Sunday, November 6, 2022

रूस की चिट्ठी: रवीन्द्रनाथ ठाकुर

“अंतत: रूस आ पाया। जो कुछ देख रहा हूँ आश्चर्य लग रहा है। किसी भी दूसरे देश की तरह नहीं है। बिल्कुल बुनियाद में फर्क है। ऊपर नीचे सभी आदमियों को ये बराबरी का दर्जा देते हुये जागृत कर रहे हैं। 

“हमेशा से ही मनुष्य की सभ्यता में अख्यात लोगों का एक समूह होता है। संख्या उन्ही की अधिक होती है। वे ही वाहन होते हैं। उन्हे आदमी बनने का भी फुरसत नहीं मिलता है; देश की सम्पदा के जूठन पर वे पलते हैं। सबसे कम खा कर, सबसे कम पहन कर, सबसे कम शिक्षा प्राप्त कर वे बाकी सभी की परिचर्या करते हैं। सबों से अधिक होता है उनका श्रम, सबों से अधिक होता है उनका असम्मान। बात बात में उनकी मौत उपवास में होती है, उपरवाले का तिरस्कार और प्रहार से होती है – जीवनयापन के जितने भी अवसर एवं सुविधायें हैं उन सभी से वे वंचित हैं। वे सभ्यता के दीपदान हैं, माथे पर प्रदीप लेकर सीधे खड़े रहते हैं – उपर में सभी को रोशनी मिलती है, उनके बदन से तेल फिसलते रहता है। 

“लम्बे अर्से तक मैंने इनके बारे में सोचा, और लगा कि कोई उपाय नहीं है। एक समूह नीचे नहीं रहने पर, दूसरा समूह ऊपर नहीं रह पायेगा, जबकि ऊपर रहने की जरूरत है। ऊपर न रहने पर बिल्कुल नजदीक के दायरे के बाहर कुछ भी नहीं दिखता है; इन्सानियत तो सिर्फ जीवन निर्वाह करने के लिये नहीं है! मात्र-जीविका के दायरे को पार करने के बाद ही तो उसकी सभ्यता है। सभ्यता की सारी श्रेष्ठ फस्लें अवकाश के दायरे में ही फले हैं। मनुष्य की सभ्यता के एक हिस्से में अवकाश बनाये रखने की जरूरत है। इसीलिये सोचता था कि जो लोग सिर्फ व्यवस्था के चलते नहीं, शरीर और मन के चलते भी नीचे के तल्ले पर काम करने के लिये बाध्य हैं और उसी काम के योग्य हैं, यथासंभव उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य, सुख-सुविधा के लिये कोशिश करनी चाहिये।

“मुश्किल यही है कि दया दिखा कर कोई स्थाई लाभ नहीं हो सकता है; बाहर से उपकार करने के लिये जाने पर हर कदम पर उसमें विकृतियाँ आती हैं। वास्तविक सहायता तभी संभव होता है जब बराबर हुआ जा सके। जो भी हो, अच्छी तरह मैं कुछ भी सोच नहीं पाया – लेकिन अधिकांश आदमियों को नीचे दबा कर, अमानुष बना कर रखने पर ही सभ्यता ऊँची रहेगी, इस बात को अनिवार्य मानने पर मन में धिक्कार उठता है।

“सोच कर देखो न! अन्नहीन भारतवर्ष के अन्न से ईंग्लैंड पुष्ट हुआ है। ईंग्लैंड के बहुत सारे लोगों के मन का भाव यही है कि हमेशा के लिये ईंग्लैंड का पोषण करना ही भारतवर्ष की सार्थकता है। ईंग्लैंड बड़ा बन कर मानवसमाज में बड़ा काम कर रहा है – इस उद्देश्य को साधने हेतु हमेशा के लिये एक राष्ट्र को गुलाम बनाये रखना कोई बुरी बात नहीं है। ये राष्ट्र अगर थोड़ा कम खाय, कम पहने, उससे क्या फर्क पड़ेगा? हाँ फिर भी, दया दिखाते हुये, उनकी स्थिति में कुछ विकास होनी चाहिये यह विचार उनके मन में जगता है। लेकिन सौ साल हो गये, हमें न मिली शिक्षा, न मिला स्वास्थ्य, न मिली सम्पदा। 

“हर समाज के खुद के भीतर भी वही बात है। जिस आदमी को आदमी सम्मान नहीं कर सकता है उस आदमी का उपकार भी नहीं कर सकता है आदमी। बात जब भी अपने स्वार्थ पर आकर टिकती है, तब तो कम से कम, मार काट लग ही जाती है। रूस में बिल्कुल जड़ों में जा कर इस समस्या के समाधान की कोशिश चल रही है। ……”

[पहली चिट्ठी का अंश, 20 सितम्बर 1930]   

    

“मॉस्को में कुछेक दिन जिस होटल में मैं था उसका नाम है ग्रैंड होटल। मकान है विशालकाय लेकिन हालत बहुत ही गरीब। जैसे अमीर का बेटा दिवालिया हो गया है। पुराने जमाने की सजावट कुछ बिक गए हैं, कुछ फट गए हैं, चिप्पी लगाने को भी पैसे नहीं हैं, गंदे पड़े हैं – धोबीघर से भी सम्बन्ध टूट चुके हैं। पूरे शहर की यही हालत है – गंदगी की चरमसीमा के भीतर से भी नवाबी जमाने का चेहरा दिख रहा है, जैसे फटी कमीज पर भी सोने का बटन लगा हो, जैसे ढाका की धोती हो पर रफू की हुई। भोजन एवं अन्य जरूरतों की पूर्ति में ऐसी सर्वव्यापी निर्धनता यूरोप में और कहीं नहीं दिखती है। उसका मुख्य कारण है, अन्य जगहों पर अमीर और गरीब में फर्क रहने से, धन का जमा रूप सबसे बड़ा बन कर आँखों को दिखता है – गरीबी रहती है पर्दे के पीछे, नेपथ्य में। उस नेपथ्य में सब कुछ अस्तव्यस्त है, गंदा अस्वस्थ्यता बढ़ानेवाला, दुख-दुर्दशा-दुष्कर्म से घना अन्धकारमय है। लेकिन बाहर से पहुँचकर हमें जहाँ आवास मिलता है, वहाँ की खिड़की से जो कुछ दिखता है सब सुभद्र, सुशोभन, सुपुष्ट दिखता है। अगर उस समृद्धि को समान रूप से बाँट दिया जाता तभी समझ में आता कि देश का धन इतना अधिक नहीं है कि सभी के लिये पर्याप्त भोजन और वस्त्र की व्यवस्था हो सके। यहाँ चूँकि फर्क नहीं है, इसलिए धन का चेहरा विलुप्त हो गया है। दैन्य का कुत्सितपन भी नहीं है, बस अकिंचनता है। पूरे देश में इस तरह की धनहीन अवस्था और कहीं नहीं दिखने के कारण यहाँ हमें सबसे पहले वही दिखता है। दूसरे देशों में जिन्हे हम आमजनता कहते हैं, यहाँ बस वही हैं।

मॉस्को की सड़क पर विभिन्न लोग चल रहे हैं। कोई बना-ठना नहीं है, देखने से ही समझ में आता है कि आराम फरमाने वाले लोगों के समूह का अन्तर्धान हो चुका है, सब को अपने हाथों से काम कर दिन गुजारना पड़ता है, कहीं भी बाबूगिरि की चमक नहीं है। ……” 

[दूसरी चिट्ठी का अंश, 19 सितम्बर 1930]

      

“…… फिलहाल रूस आया हूँ – न आने पर इस जन्म का तीर्थदर्शन बहुत ही अधूरा रहता। यहाँ ये लोग जिन बड़ी घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं उनकी अच्छाई-बुराई पर विचार करने से पहले जो बात देखते ही दिल में आती है, वह है कि कितना असंभव सा साहस है! सनातन नाम का पदार्थ आदमी के हाड़-मास को, मन और प्राण को हजार तरीके से जकड़े हुये है; उसके कितने महल हैं कितनी ओर! कितने दरवाजों पर पहरे हैं कितने सारे! कितने युगों से टैक्स की वसूली करते करते उसके धनभंडार का पहाड़ बन चुका है! इन लोगों ने सीधा उस सनातन की जटा पकड़ कर खींच उतारा है – डर, चिन्ता, संशय कुछ भी नहीं है इनके मन में। सनातन की गद्दी को उखाड़ फेंकते हुये, नये के लिये इन लोगों ने बिल्कुल नया आसन बना दिया है। पश्चिम के महादेश विज्ञान की जादूई ताकत से असाध्य को साध लेते हैं, हम देख कर मन ही मन तारीफ करते हैं। लेकिन यहाँ जो प्रकान्ड घटनायें घटित हो रही हैं उन्हे देख कर मैं और भी ज्यादा विस्मित हुआ हूँ। अगर सिर्फ एक भीषण तोड़फोड़ का वाकया होता, तो मैं अधिक आश्चर्य नहीं करता, क्योंकि नेस्तनाबूद करने की ताकत इनमें काफी है। लेकिन मैं देख रहा हूँ, बहुत दूर तक व्याप्त्त एक इलाके को लेकर ये लोग एक नई दुनिया बनाने के लिये कमर बांध कर पिल पड़े हैं। विलम्ब असह्य हो रहा है क्योंकि पूरी दुनिया इनके खिलाफ खड़ी है, सारे इनके विरोधी हैं – जितनी जल्द हो सके इन्हे सीधा हो कर खड़ा होना होगा – प्रत्यक्ष में प्रमाण कर देना होगा कि ये लोग जो चाह रहे हैं, वह भ्रांति नहीं है, धोखा नहीं है। हजार सालों के खिलाफ लड़ कर जीतने का प्रण किया है दस-पन्द्रह साल। दूसरे देशों की तूलना में इनकी पैसों की ताकत नगण्य है, प्रतिज्ञा की ताकत अदम्य है। 

“यह जो क्रांति हुई यह रूस में ही होने की प्रतीक्षा थी एक अर्से से। कब से इसका आयोजन हो रहा है। ख्यातिप्राप्त हों, ख्यातिहीन हों, कितने ही लोग कितने बरसों से अपने प्राण न्योछावर किये, असहनीय दुख स्वीकार किये। पृथ्वी पर क्रांति के कारण काफी दूर तक फैले हुये रहते हैं, लेकिन एक-एक जगह पर वे घनीभूत हो उठते हैं – पूरे शरीर का रक्त दूषित होने पर भी एक एक कमजोर जगह पर फोड़ा बन कर लाल हो उठता है। जिनके हाथों में धन है, जिनके हाथों में सत्ता की ताकत है, उनके हाथों से दी जाने वाली असह्य यंत्रणा इसी रूस में सहते रहे हैं निर्धन और अक्षम लोग। दो पक्षों की चरम असमानता अन्तत: प्रलय के माध्यम से इसी रूस में अपना प्रतिकार साधने की चेष्टा में लगी हुई है। .….” 

[तीसरी चिट्ठी का अंश, 25 सितम्बर 1930]




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