(कॉमरेड पी सुन्दरैया की आत्मजीवनी का एक अंश
सत्याग्रह संघर्ष के दौरान, 1936 में – [उस वक्त] हम कांग्रेस के साथ भी काम कर रहे थे – हमने तय किया कि हम प्रादेशिक कमिटियों तक सांगठनिक चुनाव लड़ेंगे। हमने एन जी रंगा को काशिनाथुनि नागेश्वर राव पन्टुलु के खिलाफ अध्यक्ष पद के लिये खड़ा किया एवं मैं नीलम संजीव रेड्डी* के खिलाफ सचिव पद के लिये खड़ा हुआ। बेशक, हम सब उस वक्त युवा पीढ़ी के थे, और हमें पूर्ण बहुमत हासिल नहीं था। मुझे याद है उन लोगों ने बैठक में गांधीवादी संघर्षों के प्रति आस्था प्रकट करते हुए एक प्रस्ताव लाया था। हमने उस प्रस्ताव का विरोध किया। हमारा तर्क था कि गांधी दोबार असफल हो चुके हैं और उनके नेतृत्व से सहमत बने रहने का कोई सवाल नहीं उठता है। हमारी आलोचना तीखी थी। स्वाभाविक तौर पर हम भारी बहुमत से पराजित हुए। बाद में नागेश्वर राव पन्टुलु ने टिप्पणी की, “अब हम उस जगह पहुँच चुके हैं जहाँ लोग हमारे अपने कांग्रेस के अन्दर गांधी के खिलाफ बोल सकते हैं।” हमने कहा कि अगर गांधी गलत मार्ग चुनते हैं तो उनके खिलाफ बोलना कोई गलत बात नहीं है।
जो भी हो, हम काफी सक्रिय थे और भोगराजु पट्टभि सीतारामैया हमें सांगठनिक चुनावों में भाग लेने से रोकना चाहते थे। इसलिये 1938 में, जब उन्होने अन्तिम रूप से हमारे चुनाव में भाग लेने पर रोक लगा दिया, हमने पट्टभि से कहा कि उसे मेरे खिलाफ ऐसी कार्रवाई करने का कोई हक नहीं है। मैं किसी भी दूसरे की तरह एक जायज कांग्रेसी हूँ और हमने कोई गलती नहीं की। मैं कभी पार्टी का अवाध्य नहीं हुआ इसलिये अनुशासनात्मक कार्रवाई का कोई आधार नहीं बनता था। मैं अपने मामले को कांग्रेस की वर्किंग कमिटी के पास ले गया जिसमें नेहरु और नेताजी दोनों सदस्य थे। मैंने तर्क दिया कि आंध्र कमिटी की कार्रवाई गैरकानूनी है एवं कांग्रेस के संविधान के खिलाफ जाता है।
उस अलगाव के दौरान ‘इन्डियन एक्स्प्रेस’ अखवार ने पट्टभि सीतारामैया का साक्षातकार लिया। पत्रकार ने उनसे पूछा कि सुन्दरैया के खिलाफ कार्रवाई क्यों की गई है। सीतारामैया ने जवाब दिया कि कार्रवाई सुन्दरैया को पार्टी के अन्दर किनारे करने के उद्येश्य से नहीं, वल्कि इसलिये किया गया है क्योंकि सुन्दरैया अहिंसा में विश्वास नहीं करते हैं। तब वह पत्रकार मुझसे भी मिला मेरी प्रतिक्रिया जानने के लिये। मैंने अपने लम्बी व्याख्या लिखित रूप में दी। मैंने लिखा, “अहिंसा कांग्रेस का धर्म नहीं – अंग्रेजों से लड़ने के लिये कांग्रेस ने अहिंसा को नीति के रूप में अपनाया है। मैं व्यक्तिगत तौर पर अहिंसक संघर्ष में विश्वास नहीं करता हूँ और किसी के भी सांगठनिक चुनाव लड़ने पर उसके विश्वासों के कारण रोक नहीं लगनी चाहिये। जब तक कोई कांग्रेस में है उस पर निर्णय उसके कामों से होना चाहिये और यह देखा जाना चाहिये कि अपने कामों मे वह अहिंसक तरीकों और नीतियों पर चला कि नहीं। बस, इतना ही जरूरी है। हालाँकि मुझे संघर्ष के गांधीवादी तरीकों पर कोई आस्था नहीं है हमने कुछ भी ऐसा नहीं किया है जिससे मेरे पार्टी के अनुगत होने पर कोई सवाल उठा सके। पार्टी के संविधान के अनुसार मुझे पार्टी में रहने का और सांगठनिक चुनाव लड़ने का पूरा हक है। अत:, पट्टभि को मेरे खिलाफ कार्रवाई करने का कोई अधिकार नहीं और इसीलिये मैं वर्किंग कमिटी के समक्ष अपील कर रहा हूँ।” दोनो बयान प्रमुख ढंग से अखवार में छपे।
इस मुद्दे पर कांग्रेस की वर्किंग कमिटी में बड़ा वादविवाद हुआ। गांधी ने कहा कि ऐसे आदमियों को पार्टी में रहने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिये। बल्लभभाई पटेल और भोगराजु पट्टभि सीतारामैया ने उन्हे समर्थन किया। दर असल, कांग्रेस के वर्किंग कमिटी में यह विषय विवाद का मुद्दा ही इस कारण से बना कि अहिंसा कांग्रेस के लिये कोई धर्म नहीं था। फलस्वरूप, नेताजी एवं अन्य लोगों ने मुझे पार्टी से बहिस्कृत करने के पेशकश का विरोध यह कहते हुए किया कि वे भी एक धर्म के तौर पर अहिंसा पर विश्वास नहीं करते हैं, सिर्फ एक नीति के तौर पर उन्होने इसे स्वीकार किया है। उन्होने इस आधार पर मुझे सांगठनिक चुनाव लड़ने से रोके जाने का विरोध किया। अन्तत: मुझे पार्टी के अन्दर बने रहने की अनुमति मिल गई। बेशक, कांग्रेस वर्किंग कमिटी का फैसला पार्टी के हर स्तर पर गरमागरम वादविवाद का मुद्दा बन गया।
कांग्रेस के भीतर हमारी गतिविधियों के हिस्से के तौर पर हम नेताओं से अच्छे सम्बन्ध बनाये रखते थे, खासकर प्रकाशम पन्टुलु और बुलुसु सम्बामुर्ति के साथ, जो कहीं से भी उग्रवादी नहीं थे। अहिंसा के गांधीवादी धर्म से वे पूर्णत: सहमत नहीं थे। उदाहरण के तौर पर, जब हमने यह बात उठाई कि ब्ययक्तिक सदस्यता के अलावे कांग्रेस को जनसंगठनों की सामूहिक सम्बद्धता स्वीकार करनी चाहिये, सम्बामुर्ति हमारे प्रस्ताव से सहमत हुए और कहा कि इससे पार्टी की ताकत बढ़ेगी। इसके चलते हम अपने प्रस्ताव को आगे बढ़ाने में सक्षम हुए और बड़ा हलचल मच गया। जिस बैठक में हमारा प्रस्ताव स्वीकृत हुआ उसमें प्रकाशम पन्टुलु उपस्थित नहीं थे। जब अगली बैठक में प्रस्ताव को समीक्षा के लिये रखा गया तो प्रकाशम ने प्रस्ताव का प्रबल विरोध किया कि पार्टी संविधान सिर्फ व्ययक्तिक सदस्यता को अनुमति देता है, सामूहिक सम्बद्धता को नहीं। उन्होने मन्तव्य किया, “हम कौन होते हैं पार्टी का संविधान बदलने वाले?” दर असल, 1938 के अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के सत्र के दौरान मैंने आधिकारिक प्रस्ताव में एक संशोधन प्रस्ताव लाया था कि कांग्रेस को जनसंगठनों की सम्बद्धता स्वीकार करनी चाहिये और पार्टी कार्यकर्त्ताओं को सक्रिय तौर पर ट्रेड युनियन और किसान सभा संगठित करने के लिये अभियान चलाना चाहिये। उस समय तक कांग्रेस अलग युनियन वगैरह बनाने का विरोधी था। उनका तर्क था, “जब सब कोई कांग्रेस में है ही तो फिर मजदूरों और किसानों के लिये अलग संगठन क्यों हो?”
और इस तरह, मैंने वह संशोधन प्रस्ताव लाया जिसके साथ कम्युनिस्ट पार्टी सहमत नहीं थी। कम्युनिस्ट पार्टी ने कहा कि जो मैंने एआईसीसी प्लेनरी में किया वह गलत था। मैंने कारण पूछा। उन्होने समझाया कि अगर कांग्रेस जनसंगठनों को शामिल करने लगे तो वह देश में प्रधानतम शक्ति बन जायेगी और ट्रेड युनियनों व किसान युनियनों के माध्यम से स्वतंत्र रूप से काम करने में कम्युनिस्टों की पहल ढीली पड़ जायेगी। मैंने पार्टी से कहा कि उन्हे मामले को यहीं खत्म कर देना चाहिये क्यों कि संशोधन प्रस्ताव को कांग्रेस ने अनुमति नहीं दी है। वास्तव में, जब नेहरु एवं पार्टी के अन्य समाजवादी नेताओं ने इस लाइन का पुरजोर विरोध किया तो मुझे संशोधन वापस लेने के लिये वाध्य किया गया। नेहरु गरज उठे कि ऐसा प्रस्ताव लाया ही क्यों गया और मुझे वापस लेने को कहा। मैं सहमत हो गया। हालाँकि कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने कहा कि सुन्दरैया के संशोधन में कुछ भी गलत नहीं है। वह बोलीं कि सिर्फ चुँकि नेहरु को यह संशोधन पसन्द नहीं, इसका मतलब यह नहीं कि सारे समाजवादी नेता इसे खारिज कर दें। वह बोलीं कि समाजवादी नेताओं का नेहरु के साथ एकमत हो जाना हास्यास्पद है। कमलादेवी अपनी नजरिया जाहिर कीं कि अगर कांग्रेस के कार्यकर्त्ताओं को जनसंगठनों के साथ काम करने का अवसर नहीं दिया गया तो फिर समाजवाद की विचारधारा कभी फैलेगी नहीं। संशोधन प्रस्ताव पर समाजवादी नेताओं की समझ के खिलाफ उनका विस्फोट, कांग्रेस नेतृत्व की अधिकारवादी प्रवृत्तियों के विरुद्ध, कांग्रेस के अन्दर काम कर रहे वामपंथियों के सामान्य भावना को अभिव्यक्त किया।
1939 में, देश में जबर्दस्त वादविवाद चल रहा था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अगला अध्यक्ष कौन हो। अगर मुझे सही याद है तो उसके पहले वाले साल में एआईसीसी के हरिपुरा सत्र में सुभाष चन्द्र बोस निर्विरोध अध्यक्ष चुने गये थे। दूसरी बार वे प्रत्याशी के रूप में खड़े हुए। गांधी ने कांग्रेस वर्किंग कमिटी बैठक में बोस के प्रत्याशी होने का विरोध किया। जो लोग गांधी की नजरिया का समर्थन करते थे उन्होने बोस के खिलाफ भोगराजु पट्टभि सीतारामैया को खड़ा किया। पूरी घटना कांग्रेस के अन्दर वाम एवं दक्षिण के बीच विवाद का मुद्दा बन गया। आंध्र के एआईसीसी डेलिगेटों का भारी बहुमत भोगराजु के पक्ष में है इस सच्चाई के बावजूद हमने आंध्र में बोस के लिये समर्थन जुटाया। सत्तर-अस्सी भोट जो हमने आंध्र में जुटाये, बोस को राष्ट्रीय स्तर पर क्षीण बहुमत दिलाने में उसकी निर्णायक भूमिका रही। प्रकाशम पन्टुलु बोस के समर्थन में नहीं थे। उन्हे बोस के क्रांतिकारी विचार पसन्द नहीं थे। इसके अलावे, बोस के खिलाफ जो प्रत्याशी खड़ा था वह आंध्र का ही एक नेता था। उस समय तक भोगराजु ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास’ लिख कर ख्यात हो चुके थे। ऐसी परिस्थिति में, आंध्र के नेताओं के लिये उनका विरोध करने का कोई कारण नहीं था।
हमने आंध्र कमिटी की लाईन से बिल्कुल अलग एक लाईन लिया। हमने कहा कि यह इस या उस नेता का सवाल नहीं, वल्कि विचारधारा एवं समझ का सवाल है। हमने बोस के उग्रवादी लाईन को उभारते हुए उनके समर्थन में जबर्दस्त प्रचार किया। अन्तत: जब परिणाम आये तो आंध्र के कांग्रेस नेताओं ने हमें भोगराजु की हार के लिये अकेले जिम्मेवार ठहराया। हारजीत का फासला बहुत कम था और उन्होने कहा कि अगर हम भोगराजु के पक्ष में वोट डाले होते तो भोगराजु निश्चित ही अध्यक्षीय चुनाव जीत जाते। मैं नहीं कह सकता हूँ कि अगर पूरी आंध्र कमिटी भोगराजु के समर्थन में वोट डाली होती तो परिणाम बदल गया होता। लेकिन हमारे साहसी समझ को बाद में कई कांग्रेसी कार्यकर्त्ताओं ने सराहा। उन्होने, वजाय क्षेत्रीय पक्षपात के अपनी नीतियों पर कायम रहने के लिये हमारी तारीफ की।
मुझे याद है कि बोस के चुने जाने के बाद हमने बाटलीवाला को, जो एक महत्वपूर्ण कम्युनिस्ट नेता एवं प्रभावशाली वक्ता थे, आंध्र के विभिन्न केन्द्रों का दौरा करने एवं काडरों को शिक्षित करने के लिये बुलाया। वह आये एवं विभिन्न जगहों पर भाषण दिये। राजाजी [राजा राजगोपालाचारी] सरकार ने उन्हे, नेल्लोर जिले के वेंकटगिरि में राजद्रोही भाषण देने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया। पूरे राज्य में उनकी गिरफ्तारी को लेकर विरोध मुखर हो उठा। बाटलीवाला ने कांग्रेस की सरकार के खिलाफ नहीं वल्कि ब्रिटिश के खिलाफ भाषण दिया था। पुलिस ने एक बेतुका मुकदमा दायर किया और राजाजी ने उस पर मुहर लगा दी। हमने व्यापक आन्दोलन किये और सरकार से जानना चाहा कि आखिर क्यों उसने एक ऐसे नेता के खिलाफ कार्रवाई किया जिसने साम्राज्यवादी शासन का विरोध किया था। हमने कहा कि ब्रिटिश सरकार के खिलाफ राजद्रोह फैलाना हमारा अधिकार है। बाद में, कुछ व्याख्या आदि लेने के उपरांत मुकदमे को वापस लिया गया। हमारी सारी गतिविधियाँ, उदाहरणार्थ कोतपटनम और मंतेनवरिपलेम में राजनैतिक क्लास संगठित करना, कंग्रेस सोश्यलिस्ट पार्टी के अन्दर काम करना, भोगराजु पट्टभि सीतारामैया के खिलाफ संघर्ष करना, विभिन्न किसान संघर्षों को संगठित करना और बाटलीवाला की गिरफ्तारी के खिलाफ आन्दोलन करना… एक तस्वीर पेश करती है की आंध्र, उभरते कम्युनिस्ट आन्दोलन का एक मजबूत गढ़ बन रहा था। सब कोई समझ रहा था कि इन सारी गतिविधियों के पीछे कम्युनिस्टलोग हैं।
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* आंध्र प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री। केन्द्रीय मंत्री एवं लोकसभा के स्पीकर भी रहे। 1977 में वे भारत के राष्ट्रपति भी बने।
[अनुवाद - विद्युत पाल]
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