Friday, October 21, 2022

एक बदनाम रथकार की कहानी

पिछले 24 अप्रैल को, विनिवेश विभाग के राज्य मंत्री श्री अरूण जेटली ने राज्यसभा को बताया कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के विनिवेश से सिर्फ ।585 करोड़ रूपये हासिल हुये जबकि घोषित लक्ष्य 10000 करोड़ का था । उन्होंने यह भी बताया कि वर्ष 1997-98 की हासिल रकम थी 902 करोड़ रूपये जबकि लक्ष्य था 4800 करोड़ रूपये का ।

लक्ष्य से इतना कम हासिल होते के कारणें की चर्चा करते हुये उन्होंने कहा कि “बाजार की प्रतिकूल स्थिति” भी, “कई कारणों में से एक" था ।

पाठकों को याद होगा कि नरसिंहा राव सरकार के जमाने में कन्ट्रोलर एन्ड औडिटर जेनरल (सी०ए०जी०) के एक प्रतिवेदन की चर्चा हुई थी जिसमें इस बात के लिये सरकार की आलोचना की गई थी कि विनिवेश का ''बाजार मूल्य'' 22000 करोड़ रूपये होने के बावजूद सिर्फ 6000 करोड़ रूपये हासिल किये गये । सरकार ने भी तुरन्त इस पर कार्रवाई की और विनिवेश विभाग के एक अधिकारी, (जिसे कथित रूप से इस घपले के लिये जिम्मेदार ठहराया गया) को सेवानिवृत्त करार दिया गया ।

पाठकों को यह भी याद होगा कि जब, आठ-नौ साल पहले कुकुरमुत्तों की तरह म्युचुवल फन्ड्स का उदय हो रहा था तब सरकार की ओर से आश्वासन दिया गया कि 'सार्वजनिक क्षेत्र की हिस्सा पूंजी' किसी भी परिस्थिति में 'विदेशी निवेशकों के हाथ में' जाने नहीं दिया जायेगा, जबकि अखबारों में ही यह खबर छपी कि विनिवेशित हिस्सा पूंजी रातों रात, फारवर्ड डिलिंग के द्वारा, म्युच्रुवल फन्ड्स के माध्मम से अमरीकी बैंकों में पहुंच गयी |

अगर दल्ला सीमेंट कारखाने वाली घटना का जिक्र न भी करें, जहां मज़दूरों ने अपनी शहादत से 100 करोड़ रूपये के कारखाने को 7 करोड़ रूपयों में बेचे जाने से रोका, तब भी, दस वर्षों के घटनाक्रमों पर नजर दौड़ाने पर यही लगता है कि सरकार (यानि कांग्रेस, संयुक्त मोर्चा और मौजूदा, भाजपा कौ) अपने देवताओं को तुष्ट करने उदारीकरण की थाली में सार्वजनिक क्षेत्र का लड्डू श्रद्धा से चढ़ाती मंत्र जप रही है 'त्वदीयम वस्तु गोबिन्दम, तुभ्यमेव समर्पयेत' !

तेरह साल पहले पटना पुस्तक मेला में एक किताब हाथ लगी | कई लेखकों के अर्थनीति सम्बन्धी निबन्धों के उस संकलन में एक निबंध का एक पैरा इतना अच्छा लगा कि मैंने वह किताब खरीद ली । “/विश्व पूंजीवाद के आर्थिक संकट” का विश्लेषण करने वाले उस निबन्ध की कुछेक पंक्तियां इस प्रकार थीं ;-

"To hold the adoption of monetarist policies as the root cause of the current recession is to gloss over the objective contradictions of capitalism … For one thing it fails to explain why the very period of Keynesian demand-management witnessed such a dramatic increase in the relative power of rentier interests if Keynesianism was so opposed to these interests; for another, it fails to explain how, not withstanding all their power, they could impose monetarist policies, if these policies had no appeal for any other classes.”  (Prabhat Patnaik, On the economic crisis of World Capitalism)

अपने मूल संदर्भ से हटकर इन पंक्तियों ने मुझे वह रास्ता दिखाया जिस पर चलकर भारत के बड़े पूंजीपति, “मिश्रित अर्थव्यवस्था'' की गोद में पल बढ़कर कई गुना अधिक बड़े पूंजीपति बने, इजारेदार घराने बने और अब “मिश्रित अर्थव्यवस्था के पांच दशकों को भारत के लिए व्यर्थ नष्ट किया गया समय” बता रहे हैं ।


स्वतंत्रता के बाद जब पंचवर्षीय योजनाओं कौ नियोजन प्रणाली को रूप दिया जा रहा था; उसी दौरान 1956 में औद्योगिक प्रस्ताव लाया गया जिसमें सार्वजनिक उद्योगों को दिशानिर्देशक शिखरों तक पहुंचाने की बात की गई । तब भारतीय उद्योगपति अपनी सभाओं में एक दूसरे को आश्वस्त करते रहे कि डरने की कोई बात नहीं । जी० डी० बिडला साहब ने कहा कि अगर आप इसे समाजवाद समझते हैं तो अमरीका और इंग्लैंड भी समाजवादी हैं । उन्होने अपने भाइयों से सवाल किया. कि क्‍या वे वैसे संरचनात्मक उद्योगों एवं प्रोजेक्टों में पैसे लगाना चाहेंगे जिनकी गर्भावस्‍था काफी लम्बी है और मुनाफे की दर कम ? क्‍या उन विशाल परियोजनाओं में लगाने लायक पूंजी भी है उनके पास ? सभी ने एक स्वर से कहा, नहीं ! और मिश्रित अर्थव्यवस्था की नाव चल पड़ी ।

आजादी से पूर्व, जन आंदोलनों के कंधों पर चढ़कर अंग्रेजों से समझोते तक पहुंचने के जिस दुहरे चरित्र को देश के ये पूंजीपति बखूबी निभाते रहे, आजादी के बाद उसी दुहरे चरित्र की अभिव्यक्ति रही – समाजवादी खेमे से सहयोग और उसके बूते पर साम्राज्यवाद से बेहतर सौदेबाजी । मिश्रित अर्थव्यवस्था की छत्रछाया में दरअसल इसी झूले पर वे दिन दूनी और रात चौगुनी गति से फलने-फूलने लगे । द्वितीय पंचवर्षीय योजना का अन्त होते-होते देखा गया कि देश की विकास-दर है 16%, जबकि बडे पूंजीपति घरानों की सम्पत्ति में इजाफे की दर को राष्ट्रीय विकास की दर से दोगुनी-तीन गुनी बनाये रखने में ये सफल रहे । इनकी यह सफलता वस्तुतः एक वर्गीय सफलता थी, जिसमें इनके साथ साथ इनके हुक्मबरदार, सरकार, अफसरशाही, प्रशासन, फिर गल्ले आदि के थोक व्यापारी – सभी राष्ट्रीय विकास के एक बडे हिस्से को “अपना विकास'' बना लेने में सफल रहे । जब हम आंकड़ों की ओर देखते हैं तो पाते हैं कि देश के सबसे बड़े पच्चास औद्योगिक-व्यापारिक घरानों की सूची में भले ही नीचे से कुछ नाम छूटते गये और कुछ नये जुड़ते गये, पर इनकी कूल सम्पत्ति जो वर्ष 1939 में 246.70 करोड़ रूपयों की थी, वर्ष 1969 में 3103.53 करोड़ रूपयों की हो गई । और राजीव गांधी का दौर, फिर नई आर्थिक नीतियों के दौर का लाभ उठाकर, वर्ष 1997 तक यह सम्पत्ति 2,!5,988.20 करोड़ रूपयों की हो गई ! (Business Today, August 22 - Sept 6, 1997) 

जब द्वितीय पंचवर्षीय योजना, अपने उच्च लक्ष्यों के बावजूद विफल होती दिखने लगी तब वर्ष 1958 के जनवरी महीने में तत्कालीन अर्थशास्त्री श्री डी० आर० गाडगिल ने भारत सरकार को एक नोट भेजा । योजना का भीतरघात करते हुये, बड़े पूंजीपति जिस तरह अपना व्यापारिक जाल फैला रहे थे, उसपर व्यंग्य करते हुये गाडगिल ने लिखा, "There appears, for example, to have been almost an overfulfilment of the plans in the large private business sector." योजनानुसार उद्योगों के विकास क॑ लिए बडे पैमाने पर विदेशी मुद्रा का निवेश हुआ था, जिसे इन बड़े पूंजीपतियों ने, बैंक, वित्त मंत्रालय एवं अफसरशाहों की मदद से पूरी तरह चुरा लिया था | गाडगिल साहब ने लिखा, "....resources in the economy are being specially diverted to the large private sector. The operation of all government sponsored finance-organisations seem to work in this direction." कहने की जरूरत नहीं कि यह प्रक्रिया लगातार, हर पंचवर्षीय योजनाकाल में न सिर्फ़ जारी रही; बल्कि तेज होती गयी ।


एक कहानी इस तरह बनायी जा सकती है | एक राजा जब अपने देश को किसी राक्षस से बचाने के लिये बार-बार असफल प्रयास कर रहा था । तभी उसे दिव्य आदेश प्राप्त होता है कि उसके महल के पीछे की क्‌टिया में जो गरीब बढ़ई रहता है उसी की बनाई बैलगाड़ी पर सवार होकर वह युद्ध जीत सकेगा ।

राक्षस से मुक्ति मिलने के बाद राजा उसी गरीब बढ़ई को अपना प्रधान रथकार (रथ बनाने वाला) बना देता है | इस बात से राजा के मंत्री, सेनापति आदि नाराज हो जाते हैं कि अब अनर्थ हो जायेगा । आज यह गरीब बढ़ई अगर प्रधान रथकार बन गया है तो कल इसका मंत्री या सेनापति बनना कौन रोक सकता हें? इसलिये षड्यंत्र रचा जाता है । मंत्री, सेनापति एवं सभी दरबारी उस षड्यंत्र में शामिल होते हैं | पहले वह रथकार के कारखाने में चोरी करवाते हैं ताकि रथकार अपना क़ाम समय पर पूरा नहीं कर पाये ।

फिर भी रथकार अपना काम पूरा करता है। रथ तैयार करता है तो हैरान सेनापति और मंत्री राजा से कहतें हैं कि अपनी सेना को ऐसे रथों की जरूरत नहीं है, अब नये किस्म के रथ बनवाने होंगे । जब रथकार नये किस्म के रथ बनाने का प्रयास करता है एवं उसके लिये जरूरी सामान खरीदने के लिये राजकोष से धन दिलवाने की प्रार्थना करता है तो राजा मंत्री की ओर देखता है । मंत्री राजा को आश्वस्त करता है, पर राजकोष से धन दिलवाने के बजाय तरह-तरह के बहाने बनाकर टालते रहता है । इस तरह कभी चोरी, कभी बनाये गये रथों को खारिज करना, कभी धन देने के नाम पर टालते रहने का सिलसिला जारी रहता है । और अन्ततः भरे दरबार में प्रधान रथकार की भर्त्सना खुद राजा से ही कार्रवायी जाती है । रथकार को मुअत्तल कर उसका पूरा कारखाना उस आदमी को दे देने का फैसला होता है जो मंत्री, सेनापति आदि का अपना खास आदमी है ओर वर्षों से प्रधान रथकार का पद हासिल करने के लिये मंत्री और सेनापति को घूस देते रहा है (कहानी में यह इशारा भी डाला जा सकता है कि पद हासिल करने वाला यह आदमी दरअसल छद्मवेश में राक्षस का ही छोटा भाई था) ।

यथार्थ को रूपक में बांधना मुश्किल काम है । एक अच्छा कहानीकार इससे बेहतर रूपक की रचना करता | पर मैं तो सिर्फ भारत के सार्वजनिक क्षेत्र की हालत बताना चाहता हूं जो उस ब्रढ़ई उर्फ़ बदनाम प्रधान रथकार की तरह है । क़ोई पूछे, राजा कौन, तो मै कहूंगा 'भारत का संसद' |


20 फरवरी 979 को राज्यसभा में भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेट में चल रहे क्रियाकलापों पर एक बहस हुई थी । बहस लम्बी थी और किताब की शक्ल में उपलब्ध है । उद्धरण भी लम्बे होंगे । बहस इस बात पर हुई थी कि जब देश को 500 मेगावाट टर्बाईनों की जरूरत है और वर्ष 1973 में बी०एच०ई०एल० यह लिखित रूप से देता है कि वह ऐसी टर्बाईनें बना सकता है तब क्यों अचानक भेल के चेयरमैन को बदल दिया जाता है और

नया चेयरमैन वर्ष 1974 में लिखकर देता है कि भेल को 500 मेगावाट टर्बाईन बनाने की टेकनॉलॉजी हासिल नहीं है और यह टेक्नॉलजी पश्चिम जर्मनी के सीमेंस कम्पनी से मंगाना पड़ेगा ? और फिर क्‍यों सीमेंस से टेकनालॉजी मंगाने के नामपर तीन साल तक समय नष्ट करने के साथ-साथ अफसरशाहों/ तकनीकीशाहों की जर्मनी यात्रा में करोड़ों रूपये का फालतू यात्रा-व्यय (जर्मनी जाने-आने का) होते रहता है और अंततः सीमेंस से कुछ हासिल भी नहीं होता है ? फिर यह समझौता क्‍यों होता है कि यह टर्बाईन खुद सीमेन्स बनाकर सप्लाई करता रहेगा (बिना किसी ग्लोबल टेन्डर का यह अनोखा समझौता!), जिसे भेल के माध्यम से इस देश में बेचा जायेगा ? 

यह हुआ बढ़ई-रथकार का रथ खारिज किये जाने का एक उदाहरण । ऐसे उदाहरण अखबारों में भी अक्सर छपते रहते हैं | सी०के० जाफर शरीफ जब रेल मंत्री थे तो विदेशों से डीजल इंजन मंगाने की ऐसी ही राष्ट्रविरोधी घटना देश के नागरिकों को याद होगा ।

हर आर्थिक वर्ष की समाप्ति पर एक आंकड़ा छपता हे । शीर्षक होता है '' सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के घाटे'' । घाटा अगर 100 उद्योगों में 5000 करोड़ को होता है तो मुनाफा बाकी 150 उद्योगों में 25000 करोड़ का होता है - पर यह खबर अन्दर, नीचे की ओर दबी रहती है । वर्ष 1985 से ही अर्थशास्त्रीगण एक तथ्य रेखांकित कर रहे हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों से हुये लाभ, सार्वजनिक क्षेत्र के पूंजीगत आधार बढ़ाने के लिये उपलब्ध नहीं होते हैं, यहां तक कि मशीनरी के नवीकरण के लिये भी यह कतई उपलब्ध नहीं होता है – यह सारा का सारा पैसा सरकार का राज़स्व खर्च (revenue expenditure) पूरा करने में ही लगता हैं.।

यह हुआ बढ़ई-रथकार को नया बनाने के लिये धन नहीं देने की साजिश ।

अंततः: भरी राजसभा में बढ़ई-रथकार को भर्त्सना कर मुअत्तली दी जाती हैं और कारखाना निलामी पर चढ़ाया जाता है । अंग्रेज राक्षस के छोटे भाई, देश के इजारेदार पूंजीपति हाजिर हैं, निलामी की बोली बोलने के लिये ।


ऐसा नहीं कि सार्वजनिक क्षेत्र की स्थिति बिल्कुल अच्छी है और इसे सुधारने की आवश्यकता नहीं । पर बीमारी है कहां ? क्या बीमारी उन उद्योगों के सार्वजनिक होने में है? या जहां तक वे सार्वजनिक नहीं किये गये, उसमें ?

(क) सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में ऊपर की ओर भारी ग्रशासकीय ढांचा स्थापित किया ग़या – जहां 500 मजदूर काम कर रहे है वैसे संस्थानों में भी अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक, निदेशक, महाप्रबन्धक आदि की पूरी जमात खड़ी कर दी गई, जिनका वेतन देने में ही उस संस्था का अधिकांश जाता रहा | 

(ख) पूर्ण स्वायत्तता की बात बस कागज पर रही --- सारे महत्वपूर्ण फैसले सम्बन्धित मंत्रालयों में लिये जाते रहे जहां व्यापारिक फैसलों के लिये अपेक्षित कोई दक्षता थी ही नहीं ।

(ग) सभी शीर्ष स्थानीय बहाली राजनैतिक बहाली के रूप में होती रही जिनके लिये करोड़ों का घूस मंत्रियों को मिलता रहा |

(घ) ओपनिवेशिक मालिक-नोकर सम्बन्ध बनाम प्रबन्धन में सच्ची भागीदारी पर परिचर्चायें होती रहीं, टिप्पणियां लिखी जाती रहीं, जापान ओर कहां-कहां के उदाहरण दिये जाते रहे, पर भारत सरकार द्वारा तीन-तीन योजना प्रस्तुत किये जाने के बावजूद हुआ यही कि अपने पसन्द के एक आदमी को श्रमिक-प्रतिनिधि क़े रूप में चुनकर “ओम नम: शिवाय'' होता रहा ।

(ड.) ट्रेड यूनियनों की ओर से संसाधन जुटाने में सहयोग का आश्वासन दिया गया, तो भारत सरकार ने उस आश्वासन को गंभीरता से नहीं लिया ।

(च) घोटे में चल रहे संस्थानों के नगद घाटे सरकार द्वारा भर दिये गये जिसका सूद उन संस्थानों पर इतना चढ़ गया कि पूंजी ही खत्म हो गयी । पर, पुरानी मशीनों को बदलने के लिये, आधुनिकीकृत करने के लिय, उत्पादों के विविधीकरण के लिये और प्रबन्धकीय अकुशलता को दूर करने के लिये कभी कुछ सोचा ही नहीं गया, न पैसे ही दिये गये ।

(छ) ऊपर के स्तरों पर भ्रष्टाचार के जितने भी आरोप आये, सरकार ने उनकी छानबीन नहीं की ।

(ज) निजी क्षेत्र के उद्योग व घरानों के साथ सार्वजनिक क्षेत्र के प्रशासन व मंत्रालय के एक हिस्से का भ्रष्ट गंठजोड़ हमेशा कायम रहा और सार्वजनिक क्षेत्र को विभिन्‍न तरीकों से हमेशा लूटा जाता रहा |

जब नरसिंहाराव सरकार के जमाने में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की हिस्सा पूंजी बेचने के लिये कानून में आवश्यक संशोधन पर संसद में बहस हो रही थी, तो एक वामपंथी सांसद ने सुझाव दिया कि बैंक का कर्ज लेकर वापस नहीं करनेवालों पर, बैंकों की हिस्सापूंजी नहीं खरीद पाने की पावन्दी हो । पर सरकार ने इस सुझाव को खारिज कर दिया । क्योंकि बैंकों की हिस्सा पूंजी खरीदने के लिये, पर्दे के पीछे, हैं तो वही लोग । ताज्जुब नहीं कि पहला आदमी हर्षद मेहता ही हो !


इस क्षेत्र में जिन विन्दुओं की चर्चा नहीं की गई है वे हैं ;-

(1) भारतीय नियोजन में सार्वजनिक क्षेत्र की सफलता के वे मील-पत्थर, जिनके कारण एक आत्मनिर्भर अर्थनीति

की बुनियाद कायम हो सकी ।

(2) भारतीय नियोजन की विफलता के वे परिमापक जो सार्वजनिक क्षेत्र के दायरे से बाहर हैं जैसे:-

(क) भूमि-सुधार की घोषणाओं के बावजूद क्रियात्वयन आज तक नहीं होना,

(ख) भूमि-सुधार की अनुपस्थिति में आंतरिक बाजार के संकोचन के फलस्वरूप विकास की एक भ्रामक अवधारणा, विदेशी मुद्रा और निर्यात निर्भर रणनीति के आधार पर बनाया होना,

(ग) फलस्वरूप भुगतान-असंतुलन के संकट का बार-बार आना और साम्राज्यवादी दबाव का   बढ़ते जाना,

(घ) गरीबी, असमान विकास, बेरोजगारी आदि |

(3) सोवियत संघ के विघटन के फलस्वरूप साम्राज्यवाद का पलड़ा भारी होना ।

(4) अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एंव विश्व बैंक द्वारा थोपी गयी ढांचागत सुधार (structural adjustments) की शर्तों के साथ-साथ विश्व व्यापार संगठन की अनुदार शर्त्तें ।


'एक बात स्पष्ट है कि उदारीकरण और भूमंडलीकरण के  इस दौर में खेलने की जमीन बराबर बनाये जाने का कार्यक्रम अगर सच्चा होता तो भारत सरकार का रूख होता, “आओ, शुल्क व नियंत्रण की सारी दीवारें तोड़ने के साथ ही हम अपने सार्वजनिक क्षेत्र को मजबूती दे रहे है, देखें कौन जीतता है ।”' तब यह होता इमानदारी का खेल। पर, यहां तो पहले से ही मैच-फिक्सिंग चल रही है, सार्वजनिक क्षेत्र को तोड़ दो ! प्रतिस्पर्धा में खड़े होने की बुनियादी ताकत को ही खत्म कर दो ! इसके लिये पैसे पहले ही दिये जा चुके हें, जो स्वीस बैंकों में जमा हैं ।

अन्त में हम लौट आयें उस मूल विषय की ओर । विश्व पूंजीवादी अर्थनीति में जिस तरह नव-कीन्सवाद की गोद में फ़लफूलकर मुद्रावाद (monetarism) बड़ा हुआ, उसी तरह औद्योगिक हितों की छाया मेँ सूदखोरों के हित (rentier interest) भी निरंतर बिकराल होते गये । ठीक उसीं तरह भारत के संदर्भ में मिश्रित अर्थव्यवस्था और सेठ पोषक नियोजन प्रणाली की गोद में यहां के इजारेदार पूंजीपति निरंतर मोटे हुए तथा कॉंग्रेसी पूंजीवाद की गोद में दलाल पूंजीवाद ने भी खुद को इतना ताकतवर बनाया कि समाजवादी सहायोग के बूते साम्राज्यवाद से सौदेबाजी करते हुए इसमें बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ का द्वितीय साझेदार (second partner) बनने की चाहत पैदा हुई ।

अगर किन्ही को प्रत्यक्षतः राजनीतिक बातों से परहेज हो तो क्षमा करें, पर इस लेख का अन्त मैं सी०पी०आई० (एम) द्वारा हाल में जारी किये गये अद्यतन कार्यक्रम प्रारूप के एक पैरा से कर रहा हूं ।

पैरा 3.10 - “अपने कमजोर पूंजी आधार के कारण पूंजीवादी विकास के लिये ढांचा निर्माण हेतु राज्य के हस्तक्षेप की हिमायत करने वाले बड़े पूंजीपति वर्ग ने, राज्य: समर्थित विकास और सब्सिडियों पर फलफूल कर, पिछले दशकों में पर्याप्त पूंजी का संचय कर लिया है | अस्सी के दशक के अन्त तक बड़ा पूंजीपति वर्ग राज्य के लिये सुरक्षित धुरी क्षेत्र में घुसने, सार्वजनिक क्षेत्र को हथियाने और विदेशी पूंजी के साथ सहायोग करते हुये नये क्षेत्रों में विस्तार करने के लिये तैयार हो चुका था । इसी प्रक्रिया ने, राज्य प्रायोजित पूंजीवाद के रास्ते में उत्पन्न संकट के साथ मिलकर, उदारीकरण के देशी आधार की रचना की । बाहरी तौर पर सोवियत संघ के विघटन ने नीतियों में तब्दीलीं और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष व विश्वबैंक के हुक्मनामों की स्वीकृति की प्रक्रिया को तीव्र कर दिया ।"


[सहयात्री, प्रवेशांक अक्टूबर-दिसम्बर 2000 में प्रकाशित]




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