर्फ हिन्दीभाषी (जाननेवाले नहीं, मातृभाषा हिन्दीवाले) तेजी से बढ़ रहे हैं। स्वाभाविक है कि इस तथ्य का प्रभाव उन इलाकों के शैक्षणिक विकास बजट पर भी पड़ेगा!
1991 के बाद
वर्ष 1991 में इस देश में नव-उदारीकरण की आर्थिक नीतियाँ लागू की गई। इन नीतियों के तेजी से लागू हो पाने के पीछे जितने बड़े कारक थे सोवियत संघ में समाजवाद का पतन एवं इस देश के बड़े पूंजीपति घरानों की बढ़ती इजारेदारी शायद उससे कहीं बड़ा, एवं सोवियत संघ के पतन के पीछे का भी, एक कारक था नई प्रौद्योगिकी का अभ्युदय। यह नई प्रौद्योगिकी एवं इससे उपजते हुये सेवा एवं उद्योग देश की अर्थनीति में कई सारे महत्वपूर्ण बदलाव लाये। सेवा क्षेत्र जिसका देश के सकल घरेलु उत्पाद में अंशदान 25% से भी कम था 50% से अधिक हो गया जबकी कृषि का अंशदान, भारत आज भी कृषिप्रधान देश होते हुये भी 20% से कम रह गया।
इसका जबर्दस्त असर पड़ा भाषा की पढ़ाई पर। अंग्रेजी के अलावा किसी दूसरे भाषा की पढ़ाई समय की बर्बादी समझा जाने लगा। जब हिन्दीभाषी घरों में बच्चे हिन्दी बोलने से कतराने लगे, या अशुद्ध बोलने लगे तब शायद कुछ विवेकी अभिभावकों के समुदाय को थोड़ा थोड़ा एहसास होने लगा कि घर-परिवार में नई पीढ़ियों की जुबान से भाषा के उजड़ने, मातृभाषा के उजड़ने पर कैसी तकलीफ होती है।
यही तकलीफ अहिन्दीभाषी अपने भाषाई प्रान्तों से बाहर (जिस प्रान्त से शायद उनके रिश्ते तीन पुश्त पहले टूट चुके हों) पिछले कई दशकों से झेल रहे थे।
इसीलिये शायद आजकल अहिन्दीभाषियों के अपनी मातृभाषा के अधिकारों के लिये संघर्ष में हिन्दीभाषी साथी भी मिल जाते हैं।
मातृभाषा, भाषाई अस्मिता या भाषाई संस्कृति को बचाने का संघर्ष क्या भारत की एकता को बचाने के संघर्ष से अलग है?
मैं जानता हूँ अभी तुरन्त कोई मिल जायेंगे आश्वासन देने की भंगिमा के साथ कहते हुये, “अरे नहीं भई, वो बात नहीं है। यह भी देखना है और वह भी देखना है! अपने अधिकारों के लिये संघर्ष बेशक करना है पर देश की एकता को बचाते हुये। आखिर देश तो सर्वोपरि है! है कि नहीं?”
है सर। सर्वोपरि तो है ही। पर आप एक गलती कर रहे हैं।
- वो क्या?
- सर्वोपरि है इसीलिये तो लड़नी है मातृभाषा, भाषाई अस्मिता या भाषाई संस्कृति की रक्षा करने की लड़ाई! मुश्किल यही है सर कि आप-हम बोलते तो हैं ‘अनेकता में एकता’ पर अभ्यास में हो जाता है ‘अनेकता के बावजूद एकता’। माला का फूल हटा कर, तोड़ कर हम धागा ढूंढ़ने लगते हैं। भूल जाते हैं कि वह धागा है ही नहीं। वह तो सतरंगी संस्कृतियों, भाषाओं, भाषिक अस्मिताओं की आपसी सहमति से हुये मिलन के कारण पैदा हुआ, उनके भीतर से गुजरता हुआ एक नस है। नस के भीतर खून है। बहुरंगी फूल हैं, उनके मिलन में सहमति है तो नस है, उसमें खून है। नहीं, तो फिर मिलने से हिंसक इन्कार तक हो सकता है, विलुप्त होने का खतरा तक मुठ्ठी में लिये हुये।
खैर, उतनी दूर तक फिलहाल न भी समझें सर इतना तो समझेंगे ही कि जितना एक आदमी अपनी सांस्कृतिक अस्मिता में बसेगा उतना ही वह भारत की अस्मिता में बसेगा! पूरे भारत में कहीं भी अपनी नागरिकता के अधिकार के अनुसार बसते हुये, रोजगार करते हुये, शिक्षा प्राप्त करते हुये जितना अधिक हम एक गुजराती होंगे, तमिल होंगे, बंगाली होंगे, संथाली होंगे, खासी होंगे या मणिपुरी होंगे उतना ही हम भारतीय होंगे। सांस्कृतिक, भाषाई अस्मिता खोया हुआ इन्सान कभी भी पूरी सार्थकता के साथ अपनी नागरिकता नहीं निभा पायेगा। यह भारत जैसे देश के लिये और अधिक कीमती सच्चाई है।
अपनी मातृभाषा होगी जुबान पर तो पड़ोस की भाषा मैत्रीभाषा के रूप में चढ़ेगी। और देशभाषा हमेशा ही होगा सभी मातृभाषाओं के मिलन में बनता हुआ संगीत। उस संगीत के बिना सम्पर्कभाषा नजबूरी होगी और राजभाषा गुलामी।
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1 - भारत का संविधान, भाग 1.1(1)
2 - देखें गुजरात हाईकोर्ट में दायर स्पेशल सिविल अप्लिकेशन संख्या 2896 वर्ष 2009, सुरेशभाई कचोटिया बनाम भारत संघ में 13 जनवरी 2010 में दिया गया फैसला
3 - “राजभाषा” शीर्षक भाग 17 के अन्तर्गत “संघ की भाषा” शीर्षक अध्याय 1 में धारा 343(1)
4 – संविधान की धारा 344
5 - ‘मूल अधिकार’ शीर्षक भाग 3 के अनुच्छेद 19 (स्वातंत्र्य अधिकार) का 1(क)
6 - -वही- , भाग 3 अनुच्छेद 29
7 - -वही- , भाग 3 अनुच्छेद 30
8 - ‘राजभाषा’ शीर्षक भाग 17 के ‘विशेष निदेश’ शीर्षक अध्याय 4 के अन्तर्गत धारा 350
9 - धारा 350क एवं 350ख
संघ की राजभाषा
इस देश के संविधान के अनुसार “भारत, अर्थात इन्डिया, राज्यों का संघ” है1 । इस कारण से संवैधानिक तौर पर इस देश का कोई राष्ट्रभाषा नहीं है । हिन्दी भी राष्ट्रभाषा नहीं है2 ।
भाषा के मुद्दे पर संविधान कहता है “संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी”3 । आगे, इस ‘राजभाषा’ सम्बन्धित समस्याओं के निदान या सन्दर्भित बातों पर सुझाव देने के लिये संविधान राष्ट्रपति को निर्देशित करता है कि इस संविधान के संसद द्वारा गृहित होने के पाँच साल पर एवं फिर उसके दसवें साल पर “आदेश द्वारा, एक आयोग गठित करेगा जो एक अध्यक्ष एवं आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट विभिन्न भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले ऐसे अन्य सदस्यों से मिलकर बनेगा जिनको राष्ट्रपति नियुक्त करे और आदेश में आयोग द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया परिनिश्चित की जायेगी।”4 [कुछ शब्दों पर जोर लेखक का]
आगे, भविष्य में बनने वाले इस आयोग को यह भी निर्देश दिया गया है कि “अपनी सिफारिशें करने में आयोग, भारत की औद्योगिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक उन्नति का और लोकसेवाओं के सम्बन्ध में अहिन्दीभाषी क्षेत्रों के व्यक्तियों के न्यायसंगत दावों और हितों का सम्यक ध्यान रखेगा।”
संघ के संविधान में संघ की राजभाषा तय तो हो गई लेकिन हिन्दी को तत्काल प्रभाव से संघ की एकमात्र राजभाषा बनाये जाने के प्राथमिक प्रस्ताव पर अहिन्दीभाषी राज्यों, खासकर दक्षिण के राज्यों में जबर्दस्त विरोध-आन्दोलन हुये। तब अंग्रेजी को भी राजभाषा के रूप में जारी रखने का प्रावधान किया गया। समयसीमा तय किया गया उस समय एवं आगे भी, पर हर बार उसे बढ़ाना पड़ा।
पर सवाल उठता है कि आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट विभिन्न भाषाओं की जो चर्चा आई उन भाषाओं को कौन सा दर्जा दिया गया। यह संविधान में स्पष्ट नहीं है। राज्यों को जरूर हिन्दी से अलग किसी दूसरी भाषा को राजभाषा बनाने (उस राज्य के क्षेत्रान्तर्गत) का अधिकार दिया गया पर उसे आठवीं अनुसूची के द्वारा सीमित नहीं किया गया। राज्य किसी गैर-अनुसूचित भाषा को भी पहली या दूसरी राजभाषा का दर्जा दे सकते थे।
ऐसा प्रतीत होता है कि संविधान निर्माताओं के सामने भाषा-सम्बन्धित मुद्दा सिर्फ, (1) औपनिवेशिक अंग्रेजी को यथाशीघ्र हटाकर स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान विकसित सम्पर्कभाषा हिन्दी को संघ की राजभाषा का दर्जा देने; (2) भाषाई अल्पसंख्यकों के भाषा सम्बन्धी अधिकारों को परिभाषित एवं संरक्षित करने तक ही सीमित था ।
आठवीं अनुसूची बनाई ही गई संविधान की धारा 344(1) एवं 351 के तहत ‘संघ की राजभाषा’ के तौर पर हिन्दी को जल्द से जल्द प्रसारित करने से सम्बन्धित मार्गदर्शन के लिये। एवं जो भाषायें अनुसूचित की गई उन्हे न तो राष्ट्रभाषा न तो राज्यों में मान्यता प्राप्त भाषा के रूप में परिभाषित किया जा सकता था, सिर्फ इतना कहा जा सकता था कि ये इस देश की प्रमुख और विकसित, एवं संस्कृत (जो प्राचीन व स्रोतभाषा थी) को छोड़कर आधुनिक भाषायें थीं। इन भाषाओं को बोलने वाली जनता इसी देश के किसी न किसी इलाके में या कई इलाकों में एक साथ रहती थीं एवं (उर्दू को छोड़ कर, जिसकी राष्ट्रीय एवं भौगोलिक पहचान हिन्दी के साथ ही जुड़ी थी) अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ स्वतंत्रता के संग्राम में अपनी अपनी अलग राष्ट्रीय पहचान कायम कर चुकी थीं।
इसीलिये आठवीं अनुसूची एक खुली सुची रही जिसमें बाद के दिनों में भाषायें जुटती गईं। शुरू में इस अनुसूची में 14 भाषायें थी। भाषायें जुटती गई और वर्ष 2004 तक 22 हो गई। अभी 38 भाषाओं की, आठवीं अनुसूची में शामिल किये जाने की मांग सरकार के पास लम्बित है।
भाषाई अल्पसंख्यकों के भाषा व शिक्षा सम्बन्धी अधिकार
संविधान के मौलिक अधिकारों में सर्वपरिचित है: “वाक-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य”5। इसका प्रयोग विस्तृत है और भाषा के क्षेत्र को भी शामिल करता है।
आगे उसी मौलिक अधिकारों वाले भाग में संविधान कहता है:-
अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण6
(1) भारत का राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाये रखने का अधिकार होगा।
(2) राज्य द्वारा पोषित या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमे से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा।
शिक्षा संस्थाओं कि स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक-वर्गों का अधिकार7
(1) धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक-वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा।
(1क) खंड (1) में निर्दिष्ट किसी अल्पसंख्यक-वर्ग द्वारा स्थापित और प्रशासित शिक्षा संस्था की संपत्ति के अनिवार्य अर्जन के लिये उपबंध करने वाली विधि बनाते समय, राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि ऐसी संपत्ति के अर्जन के लिये ऐसी विधि द्वारा नियत या उसके अधीन अवधारित रकम इतनी हो कि उस खंड के अधीन प्रत्याभूत अधिकार निर्बन्धित या निराकृत न हो जाए।
(2) शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने में राज्य किसी शिक्षा संस्था के विरुद्ध इस आधार पर विभेद नहीं करेगा कि वह धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक-वर्ग के प्रबंध में है।
संविधान आगे अभिव्यक्ति की भाषा सम्बन्धी एक मौलिक अधिकार की व्याख्या करता है कि ‘प्रत्येक व्यक्ति किसी व्यथा के निवारण के लिये संघ या राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को, यथास्थिति, संघ में या राज्य में प्रयोग होने वाली किसी भाषा में अभ्यावेदन देने का हकदार होगा8। और वहीं अगले पैरा में ‘मातृभाषा’ का जिक्र है, जो कहता है:-
प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएं – प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के बालकों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास करेगा और राष्ट्रपति किसी राज्य को ऐसे निदेश दे सकेगा जो वह ऐसी सुविधाओं का उपबंध सुनिश्चित कराने के लिये आवश्यक या उचित समझता है9।
फिर आगे:-
भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के लिये विशेष अधिकारी – (1) भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के लिये एक विशेष अधिकारी होगा जिसे राष्ट्रपति नियुक्त करेगा। (2) विशेष अधिकारी का यह कर्तव्य होगा कि वह इस संविधान के अधीन भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के लिये उपबंधित रक्षोपायों से संबंधित सभी विषयों का अन्वेषण करे और उन विषयों के संबंध में ऐसे अंतरालों पर जो राष्ट्रपति निर्दिष्ट करे, राष्ट्रपति को प्रतिवेदन दे और राष्ट्रपति ऐसे सभी प्रतिवेदनों को संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाएगा और संबंधित राज्यों की सरकारों को भिजवाएगा।
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अब, जब इस देश के नागरिकों एवं राज्यसत्ता के भाषा सम्बन्धी अधिकारों एवं कर्तव्यों की संक्षिप्त चर्चा हो गई तो आगे बढ़ें? वैसे इस संक्षिप्त चर्चा को अधूरी ही कही जानी चाहिये क्योंकि अव्वल तो यह कि मैं विधिवेत्ता नहीं हूँ और दूसरा यह कि संविधान के कई सुत्र तब बदलते समय के साथ क्रियान्वयन के लायक बनते हैं जब कानूनी वाद उत्पन्न होते हैं, वे अन्तत: उच्च या सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचते हैं और एक विवेकपूर्ण फैसला आता है। कभी कभी तो उसके बाद भी समस्या के छोर खुले छुट ही जाते हैं। जैसे हाल में, कर्णाटक सरकार द्वारा कन्नड़ या अपनी मातृभाषा की पढ़ाई आवश्यक किये जाने सम्बन्धी आदेश एवं उसके खिलाफ निजी स्कूलमालिकों की शिकायत पर सर्वोच्च न्यायालय के खंडपीठ का फैसला।
लेकिन उन प्रसंगों पर ध्यान न देकर मैं अब बल्कि उन दुखद घटनाक्रमों की चर्चा करना चाहूँगा जिनके कारण मातृभाषा को क्षति पहुँची, नतीजतन मैत्रीभाषा कुछ कुछ वैरीभाषा जैसी दिखने लगी और देशभाषा सही ढंग से बन ही नहीं पाई।
जनता की भाषा हिन्दी बनाम राजभाषा हिन्दी
हिन्दी, खड़ीबोली, परिष्कृत हिन्दुस्तानी या हिन्दी-उर्दू युग्म उत्तरी भारत के एक बड़े हिस्से के शहरों में प्रधान भाषा के रूप में विकसित हो रही थी। भले ही बाद के दिनों में हिन्दी खुद को उर्दू से अलग करने की कोशिश करे, पूरी तरह संस्कृत में ही न सिर्फ उद्गम वल्कि वर्तमान रूप ढूढ़ने लगे, यथार्थ है कि उत्तर भारत के शहरों में मुघलिया और फिर बर्तानवी वर्दीधारी हिन्दुस्तानी फौजियों के माध्यम से ही वर्दी की भाषा यानि उर्दू-हिन्दी प्रचारित हुआ। स्वतंत्रता संग्राम के विकास की भाषा बनकर यह आधुनिक हिन्दी (देवनागरी लिपि में) का रूप ग्रहण किया और इस रूप को कई अहिन्दीभाषियों ने स्वत: सम्पर्कभाषा के रूप में स्वीकार किया। उन्नीसवीं सदी में ही औपनिवेशिक बिहार में सरकारी कामकाज में हिन्दी को राजभाषा बनाने के लिये संघर्ष करने का श्रेय कलकत्ता से आये एक बांग्लाभाषी राजकर्मचारी भुदेव मुखोपाध्याय को जाता है। सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय राजभाषा आयोग 1955 का सदस्य के रूप में अपनी आपत्ति दर्ज करने तक बंगाल में हिन्दी प्रचारिणी सभा के अध्यक्ष थे।
राजभाषा के रूप में हिन्दी स्वीकृत होने के बाद स्थिति में एक दुखद परिवर्तन आया। परिवर्तन का कारण फैसला नहीं था। हिन्दी के अलावे और कोई भाषा संघ की राजभाषा बनने की स्थिति में थी भी नहीं। लेकिन एक तरफ हिन्दीभाषी प्रांतों में एक अहिन्दीभाषीविरोधी सोच का बोलबाला तो दूसरी तरफ संघ की नई राजभाषा के रूप में हिन्दी को विकसित और प्रसारित करने के नाम पर करोड़ों रुपयों का सरकारी आबंटन – संघीय बजट के माध्यम से, हिन्दीभाषी राज्यों के बजट के माध्यम से एवं 1976 के बाद सभी सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों/उपक्रमों के राजभाषा विभाग के खाते में वार्षिक व्यय के माध्यम से। लाखों राजभाषा पदाधिकारिओं के वेतन के मद में, राजभाषा पुस्तकालयों में वार्षिक खरीद के मद में, विभिन्न प्रकार के अकादमियों के रखरखाव के मद में … करोड़ों रुपये हर साल निकलने लगे। वर्ष 2013-14 के सिर्फ संघीय बजट में राजभाषा के लिये आबंटित राशि थी 46·98 करोड़! इसमें जोड़िये रेलबजट का राजभाषा मद में आबंटन और फिर सभी सार्वजनिक उद्यमों/उपक्रमों (केन्द्रीय एवं राज्यस्तरीय) का अपना अपना बजट!
स्वाभाविक तौर पर मिलतेजुलते हितों का एक बड़ा गँठजोड़ तैयार हुआ जो हिन्दी के विकास की बात तो करता था पर हिन्दी की क्षति कर रहा था। दुख की बात यह है कि सही सोच रखने वाले हिन्दीभाषी बुद्धिजीवी भी कभी भी खुल कर इस गँठजोड़ की चर्चा कर रहे हों, हिन्दी की क्या क्षति की जा रही है इनके द्वारा इसकी चर्चा कर रहे हों, ऐसा सुनने को नहीं मिला।
अहिन्दीभाषियों की बदलती स्थिति
अहिन्दीभाषियों की क्षति प्रत्यक्षत: इस गँठजोड़ से तो नहीं, पर इनके बढ़ते प्रभाव के कारण अहिन्दीभाषीविरोधी राजनीतिक सोच के बढ़ते वर्चस्व से हुई। सूची अधूरी ही रहेगी फिर भी अगर क्षति के पहलुओं को सूचीबद्ध किया जाय तो निम्नलिखित बातें खास कर 1976 से 1991 के बीच देखी गई।
(1) केन्द्रीय एवं हिन्दीभाषी राज्यों के राज्य शिक्षा बोर्डों के प्राथमिक, माध्यमिक या उच्चतर माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रमों में त्रिभाषा सुत्र के अन्तर्गत मातृभाषा या हिन्दी के अलावे कोई दूसरी आधुनिक भारतीय भाषा पढ़ने/पढ़ाने की जो भी गुंजाइशें थीं सरकारी विद्यालयों में उन्हे समाप्त कर हिन्दी एवं संस्कृत ठूंस दिया गया; स्कूल में दाखिले की बेचैनी के कारण छात्र या अभिभावक दोनों स्थिति से चुपचाप समझौता करने को वाध्य हुये; निजी विद्यालय तो पहले से ही इस लाइन पर थे ताकि खर्च बचे; यहाँ तक कि भाषाई अल्पसंख्यकों द्वारा चलाये जा रहे विद्यालय अगर थे और उन्हे सरकारी अनुदान मिल रहा था तो वहाँ भी कई प्रकार से दबाव का माहौल पैदा करने की कोशिश की गई कि भाषा की पढ़ाई मतलब अंग्रेजी, हिन्दी और संस्कृत!
(2) स्वाभाविक तौर पर अगले साल से इसका प्रभाव पड़ना शुरू हुआ। सरकारी प्रशासनों में आँकड़ा दर्ज होना शुरू हुआ कि सारे छात्र हिन्दीभाषी ही हैं। तो फिर, अंग्रेजी, संस्कृत और हिन्दी (100 अंकों एवं 50 अंकों का) इसके अलावा किसी भी दूसरी भाषा के लिये न तो पाठ्यक्रम की जरूरत है, न पाठ्यपुस्तकों की और न ही शिक्षकों की!
वर्चस्व सोच का एक माहौल पैदा करता है। किसी साजिश की जरूरत पड़ती ही नहीं। एक उदाहरण देता हूँ। जनगणना। हर दस साल पर होता है। हमारे आपके जैसे आम इन्सान होते हैं जनगणना के कार्यकर्ता। अमूमन सरकारी शिक्षकों में से लिये जाते हैं। उन्हे प्रशिक्षण में अनौपचारिक सुझाव दिया जाता है कि वे उस पंजी को लेकर न घूमें जो विभाग की ओर से उन्हे मुहैया कराया जाएगा। ‘आप किसी घर में जाकर पूछ पूछ कर भरियेगा, वो बोलने में गलती करेगा, आप कटींग करेंगे तो फंसेंगे! बेहतर है कि जो पैसे आपको मिल रहे हैं उसमें से दस-बीस रूपये खर्च करके एक कॉपी खरीद लीजिये। हल्का भी रहेगा घूमने में! सारा डेटा उसी में नोट कीजिये और शाम में लौट कर समझ बूझ कर पंजी में सावधानी से दर्ज कीजिये ताकि कटिंग/ओवरराईटिंग न हो और जवाबदेही न करनी पड़े।‘
कितना सरल, सुविधाजनक उपाय है! कार्यकर्त्ता आपस में चाय पीते हुये बातें करते हुये इसे और सरल बना देते हैं। घरों में जाकर बोलते हैं ‘सिर्फ नाम लिखाइये सबका, पुरूष महिला… और उमर। और शिक्षा। बाकी हम भर लेंगे।‘ और जब रात को बैठ कर भरते हैं तो धर्म तो नाम से ही पता लग जाता है, जाति भी (कुछ नोट भी रहता है) और मातृभाषा जैसे एक ‘गौण प्रश्न’ के खाने में ऊपर से नीचे एक लाइन से ‘ह…ह्…ह’ लिख देते हैं। हो गये सब हिन्दीभाषी! यह मनगढ़न्त कहानी नहीं, यही होता रहा पिछले पाँच जनगणनाओं में खासकर बिहार के, उत्तरप्रदेश या अभी के उत्तराखंड के, मध्यप्रदेश या अभी के छत्तीसगढ़ के एव देश के अन्य कई इलाकों में।
सेन्सस का रिपोर्ट नेट पर उपलब्ध है, खोलिये और देखिये चमत्कार की अन्य सभी भाषा के लोगों की संख्या इन इलाकों में या तो स्थिर है या घट रहा है, सिर्फ हिन्दीभाषी (जाननेवाले नहीं, मातृभाषा हिन्दीवाले) तेजी से बढ़ रहे हैं। स्वाभाविक है कि इस तथ्य का प्रभाव उन इलाकों के शैक्षणिक विकास बजट पर भी पड़ेगा!
1991 के बाद
वर्ष 1991 में इस देश में नव-उदारीकरण की आर्थिक नीतियाँ लागू की गई। इन नीतियों के तेजी से लागू हो पाने के पीछे जितने बड़े कारक थे सोवियत संघ में समाजवाद का पतन एवं इस देश के बड़े पूंजीपति घरानों की बढ़ती इजारेदारी शायद उससे कहीं बड़ा, एवं सोवियत संघ के पतन के पीछे का भी, एक कारक था नई प्रौद्योगिकी का अभ्युदय। यह नई प्रौद्योगिकी एवं इससे उपजते हुये सेवा एवं उद्योग देश की अर्थनीति में कई सारे महत्वपूर्ण बदलाव लाये। सेवा क्षेत्र जिसका देश के सकल घरेलु उत्पाद में अंशदान 25% से भी कम था 50% से अधिक हो गया जबकी कृषि का अंशदान, भारत आज भी कृषिप्रधान देश होते हुये भी 20% से कम रह गया।
इसका जबर्दस्त असर पड़ा भाषा की पढ़ाई पर। अंग्रेजी के अलावा किसी दूसरे भाषा की पढ़ाई समय की बर्बादी समझा जाने लगा। जब हिन्दीभाषी घरों में बच्चे हिन्दी बोलने से कतराने लगे, या अशुद्ध बोलने लगे तब शायद कुछ विवेकी अभिभावकों के समुदाय को थोड़ा थोड़ा एहसास होने लगा कि घर-परिवार में नई पीढ़ियों की जुबान से भाषा के उजड़ने, मातृभाषा के उजड़ने पर कैसी तकलीफ होती है।
यही तकलीफ अहिन्दीभाषी अपने भाषाई प्रान्तों से बाहर (जिस प्रान्त से शायद उनके रिश्ते तीन पुश्त पहले टूट चुके हों) पिछले कई दशकों से झेल रहे थे।
इसीलिये शायद आजकल अहिन्दीभाषियों के अपनी मातृभाषा के अधिकारों के लिये संघर्ष में हिन्दीभाषी साथी भी मिल जाते हैं।
मातृभाषा, भाषाई अस्मिता या भाषाई संस्कृति को बचाने का संघर्ष क्या भारत की एकता को बचाने के संघर्ष से अलग है?
मैं जानता हूँ अभी तुरन्त कोई मिल जायेंगे आश्वासन देने की भंगिमा के साथ कहते हुये, “अरे नहीं भई, वो बात नहीं है। यह भी देखना है और वह भी देखना है! अपने अधिकारों के लिये संघर्ष बेशक करना है पर देश की एकता को बचाते हुये। आखिर देश तो सर्वोपरि है! है कि नहीं?”
है सर। सर्वोपरि तो है ही। पर आप एक गलती कर रहे हैं।
- वो क्या?
- सर्वोपरि है इसीलिये तो लड़नी है मातृभाषा, भाषाई अस्मिता या भाषाई संस्कृति की रक्षा करने की लड़ाई! मुश्किल यही है सर कि आप-हम बोलते तो हैं ‘अनेकता में एकता’ पर अभ्यास में हो जाता है ‘अनेकता के बावजूद एकता’। माला का फूल हटा कर, तोड़ कर हम धागा ढूंढ़ने लगते हैं। भूल जाते हैं कि वह धागा है ही नहीं। वह तो सतरंगी संस्कृतियों, भाषाओं, भाषिक अस्मिताओं की आपसी सहमति से हुये मिलन के कारण पैदा हुआ, उनके भीतर से गुजरता हुआ एक नस है। नस के भीतर खून है। बहुरंगी फूल हैं, उनके मिलन में सहमति है तो नस है, उसमें खून है। नहीं, तो फिर मिलने से हिंसक इन्कार तक हो सकता है, विलुप्त होने का खतरा तक मुठ्ठी में लिये हुये।
खैर, उतनी दूर तक फिलहाल न भी समझें सर इतना तो समझेंगे ही कि जितना एक आदमी अपनी सांस्कृतिक अस्मिता में बसेगा उतना ही वह भारत की अस्मिता में बसेगा! पूरे भारत में कहीं भी अपनी नागरिकता के अधिकार के अनुसार बसते हुये, रोजगार करते हुये, शिक्षा प्राप्त करते हुये जितना अधिक हम एक गुजराती होंगे, तमिल होंगे, बंगाली होंगे, संथाली होंगे, खासी होंगे या मणिपुरी होंगे उतना ही हम भारतीय होंगे। सांस्कृतिक, भाषाई अस्मिता खोया हुआ इन्सान कभी भी पूरी सार्थकता के साथ अपनी नागरिकता नहीं निभा पायेगा। यह भारत जैसे देश के लिये और अधिक कीमती सच्चाई है।
अपनी मातृभाषा होगी जुबान पर तो पड़ोस की भाषा मैत्रीभाषा के रूप में चढ़ेगी। और देशभाषा हमेशा ही होगा सभी मातृभाषाओं के मिलन में बनता हुआ संगीत। उस संगीत के बिना सम्पर्कभाषा नजबूरी होगी और राजभाषा गुलामी।
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1 - भारत का संविधान, भाग 1.1(1)
2 - देखें गुजरात हाईकोर्ट में दायर स्पेशल सिविल अप्लिकेशन संख्या 2896 वर्ष 2009, सुरेशभाई कचोटिया बनाम भारत संघ में 13 जनवरी 2010 में दिया गया फैसला
3 - “राजभाषा” शीर्षक भाग 17 के अन्तर्गत “संघ की भाषा” शीर्षक अध्याय 1 में धारा 343(1)
4 – संविधान की धारा 344
5 - ‘मूल अधिकार’ शीर्षक भाग 3 के अनुच्छेद 19 (स्वातंत्र्य अधिकार) का 1(क)
6 - -वही- , भाग 3 अनुच्छेद 29
7 - -वही- , भाग 3 अनुच्छेद 30
8 - ‘राजभाषा’ शीर्षक भाग 17 के ‘विशेष निदेश’ शीर्षक अध्याय 4 के अन्तर्गत धारा 350
9 - धारा 350क एवं 350ख
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