Sunday, March 28, 2021

पैरिस कम्यून का 150वाँ वर्ष


एक सौ पचास साल पहले फ्रांस की राजधानी पैरिस के मजदूरों ने अपने देश को एक कायर सरकार से निजात दिलाने के लिये बगावत किया था। यह सरकार फ्रांस और प्रशिया के बीच जारी युद्ध के बीच बनी थी। युद्ध में फ्रांस हार रही थी। जो सरकार बनी, वह कहने को तो अपने आपको कमजोर और हारे हुए राजतंत्र (द्वितीय साम्राज्य) का तख्तापलट कर प्रजातंत्र स्थापित करने वाली सरकार कहती थी, लेकिन यथार्थ में सारे कानून राजतंत्रवादियों से समझौते करने के लिये बनाने लगी। साथ ही, उन्होने मजदूरों के हितों की रक्षा के एक भी कदम नहीं उठाए, जबकि राजतंत्र को हटाने के लिये संघर्ष पहले चला रहा था उस संघर्ष में शामिल मुद्दों में वे भी मांगें थीं। और अन्तत:, वह सरकार, पैरिस को शत्रुपक्ष प्रशियाई सेना के हाथों में छोड़ कर दूर बन्दरगाह शहर वर्साई भाग गई।

इतिहास में पहली बार, किसी देश के मजदूरों ने सत्ता अपने हाथों में लिया था। पूंजीवादी राज्यतंत्र पर कब्जा करने के बाद उस तंत्र के साथ क्या बर्ताव करना चाहिये, क्यों उस तंत्र का इस्तेमाल एक नये समाज की स्थापना के लिये नहीं किया जा सकता है इसलिये उसे ध्वस्त करना ही चाहिये, वर्गशत्रुओं की जमात के साथ उदार, क्षमाशील बर्ताव कर, सवधान और सतर्क रहना चाहियेआदि अवधारणायें तब तक विकसित नहीं हुई थी। मानव द्वारा मानव के शोषण से रहित एक समाजवादी समाज के आधारशिलाएं क्या क्या होंगीं, इन पर भी नजर साफ नहीं थे। खुद मार्क्स कीपूंजी’ ( वह भी सिर्फ पहला खण्ड), जिसमें श्रम, मूल्य एवं अतिरिक्त मूल्य का सर्वथा सामाजिक चरित्र इतिहास में पहली बार उजागर हुआ, बस तीन साल पहले जर्मन भाषा में आई थी। और खुद पैरिस के मजदूरवर्ग के साथ पूरे फ्रांस के किसान भी नहीं थे। जो साथ थे, शहरी मध्यवर्ग के क्रान्तिकारी तबके, उनमें नई आर्थनीतिक कदमों को लेकर जो काल्पनिक समाजवादी अवधारणायें थीं वे कमजोर थीं।

ऐसी स्थिति में पैरिस कम्यून का पराजय होना स्वाभाविक था। ढाई महीने के बाद वर्साई भागी हुई तथाकथित प्रजातंत्रवादी सरकार ने, अपने ही बागी मजदूरों के खिलाफ प्रशियाई सेना की मदद लेकर पैरिस कम्यून को कुचल दिया। सिर्फ आधिकारिक दस्तावेजों के अनुसार, अगले कुछ दिनों में चालीस हजार से अधिक मजदूर (बूढ़े, बच्चे और औरतों सहित) दीवारों के सामने खड़े कर गोलियों से भून दिये गये, और लगभग उतनी ही संख्या में मजदूर फ्रांस के विभिन्न उपनिवेशों में भेज दिये गये, जहाँ अगले एक दशक तक उन्हे यातनायें दी जाती रही।

पैरिस कम्यून के बनने के कुछेक साल पहले अन्तरराष्ट्रीय श्रमजीवी संघ (इन्टरनैशनल वर्किंगमेन्स एसोसियेशन) की स्थापना हो चुकी थी। पूरे योरोप एवं अमरीका में उसकी सदस्यता तेजी से बढ़ रही थी। पैरिस कम्यून के आविर्भाव के बाद योरोप के सभी देशों की सरकारें, अपने देशों में कार्यरत अन्तरराष्ट्रीय श्रमजीवी संघ की शाखाओं पर टूट पड़ी। कम्यून के पराजित होने के बाद हमले और बढ़ गये।

कम्यून के इतिहास पर कई सारी अच्छी किताबें उपलब्ध हैं। सबसे अच्छा इतिहास फ्रांसीसी इतिहासकार लिसैगैरे द्वारा लिखा गया। कार्ल मार्क्स की बेटी इलियानोर मार्क्स-एवेलिंग ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया था। साथ ही, पैरिस कम्यून के उत्थान एवं पराभव पर सबसे अधिक विज्ञान-सम्मत दृष्टिकोण हमें मिलता है कार्ल मार्क्स रचितफ्रांस में गृहयुद्धशीर्षक पुस्तिका सेइसका कथ्य मूल रूप में एक भाषण है जिसे मार्क्स ने अन्तरराष्ट्रीय श्रमजीवी संघ की सभा में पढ़ा था। उस विशद इतिहास में जाने की गुंजाइश अभी नहीं है। आइये, तत्कालीन दो चार अन्य कहानियों पर नजर दौड़ाते हैं।

 

18 मार्च 1871 को पैरिस के मजदूरों ने बगावत किया था। उसके पाँच दिनों के बाद, 23 मार्च 1871 फेडरल काउंसिल ऑफ पैरिसियन सेक्शनस ऑफ ईन्टरनैशनल वर्किंगमेन्स असोसियेशन का प्रतिनिधिमंडल जब अन्तरराष्ट्रीय श्रमजीवी संघ की सभा में पहुंचा तो उस प्रतिनिधिमंडल के द्वारा सभा को सम्भाषित किया गया। सम्भाषण में उन्होने कहा:

श्रमिको,

पराजयों की एक लम्बी शृंखला, एक तबाही जो हमारे देश को पूर्ण विध्वंस की ओर ले जाने वाले प्रतीत होतेयही है उस परिस्थिति का तूलनपत्र जिसे फ्रांस पर आधिपत्य रखने वाली सरकारों ने फ्रांस के लिये पैदा किया है।

क्या इस पतन से उठ खड़े होने के लिये आवश्यक सारे गुण हमने खो दिये हैं? क्या हम इतने पतित हो चुके हैं कि हताश होकर उनके उस पाखंडी तानाशाही के आगे घुटने टेक दें जिसके कारण उन्होने हमें विदेशियों के हाथों सौंप दिया? या हममें सिर्फ उतनी ही उर्जा बची है जिससे गृहयुद्ध के द्वारा हम अपने विध्वंस को लाइलाज बनाते चलें?

हाल की घटनाओं ने पैरिस की जनता की ताकत को प्रदर्शित किया है; हम आश्वस्त हैं कि भाईचारा जल्द ही अपनी बुद्धिमत्ता प्रदर्शित करेगी।

अधिकार के सिद्धांत को ताकत नहीं है कि सड़कों पर फिर से अनुशासन वापस लाये, कारखानों में काम दोबारा शुरु करवाये, और उसकी यह निर्बलता की उसका निषेध है।

एकजूटता का अभाव ही सामान्य विध्वंस को ले आया है तथा गृहयुद्ध को जन्म दिया है। नये आधार पर अनुशासन के नये आश्वासन तथा श्रम की स्वीकृति, जो उसका मौलिक शर्त है, हमें अवश्य ही स्वाधीनता, बराबरी एवं एकजूटता से मांगना होगा।

आगे प्रतिनिधिमंडल ने कहा:

श्रमिको,

अपने समानाधिकारवादी सिद्धांतों के लिये हमने संघर्ष किया है एवं हमने कष्ट भोगना सीखा है; अब जब हम सामाजिक महल का पहला पत्थर बिछाने में मदद कर सकते हैं, हम पीछे नहीं हट सकते हैं।

क्या मांगा है हमने?

श्रमिक को उसके श्रम के पूरे मूल्य का भुगतान सुनिश्चित करने के लिये ॠण, विनिमय एवं संघ का संगठन;

मुक्त, धर्मनिरपेक्ष एवं समाकलित शिक्षा;

मिलने के एवं संघ बनाने के अधिकार; प्रेस एवं नागरिक की पूर्ण आज़ादी;

पुलिससेवा, सैन्यसेवा, स्वास्थ सांख्यिकी आदि का नगरपालिक संगठन;”…

 

कार्ल मार्क्स ने अपने मित्र लुडविग कुगेलमान को 12 अप्रैल 1871 को एक पत्र लिखा, जिसमें वह कहते हैं:

अगर आप मेरे 18वीं ब्रुमेयर [मार्क्स की प्रख्यात रचनालुइ बोनापार्ट की 18वीं ब्रुमेयरव॰ले॰] के आखरी अध्याय को देखें तो पायेंगे कि फ्रांसीसी क्रांति की अगली कोशिश पहले जैसी, यानि अफसरशाह सैन्य-यंत्र का एक हाथ से दूसरे हाथ में अंतरण जैसी नहीं होगी। बल्कि उसे तोड़ी जाएगी, और महादेश मे सभी वास्तविक जनक्रांति के लिये यह अत्यावश्यक है। और यही करने की कोशिश हमारे पैरिस के वीर पार्टी कॉमरेड कर रहे हैं। क्या लोच और लौटाव, क्या ऐतिहासिक पहल, त्याग की क्या क्षमता है इन पैरिसियाइयों में! छे महीनों की भूख और विध्वंसजिसे किसी बाहरी शत्रु ने नहीं बल्कि आन्तरिक गद्दारी ने पैदा किया - के बाद वे उठ खड़े होते हैं, प्रुशियाई संगीनों के नीचे! यूँ खड़े होते हैं जैसे फ्रांस और जर्मनी के बीच कभी युद्ध हुआ ही नहीं हो, और पैरिस के दरवाजों पर शत्रु खड़ा हो! इतनी महानता का दूसरा कोई मिसाल इतिहास में नहीं है। 

शायद मित्र कुगेलमान, जय और पराजय की सम्भावनाओं की अनुकूलता को लेकर कुछ सवाल पैदा किये होंगे ……

मार्क्स 17 अप्रैल 1871 को जबाब देते हैं:

विश्व इतिहास को बनाना वास्तव में बहुत आसान होता अगर संघर्ष के बीड़ा सिर्फ -बदलनेवाली अनुकूल सम्भावनाओं के शर्तों पर उठाये जाते।

दूसरी ओर, वह विश्व इतिहास बहुत रहस्यवादी किस्म का होता, जिसमेंदुर्घटनाओंकी कोई भूमिका नहीं होती। ये दुर्घटनायें खुद ही विकास के सामान्य मार्ग के स्वाभाविक हिस्से होती हैं एवं इनकी क्षतिपूर्ति दूसरी दुर्घटनाएँ करती हैं। लेकिन त्वरण एवं विलम्ब इनदुर्घटनाओंपर बहुत अधिक निर्भरशील होता है। आन्दोलन के शीर्ष पर सबसे पहले जो खड़े होते हैं उनका चरित्र भी एकदुर्घटनाहै जो बाकीदुर्घटनाओंमें शामिल होता है।  

………

पूंजीपति वर्ग एवं उसकी राज्यसत्ता के खिलाफ श्रमिक वर्ग का संघर्ष, पैरिस के संघर्ष के साथ एक नए चरण में प्रवेश किया है। तात्कालिक परिणाम जो भी हो, विश्व-ऐतिहासिक महत्व का एक नया प्रस्थानविन्दु हासिल हो चुका है।

 

ऊपर में फेडरल काउंसिल ऑफ पैरिसियन सेक्शनस ऑफ ईन्टरनैशनल वर्किंगमेन्स असोसियेशन के जिस प्रतिनिधिमंडल का जिक्र किया गया उसके दो दर्जन सदस्यों में से एक थे युजीन पॉतियेर। इनके नाम से बहुत सारे लोग परिचित हैं। ये वही समाजवादी कवि हैं जिनका लिखा हुआ गीत उठ जाग भूखे बंदीआज पूरी दुनिया में श्रमिक-चेतना का जयगान हैबल्कि समाजवादी देशों का राष्ट्रगीत एवं कम्युनिस्ट समाजवादी पार्टियों का झंडागीत है।

यह गीत उन्होने जून 1871 में लिखा, जब पैरिस की सड़कों पर एवं सिएन नदी की पानी में हजारों कम्युनार्ड मजदूरों के खून की धार बह रही थी। मूल फ्रांसीसी भाषा में रचित इस गीत का अनुवाद दुनिया की सभी भाषाओं में हो चुका है। उसी गीत को दोहराते हुये इस निबन्ध का हम अन्त करे:

उठ जाग ओ भूखे बंदी,
अब खींच लाल तलवार
कब तक सहोगे भाई,
जालिम का अत्याचार

तुम्हारे रक्त से रंजित क्रंदन,
अब दश दिश लाया रंग
ये सौ बरस के बंधन,
एक साथ करेंगे भंग

ये अन्तिम ज़ंग है जिसको,
हम जीतेगे एक साथ
गाओ इंटरनेशनल
भव स्वतंत्रता का गान

विवा ला कम्यून ! कम्यून ज़िन्दाबाद !