Tuesday, October 25, 2022

समाजवाद क्‍यों ? – अलबर्ट आइंस्टाइन

पूंजीवादी समाज में आज जो आर्थिक अराजकता व्याप्त है, मेरी राय में वही सभी बुराई का वास्तविक उद्गम है। अपने सामने हम उत्पादकों के एक विशाल समुदाय को पाते हैं, जिसके सदस्य निरन्तर एक दूसरे को अपने सामूहिक श्रम के फलों से वंचित रखने का प्रयास कर रहे हैं- जोर जबरदस्ती से नहीं, बल्कि कानूनी तौर पर स्थापित नियमों का सामान्यतः: निष्ठा के साथ पालन करते हुये। इस संदर्भ में यह जरूरी है समझना कि उत्पादन के साधन यानी पूरी उत्पादक क्षमता, जो उपभोग की वस्तु तथा अतिरिक्त पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन के लिये आवश्यक है – कानूनन व्यक्ति की निजी सम्पत्ति हो सकती है, और अधिकांशत: ऐसा है भी।

सरलता के लिये आगे की बातचीत में मैं उन तमाम लोगों को ‘श्रमिक’ कहूंगा जिनकी हिस्सेदारी, उत्पादन के साधनों की मिल्कियत में नहीं है – हालांकि इस शब्द का ऐसा प्रयोग प्रचलित इस्तेमाल से मेल नहीं खाता है। उत्पादन के साधनों का मालिक श्रमिकों की श्रमशक्ति खरीदने की स्थिति में है। उत्पादन के साधनों का इस्तेमाल कर श्रमिक नये वस्तुओं का उत्पादन करता है और वे (वस्तु) पूंजीपति की सम्पति बन जाती हैं, इस प्रक्रिया का सार-बिन्दु है श्रमिक द्वारा उत्पादित वस्तु और उसे किये गये भुगतान का अन्तर्सम्बन्ध। दोनों वास्तविक मूल्य क॑ आधार पर मापे जाते हैं। जहां तक श्रम अनुबंध के 'मुक्त' होने की बात है, श्रमिक को जो प्राप्त होता है उसका निर्धारण उसके द्वारा उत्पादित वस्तुओं के वास्तविक मूल्य के आधार पर नहीं, बल्कि एक तरफ उसकी न्यूनतम जरूरतों तथा दूसरी तरफ रोजगार के लिये प्रतिस्पर्धी श्रमिकों की संख्या के साथ श्रमशक्ति की मांग ( पूंजीपतियों की जरूरत) के संबंधों के आधार पर होता है।  यह जरूरी है समझना कि सिद्धांत के तौर पर भी, श्रमिक को किया गया भुगतान उसके द्वारा उत्पादित वस्तुओं के मूल्य से निर्धारित नहीं होता है।

निजी पूंजी की रूझान है मुट्ठी भर हाथों में संकेन्द्रण। अंशत: पूंजीपतियों  के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण तथा अंशत: इस कारण से कि तकनीकी विकास एवं बढ़ता हुआ श्रम विभाजन उत्पादन की छोटी इकाइयों की जगह बड़ी इकाइयों के गठन को प्रोत्साहित करता है। इन विकासक्रमों का नतीजा होता है निजी पूंजी की एक प्रभुसत्ता, जिसकी विराट्‌ शक्ति को असरदार तरीके से रोकना जनवादी तौर पर संगठित एक राजनीतिक समाज के लिये भी संभव नहीं होता है। यह सच है क्योंकि विधायिकाओं के सदस्य राजनीतिक दलों के द्वारा चुने जाते हैं और इन राजनीतिक दलों को निजी पूंजीपति बड़े पैमाने पर पैसे देते हैं या दूसरे तरीके से प्रभावित करते हैं। व्यावहारिक तौर पर पूंजीपति मतदाताओं को विधायिकाओं से अलग कर देते हैं। नतीजा होता है कि जनता के प्रतिनिधि यथोचित तौर पर आबादी के वंचित तबकों के हितों की रक्षा नहीं करते। उसके ऊपर, मौजूदा हालात में, सूचना के मुख्य स्रोतों (प्रेस, रेडियो, शिक्षा) पर अनिवार्य रूप से निजी पूंजीपतियों का प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण होता है। इसलिये यह अत्यंत कठिन होता है, बल्कि अधिकांश मामलों में बिल्कुल असंभव होता है कि व्यक्ति (नागरिक) वस्तुपरक नतीजों तक पहुंचे और अपने राजनीतिक अधिकारों का बुद्धिमत्ता के साथ इस्तेमाल करे।

इस तरह, पूंजी की निजी मिल्कियत पर आधारित एक अर्थव्यवस्था में जो स्थिति होती है उसकी विशेषतायें दो प्रधान नीतियों के द्वारा चिन्हित होती हैं। पहली यह कि उत्पादन के साधन (पूंजी) ) का मालिकाना निजी होता है' और मालिक जैसा सही सोचते हैं वैसा ही करते हैं उन उत्पादन के साधनों के साथ, दूसरी यह कि श्रम अनुबंध 'मुक्त' होता है। बेशक, इस अर्थ में कोई विशुद्ध पूंजीवादी समाज कहीं नहीं है। खासकर यह बात नोट की जानी चाहिये कि श्रमिकों ने लम्बे और कड़वे राजनीतिक संघर्षों के माध्यम से, कुछेक श्रमिक तबकों के लिये “मुक्त श्रम अनुबंध' का थोड़ा बेहतर स्वरूप हासिल करने में सफलता प्राप्त की है। लेकिन पूरी व्यवस्था को सामान्यतः देखा जाय तो मौजूदा अर्थव्यवस्था 'विशुद्ध' पूंजीवाद से कुछ अधिक भिन्न नहीं है।

उत्पादन मुनाफे के लिये किया जाता है, उपयोग के लिये नहीं। ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि सभी लोग जो काम करने में  सक्षम है एवं काम करने की इच्छा रखते हैं, रोजगार पा ही लेंगे हर वक्‍त; 'बेरोजगारों की सेना' लगभग हमेशा मौजूद रहती है। श्रमिक हमेशा अपना काम खोने के भय से ग्रसित रहता है। चूंकि बेरोजगार एवं कम मजदूरी पाने वाले श्रमिक, मुनाफा दिलाने वाला बाजार नहीं बन सकते, उपभोग की वस्तुओं का उत्पादन सीमित किया जाता है, नतीजा होता है मर्मान्तक बदहाली। तकनीकी प्रगति के चलते अक्सर बेरोजगारी बढ़ती है, न कि (इसके चलते) सबके काम के बोझ में कोई कमी आती है। मुनाफा कमाने का उद्देश्य और साथ में पूंजीपतियों के बीच प्रतिस्पर्धा पूंजी जी के संचय और इस्तेमाल में एक अस्थिरता पैदा करता है जिसके चलते अधिकाधिक तीव्र मंदियां आती हैं। असीमित प्रतिस्पर्धा श्रम की व्यापक बर्बादी कराती है और जो मैंने पहले कहा, व्यक्तियों की सामाजिक चेतना को अपाहिज बना देती है।

व्यक्तियों को इस तरह कुंठित कर देने को मैं पूंजीवाद की सबसे गहरी बुराई मानता हूँ। हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था इस बुराई से ग्रसित है। छात्रों में अतिशयता से भरा एक प्रतिस्पर्धी मनोभाव विकसित किया जाता है। उसे प्रशिक्षित किया जाता है कि भविष्य के कैरियर की तैयारी के लिये वह हासिल की जाने वाली ,सफलता की पूजा करे।

मेरा यकीन है कि इन गंभीर बुराइयों को खत्म करने का सिर्फ एक तरीका है। वह है समाजवादी अर्थव्यवस्था कौ स्थापना। साथ में एक ऐसी शिक्षा प्रणाली जो सामाजिक उद्देश्यों की ओर प्रेरित करे। इस तरह की अर्थव्यवस्था में उत्पादन के साधनों की मिल्कियत समाज की होती है और उनका इस्तेमाल योजनाबद्ध तरीके से किया जाता है। एक योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था, जो समाज की जरूरतों के मुताबिक उत्पादन को नियंत्रित करती है, सभी काम करने में सक्षम लोगों के बीच काम का बंटवारा करेगी और सभी पुरुष, स्त्री एवं बच्चे के लिये जीने के साधन मुहैय्या कराने की गारंटी होगी। व्यक्ति की शिक्षा, उसकी अन्दरूनी क्षमताओं के विकास के साथ-साथ, मौजूदा समाज में व्याप्त क्षमता और सफलता के महिमा गायन की बजाय उसमें अपने लोगों के प्रति जिम्मेदारी का एहसास विकसित करने का प्रयास करेगी।

हालांकि यह याद रखना जरूरी है कि नियोजित अर्थव्यवस्था ही समाजवाद नहीं है। नियोजित अर्थव्यवस्था के साथ-साथ व्यक्ति की पूरी गुलामी भी संभव है। समाजवाद को हासिल करने के लिये कुछ अत्यंत कठिन सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं का समाधान ढूंढ़ना जरूरी है। राजनीतिक एवं आर्थिक शक्ति के दूरगामी केन्द्रीकरण मुतल्लिक, अफसरशाही को सर्वशक्तिमान एवं सर्वभक्षी होने से रोकना किस तरह संभव होगा? व्यक्ति के अधिकार किस तरह सुरक्षित रखे जा सकेंगे? साथ ही साथ अफसरशाही की शक्ति की काट के रूप में एक जनवादी प्रति-शक्ति कैसे सुनिश्चित की जा सकेगी?

संक्रमण के हमारे इस युग में, समाजवाद के लक्ष्य एवं समस्याओं के बारे में स्पष्टता सर्वाधिक महत्व रखता है।.....

(मन्थली रिव्यु, मई 1949 में प्रकाशित 'समाजवाद क्यों' शीर्षक लेख से)

[लोकजनवाद, वसंत विशेषांक, 2008 में प्रकाशित]




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