इस काम का महत्व कम नहीं है। लेकिन इतने भर से राममोहन राय का महत्व सामने नहीं आता है। उन्हे यूं ही भारत में आधुनिक युग का उद्वोधक नहीं कहा गया है। जितना व्याप्त और सुदूर-प्रभावी था उनका काम का क्षेत्र, उतना ही रोचक था उनका संक्षिप्त जीवन।
सबसे पहले तो उनके नाम से राजा शब्द को हटाया जाय। सुनने से ही भ्रम होता है और एक उपेक्षा का मनोभाव आता है कि ‘हें:, राजा रहे होंगे’! फिर जब कुछेक इतिहासकारों का यह लांछन उसमें जुटता है कि तथाकथित ‘बंगाल नवजागरण’ के नाम से परिचित परिघटना सिर्फ कलकत्ता के बाबुसमाज की, अंग्रेजी शासन में हिस्सेदारी एवं उससे लाभ लेने की उत्कट आकांक्षा की अभिव्यक्ति थी, और यह पूरा ‘आन्दोलन’, पहले से चल रहे किसान-बगावतों की विरोधी प्रतिक्रिया मात्र थी, तब तो मन भिन्ना भी जाता है। सुधार और क्रांति को हमेशा ही एक दूसरे के विपरीत देखने की जो सरलीकृत नजरिया है, उसमें यह सबकुछ फिट बैठ जाता है।
पहली बात तो यह कि राममोहन राय राजा नहीं थे। उनकी मृत्यु के कुछ पहले, इंग्लैंड की यात्रा शुरु करने के समय, दिल्ली के बादशाह से यह उपाधि उन्हे मिली थी। मिली थी क्योंकि राजा की उपाधि रहने पर इंग्लैंड के पार्लियामेंट में उन्हे अपनी बात रखने में सुविधा होती। गौरतलब है कि बादशाह के आग्रह पर अपनी बातों के विषयावली की सूची में उन्होने बादशाह का वजीफा बढ़ाने का मुद्दा जरूर जोड़ा था लेकिन उस सूची में प्रमुखतम विषय था भारत के किसानों की स्थिति, जमीन के स्थायी बंदोबस्त (परमानेन्ट सेट्लमेंट) के नियमों के फलस्वरूप रैयतों पर हो रहा जुल्म एवं अन्याय, करों की व्यवस्था आदि। इस पर फिर आगे बात रखेंगे।
जहां तक बंगाल के नवजागरण प्रसंग को किसानों का बगावत, नमक मजदूरों एवं बुनकरों का आन्दोलन आदि के बनाम दिखाने का प्रयास है, वह एक अति-सरलीकरण है। लेकिन चुंकि विषयांतर होगा इसलिये बहस की इस दिशा में कदम बढ़ाना मुनासिब नहीं होगा।
एक अद्भुत बालक था बचपन में, हुगली जिला के राधानगर कस्बे में रहने वाले राय परिवार के संतान राममोहन। सन 1772 के 22 मई को जन्मा यह बालक बेशक खातेपीते घर से था, जमींदारी थी परिवार की, घर की ओर से पढ़ाई पर जोर भी था और वह खुद वह पढ़ने लिखने की व्यग्र ईच्छा भी रखता था। यहां तक कुछ भी अजीबपन नहीं था। किशोरावस्था में ही घर से दूर पटना भेज दिया गया ताकि फारसी की तालीम भी पूरी हो और अरबी भी सीख लें। संस्कृत तो घर पर ही सिखाया जा रहा था। सबकुछ परिवार की परम्परा के अनुसार ही था; पुश्तों से उसका परिवार कट्टर हिंदु ब्राह्मण भी था और मुसलमान राजदरबार में प्रतिष्ठित या कभी अप्रतिष्ठित सेवक भी था। इस बात में भी अजीबपन नहीं था कि पटना के मद्रसे में कुरान की आयतों, सूफी मतों एवं अरबी तर्कपद्धति से परिचित होकर घर लौटनेवाला किशोर राममोहन एकेश्वरवाद की कसौटी पर हिन्दु धर्म के रीतिरिवाजों की आलोचना करने लगा, घर-बाहर अंधविश्वासों एवं कुरीतियों के खिलाफ खुल कर बोलने लगा। उसके जैसे और भी खातेपीते राजकर्मचारी हिन्दु परिवारों के लड़के भी जरूर बोलते होंगे! सारे तो राममोहन राय नहीं बन जायेंगे! घर पर डांट-फटकार पड़ेगी, सम्पत्ति से बेदखल किये जाने की धमकी मिलेगी, मां चुपचाप आंसु बहायेंगी, फिर जल्द से जल्द बेटे का विवाह कर देनें का सुझाव आयेगा … विवाह, पैसा, आराम, यारों का संगत आदि के प्रभाव से तात्कालिक जोश ठंडा पड़ जायेगा।
लेकिन राममोहन का जोश ठंडा नहीं पड़ा। पिता से झगड़ा हुआ और क्रोध व अभिमान के कारण 16 साल की उम्र में उन्होने घर छोड़ दिया। कहां गये? पूरब व उत्तर की ओर इस शहर, उस शहर भटकते हुये, साधु-सन्न्यासियों के पीछे पीछे बढ़ते गये हिमालय की ओर! हो सकता है बौद्ध श्रमण भी मिले होंगे आगे! वे पहुंच गये तिब्बत! सोचिये! रास्ता तो वही रहा होगा? पुराना रास्तों में से एक! नेपाल होकर या सिक्किम होकर? बर्फीले पठारों को पार कर? राहुल सांकृत्यायन से लगभग सवा सौ या उससे भी अधिक साल पहले बौद्धधर्म की गहराइयों को जानने एक किशोर तिब्बत गया! … जीवनीकारों ने पता लगाया है कि 16 साल के भारतीय लड़के के मुख से सभी धर्मों के एक होने और एक ईश्वर के होने की बात सुन कर तिब्बती लामा सब गुस्से में आ गये और लड़के को मार डालने की योजना बनने लगी। रात के अंधेरे में तिब्बती माताओं और बेटियों ने अपने ‘चूबा’ (तिब्बती स्त्रीयों का गाउन) की ओट में उन्हे तिब्बत से बाहर किया। फिर वे गये बनारस। वहां कुछ समय वह शास्त्रार्थों को समझने में बिताये।
घर जरूर लौट आये राममोहन लेकिन सोच बदली नहीं। एक नौकरी मिल गई। चले गये मुर्शिदावाद। वहीं बैठ कर उन्होने पूरी की अपनी पहली किताब ‘तुहफत-उल-मुवह्हिदीन’। यह किताब फारसी में लिखी गई और इसकी भूमिका अरबी में लिखी गई। पुस्तक में उन्होने सभी धार्मिक नेताओं की आलोचना की धर्मावलम्बियों को गुमराह करने के लिये एवं तमाम किस्म के अंधविश्वासों से ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को ओझल करने के लिये। राममोहन ने एकेश्वरवाद के पक्ष में बातें रखीं और कहा कि सही दिशा में सोचनेवाले लोग एक दिन सभी झूठे प्रस्तावों से मुक्त होंगे और “एक परम अस्तित्व की ओर मुखातिब होंगे जो महाविश्व के सुसंगत संगठन के स्रोत हैं, तथा समाज की बेहतरी की ओर ध्यान देंगे।”
जैसा पता चलता है कि मुर्शिदाबाद रहते हुये ही राममोहन को इस्ट इन्डिया कम्पनी के राजस्व विभाग में नौकरी मिली। उक्त नौकरी के सिलसिले में राममोहन भागलपुर, रामगढ़ आदि शहरों में काम करते हुये सन 1809 में रंगपुर पहुँचे। वहाँ वह राजस्व अधिकारी जॉन डिगबी के सहायक के रूप में काम करने लगे। दोनों ने गहरी मित्रता हो गई। रंगपुर मे बिताये गये पांच साल में राममोहन ने एक तरफ खूब पढ़ाई की, वहां रहनेवाले तांत्रिक विद्वान हरिहरानन्द तीर्थस्वामी की मदद से तांत्रिक साहित्य का गहन अध्ययन किया। दूसरी ओर, कुशल व्यापारिक बुद्धि के कारण विभिन्न व्यवसायों में अपनी आय का इतना बढ़िया निवेश किया कि सन 1814 में जब वह नौकरी छोड़ दिये, दोबारा नौकरी की जरूरत नहीं पड़ी। सोच लिया कि अब कलकत्ता में रह कर तमाम छद्म धर्मशास्त्रियों युक्ति, तर्क से पराजित करेंगे एवं एकेश्वरवाद की अपनी धारणाओं का प्रचार करेंगे।
इसके बाद उनके द्वारा किये गये जो काम हैं उन्हे हम चार भाग में बाँट सकते हैं।
1 – दोस्तों के बीच एकेश्वरवाद के तौर पर निराकार ब्रह्म की उपासना का प्रचार एवं उन्हे साथी, संगी बना कर ‘आत्मीय सभा’ की स्थापना जिसमें बीच बीच में साथ बैठ कर परिचित बंधुजनों ने धर्मचर्चा करना शुरु किया। सन 1828 में आत्मीय सभा की जगह पर उन्होने ब्राह्मोसमाज का गठन किया।
2 – जैसा उपर में कहा गया है, ब्रह्मोपासना का उपप्रमेय या स्वाभाविक परिणाम होगा ‘समाज की बेहतरी की ओर ध्यान’ – उसी सिलसिले में वह सक्रिय हुये जिसके दो हिस्से हैं।
(I) सामाजिक – सतीप्रथा का विरोध, बालविवाह का विरोध, विधवाविवाह का समर्थन एवं प्रचार आदि। इनमें सिर्फ सतीप्रथा को गैरकानूनी बनाने में वह सफल हुये; विधवाविवाह पर कानून सन 1856 तक एक ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के लिये इंतजार किया और बालविवाह के रोक पर कानून सन 1929, 1978 और फिर 2006 में बना। प्राचीन संस्कृत शास्त्र और साहित्य से उद्धृत कर विभिन्न निबंधों के माध्यम से उन्होने बताया कि प्राचीन काल में हिन्दु नारियों की स्थिति आज की (उनके समय की) स्थिति से बिल्कुल अलग और बेहतर थी।
(II) आर्थिक व राजनीतिक – कम्पनी-शासित भारत में पहलीबार राममोहन ने (क) भारतीय किसानों और रैयतों को झेलनी पड़ रही तरह तरह के जुल्मों की ओर ब्रिटिश सरकार व वहाँ के विद्वतजनों का ध्यान आकर्षित किया। (ख) साथ ही, स्थाई बंदोबस्त के तहत जो भूमि सम्बंध स्थापित किये गये उसके कारण जमींदार और पुलिस-प्रशासन के बीच बढ़ रहे सांठ-गांठ और भ्रष्टाचार की ओर ध्यान आकर्षित किया। (ग) कम्पनी द्वारा स्थापित न्यायिक व्यवस्था में न्यायिक प्रणाली और वादी-प्रतिवादी के बीच प्रयोग होने वाली भाषा की दोहरी अजनबीयत – जनता अंग्रेजी समझती नहीं जबकि न्यायिक प्रणाली यहाँ की भाषा समझती नहीं – से मुक्ति पाने के लिये स्थानीय ज्युरी नियुक्त किये जाने का सुझाव दिया। (घ) यह तो अब सब जानते हैं कि प्रेस की आजादी के लिये एवं प्रेस पर सेंसर के विरोध में इस देश का पहला प्रतिवाद उन्होने ही उठाया था। (ङ) आधुनिक व अंग्रेजी शिक्षा के लिये भी उन्होने जोरदार प्रचार किया। 1817 में जब एशिया का पहला आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा प्रतिष्ठान ‘हिंदु कॉलेज’ कोलकाता में खुला तब उसकी स्थापना समिति के प्रधान थे राममोहन राय।
इस तरह और कई मुद्दे उन्ही के द्वारा पहली बार छेड़े गये।
3 – तीसरे किस्म के काम में आयेंगे वे वाद-विवाद जो उन्होने हिन्दू और इसाई धर्म के प्रमुखों के साथ किया। समाज के ठेकेदारों से लोहा लेने के लिये उन्होने कई अखबार निकाले। उनमें प्रमुखतम है बंगला में ‘सम्वाद कौमुदी’ और फारसी में इस देश का पहला अखबार ‘मिरात-उल-अखबार’ (गौर करें कि कम्पनी-पूर्व शासन की भाषा फारसी थी लेकिन पूरे भारत में कोई अखबार नहीं था)। इन अखबारों के माध्यम से उन्होने समाज में वैचारिक युद्ध छेड़ा, कुरीति के खिलाफ, अज्ञान के खिलाफ, अशिक्षा के खिलाफ; लगातार लेख लिखे एवं आत्मीय सभा के बंधुजनों से भी लिखवाये।
4 – चौथे किस्म के काम में आयेंगे उनके द्वारा किये गये कई उपनिषद व वेदांत ग्रंथों का अनुवाद, सारानुवाद एवं संक्षिप्तसार ताकि आमजन उन ग्रंथों का खुद अध्ययन कर सके; पंडितों, पंडा-पुरोहितों के फरेब में न पड़े।
पूरे पोंगापंथी कट्टर हिंदू समाज, वैसा ही कट्टर मुसलमान समाज और कट्टर ईसाई धर्मयाजकों, मिशनरियों के समूह का दुश्मन बन कर वह यह सारा कार्य करते रहे।
14-15 वर्षों तक कोलकाता में रहकर ये उपरोक्त कामों के माध्यम से समाज में बदलाव के तूफान का बीजारोपण कर राममोहन 58 साल की उम्र में इंग्लैंड की ओर रवाना हुये। उन्होने इंग्लैन्ड जाने का निर्णय समय को देख कर लिया था। वह पहले बंगाली ब्राह्मण थे जो समुद्र-यात्रा पर निकले थे। उनके दिमाग में था कि जल्द ही (1832 में) इंग्लैंड के पार्लियामेंट में सुधार कानून आने वाला है, जिसका सीधा असर ईंग्लैंड की सत्ता और इस्ट इन्डिया कम्पनी के बीच के रिश्तों पर पड़ेगा।
इंग्लैंड पहुँच कर राजा के साथ मिल कर उन्होने भारत के बादशाह द्वारा सौंपा गया काम करवा जरूर दिया (वजीफा बढ़ गया) लेकिन मुख्य काम कुछ और था। लन्दन में हो चाहे लिवरपुल में या मैंचेस्टर में … वह निरंतर ब्रिटिश समाज के विभिन्न वर्गों में घूमते रहे, लोगों से मिलते रहे, उन्हे भारत की स्थिति एवं समस्यायें समझाते रहे ताकि हाउज ऑफ कॉमन्स में सुधार विधेयक पेश होने से पहले सचेत भारत-समर्थक जनमत की एक पृष्ठभूमि तैयार हो जाय।
जिस तरह कोलकाता में पूरे विश्व से तरक्कीपसंद शख्सियतें उनसे मिलने आते थे, इंग्लैंड पहुंचने के बाद वहां उन्हे आदर मिला एवं प्रख्यात अर्थशास्त्री जेरेमी बेन्थम सहित कई विद्वान उनसे मिलने को आते रहे।
उन्हे बदलते यूरोप के उदारपंथी बौद्धिक हृदय को भी समझना था, इसलिये इंग्लैंड से वह फ्रांस की राजधानी पैरिस चले गये। पैरिस में भी वह लोगों से मिलते रहे। राजा लुई फिलिप्प से भी भेंट किया।
लगातार काम और फिर यात्राओं से उनकी शक्ति क्षीण होने लगी थी। फिर भी लन्दन लौट कर हाउज ऑफ कॉमन्स के सिलेक्ट कमिटी के सामने उन्होने अपने दस्तावेज प्रस्तुत किये जिसमें भारत और उसके लोगों, खास कर किसानों की स्थिति का चित्रण था। साथ ही वे आर्थिक व प्रशासनिक सुधार के सुझाव थे जो उन्होने तैयार किया था।
सन 1833 में ब्रिस्टल शहर में उन्हे मेनिनजाइटिस की बीमारी हुई। 27 सितम्बर को ब्रिस्टल शहर में ही 61 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हुई। पहले अन्तरराष्ट्रीय भारतीय के तौर पर, पूरे सम्मान और रखरखाव के साथ वहीं उनकी समाधि बनी हुई है।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने स्पष्टत: कहा कि राममोहन राय ने भारत में आधुनिक युग का उद्घाटन किया, आज के विश्वजनीन सहयोग के जमाने की मानवता में हमारी दीक्षा उन्होने ही सम्पन्न किया।
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