“इस केन्द्रीकरण
या कुछेक पूंजीपतियों द्वारा बहुत सारे पूंजीपतियों के सम्पत्तिहरण के साथ साथ
निरन्तर विस्तृत होते हुये पैमाने पर विकसित होता जाता है श्रम प्रक्रिया का
सहकारी रूप, विज्ञान का सचेत प्रौद्योगिक प्रयोग, जमीन की व्यवस्थित जुताई और श्रम-साधनों
का सहाधिकार में ही व्यवहारयोग्य श्रम-साधनों में बदलाव । उत्पादन के सभी साधनों
का इस्तेमाल संयुक्त, समाजीकृत श्रम के उत्पादन के साधन के तौर पर करते हुये खर्च
कम किये जाते रहते हैं । सभी देशों की जनता विश्वबाज़ार के जाल में फँसती जाती है ।
साथ ही विकसित होता जाता है पूंजी के शासन का अन्तरराष्ट्रीय स्वरूप । बदलाव की इस
पूरी प्रक्रिया के सारे लाभ को हड़पने और अपनी इजारेदारी में कर लेने वाले पूंजी के
थैलीशाहों की निरन्तर कम होती संख्या के साथ साथ आम तौर पर बढ़ती है बदहाली, अत्याचार,
गुलामी, पतन और शोषण । लेकिन इसी के साथ मज़दूरवर्ग का विद्रोह भी बढ़ता है ।
मज़दूरवर्ग, जो एक ऐसा वर्ग है जिसकी संख्या हमेशा
बढ़ती रहती है और जिसे पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया का तंत्र ही संगठित, एकताबद्ध
और अनुशासित करते रहता है । पूंजी की इजारेदारी उसी उत्पादन प्रणाली के लिये बन्धन
बन जाती है जिस उत्पादन प्रणाली के साथ साथ व छत्रछाया में वह पनपी थी और विकसित
हुई थी । उत्पादन के साधनों का केन्द्रीकरण एवं श्रम का समाजीकरण अन्तत: एक ऐसे
बिन्दु पर पहुँचता है कि उनके पूंजीवादी आवरण के साथ उनका मेल खत्म हो जाता है । अत:
आवरण फट कर अलग अलग हो जाता है । पूंजीवादी निजी सम्पत्ति का शोकवाद्य बज उठता है
। सम्पत्तिहरण करने वालों की सम्पत्ति जब्त कर ली जाती है ।”
उपरोक्त पंक्तियाँ मार्क्स की ‘पूंजी’
खन्ड 1 के अन्तिम अध्याय से ली गई है और पिछले 155 वर्षों में असंख्य बार दुनिया
की विभिन्न भाषाओं में उद्धृत की गई हैं । पंक्तियाँ हैं ही ऐसी ! महाकाव्यीय
विराटता की जिस भाषा में मार्क्स इजारेदार पूंजी के उद्भव से अंत तक का
द्वन्दात्मक वर्णन करते हैं वह स्वभावत: रोमांचित करता है ।
लेकिन जिस समय ये पंक्तियाँ लिखी जा रही थी
उस समय तक उपनिवेशवाद या साम्राज्यवाद इस इजारेदार पूंजी की साम्राज्यवाद या
वित्तपूंजी के उपनिवेशवाद में तब्दील नहीं हुआ था ।
पूंजी का कुछेक हाथों में केन्द्रीकरण, उद्योगों
व सेवाओं का आलम्ब व क्षैतिज जोड़, कीमतों व आपूर्ति पर नियंत्रण के लिये कार्टेल व
सिन्डिकेटों की स्थापना और इस ताकत के आधार पर बैंकों और औद्योगिक पूंजी के
गँठजोड़ों का बनना और वित्तपूंजी की ताकत में तेजी से वृद्धि… यह सब उन्नीसवीं सदी
के अन्तिम दशकों में होने लगा । बीसवीं सदी शुरू होते होते इन प्रवृत्तियों पर
योरोपीय बौद्धिक हलकों में बात होने लगी । फिर आ गया युद्ध, जिसे हम प्रथम
विश्वयुद्ध के रूप में जानते हैं ।
लेनिन के नेतृत्व में बॉलशेविक पार्टी
अपने देश में मज़दूरों, किसानों, तमाम मेहनतकशों की एकता कायम कर जारशाही का खात्मा
और जनवादी प्रजातंत्र की स्थापना के लिये काम कर रही थी । सन 1913 में
आर॰एस॰डी॰एल॰पी॰ (यानि जिसे हम बॉल्शेविक पार्टी कहते हैं) के पार्टी अधिकारी एवं
केन्द्रीय कमिटी के संयुक्त सम्मेलन में ‘मौजुदा स्थिति में आन्दोलन का कार्यभार’
शीर्षक अपने नोट के चौथे बिन्दु में लेनिन लिखते हैं, “चुँकि सामान्य रूप से यही
हालात हैं, सामाजिक-जनवादियों का कार्यभार बनता है कि राजतंत्र को उखाड़ फेंकने के
लिये एवं जनतांत्रिक प्रजातंत्र (या गणराज्य) की स्थापना के लिये आम जनता के बीच
व्यापक क्रांतिकारी आन्दोलन चलाना जारी रखें” (लेनिन, संगृहित रचनायें, खंड 19) ।
लेकिन पूंजीवादी योरोप में मज़दूरवर्ग के
अगुवा दस्तों, सामाजिक-जनवादी या समाजवादी पार्टियों में कुछ भ्रम की स्थितियाँ थी
जो लेनिन को परेशान कर रहे थे । 1912 में बैसेल में सम्पन्न, दूसरे अन्तरराष्ट्रीय
या अन्तरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन के घोषणापत्र में मज़दूरवर्ग का आह्वान किया
गया था कि युद्ध शुरू होने की स्थिति में वे अपने अपने देश के सरकारों के
युद्ध-प्रयासों का विरोध करें । रूस का राजतंत्र भी तो युद्ध में शामिल होने की
तैयारी कर रहा है ! तो रूसी मज़दूरवर्ग का नारा क्या हो ? ‘जार, खबरदार, तुम युद्ध
मत शुरू करो’ या सीधा, ‘चलो साथियो, जारशाही पर हमला बोलो’ ? और फिर, बहुत सारे
भ्रामक सुझाव थे उस बैसेल घोषणापत्र में जो अन्तत: सामाजिक-जनवादी या कम्युनिस्टों
को शांतिवाद के नाम पर अपने अपने देश के जनसंघर्षों को क्रांति की दिशा में आगे
बढ़ने से रोक रहे थे । उस दस्तावेज एवं तत्काल प्रकाशित कुछ अन्य पुस्तिकाओं का
अध्ययन कर लेनिन को स्पष्टत: दिखने लगा कि एक भयानक कमी है समझदारी में । ‘पूंजीवाद’,
‘इजारेदारी’, ‘साम्राज्यवाद’, ‘युद्ध’ ये सारी अवधारणायें हैं, मौजूद हैं, चर्चा
में हैं लेकिन अलग अलग । साम्राज्यवाद जैसे एक बीमार प्रवृत्ति हो सरकारों की जो
युद्ध पैदा कर रही हों । गोया पूंजीवाद की ही प्रवृत्तियों हों लेकिन ऐसी जिससे
निजात पाया जा सके, और फिर हर एक देश की पूंजीवादी सरकारें हों, अलग-अलग, जिनके
खिलाफ उन देशों का मज़दूरवर्ग एवं मेहनतकश अवाम संघर्ष तीव्र करे और जीत हासिल करे
! ये बिल्कुल लोग देख नहीं रहे थे कि पूंजीवाद
की स्वाभाविक (बेशक द्वंद्वात्मक विपरीत, प्रतिस्पर्धाविरोधी) परिणति है इजारेदारी,
इजारेदार पूंजी ही साम्राज्यवाद का आर्थिक सारतत्व है (यहाँ भी एक द्वन्दात्मक वैपरीत्य
है रूप और सारतत्व का, राष्ट्रीय स्तर पर इजारेदारी बनाम अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर
प्रतिस्पर्धा का) और साम्राज्यवाद की राजनीति का विस्तार है युद्ध ।
तब लेनिन ने अध्ययन शुरु किया । और वह
लेनिन का अध्ययन था । प्रासंगिक पुस्तक व दस्तावेजों के अलावे सभी विकसित
पूंजीवादी देशों में बैंकों के निवेश की बढ़ती भूमिका, बैंकों व औद्योगिक पूंजी के
गँठजोड़, अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर रेलमार्ग का विकास (क्योंकि जैसा लेनिन खुद कहते
हैं कि रेल बुनियादी तीन उद्योग – कोयला, लोहा और इस्पात – का जोड़ है तथा
विश्वव्यापार और पूंजीवादी-जनवादी सभ्यता का सबसे महत्वपूर्ण सूचक है) आदि का विशद
अध्ययन किया । इसी अध्ययन के फलस्वरूप आई वह छोटी सी पुस्तिका – ‘साम्राज्यवाद,
पूंजीवाद की चरम अवस्था’ - जिसकी भाषा को लेकर लेनिन को खेद रह गया कि जारशाही
सेन्सर के कारण बातें घुमाफिरा कर करनी पड़ी थी, लेकिन जिस पुस्तिका ने पूरे विश्व
में कम्युनिस्ट आन्दोलन के सामने बीसवीं सदी की पूंजीवाद का चरित्र और क्रांति की
दिशा को रौशन कर दिया ।
आप गौर करेंगे कि मूलत: अर्थशास्त्र
सम्बन्धी काम होते हुये भी मार्क्सवादी दर्शन, द्वन्दात्मक भौतिकतावाद के प्रयोग
का एक अनूठा पाठ है यहाँ । 'ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण' करते हुये लेनिन ने
पूरे यथार्थ के अन्तर्सम्बन्धों को स्थापित किया (पूंजीवाद की ही गति के विकासक्रम
में इजारेदारी, साम्राज्यवाद और युद्ध को उन्होने दिखाया), विपरीतों की –
प्रतिस्पर्धी पूंजी और इजारेदारी की प्रवृत्ति की - एकता और संघर्ष में धीरे धीरे
एक ऐतिहासिक क्षण में साम्राज्यवाद का वर्चस्व इजारेदारी पूंजी, बैंकों और सरकारों
के गँठजोड़ से स्थापित हुआ – परिमाण गुण में परिवर्तित हुआ और अन्तत: इसी
साम्राज्यवादी सत्ता को उखाड़ कर श्रम और श्रम के फलों के समाजीकरण को संरक्षित
करना संभावित हुआ (निषेध का निषेध), जो लेनिन के नेतृत्व में रूस के मज़दूरवर्ग ने
कर भी दिखाया ।
किताब तो साथियो, सब को पढ़नी पड़ेगी । मैं
कोई निचोड़ नहीं रखने जा रहा हूं । वह दु:साहस भी मैं नहीं करूंगा । पर उस किताब को
पढ़ते हुये आप पायेंगे कि किस तरह आँकड़ों व तथ्यों के सहारे वे साबित करते हैं कि
साम्राज्यवाद का आर्थिक सारतत्व है इजारेदार पूंजी; इजारेदार पूंजी और बैंकों का
गँठजोड़ किस तरह एक नये किस्म की पूंजी को पैदा करता है वित्तपूंजी, जो उजरती पूंजी
के रूप में पूरी दुनिया में फैलता है, यही वित्तपूंजी ‘दरबारी पूंजी’ नाम की
परिघटना को जन्म देता है और बेरोक मुनाफा, सूद लाभांश और भाड़े के लिये पूरी दुनिया
को विध्वंसक युद्ध के सामने खड़ा कर देता है, जिसमें जीत सिर्फ साम्राज्यवाद की
होती है – अब किसी मुल्क का मेहनतकश अवाम हिम्मत करें तो पूंजीवाद की इस मरणासन्न
अवस्था के जकड़जाल को तोड़ते हुये समाजवादी क्रांति की ओर बढ़ जाये ! लेनिन ने भी तो
यही किया !
‘साम्राज्यवाद: पूंजीवाद की चरम अवस्था’
में लेनिन कहते हैं, “पूंजीवाद का विकास एक ऐसे स्तर तक पहुँच चुका है जहाँ, माल
का उत्पादन अभी भी ‘राज’ करता है आर्थिक जीवन की बुनियाद माना जाता है लेकिन
यथार्थ में यह कमजोर हो चुका है और मुनाफे का अधिकांश वित्तीय तिकड़म के ‘प्रतिभाओं’
के पास जाता है । इन तिकड़मों और ठगियों के आधार में है समाजीकृत उत्पादन; लेकिन मानव
की जिस विपुल प्रगति से यह समाजीकरण हासिल हुआ, वह प्रगति… सट्टेबाजों के फायदे
में चला जाता है ।”
फिर कहते हैं, “बैंकों एवं उद्योंगों के
बीच का ‘व्यक्तिगत मिलाप’ का अनुपूरक होता है इन दोनों का सरकार के साथ ‘व्यक्तिगत
मिलाप’ ।” एक जर्मन लेखक ज़ेइडेल्स को आगे लेनिन उद्धृत करते हैं, “सुपरवाइजरी
बोर्डों में सहजता से रसूख वाले लोगों को, भूतपूर्व लोकसेवकों को जगह दी जाती है,
जो प्राधिकारियों के साथ सम्बन्ध बनाने में मदद करते हैं…… सामान्यत: बड़े बैंकों
के सुपरवाइजरी बोर्डों में एक सांसद या बर्लिन नगर पार्षद हुआ करता है” ।
किताब के अन्तिम अध्याय में पूंजीवाद की
इस मरणासन्न अवस्था के बारे में लेनिन कहते हैं:-
“जैसा कि हमने देखा, साम्राज्यवाद का
गहनतम आर्थिक बुनियाद है इजारेदारी । यह पूंजीवादी इजारेदारी है, यानि ऐसी
इजारेदारी जो पूंजीवाद से ही पनपा है और पूंजीवाद के सामान्य परिवेश – माल-उत्पादन
और प्रतिस्पर्धा – में, इसी सामान्य परिवेश के साथ स्थाई एवं असाध्य अन्तर्विरोध
में मौजूद रहता है । फिर भी, हर इजारेदारी की तरह, यह अवश्यम्भावी तौर पर गतिहीनता
एवं क्षय की प्रवृत्ति पैदा करता है । चुँकि इजारेदारी पर कीमतें तय की जाती हैं,
इसलिये, तात्कालिक तौर पर ही सही, प्रौद्योगिक एवं फलस्वरूप सारे विकास का प्रेरक
कारण एक हद तक अदृश्य हो जाते हैं, बल्कि जानबूझ कर प्रौद्योगिक विकास को धीमी
करने की आर्थिक संभावना उत्पन्न हो जाती है…”
“इजारेदार पूंजी ने पूंजीवाद के सभी
अन्तर्विरोधों को किस हद तक तीव्र कर दिया है यह सामान्यत: ज्ञात है ।
अन्तर्विरोधों की यह तीव्रता ही इतिहास के उस संक्रमणकाल का सबसे अधिक ताकतवर
चालिका बल है जो विश्व वित्तपूंजी के अन्तिम* विजय से शुरू हुआ था ।”
अन्त में, बेहतर होगा कि हम किताब के
जर्मन संस्करण की भूमिका में सन 1920 में लेनिन ने जो कहा उसे उद्धृत करें, “साम्राज्यवाद,
सर्वहारा की सामाजिक क्रांति की पूर्वसंध्या है । इसकी पुष्टि विश्वव्यापी पैमाने
पर 1917 में हो चुकी है ।”
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*यहाँ ‘अन्तिम विजय’ से उस ऐतिहासिक क्षण को सूचित किया गया है जब पहली बार समूची दुनिया कुछेक उपनिवेशवादी ताकतों के कब्जे में उपनिवेश/अर्ध-उपनिवेश/बर्चस्वक्षेत्र आदि के रूप में बँट गई ।
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