Monday, October 31, 2022

कॉमरेड सुधाविन्दु मित्रा

इतना भुलक्कड़ हूँ! अब मुझे यह भी याद नहीं कि किसकी शादी में मैं हाजीपुर गया था। बेशक सुधाविन्दु मित्रा के ही परिवार का था वह आयोजन। निमंत्रण भी मुझे सुधांशुजी से ही मिला था। सिर्फ इतना याद है कि मेरे जैसा, रोज की नौकरी और युनियनबाजी के बाद शाम को या रविवार को कहीं जाने-आने से जी चुरानेवाला आदमी भी तत्काल दिल में ठान लिया था कि ‘जाना है’ – ‘जाना ही है, कॉमरेड सुधाविन्दु मित्रा बीमार हैं, उनसे मिलना है’। 

शायद सुधांशुजी ही मुझे विवाहस्थल के करीब उस कमरे तक ले गये थे जहाँ बिस्तर पर कॉमरेड लेटी हुई थीं। थोड़ी देर हम बातचीत करते रहे। बीमार हालत में भी वह लगातार बात करती रही, कामकाज के बारे में तरह तरह का सवाल पूछती रहीं … और मैं बात करते हुये भी लगातार डरता रहा कि शायद डाक्टर ने ज्यादा बात करने से मना कर रखा हो! इसी कारण से मैं अनिच्छा के बावजूद उनसे विदा लेकर विवाहस्थल पर वापस चला आया। 

ऐडवा का अखिल भारतीय सम्मेलन बोधगया में हुआ। बतौर वॉलन्टियर मैं वहाँ मौजूद था। सुधाजी अस्वस्थता के बावजूद सम्मेलन में भाग ले रही थीं। पुरानी तस्वीरें कहाँ छूट गई थीं! वह गर्दनीबाग स्थित कोऑपरेटिव हॉल में मुझे कॉमरेड किशोर ले गये थे कि ‘दादा, महिलाओं का सम्मेलन है; आपको थोड़ा फोटो खींच देना है’! वहीं मैंने पहलीबार कॉमरेड (कैप्टेन) लक्ष्मी सहगल को देखा था, उनकी तस्वीर भी ली थी! … तब से शुरु हुआ था मेरा ऐडवा के कार्यक्रमों में एवं साथियों के बीच आनाजाना! … लेकिन अब, अपने डिजिटल संग्रह के लिये मुझे औरों के साथ साथ सुधाजी की तस्वीर लेने का मौका मिल गया। बाहर झंडोत्तोलन के समय कुर्सी पर बैठी हुई और फिर अन्दर में कॉमरेड सुभाषिणी अली से लिपटी हुई।

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हम इसी समाज में जीते हैं तो इसकी बीमारियाँ भी साथ लिये चलते हैं। कभी पार्टी के ही बड़े नेता को अधिक श्रद्धा जताने के लिये बोल देते हैं, ‘कॉमरेड सरजी!’ सेल्फी खींचने के लिये लालायित रहने पर भी सबको बेहिचक बोल नहीं पाते हैं, ‘दादा, एगो फोटो खींचवाना चाहते थे आपके साथ!’ सारे नेता भी एक जैसी आत्मीयता नहीं बिखेर पाते हैं। बड़े नेताओं एवं आम कार्यकर्त्ताओं के बीच एक दूरी बनती जाती है हमारे (हम यानी कार्यकर्त्ता भी और नेता भी)। इस प्रवृत्ति को सीपीआई(एम) नोट भी करती है एवं इसे दूर करने का उपाय भी बताती है। उस पर चर्चा करना प्रसंगांतर होगा। मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि उपर कही गई इस समाज की बीमारियाँ, प्रवृत्तियाँ एक तरफ और कुछ कुछ नेताओं की सहजात आत्मीयता एक तरफ। उन पर कोई दूसरा रंग चढ़ ही नहीं पाता है। कॉमरेड सुधाविन्दु मित्रा उसी धारा की नेता थीं। किसी की दादी, नानी, किसी की माँ, मौसी, फुआ किसी की दीदी या उनसे बड़े किसी की बहन और मजबूत मेहनती कदकाठी की एक कार्यकर्त्ता, एक मिठास भरी मुस्कान लिये साँवले सुन्दर चेहरेवाली अनुभवी कॉमरेड … इसके अलावा वह अलग से कुछ नेता-वेता टाइप की लगती ही नही थी। सभाओं में उन्हे ओजस्वी भाषण देने की जरूरत पड़ती होगी, लेकिन एक रंगरुट कॉमरेड को बस उनके मुस्कराहट भरे आत्मीय कुशल-विनिमय से ही सांगठनिक उर्जा का अमृतस्पर्श मिल जाता था। 

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कॉमरेड सुधाविन्दु मित्रा के बारे में संस्मरणों के इस संग्रह का प्रकाशन एक प्रशंसनीय उद्यम है। सिर्फ इसलिये नहीं कि यह सुधाजी के बारे में है। बल्कि इसलिये भी कि यह मूलत: स्थानीय है। हमारे लिये अफसोस की बात है कि औरों की बात तो दूर, हम आज तक न तो कॉमरेड अजीत सरकार की एक प्रामाणिक जीवनी (संस्मरण एवं क्रॉनोलॉजी समेत) प्रस्तुत कर पाये और न ही कॉमरेड रामनाथ की। ये दोनों श्रमजीवी जनता के आन्दोलन के शहीद हुये। 

हमें स्थानीय जीवनियों की सख्त जरूरत है। पार्टी के, जनसंगठन के नेताओं से अलग, स्थानीय जनता द्वारा याद रखे गये कोई स्थानीय शिक्षक रहे हों जो बच्चों को घर-घर से खींचकर ले आते रहे हों अपनी पाठशाला में, समाज-सुधारक रहे हों, सेवाभाव से काम करने वाले डाक्टर रहे हों, लेखक, कवि या कलाकार रहे हों … किसी न किसी तरीके से प्रेरणास्रोत रहे हों मानवीय मूल्यों के पक्षधर एक जीवन जीने के लिये, उन सबकी छोटी छोटी जीवनियाँ, संस्मरण स्थानीय प्रयासों के माध्यम से उपलब्ध होने चाहिये। तभी असली भारत उसकी जड़ों में दिखेगा।

कॉमरेड सुधाविन्दु मित्रा के बारे में संस्मरणों के इस संग्रह के प्रकाशन का प्रशंसनीय उद्यम लेने वालों को मेरा हार्दिक अभिनन्दन!




‘হিন্দিভাষী’ বিদ্যাসাগর

হিন্দিভাষাকে হাতিয়ার করে বর্তমান কেন্দ্রীয় সরকার এবং হিন্দুত্বের কর্পোরেট-ফ্যাসিবাদী শক্তিরা হিন্দি-হিন্দু-হিন্দুস্তানের মেকি জাতীয়তা চাপানর যে তান্ডব শুরু করেছে তার মুখোমুখি দাঁড়িয়ে ওপরের শীর্ষকটা দেখে অনেকেই রক্তচক্ষু হবেন। কিন্তু যেমন বলে থাকি, আমার মায়ের ভাষাও আমার এবং আমার ধাইমায়ের ভাষাও আমার। ওই ফ্যাসিবাদী হামলা থেকে বাংলা এবং অন্যান্য ভাষাকে বাঁচানোর লড়াইটা যেমন আমার, হিন্দিকেও (সেই হিন্দি যেটি উর্দুর সহোদরা হিন্দুস্তানি হয়ে ভারতবর্ষের স্বাধীনতা সংগ্রামকে ঐক্যবদ্ধ করেছিল, এবং যে ভাষা আজও উত্তরভারতের অনেক বড় অঞ্চলে গণতান্ত্রিক সংগ্রামের প্রধান ভাষা) বাঁচানোর লড়াইটা আমার।

ঈশ্বরচন্দ্র বিদ্যাসাগর যখন ১৮৪১ সালে ফোর্ট উইলিয়াম কলেজে সংস্কৃত বিভাগের প্রধান হিসেবে যোগ দিলেন তখন তিনি নিজের মাতৃভাষা বাংলা ছাড়া সংস্কৃত জানতেন। সে ভাষার বিদ্বানই ছিলেন, তাই তো একুশ বছর বয়সে বিভাগীয় প্রধান হলেন! কলেজের সেক্রেটারি জি. টি. মার্শাল তাঁর পান্ডিত্যে প্রভাবিত হয়ে তাঁকে ইংরেজি আর হিন্দিটাও শিখে নিতে বললেন। চট করে দুটোই শিখে নিলেন তিনি। সে সময় ফোর্ট উইলিয়ামে বাংলায় হিতোপদেশ পড়ানো হত। সে বইয়ের, বিদ্যাসাগর নিজেই বলছেন, রচনা অতি কদর্য্য [বেতালপঞ্চবিংশতির প্রথম সংস্করণের বিজ্ঞাপন]। হয়ত মার্শাল সাহেবও তাই ভাবতেন। হতে পারে বিদ্যাসাগর তাঁকে বলেছিলেন। কিন্তু দুজনেই একমত হলেন যে আরেকটি বই থাকা উচিৎ ছাত্রদের পড়ানোর জন্য। তৎপরিবর্ত্তে পুস্তকান্তর প্রচলিত করা উচিৎ ও আবশ্যক বিবেচনা করিয়া, উক্ত বিদ্যালয়ের মহামতি শ্রীযুত মেজর জি. টি. মার্শল মহোদয় কোনও নূতন পুস্তক প্রস্তুত করিতে আদেশ দেন।[ওই] তখন বিদ্যাসাগর কী করেন? সদ্য শেখা হিন্দি ভাষায় লেখা বৈতালপচীসী নামের বইটা পড়ে, ১৮৪৭ সালে বাংলায় লেখেন বেতালপঞ্চবিংশতি তদনুসারে আমি, বৈতালপচীসী নামক প্রসিদ্ধ হিন্দী পুস্তক অবলম্বন করিয়া, এই গ্রন্থ লিখিয়াছিলাম।[ওই] কেন হিন্দী পুস্তক? তার উত্তর দিয়েছেন তিনি ১৮৫২ সালে তাঁর সম্পাদনায় প্রকাশিত হিন্দী বৈতালপচীসীর ইংরেজি মুখবন্ধে : The Original of these tales is to be found in the Katha Sarit Sagara, an ancient and voluminous Collection of Tales ans Legends in Sanskrit verse, by Somadeva Bhatta, under the title of Betalapanchavinshatika. There exists also under the same title, a Sanskrit prose version. 

In the reign of Muhammad Shaha, Surat Kabishwar, by order of Raja Jye Singh, translated the work from Sanskrit into Braj Bhakha. This version was translated, by direction of Dr. Gilchrist, in the time of Marquis Wellesley, into Hindoostanee by Muzhar Ali Khan, whose poetical name was Vila, aided by Lallu Lal Kab, the elegant writer of Premsagar, both Moonshees of the College of Fort William. This translation …… was printed in 1805 ……

A Bengalee version of this translation was made, by the Editor of the present edition, in the year 1947, by directions of Major G. T. Marshall …” 


যদিও বইটার অনুবাদের ইতিহাসে পরবর্ত্তীকালে হিন্দীসাহিত্যের সুবিখ্যাত বিদ্বান রামবিলাস শর্মা নিজের ভারতেন্দু যুগ বইটিতে একটি সংশোধন আনেন। উনি বলেন যে সুরাট কবিশ্বর নিজেই বইটা হিন্দীতে অনুবাদ করেছিলেন এবং তা থেকে উদ্ধৃতি দিয়ে দেখান যে কথিত ভাবে লাল্লু লালের যে অনুবাদ, সেটা ওই অনুবাদেরই ফেরবদল। সে যাই হোক, ওটা প্রসঙ্গান্তর। মোদ্দা কথা হল, বেতালপঞ্চবিংশতি রচনা করার সময় তিনি হিন্দি বা হিন্দুস্তানি নিছক একটি ভাষা হিসেবেই জানতেন না, জানতেন জনতার সাহিত্যবোধের বিকাশের বাহক রূপে যেমন বাংলা তেমনই হিন্দি। ভাষার ইতিহাস ভুগোল দুইই তাঁর গোচরে ছিল। তাই সংস্কৃত কথাসরিৎসাগর সামনে থাকা সত্ত্বেও ওই কলেজেরই শিক্ষক লাল্লু লালের হিন্দি বইটা তুলে নিলেন। এবং হিন্দি যে তিনি কতটা গভীরভাবে জানেন তার প্রমাণ দিলেন পাঁচ বছর পর, সেই হিন্দি বইটার নতুন সংস্করণের সম্পাদনা করে। এবং সে সম্পাদনায় তিনি হিন্দি বইটারও দুটো সংস্করণের তুলনামূলক অধ্যয়ন করলেন, In bringing outh the edition now presented to the public, the Original text of 1805 and the Agra Edition of 1843, have been carefully collated.


করুণাসাগর বিদ্যাসাগর গ্রন্থে লেখক ইন্দ্রমিত্র একটি প্রসঙ্গের উল্লেখ করেছেন। 

একদিন একজন হিন্দুস্থানী পন্ডিত বিদ্যাসাগরের সঙ্গে দেখা করতে এসেছেন। হিন্দুস্থানী পন্ডিতজী সংস্কৃতে কথা বলতে লাগলেন। আর বিদ্যাসাগর সব কথার জবাব দিতে থাকলেন হিন্দীতে। 

ভুল সংস্কৃত বলছেন কিন্তু পন্ডিতজী। পাশেই বসে ছিলেন কৃষ্ণকমল ভট্টাচার্য। পন্ডিতজীর সঙ্গে কথা কইতে-কইতে একফাঁকে বিদ্যাসাগর কৃষ্ণকমলকে বললেন এদিকে কথায়-কথায় কোষ্ঠশুদ্ধি হচ্ছে, তবুও হিন্দী বলা হবে না।[করুণাসাগর বিদ্যাসাগর, পৃ ৩৮২; প্রমাণপঞ্জীতে সূত্র দেওয়া আছে বিপিনবিহারী গুপ্ত, পুরাতন প্রসঙ্গ, প্রথম পর্যায়, (কলকাতা, ১৩২০), পৃ ৪৯]  


ভারতেন্দু হরিশচন্দ্রকে আধুনিক হিন্দী সাহিত্যের পিতামহ বলা হয়। তিনি কলকাতায় আসতেন, এবং সেসময়কার কলকাতার অনেক নবজাগরণী ব্যক্তিত্বের সাথেই তাঁর সম্পর্ক ছিল। সুবল চন্দ্র মিত্র বিদ্যাসাগরের যে ইংরেজী জীবনী লিখেছেন তার অধ্যায় ৩১শে এশিয়াটিক সোসাইটির ঘটনাটার বর্ণনা রয়েছে কিভাবে চটিজুতো পরে থাকার জন্য বিদ্যাসাগরকে ঢুকতে দেওয়া হয় নি। পরে ক্ষমা-টমা চাওয়া, বিদ্যাসাগরের সেই এশিয়াটিক সোসাইটিরই তত্ত্বাবধানে গ্রন্থসম্পাদনা ভার নিতে রাজি হওয়া সেসব অন্য প্রসঙ্গ। কিন্তু বর্ণনায় উল্লেখ রয়েছে যে বিদ্যাসাগরের সঙ্গে ছিলেন ভারতেন্দু হরিশচন্দ্র। তরুণ হরিশচন্দ্র কলকাতায় এলেই সব নতুন চিন্তাভাবনা করা মানুষদের সান্নিধ্য পেতে চাইতেন। বিদ্যাসাগরের সান্নিধ্য বিশেষভাবে চাইতেন। আর উনিশ শতকের সত্তরের দশকে বিদ্যাসাগরও বার বার বেনারস যাচ্ছিলেন বাবাকে দেখতে এবং আনুসঙ্গিক নানা কাজকর্ম সারতে। তখনও ভারতেন্দুর সাথে দেখা হত। ভারতেন্দুর পিতার বড় সংগ্রহ ছিল সংস্কৃত পূঁথির। সেসব ঘেঁটে দেখার এবং প্রয়োজনে ব্যবহার করার অবাধ অধিকার ছিল বিদ্যাসাগরের। বিধবা বিবাহ প্রবর্তনে বিদ্যাসাগরের ভূমিকার কথা মুখে মুখে ছড়িয়ে পড়েছিল সারা ভারতবর্ষে। হরিশচন্দ্র যখন আমির খুসরু প্রবর্তিত একটি বিশেষ ছন্দ ও বয়ানের রীতি প্রয়োগ করে নতুন কিছু বলার চেষ্টা করছিলেন তখন লিখলেন

সুন্দর বাণী কহি সমুঝাবৈ।

    বিধবাগন সোঁ নেহ বঢ়াবৈ।

দয়ানিধান পরম গুণ-আগর। 

    সখি সজ্জন, নহিঁ বিদ্যাসাগর।। 


এ প্রসঙ্গের অবতারণা এজন্য করলাম না যে বিদ্যাসাগর হরিশ্চন্দ্রের সাথে হিন্দীতে কথা বলতেন। না, তার প্রয়োজন একেবারেই হত না হয়ত কেন না হরিশচন্দ্র খুবই ভালো বাংলা জানতেন। 

কিন্তু বিদ্যাসাগরের হিন্দী জ্ঞানের প্রয়োজন যে হরিশচন্দ্রের পড়ত তার একটা প্রমাণ আছে অন্য জায়গায়। হরিশ্চন্দ্র সারা জীবনে অনেক পত্র-পত্রিকা প্রকাশ করেন। একটি পত্রিকার নাম ছিল হরিশ্চন্দ্র ম্যাগাজিন যেটির নাম ১৮৭৪এর জুন মাস থেকে হয় হরিশ্চন্দ্র চন্দ্রিকা। বাবু শিবনন্দন সহায় রচিত এবং উত্তরপ্রদেশ সরকারের অধীন হিন্দী সমিতি কর্তৃক ১৯৭৫ সালে প্রকাশিত (১৯০৫ সালে প্রকাশিত গ্রন্থের পুনঃপ্রকাশ) ভারতেন্দু হরিশ্চন্দ্রের একটি জীবনী লিখছে যে হরিশ্চন্দ্র চন্দ্রিকাসহায়ক সম্পাদক (contributors) ছিলেন শ্রী বাবু ঐশ্বর্যনারায়ণ সিং, শ্রী পন্ডিত ঈশ্বরচন্দ্র বিদ্যাসাগর …” এবং অন্যান্যরা।      

শেষমেশ। 

আজকাল হিন্দী-আধিপত্যবাদীদের আক্রমণে নাজেহাল অনেককেই বলতে দেখি যে আমরা দেবনাগরী লিপিতে সংস্কৃত কেন লিখব (বা কেন সইব)। আগে তো বাংলা লিপিতে সংস্কৃত লেখার পরম্পরা ছিল। একশোবার লিখুন। তবে বিদ্যাসাগর যে দেবনাগরীতে লিপিতে সংস্কৃত দিব্যি শুধু পড়তেনই না, ভাবধারাগত লড়াইয়ের বৃহত্তর প্রেক্ষাপটে তার প্রয়োজনটাও ভালো মত বুঝতেন তার প্রমাণ আমরা পাই যখন মাধবাচার্য বিরচিতসর্বদর্শনসংগ্রহ সম্পাদনার কাজ হাতে নেন। উনি বুঝছিলেন বইটার প্রয়োজনীয়তা। ভারতীয় দর্শন নিয়ে তখন অব্দি আবিষ্কৃত প্রথম আকর-গ্রন্থ। বিদ্যাসাগরের সম্পাদনায় প্রকাশিত হওয়ার পর যে গ্রন্থ পড়ে সব কজন ভারতবিদ চার্বাক দর্শনের একটা ঝলক দেখতে পেয়েছেন এবং সবিস্ময়ে পেয়েছেন যে যে ভারতের ভাববাদ নিয়ে এত সাতকাহন, তার ষড়দর্শনের সাড়েতিনখানাই তো নিরীশ্বরবাদী। আর চার্বাকের তো কথাই নেই। সবার চক্ষুশূল, (হয়ত সত্যিই পুড়িয়ে মারা হয়েছিল) চাঁচাছোলা বস্তুবাদী! 

মুখবন্ধে লিখছেন, কলকাতায় পাওয়া দুটো পূঁথিতে বড় বেশি রকমের প্রভেদ দেখতে পেয়ে বেনারস চলে গেলেন। সেখানে পাওয়া পূঁথিটা মনঃপূত হল। কোত্থেকে উদ্ধার করলেন লেখেন নি বেনারসের সংস্কৃত কলেজ থেকে, ভারতেন্দুর বাবার সংগ্রহ থেকে না অন্য কোনো পন্ডিতের কাছ থেকে। কিন্তু সম্পাদিত সংস্করণ তৈরি করলেন দেবনাগরী লিপিতে জানতেন বলে শুধু নয়, একটি বহুল-প্রচারিত লিপিতে ভারতের পরবর্তী প্রজন্মের হাতে ভাবধারাগত যুদ্ধের অস্ত্র যোগানোর ছিল।  


৩১.১০.২২




Thursday, October 27, 2022

শিকড়

চলা যখন শুরু হল

শিকড়ের সমস্যা নিয়ে বাড়াবাড়ি তখন ছিল না।

আমরা সদ্য জেনেছিলাম

আমরাই শিকড়।

আমাদের শিকড়? 

        ধ্যুৎ, তা আবার হয় নাকি?


প্রথমে এল বেদনা শিকড় হারানর।

মূল্যবান উত্তরাধিকারে ভরে নিলাম শিরা।

দিন পরেই দেখি

তাতে শিকড় মেলে বেড়ে উঠল হরেক পরগাছা।

চারদিকে বুক চাপড়ানর আওয়াজ  

হা শিকড়, হা শিকড়!


শিকড়ের কান্নায় দৃষ্টি ঝাপসালে

লম্পট তাতে ঢুকবেই। 

লম্পট তাড়াতে চাও, নিজে শিকড় হও।


১৭.১১.১৯৯২




Tuesday, October 25, 2022

पार्टी पुनर्गठन के प्रारम्भिक वर्ष – उमाकांत शुक्ल

संशोधनवाद के विरूद्ध लम्बे संघर्ष के बाद सन्‌ 1964 में कलकत्ता पार्टी कांग्रेस के साथ ही भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के रूप में पार्टी का पुनर्गठन हुआ। दरअसल उस पार्टी कांग्रेस तक पार्टी का नाम भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ही था। सन 1965 में केरल विधानसभा चुनाव के समय चुनाव आयोग ने संयुक्त पार्टी का नाम और चुनाव-चिन्ह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पक्ष में मान लिया और इसी परिस्थिति में हमारी पुनर्गठित कम्युनिस्ट पार्टी का नाम भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) पंजीकृत कराना पड़ा तथा हमें अलग चुनाव चिन्ह आवंटित हुआ। यह तो सर्वविदित ही है कि 1965 के केरल विधानसभा चुनाव में हमारी पार्टी की भारी जीत हुई। पार्टी 40 सीटें जीतकर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के द्वारा नाम और पुराने चुनाव चिन्ह को प्राप्त कर लेने के बावजूद भा.क.पा. मात्र तीन सीटें ही जीत पाई और ज्यादातर क्षेत्रों में अपनी जमानत तक बचा पाने में नाकामयाब रही। राष्ट्रीय स्तर पर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी के पुनर्गठन और बाद के लगभग 43 वर्षों के इतिहास के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है।

बिहार में किन परिस्थितियों में पार्टी का पुनर्गठन हुआ और पुनर्गठन के शुरूआती वर्ष कैसे रहे, इन सब बातों के बारे में

कोई ब्योरेवार आलेख उपलब्ध नहीं है। इस दिशा में आवश्यक सूचनाएं प्राप्त कर आलेख तैयार करने की आवश्यकता है।

प्रस्तुत लेख में पार्टी निर्माण के शुरूआती वर्षों की मात्र  एक झलक प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। बिहार के पार्टी नेताओं और कार्यकर्त्ताओं का नाम गिनाना संभव नहीं है और उचित भी नहीं है। यह सब बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वांगीण इतिहास का विषय है। संयुक्त पार्टी में अन्दरूनी पार्टी संघर्ष की शुरूआत पार्टी के निर्माण के साथ ही हो चुकी थी।

दरअसल अन्दरूनी पार्टी संघर्ष एक जीवन्त, विकासशील और क्रांतिकारी पार्टी की पहचान्त है। जनवादी केन्द्रीयता के सिद्धान्तों के अनुसार पार्टी के अन्दर जनवाद विकसित होता है। लेकिन संयुक्त पार्टी के नेतृत्व के एक हिस्से ने पार्टी के तमाम सांगठनिक उसूलों को ताक पर रख कर पार्टी-संगठन पर कब्जा करने का अभियान चलाया, 32 नेशनल काउंसिल के शीर्षस्थ साथियों को तिलम्बित किया और मार्क्सवाद-लेनिनवाद को तिलांजलि देकर वर्ग सहयोग का कार्यक्रम अपनाया। इतना ही नहीं, तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी लाल नन्दा के सुर में सुर मिलाकर पार्टी के अन्दर संशोधनवाद के खिलाफ संघर्ष करनेवाले नेताओं ओर कार्यकर्त्तओं को चीन का एजेन्ट कहकर जेलों में नजरबन्द कराने में सरकार की मदद की। इन्ही हालात में संशोधनवाद के विरूद्ध संघर्ष उस ऊंचाई पर पहुंच गया जहां पार्टी के पुनर्गठन के सिवा कोई और विकल्प नहीं बचा था।

बिहार में संयुक्त पार्टी का नेतृत्व पूरी तरह संशोधनवाद के साथ था। जिन 32 नेशनल काउंसिल सदस्यों को निलंबित किया गया था उनमें एक भी बिहार से नहीं थे। ये 32 साथी वैसे हैं जिनमें का. बी. टी. रणदिवे, का. पी. सुन्दरैया, का. एम. बासवपुन्नैया, का. ए. के. गोपालन, का. पी. राममूर्ति, का. प्रमोद दासगुप्त, का. हरेकृष्ण कोनार, का. हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के अग्रणी शामिल हैं। इन्हीं नेताओं में से का. प्रमोद दासगुप्त और का. हरेकृष्ण कोनार ने बिहार में पार्टी के पुनर्गठन का मार्गदर्शन क्रिया। यहां कुछ जिला स्तर के नेता संशोधनवाद के खिलाफ लड़ाई में शामिल हुए। शुरू-शुरू में लड़ाई इस बात की थी कि तत्कालीन पार्टी का राष्ट्रीय परिषद्‌ 32 साथियों के निलम्बन का प्रस्ताव वापस ले और पार्टी कार्यक्रम पर बहस के लिए पार्टी कांग्रेस आयोजित हो। संशोधनवादियों का 'राष्ट्रीय जनवाद' का कार्यक्रम था तो दूसरी तरफ 'जनता के जनवाद' का कार्यक्रम था। राष्ट्रीय जनवाद के कार्यक्रम में था कि नेतृत्व राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग का होगा जिसमें साझेदारी मजदूर वर्ग की होगी जबकि जनता के जनवाद में मजदूर वर्ग के नेतृत्व में जनता का जनवादी मोर्चा होगा जो साम्राज्यवाद विरोधी, इजारेदार विरोधी ओर सामन्‍तवाद विरोधी होगा। उन दिनों संशोधनवाद के विरूद्ध संघर्ष में यही मांग की जा रही थी कि 32 साथियों का निलम्बन वापस हो, पार्टी कांग्रेस में बहस के लिए दोनों कार्यक्रम पेश किए जायें ओर गिरफ्तार साथियों की रिहाई के लिए आन्दोलन हो। बिहार में भी इन्ही मांगों के आधार पर साथियों को एकजुट किया जाने लगा। बिहार में का. प्रमोद दासगुप्त की उप्रस्थिति में सन 1963 में आरा में पहली बैठक हुई जिसमें क़ई जिलों से नेतृत्वकारी साथियों ने भाग लिया। उसी बैठक में पहली बार संगठित रूप से संशोधनवादी नीतियों के खिलाफ संघर्ष करने का निर्णय लिया गया। उन दिनों बिहार में संयुक्त पार्टी का नेतृत्व विभिन्न स्तरों पर बैठकों आयोजित कर मुख्यतः 32 साथियों के निलम्बन के पक्ष में तर्क पेश कर रहा था। अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में छिड़ी सैद्धांतिक बहस में यह नेतृत्व सोवियत रूस की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व के साथ था। इन्हीं दिनों चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने सैद्धांतिक सवालों पर 13 जून 1963 को कुछ चिट्ठियाँ सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी को लिखीं थीं और उसके पहले ' लेनिनवाद जिन्दाबाद' (Long live Leninism) शीर्षक एक पुस्तक प्रकाशित की थी। इन दस्तावेजों से संशोधनवाद के विरूद्ध संघर्ष में काफी मदद मिली। गरचे का. ई. एम. एस. नम्बूदिरिपाद और का. ज्योति बसु को संयुक्त पार्टी के नेतृत्व ने निलम्बित नहीं किया था, ये दोनों नेता संशोधनवादी कार्यक्रम से असहमत थे और अपने 11 साथियों द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम के मसविदे से एकाध बिन्दुओं को छोड़कर आम सहमति रखते थे। सन 1963-64 में संयुक्त पार्टी के विभिन्न स्तरों पर इन्हीं सारे मुद्दों पर काफी तीव्र बहस चल रही थी।

संशोधनवादी नेता, जिन्हें उने दिनों हम दक्षिणपंथी कम्युनिस्ट कहा करते थे, सैद्धान्तिक सवालों पर कमजोर पड़ते थे। वे हमें पार्टी तोड़क कह कर अनुशासन का डंडा भांजते थे। आखिरकार बिहार के अधिकांश जिलों में पार्टी के ।। साथियों द्वारा प्रस्तावित कार्यक्रम, मजदूर वर्ग के नेतृत्व में जनता के जनवादी मोर्चे का निर्माण कर जनता का जनवाद स्थापित करने के कार्यक्रम को आधार मानकर जिला सम्मेलन हुए जिनमें शामिल साथियों का उत्साह देखने लायक था। इन सम्मेलनों द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों को लेकर रजौली में राज्य पार्टी सम्मेलन हुआ और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की बिहार राज्य कमिटी चुनी गई जो आगे चलकर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की बिहार राज्य कमिटी के नाम से जानी गई। इस राज्य सम्मेलन से चुने गये प्रतिनिधियों ने नवम्बर 1964 में आयोजित कलकत्ता कांग्रेस में भाग लिया। इस पार्टी कांग्रेस में 11 साथियों द्वारा प्रस्तावित कार्यक्रम को पारित किया गया जो आज भी पार्टी का कार्यक्रम है, गरचे इस कार्यक्रम को बदली हुई परिस्थितियों में सन 2000 में मूल स्थापना को बदले बगैर अद्यतन किया गया हे।

सन 1964 की कलकत्ता पार्टी कांग्रेस के शीघ्र बाद 29 दिसम्बर की रात में पूरे हिन्दुस्तान में पार्टी कार्यालयों और पार्टीनेताओं के घर पर छापा मार कर सभी नेतृत्वकारी साथियों को गिरफ्तार कर अंग्रेजों द्वारा बनाये गये काले कानून डी.आई.आर. (भारत सुरक्षा अधिनियम) के तहत जेलों में नजरबन्द कर दिया गया। भारत सरकार की इस जनतंत्र विरोधी कार्रवाई की सर्वत्र निन्दा हुई। ताज्जुब की बात यह रही कि संशोधनवादियों ने उन दिनों कांग्रेसी सरकार द्वारा लगाये गये आरोपों का परोक्ष रूप से समर्थन ही किया। गृह मंत्रालय का आरोप था कि चीन के इशारे पर देश में सशस्त्र क्रांति के उद्देश्य से संयुक्त पार्टी को तोड़कर वामपंथियों ने नई कम्युनिस्ट पार्टी बनायी है जिससे देश की सुरक्षा को खतरा है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का भी यही दुष्प्रचार चल रहा था कि चीन के इशारे पर पार्टी तोड़कों ने नई पार्टी बनाई है और सशस्त्र क्रांति का दुस्साहसिक कदम उठाया है। सच्चाई यह थी कि हमारे कार्यक्रम से ही स्पष्ट है कि हमने अपने जनवादी क्रांति के कार्यक्रम में रूस और चीन इन दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के मूल्यांकन से अलग अपना मूल्यांकन किया था। बाद में बर्द्धमान प्लेनम में पारित "हमारी और चीन की पार्टी के जुदा-जुदा विचार' शीर्षक दस्तावेज से यह बात आइने की तरह साफ है। सच्चाई यह है कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार भी जानती थी कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) से देश की सुरक्षा को कोई खतरा नहीं हैं, अगर खतरा है तो कांग्रेस पार्टी की सत्ता के एकाधिकार पर है, उसकी जनविरोधी नीतियों को है और देश के पूंजीपति-जमीन्दार वर्ग को है।

बिहार में राज्य कमिंटी के सभी सदस्य और जिला सचिवमंडल के सभी सदस्य नजरबन्द किए जाने वाले की सूची में थे जो लगभग सभी 29 दिसम्बर की रात में ही गिरफ्तार कर लिए गए। जो दो-चार साथी बच गये थे, उनमें से भी अधिकांश कुछ ही महीनों में गिरफ्तार कर नजरबन्द कर लिए गए। ऐसी स्थिति में जो साथी बच गये थे उनकी पहली प्राथमिकता नागरिक आजादी के सवाल पर यथासंभव व्यापक एकजुटता कायम करने की थी और कांग्रेसी सरकार को बेनकाब करना था। बचे हुए साथियों को लेकर कार्यकारी राज्य कमिटी और जिला सचिवमंडल बने। उन दिनों ज्यादा से ज्यादा आम-सभाएं की गई जिनमें पार्टी कार्यकर्त्ताओं और आम जनता ने उत्साह के साथ भाग लिया। मई 1965 में राज्य स्तरीय प्रदर्शन पटना में किया गया था जिसमें गिनती के तीन हजार लोगों ने भाग लिया। मुख्य बात यह रही कि सड़क के दोनों किनारे हजारों लोगों ने खड़े होकर जुलूस का उत्साह बढ़ाया। यही दृश्य 9 अगस्त 1965 को बिहार के चार केन्द्रीय जेलों के समक्ष प्रदर्शन के समय था। मुजफ्फरपुर में तो जितने प्रदर्शनकारी थे उनसे अधिक पुलिस और अर्द्धसैनिक बल दोनों ओर से कतारबन्दी कर चल रहे थे। साफ दिखाई दे रहा था कि एक जुझारू पार्टी अपने निर्माण की दिशा में आगे बढ़ रही है। 9 अगस्त 1965 को बिहार बन्द का आहवान संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) द्वारा किया गया था। इस सिलसिले में भी काफी गिरफ्तारियां हुई और पार्टी के कूछ नेतृत्वकारी साथियों को उसी काले कानून डी.आई.आर. के सहारे नजरबन्द किया गया। इन तमाम दमनात्मक कार्रवाइयों का सामना करते हुए पार्टी आगे बढ़ती रही। सन 1966 में सभी नजरबन्द साथियों को रिहा किया गया और सन 1967 के चुनाव में सत्ता पर कांग्रेस का एकाधिकार समाप्त हुआ। पहली बार 9 राज्यों में कांग्रेस पराजित हुई। केरल और बंगाल में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेतृत्व वाला मोर्चा विजयी रहा और इन दोनों राज्यों में इसी मोर्चे की सरकारें बनी। बिहार में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ( मार्क्सवादी ) के चार विधायक चुनकर आये। यहां संयुक्त विधायक दल (संविद) की सरकार बनी। हमारी पार्टी को भी सरकार में शामिल होने का निमंत्रण मिला, लेकिन पार्टी ने सरकार में शामिल होने से इन्कार कर दिया। उस समय से लेकर अब तक इस मामले में हमारी नीति यही रही है कि हम किसी भी ऐसी सरकार में शामिल नहीं होंगे जिसकी नीतियों के निर्धारण में हमारी निर्णायक भूमिका नहीं हो। इसीलिए आज भी पार्टी केरल, बंगाल और त्रिपुरा को छोड़कर किसी अन्य राज्य सरकार या केन्द्र सरकार में शामिल नहीं हुई।

सन 1967 के बाद के वर्षों में प्रान्त के कई जिलों में जमीन, खेत-मजदूरी और अत्याचार तथा सामाजिक उत्पीड़न

इत्यादि सवालों पर पार्टी ने बड़े-बड़े आन्दोलन किये। जन आन्दोलनों की आधारशिला पर ही पार्टी खड़ी हुई और आज भी खड़ी है। 

इस बीच नक्सली भटकाव से भी पार्टी को लड़ना पड़ा और बहुत-सी विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। सबसे बड़ा सकारात्मक पहलू यह है कि मार्क्सवादी-लेनिनवादी समझ पर आधारित पार्टी कार्यक्रम से इरादे की एकता बनी और पार्टी के विकास की व्यापक संभावनाएं पैदा हुई। हम पिछले 4 दशकों में इन संभावनाओं का कितना लाभ उठा सके, यह अलग से विस्तृत समीक्षा का विषय है। 


[लोकजनवाद, वसंत विशेषांक 2008 से साभार]




कम्युनिस्ट पार्टी में ब्रांच सचिव का कर्त्तव्य – हन्नान मोल्ला

पहले तो कम्युनिस्ट पार्टी जैसे क्रांतिकारी दल में एक ब्रांच का महत्व समझना जरूरी है। जैसे मानव शरीर अनगिनत सेल का समन्वय है, ऐसे ही मजदूर वर्ग की पार्टी अनगिनत ब्रांचों का समन्वय है। ब्रांच एक निश्चित क्षेत्र में पार्टी के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व सांगठनिक नेतृत्व कायम करने का सबसे महत्वपूर्ण हथियार है। सही मायने में कह सकते हैं कि यह एकमात्र हथियार है। पूरे भारत में पार्टी के महासचिव की जो भूमिका है, पूरे बिहार में राज्यसचिव की जो भूमिका है, ब्रांच सचिव की ब्रांच की सीमा के अन्दर भूमिका उससे कम नहीं है। ये बातें हम समझेंगे, तभी हमें अपनी जिम्मेदारी का एहसास होगा।

पार्टी नेतृत्व दो प्रकार के होते हैं-राजनीतिक नेतृत्व और सांगठनिक नेतृत्व। पार्टी के राजनीतिक कार्यक्रम का फैसला राजनीतिक नेतृत्व करता है। केन्द्रीय कमिटी, राज्य कमिटी, जिला कमिटी या तहसील कमिटी, जो फैसला करती है उसको अपने-अपने क्षेत्र में लागू करने की जिम्मेदारी ब्रांच की होती है। ब्रांच उसे लागू नहीं करेगी तो सब फैसला कागजी रह जाएगा। उसका कोई महत्व नहीं रहेगा। इससे हम समझ सकते हें कि पार्टी में ब्रांच सचिव का क्‍या स्थान है। ऊपर के नेतृत्व को राजनीतिक नेतृत्व कहा जाता है और ब्रांच सचिव को सांगठनिक नेतृत्व कहा जाता है। पार्टी को मजबूत करना है तो सांगठनिक नेतृत्व को राजनीतिक नेतृत्व में उठाने का लगातार प्रयास करना चाहिए।

यह सही है कि ब्रांच सचिव को पहले राजनीतिक, सांगठनिक और विचारधारात्मक ज्ञान हासिल करना चाहिए। न्यूनतम रूप से पार्टी कार्यक्रम एवं पार्टी संविधान पढ़ना चाहिए ओर बार-बार पढ़ना चाहिए ताकि वे उसको पूरी तरह समझ सके और दूसरे को समझाने की क्षमता हासिल कर सकें। सचिव अनपढ़ हो तो किसी से बार-बार पढ़वाकर समझना पड़ेगा। इसके बिना कोई ब्रांच सचिव हो नहीं सकता। सबको यह काम करना ही पड़ेगा और तब हम अपने क्षेत्र में पार्टी बना सकेंगे।

पार्टी ब्रांच के सदस्य जनता के साथ सीधा संबंध रखते हैं। रोज जनता से मिलते हैं, उसको सुनते हैं। आम जनता के सबसे नजदीकी नेतृत्व ब्रांच सचिव होते हैं। जनता की आवाज सुनना, समझना और पार्टी के ऊपर के नेतृत्व की नजर में लाना उनका काम है। उसी प्रकार पार्टी के हर वक्तव्य को जनता के बीच ले जाना भी उनका काम हे। वे जितनी योग्यता के साथ काम करेंगे, उतनी ही पार्टी जनता से जुड़ेगी और पार्टी बनेगी और बढ़ेगी।

योग्य ब्रांच सचिव के बिना पार्टी नहीं चल सकती। पार्टी सचिव पहले अपने ब्रांच के सब सदस्यों को संचालित 'करेंगे। साथ-साथ अपने क्षेत्र के अन्दर सब जन संगठनों का मार्गदर्शन करेंगे और जनता की हर समस्या में सामने रहकर उसका मुकाबला करने में मदद करेंगे। ब्रांच सचिव अपने क्षेत्र के हर मामले में नेतृत्व देने के लिए प्रधान व्यक्ति हैं। इसी रूप में हम सबको तैयार होना पड़ेगा ताकि हम अपने क्षेत्र में पार्टी, जनसंगठन और आम जनता को नेतृत्व दे सकें। 

अपनी पार्टी के विकास के लिए ब्रांचों की संख्या बढ़ानी है। पार्टी में नए-नए लोगों को भर्ती करना है। 3 से ।5 सदस्य को लेकर एक ब्रांच होता है। ब्रांच बढ़ने के साथ-साथ, नया-नया योग्य ब्रांच सचिव तैयार करना पार्टी के लिए सबसे जरूरी काम है। दुर्भाग्यवश, 20 प्रतिशत से ज्यादा योग्य ब्रांच सचिव पार्टी में अभी तैयार नहीं हुए हैं और जबतक ये काम नहीं होगा पार्टी बढ़ने की कोई उम्मीद नहीं है। इसलिए ईमानदारी के साथ हम सबको योग्य ब्रांच सचिव बनने की कोशिश करनी चाहिए।

हमारी पार्टी में ब्रांच का आकार 3 से 5 सदस्य तक है। कारण क्रांतिकारी पार्टी का काम छोटे-छोटे दल में बांठ कर ही हो सकता है। भारी भीड़ लेकर ये काम नहीं हो सकता। पार्टी की गोपनीयता, सांगठनिक चर्चा, उपलब्धियों का विश्लेषण और सही नतीजे पर पहुंचना और उसको लागू करने में नेतृत्व देना, इन सब कामों के लिये छोटे आकार का ब्रांच उपयोगी है। उस ब्रांच का सचिव हर माने में उस ब्रांच का लीडर है। वही सच्चा लीडर है जो सबकों लेकर चल सकता है। ऊपर के नेतृत्व के लिए ब्रांच सचिव को सही माने में शिक्षित करना बहुत जरूरी काम है। ब्रांच सचिवों को हर परिस्थिति का सामना करना सीखना है। हर विषय को समझ कर उसके आधार पर सही कार्यक्रम तय करने की योग्यता सचिव में होनी चाहिए। पार्टी सदस्य या आम जनता जो सवाल उठाएगी उसका सही जवाब देने की योग्यता सचिव में होनी चाहिए, क्षेत्रों में कोई जरूरी सवाल पर आंदोलन खड़ा करना और उसको आगे बढ़ाने की हिम्मत ब्रांच सचिव में होनी चाहिए।

पार्टी संगठन को बढ़ाने के लिए ब्रांच सचिव को निरन्तर प्रयास करना चाहिए। अपने क्षेत्रों में काम करने वाले सारे जनसंगठनों के सक्रिय कार्यकर्त्ता पर नजर रखनी चाहिए और उसी के अन्दर से चुन कर साथियों को AG (Auxiliary Group) या सहायक ग्रुप में भर्ती करना चाहिए। उसके बाद खुद या एक योग्य ब्रांच सदस्य को उस AG (Auxiliary Group) या सहायक ग्रुप को चलाने की जिम्मेदारी देनी चाहिए। AG कमिटी का नियमित सभा बुलाना, सभा में पार्टी की राजनीति की चर्चा करना, नये कामरेड को संगठन और आंदोलन के बारे में शिक्षित करना उसकी जिम्मेदारी है। 6 महीने के बाद AG कमिटी से योग्यता प्राप्त कॉमरेड को उम्मीदवार सदस्य के रूप में पार्टी में भर्ती करना चाहिए। इसी तरह लगातार पार्टी बढ़ाने का नेतृत्व ब्रांच सचिव को देना चाहिए। बिना AG में रखे हुए कभी सदस्यता नहीं देनी चाहिए।


ब्रांचों की कमजोरी

अनेक ब्रांच सचिव अपने ब्रांच को पार्टी संविधान के मुताबिक चला नहीं पा रहे हैं। नियमित रूप से ब्रांचों की बैठक नहीं बुलाते। ।5 दिनों में एक बार ब्रांच की बैठक होनी चाहिए। किसी भी हालत में एक महीने से ज्यादा देर नहीं होनी चाहिए। मगर कई ब्रांच ऐसे हैं जो साल में एक या दो मीटिंग करते हैं। ऐसे ब्रांच को जिन्दा ब्रांच नहीं कहा जा सकता। ऐसा ब्रांच न पार्टी को आगे बढ़ा सकता है और न जन आन्दोलन को। आप इस कमजोरी से निकलना ही पड़ेगा। पार्टी ब्रांच को तरीके से चलाना होगा। चिट्ठी देकर या निश्चित रूप से खबर देकर ब्रांच बैठक बुलानी पड़ेगी। बैठक का एजेंडा पहले से सदस्यों को बताना पड़ेगा और उसके मुताबिक बैठक में चर्चा करनी होगी। हर बैठक में पिछली बैठक के कार्यक्रम की सफलता या असफलता की चर्चा करना और सदस्यों की जिम्मेदारी के अनुपालन की चर्चा होनी चाहिए। निष्क्रिय सदस्य को सक्रिय बनाने की कोशिश करनी चाहिए और जो सक्रिय न होते हैं, उनको पार्टी में नहीं रखना चाहिए। लम्बे समय तक निष्क्रिय सदस्य को पार्टी में रहने से नुकसान होगा मगर जब खुद ब्रांच सचिव ही निष्क्रिय हो जाता है तो वे सदस्यों को कैसे सक्रिय करेंगे? ब्रांच को सक्रिय रखने की जिम्मेदारी सचिव की है।

अनेक ब्रांच सचिव पार्टी सदस्य या जनसंगठनों का मार्गदर्शन नहीं कर पाते क्योंकि वे खुद ही जानकार नहीं होते। इसीलिए ब्रांच सचिव को नियमित रूप से पार्टी पत्रिका या मार्क्सवादी साहित्य पढ़ना चाहिए ताकि' वह सही ढंग से पार्टी चला सके। ब्रांच सचिव अपने क्षेत्र का नेता है, इसलिए उसे सभी नेतृत्वकारी गुण हासिल करना चाहिए। अपने काम से जनता के बीच में लोकप्रियता हासिल करनी चाहिए। जनता की हर मुसीबत में पार्टी नेता को आगे आना चाहिए और मदद करनी चाहिए। हमारे कई ब्रांच सचिव यह सब करने में असमर्थ हैं, इसलिए पार्टी को बढ़ाने में भी कामयाब नहीं होते।

ब्रांच का आधार अपनी पार्टी की शक्ति पर निर्भर करता है। गांव के आधार पर या मोहल्ले के आधार पर या पंचायत के आधार पर, शहर में वार्ड के आधार पर या फैक्ट्री के आधार पर या स्कूल, कॉलेज या यूनिवर्सिटी के आधार पर एक-एक ब्रांच का गठन किया जा सकता है । जहां पार्टी समर्थक या कोई न कोई जनसंगठन काम करता है, उसी के आधार पर पार्टी ब्रांच बन सकता है। ब्रांच सचिव को ये सब ध्यान में रखते हुए पार्टी बढ़ाने की लगातार कोशिश करनी चाहिए।

अनेक ब्रांच के क्षेत्रों में नियमित राजनीतिक कार्यक्रम या जनता की समस्या पर पार्टी का हस्तक्षेप दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए वहां पार्टी की संघर्षकारी छवि जनता की नज़र में नहीं आती। उच्च नेतृत्व ब्रांच सचिव या ब्रांच सदस्यों को इस काम में सचेत करने की लगातार प्रयास नहीं करते। ऊपर से नियमित और सही निर्देश न पहुंचाने से सदस्यों की चेतना का विकास  नहीं होता और ऐसे सदस्य पार्टी को बढ़ा नहीं सकते। एक योग्य ब्रांच सचिव ऐसे काम के लिए बहुत ही आवश्यक है। कॉ. लेनिन ने बताया “ब्रांच सचिव, जो पार्टी पत्रिका नहीं पढ़ते सिर्फ उस पद के लिए उपयुक्त नहीं है ऐसा नहीं है बल्कि वे पार्टी के लिए हानिकारक भी है। का. लेनिन की इस चेतावनी से हम समझ सकते हैं कि हमें क्या करना चाहिए।


ब्रांच बैठकें और जरूरी कर्त्तव्य

नियमित ब्रांच मीटिंग बुलाना ब्रांच सचिव का आवश्यक कर्तव्य है। ऊपर की कमिटी की हर मीटिंग की बात या ऊपर की कमिटी का कोई सर्क्यूलर आने से ब्रांच की मीटिंग बुलानी चाहिए। हर ब्रांच सभा में कुछ राजनैतिक मुद्दों पर चर्चा होनी चाहिए। इससे सदस्यों की चेतना का विकास होता है। इसके बाद ऊपर की कमिटी का सर्क्यूलर पढ़ना चाहिए और उसके आधार पर अगला कार्यक्रम तय करना चाहिए। अलग-अलग सदस्यों पर एक-एक काम की जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए। अगली मीटिंग में उसके काम की रिपोर्ट लेनी चाहिए। हफ्ते में एक बार बैठक करना अच्छे ब्रांच का परिचय है, नहीं तो ।5 दिन में एक बार बैठक होनी चाहिए, महीने में एक बार तो होनी ही चाहिए। कुछ विशेष घटना या समस्या आ जाए तो एक विशेष बैठक होनी चाहिए। ब्रांच बैठक में कभी-कभी पार्टी अखबार या दूसरी पार्टी पत्रिका से विशेष लेख पढ़ना चाहिए। सचिव को कोशिश करनी चाहिए कि हर बैठक में लिखित रिपोर्ट पेश करे। आर्थिक मामलों पर ब्रांच को पारदर्शी होना चाहिए और सभा में हिसाब देना चाहिए। हर ब्रांच में एक कॉमरेड को पार्टी फंड का और एक कॉमरेड को पार्टी पत्रिका की जिम्मेदारी देनी चाहिए। ब्रांच की बैठक में तहसील ( लोकल ) या जिला कमिटी का एक सदस्य अवश्य उपस्थित रहना चाहिए।

ब्रांच बैठक में केन्द्र, राज्य या जिला से दिये हुए कार्यक्रम की चर्चा होनी चाहिए और उसे किस तरह क्षेत्र में लागू किया जाए, उसकी भी चर्चा होनी चाहिए और सदस्यों के बीच में जिम्मेदारी बांट देनी चाहिए। स्थानीय समस्या की ब्रांच में चर्चा होनी चाहिए और उसी के अनुसार आन्दोलन का कार्यक्रम तय करना चाहिए। याद रखना चाहिए कि ऐसे आंदोलन से ही पार्टी बनती है। पानी, बिजली, रास्ते, नाला, खेती की समस्या, नौकरी आदि स्थानीय समस्याओं से लोग पीड़ित रहते हैं और इसके खिलाफ लड़ाई में वे उत्साह से शामिल होते हैं। इसलिए स्थानीय आंदोलन पार्टी बढ़ाने का एक महत्वपूर्ण अंश है। ब्रांच सचिव को इसमें ज्यादा ध्यान देना चाहिए|

जनता के बीच में नियमित काम करने के लिए ग्रुप मीटिंग करनी चाहिए। गांव या मोहल्ले में छोटे-छोटे ग्रुप मीटिंग में जनता को पार्टी की बात बतानी चाहिए। इससे जन संपर्क मजबूत होगा और नये लोग पार्टी के साथ जुड़ेंगे और पार्टी बनाने में मदद मिलेगी।

पार्टी बढ़ाने के लिए पार्टी पत्रिका की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है। हर ब्रांच क्षेत्र में पार्टी पत्रिका का प्रचार बढ़ाना चाहिए। पीडी, लोकलहर आदि पत्रिका नियमित रूप से जनता के बीच में बेचना चाहिए। एक साथ बैठकर पार्टी पत्रिका पढ़नी चाहिए ओर उस पर चर्चा करनी चाहिए। हर पार्टी सदस्य को अवश्य ही पार्टी पत्रिका पढ़नी चाहिए। हर ब्रांच सचिव को एक पत्रिका लोकलहर खरीदनी चाहिए। ये सारे काम देखना ब्रांच सचिव की जिम्मेवारी है। कितने कामरेड ये काम करते हैं? मार्क्सवादी साहित्य पढ़ना पार्टी के लिए अनिवार्य है। नियमित रूप से इस पर शिक्षण शिविर होनी चाहिए। कितने ब्रांचों ने अभी तक पार्टी क्लास संगठित किए हैं, इसका हिसाब चाहिए ।

पार्टी चलाने के लिए फंड अति आवश्यक है। प्रचार आंदोलन के लिए अर्थ जरूरी है, आफिस के लिए, होलटाइमर के लिए फंड जरूरी है। इसलिए नियमित रूप से जनता से पार्टी फंड संग्रह करना चाहिए। ब्रांच का खर्चा चलाना या ऊपरी कमिटी का कोटा देने के लिए Mass collection (जन संग्रह) का कार्यक्रम लेना चाहिए। घर-घर जाकर फड इकट्ठा करना चाहिए। जनता से मांगने से जनता कभी इंकार नहीं करती, मगर हमारी कमजोरी है कि हम जनता के पास जाते नहीं। ये कमजोरी दूर करना अति आवश्यक है और हर ब्रांच को नियमित फड संग्रह का कार्यक्रम लेना चाहिए। एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि फंड का सही हिसाब रखना जरूरी है और अपने ब्रांच में और ऊपरी कमिटी को हिसाब देना चाहिए। ब्रांच सचिव सभी इस कार्य को प्रारंभ करें।

जनता के साथ घनिष्ठ संपर्क स्थापित करने के लिए जन संगठन तैयार करना अत्यंत जरूरी है। इसलिए अपने क्षेत्र में किसानों के बीच में किसान सभा, खेतिहर मजदूर के बीच खेतिहर मजदूर यूनियन, महिलाओं के बीच में महिला समिति, युवाओं के बीच में नौजवान सभा, छात्रों में एसएफआई और मजदूरों के बीच में CITU ( सीदू ) आदि संगठन तैयार करना कम्युनिस्ट पार्टी का मुख्य काम है। ब्रांच सचिव अपने ब्रांच सदस्यों को अलग-अलग जनसंगठन तैयार करने की जिम्मेदारी दे सकते हैं। जनसंगठन आजादी के साथ जनता के बीच में काम कर सके, ऐसा निश्चित करना चाहिए। जनसंगठन के द्वारा जनता के बीच में पार्टी का विचार पहुंचता है। पार्टी का आधार बढ़ता है और जनसंगठनों के नेतृत्वकारी साथी धीरे-धीरे पार्टी के अंदर आते हैं। इसलिए ब्रांच सचिव को इस काम में भी ध्यान देना चाहिए।

ब्रांच सचिव जब सदस्य के बीच में काम बांटे तब सदस्य की योग्यता को ध्यान में रखे। जो कॉमरेड जो काम कर सकते हैं उनको वही काम देना चाहिए। उस काम में उसको नियमित प्रोत्साहन देना चाहिए, साथ-साथ उसके काम की समीक्षा भी करनी चाहिए। कई ब्रांच सचिव सारे काम अकेले करना चाहते हैं और काम बांटने में रूचि नहीं लेते हैं, ये बिल्कुल गलत है। ये व्यक्तिवादी रूझान है, इससे पार्टी का नुकसान होता है इसलिए काम बांटकर Collective Leadership (सामूहिक नेतृत्व) तैयार करना चाहिए।

पार्टी के अंदर सामंतवादी रूझान दिखाई पड़ता है। पार्टी के अंदर जात-पात जैसा कुप्रभाव देखने को मिलता है। ये हमारी पार्टी के लिए घातक है। हमारी पार्टी मजदूर वर्ग की पार्टी है। हर मेहनतकश को इस पार्टी में आने का, इसमें काम करने का या इसमें नेतृत्व करने का पूरा अधिकार है। ब्रांच सचिव को देखना है कि इसका अनुपालन हो। सब सदस्यों को समान मर्यादा मिले, ऊंच-नीच की भावना ना रहे। सब कॉमरेड मिलकर एक परिवार की तरह पार्टी को चलाएं। कितने कामरेड ऐसे सोचते हैं मुझे मालूम नहीं। मगर इतना ही कहना चाहूंगा कि यदि हम कम्युनिस्ट पार्टी बनाना या बढ़ाना चाहते हैं तो हमें सबको लेकर चलना पड़ेगा। इसकी मुख्य जिम्मेदारी ब्रांच सचिव की हे।


पार्टी सदस्यता का नवीकरण

कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य जनता का नेता है। हर सदस्य में नेतृत्वकारी गुणवत्ता होनी चाहिए। पार्टी सदस्य पार्टी का न्यूनतम अनुशासन का पालन ना करे तो वह कम्युनिस्ट होने के योग्य नहीं है। हर सदस्य को कम से कम चार काम करना आवश्यक है। नियमित सभा में हाजिर रहना / पार्टी को नियमित लेवी देना / कोई एक जन संगठन में काम करना और जन आन्दोलन में हिस्सा लेना। इसके अलावा पार्टी पत्रिका पढ़ना जरूरी है। ब्रांच सचिव का कर्तव्य बनता है कि वह देखे कि उसके ब्रांच सदस्य ये काम ठीक से कर रहे हैं या नहीं, ना करें तो उसको उनसे करवाना है। जो बिल्कुल नहीं करते उसको पार्टी से निकालना है। सचिव सबको बराबरी की नजर से देखेंगे और कोई भेदभाव नहीं करेंगे। हर साल हर सदस्य के काम की पूरी समीक्षा के आधार पर उसकी सदस्यता का नवीकरण करना चाहिए। हर सदस्य को अपने काम का ब्योरा देने के लिए नवीकरण फार्म भर कर अपनी लेवी और सदस्यता चंदा के साथ जमा करना चाहिए। नवीकरण ब्रांच बैठक में, बैठक कर ही करना चाहिए। ये सब काम ठीक ठीक करने की जिम्मेदारी ब्रांच सचिव की हे। हर ब्रांच सचिव को ये काम ईमानदारी से करना चाहिए। 

हरेक ब्रांच को अपना काम सुचारू ढंग से चलाने के लिए एक ठिकाना चाहिए। अगर ब्रांच के पास इतना धन है कि वह किराये पर कार्यालय चला सके तो ऐसा ब्रांच सचिव को प्रयास करना चाहिए। अगर पैसे का अभाव है तो सचिव स्थानीय स्तर पर किसी पार्टी कॉमरेड के दरवाजा या दलान का भी इस्तेमाल कर सकता है। ब्रांच कार्यालय में पार्टी का झंडा, बैनर, फेस्टून आदि भी रखना चाहिए। पार्टी कार्यालय में पार्टी पत्रिका भी रखनी चाहिए और ब्रांच सचिव को रोज दफ्तर में कुछ समय लिये रहना चाहिए। हर पार्टी सदस्य को प्रतिदिन कम से कम एक दो घंटा पार्टी और जनसंगठन का काम करना चाहिए। ब्रांच सचिवों को AG सदस्यों, पार्टी सदस्यों को कुछ न कुछ जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए और उनके कामों को नियमित रूप से लेखां-जोखा करना चाहिए और ब्रांच सचिव को ब्रांच के कामों का ब्योरा अपने ऊपर की कमिटी को लिखित रूप में भेजना चाहिए।

बिहार जैसे राज्य, जहां गरीबी, दलितों, महिलाओं पर सामंतों का जुल्म अपने चरर्मोत्कर्ष पर है, ऐसी परिस्थिति में राज्य में आंदोलन विकसित करना ज्यादा आसान है। अगर हम राज्य की तस्वीर को बदलना चाहते हैं तो एकजुट होकर पार्टी के निर्माण कार्य में जुट जाएं और आगे आने वाले दिनों में जन-जन तक पार्टी का संदेश ले जाएं और एक विशाल जन-आंदोलन का निर्माण करें, ताकि बिहार में सबसे मजबूत पार्टी के रूप में सीपीआई (एम) देश के नक्शे पर आ सके। अपने संघर्ष, आन्दोलन को हम इस तरह विकसित करें कि आगामी कुछ वर्षो में सीपीआई (एम ) बिहार की धरती पर मुख्य विरोधी दल के रूप में उभर कर आए।


[लोकजनवाद, वसंत विशेषांक 2008 में प्रकाशित लेख का सम्पादित अंश]




समाजवाद क्‍यों ? – अलबर्ट आइंस्टाइन

पूंजीवादी समाज में आज जो आर्थिक अराजकता व्याप्त है, मेरी राय में वही सभी बुराई का वास्तविक उद्गम है। अपने सामने हम उत्पादकों के एक विशाल समुदाय को पाते हैं, जिसके सदस्य निरन्तर एक दूसरे को अपने सामूहिक श्रम के फलों से वंचित रखने का प्रयास कर रहे हैं- जोर जबरदस्ती से नहीं, बल्कि कानूनी तौर पर स्थापित नियमों का सामान्यतः: निष्ठा के साथ पालन करते हुये। इस संदर्भ में यह जरूरी है समझना कि उत्पादन के साधन यानी पूरी उत्पादक क्षमता, जो उपभोग की वस्तु तथा अतिरिक्त पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन के लिये आवश्यक है – कानूनन व्यक्ति की निजी सम्पत्ति हो सकती है, और अधिकांशत: ऐसा है भी।

सरलता के लिये आगे की बातचीत में मैं उन तमाम लोगों को ‘श्रमिक’ कहूंगा जिनकी हिस्सेदारी, उत्पादन के साधनों की मिल्कियत में नहीं है – हालांकि इस शब्द का ऐसा प्रयोग प्रचलित इस्तेमाल से मेल नहीं खाता है। उत्पादन के साधनों का मालिक श्रमिकों की श्रमशक्ति खरीदने की स्थिति में है। उत्पादन के साधनों का इस्तेमाल कर श्रमिक नये वस्तुओं का उत्पादन करता है और वे (वस्तु) पूंजीपति की सम्पति बन जाती हैं, इस प्रक्रिया का सार-बिन्दु है श्रमिक द्वारा उत्पादित वस्तु और उसे किये गये भुगतान का अन्तर्सम्बन्ध। दोनों वास्तविक मूल्य क॑ आधार पर मापे जाते हैं। जहां तक श्रम अनुबंध के 'मुक्त' होने की बात है, श्रमिक को जो प्राप्त होता है उसका निर्धारण उसके द्वारा उत्पादित वस्तुओं के वास्तविक मूल्य के आधार पर नहीं, बल्कि एक तरफ उसकी न्यूनतम जरूरतों तथा दूसरी तरफ रोजगार के लिये प्रतिस्पर्धी श्रमिकों की संख्या के साथ श्रमशक्ति की मांग ( पूंजीपतियों की जरूरत) के संबंधों के आधार पर होता है।  यह जरूरी है समझना कि सिद्धांत के तौर पर भी, श्रमिक को किया गया भुगतान उसके द्वारा उत्पादित वस्तुओं के मूल्य से निर्धारित नहीं होता है।

निजी पूंजी की रूझान है मुट्ठी भर हाथों में संकेन्द्रण। अंशत: पूंजीपतियों  के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण तथा अंशत: इस कारण से कि तकनीकी विकास एवं बढ़ता हुआ श्रम विभाजन उत्पादन की छोटी इकाइयों की जगह बड़ी इकाइयों के गठन को प्रोत्साहित करता है। इन विकासक्रमों का नतीजा होता है निजी पूंजी की एक प्रभुसत्ता, जिसकी विराट्‌ शक्ति को असरदार तरीके से रोकना जनवादी तौर पर संगठित एक राजनीतिक समाज के लिये भी संभव नहीं होता है। यह सच है क्योंकि विधायिकाओं के सदस्य राजनीतिक दलों के द्वारा चुने जाते हैं और इन राजनीतिक दलों को निजी पूंजीपति बड़े पैमाने पर पैसे देते हैं या दूसरे तरीके से प्रभावित करते हैं। व्यावहारिक तौर पर पूंजीपति मतदाताओं को विधायिकाओं से अलग कर देते हैं। नतीजा होता है कि जनता के प्रतिनिधि यथोचित तौर पर आबादी के वंचित तबकों के हितों की रक्षा नहीं करते। उसके ऊपर, मौजूदा हालात में, सूचना के मुख्य स्रोतों (प्रेस, रेडियो, शिक्षा) पर अनिवार्य रूप से निजी पूंजीपतियों का प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण होता है। इसलिये यह अत्यंत कठिन होता है, बल्कि अधिकांश मामलों में बिल्कुल असंभव होता है कि व्यक्ति (नागरिक) वस्तुपरक नतीजों तक पहुंचे और अपने राजनीतिक अधिकारों का बुद्धिमत्ता के साथ इस्तेमाल करे।

इस तरह, पूंजी की निजी मिल्कियत पर आधारित एक अर्थव्यवस्था में जो स्थिति होती है उसकी विशेषतायें दो प्रधान नीतियों के द्वारा चिन्हित होती हैं। पहली यह कि उत्पादन के साधन (पूंजी) ) का मालिकाना निजी होता है' और मालिक जैसा सही सोचते हैं वैसा ही करते हैं उन उत्पादन के साधनों के साथ, दूसरी यह कि श्रम अनुबंध 'मुक्त' होता है। बेशक, इस अर्थ में कोई विशुद्ध पूंजीवादी समाज कहीं नहीं है। खासकर यह बात नोट की जानी चाहिये कि श्रमिकों ने लम्बे और कड़वे राजनीतिक संघर्षों के माध्यम से, कुछेक श्रमिक तबकों के लिये “मुक्त श्रम अनुबंध' का थोड़ा बेहतर स्वरूप हासिल करने में सफलता प्राप्त की है। लेकिन पूरी व्यवस्था को सामान्यतः देखा जाय तो मौजूदा अर्थव्यवस्था 'विशुद्ध' पूंजीवाद से कुछ अधिक भिन्न नहीं है।

उत्पादन मुनाफे के लिये किया जाता है, उपयोग के लिये नहीं। ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि सभी लोग जो काम करने में  सक्षम है एवं काम करने की इच्छा रखते हैं, रोजगार पा ही लेंगे हर वक्‍त; 'बेरोजगारों की सेना' लगभग हमेशा मौजूद रहती है। श्रमिक हमेशा अपना काम खोने के भय से ग्रसित रहता है। चूंकि बेरोजगार एवं कम मजदूरी पाने वाले श्रमिक, मुनाफा दिलाने वाला बाजार नहीं बन सकते, उपभोग की वस्तुओं का उत्पादन सीमित किया जाता है, नतीजा होता है मर्मान्तक बदहाली। तकनीकी प्रगति के चलते अक्सर बेरोजगारी बढ़ती है, न कि (इसके चलते) सबके काम के बोझ में कोई कमी आती है। मुनाफा कमाने का उद्देश्य और साथ में पूंजीपतियों के बीच प्रतिस्पर्धा पूंजी जी के संचय और इस्तेमाल में एक अस्थिरता पैदा करता है जिसके चलते अधिकाधिक तीव्र मंदियां आती हैं। असीमित प्रतिस्पर्धा श्रम की व्यापक बर्बादी कराती है और जो मैंने पहले कहा, व्यक्तियों की सामाजिक चेतना को अपाहिज बना देती है।

व्यक्तियों को इस तरह कुंठित कर देने को मैं पूंजीवाद की सबसे गहरी बुराई मानता हूँ। हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था इस बुराई से ग्रसित है। छात्रों में अतिशयता से भरा एक प्रतिस्पर्धी मनोभाव विकसित किया जाता है। उसे प्रशिक्षित किया जाता है कि भविष्य के कैरियर की तैयारी के लिये वह हासिल की जाने वाली ,सफलता की पूजा करे।

मेरा यकीन है कि इन गंभीर बुराइयों को खत्म करने का सिर्फ एक तरीका है। वह है समाजवादी अर्थव्यवस्था कौ स्थापना। साथ में एक ऐसी शिक्षा प्रणाली जो सामाजिक उद्देश्यों की ओर प्रेरित करे। इस तरह की अर्थव्यवस्था में उत्पादन के साधनों की मिल्कियत समाज की होती है और उनका इस्तेमाल योजनाबद्ध तरीके से किया जाता है। एक योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था, जो समाज की जरूरतों के मुताबिक उत्पादन को नियंत्रित करती है, सभी काम करने में सक्षम लोगों के बीच काम का बंटवारा करेगी और सभी पुरुष, स्त्री एवं बच्चे के लिये जीने के साधन मुहैय्या कराने की गारंटी होगी। व्यक्ति की शिक्षा, उसकी अन्दरूनी क्षमताओं के विकास के साथ-साथ, मौजूदा समाज में व्याप्त क्षमता और सफलता के महिमा गायन की बजाय उसमें अपने लोगों के प्रति जिम्मेदारी का एहसास विकसित करने का प्रयास करेगी।

हालांकि यह याद रखना जरूरी है कि नियोजित अर्थव्यवस्था ही समाजवाद नहीं है। नियोजित अर्थव्यवस्था के साथ-साथ व्यक्ति की पूरी गुलामी भी संभव है। समाजवाद को हासिल करने के लिये कुछ अत्यंत कठिन सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं का समाधान ढूंढ़ना जरूरी है। राजनीतिक एवं आर्थिक शक्ति के दूरगामी केन्द्रीकरण मुतल्लिक, अफसरशाही को सर्वशक्तिमान एवं सर्वभक्षी होने से रोकना किस तरह संभव होगा? व्यक्ति के अधिकार किस तरह सुरक्षित रखे जा सकेंगे? साथ ही साथ अफसरशाही की शक्ति की काट के रूप में एक जनवादी प्रति-शक्ति कैसे सुनिश्चित की जा सकेगी?

संक्रमण के हमारे इस युग में, समाजवाद के लक्ष्य एवं समस्याओं के बारे में स्पष्टता सर्वाधिक महत्व रखता है।.....

(मन्थली रिव्यु, मई 1949 में प्रकाशित 'समाजवाद क्यों' शीर्षक लेख से)

[लोकजनवाद, वसंत विशेषांक, 2008 में प्रकाशित]




बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना - सर्वोदय शर्मा

बिहार में भी कम्युनिस्ट आंदोलन का बीजारोपण विचारधारात्मक राजनैतिक कठिन संघर्षों, लड़ाकू जन आंदोलनों और दमन से गुजरते हुए देश कौ आजादी के आंदोलन के दौर में हुआ। साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों तथा राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम की सर्वश्रेष्ठ क्रांतिकारी परम्पराओं पर 1917 में रूस में अक्तूबर क्रांति का अभूतपूर्व प्रभाव पड़ा। भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा के बीज आकर ग्रहण करने लगे। यद्यपि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 17 अक्तूबर 1920 को 'ताशकद में रूसी क्रांति की सफलता से आकर्षित विदेशों में बसे भारतीय क्रांतिकारियों के समूहों तथा मुजाहिरों के द्वारा हुई, लेकिन यह एक ऐतिहासिक घटना थी क्योंकि ''वर्गीय राजनीति और वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा के बीज भारत में अक्तूबर क्रांति के संदेश प्राप्त होने के साथ ही उगने लगे थे। उपनिवेशवाद्‌ की सच्चाईयों तथा राष्ट्रीय चेतना के उदय ने वह सामाजिक और राजनैतिक जमीन तैयार कर दी थी जो मार्क्सवाद-लेनिनवाद के सिद्धान्त को स्वीकार करने के लिए आवश्यक थी। भारत के घटना विकास ने तब ही मार्क्स-एंगेल्स का ध्यान आकर्षित कर लिया था जब वे वेज्ञानिक समाजवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर रहे थे।” (भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का इतिहास, खंड-।, सी.पी.आई.(एम) प्रकाशन)

1919 में कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल के गठन के बाद कॉमिनटर्न ने भी भारतीय जनता के संघर्षों का खुले तौर पर समर्थन किया एवं देश में चल रहे राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम के समर्थन में विश्व जनमत को यथासंभव प्रभावित किया। भारत के नवोदित कम्युनिस्ट आंदोलन ने अपनी शुरूआती सीमाओं के बावजूद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से बहुत पहले कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन (।92।) में सर्व प्रथम पूर्ण स्वाधीनता की मांग करते हुए घोषणा-पत्र जारी किया। इसका ऐसा असर पड़ा कि राष्ट्रवादी नेता मौलाना हसरत मोहात्ती और स्वामी कुमारानन्द ने कांग्रेस के उस सत्र में एक प्रस्ताव पेश कर 'स्व॒राज' को “विदेशी शासन से पूर्ण मुक्ति' के रूप में परिभाषित करने की मांग की। कांग्रेस पार्टी के गया अधिवेशन (1922) में भी कम्युनिस्टों के घोषणा-पत्र वितरित किये गये। इस घोषणा-पत्र में पूर्ण स्वतंत्रता का नारा और क्रांतिकारी सामाजिक और आर्थिक सुधारों की भी मांग की गयी। गांधी जी और बहुमत कांग्रेस प्रतिनिधियों ने इसका विरोध किया। क्‍योंकि वे लोग सिर्फ होम रूल की मांग कर रहे थे।

कलकत्ता, बम्बई, मद्रास और लाहौर इत्यादि केन्द्रों में कम्युनिस्ट समूह काम करने लगे थे। ब्रिटिश शासक ने प्रारम्भिक कम्युनिस्ट गतिविधियों से घबराकर अभूतपूर्व दमन का रास्ता अख्तियार किया। पेशावर, लाहौर, कानुपर षड़यंत्र मुकदमे संगठित कम्युनिस्ट आंदोलन का दमन करने के लिए नहीं बल्कि भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा के बीज की जड़ पकड़ने की संभावना को हमेशा के लिए दबा देने के उद्देश्य से किये गये थे। दमन के बावजूद कम्युनिस्ट जनता के बीच सक्रिय रहे। काम को जारी रखने के लिए वकर्स एण्ड पीजेन्ट्स पार्टी बनायी जबकि कम्युनिस्ट पार्टी गैर-कानूनी ढंग से कार्य करती रही।

कम्युनिस्ट विचारधारा के रूझान इतने मजबूत थे कि इससे आजादी के आंदोलन को परिपवकता प्राप्त हुई, अन्य तमाम स्वदेशी क्रांतिकारी धारा को बल मिला, और 'स्वराज' के अस्पष्ट विचारों को, सिर्फ़ विदेशी औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति ही नहीं बल्कि सामाजिक-आर्थिक शोषण तथा भारतीय समाज के संकीर्णतावादी विभाजनों तथा फूट परस्ती से भी मुक्ति के संघर्ष के रूप में बदलने में भारी मदद मिली। खुद कांग्रेस पार्टी के अन्दर उग्र और वाम्रपंथी विचारों की धारा विकसित होने लगी। राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम की विभिन्‍न क्रांतिकारी धाराएं चाहे वे पंजाब के गदर विद्रोही हों अथवा भगत सिंह के साथी, बंगाल के क्रांतिकारी हों या बम्बई, मद्रास इत्यादि के जुझारू मजदूर वर्ग, किसान विद्रोह हों अथवा आम जनवादी संघर्षशील जनता, चाहें वे समाज-सुधार आंदोलन हों अथवा अमानवीय शोषण के खिलाफ लड़ रही आदिवासी, संथाल, दलित और दबी-कुचली जनता – इन अनगिनत संघर्षों के सर्वश्रेष्ठ तत्व विचारधारा से प्रभावित होकर कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होते चले गये।

क्रांतिकारी धारा

बिहार पहले बंगाल प्रांत का एक हिस्सा था। कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक प्रमुख नेता मुजफ्फर अहमद 'कलककत्ते से ही काम कर रहे थे। अलग प्रांत होने के बाद भी कलकत्ता और बंगाल के अन्य हिस्सों से बिहार का जीवंत सम्बन्ध किसी न किसी रूप से कायम रहा। बंगाल के क्रांतिकारियों का एक केन्द्र मुंगेर था, जहां मीरकासिम के जमाने से निजी बंदूक के कारखाने थे। यहां से हथियार बंगाल के क्रांतिकारियों को भेजे जाते थे। 1930 के दशक में जब कुछ क्रांतिकारी गिरफ्तार होकर जेल गये तो उनका संपर्क कम्युनिस्टों से हुआ।

इसके अलावा इनका संपर्क कुछ ऐसे क्रांतिकारियों से भी हुआ जो अंडमान की जेल में रह चुके थे ओर वहीं मार्क्सवाद-लेनिनवाद के विचारों से प्रभावित हुए थे। इस प्रकार के कुछ ऐतिहासिक तथ्य मिलते हैं, जिससे यह विश्वास होता है कि बिहार में कम्युनिस्ट विचारधारा की एक धारा का उद्गम बंगाल के सशस्त्र क्रांतिकारियों के माध्यम से हुआ। बाद में चलकर जब बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी का गठन ।939 में हुआ तो इसके कई संस्थापक नेता – सुनील मुखर्जी, विनोद बिहारी मुखर्जी, ज्ञान विकास मैत्र, अनिल मैत्र, रतन राय, विश्वनाथ माथुर, अजीत मित्रा, चन्द्रमा सिंह इत्यादि इसी धारा से कम्युनिस्ट आंदोलन में आये।

मजदूर वर्ग की धारा

कम्युनिस्ट पार्टी मजदूर वर्ग की पार्टी है, इसलिए स्वाभाविक है कि बिहार के औद्योगिक मजदूरों, खासकर खदानों के मजदूरों पर कम्युनिस्ट विचारधारा का भारी प्रभाव पड़े। अखिल भारतीय वर्कंस ओर पीजेन्ट्स पौर्टी, जिसके संगठनकर्त्ता कम्युनिस्ट समूह ही थे, के कलकत्ता कांफ्रेंस के ठीक पहले एटक (आल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस) का नवां अखिल भारतीय सम्मेलन झरिया में 18-9-20 दिसम्बर, 1928 को एम. दाउद की अध्यक्षता में सम्पन्त हुआ। बी.एफ. ब्रेडले (ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी) क॑ अनुसार, नवाँ ट्रेड यूनियन कांग्रेस का सम्मेलन “उस

साल के अंत में हुआ जो भारत में पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों पर थोपी गयी दुर्दशा के खिलाफ संगठित विद्रोह के लिए भारत में मजदूर वर्ग के इतिहास में अतुलनीय था।“ अमेरिकी कम्युनिस्ट पार्टी के जे. डब्ल्यू. जॉनस्टन ने साम्राज्यवाद विरोधी लीग, बर्लिन की तरफ से तथा आस्ट्रेलियन कम्युनिस्ट पार्टी के जे.एफ. रयान ने सर्व प्रशांत (Pan Pacific) ट्रेड यूनियन के प्रतिनिधि के बतौर झरिया सम्मेलन में भाग लिया था। झरिया सम्मेलन ने कई महत्वपूर्ण राजनैतिक प्रस्ताव पारित किया था। एक प्रस्ताव के माध्यम से एटक के इस लक्ष्य की घोषणा की गयी कि भारत को मजदूरों के समाजवादी गणतंत्र के रूप में बदल देना चाहिये। झरिया सम्मेलन ने भारत के नये संविधान के निर्माण हेतु बुलाये गये सर्वदलीय सम्मेलन (कलकत्ता) में 50 प्रतिनिधियों को भेजने का फैसला लिया और भविष्य के संविधान में शामिल करने के लिए निम्नलिखित सुझाव पर विचार करने की मांग रखी :-

1. मजदूर वर्ग की समाजवादी गणतांत्रिक सरकार का गठन,
2. वयस्क्र मताधिकार का अधिकार,
3. भारतीय रजवाड़े के राज्यों का उन्मूलन कर उनके स्थान पर समाजवादी गणतांत्रिक सरकार की स्थापना,
4, उद्योगों तथा जमीन का राष्ट्रीयकरण,
5. काम का अधिकार,
6. दमनकारी और प्रतिक्रियावादी 'श्रम विधेयक” के कानून बनाये जाने पर रोक।

सम्मेलन द्वारा नये पदाधिकारियों के चुनाव में कम्युनिस्टों का मजदूर वर्ग के आन्दोलन पर बढ़ता प्रभाव स्पष्ट था । यद्यपि जवाहर लाल नेहरू – अध्यक्ष, एन.एम. जोशी – महासचिव चुने गये, मुजफ्फर अहमद, डी.बी.कुलकर्णी, डा. भूपेन्द्र नाथ दत्त – उपाध्यक्ष, एस.ए. डाँगे – सहायक सचिव, बी.एफ. ब्रेडले, फिलीप स्प्रेट, डी.आर. ठेंगड़ी – कार्यकारिणी सदस्य चुने गये। सम्मेलन के अंत में के.एन.जोगलेकर ने उम्मीद जाहिर करते हुए कहा कि अगला नागपुर सम्मेलन ‘काफ़ी लाल' होगा।

चूंकि अधिकांश कल-कारखानें तथा खदानें छोटानागपुर में थीं, गतिविधियों का केन्द्र भी उधर था। |934 में कम्युनिस्ट पार्टी को ब्रिटिश सरकार द्वारा गैर कानूनी घोषित कर दिया गया था। उसी साल जमशेदपुर में हंसुआ-हथौड़ा के निशान वाले झंडों को लेकर मजदूरों ने जुलूस निकाले, प्रदर्शन और आम सभाएं कौ। मंगल सिंह अपने दो दर्जन साथियों के साथ कम्युनिस्ट गतिविधियों में संलग्न रहते थे। पंजाब में क्रांतिकारियों की मदद हेतु जब वहां से तेजा सिंह और ज्वाला सिंह कोष संग्रह करने आये तो उन्होंने मंगल सिंह और करम सिंह के साथ मिलकर मजदूरों को संगठित करने में सहयोग दिया तथा कम्युनिस्ट इन्टरनैशनल से उनका संपर्क करने की योजना पर भी चर्चा की।

फनीन्द्र नाथ दत्त ने भी इस कम्युनिस्ट समूह में शामिल होकर मजदूरों को संगठित करने में योगदान दिया। टाटा में मालिक तथा प्रबंधन के मनमाने अत्याचार और धांधली के खिलाफ ।938 में जबरदस्त आंदोलन हुए। मजदूर आंदोलन के तत्कालीन नेता हजारा सिंह को टाटा ने ट्रक से कुचलवा कर हत्या करवा दी। हजारा सिंह अन्डमान की जेल की सजा के दौरान ही कम्युनिस्ट बनकर लौटे थे। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के उस समय के मुख-पत्र “जनता' ने हजारा सिंह की हत्या पर 'डालमिया की वादी की चादर पर मजदूरों के खून के छींटे' शीर्षक से समाचार भी छापा था। डालमियानगर में कम्युनिस्ट नेता मंजर रिजवी और गिरिडीह, जपला में कम्युनिस्ट नेता हबीबुर रहमान मजदूरों के अगुआ थे।

किसान विद्रोह की धारा

1920 और ।930 के दशक में देश भर में अनेक स्थानों पर किसानों के संघर्ष खड़े हो गये थे। चम्पारण का आंदोलन इतना ऐतिहासिक हो गया था कि गांधीजी को देश भर में ख्याति मिली। किसानों के बीच ये भी अफवाहें थी कि महात्मा गांधी क्रांतिकारी नेता हैं और वे जमींदार विरोधी हैं, जो सच्चाईयों से परे है। कम्युनिस्टों के द्वारा गठित वर्कस एण्ड पीजेन्ट्स पार्टी (मजदूर-किसान पार्टी) यद्यपि सामंतवाद-विरोधी नारे दे रही थी, लेकिन उनकी इकाईयों का गठन सभी जगह खासकर देहाती क्षेत्रों में कम ही हो पाये थे। कांग्रेस पार्टी और उसके नेता बटाईदारी, बेदखली, मजदूरी, अमानुषिक सामंती अत्याचारों के खिलाफ नहीं बोल पाते थे क्‍योंकि जमींदारों से उनके गहरे ताल्‍लुकात थे। बिहार में स्थिति ओर भी बुरी थी क्‍योंकि यहां कांग्रेस का प्राय: प्रत्येक महत्वपूर्ण नेता खुद जमींदार, उसकी संतान अथवा उसके कर्मचारी थे। इसलिए यहां एक शक्तिशाली किसान आंदोलन की अगुवाई एक विद्रोही सन्यासी स्वामी सहजानंद सरस्वती ने की। 1947 के पूर्व देश के सबसे शक्तिशाली और व्यापक किसान आंदोलन का केन्द्र बिहार बना। स्वामी सहजानंद के नेतृत्व में बिहार प्रान्तीय किसान सभा की स्थापना 1929 में हुई। उस समय किसान सभा का दृष्टिकोण नरमपंथी था। जैसे-जैसे किसान आंदोलन उग्र होते गये, स्वामी जी का कांग्रेस से मोहभंग होता गया। बदले में कांग्रेस अपने समर्थकों को किसान सभा की गतिविधियों में भाग लेने से मना करने लगी। खासकर, ऐसे जिला में जहां किसान सभा और उसका आंदोलन तीव्र था। लेकिन इन कठिनाईयों के बावजूद किसान सभा के नेतृत्व में आंदोलन की ताकत बढ़ती गयी ओर अन्तत: ।936 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में अखिल भारतीय किसान सभा का भी गठन हो गया। चूंकि किसान आंदोलन की दिशा साम्राज्यवाद विरोधी और सामंतवाद विरोधी थी, कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट

विचारधारा से प्रभावित अनेक नेता और कार्यकर्ता इसमें सक्रिय रूप से जुड़े थे। कांग्रेस की किसान आंदोलन के प्रति उदासीनता का प्रमुख कारण उसका जमींदार तत्वों के साथ गहरा लगाव था जो बंगाल और बिहार जैसे स्थायी बंदोबस्ती के इलाकों में स्पष्ट था जबकि रैयतवाड़ी इलाके, जैसे समुद्र तटीय आंध्र में कांग्रेस के नेतृत्व में धनी तथा मंझोले किसानों के शक्तिशाली किसान आंदोलन हुए क्योंकि यहां लगान वसूली ब्रिटिश शासक खुद करते थे। गुजरात में भी कांग्रेस को उल्लेखनीय सफलता मिली थी। 1934 में किसान सभा का चौथा अखिल भारतीय सम्मेलन गया में हुआ जब इसकी कमिटियां 20 में से 9 प्रांतों में बन चुकी थीं तथा सदस्यता लगभग 8 लाख पहुंच चुकी थी।

बिहार में किसान आंदोलन साम्राज्यवाद विरोध तथा सामंतवाद विरोधी लहर की तेज धार थी जिसने ब्रिटिश शासन और ताकतवर जमींदारों को भी हिलाकर रख दिया था। किसान सभा के नेतृत्व में बकाश्त आंदोलन, टाल आंदोलन, चानन आंदोलन को भारी कामयाबी मिली। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन भी किसान संघर्ष के प्रमुख योद्धा और नेता थे। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस भी किसान सभा के कार्यक्रम में एकाधिक बार भाग लेने के लिए बिहार आये थे। इस संबंध में अनेक लेख और पुस्तकें लिखी गयी हैं जो उस समय किसानों तथा खेत-मजदूरों की दुर्दशा, सामंती अत्याचारों, ग्रामीण समाज के अन्तर्विरोधों ओर आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक सच्चाईयों के प्रामाणिक दस्तावेज हैं। कम्युनिस्ट विचारधारा और पार्टी के फलने-फूलने के लिए किसान आंदोलन ने अत्यंत उर्वरा भूमि और ठोस सामाजिक-आर्थिक आधार प्रदान किया।

छात्र एवं अन्य जन आंदोलन की धारा : 1936-39

1936 में पार्टी के नेतृत्व में जन आंदोलन तथा जन संगठन की गतिविधियों में पार्टी पर प्रतिबंध और दमन के बावजूद तीब्र वृद्धि हुई। इसी वर्ष आल इण्डिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन की स्थापना लखनऊ में को गयी थी। पूर्व में भी छात्र आंदोलन की भूमिका स्वदेशी आंदोलन, क्रांतिकारी आंदोलन, असहयोग आन्दोलन, नमक सत्याग्रह इत्यादि के दौरान दिखलायी पड़ती थी। लेकिन अखिल भारतीय स्तर पर ए.आई.एस.एफ. के गठन के बाद छात्र समुदाय की साम्राज्यवाद विरोधी व्यापक एकता कायम हुई तथा जेसे-जैसे छात्र आंदोलन तेज होते गये, कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रचार-प्रसार नये इलाकों में समाज के विभिन्‍न हिस्सों तक फैलता गया। 1938 में बिहार में भी प्रान्तीय कमिटी का गठन हुआ, जिसने बाद में चलकर कम्युनिस्ट पार्टी को अनेक प्रांत स्तर के प्रथम पंक्ति के नेता और कार्यकर्ता दिये। ए.आई.एस.एफ. के प्रथम प्रांतीय महासचिव चन्द्रशेखर सिंह भी बाद में चलकर कम्युनिस्ट पार्टी के सबसे विख्यात कम्युनिस्ट एवं जन नेता के रूप में जाने लगे। इसी प्रकार अली अशरफ, इन्द्रदीप सिन्हा, भोगेन्द्र झा, योगेन्द्र शर्मा, कृष्णचंद चौधरी, गंगाधर दास, चतुरानंन मिश्र, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे नेता भी ए.आई.एस.एफ. के नेतृत्व में ताकतवर साम्राज्यवाद विरोधी छात्र आंदोलन की उपज हैं।

मेरठ षड़यंत्र मुकदमा

अखिल भारतीय वर्कस एण्ड पीजेन्ट्स पार्टी (मजदूर-किसान पार्टी) के कलकत्ता सम्मेलन के बाद 1929 में ब्रिटिश सरकार ने 3। वरिष्ठ महत्वपूर्ण कम्युनिस्ट नेताओं और अन्य क्रांतिकारियों पर ऐतिहासिक मेरठ षडयंत्र मुकदमा चलाया जिसने देश भर के साम्राज्यवाद विरोधी प्रगतिशील तबकों तथा क्रांतिकारी युवकों का ध्यान आकर्षित कर लिया। अदालत में अभियुक्तों के बयान भारत में कम्युनिस्ट विचारों की राजनैतिक घोषणा थी। इस दौरान कम्युनिस्ट विचारों का तेजी से प्रचार-प्रसार हुआ। यद्यपि कानपुर सम्मेलन में अखिल भारतीय स्तर कम्युनिस्ट पार्टी बनायी गयी लेकिन वास्तव में मेरठ षड़यंत्र मुकदमे के बाद ही दिसम्बर 1933 में विभिन्‍न कम्युनिस्ट समूहों के बीच बेहतर तालमेल हो पाया और एक अखिल भारतीय केन्द्र भी अस्तित्व में आ सका। जेल में भी कई कांग्रेसी कम्युनिस्ट प्रभाव में आये। कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व के नरमपंथी और समझौता परस्त रूख और ढुलमुल रवैये के चलते कई कांग्रेस जनों का मोहभंग होने लगा। उग्र कांग्रेसजनों की एक धारा ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन 1934 में किया जो क्रांतिकारी विचारधारा का प्रचार करते हुए भी कांग्रेस में बनी रही।

कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी

बिहार में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का बड़ा प्रभाव था। जय प्रकाश नारायण और प्रांतीय स्तर के कई नेता कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में महत्वपूर्ण पदों पर थे। कम्युनिस्ट आंदोलन से संभावित खतरे को देखते हुए जब 1934 में कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया गया तो कम्युनिस्ट कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में रहकर साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन को तेज कर रहे थे। 1935 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की सातवीं कांग्रेस ने फासीवाद के बढ़ते कदम और उसके खिलाफ संघर्षों का विश्लेषण कर तमाम युद्ध विरोधी ताकतों का संयुक्त मोर्चा बनाने का आह्वान किया। पार्टी ने ठोस फैसला लिया कि एक व्यापक साम्राज्यवाद विरोधी संगठन बनाने के लिए कम्युनिस्टों को कांग्रेस के भीतर ही काम 'करना चाहिये। बिहार में भी इस का अच्छा नतीजा निकला और जन आंदोलन तेज हुए। इस प्रकार कम्युनिस्ट पार्टी में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के महत्वपूर्ण नेता और कार्यकर्त्ता राज्य में पार्टी के गठन के बाद के वर्षो में शामिल हुए। इ.एम.एस. नम्बूदिरिपाद, ए. के. गोपालन, पी. राममूर्ति, दिनकर मेहता, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से कम्युनिस्ट आंदोलन में आये।

बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 

उपर्युक्त पृष्ठभूमि में कम्युनिस्ट पार्टी का गठन 20 अक्तूबर, 1939 को मुंगेर शहर में एक गुप्त बेठक में किया गया क्योंकि उस समय पार्टी पर प्रतिबंध लगा हुआ था। इस बैठक को जान-बूझकर विजयादशमी के त्योहार के दिन आयोजित किया गया था ताकि ब्रिटिश सरकार और उसकी पुलिस का ध्यान बंटा रहे। इस बैठक में सुनील मुखर्जी, राहुल सांकृत्यायन, ज्ञान विकास मैत्र, विश्वनाथ माथुर, अली अशरफ, विनोद बिहारी मुखर्जी, श्यामल किशोर झा, अनिल मैत्रा, शिव बचन सिंहा, कृपा सिन्धु पुटिया, शरत पटनायक, बी.बी. मिश्रा, हबीर्बुर रहमान, पृथ्वीराज, दयानन्द झा, नागेश्वर सिंह, चन्द्रमा सिंह, अजीत मित्रा, रतन राय ने भाग लिया। बैठक में केन्द्रीय समिति की ओर से रूद्रदत्त भारद्वाज ने पर्यवेक्षक के तौर पर भाग लिया था। उनपर गिरफ्तारी का वारंट था। बेठक में अधिकांश साथियों को पूर्ण सदस्यता तथा कुछ साथियों को उम्मीदवार सदस्यता दी गयी। 5 सदस्यों – सुनील मुखर्जी (सचिव), राहुल सांकृत्यायन, ज्ञान विकास मेत्र, अली अशरफ एवं विश्वनाथ माथुर की एक प्रांतीय समिति का भी गठन किया गया। नवगठित प्रांतीय पार्टी ने 2 नवम्बर 1939 को जनता के नाम दो संदेश जारी किये, जिसमें पहले संदेश में उस समय जारी द्वितीय विश्वयुद्ध को अब भारत की स्वाधीनता के युद्ध में बदल देने का आहवान किया गया था और दूसरा संदेश टाटानगर के मजदूरों के नाम से जारी किया गया था, जिसमें साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन को तेज करते हुए 

1. मुनाफे के आधार पर वेतन में वृद्धि करने,
2. सड़क पर काम करनेवाले और वे सभी जो गर्मी में काम करते हैं, उनके काम के घंटे सिर्फ 6 निश्चित किये जाने,
3. नौकरी से हटाये गये मजदूरों को वापस नौकरी में लेने,
4. सभी मजदूरों को बोनस देने एवं प्रबंधन द्वारा प्रोविडेंट फंड का प्रावधान करने

की जायज मांगों को उठाने तथा मालिक द्वारा नहीं मानने पर पूर्ण हड़ताल पर जाने का आहवान किया गया।

पार्टी ने विभिन्‍न जिलों में सर्क्यूलर भेजकर राजनैतिक एवं सांगठनिक, दोनों कार्यो को तेज करने का आहवान किया। पार्टी के गठन का संदेश ज्यों-ज्यों फैलता गया, पार्टी नेतृत्व में जन-आंदोलनों का सिलसिला तेज होता गया। विभिन्‍न स्थानों पर कम्युनिस्ट कार्यकर्ता और नेता ट्रेड यूनियन, किसान आंदोलन, छात्र-आंदोलन और अन्य जन कारवाईयों से पहले से ही जुड़े थे।  डालमियानगर में आशिंक हड़तालें, प्रदर्शन, ए.आई.एस.एफ. द्वारा पूर्ण स्वाधीनता दिवस के अवसर पर प्रभात फेरी, जुलूस एवं प्रदशनों का तांता लग गया। कलकत्ते के अंग्रेजी अखबार दैनिक “स्टेट्समैन ने बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी के गठन को नोट करते हुए अंग्रेज सरकार से इस भयंकर बीज को अविलम्ब कुचल देने की अपील की। ब्रिटिश सरकार ने दमन चक्र चलाया, लेकिन डालमियानगर के अलावे पटना, छपरा, मुंगेर, दरभंगा, भागलपुर में भी छात्रों ने युद्ध के खिलाफ हड़तालें की। कम्युनिस्ट मजदूर

नेता मंजर रिजवी सासाराम में आम सभा को सम्बोधित करते हुए जनवरी ।940 में गिरफ्तार कर लिये गये। ।940 में कांग्रेस अखिल भारतीय महाधिवेशन रामगढ़ में होने वाला था। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस एवं स्वामी सहजानंद सरस्वती ने मिलकर इस अवसर पर 'साम्राज्यवाद विरोधी सम्मेलन' करने की तैयारी शुरू कर दी ताकि कांग्रेस नेतृत्व की समझौतावादी मनोवृत्ति के खिलाफ मजदूरों का विरोध प्रदर्शन आयोजित किया जा सके। पटना में अली अशरफ, गिरीडीह में सुनील मुखर्जी और इलाहाबाद में राहुल सांकृत्यायन तथा विभिन्‍न स्थानों पर अनेक कम्युनिस्ट नेता गिरफ्तार कर लिये गये। पार्टी की प्रांतीय कमिटी ने बेठक कर भूमिगत रूप से काम करने का निर्देश जारी किया। 1940 के मध्य तक पार्टी सदस्यों की संख्या बढ़कर 55 हो गयी। इसके अलावा सैकड़ों लड़ाकू जन नेता पार्टी के साथ थे। 1940 के अन्त तक पार्टी का प्रभाव इतना बढ़ गया कि किसान सभा और ए,आई.एस.एफ. – दोनों संगठनों के सम्मेलनों में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और जयप्रकाश नारायण के समर्थकों की राजनैतिक रूप से हार होने लगीं। उनके अनेक नेता पार्टी में शामिल होने लगे – जैसे कार्यानन्द शर्मा, किशोरी प्रसन्न सिंह इत्यादि। ट्रेड यूनियन में भी कम्युनिस्ट का प्रभाव तेजी से बढ़ा और अनेक नेता पार्टी में शामिल हुए। पार्टी प्रकाशनों तथा अखबार को प्रतिबंधित कर दिया गया। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी का कारवाँ चल चुका था .... उसे रोकना संभव नहीं था। 

[लोकजनवाद, वसंत विशेषांक 2008 से साभार]