Thursday, March 30, 2023

साम्राज्यवाद पर लेनिन के काम को समझते हुये

“इस केन्द्रीकरण या कुछेक पूंजीपतियों द्वारा बहुत सारे पूंजीपतियों के सम्पत्तिहरण के साथ साथ निरन्तर विस्तृत होते हुये पैमाने पर विकसित होता जाता है श्रम प्रक्रिया का सहकारी रूप, विज्ञान का सचेत प्रौद्योगिक प्रयोग, जमीन की व्यवस्थित जुताई और श्रम-साधनों का सहाधिकार में ही व्यवहारयोग्य श्रम-साधनों में बदलाव । उत्पादन के सभी साधनों का इस्तेमाल संयुक्त, समाजीकृत श्रम के उत्पादन के साधन के तौर पर करते हुये खर्च कम किये जाते रहते हैं । सभी देशों की जनता विश्वबाज़ार के जाल में फँसती जाती है । साथ ही विकसित होता जाता है पूंजी के शासन का अन्तरराष्ट्रीय स्वरूप । बदलाव की इस पूरी प्रक्रिया के सारे लाभ को हड़पने और अपनी इजारेदारी में कर लेने वाले पूंजी के थैलीशाहों की निरन्तर कम होती संख्या के साथ साथ आम तौर पर बढ़ती है बदहाली, अत्याचार, गुलामी, पतन और शोषण । लेकिन इसी के साथ मज़दूरवर्ग का विद्रोह भी बढ़ता है । मज़दूरवर्ग, जो एक ऐसा वर्ग है जिसकी संख्या हमेशा बढ़ती रहती है और जिसे पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया का तंत्र ही संगठित, एकताबद्ध और अनुशासित करते रहता है । पूंजी की इजारेदारी उसी उत्पादन प्रणाली के लिये बन्धन बन जाती है जिस उत्पादन प्रणाली के साथ साथ व छत्रछाया में वह पनपी थी और विकसित हुई थी । उत्पादन के साधनों का केन्द्रीकरण एवं श्रम का समाजीकरण अन्तत: एक ऐसे बिन्दु पर पहुँचता है कि उनके पूंजीवादी आवरण के साथ उनका मेल खत्म हो जाता है । अत: आवरण फट कर अलग अलग हो जाता है । पूंजीवादी निजी सम्पत्ति का शोकवाद्य बज उठता है । सम्पत्तिहरण करने वालों की सम्पत्ति जब्त कर ली जाती है ।”

उपरोक्त पंक्तियाँ मार्क्स की ‘पूंजी’ खन्ड 1 के अन्तिम अध्याय से ली गई है और पिछले 155 वर्षों में असंख्य बार दुनिया की विभिन्न भाषाओं में उद्धृत की गई हैं । पंक्तियाँ हैं ही ऐसी ! महाकाव्यीय विराटता की जिस भाषा में मार्क्स इजारेदार पूंजी के उद्भव से अंत तक का द्वन्दात्मक वर्णन करते हैं वह स्वभावत: रोमांचित करता है ।

लेकिन जिस समय ये पंक्तियाँ लिखी जा रही थी उस समय तक उपनिवेशवाद या साम्राज्यवाद इस इजारेदार पूंजी की साम्राज्यवाद या वित्तपूंजी के उपनिवेशवाद में तब्दील नहीं हुआ था ।

पूंजी का कुछेक हाथों में केन्द्रीकरण, उद्योगों व सेवाओं का आलम्ब व क्षैतिज जोड़, कीमतों व आपूर्ति पर नियंत्रण के लिये कार्टेल व सिन्डिकेटों की स्थापना और इस ताकत के आधार पर बैंकों और औद्योगिक पूंजी के गँठजोड़ों का बनना और वित्तपूंजी की ताकत में तेजी से वृद्धि… यह सब उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशकों में होने लगा । बीसवीं सदी शुरू होते होते इन प्रवृत्तियों पर योरोपीय बौद्धिक हलकों में बात होने लगी । फिर आ गया युद्ध, जिसे हम प्रथम विश्वयुद्ध के रूप में जानते हैं ।

लेनिन के नेतृत्व में बॉलशेविक पार्टी अपने देश में मज़दूरों, किसानों, तमाम मेहनतकशों की एकता कायम कर जारशाही का खात्मा और जनवादी प्रजातंत्र की स्थापना के लिये काम कर रही थी । सन 1913 में आर॰एस॰डी॰एल॰पी॰ (यानि जिसे हम बॉल्शेविक पार्टी कहते हैं) के पार्टी अधिकारी एवं केन्द्रीय कमिटी के संयुक्त सम्मेलन में ‘मौजुदा स्थिति में आन्दोलन का कार्यभार’ शीर्षक अपने नोट के चौथे बिन्दु में लेनिन लिखते हैं, “चुँकि सामान्य रूप से यही हालात हैं, सामाजिक-जनवादियों का कार्यभार बनता है कि राजतंत्र को उखाड़ फेंकने के लिये एवं जनतांत्रिक प्रजातंत्र (या गणराज्य) की स्थापना के लिये आम जनता के बीच व्यापक क्रांतिकारी आन्दोलन चलाना जारी रखें” (लेनिन, संगृहित रचनायें, खंड 19) ।

लेकिन पूंजीवादी योरोप में मज़दूरवर्ग के अगुवा दस्तों, सामाजिक-जनवादी या समाजवादी पार्टियों में कुछ भ्रम की स्थितियाँ थी जो लेनिन को परेशान कर रहे थे । 1912 में बैसेल में सम्पन्न, दूसरे अन्तरराष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन के घोषणापत्र में मज़दूरवर्ग का आह्वान किया गया था कि युद्ध शुरू होने की स्थिति में वे अपने अपने देश के सरकारों के युद्ध-प्रयासों का विरोध करें । रूस का राजतंत्र भी तो युद्ध में शामिल होने की तैयारी कर रहा है ! तो रूसी मज़दूरवर्ग का नारा क्या हो ? ‘जार, खबरदार, तुम युद्ध मत शुरू करो’ या सीधा, ‘चलो साथियो, जारशाही पर हमला बोलो’ ? और फिर, बहुत सारे भ्रामक सुझाव थे उस बैसेल घोषणापत्र में जो अन्तत: सामाजिक-जनवादी या कम्युनिस्टों को शांतिवाद के नाम पर अपने अपने देश के जनसंघर्षों को क्रांति की दिशा में आगे बढ़ने से रोक रहे थे । उस दस्तावेज एवं तत्काल प्रकाशित कुछ अन्य पुस्तिकाओं का अध्ययन कर लेनिन को स्पष्टत: दिखने लगा कि एक भयानक कमी है समझदारी में । ‘पूंजीवाद’, ‘इजारेदारी’, ‘साम्राज्यवाद’, ‘युद्ध’ ये सारी अवधारणायें हैं, मौजूद हैं, चर्चा में हैं लेकिन अलग अलग । साम्राज्यवाद जैसे एक बीमार प्रवृत्ति हो सरकारों की जो युद्ध पैदा कर रही हों । गोया पूंजीवाद की ही प्रवृत्तियों हों लेकिन ऐसी जिससे निजात पाया जा सके, और फिर हर एक देश की पूंजीवादी सरकारें हों, अलग-अलग, जिनके खिलाफ उन देशों का मज़दूरवर्ग एवं मेहनतकश अवाम संघर्ष तीव्र करे और जीत हासिल करे ! ये बिल्कुल लोग देख नहीं रहे थे कि पूंजीवाद की स्वाभाविक (बेशक द्वंद्वात्मक विपरीत, प्रतिस्पर्धाविरोधी) परिणति है इजारेदारी, इजारेदार पूंजी ही साम्राज्यवाद का आर्थिक सारतत्व है (यहाँ भी एक द्वन्दात्मक वैपरीत्य है रूप और सारतत्व का, राष्ट्रीय स्तर पर इजारेदारी बनाम अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा का) और साम्राज्यवाद की राजनीति का विस्तार है युद्ध ।

तब लेनिन ने अध्ययन शुरु किया । और वह लेनिन का अध्ययन था । प्रासंगिक पुस्तक व दस्तावेजों के अलावे सभी विकसित पूंजीवादी देशों में बैंकों के निवेश की बढ़ती भूमिका, बैंकों व औद्योगिक पूंजी के गँठजोड़, अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर रेलमार्ग का विकास (क्योंकि जैसा लेनिन खुद कहते हैं कि रेल बुनियादी तीन उद्योग – कोयला, लोहा और इस्पात – का जोड़ है तथा विश्वव्यापार और पूंजीवादी-जनवादी सभ्यता का सबसे महत्वपूर्ण सूचक है) आदि का विशद अध्ययन किया । इसी अध्ययन के फलस्वरूप आई वह छोटी सी पुस्तिका – ‘साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था’ - जिसकी भाषा को लेकर लेनिन को खेद रह गया कि जारशाही सेन्सर के कारण बातें घुमाफिरा कर करनी पड़ी थी, लेकिन जिस पुस्तिका ने पूरे विश्व में कम्युनिस्ट आन्दोलन के सामने बीसवीं सदी की पूंजीवाद का चरित्र और क्रांति की दिशा को रौशन कर दिया ।

आप गौर करेंगे कि मूलत: अर्थशास्त्र सम्बन्धी काम होते हुये भी मार्क्सवादी दर्शन, द्वन्दात्मक भौतिकतावाद के प्रयोग का एक अनूठा पाठ है यहाँ । 'ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण' करते हुये लेनिन ने पूरे यथार्थ के अन्तर्सम्बन्धों को स्थापित किया (पूंजीवाद की ही गति के विकासक्रम में इजारेदारी, साम्राज्यवाद और युद्ध को उन्होने दिखाया), विपरीतों की – प्रतिस्पर्धी पूंजी और इजारेदारी की प्रवृत्ति की - एकता और संघर्ष में धीरे धीरे एक ऐतिहासिक क्षण में साम्राज्यवाद का वर्चस्व इजारेदारी पूंजी, बैंकों और सरकारों के गँठजोड़ से स्थापित हुआ – परिमाण गुण में परिवर्तित हुआ और अन्तत: इसी साम्राज्यवादी सत्ता को उखाड़ कर श्रम और श्रम के फलों के समाजीकरण को संरक्षित करना संभावित हुआ (निषेध का निषेध), जो लेनिन के नेतृत्व में रूस के मज़दूरवर्ग ने कर भी दिखाया । 

किताब तो साथियो, सब को पढ़नी पड़ेगी । मैं कोई निचोड़ नहीं रखने जा रहा हूं । वह दु:साहस भी मैं नहीं करूंगा । पर उस किताब को पढ़ते हुये आप पायेंगे कि किस तरह आँकड़ों व तथ्यों के सहारे वे साबित करते हैं कि साम्राज्यवाद का आर्थिक सारतत्व है इजारेदार पूंजी; इजारेदार पूंजी और बैंकों का गँठजोड़ किस तरह एक नये किस्म की पूंजी को पैदा करता है वित्तपूंजी, जो उजरती पूंजी के रूप में पूरी दुनिया में फैलता है, यही वित्तपूंजी ‘दरबारी पूंजी’ नाम की परिघटना को जन्म देता है और बेरोक मुनाफा, सूद लाभांश और भाड़े के लिये पूरी दुनिया को विध्वंसक युद्ध के सामने खड़ा कर देता है, जिसमें जीत सिर्फ साम्राज्यवाद की होती है – अब किसी मुल्क का मेहनतकश अवाम हिम्मत करें तो पूंजीवाद की इस मरणासन्न अवस्था के जकड़जाल को तोड़ते हुये समाजवादी क्रांति की ओर बढ़ जाये ! लेनिन ने भी तो यही किया !    

‘साम्राज्यवाद: पूंजीवाद की चरम अवस्था’ में लेनिन कहते हैं, “पूंजीवाद का विकास एक ऐसे स्तर तक पहुँच चुका है जहाँ, माल का उत्पादन अभी भी ‘राज’ करता है आर्थिक जीवन की बुनियाद माना जाता है लेकिन यथार्थ में यह कमजोर हो चुका है और मुनाफे का अधिकांश वित्तीय तिकड़म के ‘प्रतिभाओं’ के पास जाता है । इन तिकड़मों और ठगियों के आधार में है समाजीकृत उत्पादन; लेकिन मानव की जिस विपुल प्रगति से यह समाजीकरण हासिल हुआ, वह प्रगति… सट्टेबाजों के फायदे में चला जाता है ।”

फिर कहते हैं, “बैंकों एवं उद्योंगों के बीच का ‘व्यक्तिगत मिलाप’ का अनुपूरक होता है इन दोनों का सरकार के साथ ‘व्यक्तिगत मिलाप’ ।” एक जर्मन लेखक ज़ेइडेल्स को आगे लेनिन उद्धृत करते हैं, “सुपरवाइजरी बोर्डों में सहजता से रसूख वाले लोगों को, भूतपूर्व लोकसेवकों को जगह दी जाती है, जो प्राधिकारियों के साथ सम्बन्ध बनाने में मदद करते हैं…… सामान्यत: बड़े बैंकों के सुपरवाइजरी बोर्डों में एक सांसद या बर्लिन नगर पार्षद हुआ करता है” ।

किताब के अन्तिम अध्याय में पूंजीवाद की इस मरणासन्न अवस्था के बारे में लेनिन कहते हैं:-

“जैसा कि हमने देखा, साम्राज्यवाद का गहनतम आर्थिक बुनियाद है इजारेदारी । यह पूंजीवादी इजारेदारी है, यानि ऐसी इजारेदारी जो पूंजीवाद से ही पनपा है और पूंजीवाद के सामान्य परिवेश – माल-उत्पादन और प्रतिस्पर्धा – में, इसी सामान्य परिवेश के साथ स्थाई एवं असाध्य अन्तर्विरोध में मौजूद रहता है । फिर भी, हर इजारेदारी की तरह, यह अवश्यम्भावी तौर पर गतिहीनता एवं क्षय की प्रवृत्ति पैदा करता है । चुँकि इजारेदारी पर कीमतें तय की जाती हैं, इसलिये, तात्कालिक तौर पर ही सही, प्रौद्योगिक एवं फलस्वरूप सारे विकास का प्रेरक कारण एक हद तक अदृश्य हो जाते हैं, बल्कि जानबूझ कर प्रौद्योगिक विकास को धीमी करने की आर्थिक संभावना उत्पन्न हो जाती है…”

“इजारेदार पूंजी ने पूंजीवाद के सभी अन्तर्विरोधों को किस हद तक तीव्र कर दिया है यह सामान्यत: ज्ञात है । अन्तर्विरोधों की यह तीव्रता ही इतिहास के उस संक्रमणकाल का सबसे अधिक ताकतवर चालिका बल है जो विश्व वित्तपूंजी के अन्तिम* विजय से शुरू हुआ था ।”

अन्त में, बेहतर होगा कि हम किताब के जर्मन संस्करण की भूमिका में सन 1920 में लेनिन ने जो कहा उसे उद्धृत करें, “साम्राज्यवाद, सर्वहारा की सामाजिक क्रांति की पूर्वसंध्या है । इसकी पुष्टि विश्वव्यापी पैमाने पर 1917 में हो चुकी है ।”

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*यहाँ ‘अन्तिम विजय’ से उस ऐतिहासिक क्षण को सूचित किया गया है जब पहली बार समूची दुनिया कुछेक उपनिवेशवादी ताकतों के कब्जे में उपनिवेश/अर्ध-उपनिवेश/बर्चस्वक्षेत्र आदि के रूप में बँट गई । 

Tuesday, March 28, 2023

ন্যায়ের মৌলিক অধিকারের গান

ধুলোহাওয়ায় ভরা এক দুপুরে 
হঠাৎ সে আজ আমায় ডাকল, 
পথের ওপার থেকে এগিয়ে এসে 
মামলা জেতার খবর শোনাল।

মামলা জেতা তার নিঃস্ব মুখে 
দেখলাম এক নিদারূণ পরিহাস 
তেরটা বছর তার ন্যায়ের আঁতে 
পুষ্ট ভেড়ার মত হজম হল।

মহান এ দেশের ন্যায় যে মহান 
নিজের বেতো লাশে সাড় জাগাতে 
প্রমাণ দিতে যে সে মদ্দ-জোয়ান 
তেরটা বসন্তের শরীর খেল।

শুনি অনেকে হয় বদ্ধ পাগল, 
অনেকেই শেষরাতে দড়িতে ঝোলে, 
আবার বাঁচার কথা চিন্তা করে 
(এই) ন্যায়ের শিকার, এর পিলে জোরালো।

জানিনা বছর তের আগের রাতের 
ঘটনায় তার হাত ছিল কিনা।
যারা হল খুন তাদের বাঁচার 
দাম তের দিনও কিনা জানি না।

যেদিন এ শহরের পাড়ায়, মোড়ে
ভেসে এসেছিল এক স্বপ্নের ডাক, 
বোমার গুলির ধোঁয়া পাতলা হতে 
কেউ গেল জেল, কেউ হল পলাতক।

চালাক ছিল যারা খুঁটি নাড়িয়ে 
গগলস পরে হল সহমরমী, 
বোকা ছিল যারা খুঁটি পেলনা, 
মাথায় হাত বোলাল ধর্মযাজক।

দেখি কি আমরা এই আকাশে, পথে 
সবচেয়ে বড় জেল খোলা হাওয়ায়, 
সমান ন্যায়ের মৌলিক অধিকার 
খাটাতে বছর তের সাফ হয়ে যায়।

মহান এ স্বদেশের ন্যায় যে মহান, 
(তার) চোথায় যে ধুলো চাটে অনেক জীবন,
একথা বুঝতে, দিয়ে তেরটা বছর, 
নিঃস্ব ঘোরে সে আজ দুপুরবেলায়।

২১.৮.৮৩

Thursday, March 23, 2023

বিকেলে এসো

তোমার হাতেই হাত দশ-জনার।
সংগঠনের ডাকে
টালবাহানার আগে   
ভেবো তাদের নাম-ধাম-সংসার।  
 
এগারো দশও হয়, হতেই পারে।
তাবলে বন্ধুমুখ
হারিয়ে যাবে? অসুখ  
ভীড় না হওয়ার চেষ্টাতেই তো সারে!
 
না যদি আসো, এড়িয়ে যাও,
দুপুরে রোজ সাথে
খাওয়া রুটির স্বাদে,
বুকের তেতো, কষাবে মুখটাও।
 
না এলে সবাই একটু হারব।
এলে সভার শেষে
ছড়িয়ে রুমাল পেতে
ইয়ারির মুড়ি জম্পেশ করে মাখব।     

২৬.৯.৮৫/২৩.৪.২২/২১.৩.২৩



Wednesday, March 22, 2023

কাজলকালো হাসি

এমন কাজলকালো হাসিতে সকাল আজ 
ভরিয়েছিল আকাশ
যেন কালো বাচ্চাটার পিঠেপাছায় সর্ষের
তেল দলেমলে বহুক্ষণ
ঘুরিয়ে নাকে নাক ঘষলো তার মা …

অশত্থের নতুন পাতাগুলোর ফিকেসবুজ
চকচক করছে প্রায় ঠোঁটের নাগালে –
শুকোলে এগুলোরও শিরাজাল 
ডাইরির ফাঁকে বুদ্ধচিহ্ন হবে।

বেলা দশটার ভিড় ঠেলছে স্কুলের মেয়েদের
প্রভাতফেরি মাখানিয়াকুঁয়ায় –
আমিও পিছনে; আজ বিহার দিবস,
ওদিকে খিচুড়ি চেপেছে মধ্যাহ্ন ভোজনের।

ইদানিং বাড়ছে –
যখনি ফিরি এসব মাঝপথে ছেড়ে প্রতিদিন
চিড়বিড় শব্দগুলো অজস্র অযুত 
শিকড় ছেঁড়ার গায়ে-পায়ে,
শুনতে পাই; চাইও হয়ত শুনতে অভিমানে –
কোথায় ছিল এত তন্তুসম্ভার? 

২২.৩.২৩



Friday, March 17, 2023

সৃষ্টিছাড়া

আজ একটু বেরুব।
রাস্তাগুলো সবই তো পুরোনো,
নিজেকেই নতুন করে নেওয়া ছাড়া
উপায় নেই আকাশের ঘড়ির দিকে তাকাবার।
তাও ভালো যে আকাশের
              ঘড়িটা পুরোনো হয় না কোনোদিন।
সে ঘড়ি পুরোনো হলে
সৃষ্টিই যে হত সৃষ্টিছাড়া!
 
তবে মায়ের বকুনি বুকে নিয়ে বলা যায়
সৃষ্টিছাড়াই বিশ্ব কাঁপায় তার দুরন্তপনায়।
মা জানে,
সৃষ্টির উপায় নেই সৃষ্টিছাড়া হওয়ার।
ঘরের ছেলেমেয়েরা হয়।
তাদেরই মুখ চেয়ে তো কক্ষনো
পুরোনো হয় না আকাশের ঘড়ি।
 
বিকেলে বেরুবার সময়
কোনো এক সৃষ্টিছাড়ার কথা আগে ভাবব চৌমাথায়।
তারপর আকাশের ঘড়ির দিকে তাকাব।
জানি, নতুন
এক টুকরো গোলাপি মেঘ সে আমাকে দেবেই।
 
১৮.৩.২৩
 


বিহারে পুনর্বাসিত বাঙালি উদ্বাস্তু এবং বিহার বাঙালি সমিতি

বিহারে পুনর্বাসিত বাঙালি উদ্বাস্তুদের প্রকৃত সংখ্যা বলা সম্ভব নয়। এমনকি সেই কলোনিগুলোর সংখ্যাও নির্ভূলভাবে বলা কঠিন যাতে উদ্বাস্তুরা আছেন। জেলাগুলোর নাম? তাতেও অসুবিধে হবে। প্রথমতঃ, এসব ব্যাপার নিয়ে রাজ্যস্তরে আলাদা করে কোনো শুমারি কখনো হয় নি। ভাষাভিত্তিক শুমারির পরিসংখ্যানে বাংলাভাষীর সংখ্যা পাওয়া যাবে (ভূল বা ঠিক যাই হোক); এখন যে জাতভিত্তিক শুমারি চলছে, তাতে বাঙালিকেও একটা জাত বলে গুনবার নির্দেশ এসেছে শুনছি। কাজেই তাতেও বিহারের বাংলাভাষীর একটা সংখ্যা পাওয়া যাবে, কিন্তু তার মধ্যে বিহারের অধিবাসী বাঙালি, বিভাজনের পর রোজগারের তালাশে এসে নিবাসী হয়ে যাওয়া বাঙালি, আর ৪৭এর পর বা ৭১এর পর উদ্বাস্তু হয়ে এসে নিবাসী হয়ে যাওয়া বাঙালির মধ্যে ফারাক করব কী করে?

বিধান সভায় বা বিধান পরিষদে কখনো ঠিক সেভাবে কোনো প্রশ্নও উত্থাপিত হয়নি যে পুনর্বাস সম্পর্কিত মন্ত্রী সদনে পুনর্বাসিত বাঙালি উদ্বাস্তুদের (বা পরিবারের) সংখ্যা এবং জেলাওয়ারি কলোনিগুলোর নাম, ঠিকানা বলতেন। হ্যাঁ, যখনি প্রয়োজন হয়েছে, পুনর্বাস সম্পর্কিত আইন বলবত হয়েছে, তার সংশোধন হয়েছে, পুনর্বাস বিভাগ থেকে পরিকল্পনা জমা দেওয়া হয়েছে, কত জমি নিতে হবে, তাৎক্ষণিক সহায়তায় কী কী ব্যবস্থা নিতে হবে, রোজগারের ব্যবস্থা করতে প্রশিক্ষণ ইত্যাদির কী ব্যবস্থা হবে, আনুমানিক কত টাকা লাগবে এই সব কিছু হয়েছে।
এমনকি যখন উদ্বাস্তুদের সমস্যা নিয়ে বিহার সরকারের সঙ্গে বিহার বাঙালি সমিতির লড়াই শুরু হল (সে গল্পে পরে আসছি), তখনও সমাধানসূত্রে হওয়া সমীক্ষাটা নমুনা সমীক্ষা হল, তাও পাঁচটি জেলা বেছে নিয়ে।    
কাজেই যেটুকু সাধারণ ভাবে জানা যায় সেটুকু ধরেই এগোই।
১৫ই অক্টোবর ২০০১এর ডেটলাইনে একটা খবর পাচ্ছি টাইমস অফ ইন্ডিয়ার পোর্টালে। তাতে রয়েছে ১৯৪৮ থেকে ১৯৬০এর মধ্যে আসা এই উদ্বাস্তুদের অবিভক্ত বিহারের পূর্ব চম্পারণ, পশ্চিম চম্পারণ, মুজফফরপুর, দ্বারভাঙা, সমস্তিপুর, গোপালগঞ্জ, কিশনগঞ্জ, হাজারিবাগ, দেওঘর, ভাগলপুর, সাহেবগঞ্জ, রাঁচি এবং আরো অনেক জেলায় পুনর্বাসিত করা হয়েছিল। বিভক্ত বিহারে হাজারিবাগ, দেওঘর, সাহেবগঞ্জ ও রাঁচি বাদ। কিন্তু জেলার এই সূচী অসম্পূর্ণ, কেননা ঝাড়খণ্ডেও কোডারমা ও দুএকটি জেলা বাদ যাচ্ছে। আর বিহারে তো পূর্ণিয়া, কাটিহার, সাহারসার মত পুরোনো জেলাও বাদ যাচ্ছে। আবার মুজফফরপুরে বা সমস্তিপুরে কিন্তু আজ অব্দি কোনো উদ্বাস্তু কলোনীর কথা শুনিনি। হ্যাঁ ব্যক্তিগতভাবে ভাগ্যানেষণে তো অনেকেই দেশান্তরী হয়। অনেকেই দেশভাগের আগে বা কাছাকাছি সময়ে সে সময়ের অবিভক্ত বাংলার পূর্বাঞ্চল থেকে বিহারে বা অন্য প্রদেশে গিয়েছিল। তারাও কপর্দকশূন্য হয়েই বেরিয়েছিল হয়তো, কিন্তু তাদের তো আর ছিন্নমূল বলা যাবে না।
আরেকটা স্টোরি পাচ্ছি আঠেরো বছর পরে, ২০১৮ সালের ২রা মার্চ হিন্দুস্তান টাইমসের পোর্টালে। স্টোরিটা বিজয় স্বরূপের করা; তিনি খবরের কাগজটায় সহায়ক সম্পাদক ছিলেন সে সময়, কাজেই দায়িত্ব নিয়ে লিখবেন। বিহারে এই বাংলাভাষী উদ্বাস্তুদের পশ্চিম হাজারি এলাকার কাছে একটি শিবিরে রাখা হয়। তারপর তাদের পশ্চিম চম্পারণে ৪৬টা উদ্বাস্তু কলোনীতে ছড়িয়ে দেওয়া হয়। বিহারে ১১৫টা উদ্বাস্তু কলোনী আছে। পশ্চিম চম্পারণে সবচেয়ে বেশি। তারপর ৩৮টা পূর্ণিয়ায় এবং ১৩টা পূর্ব চম্পারণে।
কিন্তু এছাড়া, আমাদের জ্ঞাতানুসারে গোপালগঞ্জে দুটো, ভাগলপুরে একটা, দ্বারভাঙায় একটা, কাটিহারে একটা, এরকম ছড়িয়ে আছে। সাহারসা বা বাঁকায় কলোনী আছে শুনেছি কিন্তু তাদের সাথে আজও যোগাযোগ করা যায় নি। উদ্বাস্তু তো বহু শহরে গিয়েছিল। কিন্তু কোনো না কোনো ভাবে আশ্রয় ও অন্নসংস্থান জুটিয়ে নিয়েছিল, সরকারের দেওয়া আরণ্য ভূভাগ বা পাথুরে প্রান্তর আবাদ করতে হয় নি। উদ্বাস্তুরা তো পাটনা শহরেও এসেছিল, বিভিন্ন পাড়ায়, ধীরে ধীরে জায়গা খুঁজে নিয়েছিল। পশ্চিমবঙ্গের মুখ্যমন্ত্রী যে ১৯৪৯এ পাটনার খাজাঞ্চি রোডে তাঁর জন্মভিটেয় এসে মা-বাবার নামে বিদ্যালয় স্থাপন করে গেলেন, সেও তো উদ্বাস্তু-সন্তানদের জন্য।

এখন প্রশ্ন হল, বিহারের বাঙালি উদ্বাস্তুদের কথা বলছি কেন? তাদের দুঃখকষ্ট, অনাবাদি নতুন জমিকে আবাদ করার কায়িক পরিশ্রম এবং সে জমিতে মনের শিকড় গাঁথার মানসিক বেদনা কি বিহারে আলাদা রকমের? উত্তরাখন্ড বা ছত্তিসগড়, বা কর্ণাটক, মহারাষ্ট্র, মধ্য প্রদেশের মত নয়? (ইচ্ছে করেই আসাম বা ত্রিপুরা এমনকি ঝাড়খন্ডেরও নাম নিলাম না, কেননা বাঙালিবহুল রাজ্য বলে ওখানকার প্রেক্ষিতটা ভিন্ন।) একেবারেই একরকম। পুনর্বাস-সম্পর্কিত নিয়মাবলীও তো কেন্দ্রীয় সরকারের নীতির অনুসারী। তবুও তাঁদের কথা বলছি দুটো কারণে।
প্রথমতঃ, বিহারে বাঙালিদের একটি সাংবিধানিক অধিকার আইনগতভাবে সংরক্ষিত। জানিনা আর কোনো রাজ্যে এরকম আছে কিনা। ১৯৭৮ সালে যখন বিখ্যাত লোহিয়াবাদী নেতা কর্পূরি ঠাকুর বিহারের মুখ্যমন্ত্রী হলেন তখন রাজ্যে প্রথম সংখ্যালঘু আয়োগ তৈরি হল এবং তাতে সংখ্যালঘু ধর্মগুলোর সঙ্গে সংখ্যালঘু ভাষাকেও শামিল করা হল। বাংলা হল বিহারের সংখ্যালঘু ভাষা। তারপর ১৯৯১ সালে, যদ্দূর মনে আছে, রঙ্গনাথ মিশ্র কমিশনের সুপারিশের ভিত্তিতে যখন কেন্দ্রীয় স্তরে দিল্লিতে, ধর্মের জন্য সংখ্যালঘু আয়োগ তৈরি হল আর ভাষার জন্য এলাহাবাদে, সংখ্যালঘু আয়ুক্ত (কমিশনার) বসান হল, বিহারে এই ভাগাভাগিতে না গিয়ে পুরোনো ঐতিহ্য অনুসারেই সংখ্যালঘু আয়োগ পুনর্গঠিত করল লালু প্রসাদ যাদবের সরকার। বাংলা সংখ্যালঘু ভাষা হিসেবে স্বীকৃত রয়ে গেল। (উল্লেখ্য যে সে সময়েই, ১৯৯২ সালে, লালুপ্রসাদের ক্যাবিনেটে মন্ত্রী জাবির হুসেন সাহেব প্রথমবার বাঙালি উদ্বাস্তুদের দুরবস্থা ও সমস্যাবলী নিয়ে একটি রিপোর্ট জারি করেছিলেন। দুঃখের কথা, সে রিপোর্ট পেতে হলে সরকারি মহাফেজখানায় দৌড়োদৌড়ি করতে হবে; সেটা আমার পক্ষে এখন সম্ভব নয়।) কাজেই বিহারে মাতৃভাষা-সংক্রান্ত সমস্যায় উদ্বাস্তুরাও ভাষাগত সংখ্যালঘু হিসেবে সুরক্ষিত।
দ্বিতীয়তঃ, বেশ কয়েক বছর আগে বিশাখাপতনমে এক বাঙালি ভদ্রলোকের সঙ্গে আলাপ হয়েছিল। কলকাতাবাসী। সাধারণভাবে বিহারের বাংলাভাষীদের মাতৃভাষায় পঠনপাঠনের জন্য লড়াই, এবং সেই প্রেক্ষিতে উদ্বাস্তুদের প্রাত্যহিক বোলচালে, ভোজপুরি, অঙ্গিকা বা মৈথিলির ব্যবহার কমে বাংলা ফিরে আসার ঘটনাটা অণুগল্পের মত করে তাঁকে বোঝাতে গিয়ে কিছু ভুয়ো মার্ক্সবাদী আপ্তবাক্য শুনেছিলাম। মার্ক্সবাদ ফ্যাটালিজমও (নিয়তিবাদ) নয়, ডেটারমিনিজমও (নির্দ্ধারণবাদ) নয়, তবে তা নিয়ে কিছু বলার জায়গাও এটা নয়। আমার রাগ ধরে গিয়েছিল ভদ্রলোকের কথায়। কেননা আমার কাছে তাঁর পরিচয় এটাই ছিল যে তিনি মার্ক্সবাদী!
তাই লেখাটার শিরোনামে আমি স্পষ্ট। বিহারের বাঙালি উদ্বাস্তুদের কাহিনী নয়, সে কাহিনীতে বিহার বাঙালি সমিতির প্রবেশ আমার উপজীব্য। 

বিহারের বাঙালি উদ্বাস্তুসমাজের মানুষদের সঙ্গে কিছু শহরে প্রথম থেকেই বিহার বাঙালি সমিতির কর্মকর্তাদের যোগাযোগ ছিল। ১৯৯১এ সংখ্যালঘু আয়োগের পুনর্গঠন, জাবির হুসেন সাহেবের রিপোর্ট ইত্যাদি, শহরের বাঙালি মধ্যবিত্তদের সচেতন অংশকে এ বিষয়ে ওয়াকিবহাল করে তুলছিল। সে সময় একজন সরকারি উচ্চ আধিকারিকও, এবিষয়ে তদন্ত করে সরকারকে তাঁর ফাইন্ডিংস জমা দিয়েছিলেন। কিন্তু বিশাল উদ্বাস্তু জনসমুদায় বিহার বাঙালি সমিতিকে জানত না। আর বিহার বাঙালি সমিতির নেতৃত্বও, সদস্যদের মধ্যেকার উদ্বাস্তু ব্যাকগ্রাউন্ডওয়ালা ছেলে কয়েকটিকে ছাড়া সেই সমুদায়ের সঙ্গে পরিচিত ছিল না।
শতক বদলাল। বিহার বদলে হল বিহার আর ঝাড়খন্ড। শহুরে বাঙালি মধ্যবিত্তদের সিংহভাগ এবং সিংভুম, ছোটোনাগপুর, পালামৌ এবং ধলভুম ও মানভুমের একাংশ জুড়ে বসবাসকারী গ্রামীণ বাঙালি জনসমুদায় হল এবার ঝাড়খন্ডবাসী। ঝাড়খন্ডের বাঙালি গর্জন করে বলল তারা ৪০ প্রতিশত। বিহারের বাঙালি বাঁদিক ডানদিক তাকিয়ে মাথা নোয়াল তারা এক পার্সেন্ট, তাও নয় নয় করে। বাংলা সরে গেল স্কুলের সিলেবাস থেকে, পাঠ্যবই অদৃশ্য হয়ে গেল, স্কুল শিক্ষকের পদ, কলেজ শিক্ষকের পদ সব খালি এবং এ জবাব একদিকে যেমন বিহার বাঙালি সমিতির প্রতিনিধিরা পাচ্ছিল, অন্যদিকে উদ্বাস্তুদের প্রতিনিধি হয়ে সরকারের কাছে পৌঁছোন বিভিন্ন রাজনৈতিক দলের স্থানীয় নেতারাও পাচ্ছিল। একই সঙ্গে তারা ওই নায়ের মনোভাবের মুখোমুখি হচ্ছিল অন্যান্য ব্যাপারেও। জমির পর্চা পাবে না; তাহলে বিপিএল কার্ড? জাতি প্রমাণপত্র পাবে না? তাহলে চাকরি?
এমনই এক সময়ে বিহার বাঙালি সমিতি ঘুরে দাঁড়াল। তার প্রধান কৃতিত্ব অবশ্যই নতুন সভাপতি ডঃ (ক্যাপ্টেন) দিলীপ কুমার সিনহার। তিনি ২০০৬ সালে সমিতির সভাপতি হলেন। অনিচ্ছুক মানুষটি তাঁর ওপর জোর করে চাপিয়ে দেওয়া দায়িত্বটাও ক্যাপ্টেনের মতই গ্রহণ করলেন। প্রথমে চলল বিভাগে বিভাগে গিয়ে প্রশ্ন করা আর না শুনে আসার পর্ব। সেটা শেষ হলে একেকটা ইস্যু ধরে হাইকোর্টে জনস্বার্থ মামলা দায়ের করা আর সরকারের কাছ থেকে হলফনামা আদায় করা। তার পরেও কাজ হয় না! তাহলে? এবার তাহলে গণতান্ত্রিক আন্দোলনের পথে নামা। এতে তো মানুষের দরকার। এমনই এক সময়ে বিহার বাঙালি সমিতির পতাকাতলে এল পূনর্বাসিত বাঙালি উদ্বাস্তু সমাজ।
২০০৮ সালের এপ্রিল মাসে, পাটনার রামমোহন রায় সেমিনারির মাঠে বিহার বাঙালি সমিতির সম্মেলন এবং পরের দিনের ভারতীয় বঙ্গভাষী মহাসভার প্রস্তুতি চলছিল। তার আগে, ২০০৬ সালে দিল্লিতে সর্বভারতীয় দলিত বাঙালি উদ্বাস্তু কনভেনশন হয়ে গেছে, যাতে বিহার বাঙালি সমিতির সভাপতি ডঃ সিনহা আমন্ত্রিত হয়ে অংশগ্রহণ করেছেন। সেই সুত্রেই পাটনার ভারতীয় বঙ্গভাষী মহাসভায় আমন্ত্রিত হয়ে কলকাতা থেকে এসেছেন নীতীশ বিশ্বাস (এবং আরো কয়েকজন, তাদের মধ্যে স্বনামধন্য লেখক কপিলকৃষ্ণ ঠাকুরও ছিলেন), মহারাষ্ট্র থেকে সুবোধ বিশ্বাস, আন্দামানের সাংসদ মনোরঞ্জন ভক্ত, কর্ণাটক থেকে প্রসেন রাপ্তান (ঠিক মনে নেই সবাই রামমোহন রায় সেমিনারিতে উপস্থিত ছিলেন, না কেউ কেউ পরের দিন শ্রীকৃষ্ণ মেমোরিয়াল হলে মহাসভায় পৌঁছেছিলেন)। অর্থাৎ মিলনের ক্ষেত্রটা প্রস্তুত।
সেমিনারিতে অনুষ্ঠিত সেই সম্মেলনে আনুষ্ঠানিক ভাবে, আলাদা করে উদ্বাস্তু সংগঠন চালান নেতারা তাদের সদস্যবৃন্দের সঙ্গে নিজেদের সংগঠন বিহার বাঙালি সমিতিতে বিলীন করলেন।
সেমিনারির বিরাট মাঠ উদ্বাস্তুদের ভিড়ে ভরে গিয়েছিল প্রতিটি জেলা থেকে আসা উদ্বাস্তুরা এক এক করে নিজেদের সমস্যার কথা জানাল ও ধন্যবাদ জানাল যে গত পঞ্চাশ বছরে প্রথমবার ওদের কথা সরকারের কাছে এত সুন্দর ভাবে তোলা হয়েছে ওদের বিশ্বাস ছিল যে এবার সরকার তাদের কথা শুনবে সবচেয়ে বড় কথা হল, উদ্বাস্তু পরিবারের সবাই একসঙ্গে তাদের স্থানীয় সমিতি পূর্বাশা ছেড়ে বিহার বাঙ্গালী সমিতিতে সাধার সভ্য হিসাবে যোগদান করল
[জয়তু বিহার বাঙালি সমিতি, সংহতি ও সমন্বয় এবং অধিকার আদায়ের সংগ্রামে ৮২ বছর ]  
পরের দিন পাটনার রাস্তায় মিছিল করে বিহারের বিভিন্ন শহর থেকে আসা অধিবাসী বাঙালি এবং সংলগ্ন উদ্বাস্তু কলোনী বা পল্লী থেকে আসা উদ্বাস্তু বাঙালি এক সঙ্গে হাঁটলেন। দশ হাজার মানুষের হাতের প্ল্যকার্ডগুলোও মিশে গেল। বগহা-২ এর উদ্বাস্তু মহিলা হয়ত হাতে তুললেন, বিশ্ববিদ্যালয়ে বাংলা বিষয়ে এ্যাসিস্ট্যান্ট প্রফেসর নিয়োগের দাবিতে প্ল্যাকার্ড, আর পাটনার ইয়ারপুর বাসিন্দা চাকরিজীবী মহিলা হাতে তুললেন উদ্বাস্তুদের জমিতে রৈয়তি হক ও পর্চা জারি করার দাবিতে প্রস্তাব। সে সময়কার সঞ্চিতা পত্রিকা থেকে বরং আন্দোলনের দিনলিপিটা উদ্ধৃত করিঃ
বিহারবাসী বাংলাভাষীদের মাতৃভাষার জন্য অসহযোগ আন্দোলন
প্রথম চরণ (এপ্রিল ২০০৬ থেকে ডিসেম্বর ২০০৮)
১) ১২ই ডিসেম্বর ২০০৬ পাটনা হাইকোর্টে বাংলাভাষার শিক্ষক নিয়োগের জন্য রিট আবেদন (CWJC No. 10258/2006)
২) ৭ই এপ্রিল ২০০৭ সমিতির ৭০তম জয়ন্তী পালন উপমুখ্যমন্ত্রী ও অন্যান্য মন্ত্রীদের রবীন্দ্রভবনে আমন্ত্রিত করে বাংলাভাষীদের সমস্যার বিষয়ে জানান।
৩) ৬-৭ই এপ্রিল ২০০৮ ভারতীয় বাংলাভাষী মহাসভার প্রথম সম্মেলন ও ১০ হাজার বাংলাভাষীর পাটনার রাজপথে মিছিল ও প্রদর্শন। উপমুখ্যমন্ত্রীর কাছে আবার বাংলাভাষা শিক্ষকের জন্য আবেদন। বাংলাভাষার শিক্ষকের নিযুক্তি হবে এ বিষয়ে উপমুখ্যমন্ত্রীর ঘোষণা।
৪) ১০ই আগস্ট ২০০৮ মুখ্যমন্ত্রীর জনতা দরবারে শিক্ষক নিয়োগের জন্য আবেদন।
৫) ৩১শে অক্টোবর থেকে ২রা নভেম্বর ২০০৮ পশ্চিম চম্পারণে কেন্দ্রীয় সভাপতির জেলাসফর।
৬) ১০ই নভেম্বর ২০০৮ মুখ্যমন্ত্রীর জনতা দরবারে শিক্ষক নিয়োগের জন্য দ্বিতীয়বার আবেদন।
৭) ১১ই নভেম্বর ২০০৮ প্রত্যেক জেলায় বাংলাভাষীদের সমস্যা নিয়ে ধরনা।
8) ২৪-২৯ নভেম্বর ২০০৮ পাটনার কারগিল চকে ধরনা ও মিছিল। বাংলাভাষার শিক্ষক নিয়োগ ও অন্যান্য দাবী সরকার না মানলে ভোট বয়কট করার ডাক দেওয়া হতে পারে এ খবর সংবাদপত্র ও ইলেক্ট্রোনিক মিডিয়ার মাধ্যমে সরকারকে জানান।
৯) ৪ঠা ডিসেম্বর ২০০৮ উপমুখ্যমন্ত্রীর সঙ্গে বৈঠক ও তাঁর আশ্বাস।
দ্বিতীয় চরণ (জানুয়ারি থেকে মার্চ ২০০৯ পর্য্যন্ত)
১) ১২ই জানুয়ারী ০৯ মুখ্যমন্ত্রীর জনতা দরবারে গিয়ে তৃতীয়বার আবেদন
২) ৩০শে জানুয়ারী ০৯ রাজ্যপাল, রাজ্যের মন্ত্রী, রাজনৈতিক দলকে আন্দোলনের খবর জানান।
৩) পাটনা হাইকোর্টে বাংলাভাষার শিক্ষক নিয়োগ সম্পর্কে কন্টেম্পট এ্যাপ্লিকেশন দায়ের (M.J.C. No. 676/2008).
৪) ৯ই ফেব্রুয়ারী ০৯ মুখ্যমন্ত্রীর কাছে জনতা দরবারে বাংলা শিক্ষকের জন্য চতুর্থবার আবেদন।
৫) ২১শে ফেব্রুয়ারী ০৯ বিশ্ব মাতৃভাষা দিবস উপলক্ষে প্রত্যেক জেলায় অনশন সভার আয়োজন।
৬) ২৭শে ফেব্রুয়ারী ১লা মার্চ ০৯ সভাপতির পূর্ণিয়া জেলা সফর।
৭) ৯ই মার্চ ০৯ জনতা দরবারে মুখ্যমন্ত্রীর কাছে পঞ্চম বার আবেদন।
8) ৩১শে মার্চ ০৯ পর্য্যন্ত সরকার বাংলাভাষার শিক্ষক নিয়োগের স্পষ্ট আদেশ না দিলে ভোট বয়কটের স্পষ্ট ডাক
দেওয়া।
তৃতীয় চরণ (এপ্রিল মে ২০০৯)
১) ৩রা এপ্রিল সংবাদ মাধ্যমের সাহায্যে সরকারকে অসহযোগের কথা জানিয়ে, ভোট বয়কট করতে বাঙালি সমাজ
কেন বাধ্য তা জানান এবং লোকসভা নির্বাচনে ভোট বয়কটের স্পষ্ট ডাক।
২) ৪ঠা ও ৫ই এপ্রিল মোতিহারি ও বেতিয়া ভ্রমণ। প্রতি কলোনি ও গ্রামে বয়কট তদারকির জন্য গ্রাম সভা গঠন ও কেন্দ্রীয় সমিতির সাথে সোজা যোগাযোগ / সংবাদপত্রের মাধ্যমে নিজেদের স্থিতি স্পষ্ট করা।
৩) ১১ই ১২ই এপ্রিল পূর্ণিয়া, কাটিহার ভ্রমণ। মাতৃশক্তিকে ভাষাযুদ্ধের প্রথম সারিতে দাঁড় করান। ভাট্টার বাঙালিদের সঙ্গে আলোচনা করে ভোট বয়কটের জন্য রাজি করান।
৪) আদালতের রায়ের পরেও সরকার শিক্ষক নিয়োগের দ্বিতীয় চরণে বাংলাভাষার শিক্ষক নিয়োগ করছে না। সমিতি তাই বিভিন্ন সমস্যা সমাধানের জন্য আদালতের শরণ নিয়েছে। দুদিন শুনানির পর মহামান্য পাটনা উচ্চ ন্যায়ালয় ১২ই এপ্রিল ২২০৯এ (C.W.J.C. No. 4449/09) জনস্বার্থ মামলা হিসেবে গ্রহণ করে ও সমিতির পক্ষে রায় পাওয়া গেছে।
৫) ১৪ই এপ্রিল মোবাইলের মাধ্যমে সমিতির সদস্যদের ও সংবাদমাধ্যমকে নববর্ষের শুভেচ্ছা জানান ও ভাষাযুদ্ধের কথা মনে করিয়ে ভোট বয়কটের কথা জানান।
৬) ১৮ই এপ্রিল ভাগলপুর, জামালপুর ভ্রমণ। কিশনগঞ্জ, সমস্তিপুর, দ্বারভাঙা ও গয়ার সহিত যোগাযোগ করা।
৭) ২১শে এপ্রিল উপমুখ্যমন্ত্রীর সঙ্গে নিঃশর্ত কথা বলার অনুরোধ, সমিতির প্রত্যাখ্যান।
 
আমাদের আলোচনার বিষয়টা বাঙালি উদ্বাস্তু। বিষয় থেকে সরে যাইনি। ওপরে যে দীর্ঘ কর্মসূচী দিলাম, সেটা নেওয়াই হয়েছিল, উদ্বাস্তু জনগণের অংশিদারির সম্ভাবনায় ভরসা রেখে। সফলতা সম্পূর্ণভাবে তাদের ওপর নির্ভরশীল ছিল। সেসব কাহিনী তো ছবি আর ভিডিওতে আছে।
বরং একটি উদ্ধৃতি দিই।  একটু দীর্ঘ যদিও। বস্তুতঃ ওই উদ্ধৃতিই হবে মূল প্রসঙ্গের পরবর্তী অধ্যায়।
ওপরের কর্মসূচীতে একটা কার্যভার আছে কেন্দ্রীয় সভাপতির ওপর জেলা সফর। এই সফরগুলো প্রায় সবকটিই উদ্বাস্তু কলোনীগুলোতে। একটিতে ভ্রমণসঙ্গী হওয়ার পর সমিতির তদানীন্তন এক কর্মকর্তা পূর্ণেন্দু শেখর পাল (পরে তিনি সাধারণ সম্পাদক হয়েছিলেন) একটি দিনলিপি লেখেন। তারই কিয়দংশ উদ্ধৃত করছি।
কেন্দ্রীয় কমিটির সদস্য শ্রী গৌর চন্দ্র সাহা বললেন যে এই বৈরিয়া, মাঝেরিয়া গ্রামের অধিবাসীরা ১৯৫৬ সালে পূর্ব-পাকিস্তান থেকে শরণার্থী হিসাবে এখানে এসেছিলেন। ১৯৫৬ থেকে ১৯৫৯ এই তিন বৎসর এদের শরণার্থী শিবিরে রাখা হয়। কোন কাজ না দিয়ে এদের পঙ্গু করে দেওয়া হয়। ১৯৫৯ সালে কাগজে কলমে পরিবার পিছু চার একর জমি ও ১২৯০ টাকা এককালীন নগদে দেওয়া হয়। জমি কিন্তু প্রকৃতপক্ষে দেওয়া হয় আরও তিন বৎসর পরে ১৯৬২ সালে। সেই জমিগুলিকে চাষযোগ্য করে তোলার বহু আগেই ঐ সামান্য সরকারী দান নিঃশেষ হয়ে যায় রোগ ভোগ নিরাময়ে। এমন অবস্থা হল যখন টাকা ছিল জমি নাই, আর যখন জমি হল টাকা নাই। তাই জীবনযাপনের জন্য বাধ্য হয়ে জমিগুলিকে মহাজনদের কাছে বন্ধক দিতে হল। তিনি বললেন যারা উদ্বাস্তু হয়ে এসেছিলেন তাদের মধ্যে ছিল তাঁতী, কুমোর, জেলে। তারা জানত হাতের কাজ। সৃষ্টি করত নিত্যদিন নতুন নতুন রূপ। কিন্তু তিন বৎসর বসিয়ে রেখে সরকার এদের করে দিল পঙ্গু। তারা ভুলে গেল হাতের কাজ ও ভাষা। ভুলে গেল সৃষ্টি করার কৌশল ও উন্মাদনা। পরিণত হল নিরাশার অন্ধকারে বেঁচে থাকা মেরুদন্ডহীন এক প্রাণীতে না জীবিত না মৃত। তিনি বললেন পঞ্চাশ বছরে এই প্রথম এসেছেন নতুন আশার কিরণ নিয়ে বিহার বাঙালি সমিতির সভাপতি ডঃ দিলীপ কুমার সিংহ। ইনি মেরুদন্ডের ডাক্তার। এসেছেন আমাদের মেরুদন্ডকে পুনরায় উজ্জীবিত করতে। ফিরিয়ে দিতে আমাদের ভাষা, জাতি প্রমাণ পত্র, আর জমির অধিকার।
……
পরের দিন ১লা নভেম্বর সভাপতির গন্তব্যস্থল ছিল ধোকরাহা কলোনী। বলথর, ধুমাটার, জসৌলী, ময়নাটাঁর, পাঁচরুখা শরণার্থী কলোনীগুলি পরিদর্শন করে সভাপতি পৌঁছোলেন ধোকরাহা কলোনী। স্বাধীনতার ৬০ বৎসর পরেও এই কলোনীগুলিতে যোগাযোগের কোন সুষ্ঠু ব্যবস্থা নেই, নেই কোন রাস্তা। নদী পেরিয়ে, মাঠ ডিঙিয়ে আজও যেতে হয় এই কলোনীগুলিতে। নেই আলো, নেই পানীয় জল। এক অদ্ভুত বিভীষিকাময় পরিস্থিতি। ৪০ কি.মি. দূরত্ব অতিক্রম করতে গাড়িতে ৬ ঘন্টা লেগে যায়, এতই দুর্গম রাস্তা। ধোকরাহা কলোনীতে প্রায় ৫০০ জনের একটি জনসভার আয়োজন হয়। সভাপতিকে সম্বর্ধনা জানালেন জসৌলীর শ্রী অমলেশ দাস এবং পাঁচরুখা কলোনীর শ্রী দুলাল সরকার। শ্রী দাস বলেন বিগত ৬০ বছরে এই প্রথম বিহার বাঙালি সমিতির সভাপতির আমাদের এই কলোনীতে আগমন। তাই আমরা ধন্য। এতদিন আমাদের একটাই কাজ ছিল, পরিবারের সাথে খাই দাই আর হৈ চৈ করে চলে যাই আজ আর না। আজ আমরা প্রতিজ্ঞাবদ্ধ আমাদের স্বার্থরক্ষার জন্য। বিহারের বাংলাভাষীরা আজ প্রবল সঙ্কটের মধ্যে। তার প্রধান কারণ আজ আমরা জনে জনে বিভক্ত। সমস্ত সমাজকে নিয়ে চলার ক্ষমতা আজ আমরা হারিয়ে ফেলেছি। আজ যদি আমরা সংঘবদ্ধ না হই তবে সেদিন আর বেশী দূর নেই যখন আমরা আমাদের জাতিসত্ত্বাকে হারিয়ে ফেলব। আজ আমাদের উচিত সংঘবদ্ধ হয়ে নিজেদের বিভেদ ভূলে বিহারবাসী বাংলাভাষীদের সমস্যাগুলি নিয়ে সোচ্চার হওয়া।   
……
সভাপতির পরবর্তী গন্তব্যস্থল ছিল বিরিঞ্চি। বিরিঞ্চির জনসাধারণ ১৩টি কলোনিকে একত্রিত করে এক বিরাট জনসভার আয়োজন করেন। প্রায় ৪০০ লোকের সমাগম হয়েছিল ওই সভায়। সভার সঞ্চালন করেন শ্রী গোবিন্দ কুমার রায়। এই সভাতে বক্তব্য রাখেন শ্রী গৌর চন্দ্র সাহা, থারু সম্প্রদায়ের হারুন মহাসভা থেকে শ্রী শৈলেন্দ্র গড়য়াল, বয়োবৃদ্ধ শ্রী অনিল কুমার বিশ্বাস এবং শ্রী মানিক লাল ঘোষ। শ্রী মানিক লাল ঘোষ বলেন ১৯৫৬ সালে, দেশ বিভাগের পরে শরণার্থী হয়ে আমরা আসি বেতিয়া। বেতিয়াতে আমাদের রাখা হয় একটি শরণার্থী ক্যাম্পে। পুনর্বাসনের প্রশ্নে সরকার চুপ থাকে। কখনো এখানে কখনো সেখানে ক্যাম্প করে আমাদের রাখা হয়। এইভাবে যাযাবরের মত আমাদের জীবনযাপন চলতে থাকে। ১৯৫৭ সালে শরণার্থীরা পুনর্বাসনের প্রশ্নে আন্দোলন করে। সেই আন্দোলনে শরণার্থীদের উপর পুলিশ গুলি চালায়। হতাহত হন বহু জন। আন্দোলনের চাপে নতিস্বীকার করে শরণার্থীদের পুনর্বাসন দেন তৎকালীন কংগ্রেস সরকার। তখন এই স্থান ছিল জঙ্গলে পরিপূর্ণ। দিনের বেলায় ছিল বাঘ, রাত্রে ছিল সাপ। পরবর্তী কালে জঙ্গল পরিষ্কার হল। সাপ আর বাঘের উপদ্রব গেল। কিন্তু এক নতুন উপদ্রব শুরু হল মানুষরূপী সাপ আর বাঘের। এদের কাছে কিবা দিন কিবা রাত্রি সর্ব সময়েই এরা তৎপর ছোবল মারতে কামড় দিতে। শ্রী অনিল বিশ্বাস বললেন ১৯৫৬ সালে আমরা এখানে এসেছি। আমরা কংগ্রেস দেখেছি। দেখেছি বিজেপি। কিন্তু কেউই আমাদের সমস্যার নিবারণ করেনি। দীর্ঘ যাতনার পএ আজ আমরা বুঝেছি যে নিজের লড়াই আমাদের নিজেদের করতে হবে।
……
বিরিঞ্চিতে রাত্রিবাসের পরে ২রা নভেম্বর ০৮ সভাপতি গেলেন বিরিঞ্চি-৩এ। এখানে বসাতিয়া গ্রামের শরণার্থীদের প্রায় ৪০০ একর জমি চলে গেছে গন্ডক নদীর গর্ভে। বহু শরণার্থীদের জমি, ঘরবাড়ি চলে গেছে এই নদীর গর্ভে। এরা ঘরবাড়ি হারিয়ে আবার হয়ে গেছেন উদ্বাস্তু, জীবন কাটাচ্ছেন কখনো গাছের তলে। কখনও নদীর পাড়ে, কখনও বা মন্দির প্রাঙ্গণে। সরকার এদের এই সমস্যার প্রতি সম্পূর্ণ উদাসীন।
পরবর্তী গন্তব্যস্থল ছিল ভেরিহারী বাঙালি কলোনি। এই কলোনি থেকে নেপালের বর্ডার ৩-৪ কি.মি.। ভেরিহারী থেকে ভৈসালোটন ১০ কি.মি.। এখান থেকে বাল্মিকীনগর ১২ কি.মি.। বাল্মিকীনগর টাইগার রিজার্ভ ফরেস্টের মধ্যে দিয়ে ২৫ কি.মি. জঙ্গলের রাস্তা অতিক্রম করে দুপুর ২.৩০ মি. এ সভাপতি পৌঁছালেন ভেরিহারী বাঙালি কলোনি। এটি বাগ্‌হা ২ অঞ্চলের মধ্যে পড়ে। এখানে ২০০টি বাঙালি শরণার্থী পরিবার ও ৫০টি বর্মা থেকে আসা শরণার্থী পরিবার আছে। এখানে কোনো পোস্ট অফিস নেই। সবচেয়ে কাছের বাজার ভৈসালোটন ১০ কি.মি. দূরে। ভেরিহারী বাঙালি কলোনিতে একটি প্রাথমিক বিদ্যালয় আছে। বাঙালি শিক্ষক থাকা সত্ত্বেও সেখানে বাংলা পড়ানো হয় না। ভেরিহারী, সেমরা ও দুধৌরা কলোনির জনসাধারণ একসাথে ভেরিহারী প্রাথমিক বিদ্যালয় প্রাঙ্গণে একটি বিরাট জনসভার আয়োজন করেন। সভাতে বক্তব্য রাখেন শ্রী বিজয় কৃষ্ণ ব্যানার্জী, শ্রী বিধান চন্দ্র রায় ও শ্রী কৃষ্ণ দাস। সর্বশেষে সভাপতি সকল জনতাকে আগামী দিনের সংগ্রামের জন্য প্রস্তুত হতে বলেন।
ভেরিহারী বাঙালি কলোনি থেকে প্রায় ৩৫ কি.মি. দূরে চৌতরবা। এটি বাগ্‌হা ১ অঞ্চলে পড়ে। সভাপতির পরবর্তী গন্তব্যস্থল ছিল চৌতরবা বাঙালি কলোনি। এখানেও একটি জনসভার আয়োজন করা হয়।
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সভাপতির পরবর্তী ও শেষ গন্তব্যস্থল ছিল শরণার্থীদের একটি বৃহৎ কলোনি পরসৌনী। প্রায় ২২৭ জন বাঙালি পরিবার আছেন এই কলোনিতে। এখানে একটি বিরাট জনসভার আয়োজন করা হয়। সভাপতিকে অভিনন্দন জানান শ্রী সুখ রঞ্জন মহন্ত। সভাপতিত্ব করেন শ্রী শ্রীকান্ত হালদার। সভায় বক্তব্য রাখেন পঞ্চায়েত সচিব শ্রী স্বপন শিকদার, সরপঞ্চ শ্রীমতী পূর্ণিমা দেবী, ডঃ দিলীপ কুমার রায়, ডঃ দুলাল হালদার, শ্রী গৌতম হালদার, ইংরাজি প্রোগ্রাম অফিসার এবং শ্রী রাম চন্দ্র বালা, অধ্যাপক, কোঅর্ডিনেটর সি.আর.সি.। পরিশেষে সভাপতি তাঁর বক্তব্যে ইত্যাদি।   
 
এমনই সফর আরো অন্যান্য জেলায় হয়েছিল। তার লিখিত দিনলিপি এ মুহূর্তে জোটান সম্ভব নয়। একটা মনে রাখার মত কথা হল, গ্রামে গ্রামে সভায় কেন্দ্রীয় সভাপতি ডঃ (ক্যাপ্টেন) সিংহ কী বলতেন।
এই জনসভাগুলোয় তিনটি প্রশ্ন নিয়ে আলোচনা করা হল
প্রথম) সন্তানের জন্মের পর আমাদের মা-বোনেরা যে ভাষায় সন্তানের কানে প্রথম কথা বলে সেই তো মাতৃভাষাযে সরকার সে ভাষা পড়তে দেয় না তুমি কি সেই সরকার কে ভোট দেবে?
দ্বিতীয়) বাংলা না জানা তোমার মেয়ে বাংলায় পাঁচালি পড়তে না পারলে কোন বাঙালি ঘরে মেয়ের বিয়ে দেবে?
তৃতীয়) বাংলা না জানা তোমার মেয়ে শশুর বাড়ি থেকে অবাংলায় চিঠি লিখলে তুমি কার ঘরে যাবে সেই চিঠি পড়াতে?
তিনটেই প্রশ্ন মায়েদের জন্যে ছিল এর প্রভাব জাদুর মত হল সব মায়েরা আমাদের জোরালো আর মূখর সমর্থক হয়ে পড়লেন
রাজনৈতিক দলের নেতাদের বাঙালি গ্রামে ঢোকা বন্ধ হয়ে গেল কোন অনুনয়, বিনয়, প্রলোভন অথবা ভয় দিয়ে  গ্রামবাসীদের টলান সম্ভব হলো না
[জয়তু বিহার বাঙালি সমিতি, সংহতি ও সমন্বয় এবং অধিকার আদায়ের সংগ্রামে ৮২ বছর ]  
 
তা, সেই আন্দোলন চলল। অত্যন্ত সফল ভাবে হল। একদিকে গণআন্দোলন, নিবিড় গণসংযোগ অভিযান আর অন্যদিকে মুখ্যমন্ত্রীর জনতা দরবারে বার বার তদ্বির, প্রেসে বয়ান ভোট বয়কটে সাড়া মিলল প্রায় ১০০ প্রতিশত। সেটা সংসদীয় নির্বাচন ছিল। শাসক জোটের পাঁচজন সাংসদ নিজেদের এলাকায় ভোটের প্রচারে গিয়ে বুঝতে পারল, একজনও বাঙালি ভোট দেবে না আর তার ফল হবে, তারা হারবে। তারা ছুটে গেল মুখ্যমন্ত্রীর কাছে। ২৩শে এপ্রিল ছিল নির্বাচনের দ্বিতীয় চরণ। ২১শে এপ্রিল প্রথমে ফোন গেল উপমুখ্যমন্ত্রীর কাছ থেকে, আসুন, কথা বলুন। সমিতি বলল মুখ্যমন্ত্রী ছাড়া অন্য কারো সাথে তারা কথা বলবে না। ১১টার সময় মুখ্যমন্ত্রীর দপ্তর থেকে বিহার বাঙালি সমিতির সভাপতির কাছে ফোন গেল যে মুখ্যমন্ত্রী সন্ধ্যে সাতটায় সময় দিয়েছেন। আপনারা আসুন। সেদিন সন্ধ্যে সাতটায়, তাৎক্ষণিকভাবে পাটনায় উপস্থিত বাঙালি সমিতির তিনজন প্রতিনিধি মুখ্যমন্ত্রীর সাথে দেখা করলেন। নানান আলাপ আলোচনার মাঝে মোদ্দা কথাটা ছিল যে যদি সমিতি মুখ্যমন্ত্রীকে বিশ্বাস করে তাহলে ভোট বয়কটের আবেদন প্রত্যাহার করতে সবাই যেন ভোট দেয়; মুখ্যমন্ত্রী কথা দিচ্ছেন যে ভোটের পর এ সমস্ত সমস্যাবলি নিয়ে বিস্তারিত আলোচনা করবেন। সমিতি জানায় যা তারা বিশ্বাস করে। বকলম ডঃ দিলীপ কুমার সিংহঃ
তিনি বললেন ডা. সাহেব, আপ আপনে সমাজ কো বতাইয়ে কি নীতীশ কুমার কী সরকার কো বিহার কে বঙ্গালি সমাজ পর পূরা ভরোসা হ্যয়। হম উনকে সমস্যাওঁ কা সমাধান জরুর ঢুঁঢ় লেংগে। অগর হম আপকা কাম নহীঁ করতে হ্যঁয় তো ডেঢ় সাল বাদ বিধানসভা কা চুনাও হ্যয়। আপ হমে হটা দিজিয়েগা। লেকিন অভি ভোট দিজিয়ে। দিল্লি মেঁ সরকার বনানে মেঁ আপকা সহযোগ চাহতা হুঁ।
সভাপতি জিজ্ঞেস করলেন নির্বাচনের পরে কবে আপনি বাঙালি সমিতির প্রতিনিধিদের সাথে কথা বলবেন। তিনি তাঁর সহায়কের কাছে নিজের কার্যসূচী দেখে জানালেন ২৭ মে তিনি জাতি প্রমাণপত্র নিয়ে বিহার বাঙালি সমিতির সঙ্গে কথা বলবেন।
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২৭ মে যত কাছাকাছি চলে আসছিল আমাদের চিন্তা তত বেড়ে চলেছিল। সমিতির নানান শাখা থেকে নিরন্তর সেই একই প্রশ্ন করা হচ্ছিল মুখ্যমন্ত্রীর সাথে ২৭শে মে বৈঠকের বিষয়ে কোনও খবর পাওয়া গেল কি? ২৪শে পর্য্যন্ত কোনও খবর পাওয়া গেল না। তবু মোতিহারি, পূর্ণিয়া, বেতিয়াকে খবর পাঠান হল যে জাতি প্রমাণপত্র, রৈয়তি হকের পক্ষে যা যা কাগজপত্র আছে তা নিয়ে পাটনা কালিবাড়িতে আসতে। নিজেদের দিক থেকে কাগজপত্র তৈরি করব তারপর দেখা যাবে। মুখ্যমন্ত্রীর কথার দাম মুখ্যমন্ত্রী দেবেন কিনা জানিনা। তারপর এখন পর্য্যন্ত তাঁর ব্যবহারে বিশ্বাস করলাম যে মিটিংএর দিন আলোচনা হবে, কিন্তু বৈঠক হল না; এটা হবে না। ২৫শে মে সকালে হঠাৎ ডঃ দিলীপ সিনহার মোবাইলে রিং বেজে উঠল আর মুখ্যমন্ত্রীর নিজস্ব সচিব এস. পি. সিং-এর নাম ফুটে উঠল। তিনি ডঃ সিনহাকে জানালেন ২৭শে মে নির্ধারিত বৈঠক হবে।
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বৈঠক কি ভাবে হবে? আমরা কি নিজেদের কাগজপত্র দেখাবার সুযোগ পাব? তাহলে আমাদের পক্ষে কে কে কী বলবেন কিছুই জানি না। তবু মোতিহারির স্মরজিত বোস, পুষ্কর ব্যানার্জি, বেতিয়ার জগদীশ বর্মন, গোবিন্দ দাস, আর পূর্ণিয়ার খগেন দাস, বিহার বাঙালি সমিতির সভাপতি আর সাধারণ সচিব মণি রায়কে একসাথে করতে করতে দুপুর থেকে সন্ধ্যে আর সন্ধ্যে থেকে রাত হয়ে গেল। হঠাত সবাই অনুভব করলেন যে ভীষণ খিদে পেয়ে গেছে। ঘড়িতে দেখা গেল রাত ১২টা। যদি কিছু পাওয়া যায় এই ভেবে আমরা বারোজন রাস্তায় বার হলাম। একটা হোটেল তাড়াতাড়ি রান্না করে রুটি তরকারী খাওয়াতে রাজি হয়ে গেল। ভীষণ খিদে পেয়েছিল, যা ছিল তাই সুস্বাদু মনে হল, কিন্তু কিছুক্ষণ পরে ভীষণ ঝাল লাগতে শুরু করল, বুঝলাম লঙ্কা একটু বেশিই পড়েছে। তবু, জাতি প্রমাণপত্রের সমস্যা শুনবার জন্য মুখ্যমন্ত্রী ডেকে পাঠিয়েছেন এই আনন্দের কাছে লঙ্কার ঝালও হার মানল। প্রায় সারারাত জেগে একটা আবেদনপত্র ও জরুরি নথিপত্র তৈরি হয়ে গেল।…”
[পরের দিন, মুখ্যমন্ত্রীর আবাসনে। সরকারের তরফে মুখ্যমন্ত্রী, উপমুখ্যমন্ত্রী, মুখ্যমন্ত্রীর সচিব আর. এস. সিং, বিকাস আয়ুক্ত অনুপ মুখার্জি, কার্মিক বিভাগের আয়ুক্ত আমির সুভানি, পাটনা, পূর্ণিয়া, মোতিহারি, বেতিয়ার জেলাশাসক, এস.ডি.ও. এবং অন্যান্য আধিকারিকেরা]
সভাপতি তাঁর তৈরি আবেদনপত্র, এ বিষয়ে প্রাপ্য নথিপত্র জমা করে বললেন যে তিনি এ বিষয়ে বিশদ ভাবে কথা বলতে চান যদি মুখ্যমন্ত্রী আদেশ দেন। মুখ্যমন্ত্রী হেসে বললেন যে আমি জাতি প্রমাণপত্রের এক নিয়মমাফিক সুরাহা চাই। তাই আপনাদের ডেকেছি। আপনি বলুন।
“”মুখ্যমন্ত্রী মহাশয়! কার্মিক যোজনা বিভাগের প্রধান সচিব মহাশয় কেন্দ্রীয় সরকারের বিষয় দেখিয়ে জানিয়ে দিলেন যে পূর্ব পাকিস্তান থেকে আসা বাঙালি উদ্বাস্তুদের জাতি প্রমাণপত্র নিতে গেলে তাদের পশ্চিমবঙ্গে যেতে হবে। বিহার সরকার দিতে পারে না। সমিতির সভাপতি মহাশয় এই আদেশের বিরোধিতা করছেন। তিনি বিহার বাঙালি সমিতির তরফ থেকে এটুকুই জানাতে যে এই আদেশ বাঙালি উদ্বাস্তুদের জন্য প্রযোজ্য নয়।
“”১৪ই আগস্ট ১৯৪৭এ আগে পুরো দেশটা ভাগ হল। আমরা সবাই ভারতবাসী ছিলাম। ১৪ই আগস্ট বাংলা প্রদেশে বসবাসকারীদের মতামত না নিয়ে তাকে দুভাগ করে দেওয়া হল। পশ্চিম বাংলা ও পূর্ব পাকিস্তান। দুর্ভাগ্যবশতঃ, হিন্দু বাঙালিরা যারা ১৪ই আগস্টের আগে ভারতীয় ছিলেন, রাতারাতি রাজনৈতিক কারণে পূর্বপাকিস্তানি হয়ে গেলেন ও ভারতের জন্যে বিদেশি হয়ে পড়লেন। এই বিভাজন ধর্ম অনুসারে হয়েছিল। তাই তারা ধার্মিকভাবে সংখ্যালঘু হয়ে পড়লেন। তারপর এই বাঙালিদের নিজের ধর্ম, নিজের প্রাণ, সম্মান ও ইজ্জত-আবরু বাঁচাতে কী অবস্থার মধ্যে একবস্ত্রে পূর্বপাকিস্তান থেকে ভারতে আসতে হয়েছিল ইতিহাস তার সাক্ষী আছে। কিন্তু ভারতে ফিরে আসার পর তাঁদের ভারতীয় না মেনে রিফিউজি বলা হল।
“”আমি আপনাদের সবাইকে একবার ভেবে দেখতে অনুরোধ জানাচ্ছি যে স্বাধীনতা সংগ্রামে আমাদের অনেকের পরিবার অনেক কিছু হারিয়েছিলাম। স্বাধীনতা আন্দোলনের সূত্রপাত তথাকথিত পূর্ববঙ্গে শুরু হয়। ভারতের কোনো প্রদেশ থেকে পূর্ববঙ্গের বাঙালিদের অবদান কম নয় বরং সবচেয়ে বেশি। কিন্তু স্বাধীনতা আন্দোলনে আমরা সবাই নিজের স্বাধীন দেশ পেলাম কিন্তু এই পূর্ববঙ্গের বাঙালিরা নিজেদের জাতি, ভাষা, ইজ্জত-আবরু খুইয়ে উদ্বাস্তু হয়ে এলেন। তারা নিজের দেশও পেলেন না, নিজের জমিও পেলেন না, বরং তারা রিফিউজি হয়ে পড়লেন। তাদের এই পূর্ব বাংলা বা পূর্ব পাকিস্তান থেকে বিহার রাজ্যে আসা তাদের ইচ্ছা অনুসারে হয়নি। তারা এখানে কাজ করার জন্য আসেননি, তারা লেখাপড়া করতে আসেননি, রাজনৈতিক কারণে তাদের আসতে বাধ্য করা হল। তাদের ভারত সরকার বিহারে পাঠিয়েছিলেন। তাদের বিহার সরকার জমি দিয়ে, আর্থিক সাহায্য দিয়ে স্থায়ী ভাবে বসবাস করার অধিকার দ্দিয়েছে। তাই তারা স্থায়ী ও বিহারের মূল অধিবাসী হিসাবে গণ্য হওয়া উচিত।
“”তাদের সমস্ত অধিকার বিহার সরকারকে দিতে হবে এবং সরকার দিতে বাধ্য। মানুষ ধর্ম বদলাতে পারে, দেশ বদলাতে পারে কিন্তু মা-বাবা বদলাতে পারে না। জাতি স্থির হয় মা-বাবার জাতি অনুসারে, তাই জাতি বদলাতে পারে না। যেই জাতিতে তাদের জন্ম তাদের সেই জাতির প্রমাণপত্র দিতে হবে। সামাজিক ব্যবস্থা অনুসারে ভারতে জাতিপ্রথা তৈরি হয়। যারা সমাজের উচ্চবর্ণের ছিলেন তাদের দ্বারা সমাজ চালিত হত। সমাজের নিম্নতম কাজ করে সমাজকে সবার জন্য যারা বাসযোগ্য তৈরি করতেন, তাদের কোন জমির ব্যবস্থা ছিল না, তাদের সমাজের বাইরে বসবাস করতে হত। তাদের তপশিলি জাতি বলা হত। এই তপশিলি জাতিকে আজকের সরকার সামাজিক আর্থিক সুযোগ দেওয়ার জন্য নানান সুবিধা প্রদান করেছে।  
“”কিন্তু দুঃখের বিষয় যে পূর্ব পাকিস্তান থেকে আসা বাঙালি উদ্বাস্তু যারা রিফিউজি ক্যাম্পে আশ্রয় গ্রহণ করলেন তাদের মধ্যে ৯০ প্রতিশত উদ্বাস্তুকে আজ জাতি প্রমাণপত্র দেওয়া হচ্ছে না।কারণ উদ্বাস্তুদের নাকি জাতি প্রমাণপত্র পাবার অধিকার নেই।
“”আমি আবার আপনাদের মনে করিয়ে দিচ্ছি যখন তারা পূর্ব পাকিস্তান থেকে নিজের দেশে পালিয়ে এসেছিলেন তখন তারা উদ্বাস্তু ছিলেন সত্যিই কিন্তু বিহার সরকার তাদের জমিজায়গা দিয়ে বসবাস করাবার পর তারা বিহারের মূল অধিবাসী, তারা উদ্বাস্তু নন। তাই তাদের জাতি প্রমাণপত্র দেবার দায়িত্ব বিহার সরকারের, পশ্চিমবঙ্গ সরকারের নয়। তাদের সঙ্গে পশ্চিমবঙ্গের কোনো সম্পর্ক নেই।
“”সরকারি আধিকারিকের কথা যে বিহারের তপশিলি জাতির সূচীর মধ্যে বাঙালি উদ্বাস্তুদের জাতির নাম নেই তাই তাদের তপশিকি জাতির প্রমাণপত্র দেওয়া যায় না।
“”বিহারের তপশিলি জাতির সূচীতে এদের জাতির নাম নাও থাকতে পারে। কারণ বিহারের সূচীতে বিহারের মূল বসবয়াসকারীর জাতির নাম আছে। বিহারের জাতির নামের সঙ্গে বাঙালির জাতির নাম না মিলতে পারে কিন্তু বাঙালিদের মধ্যেও তপশিলি জাতি আছে। যখন উদ্বাস্তু, বিহারে পুনর্বাসিত করা হয়েছে এদের জাতনামও বিহারের সূচীতে করা উচিৎ।
“”আমি মানবিক কারণে সরকারের কাছে অনুরোধ করছি যে, স্বাধীনতা পাবার রাজনীতির জন্যে যাদের বাধ্য হয়ে নিজের দেশে উদ্বাস্তু হয়ে বাঁচতে হচ্ছে, তাদের সাথে ন্যায় করা হোক।
“”বিহারের সর্বাঙ্গীণ উত্থানে যোগ দেওয়ার জন্য তাদের উপযুক্ত করে তোলা হোক। তাদেরও বিহারবাসী অধিবাসিদের মত সামাজিক আর্থিক সুরক্ষা দেওয়া হোক। আমরা বিহার সরকারের কাছে ভিক্ষা করছি না। আমরা সংবিধান সম্মত অধিকার চাইছি।“”

মুখ্যমন্ত্রীর কাছে সেদিন প্রতিনিধিমন্ডলে যারা ভিতরে গিয়েছিলেন তারা ছাড়াও বাইরে বসেছিলেন বেতিয়া থেকে মদন বণিক, দেব কুমার দাস, রাধাকান্ত দেবনাথ, অশোক কুমার সরকার, হরিদাস হালদার, লক্ষণ বিশ্বাস, পূর্ণিয়া থেকে লবকিশোর দাস আর পাটনা থেকে সুনির্মল দাস, বিশ্বনাথ দেব এবং বুদ্ধদেব ঘোষ। যদিও বিহারের ভোটের রাজনীতির প্রেক্ষাপটে স্বাভাবিকভাবেই জাতি প্রমাণপত্রের বিষয়টাই মুখ্যমন্ত্রীর কর্মসূচীতে, বিহার বাঙালি সমিতির প্রতিনিধিদলের সঙ্গে সেদিন দেখা করার কারণ হিসেবে উল্লিখিত ছিল, সমিতির সভাপতির দীর্ঘ বক্তব্যেও সেই একই বিষয় স্থান পেয়েছিল (বাকি সমস্তকিছু লিখিত আবেদনে ছিল), এই কথাবার্তার গুরুত্ব ছিল অনেক।
প্রথমবার আনুষ্ঠানিক ভাবে রাজ্যের মুখ্যমন্ত্রীর নেতৃত্বে সরকারি প্রতিনিধিমন্ডল, উদ্বাস্তুদের প্রতিনিধিমন্ডলের সঙ্গে দেখা করে তাদের সমস্যা নিয়ে আলোচনা করল। মুখ্যমন্ত্রী তাৎক্ষণিক যা নির্দেশ দিলেন সে ছাড়াও আরো অনেক ভাবে লাভ হল উদ্বাস্তুদের এবং অবশ্যই বিহার বাঙালি সমিতিরও।
 
আন্দোলনের প্রাপ্তি বা লাভ
১) সমীক্ষা (সোশিও-ইকনমিক সার্ভে অফ বেঙ্গলি হাউজহোল্ডস ইন বিহার উইথ স্পেশ্যাল রেফারেন্স টু ডিসপ্লেসড হাউজহোল্ডস ফ্রম ইস্ট পাকিস্তান (বাংলাদেশ))
সরকারের নির্দেশে এবং সরকারি অর্থ যোগানে একটা নমুনা সমীক্ষা করল সেন্টার ফর ইকনমিক পলিসি এ্যান্ড পাব্লিক ফাইনান্স, এশিয়ান ডেভেলাপমেন্ট রিসার্চ ইন্সটিটিউট (এডিআরআই, পাটনা। পূর্ণিয়া, কাটিহার, পূর্ব চম্পারণ, পশ্চিম চম্পারণ ও ভাগলপুর এই পাঁচ জেলায় ১০,৫৩৬টি পরিবারের (৫০,২৩৮ জন ব্যক্তি) সমীক্ষায় চমকপ্রদ কিছু তথ্য পাওয়া গেল। যেমন সাক্ষরতা দর বিহারের প্রেক্ষিতে ভালো (পুরুষ ৭৩.৪%, নারী ৫৩.৩%, সামগ্রিক ৬৩.৮%) কিন্তু লক্ষণীয় যে মাধ্যমিক উত্তীর্ণ মাত্র ১২% আর স্নাতক মাত্র ৪.২%। আর বাংলাভাষা? পড়তে পারে না ৬৪.৭%, লিখতে পারে না ৬৫.১%। কোনোরকমে পড়তে পারে ১১.২%, কোনোরকমে লিখতে পারে ১১.৩%। পড়তে পারে আর লিখতে পারে, ২৪.১% আর ২৩.৬%। কাজকর্ম/রোজগার (পুরুষ, ১৫ বছর বয়সের ওপর) ৪৯.৯% (তার মধ্যে) - কৃষিতে স্বরোজগার ২৮.৬%, অ-কৃষি স্বরোজগার ১৯.৪%, অনিয়মিত দিনমজুরি ৪৩.৭%, চাকরি (ইনফর্মাল সেক্টর) ২.৩%, চাকরি (ফর্মাল সেক্টর) ২.৭%, চাকরি (ফর্মাল সরকারি) ৩.৩%। কাজকর্ম/রোজগার (নারী, ১৫ বছর বয়সের ওপর) উপরুল্লিখিত ক্রমিকতায় ৭.৭%, ২৬.৩%, ২০%, ৩৫.৯%, ২.৮%, ৪%, ১০.৯%।
ভূমিস্বামিত্বের খতিয়ান (ভাগলপুর বাদ দিয়ে কেননা ওখানে বাঙালি আবাদি পুরোটা শহুরে) নিতে গিয়ে দেখা গেল ভূমিহীন পরিবার ৪৯.৪%, এক একরের কম ৩১.৫%, দুই একর অব্দি ১১.৯%, চার একর অব্দি ৪.৩%, ছয় একর অব্দি ১.৯% এবং ছয় একরের ওপর ১.১%।
এমনই আরো বহু তথ্য পাওয়া গেল বিভিন্ন জমি বন্ধক রাখা, কিসান ক্রেডিট কার্ড প্রাপক, বিপিএল/র‍্যাশন কার্ড প্রাপক ইত্যাদি পরিমাপকে। যার ভিত্তিতে এটা প্রমাণিত হল যে বাঙালি উদ্বাস্তুদের অবস্থা থারু আদিবাসীদের থেকেও খারাপ, যখন নাকি থারুদের সংখ্যা পঞ্চাশ হাজার আর বাঙালি উদ্বাস্তুর সংখ্যা আজ পাঁচ লক্ষের বেশি, তাই, সেই ভিত্তিতে বিহার বাঙালি সমিতি দাবি জানাল যে থারুদের মতই বাঙালি শরণার্থী বিকাস প্রাধিকার (বেঙ্গলি রিফিউজি ডেভেলাপমেন্ট অথরিটি) গঠন করুক রাজ্য সরকার।  
২) জাতিতাত্ত্বিক সমীক্ষা জাতি প্রমাণপত্রের সমস্যা নিরসনে সমিতির দেওয়া আবেদনপত্র রাজ্যসরকারের সুপারিশের সঙ্গে গেল কেন্দ্রীয় সরকারের কাছে। কেন্দ্রীয় সরকার একটি জাতিতাত্ত্বিক সমীক্ষা করে পাঠাতে বলল। এডিআরআই-কে দিয়ে সেই সমীক্ষা করিয়ে পাঠান হল। তখন কেন্দ্রীয় সরকার পশ্চিমবঙ্গের তপশিলে শামিল সে-কয়টি জাতি-পদবি থেকে কয়েকটি বিহারের তপশিলে শামিল করল। এখন সেই জাতি-পদবিগুলো তপশিলি জাতি প্রমাণপত্র পাচ্ছে। বাকি তপশিলি পদবি কয়টি ইবিএস (অত্যন্ত পিছিয়ে থাকা) প্রমাণপত্র পাচ্ছে। তাদের জন্য অনুপূরক সমীক্ষা পাঠান হয়েছে।    
৩) উদ্বাস্তুদের প্রতি সরকারি আধিকারিকদের বর্ধিত সংবেদনশীলতা - প্রত্যেক জেলায়, ব্লক অফিসে আধিকারিকেরা উদ্বাস্তুদের প্রতি একটু বেশি সংবেদনশীল হতে বাধ্য হল। বিভিন্ন জেলায় প্রতিনিধিমন্ডল বা দল, সিও, বিডিও এমনকি ডিএমএর সঙ্গে নিজেদের সমস্যা নিয়ে দেখা করতে গেলে আগেকার মত তারা দূর-দূর করে তাড়িয়ে দেয় না।  
৪) পাঠ্যক্রম এ কাজ এবং এর পরের কাজগুলো সব বাঙালিদের জন্য হল। কিন্তু শহুরে অধিবাসী বাঙালিদের সঙ্গে সঙ্গে সমানাংশে তার লাভ উদ্বাস্তুরাও পেল। নতুন করে ক্লাস-ওয়ান থেকে ক্লাস-টেন অব্দি বাংলা পাঠ্যক্রম তৈরি করার জন্য কমিটি গঠিত করল বিহার শিক্ষা পরিযোজনা (সর্বশিক্ষা অভিযান-এর বিহার চ্যাপ্টার)। পাঠ্যক্রম তৈরি হল।  
৫) পাঠ্যবই পাঠ্যবই লিখিত হল। তৈরি হল। কিন্তু শেষ মুহূর্তের আমলাতান্ত্রিক প্যাঁচে তার মুদ্রণ আটকে দিতে সক্ষম হল বিহারের শিক্ষাব্যবস্থায় গেড়ে থাকা বাংলাবিরোধী আমলাতন্ত্র এবং তাতে পরোক্ষ সমর্থন যোগাল বাঙালি অভিভাবকশ্রেণীর নিষ্ক্রিয়তা। বিহার টেক্সটবুক পাব্লিশিং করপোরেশন জেলায় জেলায় জেলা শিক্ষা পদাধিকারীদের কাছে বাংলা বই কত ছাপতে হবে তার সংখ্যা চাইল। সে সংখ্যা আর এল না। হাজার বলা সত্ত্বেও বহুসংখ্যক বাঙালি অভিভাবকেরা স্কুলে চাপও সৃষ্টি করল না যে তারা তাদের ছেলেমেয়েকে বাংলা পড়াতে চায়। ফলে মুদ্রণ আর হল না। বইগুলোর ফ্রি-ডাউনলোডেব্‌ল পিডিএফ ফাইল আপলোড করে দেওয়া হল বিএসটিবিপিসি, এবং বিইপি-র ওয়েবসাইটে। বলা রইল, গ্রামে শহরে বাচ্চারা সাইবার ক্যাফে থেকে প্রিন্ট করিয়ে তার রসিদ স্কুলের হেড মাস্টারকে দিলে খরচটা রিইম্বার্স হয়ে যাবে। পরে বিহার বাংলা আকাডেমি এবং স্থানীয় কয়েকটি সংস্থাও নিজেদের উদ্যোগে বই ছাপিয়ে বিলি করার ব্যবস্থাও করল। বলা বাহুল্য যে যেটুকু সাড়া পাওয়া গেল সেটা উদ্বাস্তু কলোনিগুলোতেই পাওয়া গেল।   
৬) বাংলা শিক্ষক প্রথম কয়েক বছরে প্রাথমিক স্তরে ৩৫০খানেক বাংলা শিক্ষক নিযুক্ত হল। সেটাও এমনি এমনি হয়নি। টেট পরীক্ষার ঘোষণা আগে শুধু উর্দুর জন্য হয়েছিল। বিহার বাঙালি সমিতি তক্ষুণি দৌড়ে গিয়ে হস্তক্ষেপ করাতে বাংলা যোগ হল। (কী দারুণ লাগছিল যখন পাটনা শহরের কোচিং পাড়াগুলোয় পোস্টার পড়ল বংগলা টিইটি মে সফলতাকে লিয়ে এক মহিনে কা ক্র্যাশ কোর্স )। কিছু শিক্ষক বাংলা পড়াচ্ছেন। কিছু শিক্ষক মনমাফিক জায়গায় পোস্টিং যোগাড় করে এবং কিছু শিক্ষক হেডমাস্টারের চাপে বাংলা ভুলে গিয়ে অঙ্ক বা সমাজ অধ্যয়ন পড়াচ্ছেন। বাংলা শিক্ষকদের ফোরামও গঠন করা হল। কিন্তু হাজার বার ডাকা সত্ত্বেও অধিকাংশ শিক্ষক মুখ দেখাতেও ভয় পান। গোদের ওপর বিষফোঁড়া সেকেন্ড ল্যাঙ্গোয়েজ বাংলা পঞ্চাশ নম্বরের হয়, সেটাই টিইটির জন্য এলিজিবিলিটি ছিল। হঠাত কোনো একদিন সেটা বাড়িয়ে একশ করে দেওয়া হল। ফলে সব সেকেন্ড ল্যাঙ্গোয়েজ ক্যান্ডিডেট বাদ। ফার্স্ট ল্যাঙ্গোয়েজ বাংলা আর কটা জুটবে!
৭) সংখ্যালঘু আয়োগের উপাধ্যক্ষ এটা একটা বিরাট কাজ হল। সংখ্যালঘু আয়োগ তৈরি হওয়ার পর প্রথমবার ভাষাগত সংখ্যালঘু থেকে উপাধ্যক্ষ নিয়োগ করল বিহার সরকার। হলেন বিহার বাঙালি সমিতির সভাপতি। নিজের কার্যকালে সংখ্যালঘু আয়োগকে প্রথমবার তিনি উদ্দীপ্ত করলেন বিহারের বাঙালিদের ভাগ্যাকাশে। এবং তার বিরাট লাভ পেল বাঙালি উদ্বাস্তুরা। উপাধ্যক্ষের স্ট্যাটাস রাজ্যমন্ত্রীর। গাড়ি, সিকিউরিটি সেসব নিয়ে যখন উদ্বাস্তু কলোনিগুলোতে ঘুরে ঘুরে মিটিং করা শুরু করলেন!
ডাক্তারবাবুকে বললাম, একেই বলে অধোগতি! বাঙালি সমিতির পূর্বসুরি ছিল বোধহয় বেঙ্গলি ল্যান্ডহোল্ডার্স এসোসিয়েশন, অর্থাৎ জমিদারদের সংগঠন। আর আজ আপনি এটাকে বানিয়ে ফেললেন প্রান্তিক চাষী ও ক্ষেতমজুরদের সংগঠন। জাঁদরেল কোনো ব্যারিস্টারের বাড়ির সান্ধ্যভোজ থেকে নেমে মধ্যবিত্ত কোনো ভাষাপাগল সমিতিকর্মীর বাড়ির চা-সিঙ্গাড়ায় ছিলাম ভালোই; আপনি টেনে আনলেন শুকনো সেচনালা পেরিয়ে ভুট্টার ক্ষেতের পাশে, ভাঙাচোরা প্রাথমিক বিদ্যালয়ের মাঠে নমঃশূদ্র চাষীদের গা ঘেঁষাঘেঁষি ভিড়ে
ডাক্তারবাবু, আমাদের জাতি প্রমাণপত্র হবে না? আমাদের জমির পাট্টা? বিপিএলের লালকার্ড? কিসান ক্রেডিট কার্ড? সেচনালায় জল আসছে না! ফসল খেয়ে যায় সরৈয়ামন অভয়ারণ্যের হরিণ, বুনোশুয়োর! জমি জবরদখল করছে স্থানীয় দবঙ্গেরা! ডিসিএলআরকে বলা হয়েছে। ডাক্তারবাবু, আমাদের বাচ্চাগুলোর বাংলা পাঠ্যপুস্তকের কী হল? আর বাংলা টিচার?
এরই মধ্যে হাতে পিটিশন নিয়ে এগিয়ে এল তিনটি মেয়ে, আমাদের তিন কিলো করে ডাল দিয়ে নকিলো লিখিয়ে নিয়েছে আঙ্গনবাড়ি সেবিকা, জিজ্ঞেস করলে বলছে সিডিপিওকে পাঁচ হাজার টাকা কি আমি আমার ঘর থেকে দেব?
অপরাহ্নের আলোয় গ্রাম থেকে বেরুবার সময় আমাদের গাড়িটার দিকে তীক্ষ্ণ দৃষ্টিতে তাকিয়ে আছে দেখলাম বুদ্ধিদীপ্ত এক কিশোরীর মুখ। বোধহয় ভাবছে শহুরে বাবুদের প্রতি চাষীর মেয়ের স্বাভাবিক সহজাত-সন্দেহ থেকে আমাদের দেওয়া আশ্বাসগুলো বিশ্বাসযোগ্য কিনা। জাহ্নবী হীরা, সভায় টেবিলের সামনে এসে নিজের এই নাম বলেছিল মেয়েটি। [একটু ভিতরে ঢুকতে হবে বাংলা শুনতে হলে, বিদ্যুৎ পাল]
৮) বাংলা আকাডেমির অধ্যক্ষ সরকার বিহার বাঙালি সমিতির সুপারিশ অনুযায়ী সমিতির সভাপতিকে আকাডেমির অধ্যক্ষ নিয়োগ করল। যদিও উদ্বাস্তুদের সমস্যায় খুব বেশি হস্তক্ষেপ করার সুযোগ পেল না আকাডেমি। শুধু ওই যেটা ওপরে বলা হল পাঠ্যবইগুলোর ডিজিটাল কপি ছাপিয়ে, ফোটোকপি করে বিলি করা হল স্কুলে স্কুলে।

পরিশিষ্ট
যে অর্থব্যবস্থায় চলছে এই সরকার, বা যে কোনো সরকার, তার তন্ত্রে তন্ত্রে রন্ধ্রে গেঁটে বাত। সব জায়গায় মুখ্যমন্ত্রী, অন্যান্য মন্ত্রী বা মুখ্য সচিবের মত বড় আধিকারিকেরা নাক গলাতে পারেন না। প্রতিটি জেলায় প্রতিদিন বিভিন্ন ইস্যুতে চিঠি, মেমোরান্ডাম, প্রতিনিধিমন্ডলের সাক্ষাত, ধরনা চালিয়ে যেতে হয়, ঢিলেমি চলে না। তার ওপর বেঁচে থাকার তিনটে সাধন শিক্ষা, স্বাস্থ্য আর রোজগারের সমস্যা বিগত কয়েকটি বছরে এত ঘনিয়েছে যে বাঙালি হয়ে বেঁচে থাকার চেষ্টা যৌক্তিকতা হারিয়ে ফেলতে থাকে। তারপর ২০১৮ সালে যেভাবে জলঘোলা করা হল এনপিএ, এনআরসি, সিএএর নামে। তারপরেই এসে গেল কোভিডের অতিমারি, মৃত্যু ও উপর্যুপরি লকডাউন।
আমরা কি সেই ব্যাক টু স্কোয়্যার ওয়ান? না, একেবারেই না।
বিশাখাপতনমের সেই ভদ্রলোককে দেখাতে পারিনি ছবিটা। যেখানে বাঙালি উদ্বাস্তু হতোদ্যম হয়ে, কুন্ঠিত হয়ে ভোজপুরিভাষী হিসেবে নিজেদের মিথ্যা সামাজিক আত্মপরিচয় গড়ার চেষ্টায় বাংলা ভুলতে চাইছিল, সেখানেই বিহার বাঙালি সমিতির আন্দোলনের বছরগুলোর পর হওয়া পঞ্চায়েত নির্বাচনে শুধু পশ্চিম চম্পারণে ১০০ জনের বেশি প্রতিনিধি বাঙালি হয়ে নির্বাচিত হল, বেতিয়ার টাউনহলে সম্বর্ধিত করলেন তাদের বিহার বাঙালি সমিতির সভাপতি, সংখ্যালঘু আয়োগের উপাধ্যক্ষ এবং বাংলা আকাডেমির অধ্যক্ষ। দুটো ছবি জুড়তে হয়েছিল, ফেসবুকে ৩৬০ ডিগ্রির ছবি পোস্ট করতে হয়েছিল নারী-পুরুষ সবাইকে ধরতে।
তার আগের ঘটনা বরারি, ভাগলপুরের। জমিমাফিয়ারা জিপে করে উদ্বাস্তু কলোনির জমিদখল করতে এসেছিল। দুপুর। পুরুষেরা কাজে গেছে শহরে। লড়াকু মায়েরা বেরিয়ে এলেন আঁশবঁটি নিয়ে। গুন্ডারা বন্দুক নিয়ে ভয় দেখালেও কিছু করতে সাহস পেল না। পালিয়ে গেল।   
এই তো গত বছর গোপালগঞ্জের দুটো উদ্বাস্তু কলোনি বিরাট জনসভা করে বিহার বাঙালি সমিতির ব্রাঞ্চ গঠন করল।
কাজ চলছে।

১৭.৩.২৩