Sunday, November 27, 2022

‘कम्युनिस्ट चेकोस्लोवाकिया में हम सर्वाधिक आज़ाद थे!’ – आन्द्रे व्लाचेक

मिलान कोहूत एक चिन्तक, प्रस्तुतिकर्त्ता एवं प्राध्यापक हैं । उनका जन्म चेकोस्लोवाकिया में हुआ था, जहाँ वह ‘चार्टर 77’ पर हस्ताक्षर करने एवं संयुक्त राज्य अमेरिका चले जाने के पहले तक रहे । अमेरिका में उन्होने अमेरिकी नागरिकता ले ली । कोहूत पूरी तरह से पूंजीवाद से एवं पश्चिमी शासनतंत्र से निराश हो चुके हैं । दशकों से वे पूरी दुनिया में अपनी प्रस्तुतियाँ देते रहे हैं, सीधे तौर पर पश्चिमी साम्राज्यवाद, नस्लवाद, पूंजीवाद एवं दुनिया के सभी धर्मों, खास कर इसाईयत के खिलाफ ।

यह बातचीत अक्तूबर 12, 2014 को पश्चिमी बोहेमिया स्थित एक छोटे से गाँव क्लिकारोव में हुई । व्लाचेक पिलसेन शहर के दर्शन व कला विभाग में राजनीतिक व्याख्यान देने के लिये आये । उसी विभाग में कोहूत पढ़ाते हैं । दोनों गाड़ी से पश्चिमी बोहेमिया के दूरस्थित एवं छोटे से गाँव क्लिकारोव चले गये; वहाँ मछली पलने वाले तालाव के किनारे बैठ कर दोनों ने पश्चिमी साम्राज्यवाद, पूंजीवाद एवं युरोपीय/अमेरिकी प्रचार के विषाक्त प्रभाव के वारे में बातें की । पूर्वी योरोपीय देशों में समाजवाद के पतन एवं बर्लिन-दीवार को ढहाये जाने के 25वें साल पर साम्राज्यवाद द्वारा किये जा रहे भव्य समारोहों के सन्दर्भ में यह बातचीत इन शासनतंत्रों की वास्तविक छवि को उजागर करता है ।   

[इस बातचीत का अंग्रेजी पाठ पीपुल्स डेमोक्रैसी, 10-16 नवम्बर 2014 में छप चुका है]

[http://www.counterpunch.org/2014/10/24/f...]

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आन्द्रे व्लाचेक (एवी) : आप पश्चिम के उन कुछ कलाकारों में से हैं जो पश्चिमी साम्राज्यवाद, बेलगाम पूंजीवाद और धर्मों के विरूद्ध प्रत्यक्ष कार्रवाई कर रहे हैं । कला के इस विशेष रूप को आपने कब और कैसे चुना

मिलान कोहुत (एमके) : नि:सन्देह उन दिनों से जब मैं ‘दूसरी संस्कृति’, ‘चेक भूमिगत’ का हिस्सा था, चेकोस्लोवाक समाजवादी व्यवस्था का वह ज़माना जिसे पश्चिम ‘सर्वसत्तावादी व्यवस्था’ कहता था । ‘दूसरी संस्कृति’ ही वह आन्दोलन था जिसने हमारी सृजनात्मकता एवं कला के अर्थ को शक्ल दिया । उन दिनों हम औपचारिक संस्कृति या ‘पहली संस्कृति’ से बहिष्कृत थे । इसलिये हमने विद्रोह किया । अपनी परिभाषा से ही यह गहन राजनीतिक आन्दोलन था और इसने राजनीतिक कला उत्पन्न किया ।

एवी : आप अक्सर कहते हैं और सही कहते हैं कि आप में से जिन लोगों ने ‘चार्टर 77’ पर हस्ताक्षर किया, और जो लोग शीत युद्ध के दिनों में भूमिगत/विरोधी आन्दोलन से जुड़े थे, वे दर-असल समाजवादी थे, कुछ तो मार्क्सवादी भी थे । आप उनमें शामिल हैं, नि:सन्देह आप एक वामपंथी बुद्धिजीवी हैं । स्पष्टत: यह एक विरोधाभास है : पश्चिम आपको ‘बेच’ रहा था, आपको कम्युनिस्ट-विरोधी गुट के तौर पर आगे बढ़ा रहा था । क्या आप इस विरोधाभास के बारे में बात कर सकते हैं

एमके : बेशक एक विरोधाभास, काफी बड़ा विरोधाभास रहा क्योंकि भूमिगत आन्दोलन के, ‘दूसरी संस्कृति’ के अधिकांश लोग गहराई तक वामपंथी मूल्यों के समर्थक थे । जैसे चीजों को संगृहित करने के बजाय सबकुछ बाँट लेना । हम सम्पत्ति एवं उत्पादन के साधनों के सामूहिक मालिकाना में विश्वास करते थे । लेकिन हमने कभी इस पर सैद्धांतिक दृष्टि से नज़र नहीं डाला – हम नहीं समझे कि हमारे मूल्य, दार्शनिक तौर पर वामपंथी हैं । इस तरह, जब हम तथाकथित कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ लड़ रहे थे, वास्तविक तौर पर हम खुद ही सच्चे कम्युनिस्ट थे !

लेकिन, जब यह बात मैं ‘चार्टर – 77’ के अपने उन कॉमरेडों को कहता हूँ जो कभी इस देश से बाहर नहीं गये, वे अक्सर बहुत गुस्से में आ जाते हैं – वे इस सच्चाई को मानना नहीं चाहते हैं ।

एवी : वस्तुत: आपने यहाँ तक कहा कि वाक्स्लाव हावेल भी, जो समयोपरांत पूरी तरह बिक गये और पश्चिमी साम्राज्यवाद का समर्थन करने लगे, वाशिंगटन जाकर सत्ता के प्रतिनिधियों के सहर्ष करतलध्वनि के बदले दासता के मनोभाव वाले भाषण देते रहे, वह हावेल भी जब आपके आन्दोलन का सदस्य था, इन्ही वामपंथी आदर्शों का हिस्सेदार था । 

एमके : हाँ, नि:सन्देह ! उनके दार्शनिक नजरिये का कुछ हिस्सा तो वास्तव में मार्क्सवादी था !

एवी : फिर क्या हुआ ? उनके जैसे लोग बदलते कैसे हैं ?  

एमके : क्रांति के बाद मैं वाक्स्लाव हावेल को लेकर बहुत गर्वित था । क्योंकि खुले आम उन्होने घोषणा की थी कि वे राष्ट्रपति के महल में नहीं रहेंगे । वह अपने छोटे से फ्लैट में रहने लगे, अपनी गाड़ी खुद चला कर दफ्तर जाते थे… मुझे लगा कि वह बहुत बढ़िया रोल मॉडल बन गये…

एवी : राष्ट्रपति के किले के इर्दगिर्द वे अपने साइकिल पर भी घूमते थे… 

एमके : एक सच्चे ‘लोक नायक’ या ‘जनता का राष्ट्रपति’ जैसा बन गये वह । फिर कुछ उनका दिमाग बदल दिया… शायद इसके कारणों में एक यह भी था कि वह एक बुर्जुवा परिवार से आते थे ।

एवी : प्राग के सबसे धनाढ्यों में से एक… 

एमके : हाँ, बहूत ज्यादा ही धनाढ्य परिवार से आते थे वह… । और हालाँकि वह कहा करते थे कि “मैं अपनी सम्पत्ति और मेरे पूर्व परिवार का सामाजिक दर्जा लौटाने का कभी दावा नहीं करूंगा”, कुछ जरूर बदल गया होगा । मेरा अनुमान है कि उनके उपदेशक लोग, उनके राष्ट्रपति बनने के बाद समझाना शुरु किये होंगे कि अगर वे इस किस्म के ‘वामपंथी जीवनधारा’ में जीते चलें तो यह बात, देश जिस पूंजीवादी दिशा की ओर जा रहा है उसमें वाधा डालेगी । वे जरुर हावेल को समझाये होंगे कि लोग उन्हे ‘आजादी’ और ‘आर्थिक विकास’ का भीतरघात करने वाला मानेंगे… और फिर शायद उच्च राजनीतिक पद आदमी को भ्रष्ट बना डालता है… और इसलिये वह बदलने लगे, धीरे धीरे लेकिन निश्चित रूप से । वास्तव में, तथाकथित ‘सम्पत्ति लौटाये जाने के कार्यक्रमों’ के माध्यम से उन्होने अपने परिवार की पूरी पुरानी सम्पत्ति वापस करवा लिया । मुझे सबसे अधिक बुरी लगी यह बात कि वह संयुक्त राज्य अमेरिका की साम्राज्यवादी विदेश नीति का समर्थन करने लगे… फिर बाद में और भी अनोखी बात हुई; वास्तविक जीवन से उनका रिश्ता समाप्त हो गया, चुने हुये लोगों के ‘हरितगृह’ या वैसा ही कुछ में वह जीने लगे ।

एवी : यहीं से हम फिर उस विषय की ओर चलते हैं जिस पर हम पहले चर्चा कर चुके हैं – सोवियत युग में चेकोस्लोवाकिया की जो भी समस्यायें रहीं हों, यह देश निर्णायक तौर पर पूरी दुनिया की दबी-कुचली जनता के साथ थी । चेक एवं स्लोवाक इंजिनियर, डाक्टर, शिक्षकों ने मानवता के लिये अविश्वसनीय काम किया अफ्रिका, एशिया की जनता के बीच… 

एमके : जैसे क्यूबाई कर रहे हैं…

एवी : हाँ, लेकिन अब पीछे मुड़कर देखते हुये लगता है कि कम्युनिस्ट जमाने में जनता की एक बड़ी प्रतिशत वास्तव में पश्चिमी देशों के साथ जुड़ने का सपना देख रही थी एवं अप्रत्यक्ष, यहाँ तक कि प्रत्यक्ष तौर पर भी वैश्विक दमन-यंत्र का हिस्सा बनना चाह रही थी । अब जब इतने सारे प्रगतिशील विक्षुव्ध हावेल की तरह पलट गये हैं, अब जब देश बँट गया है और बँटे हुये दोनों हिस्से स्थायी तौर पर पश्चिमी साम्राज्यवादी व आर्थिक ढाँचों में शामिल हो चुके हैं, यह एक यथार्थ है कि चेक और स्लोवाक प्रजातंत्र बाकी दुनिया के लिये अब कुछ भी सकारात्मक नहीं कर रहे हैं ।

क्या लोग खुश हैं ? क्या यही वे चाहते थे ?

एमके : यहाँ भी ‘विदेशी निवेश’ जनता का शोषण कर रहा है ।

मैं सच में समझ नहीं पाता हूँ कि यहाँ, चेक प्रजातंत्र में जनता के दिमाग में क्या चल रहा है ।

अवश्य ही, ‘समाज के चुने हुये हिस्से’, जिनके पास कुछ सम्पत्ति है, जो व्यापार में तथाकथित तौर पर सफल हैं, जो काफी धनाढ्य बन चुके हैंवे देश की दिशा से बहुत खुश हैं । यही लोग मीडिया के भी मालिक हैं और इस दक्षिणपंथी व्यवस्था को आगे बढ़ा रहे हैं । लेकिन मुझे लगता है कि गरीब जनता अपने इस सपने से जाग रही है कि ‘कि अगर सर्वसत्तावादी व्यवस्था से वे खुद को मुक्ति दिला पायें तो उन्मुक्त जीवन, आनन्दमय अस्तित्व में जीना शुरू कर देंगे’ ।

कोई सपना सच नहीं हो पाया । जनता के अधिकांश के लिये जीवन अभी समाजवादी जमाने से बदतर है ।

एवी : जब आप कहते हैं कि बदतर हैं तो ध्यान में रखना होगा कि चेक प्रजातंत्र आज भी अत्यंत समृद्ध देश है । और अपने नागरिकों के लिये कम से कम, यह देश एक सामाजिक जनवादी सुरक्षाकवच मुहैया करता है… तुलनात्मक तौर पर काफी बेहतर स्तर की नि:शुल्क चिकित्सा सुविधा, नि:शुल्क शिक्षा,अनुदानप्राप्त संस्कृति एवं देश भर में बहुत बढ़िया और सस्ता परिवहन ! तो किस बात की बदतरी ?

एमके : तथाकथित ‘वेल्वेट क्रांति’ के पहले, जनता की शिकायत थी कि उन्हे कुछ खास प्रकार की सूचनायें नहीं मिलती है, खास प्रकार के सांस्कृतिक उत्पाद (फिल्म सहित) नहीं मिल पाते । जब भी चाहें, देश से बाहर जाने की अनुमति उन्हे नहीं मिलती थी, इत्यादि । लेकिन उन्हे इस बात की समझ नहीं हो पाई कि उनके जीवन की मर्यादा, आज से बहुत, बहुत उँची थी । वे समझ नहीं पाये कि जब पूंजीवाद प्रवेश करेगी, वे चिन्ताओं से घिरना शुरु करेंगे, अस्तित्व से जुड़ी गहन चिन्तायें… वे आतंकित रहना शुरु करेंगे कि कभी भी उनकी नौकरी जा सकती है ।

वे अब नौकरी बचाने के लिये जीवन की मर्यादा का व्यापार करनेको मजबूर हैं ।

कम्युनिस्ट जमाने में जितना करना पड़ता उससे कहीं ज्यादा अपने बॉस लोगों का पिछवाड़ा चूमना पड़ रहा है उन्हे ।

यह सब कुछ बहुत दिलचस्प है कि लोगों को उन सुविधाओं की आदत पड़ जाती है, जिन सुविधाओं का जन्म, निर्माण और स्थापना इतिहास में समाजवादी आन्दोलनों के कारण ही हुआ है । और उन सुविधाओं एवं मूल्यों का उपभोग करते हुये वे एक तरह से भूल गये कि…

एवी : उन्होने उन सुविधाओं और मूल्यों को स्वत:स्थित मान लिया ?

एमके : उन्होने उन सुविधाओं और मूल्यों को स्वत:स्थित मान लिया । वे समझ ही नहीं पाये कि उनके पास कुछ श्रेष्ठतम चीजें हैं, उनका जीवन श्रेष्ठ है । अचानक, जब वे उन्हे खोने लगे उन्हे एहसास हुआ कुछ भयानक गलत हो गया । कुछ लोग आज बहुत निराश हैं ।

मैं एक साल अपनी पत्नी के साथ मोराविया में बिताया हूँ ।वहाँ बेरोजगारी की दर देश में सबसे अधिक है । लोगों से बड़ी शिकायतें सुनेंगे आप वहाँ ।

बहुत दिलचस्प है, समाजवादी व्यवस्था से पूंजीवादी व्यवस्था तक का यह सफर । समाजवाद में चेकोस्लोवाकिया सब कुछ बनाया करता था, शाब्दिक अर्थों में सुई से रेल-ईंजन तक ।

एवी : नाभिकीय संयंत्र, हवाई-जहाज, नदी पर चलने वाले बड़े नाव…    

एमके : हाँ ! सब कुछ…नाभिकीय संयंत्र से कपड़ों तक, सारी चीजों का उत्पादन यहाँ होता था । खाद्य यहाँ पैदा होता था । यह देश एक आत्मनिर्भर देश था ।

अब सब कुछ बदल गया है ! सारे राष्ट्रीय उद्योग गायब हो गयेहैं । या तो बेच दिया गया है या चुरा लिया गया है उन…

एवी : या दर्जा नीचे गिरा दिया गया है । हवाईजहाज उद्योग खत्म हो गया है; कारखाने जो पूरी दुनिया में रेल-इंजनों का निर्यात करते थे, पश्चिमी बहुराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा खरीद लिये गये हैं और अब उन कारखानों में रेल के डिब्बे बनते हैं…

एमके : हाँ… सब कुछ जैसे गायब हो गया है । और जैसे जैसे निजीकरण होता गया, उत्पादन पूरब की ओर चला गया, तथाकथित पश्चिमी ‘निवेश’ देश के अन्दर आ गया – पैदा हुये‘गुलाम श्रमिक’, उत्पादन के लिये विशाल हॉल जहाँ लोग चार्ली चैपलिन के फिल्मों की तरह काम करते हैं, जैसा ‘मॉडर्न टाइम्स’ में दिखाया गया था ।

तो यह सचमुच दुखद है कि ‘आजादी’ शब्द का अर्थ समझने में जनता ने गलती की ।

एवी : क्या आप सुझा रहे हैं कि आज से लगभग तीस साल पहले यहाँ ज्यादा आज़ादी थी ?

एमके : निर्भर करता है, किसके लिये । लेकिन बोस्टन में टफ्ट्स विश्वविद्यालय के मेरे छात्र जब मुझसे पूछते थे कि मै कब सबसे अधिक आज़ाद महसूस करता था तो मैं हमेशा उनसे कहा, “चेकोस्लोवाकिया में सर्वसत्तावादी व्यवस्था के दौरान !”

एवी : या, और सही होगा कहना, “सर्वसत्तावादी व्यवस्था के दौरान”…

हम चीन में भी अभी यही पाते हैं । आपने चीन में अपनी प्रस्तुति दिये, और मेरे काम भी अक्सर यहाँ दिखाये जाते हैं ।

कई तरीके से, पश्चिम की तुलना में कलाकार ज्यादा आज़ाद हैं चीन में । बेजिंग में कलाकार ज्यादा महत्वपूर्ण मुद्दों पर काम करते हैं और लन्दन या न्यूयॉर्क में काम करने वाले कलाकारों से ज्यादा जबर्दस्त प्रभाव डालते हैं समाज पर ।

एमके : हाँ, यह तो मैं अपने अनुभव से जानता हूँ । चार साल पहले बेजिंग में कृत्य-कला का एक बड़ा उत्सव मेरे संरक्षण में हुआ था । मैं आश्चर्यचकित था कि कुछ प्रदर्शन कितने गहन रूप से सत्ता की आलोचना कर रहे थे । जबकि हम पश्चिमी प्रचार मीडिया में पढ़ते हैं कि कम्युनिस्ट चीन सेन्सर करता है, आलोचना की आवाज उठाने वाले लोगों को जेल में डाल देता है आदि आदि । जबकि जो कुछ मैने यहाँ पाया वह बिल्कुल ही भिन्न था।

एवी : चेकोस्लोवाकिया के मेरे अपने अनुभवों से भी… मैं इन विन्दुओं को सुत्रबद्ध करने की कोशिश कर रहा हूँ… चेकोस्लोवाकिया में जैसा कि आपने पहले जिक्र किया, लोग कुछप् रकार सूचनाओं के तत्काल नहीं मिल पाने की शिकायत किया करते थे । लेकिन साथ ही,कम्युनिस्ट चेकोस्लोवाकिया में सूचनायें मायने रखती थी । आज के दिन, पश्चिम-समर्थक और पूंजीवादी चेक प्रजातंत्र में सूचनायें बहुत कम मायने रखती हैं, और सूचनायें उपलब्ध होने पर भी, वास्तविक तौर पर लोग बहुत कम बदलाव लाने में सक्षम हैं ।

एमके : समाजवादी, या पश्चिम जैसा कहता है, ‘सर्वसत्तावादी’ व्यवस्था में लोग शिकायत करते थे… हम शिकायत करते थे, लेकिन हमेशा रास्ते होते थे उन सूचनाओं तक पहुँचने के लिये जो हम पाना चाहते थे । और उन्हे जुटाने में हम खूब तत्पर रहते थे। और जो सूचनायें मिलती थीं उसका मूल्य होता था हमारे लिये, हम उनका अध्ययन करते थेउस पर शोध करते थे । और हमारे पास काफी वक्त होता था । समाजवादी व्यवस्था में समय की वास्तविक दौलत होती थी हमारे पास । आप किताबें पढ़ते हुये, संगीत सुनते हुये, फिल्मे देखते हुये आनन्द ले सकते थे…

एवी : और कभी कभी काम की जगह पर भी, क्यों कि लगता है कि बहुत कड़ी मेहनत कोई नहीं करता था ।

[दोनों हँसते हैं]

एमके : अरे, तो जीवन का अर्थ किसी प्रकार का दास-श्रम तो नहीं, क्या ? सैद्धांतिक तौर पर, जीवन के गुणवत्ता को बढ़ाना दर-असल समाजवादी या साम्यवादी व्यवस्था का हिस्सा हुआ करता था । इस तरह उस व्यवस्था का जोर, जीवन के गुणवत्ता पर था न कि भोग किये जा रहे चीजों के परिमाण पर ।

दूसरी ओर, पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था ‘बाज़ार’ पर आधारित है। इसके सिद्धांतकार कहते हैं कि यह व्यवस्था कहीं ज्यादा सामान मुहैया कराती है । चीजें, जैसा कि आप जानते हैं - हाँ, लेकिन उसकी कीमत यही है कि जीवन की गुणवत्ता नाटकीय तरीके से कम हो जाती है ।

एवी : आपके पास तीन गाड़ियाँ होती हैं, पाँच फोन… लेकिन वास्तव में उनकी जरूरत नहीं होती आपको ।

एमके : आपको जरूरत नहीं होती और आपके पास जीने का समय नहीं होता । आप निरन्तर अपनी नौकरी या रोजगार खोने को लेकर या दूसरी बातों को लेकर आतंकित रहते हैं ।

एवी : तो आप लड़ते हैं इन तमाम बातों के खिलाफ और अपनी कला, अपनी प्रस्तुतियों के माध्यम से पूंजीवाद में जीवन की मूर्खताओं पर हमला बोलते हैं । आप धार्मिक मतांधताओं पर भी हमला बोल रहे हैं । धार्मिक मतांधतायें, जो घनिष्ठ तौर पर जुड़ी है इन बातों से – ये सत्ता, शोषण, अत्याचार…; और आप साम्राज्यवाद पर हमला बोल रहे हैं । कैसी प्रतिक्रियायें मिलती है आपको सारी दुनिया से ? क्योंकि आप की प्रस्तुतियाँ सिर्फ यहाँ तो नहीं होती, संयुक्त राज्य अमेरिका में, पूरे योरप में, चीन में, इजरायल और कई अन्य जगहों में आप अपनी प्रस्तुतियाँ लेकर जाते हैं – क्या किसी शून्य स्थान को आप भर रहे हैं ? क्या आपको लगता है कि लोग ऐसी कला, ऐसी राजनीतिक और जुझारू प्रस्तुतियों के लिये बेचैन रहते हैं ?

एमके : लगता है । मुझे बहुत सकारात्मक प्रतिक्रियायें मिली हैं; वास्तव में यही तथ्य मुझे प्रेरित करता है । कभी कभी लोग सड़क पर आ जाते हैं मेरे करीब और बोलते हैं, “आपकी कला अद्भुत है । तरह तरह की मूर्खताओं के खिलाफ हमारी जागरुकता को बढ़ाती है यह कला !” मैं जानता भी नहीं हूँ कि कितने लोगों पर मेरी प्रस्तुतियों का प्रभाव है…

मेरी प्रस्तुतियाँ, मेरी कला – ये भी तथाकथित ‘दूसरी संस्कृति’ के उपज हैं । कला का एक ऐसा रूप है जिसमें अधिक पैसों की जरूरत नहीं होती । इन्हे पेश करने के लिये थियेटर जैसी स्थायी जगहों की जरूरत नहीं होती । यह कला का ऐसा रूप है जिसमें मुख्यत: आपको अपने शरीर का इस्तेमाल करना पड़ता है और आपका शरीर हमेशा आपके पास होता है काम करने के लिये । खुद जीवन के सन्दर्भ में ये प्रस्तुतियाँ की जाती हैं, सड़कों या रेल-स्टेशनों पर । तो आप इस जीवन का हिस्सा होते हैं, और आप परिस्थितियों का सृजन करते हैं, किसी बात पर जागरुकता को बढ़ाते हैं, किसी बात की आलोचना करते हैं… और तब वास्तविक जनता प्रतिक्रियायेँ देने लगती हैं… आपके चारों ओर लोग प्रस्तुति में भाग लेने वाले बन जाते हैं… दर्शक से भाग लेने वाले बन जाते हैं वे… जबकि वास्तविक थियेटर में अभिनेता होता है और दर्शक, और वह ‘पाँचवी दीवार’ होती है जैसा कि लोग कहते हैं । मेरी प्रस्तुतियों में कोई दीवार नहीं होता । प्रत्यक्ष कला है यह । कला और जीवन का मेल है ।

मैं हमेशा बोलता हूँ : थियेटर में अभिनेता छल करता है कि वह दर्द महसूस कर रहा है, जबकि मेरे जैसा प्रस्तुतिकर्त्ता वास्तविक तौर पर, यथार्थ में दर्द का अनुभव करता है ।

कृत्य-कला [पर्फॉर्मेंस आर्ट] वास्तव में अद्भुत है । मानवजाति की शुरूआत से ही यह यहीं थी ।

एवी : मिलान, दुनिया के कई भागों में आप सीधी कार्रवाई कर रहे हैं । फिलस्तिनियों के साथ उनके रवैये के लिये आप इजरायल पर हमला बोलते रहे हैं । रोमा जनता के साथ किये जाते व्यवहार के लिये आप चेक पर भी हमला बोलते रहे हैं । लगभग अकेले ही आपने उस शर्म की दीवार को तोड़ने में मदद की जिसे उस्ति नाद लाबेम में खड़ा किया गया था श्वेत चेक और जिप्सी/रोमा लोगों को अलग रखने के लिये… मानवता के खिलाफ इसाईयत द्वारा किये गये अपराधों को रेखांकित करने के लिये आप गिर्जा में पादरियों के सामने कच्चा गोश्त फेंक रहे हैं । आप शॉपिंग सेन्टर और मॉल मे जबर्दस्ती प्रवेश कर मैमन के भगवान (धनलोलुपता के देवता) के प्रति छद्म-प्रार्थना कर रहे हैं । आप बहुत कुछ कर रहे हैं जो दूसरे लोग करने की हिम्मत नहीं करेंगे । आप कभी गिरफ्तार हुये, धमकी दी गई आपको या हमले किये गये आप पर ?

एमके : हाँ, कई बार ! कई बार गिरफ्तार किया जा चुका हूँ मैं । अदालत का भी सामना करना पड़ा है मुझे, जब मैं बॉस्टन में वह मशहूर प्रस्तुति की थी, बंधकी ॠण घोटाले की शुरूआत में । जब बैंक गरीबों को वह ॠण बेच रहे थे और गरीब बंधक छुड़ा नहीं पाने के नतीजे में आत्महत्या कर रहे थे । तो मैंने एक प्रस्तुति बैंक ऑफ अमेरिका के प्रधान कार्यालय के सामने करना तय किया; वह बैंक सबसे घृणित, जनता को ठगने वाली संस्था थी उस वक्त…। तो मैंने बैंक के सामने कुछ फाँसी के फन्दे रख दिये और एक बोर्ड लगा दिया ‘फन्दों की दुकान’ । मेरा संदेश था, अगर आप यहाँ ॠण के लिये आवेदन करते हैं तो एक फन्दा भी खरीद लिजियेगा ।

एवी : शायद जरूरत पड़ जाय…

एमके : शायद जरूरत पड़ जाय ! पर पुलिस आई, उन्होने मुझे गिरफ्तार किया । काफी संगीनता से लिया उन्होने इस जुर्म को ! शहर ने मेरे खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किये और महीनों तक मुझे अदालत की सुनवाई में उपस्थित रहना पड़ा । मुकदमा था, ‘बॉस्टन का शहर और मिलान कोहूत’ । 150 साल पुराना एक कानून उठा लाये वे, जिसमे लिखा था कि आप किसी बैंक के सामने यह सामान नहीं बेच सकते । 150 सालों में यह कानून पहली बार इस्तेमाल किया जा रहा था । लेकिन स्पष्ट था कि वे मेरे खिलाफ कुछ ढूंढ़ने की कोशिश कर रहे थे… अन्तत: मेरी रिहाई हुई । खूब मीडिया का ध्यान खींचा मेरा मुकदमा, नैशनल पब्लिक रेडिओ भी शामिल थी उनमें ।

एवी : मिलान, हम दोनों पूरी दुनिया के चप्पे चप्पे में खूब घूम रहे हैं । पश्चिमी साम्राज्यवाद से पैदा हो रहे खतरों को आप स्पष्टत: देख रहे हैं । क्या आप खतरे को गंभीरता से लेते हैं ? क्या आप मानते हैं कि पश्चिमी साम्राज्यवाद ग्रह के नियंत्रण की ओर बढ़ रहा है; और यह एक ऐसी सच्चाई है जिसके त्रासद परिणाम होंगे ?

एमके : नि:सन्देह ! मैं संयुक्त राज्य अमेरिका में 26 साल रहा हूँ । मैंने वह अवधि देखी है जब संयुक्त राज्य अमेरिका की प्रभुसत्ता बहुत आक्रामक हो उठी थी । मेरी समझ बनी कि यह आक्रामकता बहुत तर्कसंगत थी एवं पूर्वी ब्लॉक के विघटन से जुड़ी थी । जब कम्युनिस्ट ब्लॉक बिखर गया, पश्चिम के सामने अचानक कोई विरोधी-पक्ष नहीं रहा । विरोधी-पक्ष के बिना एक बड़ा शून्य पैदा हुआ अचानक, और तुरन्त उन्होने उस शून्य को अपने आक्रामक व्यवसायिक हितों से भर दिया, क्योंकि यह स्पष्ट है कि ‘पिरामिड के शीर्ष’ पर एक आर्थिक तानाशाही कायम है । अचानक उनके सामने एक जबर्दस्त अवसर आया लाखों करोड़ लोगों को गुलाम बनाने का । और उन्होने बनाया गुलाम !

एवी : और यह देश – चेक प्रजातंत्र – जहाँ बैठकर हम दुनिया के बारे में बातचीत कर रहे हैं इस समय, अचानक इस पश्चिमी शासनतंत्र का हिस्सा बन गया… अब यह देश फिर उनका साझेदार है ।

एमके : बेशक…

एवी : यह अब शिकार नहीं है, जैसा कि पहले यह खुद को दिखाना चाहता था… यह अत्याचारियों के समूह का हिस्सा है । क्या लोग इस बात को समझते हैं ? कोई चर्चा, कोई वादविवाद – इस मसले पर ?

एमके : मैं प्रसन्न हूँ यह कहते हुये कि कुछ लोग, अकादमीय क्षेत्र से भी, यह समझना शुरू कर चुके हैं । पर यह बिल्कुल हाल का घटनाक्रम है । इस बीच, यह आक्रामक पूंजीवादी शासनतंत्र उत्पादन के लगभग सभी साधनों को और जनसंचार माध्यमों को अपने कब्जे में कर चुका है । जैसे वयस्कों के, वैसे ही बच्चों के दिमाग को कब्जे में कर रहे हैं वे । वे उन्हे कम्युनिस्ट युग के बारे में विकृत झूठ बताकर स्थाई तौर पर आतंकित कर रहे हैं, और वे कच्चे दिमाग नि:सन्देह विश्वास करते हैं उन बातों को क्योंकि वही एकमात्र सूचनायें हैं जो उन्हे मिलती है । और इन बच्चों और युवाओं का दिमाग इतना अधिक कब्जे में है दुष्प्र्चार के कि विश्वास नहीं होता ! ऑरवेल [जॉर्ज ऑरवेल] की तरह कुछ अंधमत खड़े किये गये हैं इन प्रचारों के माध्यम से, जैसे, ‘कम्युनिस्ट युग में सभी लोग भूरे कपड़े पहनते थे और धीरे धीरे भूतों की तरह सड़कों पर चलते थे’… पूरा बकवास ! बिल्कुल ही ऐसा नहीं था उन दिनों ! क्योंकि कम्युनिस्ट युग में जीवन के कई पहलू आज से ज्यादा उन्मुक्त थे !

एवी : और जीने के मज़े थे आज से अधिक…

एमके : अधिक मज़े थे ! जीवन की गुणवत्ता, जैसा हमने पहले ही जिक्र किया, बहुत उँची थी, खास कर इस पूंजीवादी गुलामी की तूलना में !

एवी : लेकिन अब एक वैश्विक विरोधी-पक्ष है; देशों का एक गँठजोड़ जो पश्चिम से थोपी गई नीतियों का प्रतिरोध कर रही हैं; उनमें लातिनी अमेरिका है, रूस है, चीन है, दक्षिण अफ्रिका है, इरान है और एरिट्रिया जैसे छोटे देश भी हैं । और यह विरोधी-पक्ष काफी ताकतवर होता जा रहा है, क्योंकि यह बड़े दिमागों से एवं बढ़ती ताकत की मीडिया से टक्कर ले रहा है । हम दोनों उस विरोधी-पक्ष में शामिल हैं । क्या यहाँ, चेक प्रजातंत्र में, और पोलैन्ड में भी, जहाँ आप अक्सर पढ़ाने जाते हैं, लोग समझते हैं कि पश्चिम के साथ शामिल होकर उनकी यात्रा का अन्त इतिहास के गलत तरफ में हुआ ?

एमके : कुछ लोग शायद समझ चुके हैं अब तक, पर बहुसंख्यक लोग नहीं ।

लेकिन कला की ओर वापस लौटते हुये: इस जागरुकता को पैदा करने के काम को कलाकारों का कार्यभार बनाना कला का कर्तव्य है । जनता को सीखाना कलाकारों का काम है । कलासृजन की सौन्दर्यशास्त्रीय, परिचयात्मक एवं अवधारणात्मक भंगिमा भाड़ में जाये ! आइये हम जुझारू, राजनीतिक कला का सृजन करें, क्योंकि बहुत जरूरत है उसकी आज । अभी उम्मीद बाकी है कि पिछले 30 सालों से चल रहे इस विनाश को पलटा जा सकता है । हमारे लिये आज की लड़ाई इस धरती पर इन्सान के बचे रहने की लड़ाई है !   

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Monday, November 21, 2022

আমাদের, মানে লালঝান্ডাওয়ালাদের স্বামীজি

স্বামীজি তো হাজারে হাজারে আছেন। কিন্তু স্বামীজি বলতেই যে একজনের ছবি চোখের সামনে ফুটে ওঠে সেটি বিবেকানন্দের। সেটাই স্বাভাবিক। তাঁর ধারে কাছে তো আর একজনও নেই যিনি আধ্যাত্মিক আলোয় দেশকে ব্যাখ্যা করতে গিয়ে বাস্তবিক ভারতবর্ষের জ্বালাময় সামাজিক দ্বন্দ্বগুলোকে চাপা দিতে চান নি, এড়িয়ে যেতে চান নি, আধ্যাত্মক পথে সমাধানের কথা বলেন নি বরং যখনই প্রয়োজন বুঝেছেন, আধ্যাত্মিক ভাষা থেকে সরে এসে কঠোর বস্তুবাদীদের মত সেই দ্বন্দ্বগুলোকে সামনে তুলে ধরেছেন এবং আধ্যাত্মিক আলোর মায়ায় হারিয়ে যেতে চাওয়া আধুনিক কুলীনদের থেকে অনেক বেশি প্রভাবিত করেছেন সেই তরুণ প্রজন্মদের, যারা ওই দ্বন্দ্বগুলোর বাস্তবিক সমাধানের জন্য সচেষ্ট হয়েছে।

তবুও সেটা একটি গতিপথ বা আবক্রপথ। একটি ঐতিহাসিক মুহূর্ত থেকে আরেকটি ঐতিহাসিক মুহূর্তে পৌঁছোবার। উনবিংশ শতকের সমাজসংস্কার থেকে, অথবা উনবিংশ শতকের ব্রাহ্ম আন্দোলন থেকে, অথবা উনবিংশ শতকের ভক্তি-অধ্যাত্ম থেকে বিংশ শতকের জাতীয়তাবাদ – একটি গতিপথ। জাতীয়তাবাদ থেকে শ্রেণী সংগ্রাম – দ্বিতীয় গতিপথ; দ্বিতীয় থেকে তৃতীয় ঐতিহাসিক মুহূর্তে পৌঁছোবার। 

বিবেকানন্দ একজন হলেও প্রথম গতিপথের পথিক বেশ কয়েকজন ছিলেন। তাঁর আগে স্বামী দয়ানন্দ সরস্বতীও ছিলেন, আবার জালিয়াঁওয়ালা বাগের দিনগুলোয় বিস্ময় জাগিয়ে তোলা স্বামী প্রজ্ঞানন্দও ছিলেন। আবার উল্টো গতিপথে যাওয়া – জাতীয়তাবাদ থেকে অধ্যাত্ম – মানুষেরাও ছিলেন। এক জীবনে দুটো গতিপথ পেরুন – অধ্যাত্ম থেকে জাতীয়তাবাদে পৌঁছে আবার জাতীয়তাবাদ থেকে শ্রেণীসংগ্রামে পৌঁছোন – মানুষ একজনই ছিলেন। স্বামী বিবেকানন্দের ছাব্বিশ বছর পর পূর্ব উত্তরপ্রদেশে জন্ম হলেও তাঁর সম্পূর্ণ কর্মজীবন কেটেছে বিহারে। তিনি সারা ভারত কিসান সভার সংস্থাপক সভাপতি স্বামী সহজানন্দ সরস্বতী। 

বিভিন্ন বাংলা খবরের কাগজের বিহার সংবাদদাতারা এবং মাঝে মধ্যে চাকরিসূত্রে বিহারে কিছু বছর কাটিয়ে যাওয়া বামপন্থী খবরাখবর রাখা বাঙালিরা নাক সিঁটকে বলতে পারেন – স্বামী সহজানন্দ? সেই যিনি ভুমিহার আন্দোলনের নেতা ছিলেন? ওনাদের জন্যই তো বিহারের সবকটা বামপন্থী পার্টির নেতৃত্বে ভুমিহারদের বোলবালা! … 

হ্যাঁ স্যার, সেই সহজানন্দ! ভূমিহার উত্থানের তথাকথিত সূত্রধার। 

স্বামী সহজানন্দ সরস্বতীর জন্মতারিখ উইকিপিডিয়ায় পাবেন ২২শে ফেব্রুয়ারি ১৮৮৯। সে বছর সেদিনই নাকি মহাশিবরাত্রি ছিল এবং গ্রামীণ রীতি অনুসারে শিশুটির কানে বার বার একথাটিই যেত যে মহাশিবরাত্রিতে তার জন্ম। কাজেই স্বামীজি নিজেও ঐ দিনটাকেই নিজের জন্মদিন মানতেন। এখনও তাঁর অনুযায়ী এবং বামপন্থী কৃষক সংগঠনেরও একাংশ, ঐ দিনটাকেই তাঁর জন্মদিন হিসেবে পালন করে, সেটা যে বছর যে তারিখেই পড়ুক। পূর্ব উত্তর প্রদেশের সেই এলাকায় তাঁর জন্ম হয়েছিল যেটা এখনও ভূমিহার অধ্যুষিত – জেলা গাজিপুর। তার ওপর সহজানন্দের ভিতরে ছিল ব্রাহ্মণত্বের অহঙ্কার, কেননা অধিকাংশ জাত্যাভিমানী ভুমিহার আজও নিজেদের ব্রাহ্মণ ভাবে। তা ছাড়া তাঁর প্রতিপালনও সেভাবেই হয়েছিল। তিনি নিজেই পরে লিখেছেন, “ … পুজো এবং পুজারি শিক্ষকদের সংসর্গে থাকার কারণে বলুন আর গ্রামবাসীদের প্রবৃত্তির প্রভাবে বলুন, আমি চিরকাল সনাতনী থেকেছি। এর গভীর প্রভাব যে সে সময় মনের ওপর পড়েছিল তা মোছেনি। যদিও আগের মত গোঁড়ামি আর নেই এবং পরে আমি ধর্মের শুধু সেই সব কথাগুলো সবসময় মেনেছি, যেগুলো বুদ্ধি দিয়ে মানতে পেরেছি। এটা সত্যি যে এখনো অব্দি সেই সনাতনপন্থার কিছু না কিছু প্রভাব রয়ে গেছে।”

পরিবারের কিছুটা জমিদারিও ছিল কিন্তু তাতে খাইখর্চা মিটত না, তাই প্রজাস্বত্বে জমি নিয়ে চাষও করতে হত। সহজানন্দের মা মারা যান তার তিন চার বছর বয়সে। তিনি মায়ের শেষ সন্তান। মায়ের ওপরে তাঁর এক বোন ছিল এবং তাঁদের দুজনের বিয়ে হয়েছিল সহজানন্দের বাবা ও জ্যাঠামশাইয়ের সাথেই। কাজেই শিশুটি মাসির কাছেই মানুষ হয়েছিল। সন্ন্যাস গ্রহণের আগে অব্দি, জন্মসূত্রে তাঁর নাম ছিল নওরঙ রায়।  

শৈশব থেকেই তাঁর মধ্যে বৈরাগ্যের একটা ভাব ছিল। তাঁর আত্মজীবনীতে তিনি লিখেছেন যে গ্রামের বুড়িরা তাঁর বিষয়ে বলত – ছেলেটার হৃদয় যেন পাথর; মা মরল, সবাই কাঁদছে আর এ? বলে কিনা, মা তো মরেই গেছে, কেঁদেকেটে কি আপনারাও মরে যাবেন? খেলাধুলো বা দুষ্টুমিতেও বালক নওরঙের মন বসত না। যা হোক, ছেলেটি বুদ্ধিমান দেখে তাকে স্কুলে ভর্তি করা দেওয়া হল। ভালোভাবে পড়াশুনো করছিলেন। কিন্তু কোনো কোনো শিক্ষকের প্রভাবে পুজোপাঠও বেড়েই চলেছিল। ছেলের অবস্থা দেখে পনের বছর বয়সেই পরিবারের লোকেরা ধরে বেঁধে তাঁর বিয়ে দিয়ে দিল। অবশ্য তিনি নিজেই বলছেন যে মনে বৈরাগ্যের ভাব থাকলেও যে বিয়েতে তাঁর অনিচ্ছে ছিল এমন নয়। তেমন হলে তিনি নিশ্চয়ই বিরুদ্ধে যেতেন। কিন্তু যাননি। অথচ ভাগ্যের পরিহাস, যে দু’বছরের মধ্যে সে স্ত্রীর মৃত্যু হল। তাঁর মনে হল এটাই প্রশস্ত সময়। স্ত্রী বেঁচে থাকলে সন্ন্যাস নিতে পারতেন না, কেননা স্ত্রী-সন্তানের দায়িত্ব ভুলে সন্ন্যাস নেওয়া মহাপাপ, তিনি জানতেন।

১৯০৬ সালের গরমের ছুটির পর গাজিপুরের স্কুলে ফিরলেন (তখন পড়াশুনোর জন্য গাজিপুরেই একটি শিবমন্দিরে থাকতেন) আর একদিন, বেনারসের টিকিট কেটে ট্রেনে চাপলেন। জুলাইয়ের শুরু। তিনি জানতেন চাতুর্মাস্যে সন্ন্যাসগ্রহণে বাধা, কাজেই শিগগির, কয়েকদিনের মধ্যেই ব্যাপারটা সেরে ফেলতে হবে। বেনারস থেকে হরিদ্বারের টিকিট পেলেন না। তখন লখনউএর টিকিট কেটে এগোলেন। লখনউ থেকে হরিদ্বারের টিকিট কেটে ট্রেনে চাপলেন কিন্তু সকালের নিত্যকর্মাদি সারতে কাকোরিতে নেমে পড়লেন। ভাবলেন পরের ট্রেন ধরে যাবেন। কিন্তু সেখানেই মনে ভয় জন্মাল। যদি চাতুর্মাস্য এসে গেছে বলে সন্ন্যাস না নিতে পারেন আর বাড়ি না ফিরলে সাড়া পড়ে যায় যে ছেলে সন্ন্যাস নিতে পালিয়েছে? তখন তাঁকে আর বাড়ি ছেড়ে একা বেরুতে দেওয়া হবে না। সব পন্ড হবে। 

ফিরে এলেন। ম্যাট্রিকের পরীক্ষা আসছে। স্কুলে শিক্ষকেরা সবাই ভাবছিলেন, ব্যস ইংরিজিটা আরেকটু ভালো করে নিলে, ছেলেটির যা মেধা আছে, ও ম্যাট্রিকে ফার্স্ট হবেই হবে। ওদিকে নওরঙ দেখছিলেন আগের বৌয়ের ছোটবোনের সাথে তাঁর দ্বিতীয় বিয়ের তোড়জোড় চলছে বাড়িতে। কাজেই, ঠিক পরীক্ষার আগে, ১৯০৭ সালের ফেব্রুয়ারি মাসে কাশীতে একটি মঠে গিয়ে সন্ন্যাস নিয়ে নিলেন। নাম হল সহজানন্দ। 

তারপর যা হয়, হল। সাড়া পড়ে গেল। খবর পৌঁছোল গ্রামে। পরিবারের লোকেরা এসে তাঁকে অনেক অনুরোধ-উপরোধ করে গ্রামে ফিরিয়ে নিয়ে গেল। কান্নার রোল পড়ে গেল বাড়িতে। সবাই ভাবছিল বুদ্ধিমান, লেখাপড়া শেখা ছেলে, ভালো চাকরি করে সবার দৈন্য ঘোচাবে – সে সব আশা জলে গেল। লুকিয়ে লুকিয়ে পরিকল্পনা করা হল জবরদস্তি গেরুয়া খুলিয়ে সন্ন্যাস ভেঙে দেওয়া হবে, নষ্ট করে দেওয়া হবে – হল না। পরিবারের হিসেবে পন্ডিত, শাস্ত্রজ্ঞানী ব্যক্তিদের নিয়োজিত করা হল, তারা যুক্তি দিয়ে বোঝাবে – পারল না। সহজানন্দ বাড়ি ছেড়ে চলেই গেলেন আবার।

এরপরের ঘটনাগুলো সংক্ষেপে সারছি। কেউ জানতে চাইলে তাঁর আত্মজীবনীর বাংলা অনুবাদ ‘আমার জীবনসংগ্রাম’ পড়তে পারেন, আমিই করেছি, আমার ব্লগে আছে। 

সন্ন্যাস নেওয়ার কিছুদিন পর উনি ভ্রমণে বেরিয়ে গেলেন। কখনো এক সন্ন্যাসী বন্ধুর সাথে, কখনো একা উনি হরিদ্বার, হৃষীকেশ, কেদার, বদ্রী থেকে মধ্যভারতে উজ্জৈন অব্দি নানা জায়গা পদব্রজে বা ট্রেনে চষে বেড়ালেন। উদ্দেশ্য ছিল কোনো গুরুর কাছে ভালো করে প্রাণায়াম ও যোগাভ্যাস শেখা। সাংসারিক কাজের প্রতি তীব্র অনীহায় যোগাভ্যাস, ধ্যান, সমাধি, বেদান্তচিন্তন … এসবকেই আসল কাজ ভাবতেন। মাঝে মধ্যে কিছুদিন কোথাও, কোনো মঠে, কোনো আচার্য্যের কাছে অধ্যয়নে ব্যাপৃত হতেন। এক সময় দন্ডগ্রহণ করার অধিকারপ্রাপ্ত হয়ে দন্ডী হলেন। দিনের পর দিন মাধুকরীর পথে ঘরে ঘরে ভিক্ষে চেয়ে অন্ন জোটাতেন এবং সেই অন্নই দিনে একবার, স্বপাকে গ্রহণ করতেন। কিছু দিন মঠে অধ্যয়ন আর বিশ্রামে কাটিয়ে, আবার সঙ্গী পেয়ে চলে গেলেন গুজরাত। ফিরে এসে গেলেন মিথিলা। সাত বছর এই সন্ন্যাস জীবনে কেটে গেল।

কাশীতেই ছিলেন যখন কয়েকজন সন্ন্যাসী তাঁকে বালিয়ায় অনুষ্ঠিতব্য ভুমিহার ব্রাহ্মণ মহাসভায় যেতে রাজি করালেন। সেখানেই তিনি প্রথম দেখলেন ও জানলেন যে তিনি নিজে যদিও আশৈশব ভূমিহার ব্রাহ্মণ শব্দজোটটাকে ঠিক তেমনই ভেবে এসেছেন যেমন কনৌজিয়া ব্রাহ্মণ, সরযুপারি ব্রাহ্মণ, মৈথিল ব্রাহ্মণ ইত্যাদি, সাধারণভাবে এখানে ভুমিহার ব্রাহ্মণ অর্থ ‘পতিত’ ব্রাহ্মণ। এবং তাঁর অবাক লাগল যে দুস্থ, গরীব ভুমিহার নিজেদের নানারকম সামাজিক ও ধার্মিক ক্রিয়াকর্মে ব্রাহ্মণ পুরোহিতদের খাইখর্চা মেটাতে নিজেদের সর্বস্বান্ত করে দেয়। এর আগেই সন্ন্যাসী হয়ে, স্থানে স্থানে ঘুরে তিনি গুরুবাদের ভন্ডামি দেখেছেন, শাস্ত্রার্থের নামে ভন্ডামি দেখেছেন, যোগীদের ভন্ডামি দেখেছেন … এখানে ভুমিহারসভায় গরীব ভুমিহারদের অবস্থা দেখে শুরু করলেন ভুমিহারদের পুরোহিত হওয়ার অধিকারের আন্দোলন। এটাই তাঁর জীবনে তোলা প্রথম সামাজিক আন্দোলনের আহ্বান এবং তাতে অংশগ্রহণের ঘটনা ছিল। তিনি বললেন যে যেকোনো গৃহী ভুমিহার নিজেদের সামাজিক ও ধার্মিক ক্রিয়াকর্মে নিজেরাই পুরোহিত হতে পারে। কাউকে ডাকার দরকার নেই। শুধু সেই সভাতেই নয় অন্যত্র ঘুরে ঘুরেও কথাটা প্রচার করলেন। এও বললেন যে ব্রাহ্মণদেরও পুরোহিতই হতে হবে এমন কোনো কথা নেই। তারা চাষবাসও করতে পারে; শাস্ত্রে কোথাও কোনো বাধা নেই। এসব নিয়ে বই লেখাও শুরু করলেন, ছাপল, এবং প্রচারিত হল সেসব।

অজান্তেই উনি মৌচাকে ঢিল ছুঁড়ছিলেন। একসঙ্গে দু’তিন জায়গায়। প্রথমতঃ পুরোহিত হওয়ার একচ্ছত্র অধিকারকে চ্যালেঞ্জ জানানর অর্থ হল জাতিপ্রথা ও ব্রাহ্মণবাদের ওপর হামলা। এটা প্রথম। কিন্তু এ থেকে বড় হল স্থিতাবস্থার সমর্থকদের ওপর হামলা। ওই মহাসভায় গরীব, দুস্থ ভুমিহারদের ভীড় থাকলেও নেতৃত্বে তো ছিল বড়, ধনাঢ্য জমিদার, অধিপতি রাজা ও রাজন্যেরা। তাদের টনক নড়ল। স্থিতাবস্থায় হামলা হলে তাদের শাসনের সমীকরণ বিপন্ন হবে। তারা নড়ে চড়ে বসল। তৃতীয় মৌচাকটা সহজানন্দের ভিতরেই ছিল। সন্ন্যাসে জ্ঞান ও ঈশ্বরপ্রাপ্তির সাধনা। সামাজিক আন্দোলনে বড় ভাবে অংশগ্রহণ করার কারণে তার বহিরাবরণটা সরে গেল। 

তিন-চার বছর ভুমিহার ব্রাহ্মণ আন্দোলনের সঙ্গে বিভিন্ন ভূমিকায় থেকে (এবং তাঁর নিজের কথায়, ধনাঢ্য ভুমিহারদের খপ্পরে পড়ে শেষের তিন বছর নষ্ট করে) বন্ধুবান্ধবদের অনুরোধে উনি ইংরেজি পড়া শুরু করলেন আবার। ভিতটা পোক্ত হল। নিয়মিত খবরের কাগজ পড়তে শুরু করলেন। ১৯২০র জুলাইয়ে বাল গঙ্গাধর তিলকের মৃত্যু তাঁকেও আঘাত করল। খিলাফত আন্দোলনের ক্রমে অসহযোগের প্রশ্নে মতবিরোধে তাঁর গান্ধিজি কে ঠিক আর মালবীয় ও অন্যান্যদের ভুল মনে হল। সে বছরই পাটনায় ডিসেম্বরে এলেন গান্ধিজি এবং কংগ্রেসের অন্যান্য নেতারা। 

স্বামীজি লিখছেন জালিয়াঁওয়ালা বাগের ঘটনার বিরুদ্ধে অসহযোগের ডাক দিতে। এতে বোঝা যায় সেই ঘটনার প্রভাব স্বামিজির মনেও পড়েছিল। সভায় নিয়মিত গিয়ে সব নেতাদের ভাষণ শুনলেন। এবং শেষে সিদ্ধান্ত করলেন যে গান্ধিজির সঙ্গে মুখোমুখি কথা বলা দরকার। সে সুযোগও এল। কথা বললেন। সন্ন্যাস নিয়ে, রাজনীতি নিয়ে, গীতা প্রসঙ্গে … অনেকক্ষণ। বার্তালাপ শেষে তাঁর মনে হল এক্ষুণি রাজনীতিতে ঝাঁপিয়ে পড়া উচিৎ। আত্মজীবনীতে উনি লিখছেন, “এজন্য নয় যে দেশের উপকার হবে। বরং একন্য যে তাহলেই আমি সাচ্চা সন্ন্যাসী হতে পারব। এখন তো আমি কাঁচা।” এবং কিছুদিনের মধ্যেই সহজানন্দ রাজনীতিতে যোগ দিলেন। নাগপুর কংগ্রেসে অংশগ্রহণ করার পর বিহারকেই নিজের কার্যক্ষেত্র করলেন। প্রথম অসহযোগ সংগঠিত করলেন বক্সারে। জেলে গেলেন বেশ কয়েক বার। জনগণের প্রশ্নে সোচ্চার হতে পত্রিকার প্রকাশন শুরু করলেন। 

প্রথম বার ভুমিহার আন্দোলনের সাথে সংযোগ তাঁকে কংগ্রেসের রাজনীতিতে নিয়ে এসেছিল। তিনি স্বদেশী দেশসেবক হয়ে উঠেছিলেন। দ্বিতীয়বার ভুমিহার আন্দোলনের সাথে সংযোগ তাঁকে শ্রমজীবী আন্দোলনের দিকে টেনে নিয়ে গেল। 

দুটো ঘটনা ঘটল আগে পরে। প্রথমতঃ, বিহারে স্বাধীনতা সংগ্রামী জননেতা হিসেবে কাজকরা এক সন্ন্যাসী হিসেবে তাঁর নামডাকে প্রভাবিত হয়ে এক সন্ন্যাসী মহন্ত সীতারামদাস মারা যাওয়ার আগে তাঁর বিহটার মঠ ও জমিজমা সহজানন্দকে দিয়ে গেলেন। সহজানন্দ সেখানেই শুরু করলেন ভুমিহার বালকদের সংস্কৃত পড়ানর পাঠশালা। কিন্তু সেখানে থাকার সুবাদে বিহটার কৃষকদের ওপর হওয়া জমিদারের শোষণও খুব কাছ থেকে দেখা শুরু করলেন। শুধু জমিদারের শোষণ নয়। বিহটায় চিনি মিল ছিল। তাই আখচাষিদের প্রকৃত অবস্থা এবং মিলমালিক ও জমিদারদের যুক্ত অত্যাচার প্রত্যক্ষ করতে লাগলেন।      

দ্বিতীয়তঃ, আবার তাঁর ডাক এল ভুমিহার ব্রাহ্মণ মহাসভার তরফ থেকে। কিন্তু সেখানে গিয়ে তিনি দেখলেন ধনী ভুমিহারদের মাঝে তিনি অবাঞ্ছিত। কেননা তিনি কংগ্রেসি, দেশসেবক আর জমিদারেরা ইংরেজশাসনের লেজুড়। তাঁকে শুনতেও হল বাঁকা কথা – আপনি তো সন্ন্যাসী, হিমালয়ে যান, এখানে কী করছেন?

এসবেরই প্রভাবে স্বামীজি আরো বেশি করে গরীব জনসাধারণের সঙ্গে একাত্মতা অনুভব করলেন এবং কৃষক আন্দোলন শুরু করলেন নিজের এলাকায়। ৪ঠা মার্চ ১৯২৮ সালে স্থাপিত হল দেশের প্রথম কিসান সভা – পশ্চিম পাটনা কিসান সভা। কৃষক আন্দোলন সংগঠিত করতে সারা বিহার চষে বেড়ালেন। ভারতবর্ষ চষে বেড়ালেন। যখন সারা ভারত কিসান সভা সংগঠিত হল, তিনি হলেন তার সর্বমান্য সংস্থাপক সভাপতি।  

এরপর স্বামী সহজানন্দ সরস্বতী কৃষক নেতা, সংগ্রামী শ্রমজীবীর বন্ধু, এক অসামান্য বিপ্লবী চিন্তানায়ক। সে জীবনের সংক্ষিপ্তিকরণের কোন প্রয়োজন নেই। যেটুকু লেখা আছে, তার বিশদে গিয়ে আরো আবিষ্কারের প্রয়োজন আছে। 

২১.১১.২২




Friday, November 18, 2022

অঘোরকামিনী দেবী

[বিস্মৃতির অতলে তলিয়ে যাওয়া ভারতের হাজার হাজার মহীয়সী নারীদের একজন, ডঃ বিধানচন্দ্র রায়ের মা অঘোরকামিনী দেবী। তাঁর জীবন সম্পর্কে তথ্য যোগাড় করার একমাত্র আকর-বই, স্ত্রী বিয়োগে শোকাকূল প্রকাশচন্দ্র রায়ের লেখা ‘অঘোর-প্রকাশ’। অঘোর-প্রকাশ' এক অসামান্য প্রেমগাথা যে প্রেমগাথায় কর্মই সাধনা এবং যুগ্ম সাধনাই প্রেম। সে বইয়ের বাইরে, ডঃ বিধানচন্দ্র রায়ের বাবা-মায়ের জীবন সম্পর্কে, অন্ততঃ তাঁর জন্মের আগে অব্দিকার ঘটনাবলি সম্পর্কে আজ যে বইয়েই কোনো তথ্য থাকুক, তার উৎস ও আকর ওই একটিই বই। এখানেও আমরা সে বইয়েরই সাহায্য নিয়েছি।]  

অঘোরকামিনী দেবীর জন্ম বাংলার পুরোনো ২৪ পরগণা জেলায়, শ্রীপুর গ্রামে। জন্মতারিখ জানা যায় না, তবে ইংরেজি ১৮৫৬ সালের এপ্রিল বা মে মাসে (বাংলা হিসেবে বৈশাখে), এক জমিদার পরিবারে তাঁর জন্ম হয়েছিল। (কন্যাসন্তান এবং গ্রাম্য বলেই যে জন্মতারিখ জানা যায় না, প্রকাশচন্দ্রের এ আক্ষেপ উপরুল্লিখিত বইটাতে আছে।) তাঁর পিতার নাম বিপিনচন্দ্র বসু। মায়ের নামও একই, অর্থাৎ স্ত্রীজন্মের কারণে জানা যায় না। জমিদার পরিবারের বিষয়-আশয় যা ছিল, ছিল, বিপিনচন্দ্র নিজেও ঠিকেদারী করে উপার্জন করতেন। গ্রামেরই রায় পরিবারের ছেলে প্রকাশচন্দ্রের সাথে তিনি তাঁর বড় মেয়ে অঘোরকামিনীর বিয়ে দেন। অঘোরকামিনীর পর তাঁর আরো তিন সন্তান ছিল জানা যায় – অঘোরকামিনীর পরে দুই বোন (একজনের নাম যামিনী) এবং এক ভাই (জ্ঞান)। মা বাড়ির অন্যান্য সন্তানদের নিয়ে ব্যস্ত থাকতে বাধ্য হতেন তাই বালিকা অঘোরকামিনীর আশ্রয়স্থল ছিলেন বড়পিসী।  

প্রকাশচন্দ্র গ্রামের ছেলে হলেও গ্রামে থাকতেন না। তাঁর পিতা প্রাণকালী রায় বহরমপুর কালেক্টরিতে কাজ করতেন। সেখানেই প্রকাশচন্দ্রের জন্ম এবং প্রাথমিক স্কুলজীবন কেটেছিল। পিতার মৃত্যুর পর স্কুলের পড়া চালিয়ে যেতে তিনি কিছুদিনের জন্য কলকাতা যান। প্রবেশিকার পর আবার বহরমপুরে ফিরে এসে কলেজের পড়া চালিয়ে যাচ্ছিলেন তখনই গ্রাম থেকে বিয়ের জন্য ডাক আসে।

১৮৬৬ সালে যখন অঘোরকামিনীর বিয়ে তখন তাঁর বয়স ছিল দশ বছর আর বর প্রকাশ্চন্দ্রের আঠেরো বছর। উপরে উল্লিখিত বইয়েই প্রকাশচন্দ্রের স্মৃতিচারণে অঘোরকামিনীর শৈশবের যে বিভিন্ন ঘটনাগুলো জানা যায়, তাতে বোঝা যায় যে শৈশবে নিরক্ষর থেকে যাওয়া মেয়েটির ভিতরে কী অদম্য কৌতূহল অথচ বালিকাবয়সে বিরল চপলতাবিরুদ্ধ স্বভাব, মানুষের প্রতি ভালোবাসা এবং শিক্ষার প্রতি আগ্রহ জন্ম নিচ্ছিল। তারই সঙ্গে বেড়ে উঠছিল সেবাভাব এবং হাল ধরার ক্ষমতা।      

কয়েকটি গল্প আছে।

বসু পরিবার আর রায় পরিবারের বাড়ি গ্রামে কাছাকাছিই ছিল। এমন যে এক বাড়ির ছাত থেকে আরেক বাড়ির উঠোনের কিছু অংশ বা একটা ঘরের জানলা দেখা যায়। তখনকার নিয়মে বিয়ের আগে বর বৌয়ের দেখা হওয়ার কোনো সুযোগ থাকত না। প্রকাশচন্দ্র গ্রামেই বড় হলে নাহয় খেলার মাঠে বা পথে দেখা হতে পারত। কিন্তু সে আজন্ম বহরমপুরের ছেলে। তাই বাবার মুখে নিজের বিয়ের সিদ্ধান্ত শোনার পর এক দিন বালিকা অঘোরকামিনী ছাতে চলে গেলেন – রায়বাড়ির উঠোনে উঁকি মেরে দেখবেন তাঁর বরটিকে দেখতে পাওয়া যায় কিনা। উঠোনটা ভালো করে দেখতে গিয়ে খেয়াল থাকল না কখন ছাতের বাইরে। ধড়াম করে সোজা আছাড় খেলেন নিচে। যদিও বেশি আঘাত পেলেন না কেননা ঠিক সেখানেই নিচে গাছের কাটা ডালপাতা জমা করে রাখা ছিল। যদিও প্রকাশচন্দ্র নিজের ভাবী বৌটিকে বিয়ের ক’দিন আগে একবার গ্রামের পথে দেখেছিলেন।

বিয়ে হল। শ্বশুরবাড়ি এলেন। বিয়ের রাতে হোক বা পরের দিন শ্বশুরবাড়ি হোক, দু’তিনদিনে একটা কথা বললেন না বরের সাথে। যখন নাকি যুবক বরটি সুযোগ সুবিধে মত বার বার কাছে আসছিলেন একটিবার বৌয়ের মুখে কথা শোনার জন্য। অথচ এমন নয় যে বিয়ে পছন্দ হয় নি। নইলে, বাপের বাড়ি যাওয়ার আগের রাতে গম্ভীরভাবে বলতেন না, “কাল আমি চলে যাব!” ওটুকুতেই বরটি কৃতার্থ। ওই যে বললাম, ভিতরে ভিতরে কৌতূহল থাকলেও, বালিকাবয়সে বিরল, চপলতা-বিরুদ্ধ স্বভাব হয়ে গিয়েছিল, বয়সের তুলনায় একটু বেশি গম্ভীর হয়ে গিয়েছিলেন। হয়ত বাড়ির বড় মেয়ে হওয়ার জন্য। ভাইবোনদের দেখাশোনার কাজে ব্যাপৃত থাকার কারণে।

বিয়ের কিছুদিন পরেই গ্রামে বসন্ত রোগ ছড়িয়েছিল। বিপিনচন্দ্র বসু বসন্ত রোগে আক্রান্ত হয়ে মারা গেলেন। তখন প্রকাশচন্দ্রও গ্রামে নেই; কলেজের ক্লাস করতে বহরমপুরে ফিরে গেছেন। অঘোরকামিনী একাই শ্বশুরবাড়ী থেকে ছুটে বাবাকে দেখতে চলে এলেন। ছোঁয়াচে রোগের তোয়াক্কা না করে বাবার মৃতদেহ জড়িয়ে ধরলেন। ফলে তাঁকেও বসন্ত রোগে ধরল। বোন যামিনী এবং ভাই জ্ঞানেরও বসন্ত হল। দুই বোন সেরে উঠলেও ভাইকে নিয়ে যমে-মানুষে টানাটানি পড়ে গেল। সেই দশ বছর বয়সে অঘোরকামিনী নিজের দায়িত্বে ভাইকে নিয়ে ভবানীপুরে দিদার বাড়িতে চলে এলেন। সেবা শুশ্রূষায় তাকে বাঁচিয়ে তুললেন; যদিও সে একটা চোখ হারাল রোগে।

সে সময়কার আরো একটি গল্প প্রকাশচন্দ্র শুনিয়েছেন। অল্পবয়সেই অঘোরকামিনী রান্নার কাজে পটু হয়ে উঠেছিলেন। গ্রামে কুটুমদের বাড়িতে কোথাও বড় কাজ হলে তাঁর ডাক পড়ত। একবার এক বাড়িতে গেছেন। রান্না হয়ে গেলে উঠোনে এসে দেখলেন, যে সব মহিলারা ভালো জামাকাপড়, গয়না-টয়না পরে আসছেন তাঁদের খুব যত্ন-আত্তি হচ্ছে। অথচ যাঁরা সাধারণ জামাকাপড়ে, গয়না ইত্যাদি না পরে আসছেন তাঁদেরকে উপেক্ষা করা হচ্ছে। খাওয়ার সময়েও একই ব্যাপার দেখতে পেলেন। খুব আঘাত পেলেন অঘোরকামিনী। প্রকাশচন্দ্র বলছেন, “ধনের প্রতি এত সমাদর? এ কি অন্যায়! সেই দিনই তোমার সংকল্প হইল, তুমি যথাসাধ্য দুঃখীর সহায়তা করিবে।”

নিজেদের বাড়িতে কোনো রকম আর্থিক অভাব ছিল না। আর্থিক অভাব শ্বশুরবাড়িতেও ছিল না কিন্তু প্রাণকালী রায়ের মৃত্যুর কিছুদিন পর প্রকাশচন্দ্রের বড়দাদা আর সেজদাদার মধ্যেকার কলহে সম্পত্তি বিক্রি হওয়া শুরু করল। একদিন অভাব আর দুশ্চিন্তা, কোর্টকাছারির হাঙ্গামা ঘিরে ধরল পরিবারটাকে। এদিকে বালিকা বধু অঘোরকামিনীর আপন বলতে কেউ নেই। বাবা আগেই গত হয়েছেন, মা নিরুপায় আর বর বহরমপুরে। তা সত্ত্বেও পরিবারের ছোট বউ অঘোরকামিনীর চেহারায় ভাঁজ পড়ল না। মুখ বুজে সংসারের সব কাজ করে যেতে লাগলেন, ভুল করলে গঞ্জনাও সহ্য করতেন।

এরই মধ্যে কিছুদিনের জন্য বরের সঙ্গে থাকার সুযোগ হল। প্রকাশচন্দ্রের সেজদা তাঁর নতুন বউয়ের সাথে বহরমপুর থেকে কলকাতা চলে গেলেন। এদিকে প্রকাশচন্দ্র এফ এ পরীক্ষার পর, বাড়ির দুরবস্থা এবং মানসিক অবসাদের কারণে বিএ পরীক্ষা আর দিতে পারেন নি। লেখাপড়া বন্ধ হয়ে গিয়েছিল এবং কোথাও চাকরিও জোটে নি। তাই ফিরে এলেন শ্রীপুর, নিজেদের গ্রামে। রাতে বৌকে নিয়ে বসতেন লেখাপড়া শেখাতে। সংসারের কাজ তো ছিলই। তবু তারই মধ্যে অঘোরকামিনী রাতে বরের কাছে লেখাপড়া শেখা শুরু করলেন। কিছুদিনের মধ্যে বর্ণমালা, প্রথম ভাগ, দ্বিতীয় ভাগ শেষ করে ফেললেন। ভাষা শেখানোর সাথে সাথে সদ্য ব্রাহ্ম মতে দীক্ষিত প্রকাশচন্দ্র বৌকে ধর্মজ্ঞান, নৈতিক মূল্যাদির পাঠ ইত্যাদি শেখাতে লাগলেন।

তাঁদের প্রথম সন্তান, সুসারবাসিনীর জন্ম শ্রীপুরেই হল। এ নিয়েও একটা গল্প আছে। প্রথম সন্তানের জন্মের সময় অঘোরকামিনীকে বাপের বাড়ি পাঠিয়ে দেওয়া হয়েছিল। আট মাসের গর্ভ নিয়ে অঘোরকামিনী অসুস্থ হয়ে পড়লেন। প্রকাশচন্দ্রও সে সময় পাশে নেই। ওদিকে শ্বশুরবাড়িতে কিছু সমস্যাও চলছিল। কলকাতা থেকে সেজবৌদির  মারা যাওয়ার খবর এসেছিল। অঘোরকামিনীর জ্বর এত বেশি হল রাতে যে ডাক্তার এসে বললেন প্রসূতির প্রাণ বাঁচাতে গর্ভ নষ্ট করতে হবে। সে কাজে গ্রামের ডাক্তারকে সাহায্য করার জন্য টাকী থেকে বড় ডাক্তার ডাকা হল। কিন্তু রাতে নদীতে ঝড় উঠল, বড় ডাক্তার আসতে পারলেন না। অঘোরকামিনী সবকিছু নিয়ে অত্যন্ত বিচলিত ছিলেন। তীব্র জ্বরের মধ্যেও মনে মনে সংকল্প করেছিলেন যে গর্ভ নষ্ট করতে উনি কাউকে দেবেন না। সন্তানের জন্ম দেবেনই। সে ঝড়ের মধ্যেই রাত দুটোয় ব্যথা উঠল। কোনো শব্দ না করে, কাউকে না ডেকে অঘোরকামিনী দোতলা থেকে নেমে নিচে সেই ঘরটায় পৌঁছে গেলেন যেটাকে পরিষ্কার করে পরের দিনের গর্ভপাতের অপারেশনের জন্য তৈরি করা হয়েছিল। সেখানেই রাতে একা অঘোরকামিনী সাধারণ প্রসবে একটি কন্যাসন্তানের জন্ম দিলেন। সকালে যখন ডাক্তার পৌঁছোলেন হতবাক হয়ে গেলেন। দেখলেন বাড়িতে আনন্দের হাওয়া। যে শিশুটিকে বধ করার পরিকল্পনা নেওয়া হয়েছিল নবজাত সে শিশুটি কাঁদছে আর তার মা, জ্বরের মধ্যেও হাসছে। এও ঘটনাতেও অঘোরকামিনীর দৃঢ় মনোবলের পরিচয় পাওয়া যায়।

আরেকটি প্রসঙ্গ এখানেই বলে নিতে হয়। ইতিমধ্যে প্রকাশচন্দ্র ঈশ্বরে বিশ্বাস-অবিশ্বাসের নানারূপ সঙ্কট পেরিয়ে শেষে বহরমপুরেই ব্রাহ্মধর্মে দীক্ষা নিয়েছেন। ১৮৭০ সালের শীতের ছুটিতে গ্রামে গেছেন। স্ত্রী ব্রাহ্ম নন, ব্রাহ্মধর্মের বিন্দুবিসর্গও জানেন না। প্রথম বরের মুখে সেসব কথা শুনে হাসাহাসি করতেন। শেষে প্রকাশচন্দ্র কষ্ট পাচ্ছেন দেখে চুপ করে যেতেন। ধীরে ধীরে প্রকাশচন্দ্র স্ত্রীকে ব্রাহ্মধর্মমত বোঝাতে শুরু করলেন। বিশেষ পড়াশোনা না থাকলেও, স্বামীর ধর্মই স্ত্রীর ধর্ম এই মনোভাবে স্বামীর কথাগুলো গ্রহণ করতেন। স্বামীর সঙ্গে প্রার্থনায় বসতেন।

পরের বছরের শুরুতেই প্রকাশচন্দ্রের ভাইঝির বিয়ের তোড়জোড় শুরু হল। সে এলাকার নিয়মানুসারে বিয়ের আগের দিন জলসওয়া বলে একটি অনুষ্ঠান হত। পাঁচ বাড়ি থেকে জল ভিক্ষা করে এনে সে জলে কন্যাকে স্নান করাতে হত। জলভিক্ষার কাজে বাজনদারেরা বাজনা বাজাত এবং বৌরা গ্রাম্য গান গাইত। সে গান সদ্যব্রাহ্ম প্রকাশচন্দ্রের ‘কুৎসিত’ মনে হত। তাই তিনি স্ত্রীকে এ কাজে যোগ দিতে বারণ করলেন। স্বামীর কথা অঘোরকামিনী মেনে নিলেন। এর পরের ঘটনা ‘অঘোর-প্রকাশ’এ প্রকাশচন্দ্র ভাইঝি বসন্তের লেখা পরবর্তীকালের কোনো স্মৃতিচারণ (সূত্র অপ্রাপ্য) থেকে উদ্ধৃত করেছেন, “আমার বিবাহ ১২৭৭ সালে ১৬ই ফাল্গুন সোমবার হয়। আমার বয়স তখন ১১ বৎসর। জলসওয়ার জন্য কাকিমাকে অত্যন্ত নির্য্যাতন সহ্য করিতে হইয়াছিল। বিবাহের পূর্বদিন রাত্রে জলসওয়া এবং সকালে বড়ি দেওয়া ও ক্ষীর করা হয়। ঐ দিন ঠাকুর মা কহিলেন, ‘বসন্তর মা নাই এবং এখানে অন্য খুড়ী জেঠাই নাই; শাস্ত্রের সমুদয় তোমাকেই করিতে হইবে। যদি না কর, তাহা হইলে বাড়ী হইতে দূর হও। যদি কন্যার কোন অমঙ্গল হয়, জানিতে পারিবে।‘ এই সময় সেজ জেঠাইমাও আসিলেন, ও বলিলেন, ‘ছিঃ তোমার লজ্জা হয় না? আঘাটায় যাইয়া গলায় কলসী বাঁধিয়া ডুবিয়া মর,’ ইত্যাদি। এত নির্য্যাতনেও কাকিমার বিশ্বাস অটল রহিল। সেদিন সমস্ত দিন কাঁদিয়া অনাহারে কাটাইয়াছিলেন। কাকিমা কেন এরূপ সকলের অবাধ্য হইয়াছিলেন, তখন কিছুই বুঝিতাম না। রাত্রে যখন জলসওয়ার সময় হইল, প্রথমে সকলেই তাঁহাকে ডাকিল। তিনি যাইতে অস্বীকার করিলে সকলে বলপূর্ব্বক টানিতে টানিতে লইয়া চলিল।” অর্থাৎ, অঘোরকামিনীকে দিয়ে বলপূর্বক করান হল। ফল কী হল? প্রকাশচন্দ্র সে রাতে নিজের স্ত্রীকে ঘরে ঢুকতে দিলেন না। পরে অবশ্য অনুতপ্ত হয়েছিলেন। ‘অঘোর-প্রকাশ’এ লিখেছেন, “আমি আমার মনের ক্ষোভ ও অসন্তোষ প্রকাশ করিবার অন্য উপায় না পাইয়া আমার ঘরের দ্বার বন্ধ করিয়া রহিলাম, রাত্রিতে যখন তোমাকে লইয়া সকলে ঘরে ফিরিলেন, আমি আর তোমাকে ঘরে আসিতে দিই নাই। তোমার দোষ ছিল না, আমি আর সকলের প্রতি অসন্তোষ প্রকাশ করিতে না পারিয়া তোমাকেই আরো একটু কষ্ট দিলাম।”  

১৮৭২ সালের এপিল মাসে যখন অস্থায়ী পোস্টমাস্টারের চাকরি পেয়ে প্রকাশচন্দ্র বর্দ্ধমান গেলেন, তখন অঘোরকামিনীও মেয়েকে নিয়ে স্বামীর সঙ্গে ঘর করতে গেলেন। কিন্তু কয়েক মাস পর সে অস্থায়ী চাকরিটার মেয়াদ শেষ হল। প্রকাশচন্দ্র আবার চাকরি খুঁজতে ব্যস্ত হয়ে পড়লেন। বৌ আর মেয়েকে আবার গ্রামে রেখে এলেন। যদিও প্রকাশচন্দ্রের মা ছিলেন গ্রামের বাড়িতে, চাকরি ছিল না বলে সে সময়টা তাঁর স্ত্রী ও শিশুকন্যাকে সেজদার আয়ে আশ্রিত হয়ে কাটাতে হয়েছিল। দ্বিতীয় কন্যাসন্তান সরোজিনীরও জন্মও শ্রীপুরেই, অঘোরকামিনীর বাপের বাড়িতে হল। এক বছরের বেশি সময় অঘোরকামিনীর শ্বশুরবাড়িতে কাটল। দুই মেয়ের দেখাশোনা ছাড়া – প্রকাশচন্দ্র নিজেই স্ত্রীএর জীবনকাহিনী ‘অঘোর-প্রকাশ’এ লিখছেন – “কুলবধুর সমুদয় কার্য, চিঁড়ে কোটা, গরুর জাব কাটা, এ সকলই তোমাকে করিতে হইত। সকালে উঠিয়া বাসন মাজা, ঘর ঝাঁট দেওয়া, গোবর দেওয়া, এ সকল তোমার নিত্য কর্ম ছিল।”

তবুও, এটা বলতেই হয় যে স্বামীর প্রতি তাঁর আনুগত্য নিছক পরম্পরাগত ছিল না, তার পিছনে ছিল তাঁর চরিত্রের শক্তি, ভালোবাসার একটা জোর। ছাপাখানার কাজ করার সময় একদিন নিজের মনের গ্লানিতে ভরা প্রকাশচন্দ্রের চিঠি পেয়ে অঘোরকামিনীর মনে হল স্বামী সাধু-সন্ন্যাসী হয়ে কোথাও চলে যাবেন। সঙ্গে সঙ্গে বাড়ির কাজের লোককে ডেকে বললেন প্রকাশচন্দ্রকে বাড়ি নিয়ে আসতে। কাজের লোক বেণীদাদাও মানা করলেন, কিভাবে আসবেন এখন বাবুজি, কলকাতায় কাজকর্ম করছেন, বাড়িতেই বা পয়সা কই যে বেণীদাদা কলকাতায় যাবেন। শুনে গলার হারটা খুলে দিয়ে বললেন, যাও, যেমন করে হোক ডেকে নিয়ে এস। প্রকাশচন্দ্র এসে সব শুনে অবাক। মজাও পেলেন। জিজ্ঞেস করলেন, তিনি সন্ন্যাসী হয়ে গেলে অঘোরকামিনী কী করতেন? অঘোরকামিনী নির্বিকারভাবে বললেন, ঘর ছাড়তাম! গেরুয়া পরতাম, ছাই মাখতাম আর দেশে দেশে ঘুরতাম, যদ্দিন দেখা না পেতাম তোমার!   

মাঝে স্বামী প্রকাশচন্দ্র একটা কাজ পেয়েছিলেন বটে, অংশীদার হিসেবে এক বন্ধুর ছাপাখানা চালানর কাজ, কিন্তু লাভের পয়সা মূলধনে যোগ হবে এই কড়ার ছিল বলে বাড়িতে এক পয়সাও পাঠাতে পারতেন না। গ্রামে স্ত্রী-কন্যার দুরবস্থার খবর পেতেন। শেষে বন্ধুকে বলে ছাপাখানার কাজ ছেড়ে দিলেন। বগুড়ায় পোস্টমাস্টারের কাজ পেলেন, সেটাও ছেড়ে দিলেন। শেষে ১৮৭৩ সালের ডিসেম্বরে হরিণাভির (২৪ পরগণা) উচ্চ ইংরেজি বিদ্যালয়ে দ্বিতীয় শিক্ষকের কাজ পেলেন। কিছুদিন সেই বিদ্যালয়ে ব্রাহ্মধর্মের খ্যাতিমান আচার্য শিবনাথ শাস্ত্রীও প্রধান শিক্ষক হিসেবে নিযুক্ত ছিলেন। প্রকাশচন্দ্রও তাঁরই বাসস্থানে থাকার ব্যবস্থা করে নিলেন। ফলে অঘোরকামিনী নিজের দুই সন্তানকে নিয়ে আবার প্রকাশচন্দ্রের সঙ্গে থাকার সুযোগ তো পেলেনই, শিবনাথ পরিবারের সাহচর্যও পেলেন।  

হরিণাভিতে থাকতে থাকতেই প্রকাশচন্দ্র মোতিহারিতে দুর্ভিক্ষের রিলিফ সুপারিন্টেন্ডেন্টের কাজ পেলেন। সরকারি কাজ, বেতন বেশি, উন্নতিরও সম্ভাবনা আছে। শিবনাথ শাস্ত্রী মশাইও বললেন কাজটা নিয়ে নিতে। প্রকাশচন্দ্র মোতিহারি পাড়ি দিলেন। আবার অঘোরকামিনীর একা জীবন কাটান শুরু হল। প্রথমে কিছুদিন বাদুড় বাগানে সেজ ভাশুরের বাড়িতে রইলেন। সেজভাশুর কিছুদিন পরেই তাঁকে গ্রামের বাড়িতে চলে যেতে বললেন। অনেক কাকুতিমিনতি করে কলকাতায় পড়ে রইলেন যে মোতিহারি থেকে এসে প্রকাশচন্দ্র নিয়ে যেতে চাইলে সুবিধে হবে। শেষে গঞ্জনা সহ্য করতে না পেরে কিছুদিন ভবানিপুরে পিসেমশাইয়ের বাড়িতে গিয়ে রইলেন। ওদিকে প্রকাশচন্দ্র আসতে পারছেন না, কেননা দুর্ভিক্ষের কাজ, স্থায়ীও হয় নি তখনও। তাই অবশেষে ভবানিপুর থেকেও বেরিয়ে সেই গ্রামেই ফিরে যেতে হল অঘোরকামিনীকে। ৫ই এপ্রিল ১৮৭৪এ লেখা অঘোরকামিনীর চিঠি প্রকাশচন্দ্র উদ্ধৃত করছেন, “তোমার পত্র পাইলাম। তুমি কোথায়! আমাকে ফেলে তুমি কোথায় গেলে? আমি যে অন্ধকার দেখছি। আমার যে আর কেহ নাই। তুমি কই? … সর্বদা ঈশ্বরকে ডাকিও, যেন একটুও ভুলিও না। … মতিহারি জায়গা কেমন, বন্ধু কেমন? সমাজ আছে কিনা? ধর্ম্মবন্ধু আছেন কিনা? তোমাকে শিবনাথবাবুর মত কেহ স্নেহ করিবার লোক আছেন কি না, শুনিতে বড় ইচ্ছা করে। তোমার যে কষ্ট হইবে সমুদয় আমাকে দিও; আমি তাহলে বড়ই সুখী হইব।”

এই রকম মাতৃস্বরূপ আশ্বাস যখন স্বামীকে দিচ্ছেন ঘন ঘন দীর্ঘ চিঠি লিখে, তখন নিজে কেমন দিন কাটাচ্ছেন গ্রামে? শ্বশুরবাড়ির আর সমস্ত কাজ ছাড়া, সেটা ধান ভানার সময় ছিল বলে ধান ভানতেন। তার ওপর নিশ্চিন্তে এক জায়গায় থাকতেও পারতেন না। কাজ না থাকলে শ্বশুরবাড়ির লোকেরা পাঠিয়ে দিত বাপের বাড়ি – ওখানেই অন্ন ধ্বংস করুক! আর কাজ পড়লে যেমনই অবস্থা হোক, একবেলাও সময় চাইলে পেতেন না। তক্ষুনি ছুটতে হত। এতে তাঁর মা কিছু বললে তার জন্যও তাঁকেই গঞ্জনা শুনতে হত। একটাই স্বস্তি ছিল। প্রকাশচন্দ্রের ধর্মবন্ধুরা সান্ত্বনা দিয়ে চিঠি পাঠাতেন এবং দরকার বুঝলে অর্থসাহায্যও পাঠাতেন। এই সহানুভুতি অত্যন্ত মূল্যবান ছিল সে দিনগুলোয়।

শেষে প্রকাশচন্দ্রের চাকরিটা পাকা হল। আগে যে ভাইঝি বসন্তের কথা আছে, সেই ভাইঝি আর তার স্বামী রামলাল দত্তের সঙ্গে অঘোরকামিনী ও তাঁর দুই শিশুকন্যা কলকাতায়, প্রকাশচন্দ্রের এক ধর্মবন্ধু কেদারের বাসায় এসে উঠলেন। তারপর সেখান থেকে তারা সবাই রওনা দিলেন মোতিহারি। সেটা ১৮৭৫ সাল, অঘোরকামিনীর বয়স উনিশ বছর। ওই স্বল্প দেখাতেও অভিভুত হয়ে বন্ধু কেদার পরে চিঠিতে প্রকাশচন্দ্রকে লিখেছিলেন, “প্রকাশ তুমি জান না অঘোর কি রত্ন।”

এর পর থেকে অঘোরকামিনী দেবীর বিহার-বাসপর্ব শুরু হল।

যেমন প্রকাশচন্দ্রের বয়ানে বোঝা যায়, মোতিহারিতে অঘোরকামিনী গুছিয়ে সংসার করা শুরু করলেন, প্রকাশচন্দ্রের আয় কম হওয়া সত্ত্বেও, অঘোরকামিনীর মিতব্যায়িতা এবং কুশল গৃহিণীপনা কখনো সমস্যা হতে দিত না। সঙ্গে সঙ্গে, যেহেতু বাড়িতেই সমাজ(ব্রাহ্ম) স্থাপন করা হল, তিনিও অন্যান্য নারীদের সঙ্গে নিয়ে নিয়মিতভাবে সামাজিক উপাসনায় অংশগ্রহণ করতেন। দানশীলতা তাঁর মধ্যে ছিলই। সে সময় দক্ষিণপূর্ব বাংলায় বড় ঝড় হল, অনেক লোক মারা গেল, অন্নকষ্ট শুরু হল। কলকাতায় ব্রাহ্ম আচার্য কেশবচন্দ্র সেন যে সাহায্যের আবেদন করেছিলেন সে আবেদন মোতিহারিতে প্রকাশচন্দ্র ধর্মতত্ত্বচর্চার সময় সবাইকে পাঠ করে শোনান। সাহায্যের আবেদন শুনে সে রাতেই অঘোরকামিনী নিজের হাতের সোনার বাজু খুলে দিয়ে দিলেন। যখন নাকি সেটা তিনি বাপের বাড়ি থেকে পরে এসেছিলেন। আগে, গ্রামে থাকার সময় দেশী ধুতি পরতেন। কলকাতায় থাকার সময় ছোপান শাড়ি এবং বিলেতি ধুতি পরতেন। মোতিহারিতে সেসব কিছুই জুটত না। তাই থান কিনে নিয়ে এসে তাতে নীলের ছোপ দিয়ে শাড়ি বানিয়ে নিতেন নিজের হাতেই, তাই পরতেন। শেষে তাও আর পরতেন না। স্থানীয় গরীব মানুষেরা যে ‘মটিয়া’ পরত, উনিও তাই পরতেন। সে কাপড়েই বিভিন্ন জায়গায় যেতেন নিঃসঙ্কোচে। হাতে নোয়া না থাকলে স্বামীর অকল্যাণ হয়, এধরণের কুসংস্কার ছিল না বলে, ব্রাহ্ম সাধিকার নিয়মানুসারে নোয়া, শাঁখা, চুড়ি সব খুলে খালি হাতে থাকতেন। ব্রাহ্মিকারা নোয়া না খুললে তিনি রীতিমত তিরস্কার করতেন তাঁদের। একজন শ্রদ্ধেয়া ব্রাহ্মিকার নোয়া তিনি জবরদস্তি খুলিয়ে দিয়েছিলেন, কেননা মিথ্যে ভড়ং তিনি সহ্য করতে পারতেন না।

একটা ফুলকপির গল্প আছে। সে সময় মোতিহারির দিকে ফুলকপি হত না এবং মোতিহারি অব্দি ট্রেন ছিল না বলে বাইরে থেকেও বড় একটা এসে পৌঁছোত না। একদিন প্রকাশচন্দ্রের পাটনাবাসী এক বন্ধু একটা ফুলকপি দিয়ে গেলেন। ফুলকপি পেলে সবাই খুশি হবে ভেবে প্রকাশচন্দ্র বললেন চার-পাঁচ ঘর পড়শিদেরকে একটু একটু ভাগ করে দিতে। অঘোরকামিনী প্রথমে আপত্তি করলেন বটে, “ছোট কপি, পাঁচ জনার বাড়ীতে দিলে তারাই বা কি খাইবে, আমরাই বা কি খাইব?” কিন্তু শেষে টুকরো টুকরো করে সবাইকে দিলেন। তারপর থেকে, প্রকাশচন্দ্র লিখছেন, “তুমি গৃহের সামান্য সামান্য ভাল বস্তুও সকলকে একটু একটু করিয়া না দিয়া গ্রহণ করিতে না। ক্রমে ক্রমে তোমার দিবার প্রবৃত্তি তোমার ক্ষুদ্র দানশক্তিকে অনেক অতিক্রম করিয়া চলিয়া গিয়াছিল।”

এক মদ্যাসক্ত বন্ধুস্থানীয় ব্যক্তি অসুস্থ হয়ে পড়লেন। ডাক্তারের পরামর্শে হাওয়া বদলাতে তাঁকে ছুটি নিয়ে বাইরে যেতে হল। তাঁর স্ত্রীকে অঘোরকামিনী নিজের সাথে বাড়ি নিয়ে এলেন। বোনের মত রাখলেন। বাড়িতে তিনটে ঘরের মধ্যে একটাতে থাকতেন প্রকাশচন্দ্রের ভাইঝি বসন্ত ও তার স্বামী রাম। আরেকটা ঘর সেই মহিলাকে দিয়ে দিলেন। বাকি একটা ঘরেই নিজেদের শোয়ার এবং সবার খাওয়ার ব্যবস্থা করলেন।

মোতিহারিতেই ১৮৭৬ সালের ৫ই মে অঘোরকামিনীর প্রথম পুত্রসন্তানের জন্ম হল। যদিও ডাক্তার ডেকে আনা হয়েছিল কিন্তু কোনো অঘটন ঘটল না (সুসারের জন্মের সময় ধুম জ্বর, সরোজিনী জন্মের সময় সমানে রক্তপাত …), সাধারণ প্রসব হল। সে সময় এক নামকরা সাধু অঘোরনাথ এসে পৌঁছোলেন মোতিহারিতে। তিনিই ছেলের নাম রাখলেন সুবোধচন্দ্র। তিনি আবার ধর্মোপদেশ দেওয়ার সময় উদাহরণ দিয়ে বোঝাতেন অনাসক্তি বিনা পরিত্রাণ নাই। প্রকাশচন্দ্রও তেমনটাই চেষ্টা করতে লাগলেন। আলাদা শোবেন, স্ত্রী-সন্তানের সাথে শোবেন না। থাকতে পারতেন না। ফিরে ফিরে আসতেন, আবার চেষ্টা করতেন। অঘোরকামিনী সে চেষ্টাতেও স্বামীকে সাহায্য করলেন। কখনো নালিশ করতেন না একা থাকতে হয় বলে।

ওদিকে ভাইঝি বসন্ত গর্ভবতী হলেন। ছোট কিন্তু গুরুত্বপূর্ণ একটা ঘটি-প্রসঙ্গ ঘটে গেল। একটাই ঘটি ছিল বাড়িতে। সেটা বসন্ত নিজের প্রয়োজনে নিজের ঘরে রাখতে চাইলেন। অঘোরকামিনী আপত্তি করলেন। বসন্ত, বয়সে ও সম্পর্কে ছোট হয়েও কড়া কথা শুনিয়ে দিল। অঘোরকামিনীও জবাব দিলেন। প্রকাশচন্দ্র শুনে অঘোরকামিনীকে বসন্তের পায়ে ধরে ক্ষমা চাইতে বললেন। অঘোরকামিনী প্রথমে আপত্তি জানালেন কিন্তু প্রকাশচন্দ্রের মর্য্যাদা রাখতে নিজের আত্মমর্য্যাদা ত্যাগ করলেন – পায়ে ধরে ক্ষমা চাইলেন স্বামীর ভাইঝির কাছে। পরে এক সময় চিঠিতে লিখেছিলেন, “সেই দিন যে কি কষ্টে ক্ষমা চাহিয়াছিলাম তাহা অন্তর্যামী জানেন, আর তুমি জান।” প্রকাশচন্দ্র বইয়ে লিখছেন, “তুমি বয়সে ও সম্পর্কে বড়, এবং তোমার দোষও ছিল না … কিন্তু ভালোবাসার খাতিরে তুমি আত্মমর্য্যাদা বিসর্জন দিতে প্রস্তুত হইলে। … আমি তোমার আত্মজয় দেখিয়া ধন্যবাদ দিলাম। এই যে ত্রুটি-স্থলে অবনত হইতে শিখিলে, পরবর্ত্তী জীবনে এই শিক্ষা কখনো বিস্মৃত হও নাই। ব্যক্তিগত জীবনে আমরা রোজ এই ঘটনা শুধু প্রত্যক্ষ করি না, নিজেরাও ঘটিয়ে থাকি। নিজের সন্তান, স্ত্রী বা প্রিয়জনকে অপমানের হাত থেকে রক্ষা করতে, ভুল না থাকা সত্ত্বেও পায়ে ধরে ক্ষমা চেয়ে নিই, কখনো রাষ্ট্রশক্তির কাছে, কখনো দুর্বৃত্ত পাড়াপড়শির কাছে। নিঃসন্দেহে অবস্থার ফেরে তাৎক্ষণিক ভাবে আত্মমর্য্যাদা বিসর্জন দেওয়াও একটা শিক্ষা, যদি সেটা বৃহত্তর ও মহত্তর উদ্দেশ্যে কাজে লাগে। অঘোররকামিনীর কাছে সেটা যে শুধু ‘ভালোবাসার খাতিরে’ ছিল না, বোঝা যায়। তবে কি শুধু গৃহশান্তি বজায় রাখার উদ্দেশ্যে ছিল? নাকি ব্রাহ্মিকা হিসেবে আত্মিক ক্রমোন্নতির উদ্দেশ্যে ছিল? নাকি ভবিষ্যৎ সমাজকল্যাণী, সেবা ও শিক্ষাব্রতী জীবনের বীজ অঙ্কুরিত হচ্ছিল ভিতরে?

আরো একটি ঘটনার উল্লেখ করেছেন প্রকাশচন্দ্র। যে বাড়িতে ছিলেন সে বাড়িটা জর্জর হয়ে গিয়েছিল বলে একটি অন্য বাড়ি ভাড়া নিয়েছিলেন তাঁরা। প্রকাশচন্দ্রের এক বন্ধু মনস্থ করলেন সে বাড়িতে তিনিও থাকবেন। সবাই নিজের নিজের ঘর পছন্দ করে নিয়ে নেওয়ার পর পায়খানার পাশের ঘরটা পেলেন অঘোরকামিনী। তার কিছুদিন পর প্রকাশচন্দ্রের সেজদা এলেন, তিনিও থাকবেন। তিনি বাইরের ঘরটা নিলেন। তার ওপর নতুন পদে নিয়োগ-সংক্রান্ত (আবগারি ইন্সপেক্টর) সরকারি আদেশ পেয়ে প্রকাশ চন্দ্র চলে গেলেন পাটনায়। ওদিকে ব্রাহ্ম সমাজে উৎসবের সময়। সেজ ভাশুরের আপত্তি থাকা সত্ত্বেও অঘোরকামিনী আর বসন্ত গেলেন সে উৎসবে। ফলে নিজেরই বাড়িতে অঘোরকামিনী একঘরে হলেন। একার রান্না করে ঘরে বসে খেতেন।    

অঘোরকামিনীর কষ্ট দেখে প্রকাশচন্দ্র তাঁকে প্রথমে গ্রামে পাঠিয়ে দিলেন। কিন্তু সেখানেও কষ্ট বুঝে অবশেষে পাটনায় নিয়ে এলেন।

পাটনায় প্রথমবার আসার পর কিছুটা সময় খুবই দুর্বিপাকের মধ্যে কাটল। ছেলে সুবোধচন্দ্রের খুব অসুখ চলছিল। অফিসের কাজে প্রকাশচন্দ্রের মোতিহারি যাওয়ার ছিল। তিনি অঘোরকামিনী ও সুবোধকে নিয়েই মোতিহারি গেলেন যে হাওয়াবদলে আর সঙ্গে রাখলে সুবোধ ভালো হয়ে যাবে। কিছুদিনে সুবোধ ভালো হয়ে উঠল কিন্তু অঘোরকামিনী অসুস্থ হয়ে পড়লেন। সে অসুখ কিছুতেই ছাড়ে না। প্রকাশচন্দ্রের আবার পাটনা ফেরার ছিল। তাই অঘোরকামিনীকে কলকাতায় রেখে এলেন। কিন্তু চিকিৎসা বলতে চলছিল কবিরাজি। কোনো লাভ হচ্ছিল না। উল্টে কবিরাজমশাই বলে দিয়েছিলেন এ রোগ সারবে না। শেষে এক পরিচিত সাধু এলেন দেখতে। তিনিই বললেন অনেক টাকা তো খরচ করলে, এবার আরেকটু খরচ করে সাহেব ডাক্তার দেখাও। তখন এক সাহেব ডাক্তারকে দেখান হল। তিনি বললেন, কোথাও তো কিছু নেই! টিউমার আছে, কিন্তু উনি সন্তানসম্ভবা। এতদিনে এইটুকু কথা একজনও ডাক্তার, কবিরাজ বলতে পারেনি।

ডাক্তারের অনুমতি নিয়ে অঘোরকামিনীকে পাটনায় নিয়ে আসা হল। বাঁকিপুরে মুন্সেফ ছিলেন কেদার নাথ রায়। তাঁরই বাড়িতে রইলেন অঘোরকামিনী। একটাই ঘরে ভাঁড়ার, শয়ন, উপাসনা … তবু সৌদামিনী দেবীর স্নেহশুশ্রুষায় অঘোরকামিনী ভালো হয়ে উঠলেন। প্রকাশচন্দ্র সেদিন গেছেন সীতামাঢ়ি, অঘোরকামিনী দ্বিতীয় পুত্র সাধনচন্দ্রের জন্ম দিলেন। টিউমার-ফিউমার কিছু বোঝাই গেল না।

সৌদামিনী দেবী শিক্ষিতা কিন্তু নিরহঙ্কারী, স্নেহশীলা নারী ছিলেন বোঝা যায়। নিকট বন্ধুর মত অঘোরকামিনীকে তিনি কাছে টেনে নিলেন। মাঝেমধ্যে গাড়িতে করে সৌদামিনী অঘোরকামিনীকে নিয়ে শহরে বেড়াতে বেরুতেন। নতুন শহরের মানুষজন, শিক্ষিতা নারীর বন্ধুসঙ্গ ইত্যাদির খুব ভালো প্রভাব পড়ল অঘোরকামিনীর জীবনে। তার ওপর স্বামী প্রকাশচন্দ্রের কাজের পরিসরটা বদলে গিয়েছিল। বার বার তাঁকে ট্যুরে যেতে হত। সেসব জায়গায় প্রকাশচন্দ্র কখনো কখনো স্ত্রীকে নিয়ে যেতেন। একবার ডুমরাঁও যাওয়ার বর্ণনা করেছেন তিনি। ট্রেনে সেসময় সেকেন্ড ক্লাসে মহিলা কামরা চালু হয়েছিল। প্রকাশচন্দ্র স্ত্রীকে সেই কামরাতেই একলা যেতে বললেন। স্টেশন এলে নেমে গিয়ে দেখে আসতেন। অঘোরকামিনী প্রথমে আপত্তি করলেও একলা সফরে তাঁর সাহস বাড়ল। সঙ্গী মহিলা যাত্রীদের সঙ্গে কথাও হয়ে থাকবে।

প্রকাশচন্দ্র নিজেই লিখছেন, “বাহিরে আসিয়া তোমার মনের স্বাধীনভাব বাড়িতে লাগিল, সাহস বাড়িতে লাগিল। সঙ্গে সঙ্গে নারীজাতির অধিকার বিষয়ে, নারীজীবনের আদর্শ বিষয়ে চিন্তার স্রোত খুলিয়া যাইতে লাগিল। যতই তুমি বাহিরের জগত দেখিতে লাগিলে, ততই বুঝিতে পারিলে, এদেশে নারীর অবস্থা কত হীন, এবং তাহার উন্নতির পথে পদে পদে কত বাধা – ততই তোমার মনে ক্লেশও হইতে লাগিল।”

ব্রাহ্মসমাজে প্রথম থেকেই শিক্ষার প্রসার এবং নারীমুক্তির সাধনা ছিল। প্রথম থেকেই মানবকল্যাণের সঙ্গে ধার্মিকতার যোগ প্রদর্শিত হয়েছিল। প্রকাশচন্দ্র বলছেন, “বুঝিলাম, বাহিরের জনসমাজের সেবা না করিলে ঘরের ধর্মও ঠিক থাকে না; আর বাহিরের জগত দেখিয়া মনটা বড় না হইলে, ভালো লোকের সঙ্গে মিশিয়া আত্মা উন্নত না হইলে, ব্রাহ্মধর্ম সাধন করা যায় না।” আচার্য কেশবচন্দ্র সেন প্রতিষ্ঠিত ‘নববিধান’ সমাজে সম্ভবতঃ এই উপলব্ধিটা আরো বেশি গভীরভাবে হয়েছিল। তিনি নিজেও সচেষ্ট হয়েছিলেন যাতে অন্তঃপুরবাসিনী নারীরা সাধনসমাজে ও শহরে পুরুষদের কাঁধে কাঁধ মিলিয়ে ঘোরে। অঘোরকামিনী যেন সেই ডাকে শামিল হয়েই মুক্তির পথ খুঁজছিলেন। উপাসনাস্থলে সময় মত উঠে দাঁড়াবার ডাক পড়লে পুরুষেরা উঠে দাঁড়াতেন। নারীরা বসে থাকতেন। কিন্তু অঘোরকামিনী উঠে দাঁড়াতেন। এর জন্য তাঁকে নিন্দা আর ভর্ৎসনাও সহ্য করতে হয়েছে। একবার গয়ায় গিয়ে কোন ধর্মোৎসবে দেখলেন পুরুষেরা সমবেতভাবে হরিগুণ কীর্তন করছে। নারীরা দোতলায় দাঁড়িয়ে দেখছে। তিনি ওই দোতলা থেকেই সবাইকে শুনিয়ে বললেন, “ভগবান, তোমার পুত্র সন্তানদের জন্য এত করিলে, ভালই হইল, তোমার কন্যাদের জন্য কি করিলে? তাহাদের মুখপানে কে চাহিবে? তাহাদের উন্নতি কিরূপে হইবে?”

১৮৮১ সালের শেষে সপরিবারে প্রকাশচন্দ্র মুন্সেফ কেদারনাথ রায়ের বাড়ি ছেড়ে অন্য একটি বাড়িতে উঠে গেলেন। কেননা, প্রকাশচন্দ্রের ছোট ভাই প্রবোধ তাঁর পরিবার নিয়ে দাদার সংসারে থাকতে এলেন। আবার মোতিহারির মত অঘোরকামিনীকে  গৃহিণী হয়ে স্বতন্ত্রভাবে সংসারের দায়িত্ব হাতে নিতে হল। এ বাড়িতে আসার পর অঘোরকামিনী একা একা পায়ে হেঁটেই রাস্তায় বেরুনো শুরু করলেন, যে সে সময় বাঙালি মধ্যবিত্ত সমাজে অভাবনীয় ছিল। দিব্যি যেতে লাগলেন অন্যান্য বাড়িতে ধর্মোৎসবে।

সাধনপথ

১৮৮২ সালের ১লা জুলাই বিধানচন্দ্রের জন্ম হয়। পঞ্চম সন্তানের জন্মের আগে থেকেই প্রকাশচন্দ্রের মনে একটি গ্লানির উদয় হচ্ছিল। অঘোরকামিনী তাঁর সমস্যার কথা বলতেন। দুই মেয়ে, দুই ছেলেকে তো বাড়িতে দাসির জিম্মায় রেখে বেরুতেন ধর্মের কাজে, কিন্তু গর্ভস্থ শিশুকে কোথায় রেখে যাবেন? সাধনের সময় সে শিশুটির নড়াচড়া আরো ব্যাঘাত সৃষ্টি করে। তাঁর সাধনসঙ্গিনী স্ত্রী শুধু তাঁদের ক্ষণিক শারীরিক মিলনেচ্ছার দুর্বলতার ফলে এভাবে ক্ষয়ে যেতে থাকবেন? – প্রকাশচন্দ্র ভাবতেন। তাই বিধানের জন্মের পর তাকে কোলে নিয়ে দুজনে প্রতিজ্ঞা করলেন যে আর সন্তান হবে না। সে সময় প্রকাশচন্দ্রের বয়স ৩৫, অঘোরকামিনীর ২৬; যে কোনো ক্ষণে দুর্বল হয়ে পড়ার আশঙ্কা ছিল। তাই, সারা জীবন না ধরে, আপাততঃ ছ’মাস ছ’মাস করে আত্মিক মিলনের ব্রত নেওয়া অর্থাৎ শরীরের সম্পর্ক না রাখার প্রতিজ্ঞা করা শুরু করলেন। আগেও বেশ কয়েকবার সপ্তাহ, মাস ধরে চেষ্টা করেছিলেন, কিন্তু পারেন নি। এবার পারলেন। তাই এক ধর্মোৎসবে অবশেষে দুজনে অনন্ত আত্মিক মিলনের ব্রত গ্রহণ করলেন।

এ ব্রত সহজ ছিল না। কাজ, আরো বেশি কাজ, মানুষের সেবা ও একাগ্র উপাসনা ছাড়া শরীরের স্বাভাবিক ইচ্ছাকে রোধ করা সহজ ছিল না। অঘোরকামিনীর জন্য আরও কঠিন ছিল সে পরীক্ষা। কেন না, উদাসীন হয়ে যাওয়ারও উপায় ছিল না, স্বামী দুর্বল হয়ে পড়লে মায়ের মত স্নেহের শক্তি দিয়ে তাঁকে সামলাতে হত। সংসারের যাবতীয় ভার নিজের কাঁধে নিয়েও তিনি সারা দিন, নিজের বাড়ি ছাড়াও পরিচিত জনের বাড়িতে উপাসনার কাজ, ধর্ম আলোচনা, নামগান, অসুস্থদের সেবা, সন্তানদের প্রতিপালন … কিছুতে ত্রুটি রাখতেন না। আর তারই সঙ্গে দিন প্রতিদিন বেড়ে চলেছিল তাঁর চেতনার প্রসার যার ফল ছিল একাধারে মনের বৈরাগ্য ও সবার প্রতি গভীরতর ভালোবাসা। প্রকাশচন্দ্র লিখছেন, “বাঁকিপুরে আসিয়া আমাদের চেষ্টা হইল, যে কিসে আমাদের জীবন ঘরের সীমা অতিক্রম করিয়া বাহিরেও ব্যাপ্ত হইয়া পড়ে। এখন তোমার আত্মা এত জাগিয়া উঠিল, যে তাহার সকল আকাঙ্খার তৃপ্তি কিসে হইবে সেজন্য আমাকেও ব্যস্ত হইতে হইল। পরসেবার জন্য তুমি অধিক ব্যাকুল হইতে লাগিলে। দেখিলাম, যতই প্ন্যকে ভালবাসিতে পারা যায়, শুদ্ধতার পথও ততই সহজ হয়। তুমিও তাহা বুঝিলে।”

১৮৮৪ সাল আসতে আসতে অঘোরকামিনী এতদূর দৃঢ়চেতা হয়ে উঠলেন যে প্রকাশচন্দ্রের প্রতিনিধি হয়ে, দেড় বছরের বিধানচন্দ্রকে কোলে নিয়ে একাই গেলেন ভাগলপুর সমাজের উৎসবে, অংশগ্রহণ করলেন। মনে ইচ্ছে নিয়ে ফিরলেন যে ভাগলপুরের মত পাটনাতেও ব্রাহ্মোপাসক পরিবারদের নিয়ে সুন্দর একটি পাড়া রচনা করবেন।

বড় মেয়ে সুসারের বিয়ের প্রশ্ন উঠল। পয়সার অভাবে সুসারকে কলকাতায় রেখে লেখাপড়া করান যায় নি। পাটনার স্কুলে মেয়েদের পড়াবার ভালো ব্যবস্থা নেই বলে তাকে বাড়িতে গৃহশিক্ষক রেখে লেখাপড়া করান হয়েছিল। গৃহশিক্ষক ছিলেন বৃন্দাবনচন্দ্র সুর। সচ্চরিত্র, ভালো ছেলে, ব্রাহ্মসমাজেরই একজন। সুসার ও তাঁর মাঝে ভালোবাসা গড়ে উঠেছিল। সুসারকে যখন মা জিজ্ঞেস করলেন তার কাউকে পছন্দ কিনা, সুসার বৃন্দাবনচন্দ্রের নাম লিখে দিলেন। বাবা, মা রাজি হলেও পাটনার সাধারণ বাঙালি হিন্দু মধ্যবিত্ত সমাজ খড়্গহস্ত হয়ে উঠল। তাদের মধ্যে ব্রাহ্মরাও ছিলেন। কেননা মেয়ে কুলীন কায়স্থ আর ছেলে মৌলিক সদ্গোপ। ধনীও নয়, বিলেতফেরতও নয়। সমাজে যাঁরা বন্ধু ছিলেন তাঁরাও বললেন ভুল হচ্ছে। কিন্তু অঘোরকামিনী একা লড়ে গেলেন। মেয়ের ইচ্ছেয় বিয়ে হচ্ছে, এটাই বিধাতার ইঙ্গিত, আর কিছু দেখার নয়। স্বামীর প্রশ্রয় নিশ্চয়ই ছিল। কিন্তু বিয়ের দিনগুলোয় এক হাতে অক্লান্ত পরিশ্রম করে মেয়ের বিয়ে দিলেন। বিয়ের লুচিটাও নিজের হাতে ভাজলেন। এমনকি স্ত্রী-আচারের দিনে, সমাজের বিস্ফারিত দৃষ্টির সামনে বস্ত্র বা দানসামগ্রীর জায়গায় “বর ও কন্যাকে গেরুয়া ও একতন্ত্রী দিয়া সাজাইলে। কেননা গেরুয়াই তোমার চক্ষে সর্বাপেক্ষা বহুমূল্য বস্ত্র, ও একতন্ত্রী তোমার বিচারে সর্বাপেক্ষা মিষ্ট বাদ্য যন্ত্র।” আশীর্বাদ করার সময় নারীরা একত্র হলে তিনি দাঁড়িয়ে বর ও কন্যার কল্যাণের জন্য প্রার্থনা করলেন।

ফল হল যে প্রকাশচন্দ্র ও অঘোরকামিনীর পরিবারকে একঘরে করে দেওয়া হল। সামাজিক অনুষ্ঠানে আগে তাঁদেরও নেমন্তন্ন করা হত। সে সব বন্ধ হয়ে গেল। শেষ যে নেমন্তন্নে ডাক পেয়েছিলেন সেখানে প্রকাশচন্দ্রকে আলাদা একটা কামরায় খেতে বসান হয়েছিল। স্বনামধন্য আইনজীবী গুরুপ্রসাদ সেন সেখানে উপস্থিত ছিলেন। তিনিই প্রতিবাদ করলেন। … লোকে ব্রাহ্মসমাজকে চাঁদা দেওয়া বন্ধ করল। ওদিকে ঘরে, প্রকাশচন্দ্রের মা রেগে বিয়ের আগেই ছোট ছেলে প্রবোধচন্দ্র ও তার বৌকে নিয়ে কলকাতায় চলে গিয়েছিলেন। যাহোক, সেখানে তর্কবিতর্কের ফলে প্রবোধচন্দ্র আবার বিয়ের সময় চলে এসেছিলেন।

২৭শে মে, ১৮৮৪ সুসারের বিয়ে হল। আর সে বছরই পাটনার নয়াটোলা পাড়ায় প্রকাশচন্দ্রদের নিজেদের বাড়ি হল। ১৫ই নভেম্বর গৃহ প্রতিষ্ঠা অনুষ্ঠান করলেন অঘোরকামিনী। চেষ্টা করছিলেন বাড়িটাকে একাধারে উপাসনাস্থল, ভালোবাসার আশ্রয় ও সেবাশ্রম হিসেবে গড়ে তুলতে। টাকাপয়সার অভাব সামলাতে পাচককে ছাড়িয়ে দিয়ে নিজেই রান্নাও সামলাচ্ছিলেন মাঝে মধ্যে। এমন সময় প্রকাশচন্দ্র ডেপুটি কালেক্টরের পদে নিযুক্ত হলেন।  আবার মোতিহারি জেলায় যোগ দেওয়ার নির্দেশ পেলেন। ৫ই আগস্ট ১৮৮৫তে তাঁরা পাটনার বাসা ছাড়লেন।

মোতিহারিতে আগের বার প্রকাশচন্দ্র একটি বাড়ি কিনেছিলেন। সে বাড়িতে অন্য একজন থাকতেন। তিনি বাড়িটা কিনতে চাইছিলেন কিন্তু কম দাম দিচ্ছিলেন। অঘোরকামিনীর কথায় সেই কম দামেই প্রকাশচন্দ্র বাড়িটা বিক্রি করে দিলেন। অঘোরকামিনীর সেবাকর্ম মোতিহারিতেও একই রকম চলছিল। নিজের দ্বিতীয় মেয়ে সরোজিনীর জন্য বিলেত ফেরত পাত্র পাচ্ছিলেন। সরোজিনীর বয়স কম বলে তারা অপেক্ষা করতেও রাজি ছিল। কিন্তু অঘোরকামিনীর অন্য একটি বিবাহযোগ্যা পাত্রীর নাম নিয়ে প্রশ্ন করলেন ‘অমুকের’ সাথে বিয়ের কথা ভাবছেন না কেন? ও-ও তো সরোজিনীরই মত, আমারই মেয়ে। বরং আগে ও … তারপর সরোজিনী। পাত্রপক্ষ রাজি হয়ে গেল এবং সেই মেয়ের সঙ্গেই পাত্রের বিয়ে হয়ে গেল।

এ সময়কার ছোট ছোট ঘটনার মধ্যে দিয়ে অঘোরকামিনীর দৃঢ়তা ও বিশ্বাসের পরিচয় পাওয়া যায়। এমনও দিন গেছে, প্রকাশচন্দ্র মোতিহারিতে চাকরি করছেন, সঙ্গে রয়েছে বড় ছেলে সুবোধচন্দ্র, শরীর অসুস্থ বলে অঘোরকামিনী সাধনচন্দ্র আর বিধানচন্দ্রকে নিয়ে মোকামায় তাঁদের পরিচিত অপূর্বকৃষ্ণ পালের বাড়িতে চলে গেছেন। ওদিকে পাটনা থেকে খবর এল যে দেওর প্রবোধচন্দ্রের ছেলেটি মারা গেছে। দুই ছেলেকে মোকামায় ছেড়ে অঘোরকামিনী অন্য একজন মানুষকে নিয়ে গেলেন পাটনা। সে মানুষটিও বলছে, ট্রেনে চড়া, নামা, ঘোড়ার গাড়ি ভাড়া করা সব নিজেই করছেন অঘোরকামিনী । আরেকবার, মোতিহারি থেকে পাটনায় এসেছেন স্বামীর সাথে উৎসবে, ওদিকে মোতিহারি থেকে খবর এসেছে সুবোধচন্দ্রের কলেরা হয়েছে, প্রকাশচন্দ্র দ্বিধায় পড়েছেন, অঘোরকামিনী স্থির – উৎসব শেষ করে তবেই ফিরলেন।

দ্বিতীয়বার মোতিহারিতে থাকাকালীন আরেকটি ঘটনা উল্লেখ্য। জামাই বৃন্দাবনচন্দ্র সুসারকে পরিত্যাগ করতে উদ্যত হলেন। তাঁর নাকি ব্রাহ্মমতাবলম্বন আর ভালো লাগছে না। জামাইয়ের মনটা পরিষ্কার করতে দার্জিলিং যাওয়া স্থির হল। জামাইয়ের মন তো পরিষ্কার হল না, দার্জিলিং থেকে ফিরে এসে তিনি সুসারকে পরিত্যাগ করে চলেই গেলেন, কিন্তু অঘোরকামিনীর মনটা পাহাড়ে গিয়ে ভালো হয়ে গেল। বরফঢাকা পাহাড়চুড়ো, জঙ্গল, রাস্তার চড়াই-উতরাই, হাঁটতে হাঁটতে শিশুর মত পথ থেকে হাজারটা জিনিষ কুড়িয়ে বেড়াতেন … তার ওপর সে সময় মহর্ষি দেবেন্দ্রনাথ ঠাকুরও দার্জিলিংএ ছিলেন। তাঁর সাথে দেখা করে এলেন একদিন। খুব পরিতৃপ্ত হল মন।

১৮৮৭ সালের অক্টোবরে তাঁরা মোতিহারি থেকে আবার পাটনায় ফিরে এলেন। পাটনায় ফিরে অঘোরকামিনী ব্রাহ্মিকা সমাজের কাজ শুরু করলেন। মন থেকে আসক্তি সরাতে দামি কাপড়জামা, গয়না ইত্যাদি তো ত্যাগ করেই ছিলেন, একদিন মাথার চুলটুকুও কেটে বিসর্জন দিলেন। বাকি ছিল স্বামী-ধন, তাঁকেও “প্রার্থনাপূর্বক ভগবানের শ্রীকরে অর্পণ” করলেন। আকাঙ্ক্ষা করলেন যে স্বামী “আসক্তির বস্তু থাকিবেন না, কেবল ধর্মপথের সহায় হইবেন।”

ছোট ছোট অনেক ঘটনা আছে এ সময়কার যা পড়লে অঘোরকামিনীর ত্যাগ, সেবা ও উপাসনায় ডুবে যেতে চাওয়া মনটা স্পষ্ট হয়ে ওঠে। তেমনই স্পষ্ট হয়ে ওঠে তাঁর মনের নির্মলতা। একইভাবে তিনি খৃস্টান পরিবারের সাথেও বন্ধুত্ব পাতাচ্ছেন, তাদের বাড়িতে এক পাদ্রী নিজেদের দেশের নিয়ম অনুযায়ী হাত বাড়িয়ে দেওয়াতে তিনিও হাত বাড়িয়ে শেক-হ্যান্ড করছেন। পরে অবশ্য সাবধান থাকতেন, আগেই জোড়হাত করে প্রণাম সারতেন। কিন্তু সাহেবের সাথে, বা পরপুরুষের সাথে হ্যান্ড-শেক করা নিয়ে কোনো গ্লানিবোধ ছিল না। আবার এটাও বোঝা যায় যে তিনি সবসময় ভালোটা মেনে নিতে প্রস্তুত। যেমন, পারিবারিক সংস্কারে তিনি বিধবাবিবাহের প্রবল বিরোধী ছিলেন। কিন্তু যখন শুনলেন যে একটি বিধবাবিবাহ হবে যাতে আচার্য্যের কাজ করবেন তাঁর স্বামী, আর বিয়েতে সাহায্য করারও কেউ নেই, তখন তিনি বিয়ের সমস্ত দায়িত্ব নিজের ঘাড়ে নিয়ে নিলেন। অনেক রাত অব্দি বিয়ে বাড়িতে থেকে সব কাজ সম্পন্ন করলেন। বর ও বৌয়ের কল্যাণকামনায় প্রার্থনাও করলেন।

আরো একটি উল্লেখযোগ্য ঘটনা আছে। একদিন বাড়িতে এক বন্ধুপত্নী চিকিৎসা ও হাওয়াবদলের জন্য তাঁদের বাড়িতে এসে উঠলেন। এই বন্ধুপত্নী সম্পর্কে প্রকাশচন্দ্রের বোন হতেন, কিন্তু দূরসম্পর্কের। তাঁর বিয়ের আগে এবং পরেও, প্রকাশচন্দ্র তাঁকে লেখাপড়ায় সাহায্য করতেন এবং সেই সূত্রে ঘনিষ্ঠতা জন্মেছিল। প্রাক্তন ছাত্রীর পীড়ায় একটু বেশি সমব্যথী হয়ে প্রকাশচন্দ্র নিজেই তার সেবা করতে উদ্যত হলেন। অঘোরকামিনী অসন্তুষ্ট হয়ে স্বামীকে তা করতে দিলেন না, কিন্তু সে নারী ও তার স্বামী ওই বাড়িতেই রইলেন। অঘোরকামিনী তার সেবার ভারও নিজের কাঁধে তুলে নিলেন। এমনকি সেই বন্ধুদম্পতির মেয়েও যখন ভয়ানক রোগে পীড়িত হল আর বড় ডাক্তার এসে বলল, বড়, খোলামেলা বাড়িতে নিয়ে যেতে, অঘোরকামিনী নিজের বাড়ি ছেড়ে সেই বাড়িতে গিয়ে তার সেবায় রত রইলেন। রোগিনীর জন্য শোণ নদীর জল, কলকাতার মাগুর মাছ … সব ব্যবস্থা করলেন। নিজের হাতে তার মলমুত্র পরিষ্কার করতেন। একদিন নয় ছয় মাস। যদিও মায়ের অসুখ সারল না, মেয়েটি বস্তুতঃ অঘোরকামিনীর সেবাতেই সুস্থ হয়ে উঠল।  

একজন ওনাকে নাম দিয়েছিলেন ‘মৈত্রেয়ী। নাম ও তার অর্থটা প্রকাশচন্দ্রেরও খুব পছন্দ ছিল। তাই যখন একদিন খ্যাতিমান ব্রাহ্ম নেতা, সাংবাদিক ও সম্পাদক উমানাথ গুপ্ত বাড়িতে এসে ঘরের অগোছালো অবস্থা দেখে এক রকম ভাবে গৃহিণীর তিরস্কার করলেন, প্রকাশচন্দ্রের ভালো লাগল না। ‘অঘোর-প্রকাশ’এ তিনি লিখছেন, “উমানাথবাবুর কথা তোমাকে বলিলাম, তুমি চেষ্টা করিতে লাগিলে। কিন্তু যেরূপ যত্ন করিলে সংসারের সব বস্তুর পূর্ণ ব্যবহার হয় ও কিছু অপচয় না হয়, সেরূপ যত্ন করিতে পারিতে না। যখন বর্দ্ধমানে একাকী ঘরকন্না করিতে, ধর্ম্মের কোন ধার ধারিতে না, তখন অল্প জিনিষে ও অল্প ব্যয়ে চালাইতে, ও সর্ব্বদা দ্রব্যাদির প্রতি দৃষ্টি রাখিতে; এখন আর তাহা হইবার নয়। এখন যদি তোমাকে সংসারী করিবার চেষ্টা কইতাম, তাহা হইলে হয়তো তোমার মৈত্রেয়ীর ভাবটুকু পলায়ন করিত। সুতরাং তুমি মৈত্রেয়ীই রহিলে।”

 ইতিমধ্যে ডিপার্টমেন্টাল পরীক্ষা দিয়ে পাশ করে চাকরিক্ষেত্রে প্রকাশচন্দ্রের উন্নতি হয়েছিল। কয়েকটি প্রসঙ্গ আছে ভ্রমণের। তীর্থ ভ্রমণ হিসেবে এবং স্বামীর কাজের সফরে সঙ্গিনী হিসেবে। কাছাকাছিতে রাজগীর, গয়া, মসৌঢ়ি, পুনপুন ইত্যাদি যেমন আছে তেমনই দূরের সিমলাও আছে। ভ্রমণ সবারই মন বদলায়। অঘোরকামিনীর মনটাও ভালো হয়েছিল। সব সময় সবার আগে সাতসকালে বেড়াতে যাওয়ার জন্য তৈরি হয়ে নিতেন। সাধিকা! সাজগোজ, ভালো জামাকাপড়ের শখ তো ছিল না! একটা ব্যাপার উল্লেখ্য। আজকাল রাজগীরে গিয়ে, মখদুমকুন্ডে যাওয়ার পথনির্দেশিকার কাছে কোনো স্থানীয় বাসিন্দাকে প্রশ্ন করলে সে বলবে ওটা মুসলমানদের জন্য। তখন কিন্তু এরকম ছিল না। অঘোরকামিনী, প্রকাশচন্দ্র এবং পুরো দলটা মখদুমকুন্ডে গিয়েই স্নান, উপাসনাদি সম্পন্ন করেছিল। দুবার যাওয়ার বর্ণনা আছে; দুবারই।

শিক্ষাব্রত

স্বামী-স্ত্রীর শারীরিক মিলনে লিপ্ত না হওয়ার, এমনকি স্পর্শসুখের ইচ্ছেকেও প্রতিহত করার সংকল্পের দশ বছর হয়ে গিয়েছিল। তাঁরা সে সংকল্প পালন করেছিলেন।  এবার দুজনেই নিজেদের মধ্যে আধ্যাত্মিক বিবাহ অনুষ্ঠান করার সিদ্ধান্ত নিলেন। তাঁরা দুজনেই ব্রাহ্ম ছিলেন এবং আচার্য কেশবচন্দ্র সেন প্রবর্ত্তিত ‘নববিধান’ ধারার অনুযায়ী ছিলেন। কেশবচন্দ্র সেন রচিত ‘নবসংহিতা’য় আধ্যাত্মিক বিবাহ অনুষ্ঠানের বিধান দেওয়া আছে। তিনি লিখছেন, “যখন স্বামী ও স্ত্রী পবিত্রতর সখ্যবন্ধন জন্য পবিত্রাত্মা কর্তৃক প্রেরিত ও আহূত হবে তখন তাহারা সেই আহ্বানের অধীন হইবে।” ২৭শে জানুয়ারি রাজগীরে ভোরবেলায় প্রকাশচন্দ্র নিজ হাতে অঘোরকামিনীর মস্তক মুন্ডন করলেন। তারপর নাপিত এসে প্রকাশচন্দ্রের মস্তকমুন্ডন ও ক্ষৌরকর্ম করল। উপাসনার পর নবসংহিতা অনুসারে দুজনের আধ্যাত্মিক বিব্বাহ সম্পন্ন হল। অঘোরকামিনীর দিব্য রূপ সবাইকেই প্রভাবিত করেছিল। প্রকাশচন্দ্র লিখছেন, “শ্রদ্ধেয় প্রচারক মহাশয় … বলিলেন, জগতে মহাপুরূষ অনেক আসিয়াছেন, কিন্তু মহানারী অদ্যাবধি আসেন নাই। এইবার তাঁহার আগমন হইল।” পরে দুজনেই, এই আধ্যাত্মিক বিবাহের দিনটাকেই নিজেদের জন্মদিন হিসেবে পালন করা শুরু করেছিলেন।

এবার অঘোরকামিনী নিজের জীবনের প্রধান কাজে মন দিলেন। ১১ই ফেব্রুয়ারি ১৮৯১ তারিখে নয়াটোলায় নিজেদের বাড়িটিতে বোর্ডিং স্থাপন করলেন। সেদিন থেকে বাড়ির নাম দিলেন ‘পরিবার’। পরিবার অর্থে শুধু পারম্পরিক স্বজন নয়, শিক্ষার্থী ও সেবার্থীরাও। পরিবার বলতে একাধারে শিক্ষাসদন ও সেবাসদন। শুরু হল দুইটি কন্যাকে নিয়ে। মোকামায় থাকতেন পূর্বোল্লিখিত অপূর্বকৃষ্ণ। অঘোরকামিনী সেটিকে নিজের বাড়ি মনে করতেন আর বলতেন, পূবের ঘর। তেমনি দানাপুরে থাকতেন ষষ্ঠিদাস, তেমনই আপন। তাঁর বাড়িটিকে বলতেন, পশ্চিমের ঘর। তিনি অনুভব করতেন, এধরণের গরীব ব্রাহ্মরা কলকাতায় নিজেদের মেয়েদের পাঠিয়ে লেখাপড়া করাতে পারবে না। অথচ পাটনায় মেয়েদের লেখাপড়া শেখাবার তেমন ব্যবস্থা নেই। তা, এই পূবের ঘর আর পশ্চিমের ঘরের দুই কন্যাকে নিয়ে অঘোরকামিনী তাঁর বোর্ডিং শুরু করলেন।

কিন্তু লেখাপড়া শেখান আর সেবাশুশ্রূষা করা ভিন্ন কাজ। শিশুদের লেখাপড়া শেখানোর জন্য বিশেষ প্রশিক্ষণ চাই। তাই কঠোর সিদ্ধান্ত নিলেন, সুদূর লখনউয়ে গিয়ে কিছুকাল থেকে, মিস থোবার্ন প্রতিষ্ঠিত উইমেন্স কলেজে মন্টেসরি প্রশিক্ষণ নেবেন, সঙ্গে, সম্ভব হলে ইংরেজিও পড়বেন। যাবেন তো যাবেনই। কোন বাধা তাঁকে আটকাতে পারল না। স্বামীর প্রশ্রয় অবশ্যই ছিল। নইলে, স্বামীকে, ছেলেমেয়েদেরকে খাবার কে দেবে, লখনউয়ে গিয়ে থাকার, পড়ার খরচ কোত্থেকে আসবে, এসব চিন্তা না করে বেরিয়ে যেতে পারতেন না। যদ্দিন লখনউয়ে থাকবেন, ততদিনের জন্য তাঁর বালিকাবিদ্যালয় খগৌলে ষষ্ঠিদাসের বাড়িতে উঠে গেল। ভাই ষষ্ঠিদাস তার ভার নিলেন। স্বামী বাড়িতে একা রইলেন। তিন ছেলেকে রাখলেন দেওর প্রবোধচন্দ্রের বাড়িতে। আর দুই মেয়েকে নিয়ে, অনেকের গঞ্জনা, ঠাট্টাতামাশা আর কয়েকজনের আশীর্বাদ মাথায় নিয়ে অঘোরকামিনী ২৭শে ফেব্রুয়ারি ১৮৯১ তারিখে লখনউ রওনা হলেন।

সে সময় তাঁর বয়স ৩৫ বছর, বিবাহিতা, পাঁচ সন্তানের জননী। স্বাভাবিক ভাবেই মিস থোবার্ন তাঁকে অন্য চোখে দেখতে শুরু করলেন। অন্যান্য ছাত্রীদের মত নিয়মশৃংখলার আগলে তাঁকে রাখতে চাইতেন না, বন্ধুর মত, বোনের মত ব্যবহার করতেন। কিন্তু অঘোরকামিনী জানতেন, স্বেচ্ছায় নিয়মের আগলটা না পরলে তাঁর উদ্দেশ্য সাধিত হবে না। তাই তিনি নিজের জন্য নিয়ম গড়ে নিলেন –  ভোর সাড়ে চারটা থেকে পাঁচটা অব্দি উপাসনা; পাঁচটা থেকে ছ’টার মধ্যে খাওয়া, জামাকাপড় পরা, ঘর পরিষ্কার করা; ছ’টা থেকে সাড়ে দশটা অব্দি স্কুল; সাড়ে দশটা থেকে বারোটার মধ্যে স্নান, আহার ও বিশ্রাম; বারোটা থেকে অপরাহ্ন সাড়ে পাঁচটা অব্দি পড়া; সাড়ে পাঁচটা থেকে ছ’টার মধ্যে আহার; ছ’টা থেকে সাতটা অব্দি নামপাঠ ও গান; সাতটা থেকে রাত দশটা অব্দি পাঠ; সাড়ে দশটা থেকে এগারটার মধ্যে গান ও শুয়ে পড়া। এমনকি মিস থোবার্ন যখন বললেন, প্রতিদিন একটু খেলাধুলোও করতে হবে, শরীরের জন্য দরকার, তাঁর দেখাদেখি অঘোরকামিনীও মাথায় রুমাল বেঁধে খেলাধুলো শুরু করলেন। পাটনায় ফিরে এসেও নিজের স্কুলের মেয়েদের সঙ্গে একই উৎসাহে খেলা করতেন।

লখনউ থেকে প্রকাশচন্দ্রকে লিখেছিলেন, “বাধ্যতা যে কি, বাল্যকালে তাহা কেহ শেখায় নাই। গোপনে সেই জন্য নিজেই কষ্ট পাইয়াছি। বাধ্যতাতে যে এত সুখ, তাহা জানিতাম না। মনে হইত, বাধ্য হইয়া চলিতে হইলে কেবল দুঃখসাগরে ভাসিতে হইবে। এখন দেখিতেছি সে আমার ভূল। এই এক নুতন জিনিষ দেখিতেছি, যাহাকে তিক্ত বলিয়াছিলাম, সেই হইল মিষ্ট, আর যাহাকে মিষ্ট বলিয়াছিলাম, এখন তাহাকে তিক্ত বলিয়া পরিহার করিতে বাধ্য হইয়াছি।”