Thursday, March 7, 2019

कर्माटाँड़ में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के कर्मभावना के आयाम एवं आज का भारत

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर कर्माटाँड़ में आराम करने के लिये आये थे। लेकिन भारतीय नवजागरण की धारा में उन्नीसवीं सदी का बंगाल जिस प्राणशक्ति के विस्फोट का केन्द्र बना था, उस प्राणशक्ति के शीर्षस्थ कर्मवीर थे ईश्वरचन्द्र विद्यासागर। उनका काम ही तो उनका आराम था। इसलिये, उनके जीवन के कर्माटाँड़ प्रसंग से बंगाल के नवजागरण के कृषक, श्रमजीवी, दलित जनोन्मुख धारा को नया विस्तार मिला। आज भी, विकास के सन्दर्भ में जनहित के जो मुख्य सवाल हैं, उनमें से चार सवालों – जनशिक्षा, नारीमुक्ति, जनस्वास्थ्य, अंधविश्वासों व कुरीतियों से मुक्ति तथा हाशिये पर कर दिये गये जनसमुदायों की उन्नति – यानि, आज के अर्थों में सामुदायिक विकास की समस्याओं से जुझने के क्रम में हम कर्माटाँड़ में विद्यासागर द्वारा किये गये कामों से प्रेरित होते हैं। उन कामों के हमें मुख्यत: तीन आयाम मिलते हैं – (1) शिक्षा, (2) चिकित्सा एवं सेवा, (3) कृषि के विकास में मदद। सामुदायिक विकास के पूरे सन्दर्भ में रोजगार भी आता है, लेकिन उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध में, कर्माटाँड़ के ग्रामीण जीवन में, कृषि व सम्बन्धित कारीगरी की आय बढ़ाने की समस्या से अलग रोजगार की समस्या उभर चुकी होगी, ऐसा नहीं लगता है। दूसरी ओर, विद्यासागर के जीवनबोध का प्रखरतम पक्ष, वैज्ञानिक व तार्किक सोच उपरोक्त सभी कार्यों में ओतप्रोत थी, एवं अंधविश्वासों व कुरीतियों से मुक्ति के सन्दर्भ में इस पर अलग से विचार करेंगे।   

शिक्षा – नारीशिक्षा, वयस्कशिक्षा
सबसे पहले प्राथमिक शिक्षा, नारीशिक्षा एवं वयस्क शिक्षा के सवालों को जनशिक्षा की दृष्टि से देखें। ‘जनशिक्षा’ के बारे में विद्यासागर की स्पष्ट राय थी कि इसे पूरी तरह नि:शुल्क होना होगा।
उस समय अंग्रेज सरकार की नीतियों में इंग्लैन्ड में हो रहे हलचलों का थोड़ा बहुत प्रभाव पड़ता रहता था। ऐसे ही एक प्रभाव के कारण सरकारी महकमों में चर्चा होने लगी कि शिक्षा को गरीब, श्रमजीवी, आम जनता के बीच पहुँचाई जाय। सम्बन्धित परिपत्र विद्यासागर के पास भी पहुँचा। उन्होने अपनी राय दी कि आम जनता और खास तौर पर गरीब तबकों के बीच शिक्षा ले जाने के लिये उसे पूर्णत: नि:शुल्क होना होगा, जबकि कोई सरकार उस खर्च को वहन नहीं करना चाहती। बल्कि उन्होने खुद इंग्लैन्ड का उदाहरण दिया! कहा कि जिसकी सरकार यहाँ जनता को शिक्षित करना चाहती है उसकी अपनी धरती पर क्या हाल है? इतने बड़े विद्वानों को पैदा करने वाले देश में, दुनिया पर राज करने वाले देश में इतनी अधिक संख्या में निरक्षर और अनपढ़ लोग क्यों हैं?
दिनांक 29 सितम्बर 1859 को उन्होने बंगाल सरकार के कनीय सचिव रिवर थॉम्पसन को जो पत्र लिखा वह हमें इन्द्र मित्र रचित जीवनी, ‘करुणासागर विद्यासागर’ में मिलता है। पत्र में विद्यासागर कनीय सचिव द्वारा जारी गश्तीपत्र संख्या 288, दिनांकित 17 जून 1859  की प्राप्ति स्वीकारते हैं। आगे लिखते हैं कि “प्रति विद्यालय 5 से 7 रुपयों के सीमित माहवार खर्च पर बंगाल की आमजनता के लिये सस्ते विद्यालय खोलने का प्रस्ताव, देश की वर्तमान अवस्था में लगभग अव्यवहारिक है। क्योंकि, महज पढ़ना, लिखना और थोड़ा अंकगणित भी सफलता के साथ सीखा पाने वाला आदमी इतने कम वेतन पर सेवा स्वीकार नहीं करेगा, चाहे उसका अपने गाँव से कितना भी जुड़ाव हो।“ 
फिर आगे वह जनशिक्षा पर अपनी सोच रखते हैं।
“पश्चिमोत्तर प्रान्तों में चलने वाले हलकाबन्दी विद्यालयों की प्रणाली के बारे में सही सूचनायें मुझे उपलब्ध नहीं है। लेकिन यह मानते हुये कि वही प्रणाली बिहार के विद्यालयों में भी लागू की गई है, मैं कहना चाहूंगा कि वह बंगाल में चलने वाले देशी विद्यालयों [पाठशालाओं – लेखक] की ही जैसी है। बिहार के विद्यालयों में, मैं जितना समझ रहा हूँ, पुरा पाठ्यक्रम सिर्फ पत्र लिखने एवं जमींदार व दुकानदारों का खाताबही लिखने तक सीमित है। इन विद्यालयों से बंगाल के विद्यालयों का बस इतना फर्क है कि बिहार के विद्यालयों में कुछ बेहतर, छपी हुई किताबें नाम के वास्ते इस्तेमाल की जाती है। अगर शिक्षा की ऐसी ही प्रणाली बंगाल में लागू करना सरकार का उद्देश्य है तो [पाठशालाओं के] गुरुमहाशयों को थोड़ा माहवारी वेतन दे देने, कुछ छपी किताबों को उन विद्यालयों में चालू करने एवं उन स्कूलों को सरकारी अधीक्षण के अन्तर्गत लाने से ही उद्देश्य पूरा हो जायेगा। लेकिन मैं जरूर कहूंगा कि वैसी शिक्षा, महत्वहीन तो होगी ही, जनता के बीच, अगर जनता का अर्थ श्रमजीवी वर्ग हैं तो, प्रसारित भी नहीं होगी। क्योंकि, अभी भी इन वर्गों के छात्र, बंगाल और बिहार के विद्यालयों में नाममात्र ही मिलते हैं।
“इस यथार्थ का कारण है श्रमजीवी वर्गों की स्थिति। उनकी स्थिति इतनी बुरी है कि अपने बच्चों की शिक्षा पर वे कुछ भी खर्च नहीं कर सकते। न ही वे अपने लड़कों को, किसी भी किस्म का काम करने लायक उम्र तक पहूँचने के बाद, विद्यालय में रखेंगे। क्योंकि तब वे कुछ कमायेंगे, कितना भी कम क्यों न हो। वे सोचते हैं, और शायद सही सोचते हैं कि उनके बच्चे थोड़ा लिखना पढ़ना सीख जाने से उनकी स्थिति बेहतर नहीं हो जायेगी। इसी लिये उन्हे अपने बच्चों को विद्यालय भेजने में कोई आग्रह नहीं होता। यह उम्मीद करना अतिशय होगा कि सिर्फ ज्ञान प्राप्त करने के लिये वे अपने बच्चो को शिक्षित करेंगे जबकि उच्चतर वर्ग भी अभी तक शिक्षा के लाभों को सही ढंग से नहीं समझते हैं। ऐसी परिस्थिति में श्रमजीवी वर्गों को शिक्षित करने की कोशिश अनावश्यक है। हाँ अगर सरकार वास्तव में इस दिशा में प्रयोग करना चाहती है तो उसे पूर्णत: नि:शुल्क शिक्षा देने को तैयार होना होगा।”

वीरसिंहो गाँव का अनुभव
इस दिशा में, यानि गरीबों के लिये नि:शुल्क शिक्षा मुहैया कराने की दिशा में, विद्यासागर द्वारा उनके अपने पैत्रिक गाँव वीरसिंहो में किये गये काम का ऐतिहासिक महत्व है। विद्यासागर के प्रथम जीवनीकार, उनके अपने सहोदर शम्भुचन्द्र विद्यारत्न इस प्रसंग पर लिखते हैं:
“अग्रज महाशय बचपन से ही इस बात को लेकर मन ही मन आलोड़ित रहते थे कि अपनी जन्मभूमि वीरसिंहो एवं आसपास के गाँवों के निवासी लोगों एवं बालकों के दिमाग का अंधेरा दूर करने के लिये विद्यालय स्थापित करेंगे। लेकिन पैसों के अभाव के कारण यह बात वह कभी किसी से बोल नहीं पाये। अभी उन्हे महीना में तीन सौ रुपये वेतन मिल रहा था और बेतालपंचविंशति, जीवनचरित, बांग्लार इतिहास, उपक्रमणिका, बोधोदय आदि पुस्तकों की बिक्री से लाभ भी अच्छा हो रहा था। इसी करण से, चारों भाईयों के साथ फागुन के महीने में जलमार्ग से उलुबेड़े, गेँयोखालि, तमोलुक, कोला, बाकसी, गोपीगंज होते हुये तीसरे दिन घाँटाल में नाव से उतरे और घर पहुँचे। घर पहुँचकर पिता से उन्होने कहा, ‘एक अरसा पहले आप अक्सर इच्छा व्यक्त करते थे कि गाँव में टोल [परम्परागत ग्रामीण विद्यालय] बना कर आप गाँव के लोगों को विद्या दान करेंगे। अब आपके आशीर्वाद से मेरी स्थिति अच्छी हुई है, इसलिये वीरसिंहो में एक विद्यालय खोलना चाहता हूँ।’ यह सुन कर माँ और पिताजी बहुत खुश होकर भैया का चेहरा चूम कर अपनी प्रसन्नता व्यक्त किये। अगले दिन विद्यालय का स्थान तय हुआ। जमीन के मालिक रामधन चक्रवर्ती एवं अन्यान्य को कीमत चुका कर भैया जमीन की बिक्री का केवाला लिखवा लिये। उसके अगले दिन मजदूर नहीं मिला देखकर भैया खुद सभी भाईयों को लेकर मिट्टी कोड़ने में लग गये। बाद में, जल्द से जल्द विद्यालय के निर्माण के लिये पिताजी को एक हजार से कुछ अधिक रुपये देकर कलकत्ता वापस चले गये। “सन 1853 के चैत में गर्मी की छुट्टी के पूर्व, मध्यम और तीसरा भाई तथा उस समय घर के जो भी सगे-सम्बन्धी संस्कृत कॉलेज के उच्च कक्षाओं पढ़ रहे थे, उन सब को उन्होने गाँव के बालकों की शिक्षा का कार्य करने के लिये भेजा। विद्यालय का भवन तैयार होने में और चार महीने लगते, इसलिये गाँव में अपने आवास तथा आसपास के पड़ोसियों के आवासों में फागुन की माह में वीरसिंहो का विद्यालय प्रारंभ हुआ। इसके पहले इस इलाके में कोई विद्यालय स्थापित नहीं हुआ था। स्थानीय लोगों के मन में अंधविश्वास था कि विद्यालय में पढ़ाई करने से वे इसाई बन जायेंगे। कुछ लोग कहते थे कि बच्चे नास्तिक हो जायेंगे। किसी किसी भट्टाचार्य का संस्कार था कि जाति भ्रष्ट हो जायेगा। और भी कैसी कैसी बातें करने लगे लोग। “उस समय वीरसिंहो गाँव के लोगों की आर्थिक स्थिति बुरी थी। सद्गोप लोग कृषिकर्म कर दिन बिताते थे। उनके बच्चे चरवाही करते थे; कई दूसरों के खेतों में मजदूरीकरते थे। कई परिवारों को शाम तक अन्न जुटाना दुभर हो जाता था। जो भी हो, विद्यालय स्थापित होने के पाँच-सात दिनों के अन्दर सौ से अधिक बच्चे पढ़ने के लिये विद्यालय में प्रवेश किये। क्रमश:, आसपास के पथरा, उदयगंज, कुराण, गोपीनाथपुर, यदुपुर, दन्डीपुर, इड़पाला, दीर्घग्राम। साततेँतुल, आमड़ापाट, पुड़शुड़ी, मामरुल, आकपपुर, आगर, राधानगर, क्षीरपाई आदि गाँवों से काफी बालक विद्यालय में प्रवेश लेने लगे। बहुतों की ऐसी स्थिति नहीं थी कि पाठ्यपुस्तक खरीदें। विद्यालय नि:शुल्क किया गया। अग्रज महाशय, कलकत्ता से तीन सौ से अधिक बालकों के लिये पाठ्यपूस्तक, कागज एवं स्लेट आदि बेझिझक भेजते थे। अपने गाँव में जिन छात्रों को पहनने के कपड़ों का अभाव था, उन्हे कपड़े खरीद देने के लिये उन्होने मुझे आदेश दिया। उस समय, दूर दराज में अध्यापन कार्य करने वाले कई शिक्षकों के पुत्र इस विद्यालय में अध्ययन हेतु चले आये।
“जो लोग दूसरों के घरों में, मजदूरी लेकर दिन में उनकी चरवाही करते थे, उन्हे पढ़ाईलिखाई सिखाने के लिये अग्रज ने नाईट-स्कूल स्थापित किया। उस स्कूल में शाम से रात के दो पहर तक के लिये दो शिक्षक नियुक्त थे, नि:शुल्क पुस्तकें देनी पड़ती थी, और इन सभी चीजों में जो खर्च होता उसका निर्वाह स्वयं अग्रज महाशय करते थे। …
“उस समय इस प्रांत की महिलायें लिखती-पढ़ती नहीं थी। वीरसिंहो में सबसे पहले बालिका विद्यालय की स्थापना हुई। सभी बालिकाओं को नि:शुल्क पुस्तकें मिलती थी। जिस समय कलकत्ता में पहली बार बेथुन-फिमेल-स्कूल स्थापित हुआ, उस समय कलकत्ता-निवासी सम्भ्रान्त दलपतिगण एवं अन्यान्य सम्भ्रान्त लोग बहुतेरे किस्म के हंगामा किये थे। लेकिन वीरसिंहो में बालिका विद्यालय स्थापित होने पर, पड़ोसी सन्तोष के साथ अपनी कन्याओं को विद्यालय भेजा करते थे। इसके चलते, आसपास के दूसरे गाँव के लोग भी किसी प्रकार की आपत्ति नहीं जताये थे।”

कर्माटाँड़
इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुये कर्माटाँड़ को अपना निवास बनाने के साथ ही साथ विद्यासागर ने इसी नन्दनकानन में बालिका विद्यालय (या पाठशाला कह लें) एवं वयस्क या प्रौढ़ विद्यालय खोले एवं उन्हे नियमित शिक्षा देनी शुरु कर दी।
यह सही है कि उनकी किसी भी जीवनी में, विद्यालय खोलने के जिक्र रहने के बावजूद कोई तथ्यात्मक विवरण अनुपलब्ध है कि वे विद्यालय किस समय चलते थे, औसतन कितने शिक्षार्थी (बालिकायें एवं प्रौढ़) आते थे एवं शिक्षक के तौर पर विद्यासागर के अलावे और कोई अगर थे तो वे कौन थे। खर्च के बारे में विवरण न होने पर भी वीरसिंहो गाँव में खोले गये विद्यालयों से अनुमान लगाया जा सकता है कि पढ़ाई के लिये स्लेट, पेन्सिल से किताबें आदि विद्यासागर खुद कलकत्ता से ले आते होंगे।

आज का शिक्षातंत्र  
आज हमारे देश में शिक्षा का अधिकार कानून है, राज्य शिक्षा परियोजनायें हैं। लेकिन न तो विद्यालयों में हाजिरी बनाने वाले बालक, बालिकाओं की संख्या में दर्ज वृद्धि, बीच में छोड़ जाने वालों की संख्या में कमी और न ही शिक्षा की गुणवत्ता सन्तोषप्रद है। तो क्या हमें विद्यासागर जैसे किसी एक महान व्यक्ति का इन्तजार करना होगा कि वह आयें और अपने उपर सारा बोझ लेकर जनता के उत्थान में लग जायेँ?
यह तो मजाक की बात हुई। शिक्षा पर बजट की आवंटित राशि, जो कोठारी कमीशन से लेकर पिछली कई कमिशनों की अनुशंसाओं के बावजूद, 6% तो दूर, 2% भी मुश्किल से पहुँचती है, उसे बढ़ाने की मांग पर तो हम सभी हैं। लेकिन साथ ही, प्राथमिक शिक्षा का प्रसार एवं गुणवत्ता में बेहतरी आज सम्बन्धित विभाग, शिक्षा परियोजना, जिला-स्तरीय प्रशासन, विद्यालयों के प्रधानशिक्षक एवं अन्य शिक्षकगण आदि कई पक्षों के मिलेजुले प्रयासों से ही सम्भव हो सकता है। गैर-सरकारी संगठन, अभिभावकों के प्रतिनिधि एवं अन्य सामाजिक संस्थाओं की भी इसमें भूमिका है। लेकिन विद्यासागर के प्रयासों से जो सीखने वाली बात है वह है अपनी जनता से उनकी घुलमिल जाने की आदत। वीरसिंहो गाँव में तो उनका बचपन का गाँव था। लेकिन कर्माटाँड़, बंगभूमि से दूर स्थित इस गाँव के लोगों को भी उन्होने उसी तरह अपना लिया। कथित है कि उनके आने से पहले यहाँ के बंगलाभाषी निवासियों पर मछुआरे भी विश्वास नहीं करते थे क्योंकि, उनका कहना था कि, वे मछली खरीदकर पैसे नहीं देते थे। बाहर से आने वाले मध्यवर्गीय एवं स्थानीय ग्रामीणों के बीच इतने बड़े सामाजिक दुराव को विद्यासागर ने अपने आचरण से न केवल पाटा, बल्कि वह खुद आदिवासियों के बीच देवता के रूप में प्रतिष्ठित हो गये।
मध्यवर्गीय शहरी एवं गरीब ग्रामीणों के बीच की यह दूरी आज भी मौजूद है। जबकि स्वतंत्र भारत का प्रशासनिक (शिक्षा सहित) ढाँचा जो औपनिवेशिक ढाँचे से ही उधार लिया गया है, इस दूरी को मिटाने के उद्येश्य से नहीं बल्कि बनाये रखने पर खड़ा है। आज भी आप पायेंगे कि किसी भी जिले या अनुमंडल में, आम लोगों की बातचीत में किसी ऐसे अधिकारी की तारीफ होती रहती है जो कभी वहाँ ‘बाहर से आकर पदस्थापित हुआ था’। उनके तारीफों में स्थानीय कोई नहीं होता। ठीक विपरीत, स्थानीय की तारीफ होती है उक्त इलाके के निहित स्वार्थ वाले लोगों, जमीन के मालिक, महाजन, ट्रान्सपोर्टर, ठेकेदार, ईँटभट्टे के मालिक आदि के जुबान पर, क्योंकि वह उन्हे मदद पहुँचाया करता था।
यह एक बिड़म्बना है। इसे बदलने के लिये देश के प्रशासनिक ढाँचे के प्रबन्धन का उद्येश्य बदलना होगा – सरकारी योजनाओं को जनता तक पहुँचाने को प्राथमिक बनाने के बजाय जनता को सरकारी योजनाओं तक ले आने को प्राथमिक बनाना होगा। अभी भी कहीं कहीं यह होता है। लेकिन व्यक्तिगत प्रयासों के स्तर पर। इसे संस्थागत व विभागीय प्रयास बनाना होगा। शिक्षा का अधिकार तो जनता को दे दिया गया लेकिन जनता को शिक्षित करने दायित्व से सरकार ने शायद खुद को मुक्त कर लिया। क्योंकि यह दायित्व सिर्फ नैतिक है। किसी अदालत में आप सरकार या उसके किसी अधिकारी को शिक्षा का दायित्व न निभाने के कारण अभियुक्त नहीं बना सकते। इस स्थिति को बदलनी तो होगी। कैसे, यह विचारणीय है। जनता को संघर्ष के जरिये ऐसे अधिकार लेने होंगे जिससे शिक्षा प्रशासन एवं सरकार को शिक्षा का दायित्व स्वीकारने को मजबूर किया जा सके।
साथ ही, शिक्षा के बारे में थोड़ा यथार्थपरक दृष्टि से सोचना भी होगा। नन्दन कानन में चलने वाला बालिका विद्यालय बन्द हो गया है। कई कारण हैं उसके। निजी तौर पर एक विद्यालय खोलने की बात चल रही थी। हालाँकि, बात कितनी बढ़ी है मालूम नहीं, लेकिन शायद यह शर्त था कि विद्यालय अंग्रेजी माध्यम का होगा (पहले वाला बंगला माध्यम का था); बंगला एक आवश्यक भाषा विषय होगा। हमारी समझ है कि यह व्यवहारिक है अभी। मातृभाषा में शिक्षा पर हमारा प्रचार जारी रहे क्योंकि वही विज्ञानसम्मत है, लेकिन आज के भारत में बच्चे और बच्चों के अभिभावक, दोनों इसे मानने को राजी नहीं हैं। 

जनस्वास्थ्य – चिकित्सकीय मदद, सेवा 
नारीमुक्ति से सम्बन्धित वे मुद्दे जिन पर विद्यासागर पहले, कलकत्ता में रहते हुये लड़ रहे थे, यहाँ कर्माटाँड़ में प्रासंगिक नहीं थे। विधवाविवाह, बहुविवाह या बालविवाह की समस्या यहाँ नहीं थी। लेकिन कुछ दूसरी समस्यायें, अंधविश्वासों से सम्बन्धित, शिक्षा, चिकित्सकीय मदद और बातचीत से दूर हो सकते थे। शिक्षा पर बातें रखी जा चुकी है। चिकित्सकीय मदद या जनस्वास्थ्य के मुद्दे पर अब कुछ बातें रखी जायेगी।
शिक्षाविद, समाजसुधारक विद्यासागर चिकित्सक कैसे बने यह एक अलग कहानी है। और क्यों, होम्योपैथी पर उनका अध्ययन आम प्रचलित घरेलु होम्योपैथिक अध्ययनों से अलग था इस पर भी यहाँ चर्चा अप्रासंगिक होगी (जिस पर ये कहनेवाले भी मिलते हैं कि “अरे, एक उम्र के बाद तो सभी थोड़ी बहुत होम्योपैथी पढ़ने लगते हैं, उससे कोई चिकित्सक थोड़े ही हो जाता है!”)। होम्योपैथी के विज्ञान की बात अलग है। कठिन रोगों के इलाज में इस प्रणाली की क्षमता की बात भी अलग है। होम्योपैथी का इलाज सस्ता हुआ करता है, जिसके कारण सिर्फ भारत ही नहीं लगभग सभी देशों में गरीब जनता इसके शरण में जाती है। ठीक उसी तरह, आयुर्वेद के विज्ञान पर चर्चा अलग है। लोग इसके शरण में थक-हार कर पहुँचते है, बेशक कुछ तो चमत्कार के भरोसे, लेकिन अधिकांश इसलिये कि कई उपचार घरेलु है और सस्ता है। लेकिन और कोई उपाय नहीं बचने पर घर के जेवरात बेचकर भी लोग ऐलोपैथिक उपचार के लिये दौड़ते ही हैं। विद्यासागर भी, होम्योपैथी के अपने स्व-आहरित प्रकांड ज्ञान एवं कुछ कुछ आयुर्वेदिक उपचार की जानकारी के बावजूद, जरूरत पड़ने पर ऐलोपैथिक दवाइयों का इस्तेमाल भी करते ही थे – अपने लिये भी और दूसरों के लिये भी। यह सच्चाई उस कहानी से सामने आती है कि जब वर्धमान में मैलेरिया के प्रकोप से लड़ने के लिये राहत शिविरों से दवाइयाँ बाँटी जा रही थी और कुइनाईन कम पड़ने से सिंकोना देने की बात उठी, विद्यासागर की वह प्रख्यात उक्ति सामने आई – रोगी गरीब हो या अमीर हो बीमारी तो एक ही है, तो दवाई अलग कैसे होगी; सबको कुइनाइन देना होगा। इंसान की बराबरी पर उनकी स्पष्ट दृष्टि का उदाहरण होने से अलग इस उक्ति का यह भी महत्व है कि संश्लेषित रूप कुइनाइन तो निश्चय ही, उसका मूल जैविक रूप सिंकोना भी, दोनों ऐलोपैथी के दवाई के रूप में प्रचलित हैं। यानि चिकित्सक विद्यासागर अपने होम्योपैथी के ज्ञान के प्रयोग को प्रमुखता नहीं देकर रोग के उपचार को प्रमुखता देते थे।   
बंगाल के भूतपूर्व मुख्यमंत्री एवं प्रख्यात चिकित्सक डा॰ विधानचन्द्र राय के नाम से एक बात चलती है कि, “एलोपैथी हो या होम्योपैथी, मुख्य बात है सिम्पैथी (सहानुभूति)”। और विद्यासागर तो दया और करुणा के सागर थे। बीमार लोगों के इलाज में, अकाल और महामारी के प्रकोप में घिरे आदमियों के इलाज में उसी मानवीय करुणा से ओतप्रोत विद्यासागर कभी कलकत्ता में, कभी मेदिनीपुर में, कभी वर्धमान में और कभी कर्माटाँड़ में बदहाल जनता के बीच दिखाई पड़ते रहे।

चिकित्सा, सेवा के संस्मरण
बौद्धशास्त्रों के विद्वान महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री युवावस्था में नौकरी में योगदान सेने हेतु लखनऊ जाने के क्रम में वह अपने एक स्वजन के साथ एक रात के लिये कर्माटाँड़ उतर कर नन्दन कानन में रुके थे। उनका पूरा संस्मरण कर्माटाँड़ में विद्यासागर के जीवन के बारे में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण प्राथमिक स्रोत है। कर्माटाँड़ में विद्यासागर के चिकित्सकीय जीवन की एक झांकि हमें हरप्रसाद शास्त्री के संस्मरण से मिलता है। प्रस्तुत है उक्त संस्मरण में से वह प्रसंग जहाँ शास्त्रीजी विद्यासागर के चिकित्सकीय दिनचर्या का जिक्र करते हैं।
" … किसी दूसरे काम से गया था, लौट कर देखा विद्यासागर नहीं हैं। सारे कमरे छान मारे – नहीं हैं, रसोईघर में नहीं हैं, बगीचे में नहीं हैं, अन्त में बगीचे के पीछे एक दरवाजा देखा खुला है, लगा यहीं से निकले होंगे, तो वहीं खड़ा रहा। थोड़ी देर के बाद देखा तो खेतों के बीच से एक मेड़ पर विद्यासागर महाशय तेज कदमों से चले आ रहे हैं, बदन पसीने से लथपथ है, एक पत्थर का कटोरा है हाथ में। मुझे खड़ा देख कर पूछे, तू यहाँ क्यों? मैंने कहा, आप ही को ढूंढ़ रहा था, कहाँ गये थे? वह बोले, अरे थोड़ी देर पहले एक संथालनी आई थी। बोली, बिद्येसागर, मेरे बच्चे की नाक से हलहल खून गिर रहा है, तू अगर आये, बचाये उसको। उसी लिये मैं एक होमिओपैथिक दवा इस कटोरे में ले गया था। अद्भुत, देखा कि एक खुराक दवा से उसका खून गिरना बन्द हो गया। ये लोग अधिक दवा तो खाते नहीं, इसलिये थोड़ी सी दवा का भी उपकार मिलता है। कलकत्ता के लोगों का तो दवा खा खा कर पेट में रेत जम गया है, काफी मात्रा में दवा नहीं देने पर उन्हे उपकार नहीं मिलता। मैंने पूछा, कितनी दूर गये थे? वह बोले, वह जो गाँव दिख रहा है, डेढ़ मील होगा।"
यह तब की बात है जब मिस कार्पेन्टर को विद्यालयों का परिदर्शन कराने के क्रम में जो दुर्घटना हुई थी, उसके चलते वह लंगड़ा के चलते थे – इतना ही अधिक कि सिर्फ उनके लिये तत्कालीन कर्माटाँड़ रेलस्टेशन के प्लैटफॉर्म को सरकार द्वारा ऊँचा कराया गया था। पेट में लगी चोट भी थी जिसके चलते वह खुद थोड़ा अस्वस्थ रहा करते थे।
बाद के वर्षों में, संस्कृत कॉलेज के भूतपूर्व प्राचार्य महामहोपाध्याय नीलमणि न्यायालंकार महाशय एक बार उनके अतिथि बने। वहाँ रहते न्यायालंकार बीमार पड़े तो विद्यासागर ने अपने हाथों से उनका मलमूत्र साफ किया। कर्माटाँड़ में एक संथाल पीड़ा में था। विद्यासागर खुद उसके सिरहाने बैठ कर उसे दवा पिलाते रहे, पथ्य खिलाते रहे, खुद पकड़ कर मलमुत्र त्याग के लिये ले जाना, पूरे बदन को सहलाना… सब कुछ करते रहे। कर्माटाँड़ से ही एक बार राजनारायण बसु को उन्होने पत्र लिखा, “मैंने तय किया था कि कल या परसों आपको देखने जाउंगा, लेकिन यहाँ मैं दो मरीजों का देखभाल कर रहा हूँ। वे ऐसी स्थिति में हैं कि मुझे उन्हे छोड़ कर नहीं जाना चाहिये। इसलिये मैं देवघर जाना दो या तीन दिनों के लिये स्थगित कर रहा हूँ।”
आज स्वतंत्र भारत में, केन्द्रीय स्तर पर और राज्य के स्तर पर जनस्वास्थ्य से सम्बन्धित कई कार्यक्रम हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, सहायक स्वास्थ्य केन्द्र है, प्रसूतियों की सहायता के लिये योजनाकर्मी हैं, सस्ते में जेनेरिक दवाओं के मिलने के बन्दोबस्त किये गये हैं,… बल्कि केन्द्रीय व राज्य स्तर पर सभी चिकित्सा पद्धतियों के पढ़ाई की व्यवस्था है, आदिवासी लोकश्रुति के अन्तर्गत उपलब्ध परम्परागत दवा और उपचारों पर भी शोध, खास कर झाड़खण्ड में जरूर किये जा रहे होंगे। ऐलोपैथी के अलावे होम्योपैथी एवं आयुर्वेद की दवाओं के मानकीकरण के लिये केन्द्रीय तौर पर प्रकाशित भारत के अपने फार्माकोपिया हैं …। फिर भी स्थिति क्या है? क्या आम आदमी के जीवन में जरूरत पड़ने पर दवा एवं उपचार, प्रशिक्षित सेवायें पहुँचते हैं? क्या सिर्फ वह एक ही तथ्य जिम्मेदार है जिसे हम बार बार दोहराते रहते हैं? कि विदेश में कुल इतने लोगों पर एक डाक्टर उपलब्ध है और भारत में इतने लोगों पर! बीच बीच में यह बात अखबारों की सुर्खियों में आते रहती है कि भारत डाक्टर, विशेषज्ञ एवं पैरामेडिक्स की जबर्दस्त कमी से जूझ रहा है। लेकिन, जितने हैं, सरकारी एवं निजी, वे कितने करीब तक पहुँच पाते हैं जनता के? डाक्टरों को भगवान माना जाता है, पर वह भगवान नहीं, जिसकी कल्याणकारी रूप पर इंसान को भरोसा हो, बल्कि वह भगवान जिसके अकल्याण की शक्ति से इंसान डरता हो। डरते, डरते, मरते मरते वह डाक्टर के पास या अस्पताल में पहुँचता है। पूरी स्वास्थ्यव्यवस्था एवं आम आदमी के बीच एक अजनबीयत है।
पर इसी में वैसे डाक्टर, पैरामेडिक या विभिन्न स्वास्थ्यकर्मी भी हैं जो जनता को अपना समझ कर अपना काम करते रहे हैं। जनता के बीच उनके अपनेपन व जादुई उपचार की अनगिनत कहानियाँ हैं। आज के भारत में सच्चाई यही है कि वैसे लोग असंगठित व्यक्तिमात्र हैं जबकि जनता के स्वास्थ्य को धंधा बनाने वाली ताकतें संगठित हैं, कभी कभी तो माफिया सिंडिकेट के तौर पर। विद्यासागर को उनके द्विशत जन्मवार्षिकी पर याद करते हुये हमें उस पहले वाले दल में आने वाले लोगों के काम करने के तरीकों को रेखांकित करना होगा – विभिन्न तरीकों से। तभी उस राह पर चलने वाले लोग भी बढ़ेंगे और जनता का उन पर भरोसा भी बढ़ेगा। अगर इन दोनों के बीच यानि अच्छे डाक्टर, अच्छे स्वास्थ्यकर्मी एवं स्थानीय जनता के बीच एक बेहतर, भरोसे का रिश्ता बने तो यही माफिया सिन्डिकेटों की ताकत को भी कम करेगा और सरकार की जो भी योजनायें हैं उनका पूरा लाभ लेने के लिये भी काम करेगा। ये सारी बातें उस प्रमुख अखिल भारतीय मांग से अलग हैं कि बजट में स्वास्थ्यसेवा के लिये आवंटित राशि बढ़नी चाहिये।

कृषि में मदद
इस विषय पर प्राथमिक तथ्य अनुपलब्ध हैं। हो सकता है, इस परिचर्चा के अन्य वक्ता इस पर कुछ बेहतर रोशनी डालें। यह चर्चा कुछेक पुराने लोगों, जो पहले कभी इन्ही इलाकों में रहते थे, के संस्मरणों में आया है। उनके पूर्वज विद्यासागर के कर्माटाँड़-जीवन के बारे में बताते हुये कहते थे कि विद्यासागर स्थानीय किसानों से उनके उपज की गुणवत्ता के बारे में चर्चा करते थे एवं कलकत्ता जाने पर किसानों के लिये नये किस्म के, बेहतर उपज वाले बीज ले आते थे।
ऐसे कामों का जिक्र, या कृषि में उनकी रुचि का जिक्र, वीरसिंहो-प्रसंग में नहीं मिलता है। शायद इसलिये, कि वीरसिंहो, या घाटाल अनुमंडल या मेदिनीपुर जिला कलकत्ता से बहुत दूर नहीं है। हो सकता है, अपने गाँव के खेतों की अच्छी फसल से तुलना करते हुये ही उन्हे कर्माटाँड़ की जमीन की कमतर उपज दुखी किया हो। लेकिन विद्यासागर की मनुष्यप्रेमी प्रकृति, लोगों को अपना बना लेने और उन्हे मदद करने की ताकीद इस प्रसंग को स्वाभाविक बना देता है।
सवाल सिर्फ कृषि में मदद का नहीं है। आज झाड़खण्ड राज्य के कृषि विकास मानचित्र में जामताड़ा जिला और कर्माटाँड़ के लिये नि:सन्देह योजनायें होंगी एवं उन पर अमल किया जा रहा होगा। लेकिन सवाल है आमलोगों की आय में, रोजगार में, जीवनस्तर में उन्नति का। विद्यासागर की स्मृति को अपने अन्दर सँजोये हुये यह नन्दनकानन इस दिशा में कई तरीके से मददगार हो सकता है। विद्यासागर स्मृति रक्षा समिति की ओर से सरकार को प्रस्ताव भी दिया हुआ है कि इस परिसर में एक ‘कौशल विकास केन्द्र’ खोला जाय। कृषि को बेहतर बनाने हेतु सुझाव देने या मदद देने के लिये समुचित केन्द्र भी खोला जा सकता है।
सच पूछा जाय तो बाजार-केन्द्रित अर्थनीति का सबसे मारक प्रभाव पूरे देश में किसानों पर ही पड़ा है। किसानों को अपनी स्थिति सुधारने के लिये, जीवन-धारक कृषि (सस्टेनेंस फार्मिंग) से बाजार-केन्द्रित कृषि की ओर मुड़ने को कहा गया। जहाँ लोग माने और कर्ज लेकर नकदी-फसल उगाने लगे वहाँ शुरुआती उन्नति की तेज गति के बाद आज आत्महत्याओं का कहर है। और जहाँ बाजार-प्रभुओं का यह सन्देश नहीं पहुँचा, या कम पहुँचा, वहाँ भूख से हो रहीं मौतें, दीर्घ-कालीन धीमे अकाल का रूप ले रही हैं। एक सीमांत किसान या छोटे किसान को, उसकी जमीन का अध्ययन कर किस तरह की उपज की ओर जाना ठीक रहेगा – जीवन-धारक कृषि को पूरी तरह न त्यागते हुये भी अतिरिक्त कोई नगदी-फसल संभव है या नहीं, उसकी लागत क्या होगी, बाजार कितना दूर होगा …… ये सारी बातें बताने के लिये शायद कुछ नई पहल की जरूरत है।
सन 1952 से आज तक कई किस्म के प्रयोग किये गये हैं। पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत के साथ सामुदायिक विकास प्रखंडों का निर्माण, ग्रामस्तरीय कर्मी या ग्रामसेवकों की नियुक्ति, फिर इधल के दिनों में किसान मित्र आदि की नियुक्तियाँ हुई हैं, स्मार्ट फोन के ऐप्स बनाये गये हैं। लेकिन भीएलडब्लु हो या किसान मित्र, इन सभी का मुख्य कार्यभार सरकार की योजनाओं की जानकारी किसानों को देना है। सरकार ने किसानों के बारे में जो सोचा है वह किसानों को बताना है। किसान खुद अपनी खेती के बारे में सोचें, अपनी योजना बनाये – व्ययक्तिक एवं सामुदायिक – और इस सोच को प्रेरित करने हेतु कोई हो गाँव के करीब – ऐसी पेशकश नहीं दिखती है। लेकिन होनी चाहिये। कर्मियों को, मित्रों को एवं उन्हे नियुक्त करने वाले सरकार व प्रशासन को सही अर्थ में किसान का मित्र होना होगा।
ऐसा सोचना कि नन्दन कानन में ही इस तरह का कोई केन्द्र बने, पूरे कर्माटाँड़ प्रखंड के अन्तर्गत आने वाले सभी गाँवों के लिये – एक ख्याली पुलाव होगा। लेकिन भविष्य में ऐसा कोई किसान सहयोगी केन्द्र हो, प्रायोगिक तौर पर सोचा जा सकता है।

अंत में 
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा किये गये सभी कामों के केन्द्र में है उनकी वैज्ञानिक व तार्किक सोच एवं सोचविचार की पद्धति। उनकी वैज्ञानिक व तर्कपूर्ण सोच उनके सभी कामों में दिखाई पड़ती है। साथ ही, उस सोचपद्धति की छोटी सी झलक ‘बोधोदय’ जैसे पुस्तकों में भी दिखाई पड़ती है।
सामान्य अर्थों में विचारों के प्रचारक वह नहीं थे। इसलिये अंधविश्वासों पर उनका अलग से कोई लेखन या काम बिरले ही मिलेगा। उन्होने सिर्फ उन अंधविश्वासों के खिलाफ लिखा एवं संघर्ष किया जो सामाजिक कुरीतियाँ बन चुकी थीं, नारीजीवन को नरक की आग में धकेल रही थी एवं समाज को आगे बढ़ने से रोक रही थी। जूझे गये सामाजिक संघर्षों के लिये आवश्यक युक्तियों और तर्कों के अलावा उन्होने वैचारिक बातें नहीं के बराबर की।
अब विधवाविवाह जैसे समाजसुधार के कामों को ही लें। यह ध्यान देने योग्य बात है कि खुद जातिगत भेदभाव की भावना से ग्रसित न होकर भी उन्होने यह कह कर शुरुआत नहीं की कि जब 74% को विधवाविवाह से कोई समस्या नहीं तो 26% को क्यों? जातिप्रथा के अन्तर्गत पूरे समाज पर ब्राह्मणवाद के सांस्कृतिक वर्चस्व को वह जानते थे। इसीलिये सबसे पहले उस सांस्कृतिक वर्चस्व का प्रमुख हथियार, शास्त्रों का ही उन्होने अध्ययन किया एवं उसी का इस्तेमाल भी किया गिद्ध बने बैठे ढोंगी शास्त्रज्ञों के खिलाफ। फिर उन्होने समर्थन में खास कर वैसे लोगों को जुटाया जो नामचीन और पैसे वाले होने के कारण सरकार को प्रभावित करने की क्षमता रखते थे। फिर उन्होने सरकार को आवेदन किया। आवेदन की भाषा भी पूरी तरह कार्यनीतिक है, भावनात्मक नहीं। उसके आगे उन्होने एक तरफ वो मुहिम चलाया जिसे आज की भाषा में हम हस्ताक्षर अभियान कहते हैं। दूसरी तरफ अपनी कलम से वह लगातार उन कुतर्कों और व्यक्तिगत लांछनाओं का जबाब देते रहे जो उन्हे रोकने के लिये बरसाये जा रहे थे। आज भी एक व्यक्ति नागरिक, खास कर बुद्धिजीवी के लिये किसी सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दे पर लड़ने, आवाज को आगे बढ़ाने का यह तरीका उतना ही प्रासंगिक और शिक्षणीय है, जितना कल था। आज तो कई संगठन हैं, मंच हैं, उन्नीसवीं सदी के मध्य में तो कुछ भी नहीं था।
अंधविश्वासों, कुरीतियों एवं निरर्थक रिवाजों का विरोध तो उच्छृंखल बन कर भी किया जा सकता है, पर उन्हे समाज से समाप्त करने के लिये वैज्ञानिक सोच के आधार पर अनुशासित सामाजिक आन्दोलन की आवश्यकता होती है, जबकि व्यक्तिजीवन में आचरण में (उस सामाजिक आन्दोलन के सहारे ही सही) चारित्रिक दृढ़ता की जरूरत होती है, बड़बोलापन की नहीं।
कर्माटाँड़ में, यहाँ के स्थानीय जनजीवन के साथ जुड़ते हुये, जनता के विकास के लिये जो भी काम विद्यासागर ने किये उन सब में परिलक्षित होती रही उनकी तार्किक सोच। आज इस सोच और सोच की पद्धति की आवश्यकता बहुत अधिक हो गई है। धार्मिक व साम्प्रदायिक उन्माद से इंसान की चेतना और विवेक को बचाने के संग्राम में, गैर-तार्किक सोच की कूपमंडुकता से बाहर निकालने के संग्राम में विद्यासागर का नाम आज पूरी उन्नीसवीं सदी के सभी भारतीय विभूतियों में सबसे अधिक स्मरणीय है। उसी तरह, ग्रामीण जीवन में व्याप्त अंधविश्वासों व कुरीतियों के विरुद्ध संग्राम में भी विद्यासागर की सोच एवं कार्यपद्धति एक कारगर औजार है।         
सन 1853 में बैलेन्टाइन साहब के एक पत्र के जबाब में विद्यासागर ने लिखा, “जनता में शिक्षा का प्रसार – यह हमारी मुख्य आवश्यकता है। हमें कुछ बंगला विद्यालय स्थापित करने होंगे। इन सब विद्यालयों के लिये आवश्यक एवं शिक्षाप्रद विषयों पर कुछ पाठ्यपुस्तकों की रचना करनी होगी, शिक्षकों का दायित्वपूर्ण कर्तव्य का भार ले सके ऐसे कार्यकर्ताओं का एक दल का सृजन करना होगा – तभी हमारा उद्येश्य सफल होगा। मातृभाषा का पूरी जानकारी, तथ्यों का यथेष्ट ज्ञान, देश में व्याप्त अंधविश्वासों के कब्जे से मुक्ति – शिक्षकों में ये गुण रहने चाहिये। इस तरह के आवश्यक आदमियों का निर्माण ही मेरा उद्येश्य एवं संकल्प है।”
आज विद्यासागर नहीं हैं, लेकिन उनके पूरे जीवन का प्रकाश है हमारी इतिहासचेतना में, हमारे प्रेरणास्रोत के रूप में। अविभाजित बिहार एवं आज के झाड़खण्ड में उनके किये गये काम हैं। उनकी उपस्थिति की उज्ज्वलता है इस प्रांगण में। इसे साथ लेकर हमें अंधविश्वासों एवं सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष जारी रखना होगा। सन 1999 में अविभाजित बिहार में डायनप्रथा विरोधी कानून पारित हुआ था। झाड़खंड राज्य बनने के बाद सन 2001 में झाड़खण्ड विधानसभा ने भी डायनप्रथा विरोधी कानून को पारित किया। उक्त कानून को लागु करने के लिये प्रशासन व पुलिस है। पर अन्य कई अंधविश्वास हैं जो घातक या जीवन के विकास मे बाधक होते हुये भी प्रशासकीय तरीके से हटाया नहीं जा सकता है। उसके लिये शिक्षा के विस्तार के साथ प्रचार अभियान जरूरी है। इन्टरनेट पर हमने जामतारा जिला में एवं कर्माटाँड़ प्रखण्ड में कार्यरत एनजीओ वगैरह के नाम ढूंढ़े। जो नाम मिले वे सब ग्रामविकास या शिक्षा सम्ब्सन्धित हैं। खुद विद्यासागर स्मृति रक्षा समिति की ओर से अंधविश्वास, सामाजिक कुरीति एवं अंधश्रद्धा विरोधी एक एनजीओ बनाने का प्रयास होना चाहिये कि नहीं, उस दिशा में सोचना भी अभी दु:साहस प्रतीत होगा। लेकिन विद्यासागर के जन्म की 200वीं जयन्ती मनाते हुये उनकी वैज्ञानिक व तार्किक सोच की धारा को आगे न बढ़ायें तो अब तक की गई सारी बातें अधुरी ही रह जायेंगी।   


                 
 

 
           


Wednesday, March 6, 2019

मार्क्स एवं मार्क्सवाद


मार्क्सवाद एक जीवंत विचारधारा है । पहले विचार (या मन, चिन्तन) या पहले भौतिकता (या गोचर, यथार्थ) की वैचारिक संग्राम में यह भौतिकता के पक्ष में होता है । यानी मार्क्सवाद भौतिकतावाद है ।
लेकिन अन्य सभी भौतिकतावाद उस भौतिकता का मनन कर, उस पर ध्यान केन्द्रित कर सत्य की खोज करता है । जबकि मार्क्सवाद मानता है और आज, डेढ सौ वर्षों के वैज्ञानिक अनुसंधानों के उपरांत यह सामान्य जानकारी है कि उस भौतिकता की समझ तभी बनती है जब मानव उस पर क्रियाशील होता है ।
मतलब, पहले तो समझने और फिर बदलने या काबू में करने के लिये मानव में आई दैहिक सक्रियता को, यानी पारिपार्श्विक जगत को जीने लायक बनाने के लिये किये गये काम को भी मार्क्सवाद भौतिकता का हिस्सा मानता है । सिर्फ सूखा पेड़ ही भौतिकता नहीं, चार पायों वाला मेज और उस मेज को बनाने का श्रम भी भौतिकता है, और यह भौतिकता, मानवीय शरीरविज्ञान के नियमानुसार, मनन, चिन्तन या विचार से गुजरते हुये या उसके माध्यम से ही पैदा होता है ।  
यानी मार्क्सवाद, सत्य की खोज करते हुये अपनी जीवन व विश्वदृष्टि में प्रकृति (एवं बाद में समाज) के साथ मानव के द्वंद को, भौतिकता के साथ विचार के द्वंद और द्वंदात्मकता को भी भौतिकता में शामिल करता है ।
इस तरह मार्क्सवाद का भौतिकतावाद, द्वंदात्मक भौतिकतावाद है । बदलती भौतिकता और उसे समझने और अपनी आवश्यकता के अनुरूप काबू में करने या बदलने के लिये मानवीय संघर्ष में मार्क्सवाद जिंदा रहता है ।
मार्क्स का वह कथन विश्व में ख्यात है कि “आज तक दार्शनिकों ने विभिन्न तरीके से दुनिया की व्याख्या की है, पर सवाल उसे बदलने का है” । दर्शन भाववादी हो या भौतिकतावादी, आध्यात्मिक हो या तार्किक ... व्याख्या ही तो करता है – जगत के होने का और उसके बारे में सोच के होने का ! भारतीय शब्दावली में तत्वमीमांसा एवं ज्ञानमीमांसा करता है या अंग्रेजी में थ्योरी ऑफ बिईंग एवं थ्योरी ऑफ नॉलेज प्रस्तुत करता है । किसी भी व्याख्या को अन्तिम तौर पर सिर्फ तर्क से आप काट नहीं पायेंगे । न ही वह दर्शन सिर्फ तर्क से अपनी सच्चाई साबित कर पायेगी । अन्तत: व्यवहार में ही उसकी सच्चाई या झूठ साबित हो सकता है ।
यहीं मार्क्सवाद प्रवेश करता है शोषित, दलित जनता का पक्ष लिये हुये । दर्शन चाहिये ही क्यों ? शोषण के इस तन्त्र के खात्मे के लिये ही तो ? इसलिये, व्याख्या की सच्चाई परखने की बात हो या शोषण के विरुद्ध हमारे संघर्षों को एक जीवनदृष्टि मिलने की बात हो, ‘सवाल ... बदलने का [होता] है’ । जो बदल पायेगा वही सच है । पूरी बीसवीं सदी मानव के इतिहास में इसी बदलाव का इतिहास है । और आज इक्कीसवीं सदी में, नव-उदारवादी आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक हमलों के लगभग तीन दशकों के गुजर जाने के बाद दुनिया का जो बदसूरत शक्ल उभर कर आया है, सोवियत संघ में समाजवाद के बिखराव पर ‘इतिहास का अन्त’ लिखने वाले समाजवाद के पैरवीकार बनते दिख रहे हैं । मार्क्स की लिखी किताबों के पन्ने पलटे जाने लगे हैं ।     
वैचारिक संघर्ष का सफर
सिवाय गतिमय भौतिकता के, विश्वजगत में कुछ भी न तो स्वयंभु है न शाश्वत । मार्क्स खुद अपने दार्शनिक दृष्टि को योरोपीय भौतिकतावादी चिन्तन परम्परा के समकालीन जर्मन प्रतिनिधि लुडविग फायरबाख की आलोचना करते हुये आगे बढाते हैं तो दूसरी ओर, आगे बढाने में, हेगेल द्वारा प्रतिपादित द्वन्दात्मकता के तत्व का इस्रेमाल करते हैं । जैसा कि कहते हैं कि हेगेल के दर्शन में वह तत्व सर के बक खड़ा था, उन्होने उसे पैर के बल खड़ा किया । भाववादी हेगेल ने जिस द्वंदात्मकता के माध्यम से तर्क का ऐसा जाल खड़ा किया कि प्रुशियाई राजशाही उन्हे इश्वर द्वारा सृजित सर्वश्रेष्ठ सत्ता नजर आने लगा, भौतिकतावादी मार्क्स ने उसी द्वंदात्मकता के माध्यम से समकालीन इतिहास के सबसे क्रांतिकारी वर्ग, मजदूरवर्ग को सर्वहारा के रूप में चिन्हित किया और न सिर्फ प्रुशियाई सत्ता को बल्कि पूरे विश्व में शोषण की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिये उस सर्वहारा वर्ग को आह्वान किया ।
दुनिया के हर देश की क्रांतिकारी जनता की तरह, मार्क्सवाद की दृष्टि से अपने देश को देखते हुये हम जब अपनी दार्शनिक विरासत ढूंढते हैं तो आश्चर्यचकित होते हैं ! शोषक सामन्ती-जातिवादी, अंग्रेज-औपनिवेशिक एवं आज का इजारेदार पूंजी के नेतृत्ववाली सत्ता जिस भारतीय दर्शन के भाववादी वैभव का गुणगान करते नहीं थकती है उस भारतीय दार्शनिक परम्परा का बहुमत तो भौतिकतावादी एवं निरीश्वरवादी है !  और द्वंदात्मक दृष्टि भी भारतीय दार्शनिक परम्परा में नई नहीं है !  चार्वाक सहित हमारे लोकायत दार्शनिक कुल हैं, हमारे गौतम बुद्ध, महाबीर जैंन हैं, सांख्य हैं । मार्क्सवाद को हमने हमारी धरती में उपजाया है ।
लेनिन मार्क्सवाद के तीन स्रोत दिखाते हैं – जर्मन दर्शन, फ्रांसिसी समाजवाद एवं अंग्रेज अर्थशास्त्र । जिससे उन्ही तीन विषयों की चिन्तन परम्परा में मार्क्सवाद के तीन संघटक अंग भी उपजते हैं – द्वन्दात्मक व ऐतिहासिक भौतिकतावाद, पूंजीवाद की सम्यक अर्थशास्त्रीय आलोचना एवं वैज्ञानिक समाजवाद । एंगेल्स ने (मुख्यत:, हालाँकि मार्क्स ने भी इसमें जब मौका मिला मदद की) चौथे और पाँचवें संघटक अंग को विकसित किया, प्रकृति-विज्ञान (प्रकृति की द्वन्दात्मकता) एवं नृतत्वविज्ञान (परिवार, निजी सम्पत्ति एवं राज्यसत्ता की उत्त्पत्ति) । लेनिन ने पूरी मार्क्सवादी सोच को ही अपने समयानुकूल आगे बढाया । उन्होने पूंजीवादी साम्राज्यवाद की सम्यक अर्थशास्त्रीय आलोचना को प्रस्तुत किया जिसके कारण पूरी दुनिया में क्रांतिकारी आन्दोलन को नई दिशा मिली । इसीलिये सोवियत क्रांति के बाद से हम मार्क्सवाद को मार्क्सवाद-लेनिनवाद कहने लगे । बीसवीं सदी की शुरुआत में सापेक्षता के सिद्धांत एवं क्वांटम पदार्थशास्त्र के आने के बाद जो जोरदार हमले हुये मार्क्सवादी दर्शन पर. लेनिन ने उन सबको भी परास्त किया । साथ ही सोवियत क्रांति के वाद, व्यवहार में वैज्ञानिक समाजवाद क्या रूप लेगा, इसका भी प्रतिपादन लेनिन एवं बाद में स्टालिन ने किया । इसी तरह मार्क्सवाद आगे बढा । माओ-त्से-तुंग ने इसे चीन में लागू किया तो हो-ची-मिन्ह ने वियतनाम में एवं फिदेल कास्त्रो क्यूबा में । और भी कई विश्वस्तर के नेता एवं पथप्रदर्शक आये ।
भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन के दिनों से ही भारतीय मार्क्सवादी चिन्तकों ने भारतीय चिन्तन परम्परा में मार्क्सवादी सोच के जड़ों के खोज की । औपनिवेशिक अर्थनीति के खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलन के पूंजीवादी-सामन्ती नेतृत्व जो खाका खींच रहे थे भविष्य के, उसमें मजदूरों, किसानों एवं गरीब जनता के हितों वाले मुद्दों को शामिल करवाया एवं सवतंत्रता आन्दोलन में सबसे आगे बढकर शरीक होते हुये उसके आगे के काम को चिह्नित किया । सीपीआई(एम) का घोषणापत्र उन्ही संघर्षों से उभर कर कम्युनिस्ट आन्दोलन में शामिल होती धाराओं की पहचान करते हुये आगे के काम का, जनता की जनवादी क्रांति के समझ की व्याख्या करता है ।
मार्क्स का प्रारंभिक जीवन
जर्मनी के ट्रियेर शहर में एक संभ्रांत वकील हाइनरिख मार्क्स एवं उनकी पत्नी हेनरियेट का नौवां सन्तान थे कार्ल मार्क्स । सन 1818 के 5 मई को उनका जन्म हुआ था ।
आंदोलनों का योरप - 12 साल की उम्र में जब उन्हे स्कूल की पढाई के लिये ट्रिएर जिमनैशियम में भर्ती किया गया उस समय जर्मनी के पड़ोस के देश फ्रांस, बेल्जियम और पोलैंड में क्रांति की लहर दौड़ रही थी । स्कूल के दूसरे वर्ष में बालक मार्क्स ने जर्मनी की एकीकरण के लिये राजनीतिक प्रदर्शन होते हुये देखा जबकि चौथे साल में सुना कि फ्रांस के लियॉन्स के इलाके में कपड़ा उद्योग के मजदूरों ने बगावत कर दिया है । स्कूल की पढाई पूरी कर बॉन विश्वविद्यालय में कानून के छात्र के रूप में भर्ती होते होते वह अखबारों में पढते रहे, चर्चायें सुनते रहे कि इंग्लैंड में आम जनता के बीच चार्टिस्ट आन्दोलन जबर्दस्त ढंग से आगे बढ रहा है । (यहाँ यह बात याद रखनी चाहिये कि अट्ठारहवीं सदी के अन्त के दशकों में इंग्लैंड में हुई औद्योगिक क्रांति एवं फ्रांस में हुई राजनीतिक क्रांति ने इन दोनों देशों को योरप के सभी देशों के लोगों और खास कर युवाओं के बीच चर्चा के केन्द्र में ला दिया था । वे इन दोनों देशों में होने वाली घटनाओं से अपने अपने देशों में बदलाव लाने के लिये प्रेरित होते थे ।)
जीवन के ध्येय के बारे में सोच - मार्क्स-एंगेल्स की प्रकाशित ग्रंथावली में मार्क्स का जो पहला लेखन मिलता है वह एक निबंध है । निबंध में उन्होने बताने की कोशिश की है किसी आदमीं को अपने जीवन में पेशे का चुनाव क्यों और कैसे ध्यानपूर्वक करना चाहिये । 17 वर्ष की उम्र में लिखा गया यह निबंध मार्क्स के जीवन को समझने के लिये महत्वपूर्ण है । निबंध के अन्त में वह निष्कर्ष करते हैं कि, “अगर हम जीवन में ऐसी जगह चुनें जहाँ से हम मानवजाति के लिये सबसे अधिक काम कर सकें, तो कोई भी बोझ हमें दबा नहीं पायेगा । क्योंकि वे त्याग हम सबकी भलाई के लिये करेंगे । जो खुशी हमें प्राप्त होगी वह क्षुद्र, सीमित और स्वार्थी नहीं होगी, बल्कि वह खुशी लाखों आदमियों की होगी । हमारी कृतियाँ बिना किसी शोरगुल के लेकिन निरंतर आगे किये जा रहे कामों में जिन्दा रहेंगी एवं हमारी राख पर अच्छे लोगों के गर्म आँसू गिरेंगे ।” 
शुरुआती दिनों के लेखन से यह भी पता चलता है कि स्कूली पढाई से अलग वह ध्यान से दर्शन की पढाई किया करते थे, भावपूर्ण एवं ओजपूर्ण कवितायें लिखने लगे थे लेकिन पहला बड़ा निबंध भी उन्होने दार्शनिक विषय पर ही लिखा था, अपने सोच वह अपने पिता से बाँटा करते थे । जबकि माँ से उनकी दिल की बातें होती थी । परिवार को पता था कि जेनी वॉन वेस्टफैलेन नाम की लड़की से उन्हे प्यार हो गया था ।  
बर्लिन विश्वविद्यालय के दिन - सन 1836 की गर्मियों में 18 वर्ष की उम्र में मार्क्स अपनी प्रेमिका जेनी वॉन वेस्टफैलेन के साथ वैवाहिक शपथ के सुत्र में बंधे और अक्तूबर आते आते वह जर्मनी की राजधानी बर्लिन आ गये । बर्लिन विश्वविद्यालय में कानून का छात्र बने और साथ ही, युवा हेगेलियन डॉक्टर्स क्लब के सदस्य बने । विश्वविद्यालय की पढाई के साथ साथ वह फुरसतों में, हेगेल्स के दर्शन की गंभीर अध्ययन करने लगे । सन 1838 में उनके बीसवें जन्मदिन के पांच दिन बाद उनके पिता की मृत्यु हो गई ।
पहला राजनीतिक लेखन - सन 1841 में मार्क्स ने बर्लिन विश्वविद्यालय से कानून में स्नातक किया तथा जेना विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट प्राप्त किया । अगले वर्ष उन्होने तत्कालीन प्रुशियाई (जर्मनी, ऑस्ट्रिया एवं कुछ अन्य इलाकों को मिलाकर बना साम्राज्य) सरकार की नई सेन्सर-नीति के खिलाफ एक लेख तैयार किया – यह उनके अखबारी लेखन की शुरुआत थी जो उन्होने प्रुशीय सामन्ती-राजतंत्र के खिलाफत से किया । इस लेख के प्रकाशन के बाद वह कोलोन शहर से उदारपंथी बुर्जुवा वर्ग द्वारा प्रकाशित राइनिशे जाइटुंग के नियमित लेखक बन गये । अपने लेखों में वह मेहनतकश जनों के अधिकारों की रक्षा की जरूरत पर जोर डालते थे । सन 1842 के अक्तूबर में मार्क्स राइनिशे जाइटुंग के प्रधान सम्पादक बन गये । उनके कार्यकाल में अखबार का तेवर हर दिन और अधिक जनवादी और क्रान्तिकारी होता गया । क्रान्तिकारिता में साम्य के दर्शन की पैठ बढने लगी । इसी समय, राइनिशे जाइटुंग के दफ्तर में एक दिन एक युवक प्रधान सम्पादक कार्ल मार्क्स से मिलने पहुँचे । युवक का नाम था फ्रेडरिक एंगेल्स ।   

एंगेल्स से दोस्ती
एंगेल्स का प्रारंभिक जीवन - जर्मनी के बार्मेन शहर के कपड़ा उद्योग में एक उद्योगपति थे फ्रिडरिश एंगेल्स एवं उनकी पत्नी थी एलिसाबेथ । फ्रेडरिक उनके पहले संतान थे एवं उनका जन्म 28 नवम्बर 1820 में हुआ । अमीर घर में लाड़प्यार से पल रहे थे प्रेडरिक लेकिन 17 वर्ष के होते होते वह निरीश्वरवादी विचारों के प्रबल समर्थक और प्रचारक बन गये । उन्हे हाइ स्कूल छोड़ना पड़ा । यहाँ तक कि उनके नाम से गिरफ्तारी का वारंट निकल गया और माँ-बाप से उनके रिश्ते में भी कड़ुवापन आ गया । पिता ने उन्हे ब्रेमेन शहर में, एक कम्पनी में बिना वेतन के किरानीगिरी करने के लिये भेज दिया । ब्रेमेन में एंगेल्स ने भी मार्क्स की तरह उस समय के सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिक हेगेल को पढना शुरू किया । साथ ही, साहित्यिक तथा सांवादिक लेखन करने लगे । उनके लेखन में वह औद्योगीकरण की सामाजिक बुराईयों की ओर जनता का ध्यान आकर्षित किया । ये लेखन वह छद्मनाम से करते थे ताकि उनके माँ-बाप पर पुलिसिया कार्रवाई न हो । सन 1841 में उन्होने प्रुशियाई सेना में सैन्य सेवा पूरा किया । सैन्य सेवा के क्रम में उन्हे बर्लिन आने का मौका मिला जहाँ वह बर्लिन विश्वविद्यालय में क्लास भी करने लगे । वह युवा हेगेलियन गुट में शामिल हो गये तथा राइनिशे जाइटुंग में अनाम लेखों के माध्यम से उन्होने कारखाना-मजदूरों के रोजगार व जीवन की दयनीय स्थिति पर प्रकाश डालना शुरू किया ।
उसी समय यानी सन 1842 में, सैन्य सेवा पूरी करने के बाद उनके पिता ने माँ की सहमति से उन्हे इंग्लैंड चले जाने को कहा । एंगेल्स के लिये वहाँ काम भी पहले से तय था । मैंचेस्टर शहर में स्थित एक मिल के दफ्तर में उन्हे काम करना था । उनके माता-पिता की समझ थी कि इंग्लैंड में रहकर काम करते हुये युवा फ्रेडरिक के उग्र विचार शायद थोड़े नरम हो जायें । इंग्लैंड जाने के रास्ते में एंगेल्स कोलोन पहुँचे और सन 1842 के नवम्बर महीने में किसी एक दिन राइनिशे जाइटुंग के दफ्तर में जाकर सम्पादक कार्ल मार्क्स से उन्होने भेंट किया ।
ऐतिहासिक भेंट - यह भेंट ऐतिहासिक थी । एक ऐतिहासिक व कालजयी मित्रता की यहाँ शुरुआत हुई । इस मित्रता के व्ययक्तिक पहलुओं को छोड़ सिर्फ सामाजिक पाहलुओं या उससे भी अधिक ज्ञान की ऐतिहासिक विकास के पहलू पर नजर डालें तो दिखेगा कि मार्क्सवाद के सैद्धांतिक सुत्रों का प्रणयन भले ही सिर्फ मार्क्स का हो, व्यवहारिक तौर पर सम्पूर्ण मार्क्सवादी दर्शन वस्तुत: मार्क्सवादी-एंगेल्सवादी दर्शन है । हालाँकि एंगेल्स ने जोरदार ढंग से ऐसा कहने से अस्वीकार किया था और मना किया था क्योंकि मूल दार्शनिक तत्व मार्क्स का दिया हुआ है ।
इसी  दार्शनिक, राजनीतिक, अर्थनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक मित्रता के फलस्वरूप पूरे विश्व में, सभी देशों में, मानव के सामाजिक विकास में, मानवता और ज्ञान के विकास में आगे आने वाले दिन मार्क्सवाद से प्रभावित, यानी मेहनतकश जनता के स्वतंत्र क्रांतिकारी आन्दोलनों से प्रभावित एवं वैज्ञानिक समाजवाद की भविष्यदृष्टि से प्रभावित दिन बने – आज भी बन रहे हैं । (आज भी जब मौजूदा जनविरोधी भारत सरकार, भाजपा एवं रास्वस इतिहासविरोधी, ज्ञानविरोधी, तर्कविरोधी मुहिमें चला रही होती है तो मार्क्सवादी दृष्टि से उस मुहिम के विरोध के लिये जिन पाठों की सबसे अधिक जरूरत होती है वे एंगेल्स के लिखे हुये होते हैं ।) 

फ्रांसिसी समाजवादियों एवं अंग्रेज अर्थशास्त्रियों का अध्ययन
सरकारी दमन का सामना - सन 1843 की शुरुआती महीनों में राइनिशे जाइटुंग पर सरकारी दमन का चक्र चलना शुरू हो गया । मार्क्स को सम्पादक के पद से इस्तीफा देना पड़ा, अखबार पर पाबन्दी लगा दी गई और जर्मनी या प्रुशीय इलाकों में रहना मुश्किल हो गया । फिर भी कुछ दिनों तक किसी छोटे शहर में, जहाँ जेनी और उसका परिवार रहता था, रहकर कुछ लिखने पढने की कोशिश की, एक महत्वपूर्ण कृति, ‘हेगेल के विधिदर्शन की आलोचना में योगदान’ का लेखन शुरू किया पर पूरा नहीं कर सके ।
जेनी से शादी और पैरिस प्रस्थान - 19 जून, 1843 को मार्क्स ने जेनी वॉन वेस्टफैलेन से शादी की और अक्तूबर में पैरिस चले आये । पैरिस में उन्हे काल्पनिक समाजवादियों और अंग्रेज व फ्रांसिसी अर्थशास्त्रियों के कामों एवं रचनाओं का गहराई से अध्ययन करने का मौका मिला । पैरिस में वह मजदूरों की बैठकों में जाने लगे एवं मजदूरों के संगठनों, समितियों के नेताओं से भी मिलने लगे । एक पत्रिका निकालने की बात जर्मनी में रहते ही उन्होने कर रखी थी पर उस पत्रिका की बस एक ही युग्म-अंक फरवरी 1844 में प्रकाशित हो पाई । लेकिन मार्क्स ने तब तक भौतिकतावाद को अपने दर्शन के रूप में स्वीकार लिया था एवं साम्यवाद की भविष्यदृष्टि को भी स्वीकार लिया था ।
मार्क्स ने अब एक और महत्वपूर्ण कृति, ‘आर्थिक एवं दार्शनिक पाण्डुलिपि’ की रचना शुरू किया । बाद में ‘1844 की आर्थिक एवं दार्शनिक पाण्डुलिपि’ के नाम से इस पुस्तक का प्रकाशन हुआ था एवं आज भी मार्क्सवादी दर्शन के कई पहलुओं को समझने में इस पुस्तक का अध्ययन जरूरी हो जाता है ।
पहली संयुक्त कृति का लेखन - उसी वर्ष मई महीने में उनकी पहली बेटी का जन्म हुआ । एक पत्रिका में छपे लेख में उन्होने साइलेशिया के कपड़ा मजदूरों के बगावत को मजदूरवर्ग की बढती ताकत की सूचना के रूप में देखा जिसकी बहुत चर्चा हुई पैरिसीय पाठक समाज में । 28 अगस्त को एंगेल्स से मुलाकात हुई और दोनों ने साथ साथ काम करने को ठान लिया । उनकी पहली संयुक्त कृति, ‘पवित्र परिवार या...’ पर काम शुरू हो गया । कुछ दिन साथ काम करने के बाद एंगेल्स जर्मनी में अपने घर चले गये । वहाँ उन्होने स्वतंत्र रूप से एक अत्यन्त महत्वपूर्ण आर्थ-सामाजिक दस्तावेज ‘इंग्लैंड में मजदूरवर्ग की स्थिति’ पर काम शुरू किया । इधर प्रुशियाई सरकार के दबाव के कारण फ्रांसिसी सरकार ने भी मार्क्स को पैरिस में रहने नहीं दिया और सन 1845 के जनवरी में वह ब्रसेल्स चले गये । उधर फरवरी में मार्क्स और एंगेल्स की पहली संयुक्त कृति, ‘पवित्र परिवार या ...’ का प्रकाशन हुआ । अप्रैल के महीने में मार्क्स ने एक सैद्धान्तिक प्रस्तावना लिखा । महज चार पृष्ठों के इस सुत्रबद्ध प्रस्तावना का नाम थी ‘फायरबाख पर थिसिस’ ।
फायरबाख पर थिसिस - जिस समय प्रुशियाई सत्ता के समर्थक होते हुये भी अपनी अद्भुत द्वंदात्मक दार्शनिक दृष्टि के कारण भाववादी हेगेल की तूती बोलती थी, मार्क्स और एंगेल्स जैसे सत्ताविरोधी तीक्ष्ण-मेधा के युवा हेगेल के अनुयायी बन कर ‘सायंस ऑफ लॉजिक’, ‘फेनोमेनॉलॉजी ऑफ माइन्ड’, ‘फिलॉसॉफी ऑफ हिस्ट्री’ जैसे पुस्तकों का अध्ययन कर रहे थे, उसी समय जर्मनी में भौतिकतावादी दार्शनिक परम्परा के अग्रगण्य मस्तिष्क थे लुड्विग फायरबाख । मार्क्स और एंगेल्स को अपने भौतिकतावाद को स्थापित करने के लिये जरूरी थी फायरबाख के भौतिकतावादी दर्शन की सीमाओं को तोड़ कर आगे बढना । ‘थीसिस ऑन फायरबाख’ के द्वारा मार्क्स ने इसी काम की शुरुआत की । एंगेल्स ने कहा है कि यह चार पृष्ठों की सुत्रमाला, “पहला दस्तावेज है जिसमें नई विश्वदृष्टि के शानदार बीज मौजूद हैं । इसी सुत्रमाला का अन्तिम सुत्र वह वाक्य है जिसका जिक्र इस आलेख की शुरूआत में की जा चुकी है ।
‘जर्मन विचारधारा’ - सन 1845 में एंगेल्स भी बार्मेन आ गये ब्रसेल्स में रह रहे मार्क्स के करीब रहने के लिये । दोनों ने मिलकर अब पूरी समकालीन जर्मन विचारधारा, खास कर फायरबाख का दर्शन तथा कुछ अन्य जो भौतिकतावादी दर्शन के नाम पर चल रहा था, की आलोचना पर काम करना शुरू किया । अगले नौ-दस महीनों तक इस पुस्तक, ‘जर्मन आइडियोलॉजी’ पर दोनों काम करते रहे । इसी बीच, सितम्बर 1845 में मार्क्स की दूसरी बेटी का जन्म हुआ । दिसम्बर आते आते प्रुशीय पुलिस का अत्याचार इतना बढ गया कि मार्क्स ने प्रुशीय यानी जर्मन नागरिकता ही त्याग दी । जर्मन आइडियोलॉजी पूरा हो चुका था पर प्रुशीय जर्मनी में उसका छपना सम्भव नहीं था । वह छपा ही नहीं । सन 1932 में सोवियत संघ ने इस महान पुस्तक को पहली बार प्रकाशित किया । इस पुस्तक का महत्व था, ऐतिहासिक भौतिकतावाद (मानव-इतिहास के क्षेत्र में क्रियाशील द्वन्दात्मक भौतिकतावाद) के सुत्रों का अनुसन्धान । आज भी यह पुस्तक मार्क्सवादी दर्शन व इतिहास के अध्ययन के लिये ढुंढा जाता है ।
‘दर्शन की दरिद्रता’ - सन 1846-47 में मार्क्स एवं एंगेल्स विभिन्न तबकों से बातचीत तथा सांगठनिक प्रयासों के माध्यम से एक अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा संगठन बनाने की संभावना तलाशते रहे । सन 1847 की शुरुआत में मार्क्स के एक बेटे का जन्म हुआ । उस समय वह ‘दर्शन की दरिद्रता’ नाम के पुस्तक पर काम करने लगे थे । जून 1847 में इस पुस्तक का लेखन समाप्त हुआ । अगले महीने ब्रसेल्स से ही फ्रांसिसी भाषा में इसका पहला प्रकाशन हुआ ।
सभी देशों के मेहनतकशों – एक हो ! - अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा संगठन की संभावना तलाशते हुये जून 1847 में ही एंगेल्स लन्दन में ‘लीग ऑफ द जस्ट’ नाम के एक संगठन की एक सभा में शामिल हुये । उसी सभा में संगठन का नया नामकरण ‘कम्युनिस्ट लीग’ किया गया । नये संगठन के नियमों के लेखन सम्बन्धित कमिटी में एंगेल्स भी शामिल थे । लीग ने मार्क्स और एंगेल्स के सुझाव पर संगठन के लिये नया लक्ष-वाक्य स्वीकार किया – ‘सभी देशों के मेहनतकशों – एक हो !’ आगे, लीग ने एंगेल्स वाली कमिटी द्वारा बनाये गये नियमावली को अपने अगले कांग्रेस में स्वीकृत किया तथा मार्क्स और एंगेल्स की सोच को सर्वसम्मति से मानते हुये उन्हे ही जिम्मा दिया कि वे लीग का कार्यक्रम लिखें ।
‘मजदूरी, श्रम एवं पूंजी’ - साल भर मार्क्स और एंगेल्स ब्रसेल्स एवं अन्य शहरों में मजदूरों की समितियाँ, जनतांत्रिक समितियाँ एवं इसी तरह के जुझारू संगठन खड़े करने में व्यस्त थे । दिसम्बर में जर्मन श्रमिक समाज में उन्होने एक व्याख्यानमाला प्रस्तुत किया जो बाद में ‘मजदूरी, श्रम एवं पूंजी’ नाम से एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुआ ।
कम्युनिस्ट घोषणापत्र
क्रांति की ज्वालायें तो पूरे योरप में जहाँ तहाँ पिछले दो दशक से भड़क रही थीं । सन 1848 के जनवरी-फरवरी में इटली और फ्रांस पूरी तरह क्रांति की लपट में आ गया । मार्क्स और एंगेल्स स्थिति को भाँप रहे थे । योरप के हर देश में क्रांति का झंडा लेकर मजदूरवर्ग आगे बढ रहा है, हर बैरिकेड पर मजदूर खड़ा है पर उनके हाथों में जो झंडा है उस पर पूंजीवादी नारा, ‘मुक्ति, समानता और भ्रातृत्व’ लिखा हुआ है । ये नारे तो लगभग 70 साल पहले परखे जा चुके थे !  इन्ही नारों पर पूंजीवाद ने सामन्तवाद को परास्त किया था एवं अपना शासन कायम किया था । पर हुआ क्या ? मजदूरॊं को न्याय मिला ? नहीं । तो?
पहले ही कम्युनिस्ट लीग ने मार्क्स और एंगेल्स को उनका कार्यक्रम लिखने का जिम्मा दिया था । तो मार्क्स और एंगेल्स ने वैज्ञानिक समाजवाद के कार्यक्रम को पहली बार उद्घाटित किया । फरवरी 1848 में ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ लन्दन से प्रकाशित हुआ ।
इस घोषणापत्र में चार अध्याय थे – (1) बुर्जुवा एवं सर्वहारा, (2) सर्वहारा एवं साम्यवादी, (3) समाजवादी एवं साम्यवादी साहित्य एवं (4) मौजुदा विभिन्न विपक्षी पार्टियों के सापेक्ष साम्यवादियों की स्थिति ।
घोषणापत्र के प्रकाशन के 35 साल बाद, यानी मार्क्स के निधन के बाद इसके एक जर्मन संस्करण की भूमिका में (जून 28, 1883) एंगेल्स के लिखे एक अंश का सारार्थ यहाँ प्रस्तुत है ।
“पूरे घोषणापत्र में प्रवाहित मूल भावना है –
1)आर्थिक उत्पादन एवं हर ऐतिहासिक युग में उस उत्पादन के कारण बनता समाज का ढाँचा उस युग के राजनीतिक एवं बौद्धिक इतिहास की बुनियाद होता है;
2) फलस्वरूप, (जमीन के प्रागैतिहासिक सामुदायिक स्वामित्व की समाप्ति के बाद का) पूरा इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है, शोषित एवं शोषकों के संघर्षों का इतिहास, समाज विकास के विभिन्न चरणों में आधिपत्य झेलने वाले और आधिपत्य करने वाले वर्गों के संघर्षों का इतिहास रहा है;
3) और अब, यह संघर्ष एक ऐसे चरण पर पहुँचा है जहाँ शोषित एवं दमित वर्ग (सर्वहारा) पूरे समाज को शोषण, दमन, वर्ग संघर्षों से हमेशा के लिये मुक्त किये बगैर खुद को उस वर्ग से मुक्त नहीं कर पायेगा जो (बुर्जुवा) इसका शोषण एवं दमन करता है ।“
अगली पंक्ति में एंगेल्स यह भी लिखते हैं कि “यह मूल भावना सिर्फ और विशेष तौर पर मार्क्स का ही है” ।

साम्यवाद का भूत - कम्युनिस्ट घोषणापत्र का वैचारिक प्रभाव 1848 में हुये क्रांतिकारी गतिविधियों पर बहुत नहीं पड़ा । लेकिन पिछले सौ वर्षों से यह पुस्तिका दुनिया की सभी भाषाओं में अनुदित एवं सबसे अधिक बिकने वाली पुस्तिकाओं में से एक रही है । घोषणापत्र के सन 1890 में प्रकाशित जर्मन संस्करण की भूमिका में 1 मई को एंगेल्स लिखते हैं –
“ ‘सभी देशों के मेहनतकश, एक हो’ ! लेकिन कुछ ही आवाजों का साथ मिला जब 42 वर्ष पहले, जब उस पैरिसीय क्रांति, जिसमें पहली बार सर्वहारा अपनी मांगों के साथ सड़कों पर आया, के प्रारंभ में हमने दुनिया में इस नारे को बुलन्द किया था । हालाँकि, 28 सितम्बर 1864 को, गौरवपूर्ण स्मृतिओं के धनी इन्टरनैशनल वर्किंग मेन्स एसोसियेशन में अधिकांश योरोपीय देशों के सर्वहाराओं ने हाथ मिलाया ।“
 लेकिन जैसा कि घोषणापत्र के प्रारंभ में ही कहा गया था कि, ‘साम्यवाद का भूत योरोप पर मंडरा रहा है...’ और कि सभी देशों के सत्तापक्ष विपक्ष पर साम्यवादी होने का आरोप लगा रहे हैं एवं सभी विपक्षी पार्टी अपने से अधिक सत्ताविरोधी एवं अपने से अधिक प्रतिक्रियावादी, दोनों ही किस्म के विपक्षी पार्टियों पर साम्यवादी होने का आरोप लगा रही है...!  भूत के डर का सीधा असर मार्क्स की जिन्दगी पर पड़ा । फरवरी के अन्त में कम्युनिस्ट घोषणापत्र प्रकाशित हुआ और मार्च के 3 तारीख को बेल्जियम (जिसका राजधानी था ब्रसेल्स) के राजा ने मार्क्स को 24 घंटे के भीतर देश छोड़ने का आदेश दिया । ब्रसेल्स की कम्युनिस्ट लीग ने खुद को भंग घोषित किया और मार्क्स को जिम्मा दिया गया कि वह पैरिस में लीग के केन्द्रीय नेतृत्व को पुनर्गठित करे । 18 घन्टों के लिये मार्क्स एवं उनका परिवार ब्रसेल्स पुलिस के गिरफ्तारी में रहा । फिर वे फ्रांस के लिये रवाना हो गये ।
कोलोन से न्यु राइनिशे जाइटुंग - लेकिन क्रांति की लहर रुकी नहीं । विभिन्न देशों में उठते हुये वह अन्तत: जर्मनी भी पहुँची एवं आशान्वित होकर क्रांति में भाग लेने के लिये मार्क्स एवं एंगेल्स जर्मनी में प्रवेश किये और कोलोन पहुँचे । 1848 के 31 मई को 1 जून की तारिख वाला ‘न्यु राइनिशे जाइटुंग’ कोलोन से प्रकाशित हुआ । मार्क्स इसके मुख्य सम्पादक थे जबकि एंगेल्स इसके सम्पादक ।
क्रांति और बगावतों की लहरें तो बढ रही थीं पर प्रतिक्रांति की ताकतें भी कमजोर नहीं हुई थी । मेहनतकशों की अपनी मांगें जरूर थीं पर मुख्य राजनीतिक सवाल था बुर्जुवा जनतंत्र की स्थापना (जहाँ राजतंत्र था) या पुनर्स्थापना (जहाँ राजतंत्र या एकाधिपत्य की वापसी हुई थी) । नेतृत्व में थे ढुलमुल नेता व पार्टियाँ । न्यु राइनिशे जाइटुंग पर मुकदमा लाद कर मार्क्स और एंगेल्स की आवाज को दबाने की कोशिश की गई । पर उसमें प्रुशीय सत्ता को असफलता हाथ लगी । मार्क्स तो पूरे तन-मन-धन से लगे हुये थे अपने अखबार के माध्यम से क्रांति को दिशा देने में, उधर एंगेल्स सीधे तौर पर बगावती कार्रवाइयों में हिस्सा ले रहे थे । सन 1849 के मई महीने में प्रुशीय सरकार ने मार्क्स को प्रुशिया छोड़ने का आदेश दिया । उधर एंगेल्स पर बगावत में हिस्सा लेने के आरोप पर कानूनी कार्रवाई शुरू हुई । मार्क्स पैरिस पहुँचे पर अगस्त में पैरिस के प्रशासन ने भी उन्हे 24 घन्टे के अन्दर पैरिस छोड़ने का आदेश दिया ।
लन्दन आगमन - 26 अगस्त 1849 को मार्क्स लन्दन पहुंचे । सितम्बर में उनका परिवार पहुँचा । नवम्बर में एंगेल्स भी लन्दन पहुँचे ।
दोनो लन्दन से ही योरोपीय क्रांति के लहरों को आगे बढाने एवं दिशा देने का काम, सांगठनिक तौर पर एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिख कर करते रहे । क्रांति बनाम प्रतिक्रांति का संग्राम 1855-56 तक चलता रहा । अन्तत: कुछेक सुधारों के साथ प्रतिक्रांतिकारी ताकतें ही सत्तासीन रहीं । मार्क्स की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी । इसी बीच जन्मे एक बेटे और एक बेटी के मृत्यु का दंश भी उन्हे और उनकी पत्नी जेनी को झेलना पड़ा । हालाँकि इसी अवधि में, 1855 में छोटी बेटी का जन्म हुआ जो बड़ी होकर अपनी दीदीयों की तरह ही खुद भी मार्क्सवाद की सिपाही बनी । पत्नी जेनी के साथ दिये बिना और एंगेल्स की मदद के बिना जीना और काम करना मुश्किल होता गया ।
‘लुइ बोनापार्ट का 18वीं ब्रुमेयर’ - इस बीच मार्क्स ने असंख्य अखबारी लेखों के साथ साथ दो चार अति महत्वपूर्ण राजनीतिक दस्तावेजों की भी रचना की जिसमें प्रमुखतम था ‘लुइ बोनापार्ट का 18वीं ब्रुमेयर’ । काम चलता गया । लेकिन मार्क्स को लगा कि अब उन्हे पूरा ध्यान राजनीतिक अर्थशास्त्र की अब तक के अध्ययन को एवं अनुसंधानों को सुत्रबद्ध करने पर देना चाहिये । इसलिये घर पर या नियमित तौर पर ब्रिटिश म्युजियम के पुस्तकालय में जाकर वह राजनीतिक अर्थशास्त्र के अध्यतन को आगे बढाने लगे एवं उनकी सबसे महत्वपूर्ण कृति, ‘पूंजी’ की पाण्डुलिपि को तैयार करने लगे ।  

सन 1857 का भारत और मार्क्स
विश्वक्रांति में एशियाई उपनिवेशों की भूमिका - शुरु से ही मार्क्स इस बात को समझ रहे थे कि क्रांति पूरी दुनिया में हो इसका पूर्वशर्त होगा कि एशिया में, जो कि योरोपीय देशों के उपनिवेश में तब्दील है पिछले सौ-दोसौ सालों से, कुछ क्रांतिकारी बदलाव के चिह्न नजर आयें । उसमें भी चीन और भारत का स्थान सर्वोपरि था क्योंकि, अव्वल तो ये देश बड़े थे । साथ ही ये देश बुर्जुवा आर्थिक क्रांति सम्पन्न कर चुके एवं औद्योगिक रूप से सबसे आगे बढे हुये देश इंग्लैंड के राजनीतिक दायरे में थे । चीन पूरा उपनिवेश नहीं था । वहाँ का इतिहास अलग था एवं मार्क्स उस पर अलग से लिखते हैं । भारत उपनिवेश था । वह भी सीधे अंग्रेज सरकार के अधीन नहीं बल्कि एक कम्पनी के एकाधिकार के मार्फत । यानी गुलामी की जंजीरें यहाँ ज्यादा घाव पैदा कर रहे थे । अपने राजनीतिक अखबारी लेखों के माध्यम से वह 1853 से ही भारत की स्थिति पर नजर रखने लगे । ब्रिटिश कॉमन्स में भारत पर जब बहसें होती थी तो वह अंग्रेज सांसदों के ढोंग और ढकोसलों पर टिप्पणी करते थे एवं भारत में ब्रिटिश शासन को वह लूट के तन्त्र के रूप में देखते थे ।
ब्रिटिश शासन - 25 जून 1853 के न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून में उन्होने लिखा,हिंदुस्तान में जितने भी गृहयुध्द छिड़े हैं, आक्रमण हुए हैं, क्रातियां हुई हैं, देश को विदेशियों द्वारा जीता गया है, अकाल पड़े हैं वे सब चीजें ऊपर से देखने में चाहे जितनी विचित्र रूप से जटिल, जल्दी-जल्दी होने वाली और सत्यानाशी मालूम होती हों, लेकिन वे उसकी सतह से नीचे नहीं गई हैं। पर इंगलैंड ने भारतीय समाज के पूरे ढांचे को ही तोड ड़ाला है और उसके पुनर्निर्माण के कोई लक्षण अभी तक दिखलाई नहीं दे रहे हैं।
दो महीने के बाद  8 अगस्त 1853 के न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून मे उन्होने लिखा, “विध्वंस के खंडहरों में पुनर्रचना के कार्य का मुश्किल से ही कोई चिह्न दिखलाई देता है।.... फिर भी यह कार्य शुरू हो गया है। पुनर्रचना की पहली शर्त यह थी कि भारत में राजनीतिक एकता स्थापित हो और वह महान मुगलों के शासन में स्थापित एकता से अधिक मजबूत और अधिक व्यापक हो। इस एकता को ब्रिटिश तलवार ने स्थापित कर दिया है और अब बिजली का तार उसे और मजबूत बनाएगा और स्थायित्व प्रदान करेगा। भारत अपनी मुक्ति प्राप्त कर सके और हर विदेशी आक्रमणकारी का शिकार होने से वह बच सके, इसके लिए आवश्यक था कि उसकी अपनी एक देशी सेना हो : अंगरेज ड्रिल-सार्जेंट ने ऐसी ही एक सेना संगठित और शिक्षित करके तैयार कर दी है। (एशियाई समाज में पहली बार स्वतंत्र अखबार कायम हो गए हैं।) इन्हें मुख्यतया भारतीयों और यूरोपियनों की मिली-जुली संतानें चलाती है और वे पुनर्निर्माण के एक नए और शाक्तिशाली साधन के रूप में काम कर रहे हैं।
लेकिन ये तो वस्तुगत शर्तें थी ! आत्मगत शर्तें ? भारतीय जनता की एकता ? एवं उनके प्रतिरोधी कार्रवाईयों की शुरुआत ?
बगावत – 1857 में बैरकपुर की घटना (मंगल पाण्डे की शहादत) से लेकर बागी सिपाहियों के दिल्ली पर कब्जा और लखनऊ पर आक्रमण तक हर सप्ताह की घटनाओं पर मार्क्स न्युयार्क डेली ट्रिब्युन में लिखते रहे । उन्होने ही पहली बार इस लड़ाई को जनता की कार्रवाई एवं प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में चिह्नित किया ।
सिपाहियों की एकता - 14 अगस्त 1857 के न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून में प्रकाशित सम्पादकीय लेख में उन्होने नोट किया, “बनारस में एक देशी रेजीमेंट से हथियार छीनने की कोशिश का सिखों के एक दल और 13वीं अनियमित घुड़सवार सेना ने विरोध किया है। यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे यह मालूम होता है कि मुसलमानों की ही तरह सिख भी ब्राह्मणों के साथ मिलकर आम मोर्चा बना रहे हैं; और, इस तरह, ब्रिटिश शासन के विरुध्द समस्त भिन्न-भिन्न जातियों की व्यापक एकता तेजी से कायम हो रही है।
भविष्य से उम्मीद - भारत के इस पहले स्वतंत्रता संग्राम को पराजित होना था । उसके कई वस्तुगत कारण थे । पूरी उन्निसवीं सदी की सबसे बड़ी सैन्य बगावत एवं जन कार्रवाई का जबर्दस्त असर पड़ा था योरोप पर । मार्क्स और एंगेल्स को भरोसा था कि आग बुझी नहीं है । राख तले दबी है । फिर उठेंगी लपटें ।
1 अक्टूबर 1858 के न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून में एंगेल्स ने लिखा, “फिलहाल, भारत को अंगरेजों ने फिर जीत लिया है। वह महान विद्रोह जिसकी चिनगारी बंगाल की सेना की बंगावत से उठी थी, लगता है, सचमुच ही खतम हो रहा है। लेकिन इस दोबारा विजय से इंगलैंड भारतीय जनता के मन पर अपना प्रभाव नहीं बैठा सका है। देशियों द्वारा किए जाने वाले अनाचारों-अत्याचारों की बढ़ी-चढ़ी और झूठी रिपोर्टों से क्रुध्द होकर अंगरेजी फौजों ने बदले की कार्रवाई के तहत जो बर्बर और जघन्य कार्य किए हैं, उनकी क्रूरता ने और अवध के राज्य को पूरे तौर से और टुकड़े-टुकड़े करके, दोनों तरफ से, हड़प लेने की उनकी कोशिशों ने विजेताओं के लिए कोई खास प्रेम की भावना नहीं पैदा की है।

पूंजी
‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान’ - सन 1859 के 11 जून को बर्लिन से प्रकाशित हुआ ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान’ का पहला खण्ड । प्रकाशन के बाद मार्क्स को खुद यह महसूस हुआ कि पूरी पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली की सम्पूर्ण आलोचना के लिये जरूरी होगा पूंजी के उत्पादन की प्रक्रिया, पूंजी के चलन की प्रक्रिया और फिर पूरे पूंजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया को तीन अलग अलग खण्डों में लिखना । इसके लिये पहले पहला खण्ड को सम्पूर्ण करना होगा एवं ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान’ के विषयवस्तु को आगे बढाने पड़ेगा । साथ ही, मार्क्स ने यह भी योजना बनाई कि विषयवस्तु पर पहले हुये कामों की एक ऐतिहासिक समीक्षा एवं आलोचना भी होनी चाहिये । ‘अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत’ के नाम से यह पाण्डुलिपि भी तीन खंडों की होगी ।
‘इन्टरनैशनल वर्किंग मेन्स एसोसियेशन’ - उधर सर्वहारा का पहला अन्तरराष्ट्रीय संगठन ‘इन्टरनैशनल वर्किंग मेन्स एसोसियेशन’ या संक्षेप में ‘प्रथम अन्तरराष्ट्रीय’ की स्थापना की तैयारी चल रही थी । 28 सितम्बर 1864 को इसकी स्थापना हो गई । अन्य कई संगठनों द्वारा बुलाये जाने पर व्याख्यान आदि देना, समसामयिक विषयों पर आलेख आदि लिखना, मजदूर आन्दोलनों पर हो रहे वैचारिक हमलों पर प्रहार करना, पारिवारिक उलझनें, शारीरिक तकलीफें ... ‘पूंजी‘ के पहले खंड यानी ‘पूंजी के उत्पादन की प्रक्रिया’ की पाण्डुलिपि तैयार करने में सात साल और लग गये ।
पहले खण्ड का प्रकाशन - 14 सितम्बर 1867 को ‘पूंजी‘ का पहला खण्ड प्रकाशित हुआ । उसके बाद से अन्तिम समय तक मार्क्स अन्य सभी कामों ए साथ साथ ‘पूंजी‘ के दूसरे और तीसरे खण्ड की पाण्डुलिपि तैयार करते रहे । दूसरे खण्ड के लिये जरूरी, जमीन की मिल्कियत सम्बन्धी सामग्रियों के लिये उन्होने रूसी भाषा भी सीखा । लेकिन अन्तत: उन खण्डों का प्रकाशन मार्क्स के मृत्यु के बाद ही हो पाया । एंगेल्स ने ही उन खण्डों का सम्पादन एवं प्रकाशन किया । ‘अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त’ का तीन खण्डों में प्रकाशन सोवियत क्रांति के बाद ही रूस में किया जा सका ।
मालों की दुनिया, पैसा-भगवान और शोषण - ‘पूंजी‘ का पहला खण्ड यानी ‘पुंजी के उत्पादन की प्रक्रिया’ एक अथाह सागर जैसा है । इसका एक सिनॉपसिस या सारसंक्षेप एंगेल्स द्वारा उसी समय तैयार किया गया था । इस ग्रंथ के आठ भाग हैं (सभी भागों में कई अध्याय हैं) – (1) माल एवं मुद्रा, (2) मुद्रा का पूंजी में तब्दीली, (3) निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन, (4) सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन, (5) निरपेक्ष एवं सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन, (6) मजदूरी, (7) पूंजी का संग्रहण, (8) प्रारम्भिक संग्रहण । पूंजी कैसे जन्म लेती है, बढती है और अपना प्रभुत्व कायम करती है इसी का वृत्तान्त है पहला खण्ड । मार्क्स दिखाते हैं, ऐतिहासिक-तार्किक पद्धति से दिखाते हैं कि पूंजी न तो आसमान से टपकती है और न जमीन फाड़ के निकलती है । वह मालों के बाजार में, मालों के चलन के साथ साथ पैसा-माल या मुद्रा-माल के चलन से बनती है ।
और पैसा या मुद्रा न तो जमीन में गड़े घड़े से निकला है और न किसी राजा के सिक्का चलाने से पैदा हुआ है । मानव समाज के शुरुआती दिनों से रोज-व-रोज का जो वस्तु-विनिमय चलता रहा है उसी के माध्यम से, हर एक खास, अतुलनीय वस्तु जैसे बस तुलनीय माल बनता है, उसी तरह कोई एक माल पैसा बनता है और फिर उस पैसा-माल के खास विनिमयता गुणों को सुरक्षित करने के लिये धातु का मुद्रा, फिर खास धातु यानी कीमती धातु का मुद्रा चलन में आता है । मार्क्स यह भी दिखाते हैं कि किस तरह यह पैसा-माल या पैसा किसी की इच्छा से नहीं बल्कि बाजार के चलन की विशेष प्रकृति के कारण एक दिन पैसा-भगवान बन जाता है ।  
और पुंजीवादी शोषण ? उसके लिये न तो धोखे की जरूरत है न कोड़े की । मनुष्य के श्रमशक्ति के माल बनने ही छुपा है उसके शोषण का रहस्य । पूंजीपति खरीदता है मजदूर का दैनिक श्रमशक्ति । चाहे घंटे के हिसाब से हो या बनाये जाने वाले मालों के हिसाब से हो, ढोये जाने वाले टोकरियों के हिसाब से हो । हर दिन श्रम करने की वह क्षमता उसमें दैहिक तौर पैदा होती है पिछले रात की नींद, दिन का भोजन और घर के सुख-चैन आदि से । इतने की कीमत तो मालिक या पूंजीपति चुका ही देता है थोड़ा उनीस-बीस के साथ ! पर बदले में पूंजीपति प्राप्त करता है वास्तविक श्रम जिसकी काबिलियत मजदूर में या किसी भी मनुष्य में लाखों वर्ष के अनुभवों से हासिल हुई है । सीधा को सीधा समझना, टेढा को टेढा समझना, छप्पर के खपरे को बारिश का पानी निकालते रहने लायक बनाना, गिनती सही सही गिनने से लेकर लकड़ी को घिस कर चिकना करना, सूत को पतला कातना, ताँत पर चादर बुनना, पिघलते लोहे की धार को साँचे की ओर मोड़ना ... सब एक जन्म के प्रशिक्षण में सम्भव नहीं है । लाखो वर्षों के श्रम ने मानव को मानव बनाया है, दिमाग की ताकत से लैस किया है ... उसका मूल्य न तो पूंजीपति चुका सकता है और न चुकाने का कोई दायित्व है उसका । वह माल का सही कीमत या दाम देने के लिये प्रतिबद्ध है । अगर मानव की श्रमशक्ति नाम के जिस माल को वह खरीद रहा है उसके मुल्य और दाम में इतना बड़ा फर्क है तो वह क्या करे ? बाजार में और किसी माल में तो मुल्य और दाम का यह फर्क नहीं है ! बल्कि मार्क्स ने ही ‘पूंजी‘ में साबित किया है कि बाजार के उतार-चढावों में मालों के दाम के गिरने-चढने की जो भी कहानियाँ हों, अन्तत: दाम मूल्य के बराबर ही होते हैं यानी मूल्य के इर्दगिर्द खिँचे रहने की प्रवृत्ति होती है दाम की । क्योंकि किसी भी माल का मूल्य उसमें जमा सामाजिक श्रम-समय होता है और वही अन्तिम नियंत्रक है दाम का । लेकिन मानवश्रम खुद एक ऐसा माल है जिसका दाम कभी मूल्य के करीब भी नहीं आ पाता है । और यही सर्जक होता है अतिरिक्त मूल्य का । जिसे बटोर कर पूंजी की यह चमत्कारी और मानवघाती सत्ता खड़ी है ।
दूसरा और तीसरा खण्ड - और भी बहुत सारे आविष्कारी तत्व है ‘पूंजी‘ के सिर्फ पहले ही खण्ड में जो शोषण की विचारधाराओं के झूठों का पर्दाफाश करते हैं । साथ ही, दुनिया को समझने में मदद करते हैं । पहले खण्ड में पूंजी का उत्पादन तो दूसरे खण्ड में, जैसा कहा गया, पूंजी का जो चलन या बहाव होता है पूरी अर्थनीति में उसका वर्णन तथा उससे उभरती वे सच्चाईयाँ हैं जो मानवीय शोषण को उजागर करती हैं । खास कर, जमीन, खदान आदि के किराये और कीमत को लेकर जो धोखा फैलाया जाता है उसका पर्दाफाश है तीसरे खण्ड में । एक तरफ पूंजीपति के उस झूठ को उजागर किया गया है जिसके तहत वह उत्पादन में लगी स्थाई पूंजी में जमीन के किराये या कीमत को भी जोड़ता है – स्थायी पूंजी यानी जमीन, कारखाना एवं मशीनें (कार्यशील पूंजी यानी कच्चा माल एवं मजदूरी) - एवं मुनाफे की लूट को न्यायसंगत ठहराता है । दूसरी ओर जमीन, खदान के मालिक सामन्त औ राजाओं का पर्दाफाश किया गया है कि वास्तविक किसानों और वाशिन्दों से छीन कर कायम किये गये झूठे परम्परागत मालिकाने के आधार पर वे खुद पूंजी के लूट का हिस्सेदार बनते हैं । तीसरे खण्ड में पहले के दोनों खण्डों को समेटते हुये पूरी पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली को उजागर किया गया है ।
यहाँ मार्क्स की दूरदृष्टि की एक उदाहरण का जिक्र करना अप्रासंगिक नहीं होगा । आज के जमाने में पर्यावरण एक महत्वपूर्ण मुद्दा है । यह भी सर्वमान्य हो चुका है कि पुंजीवाद में बड़ी कम्पनियों या कॉर्पोरेटों की लालच और लूट की प्रवृत्ति के कारण ही धरती का पर्यावरण नष्ट हो रहा है । मार्क्स ने पूंजी के तीसरे खण्ड में कहा –
“समाज के एक उच्चतर आर्थिक रूप के नजरिये से पृथ्वी पर एकल व्यक्तियों का निजी स्वामित्व उतना ही बेतुका दिखेगा जितना एक आदमी का दूसरे आदमी पर निजी स्वामित्व । यहाँ तक कि एक पूरा समाज, एक राष्ट्र या एक समय में मौजूद सभी समाज एक साथ भी पृथ्वी के मालिक नहीं हैं । वे सिर्फ इसके धारक हैं, इसका इस्तेमाल करने वाले हैं एवं परिवार के एक अच्छे पिता की तरह उन्हे अवश्य ही आने वाली पीढियों को यह पृथ्वी बेहतर स्थिति में सौंपना होगा ।“ [पूंजी, तीसरा खण्ड, अध्याय 46, पृ. 530]

पहला इन्टरनैशनल
प्रतिक्रांति का दौर - सन 1848 के दिनों की योरोपीय क्रांति की विफलता के बाद पूरे योरप में प्रतिक्रियावाद का दौर चला हुआ था । जबकि सभी देशों में पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली जोर पकड़ रही थी । सन 1789 की फ्रांसिसी क्रांति के दिनों से अलग, राजनीतिक प्रतिक्रिया एवं उभरती पूंजीवादी ताकतों के बीच दोस्तियों का कायम होना आम हो गया था । किसी देश में मजदूरों की हड़ताल होने पर उसे तोड़ने के लिये दूसरे देशों से मजदूर बुला लिये जाने लगे । बाद में देखेंगे कि किस तरह मजदूरों की पहली सत्ता को तोड़ने के लिये परम्परागत तौर पर दुशमन देशों की सरकारें भी एक दूसरे की मदद को तैयार हो गईं ।
इस स्थिति में बहुत जरूरी हो गया मजदूरों के एक अन्तरराष्ट्रीय संगठन का बनना जिसमें विभिन्न देशों की समाजवादी, वामपंथी, साम्यवादी, अराजकतावादी पार्टियाँ और गुटें भी रहें तथा ट्रेड युनियन संगठनें भी रहें ।
‘मजदूरी, दाम और मुनाफा’ - मार्क्स और एंगेल्स तो कोशिश में थे ही । सन 1863-64 आते आते और कई लोग तैयार हो गये । हालांकि ऐसा भी नहीं था कि उस समय 46 वर्ष की उम्र में मार्क्स एवं 44 वर्ष की उम्र में एंगेल्स को सभी नेता मानने लगे थे । बड़े बड़े नेता थे दूसरे । लेकिन मजदूरवर्ग, साम्यवाद एवं क्रांति के पक्षधर सबसे प्रखर विचारक के रूप में उन्हे प्रतिष्ठा मिल चुकी थी । इसलिये सन 1864 के 28 सितम्बर को जब लन्दन के सेन्ट मार्टिन्स हॉल में इन्टरनैशनल वर्किंगमेन्स ऐसोसियेशन (जो बाद में ‘पहला अन्तरराष्ट्रीय’ के नाम से जाना गया) की स्थापना हुई, मार्क्स सिर्फ इसके अस्थाई कमिटी के सदस्य चुने गये; यह कमिटी बाद में साधारण परिषद के रूप में जाना गया । लेकिन साथ ही साथ, पहले अधिवेशन की तैयारी में, मार्क्स को ही इसके तत्कालिक नियमावली, कार्यक्रम सम्बन्धी दस्तावेज एवं उद्घाटन भाषण लिखने का जिम्मा दिया गया । साधारण परिषद की ही बैठकों में मार्क्स ने ‘मजदूरी, दाम और मुनाफा’ पर व्याख्यानमाला प्रस्तुत किया जो आज पुस्तिका के रूप में हमें उपलब्ध है । इन व्याखानों के माध्यम से उन्होने भविष्य में लिखे जाने वाले ‘पूंजी‘ ग्रंथ के बुनियादी विचारों को जनसमक्ष रखा ।
अगले साल, 1865 के सितम्बर 25-29 को अन्तरराष्ट्रीय की पहली बड़ी बैठक लन्दन में हु। मार्क्स एवं एंगेल्स पहले से ही इसकी तैयारी में जुटे थे । मार्क्स ने बैठक में भाग भी लिया । बैठक में पहला सम्मेलन जेनेवा में करने का निर्णय लिया गया ।
मजदूरवर्गीय राजनीतिक ताकतों की अन्तरराष्ट्रीय एकता - सन 1866 के सितम्बर महीने में जेनेवा में अन्तरराष्ट्रीय का पहला सम्मेलन हुआ । उसके बाद कुछ समय तक हर साल इसके सम्मेलन होते गये । जेनेवा के बाद लुसान, ब्रसेल्स, बैसेल, हेग ... आप अगर विकिपिडिया देखेंगे तो पायेंगे कि सबसे अधिक लोकप्रियता के दिनों में इन्टरनैशनल वर्किंगमेन्स ऐसोसियेशन या ‘पहला अन्तरराष्ट्रीय’ के अस्सी लाख सदस्य थे पूरे योरप में, पुलिस की फाइलें भी बताती हैं कि पचास लाख सदस्य थे ।
यह एक अलग प्रसंग है कि पहला अन्तरराष्ट्रीय क्यों बिखर गया, एंगेल्स की कोशिशों से दूसरा अन्तरराष्ट्रीय कब और किन परिस्थितियों में बना और फिर लेनिन के प्रयास से बने तीसरा अन्तरराष्ट्रीय ने बीसवीं सदी में कितने काम किये । आज उस तरह का कोई स्थाई अन्तरराष्ट्रीय नहीं है । पर ट्रेड युनियनों के ट्रेड स्तरीय एवं सबको शामिल किये हुये बड़े अन्तरराष्ट्रीय संगठनें हैं । मजदूरवर्ग की पार्टियों की अन्तरराष्ट्रीय बैठकें नियमित अन्तराल पर होती हैं । आपको याद होगा कि सोवियत संघ के विघटन के बाद अन्तरराष्ट्रीय एकता की रक्षा के लिये कम्युनिस्ट व वर्कर्स पार्टियों की पहली अन्तरराष्ट्रीय बैठक नई दिल्ली में वर्ष 1993 में सीपीआईएम ने बुलाई थी ।
आज की एकता के ये स्वरूप एवं और बड़ी एकता की आगामी सम्भावनायें मार्क्स के देन हैं । 

पैरिस कम्यून
मजदूरों की पहली सत्ता - 1870 से ही पैरिस में प्रांस-जर्मनी युद्ध के नाम पर जनता पर बोझ बढाते जा रहे फ्रांसिसी सरकार के खिलाफ मजदूरों का क्रोध और क्षोभ बढता जा रहा था । क्रांतिकारी गतिविधियाँ शुरु हो गई थी । उधर मार्क्स एवं नई बनी सोश्यल डेमोक्रैटिक पार्टी ऑफ जर्मनी जर्मनी के मजदूरों के बीच प्रचार कर रहे थे कि वे अपने सरकार के युद्ध-तैयारियों का खिलाफत करे । पहला अन्तरराष्ट्रीय भी, भीतर उभर रहे कुछ विवादों के बावजूद क्रांतिकारी गतिविधियों का समर्थन कर रहा था । एक फ्रांसिसी लेखक ने तो बाद में यह भी दर्ज किया था अपने लेखन में कि कम्युनार्डों की कमिटी के लगभग सारे अधिकारी एवं क्रातिकारी सरकार चलाने वाले इन्टरनैशनल वर्किंगमेन्स ऐसोसियेशन के सदस्य थे !
खैर 18 मार्च 1871 को पैरिस में क्रांतिकारी सरकार के स्थापना की घोषणा हो गई । 12 अप्रैल 1871 को मार्क्स ने कुगेलमान को एक पत्र में लिखा –
“अगर आप मेरी किताब ‘लुइ बोनापार्ट का 18वीं ब्रुमेयर’ के अन्तिम अध्याय को देखें तो आप पायेंगे कि हमने लिखा है – प्रांसिसी क्रांति की अगली कोशिश पहले की तरह, अफसर-सैंन्यशाही मशीन को एक हाथ से दूसरे हाथ में अन्तरित करने के लिये नहीं बल्कि उस मशीन को चकनाचूर करने के लिये होगी; और यह पूरे महादेश में हर एक वास्तविक जन-क्रांति के लिये आवश्यक है । और ठीक यही कोशिश हमारे नायकोचित पार्टी कॉमरेड पैरिस में कर रहे हैं । क्या लचीलापन है, क्या ऐतिहासिक पहल है, त्याग की क्या क्षमता है इन पैरिसीय लोगों में ! बाहरी शत्रु के कारण नही बल्कि भीतरी दगाबाजी के कारण छ: महीनों तक भूख और ध्वंस झेलने के बाद वे उठ खड़े होते हैं ! यूँ उठते हैं प्रुशियाई संगीनों के नीचे से, जैसे फ्रांस और जर्मनी के बीच कभी युद्ध हुआ ही न हो और पैरिस के दरवाजे पर दुशमन न खड़े हों । इस महानता का इतिहास में कोई मिसाल नहीं । अगर वे हारे तो वह सिर्फ उनके ‘अच्छे स्वभाव’ दोष होगा ।“    
पूरी दुनिया में इसकी गूंज - पैरिस कम्यून (18 मार्च 1871 से 28 मई 1871) मजदूरों की पहली सत्ता थी । बुर्जुवा राजनीतिक क्रांति की अगुवाई करने वाले देश फ्रांस की राजधानी में यह सत्ता कायम हुई थी । 71 दिनों के इस गौरवशाली एवं लहुलुहान अध्याय का अलग इतिहास है । पूरी दुनिया में इसकी गूंज उठी । ऐटलन्टिक महासागर के पार से अमरीकी कवि वाल्ट व्हिटमैंन ने पैरिस के मजदूरों का गुणगान करते हुये लिखा –
आपके कई चूकों में से एक था कि आपने हमेशा उँचा लक्ष रखा,
आप खुद को कभी बेचने वाले नहीं थे चाहे कितना भी अधिक कीमत मिल रहा हो,
नशीली नींद से रोते हुये ही सही पर निश्चित जगने वाले थे आप,
अपनी बहनों में आप अकेली, दानवी, आपको लज्जित करने वालों को चीर दी थीं,
आम तौर पर पहनाई जाती जंजीरों को आप न होते न हो सकते थे पहनने वाले,
इसीलिये यह सलीव, आपका रक्तहीन चेहरा, आपके छेदे गये हाथ और पैर.
आपके सीने में घुसेड़ी गई बरछी ।“
नये समाज के यशस्वी अग्रदूत - ‘फ्रांस में गृहयुद्ध’ नाम की किताब दर असल इन्टरनैशनल वर्किंगमेन्स एसोसियेशन के साधारण परिषद का सन्देश है दुनिया के मजदूरों के नाम एवं मार्क्स ने इसे उसी लहजे में, कम्यून के दौरान एवं उसके बाद के दिनों में लिखा था । उस किताब की आखरी पंक्तियाँ हैं –
“मेहनतकशों के पैरिस एवं इसके कम्यून का हमेशा, नये समाज के यशस्वी अग्रदूत के रूप में समारोह मनाया जायेगा । इसके शहीद मजदूरवर्ग के महान हृदय में स्थापित हैं । उनकी हत्या करने वालों को इतिहास ने अभी ही उस शाश्वत कटहरे में ठोंक दिया है जिससे उनके पुरोहितों की सारी प्रार्थनायें भी उन्हे जीवनदान नहीं दे पायेंगे ।“

व्यस्ततायें, पूरी होती पाण्डुलिपियाँ, बीमारियाँ, ज्ञानार्जन
सितम्बर 1871 में पहले अन्तरराष्ट्रीय का एक सम्मेलन लन्दन में हुआ । तब तक बाकुनिन एवं अन्य अराजकतावादी अन्तरराष्ट्रीय में फूट डालने में सफल हो गये थे एवं अपना धड़ा लेकर अलग हो गये थे । लन्दन सम्मेलन में मार्क्स एवं एंगेल्स के सुझाव पर एक प्रस्ताव लिया गया जिसमें मजदूरवर्ग के राजनीतिक संघर्ष की जरूरत पर जोर डाला गया तथा सभी देशों में स्वतंत्र सर्वहारा पार्टी के गठन की बात की गई ।
विभिन्न भाषाओं में ‘पूंजी’ का प्रकाशन - 1871 -1872 के बीच ‘पूंजी’ के पहले खण्ड का रूसी संस्करण, फ्रांसिसी संस्करण, दूसरा जर्मन संस्करण बाजार में आ गया । मार्क्स बीमार चल रहे थे । बार बार हवा बदलने के लिये किसी बेटी के साथ या पूरे परिवार के साथ यहाँ वहाँ जाते थे । थोड़ा स्वस्थ होते ही फिर लौट कर काम में लग जाते थे । जहाँ घूमने जाते थे वहाँ भी किसी न किसी से मिलना या काम लगा रहता था । इसी बीच जर्मनी में समाजवादी मजदूर पार्टी के निर्माण के क्रम में भटकावों को दूर करने के लिये “गोथा कार्यक्रम की आलोचना” लिखा और अन्तत: गोथा में एकता सम्मेलन के बाद पार्टी की स्थापना हुई । एंगेल्स की कृति “ड्युहरिंग मत-खंडन” के भी कुछ हिस्सों पर काम किया ।
पढाई के नये विषय - मन बदलने के लिये सन 1878 से, अट्ठारह साल पहले छूट गई गणित की पढाई फिर से शुरु किया । मार्क्स द्वारा लिखे गये गणित पर नोट्स बाद में प्रकाशित हुये । कृषिरसायन एवं भुगर्भशास्त्र पढना शुरू किया । राजनीतिक कार्य चल ही रहे थे । रोज जर्मनी एवं अन्य देशों में सामाजिक जनवादियों पर एवं मजदूरों के राजनीतिक आन्दोलनों पर नये नये हमले हो रहे थे ।
रूस के बारे में भविष्यवाणी - फिर से मार्क्स ने ‘पूंजी‘ के खण्ड दो एवं तीन के पाण्डुलिपियों पर काम करना शुरू किया । 2 दिसम्बर 1881 को मार्क्स की पत्नी जेनी (वॉन वेस्टफैलेन) का निधन हो गया । तॉड़ने वाली इस घटना के महीने भर बाद जनवरी 1882 में ‘कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र’ के रूसी संस्करण के प्रकशन के लिये उनसे भूमिका लिखने का आग्रह किया गया । मार्क्स और एंगेल्स ने भूमिका में लिखा, “योरप में क्रांतिकारी गतिविधि का अगुवा दस्ता है रूस” ।
फिर तबीयत खराब । मार्क्स अलजिरिया, फ़ृदक्षिण फ्रांस एवं स्वीजरलैंड गये आराम के लिये, बगल में अर्जेनट्वील में बड़ी बेटी जेनी रहती थी, उससे भेंट किया ।
मार्क्स इस समय मन बहलाने के लिये जैव एवं अजैव रसायन पढ रहे थे ।
सन 1883 के 11 जनवरी को बड़ी बेटी जेनी (लॉंग्वेट) का पैरिस में निधन हो गया ।
दो महीने बाद 14 मार्च को लन्दन में मार्क्स का निधन हो गया । 

मार्क्सवाद – हमारा वैचारिक हथियार
बहुत जानी पहचानी पंक्तियाँ हैं घोषणापत्र के - “मजदूर वर्ग के तात्क्षणिक हितों को लागु कराने के लिये, तात्कालिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए साम्यवादी संघर्ष करते हैं, लेकिन वर्तमान के आन्दोलन में वे उस आंदोलन के भविष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं एवं उसका ध्यान रखते हैं ।”
पर कैसे ? क्या सिर्फ  खुद को कम्युनिस्ट समझने के कारण हम उस आन्दोलन के भविष्य का प्रतिनिधित्व कर पायेंगे ? किसी आंदोलन का भविष्य उस आन्दोलन में ही निहित होता है, बाहर से लाकर जोड़ा नहीं जा सकता है । पहले तो उस आंदोलन के भविष्य को ढूंढना पड़ेगा उस आन्दोलन के भीतर, उस आंदोलन में शामिल होकर !
हम सबने थोड़ी बहुत पार्टी के वैचारिक दस्तावेजों का पाठ किया है एवं उन चार बुनियादी अन्तर्विरोधों के बारे में जानते हैं जो आज की दुनिया की गति के निर्धारक हैं । रोज व रोज का हमारा जो आन्दोलनात्मक कार्यभार होता है वह उन्ही में से किसी एक को रेखांकित करता है । हम मजदूरों की हड़ताली गतिविधियों में होते हैं तो पूरी दुनिया में ‘श्रम एवं पूंजी’ के अन्तर्विरोध को रेखांकित होते हुये देखने और दिखाने की कोशिश करते हैं । हम भारत के साथ अमरीका के सैंन्य-सहयोग के खिलाफ सड़क पर होते हैं तो ‘साम्राज्यवाद एवं विकासशील देशों’ के अन्तर्विरोध को रेखांकित होते हुये देखने एवं दिखाने की कोशिश करते हैं । हम मानवता के मूल्यों की रक्षा से सम्बन्धित किसी सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक प्रतिवाद में शामिल होते हैं तो वहाँ ‘साम्राज्यवाद एवं समाजवाद’ के अन्तर्विरोध को रेखांकित होते हुये देखने एवं दिखाने की कोशिश करते है । और जब, पूंजीवाद के गहरे संकट से सम्बन्धित किसी विषय पर परिचर्चा वगैरह आयोजित करते हैं तो नि:सन्देह आज की साम्राज्यवादी पूंजी के अन्तरराष्ट्रीय चरित्र के भीतर दरारों को ढूंढते हुये ‘साम्राज्यवादी देशों के आपसी अन्तर्विरोध’ को रेखांकित करने की कोशिश करते हैं ।
साथ ही, आज के युग के प्रधान अन्तर्विरोध, ‘साम्राज्यवाद एवं समाजवाद’ के अन्तर्विरोध तक बहस को पहुँचाने की कोशिश तो करते ही हैं, बाकी दोनों अन्तर्विरोधों की भी चर्चा ला देते हैं यह बताने के लिये कि दुनिया एक, अन्तर्सम्बन्धित एवं अविभाज्य है ।
पर, इतना करते हुये हम सिर्फ मार्क्सवादी दार्शनिक समझ की पहली सींढी चढते हैं । याद कीजिये, ‘सोवियत संघ की बॉलशेविक पार्टी का इतिहास’ का वह अध्याय, ‘द्वन्दात्मक एवं ऐतिहासिक भौतिकवाद’ ! यह अध्याय बाद में पुस्तिका के रूप में काफी प्रचारित हुआ । आज भी इस पुस्तिका का इस्तेमाल एक पाठ्य के रूप में होता है । इस पुस्तिका का पहला पाठ या अध्याय है कि विश्व एक एवं अविभाज्य है ।
लेकिन दूसरा अध्याय ? विपरीतों की एकता और संघर्ष ? इसे हम कहाँ तक देख पाते हैं ?
मान लीजिये हम मिड-डे-मील के रसोइयों या आशा कार्यकर्ताओं के आन्दोलन में शामिल हैं । क्या इस आन्दोलन में विपरीतों की एकता एवं संघर्ष हमें नजर आता है ? विपरीतों की एकता क्या यह है कि उनमें से अधिकांश वोट देते वक्त नीतीश कुमार की पार्टी या नहीं तो नरेन्द्र मोदी के नाम पर भाजपा या फिर लालू यादव के नाम पर राजद को या और किसी पुंजीवादी पार्टी को वोट देंगे ? नहीं, यह तो बाहरी राजनीतिक एकता है विपरीत ताकतों की । इसकी चर्चा चुनावों में होगी । पर क्या हम देख पाते हैं कि आन्दोलन के भीतर, जो सबसे लोकप्रिय मांगें है बेहतर वेतन, बेहतर सेवाशर्त या स्थाईकरण की – जो किसी भी मजदूर आन्दोलन में सबसे लोकप्रिय होती हैं – वही विपरीतों की एकता की अभिव्यक्ति हैं ? हम उन्ही लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये संघर्षरत होते हैं, होंगे भी, पर यह भी ध्यान रखेंगे कि अन्तत: वे मांगें उन्हे इसी पूंजीवादी उत्पादन या जीवन-प्रणाली में बेहतरी के साथ जोड़े रखने की मांगें हैं । विपरीतों का संघर्ष तो अब शुरू होगा, यानी आप शुरू करने का प्रयास करेंगे जब पूंजीवादी उत्पादन या पूरी जीवनप्रणाली के दमघोँटु यथार्थ का आप बयान करेंगे, मजदूरी की गुलामी की बात करेंगे । संघर्ष के ताप में आपके बयान को वे सुनेंगे एवं आपकी सफलता होगी कि उनमें से कुछ प्रभावित होंगे – आप से आगे की बात करेंगे ।
परिमाण गुण में बदलता है । हमने सुन रखा है । लेकिन इसका प्रयोग ? रोज के कार्यभारों को निभाते हुये कई जगह पर हमें इसके उदाहरण मिलते हैं । आन्दोलनों में, हम पाते हैं कि हमारे संगठन की ताकत में अगर वृद्धि होती है तो अन्य संगठनों के साथ संयुक्त मोर्चा बन पाता है । अगर संयुक्त मोर्चे की ताकत बढते बढते पूरी जमात को दायरे में ले तो मांगें हासिल होती हैं । पिछले पैरा में वर्णित घटनाक्रम में अगर हम एक सहायक ग्रुप बना पाते हैं, सहायक ग्रुप की नियमित बैठकों के माध्यम से कुछ पार्टी सदस्य बना पाते हैं तो हम कह सकते हैं कि परिमाणात्मक परिवर्तन को बढाते जाने से हमने गुणात्मक परिवर्तन हासिल किया ।
और, निषेध का निषेध ? जो, मार्क्सवादी विद्वानों ने कहा है कि संरक्षण के सबसे महत्वपूर्ण नियम हैं ? यानी हम अपनी कार्रवाईयों से जिन पूंजीवादी बुराईयों का निषेध हासिल करते हुये एक साथी को पार्टी सदस्य बनाया, उसी पूंजीवाद में हासिल कुछ गुण अगर उस साथी में है, तो क्या हम उसे भी खारिज कर देंगे ? उसे उसकी कमजोरी मानेंगे ? मिसाल के तौर पर, अगर उसके पास एक अच्छी आवाज हो जिससे वह अच्छा भजन गाता हो ? उसे उपदेश देने बैठेंगे कि भजन प्रतिक्रियावादी होता है इसलिये वह जनवादी गीत गाना सीख ले ? या उसे अच्छा भजन ही गवायेंगे ? आगे वह क्या गायेगा यह उस पर छोड़ देंगे ?
अब आयें ऐतिहासिक भौतिकतावाद पर । उपरोक्त सारे नियमों का प्रयोग तो हम इतिहास पर ही कर रहे हैं ! ऐतिहासिक भौतिकतावाद के नियम कुछ अलग नहीं हैं । लेकिन ऐतिहासिक यथार्थ नैसर्गिक यथार्थ से थोड़ा जटिल होता है । जैसे भारतीय समाज में जात एवं जात और वर्ग का सम्बंध, धार्मिक बहुसंख्यक एवं अल्पसंख्यकों का सम्बन्ध ! बात को अधिक न फैलाकर फिर उपरोक्त घटनाक्रम पर ही लौटें ! आम भाषणों में अगर सम्भव न भी हुआ हो, क्या सहायक ग्रुप बनाने के लिये या पार्टी सदस्य बनाने के लिये विशेष बातचीत में जातीय शोषण, दमन, धार्मिक साम्प्रदायिकता की चर्चा हुई ? क्या सहायक ग्रुप या पार्टी में बहाली के वक्त हमने दलित व पिछड़ी जात के मजदूरों पर, अल्पसंख्यक श्रेणी के मजदूरों पर विशेष ध्यान दिया ?

अंत में
लेनिन ने अपनी विख्यात रचना, ‘मार्क्सवाद के तीन उद्गम एवं तीन संघटक अंग’ के अंत में लिखते हैं -
“लोग राजनीति में सदा छल और आत्म-प्रवंचना के नादान शिकार हुए हैं और तब तक होते रहेंगे, जब तक वे तमाम नैतिक, धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक कथनों, घोषणाओं और वायदों के पीछे किसी न किसी वर्ग के हितों का पता लगाना नहीं सीखेंगे । सुधारों और बेहतरी के समर्थक जब तक यह नहीं समझ लेंगे कि हर पुरानी संस्था, वह कितनी ही बर्बरतापूर्ण और सड़ी हुई क्यों न प्रतीत होती हो, किन्हीं शासक वर्गों के बल-बूते पर ही क़ायम रहती है, तब तक पुरानी व्यवस्था के संरक्षक उन्हें बेवकूफ बनाते रहेंगे । और इन वर्गों के प्रतिरोध को चकनाचूर करने का केवल एक तरीका है और वह यह कि जिस समाज में हम रह रहे हैं, उसी में उन शक्तियों का पता लगायें और उन्हें संघर्ष के लिए जागृत तथा संगठित करें, जो पुरातन को विनष्ट कर नूतन का सृजन करने में समर्थ हो सकती हैं और जिन्हें अपनी सामाजिक स्थिति के कारण समर्थ होना चाहिए ।
“केवल मार्क्स के भौतिकवादी दर्शन ने ही सर्वहारा वर्ग को उस आत्मिक दासता से मुक्ति पाने का मार्ग दिखाया है, जिसमें सभी उत्पीड़ित वर्ग अब तक सिसकते हुए अपने दिन काट रहे थे । केवल मार्क्स के आर्थिक सिद्धांत ने ही पूंजीवाद की सामान्य व्यवस्था में सर्वहारा वर्ग की वास्तविक स्थिति की व्याख्या की है।"
[मार्क्स की 200वीं जयंती पर प्रकाशित]