शायद सुधांशुजी ही मुझे विवाहस्थल के करीब उस कमरे तक ले गये थे जहाँ बिस्तर पर कॉमरेड लेटी हुई थीं। थोड़ी देर हम बातचीत करते रहे। बीमार हालत में भी वह लगातार बात करती रही, कामकाज के बारे में तरह तरह का सवाल पूछती रहीं … और मैं बात करते हुये भी लगातार डरता रहा कि शायद डाक्टर ने ज्यादा बात करने से मना कर रखा हो! इसी कारण से मैं अनिच्छा के बावजूद उनसे विदा लेकर विवाहस्थल पर वापस चला आया।
ऐडवा का अखिल भारतीय सम्मेलन बोधगया में हुआ। बतौर वॉलन्टियर मैं वहाँ मौजूद था। सुधाजी अस्वस्थता के बावजूद सम्मेलन में भाग ले रही थीं। पुरानी तस्वीरें कहाँ छूट गई थीं! वह गर्दनीबाग स्थित कोऑपरेटिव हॉल में मुझे कॉमरेड किशोर ले गये थे कि ‘दादा, महिलाओं का सम्मेलन है; आपको थोड़ा फोटो खींच देना है’! वहीं मैंने पहलीबार कॉमरेड (कैप्टेन) लक्ष्मी सहगल को देखा था, उनकी तस्वीर भी ली थी! … तब से शुरु हुआ था मेरा ऐडवा के कार्यक्रमों में एवं साथियों के बीच आनाजाना! … लेकिन अब, अपने डिजिटल संग्रह के लिये मुझे औरों के साथ साथ सुधाजी की तस्वीर लेने का मौका मिल गया। बाहर झंडोत्तोलन के समय कुर्सी पर बैठी हुई और फिर अन्दर में कॉमरेड सुभाषिणी अली से लिपटी हुई।
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हम इसी समाज में जीते हैं तो इसकी बीमारियाँ भी साथ लिये चलते हैं। कभी पार्टी के ही बड़े नेता को अधिक श्रद्धा जताने के लिये बोल देते हैं, ‘कॉमरेड सरजी!’ सेल्फी खींचने के लिये लालायित रहने पर भी सबको बेहिचक बोल नहीं पाते हैं, ‘दादा, एगो फोटो खींचवाना चाहते थे आपके साथ!’ सारे नेता भी एक जैसी आत्मीयता नहीं बिखेर पाते हैं। बड़े नेताओं एवं आम कार्यकर्त्ताओं के बीच एक दूरी बनती जाती है हमारे (हम यानी कार्यकर्त्ता भी और नेता भी)। इस प्रवृत्ति को सीपीआई(एम) नोट भी करती है एवं इसे दूर करने का उपाय भी बताती है। उस पर चर्चा करना प्रसंगांतर होगा। मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि उपर कही गई इस समाज की बीमारियाँ, प्रवृत्तियाँ एक तरफ और कुछ कुछ नेताओं की सहजात आत्मीयता एक तरफ। उन पर कोई दूसरा रंग चढ़ ही नहीं पाता है। कॉमरेड सुधाविन्दु मित्रा उसी धारा की नेता थीं। किसी की दादी, नानी, किसी की माँ, मौसी, फुआ किसी की दीदी या उनसे बड़े किसी की बहन और मजबूत मेहनती कदकाठी की एक कार्यकर्त्ता, एक मिठास भरी मुस्कान लिये साँवले सुन्दर चेहरेवाली अनुभवी कॉमरेड … इसके अलावा वह अलग से कुछ नेता-वेता टाइप की लगती ही नही थी। सभाओं में उन्हे ओजस्वी भाषण देने की जरूरत पड़ती होगी, लेकिन एक रंगरुट कॉमरेड को बस उनके मुस्कराहट भरे आत्मीय कुशल-विनिमय से ही सांगठनिक उर्जा का अमृतस्पर्श मिल जाता था।
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कॉमरेड सुधाविन्दु मित्रा के बारे में संस्मरणों के इस संग्रह का प्रकाशन एक प्रशंसनीय उद्यम है। सिर्फ इसलिये नहीं कि यह सुधाजी के बारे में है। बल्कि इसलिये भी कि यह मूलत: स्थानीय है। हमारे लिये अफसोस की बात है कि औरों की बात तो दूर, हम आज तक न तो कॉमरेड अजीत सरकार की एक प्रामाणिक जीवनी (संस्मरण एवं क्रॉनोलॉजी समेत) प्रस्तुत कर पाये और न ही कॉमरेड रामनाथ की। ये दोनों श्रमजीवी जनता के आन्दोलन के शहीद हुये।
हमें स्थानीय जीवनियों की सख्त जरूरत है। पार्टी के, जनसंगठन के नेताओं से अलग, स्थानीय जनता द्वारा याद रखे गये कोई स्थानीय शिक्षक रहे हों जो बच्चों को घर-घर से खींचकर ले आते रहे हों अपनी पाठशाला में, समाज-सुधारक रहे हों, सेवाभाव से काम करने वाले डाक्टर रहे हों, लेखक, कवि या कलाकार रहे हों … किसी न किसी तरीके से प्रेरणास्रोत रहे हों मानवीय मूल्यों के पक्षधर एक जीवन जीने के लिये, उन सबकी छोटी छोटी जीवनियाँ, संस्मरण स्थानीय प्रयासों के माध्यम से उपलब्ध होने चाहिये। तभी असली भारत उसकी जड़ों में दिखेगा।
कॉमरेड सुधाविन्दु मित्रा के बारे में संस्मरणों के इस संग्रह के प्रकाशन का प्रशंसनीय उद्यम लेने वालों को मेरा हार्दिक अभिनन्दन!
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