Thursday, March 7, 2019

कर्माटाँड़ में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के कर्मभावना के आयाम एवं आज का भारत

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर कर्माटाँड़ में आराम करने के लिये आये थे। लेकिन भारतीय नवजागरण की धारा में उन्नीसवीं सदी का बंगाल जिस प्राणशक्ति के विस्फोट का केन्द्र बना था, उस प्राणशक्ति के शीर्षस्थ कर्मवीर थे ईश्वरचन्द्र विद्यासागर। उनका काम ही तो उनका आराम था। इसलिये, उनके जीवन के कर्माटाँड़ प्रसंग से बंगाल के नवजागरण के कृषक, श्रमजीवी, दलित जनोन्मुख धारा को नया विस्तार मिला। आज भी, विकास के सन्दर्भ में जनहित के जो मुख्य सवाल हैं, उनमें से चार सवालों – जनशिक्षा, नारीमुक्ति, जनस्वास्थ्य, अंधविश्वासों व कुरीतियों से मुक्ति तथा हाशिये पर कर दिये गये जनसमुदायों की उन्नति – यानि, आज के अर्थों में सामुदायिक विकास की समस्याओं से जुझने के क्रम में हम कर्माटाँड़ में विद्यासागर द्वारा किये गये कामों से प्रेरित होते हैं। उन कामों के हमें मुख्यत: तीन आयाम मिलते हैं – (1) शिक्षा, (2) चिकित्सा एवं सेवा, (3) कृषि के विकास में मदद। सामुदायिक विकास के पूरे सन्दर्भ में रोजगार भी आता है, लेकिन उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध में, कर्माटाँड़ के ग्रामीण जीवन में, कृषि व सम्बन्धित कारीगरी की आय बढ़ाने की समस्या से अलग रोजगार की समस्या उभर चुकी होगी, ऐसा नहीं लगता है। दूसरी ओर, विद्यासागर के जीवनबोध का प्रखरतम पक्ष, वैज्ञानिक व तार्किक सोच उपरोक्त सभी कार्यों में ओतप्रोत थी, एवं अंधविश्वासों व कुरीतियों से मुक्ति के सन्दर्भ में इस पर अलग से विचार करेंगे।   

शिक्षा – नारीशिक्षा, वयस्कशिक्षा
सबसे पहले प्राथमिक शिक्षा, नारीशिक्षा एवं वयस्क शिक्षा के सवालों को जनशिक्षा की दृष्टि से देखें। ‘जनशिक्षा’ के बारे में विद्यासागर की स्पष्ट राय थी कि इसे पूरी तरह नि:शुल्क होना होगा।
उस समय अंग्रेज सरकार की नीतियों में इंग्लैन्ड में हो रहे हलचलों का थोड़ा बहुत प्रभाव पड़ता रहता था। ऐसे ही एक प्रभाव के कारण सरकारी महकमों में चर्चा होने लगी कि शिक्षा को गरीब, श्रमजीवी, आम जनता के बीच पहुँचाई जाय। सम्बन्धित परिपत्र विद्यासागर के पास भी पहुँचा। उन्होने अपनी राय दी कि आम जनता और खास तौर पर गरीब तबकों के बीच शिक्षा ले जाने के लिये उसे पूर्णत: नि:शुल्क होना होगा, जबकि कोई सरकार उस खर्च को वहन नहीं करना चाहती। बल्कि उन्होने खुद इंग्लैन्ड का उदाहरण दिया! कहा कि जिसकी सरकार यहाँ जनता को शिक्षित करना चाहती है उसकी अपनी धरती पर क्या हाल है? इतने बड़े विद्वानों को पैदा करने वाले देश में, दुनिया पर राज करने वाले देश में इतनी अधिक संख्या में निरक्षर और अनपढ़ लोग क्यों हैं?
दिनांक 29 सितम्बर 1859 को उन्होने बंगाल सरकार के कनीय सचिव रिवर थॉम्पसन को जो पत्र लिखा वह हमें इन्द्र मित्र रचित जीवनी, ‘करुणासागर विद्यासागर’ में मिलता है। पत्र में विद्यासागर कनीय सचिव द्वारा जारी गश्तीपत्र संख्या 288, दिनांकित 17 जून 1859  की प्राप्ति स्वीकारते हैं। आगे लिखते हैं कि “प्रति विद्यालय 5 से 7 रुपयों के सीमित माहवार खर्च पर बंगाल की आमजनता के लिये सस्ते विद्यालय खोलने का प्रस्ताव, देश की वर्तमान अवस्था में लगभग अव्यवहारिक है। क्योंकि, महज पढ़ना, लिखना और थोड़ा अंकगणित भी सफलता के साथ सीखा पाने वाला आदमी इतने कम वेतन पर सेवा स्वीकार नहीं करेगा, चाहे उसका अपने गाँव से कितना भी जुड़ाव हो।“ 
फिर आगे वह जनशिक्षा पर अपनी सोच रखते हैं।
“पश्चिमोत्तर प्रान्तों में चलने वाले हलकाबन्दी विद्यालयों की प्रणाली के बारे में सही सूचनायें मुझे उपलब्ध नहीं है। लेकिन यह मानते हुये कि वही प्रणाली बिहार के विद्यालयों में भी लागू की गई है, मैं कहना चाहूंगा कि वह बंगाल में चलने वाले देशी विद्यालयों [पाठशालाओं – लेखक] की ही जैसी है। बिहार के विद्यालयों में, मैं जितना समझ रहा हूँ, पुरा पाठ्यक्रम सिर्फ पत्र लिखने एवं जमींदार व दुकानदारों का खाताबही लिखने तक सीमित है। इन विद्यालयों से बंगाल के विद्यालयों का बस इतना फर्क है कि बिहार के विद्यालयों में कुछ बेहतर, छपी हुई किताबें नाम के वास्ते इस्तेमाल की जाती है। अगर शिक्षा की ऐसी ही प्रणाली बंगाल में लागू करना सरकार का उद्देश्य है तो [पाठशालाओं के] गुरुमहाशयों को थोड़ा माहवारी वेतन दे देने, कुछ छपी किताबों को उन विद्यालयों में चालू करने एवं उन स्कूलों को सरकारी अधीक्षण के अन्तर्गत लाने से ही उद्देश्य पूरा हो जायेगा। लेकिन मैं जरूर कहूंगा कि वैसी शिक्षा, महत्वहीन तो होगी ही, जनता के बीच, अगर जनता का अर्थ श्रमजीवी वर्ग हैं तो, प्रसारित भी नहीं होगी। क्योंकि, अभी भी इन वर्गों के छात्र, बंगाल और बिहार के विद्यालयों में नाममात्र ही मिलते हैं।
“इस यथार्थ का कारण है श्रमजीवी वर्गों की स्थिति। उनकी स्थिति इतनी बुरी है कि अपने बच्चों की शिक्षा पर वे कुछ भी खर्च नहीं कर सकते। न ही वे अपने लड़कों को, किसी भी किस्म का काम करने लायक उम्र तक पहूँचने के बाद, विद्यालय में रखेंगे। क्योंकि तब वे कुछ कमायेंगे, कितना भी कम क्यों न हो। वे सोचते हैं, और शायद सही सोचते हैं कि उनके बच्चे थोड़ा लिखना पढ़ना सीख जाने से उनकी स्थिति बेहतर नहीं हो जायेगी। इसी लिये उन्हे अपने बच्चों को विद्यालय भेजने में कोई आग्रह नहीं होता। यह उम्मीद करना अतिशय होगा कि सिर्फ ज्ञान प्राप्त करने के लिये वे अपने बच्चो को शिक्षित करेंगे जबकि उच्चतर वर्ग भी अभी तक शिक्षा के लाभों को सही ढंग से नहीं समझते हैं। ऐसी परिस्थिति में श्रमजीवी वर्गों को शिक्षित करने की कोशिश अनावश्यक है। हाँ अगर सरकार वास्तव में इस दिशा में प्रयोग करना चाहती है तो उसे पूर्णत: नि:शुल्क शिक्षा देने को तैयार होना होगा।”

वीरसिंहो गाँव का अनुभव
इस दिशा में, यानि गरीबों के लिये नि:शुल्क शिक्षा मुहैया कराने की दिशा में, विद्यासागर द्वारा उनके अपने पैत्रिक गाँव वीरसिंहो में किये गये काम का ऐतिहासिक महत्व है। विद्यासागर के प्रथम जीवनीकार, उनके अपने सहोदर शम्भुचन्द्र विद्यारत्न इस प्रसंग पर लिखते हैं:
“अग्रज महाशय बचपन से ही इस बात को लेकर मन ही मन आलोड़ित रहते थे कि अपनी जन्मभूमि वीरसिंहो एवं आसपास के गाँवों के निवासी लोगों एवं बालकों के दिमाग का अंधेरा दूर करने के लिये विद्यालय स्थापित करेंगे। लेकिन पैसों के अभाव के कारण यह बात वह कभी किसी से बोल नहीं पाये। अभी उन्हे महीना में तीन सौ रुपये वेतन मिल रहा था और बेतालपंचविंशति, जीवनचरित, बांग्लार इतिहास, उपक्रमणिका, बोधोदय आदि पुस्तकों की बिक्री से लाभ भी अच्छा हो रहा था। इसी करण से, चारों भाईयों के साथ फागुन के महीने में जलमार्ग से उलुबेड़े, गेँयोखालि, तमोलुक, कोला, बाकसी, गोपीगंज होते हुये तीसरे दिन घाँटाल में नाव से उतरे और घर पहुँचे। घर पहुँचकर पिता से उन्होने कहा, ‘एक अरसा पहले आप अक्सर इच्छा व्यक्त करते थे कि गाँव में टोल [परम्परागत ग्रामीण विद्यालय] बना कर आप गाँव के लोगों को विद्या दान करेंगे। अब आपके आशीर्वाद से मेरी स्थिति अच्छी हुई है, इसलिये वीरसिंहो में एक विद्यालय खोलना चाहता हूँ।’ यह सुन कर माँ और पिताजी बहुत खुश होकर भैया का चेहरा चूम कर अपनी प्रसन्नता व्यक्त किये। अगले दिन विद्यालय का स्थान तय हुआ। जमीन के मालिक रामधन चक्रवर्ती एवं अन्यान्य को कीमत चुका कर भैया जमीन की बिक्री का केवाला लिखवा लिये। उसके अगले दिन मजदूर नहीं मिला देखकर भैया खुद सभी भाईयों को लेकर मिट्टी कोड़ने में लग गये। बाद में, जल्द से जल्द विद्यालय के निर्माण के लिये पिताजी को एक हजार से कुछ अधिक रुपये देकर कलकत्ता वापस चले गये। “सन 1853 के चैत में गर्मी की छुट्टी के पूर्व, मध्यम और तीसरा भाई तथा उस समय घर के जो भी सगे-सम्बन्धी संस्कृत कॉलेज के उच्च कक्षाओं पढ़ रहे थे, उन सब को उन्होने गाँव के बालकों की शिक्षा का कार्य करने के लिये भेजा। विद्यालय का भवन तैयार होने में और चार महीने लगते, इसलिये गाँव में अपने आवास तथा आसपास के पड़ोसियों के आवासों में फागुन की माह में वीरसिंहो का विद्यालय प्रारंभ हुआ। इसके पहले इस इलाके में कोई विद्यालय स्थापित नहीं हुआ था। स्थानीय लोगों के मन में अंधविश्वास था कि विद्यालय में पढ़ाई करने से वे इसाई बन जायेंगे। कुछ लोग कहते थे कि बच्चे नास्तिक हो जायेंगे। किसी किसी भट्टाचार्य का संस्कार था कि जाति भ्रष्ट हो जायेगा। और भी कैसी कैसी बातें करने लगे लोग। “उस समय वीरसिंहो गाँव के लोगों की आर्थिक स्थिति बुरी थी। सद्गोप लोग कृषिकर्म कर दिन बिताते थे। उनके बच्चे चरवाही करते थे; कई दूसरों के खेतों में मजदूरीकरते थे। कई परिवारों को शाम तक अन्न जुटाना दुभर हो जाता था। जो भी हो, विद्यालय स्थापित होने के पाँच-सात दिनों के अन्दर सौ से अधिक बच्चे पढ़ने के लिये विद्यालय में प्रवेश किये। क्रमश:, आसपास के पथरा, उदयगंज, कुराण, गोपीनाथपुर, यदुपुर, दन्डीपुर, इड़पाला, दीर्घग्राम। साततेँतुल, आमड़ापाट, पुड़शुड़ी, मामरुल, आकपपुर, आगर, राधानगर, क्षीरपाई आदि गाँवों से काफी बालक विद्यालय में प्रवेश लेने लगे। बहुतों की ऐसी स्थिति नहीं थी कि पाठ्यपुस्तक खरीदें। विद्यालय नि:शुल्क किया गया। अग्रज महाशय, कलकत्ता से तीन सौ से अधिक बालकों के लिये पाठ्यपूस्तक, कागज एवं स्लेट आदि बेझिझक भेजते थे। अपने गाँव में जिन छात्रों को पहनने के कपड़ों का अभाव था, उन्हे कपड़े खरीद देने के लिये उन्होने मुझे आदेश दिया। उस समय, दूर दराज में अध्यापन कार्य करने वाले कई शिक्षकों के पुत्र इस विद्यालय में अध्ययन हेतु चले आये।
“जो लोग दूसरों के घरों में, मजदूरी लेकर दिन में उनकी चरवाही करते थे, उन्हे पढ़ाईलिखाई सिखाने के लिये अग्रज ने नाईट-स्कूल स्थापित किया। उस स्कूल में शाम से रात के दो पहर तक के लिये दो शिक्षक नियुक्त थे, नि:शुल्क पुस्तकें देनी पड़ती थी, और इन सभी चीजों में जो खर्च होता उसका निर्वाह स्वयं अग्रज महाशय करते थे। …
“उस समय इस प्रांत की महिलायें लिखती-पढ़ती नहीं थी। वीरसिंहो में सबसे पहले बालिका विद्यालय की स्थापना हुई। सभी बालिकाओं को नि:शुल्क पुस्तकें मिलती थी। जिस समय कलकत्ता में पहली बार बेथुन-फिमेल-स्कूल स्थापित हुआ, उस समय कलकत्ता-निवासी सम्भ्रान्त दलपतिगण एवं अन्यान्य सम्भ्रान्त लोग बहुतेरे किस्म के हंगामा किये थे। लेकिन वीरसिंहो में बालिका विद्यालय स्थापित होने पर, पड़ोसी सन्तोष के साथ अपनी कन्याओं को विद्यालय भेजा करते थे। इसके चलते, आसपास के दूसरे गाँव के लोग भी किसी प्रकार की आपत्ति नहीं जताये थे।”

कर्माटाँड़
इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुये कर्माटाँड़ को अपना निवास बनाने के साथ ही साथ विद्यासागर ने इसी नन्दनकानन में बालिका विद्यालय (या पाठशाला कह लें) एवं वयस्क या प्रौढ़ विद्यालय खोले एवं उन्हे नियमित शिक्षा देनी शुरु कर दी।
यह सही है कि उनकी किसी भी जीवनी में, विद्यालय खोलने के जिक्र रहने के बावजूद कोई तथ्यात्मक विवरण अनुपलब्ध है कि वे विद्यालय किस समय चलते थे, औसतन कितने शिक्षार्थी (बालिकायें एवं प्रौढ़) आते थे एवं शिक्षक के तौर पर विद्यासागर के अलावे और कोई अगर थे तो वे कौन थे। खर्च के बारे में विवरण न होने पर भी वीरसिंहो गाँव में खोले गये विद्यालयों से अनुमान लगाया जा सकता है कि पढ़ाई के लिये स्लेट, पेन्सिल से किताबें आदि विद्यासागर खुद कलकत्ता से ले आते होंगे।

आज का शिक्षातंत्र  
आज हमारे देश में शिक्षा का अधिकार कानून है, राज्य शिक्षा परियोजनायें हैं। लेकिन न तो विद्यालयों में हाजिरी बनाने वाले बालक, बालिकाओं की संख्या में दर्ज वृद्धि, बीच में छोड़ जाने वालों की संख्या में कमी और न ही शिक्षा की गुणवत्ता सन्तोषप्रद है। तो क्या हमें विद्यासागर जैसे किसी एक महान व्यक्ति का इन्तजार करना होगा कि वह आयें और अपने उपर सारा बोझ लेकर जनता के उत्थान में लग जायेँ?
यह तो मजाक की बात हुई। शिक्षा पर बजट की आवंटित राशि, जो कोठारी कमीशन से लेकर पिछली कई कमिशनों की अनुशंसाओं के बावजूद, 6% तो दूर, 2% भी मुश्किल से पहुँचती है, उसे बढ़ाने की मांग पर तो हम सभी हैं। लेकिन साथ ही, प्राथमिक शिक्षा का प्रसार एवं गुणवत्ता में बेहतरी आज सम्बन्धित विभाग, शिक्षा परियोजना, जिला-स्तरीय प्रशासन, विद्यालयों के प्रधानशिक्षक एवं अन्य शिक्षकगण आदि कई पक्षों के मिलेजुले प्रयासों से ही सम्भव हो सकता है। गैर-सरकारी संगठन, अभिभावकों के प्रतिनिधि एवं अन्य सामाजिक संस्थाओं की भी इसमें भूमिका है। लेकिन विद्यासागर के प्रयासों से जो सीखने वाली बात है वह है अपनी जनता से उनकी घुलमिल जाने की आदत। वीरसिंहो गाँव में तो उनका बचपन का गाँव था। लेकिन कर्माटाँड़, बंगभूमि से दूर स्थित इस गाँव के लोगों को भी उन्होने उसी तरह अपना लिया। कथित है कि उनके आने से पहले यहाँ के बंगलाभाषी निवासियों पर मछुआरे भी विश्वास नहीं करते थे क्योंकि, उनका कहना था कि, वे मछली खरीदकर पैसे नहीं देते थे। बाहर से आने वाले मध्यवर्गीय एवं स्थानीय ग्रामीणों के बीच इतने बड़े सामाजिक दुराव को विद्यासागर ने अपने आचरण से न केवल पाटा, बल्कि वह खुद आदिवासियों के बीच देवता के रूप में प्रतिष्ठित हो गये।
मध्यवर्गीय शहरी एवं गरीब ग्रामीणों के बीच की यह दूरी आज भी मौजूद है। जबकि स्वतंत्र भारत का प्रशासनिक (शिक्षा सहित) ढाँचा जो औपनिवेशिक ढाँचे से ही उधार लिया गया है, इस दूरी को मिटाने के उद्येश्य से नहीं बल्कि बनाये रखने पर खड़ा है। आज भी आप पायेंगे कि किसी भी जिले या अनुमंडल में, आम लोगों की बातचीत में किसी ऐसे अधिकारी की तारीफ होती रहती है जो कभी वहाँ ‘बाहर से आकर पदस्थापित हुआ था’। उनके तारीफों में स्थानीय कोई नहीं होता। ठीक विपरीत, स्थानीय की तारीफ होती है उक्त इलाके के निहित स्वार्थ वाले लोगों, जमीन के मालिक, महाजन, ट्रान्सपोर्टर, ठेकेदार, ईँटभट्टे के मालिक आदि के जुबान पर, क्योंकि वह उन्हे मदद पहुँचाया करता था।
यह एक बिड़म्बना है। इसे बदलने के लिये देश के प्रशासनिक ढाँचे के प्रबन्धन का उद्येश्य बदलना होगा – सरकारी योजनाओं को जनता तक पहुँचाने को प्राथमिक बनाने के बजाय जनता को सरकारी योजनाओं तक ले आने को प्राथमिक बनाना होगा। अभी भी कहीं कहीं यह होता है। लेकिन व्यक्तिगत प्रयासों के स्तर पर। इसे संस्थागत व विभागीय प्रयास बनाना होगा। शिक्षा का अधिकार तो जनता को दे दिया गया लेकिन जनता को शिक्षित करने दायित्व से सरकार ने शायद खुद को मुक्त कर लिया। क्योंकि यह दायित्व सिर्फ नैतिक है। किसी अदालत में आप सरकार या उसके किसी अधिकारी को शिक्षा का दायित्व न निभाने के कारण अभियुक्त नहीं बना सकते। इस स्थिति को बदलनी तो होगी। कैसे, यह विचारणीय है। जनता को संघर्ष के जरिये ऐसे अधिकार लेने होंगे जिससे शिक्षा प्रशासन एवं सरकार को शिक्षा का दायित्व स्वीकारने को मजबूर किया जा सके।
साथ ही, शिक्षा के बारे में थोड़ा यथार्थपरक दृष्टि से सोचना भी होगा। नन्दन कानन में चलने वाला बालिका विद्यालय बन्द हो गया है। कई कारण हैं उसके। निजी तौर पर एक विद्यालय खोलने की बात चल रही थी। हालाँकि, बात कितनी बढ़ी है मालूम नहीं, लेकिन शायद यह शर्त था कि विद्यालय अंग्रेजी माध्यम का होगा (पहले वाला बंगला माध्यम का था); बंगला एक आवश्यक भाषा विषय होगा। हमारी समझ है कि यह व्यवहारिक है अभी। मातृभाषा में शिक्षा पर हमारा प्रचार जारी रहे क्योंकि वही विज्ञानसम्मत है, लेकिन आज के भारत में बच्चे और बच्चों के अभिभावक, दोनों इसे मानने को राजी नहीं हैं। 

जनस्वास्थ्य – चिकित्सकीय मदद, सेवा 
नारीमुक्ति से सम्बन्धित वे मुद्दे जिन पर विद्यासागर पहले, कलकत्ता में रहते हुये लड़ रहे थे, यहाँ कर्माटाँड़ में प्रासंगिक नहीं थे। विधवाविवाह, बहुविवाह या बालविवाह की समस्या यहाँ नहीं थी। लेकिन कुछ दूसरी समस्यायें, अंधविश्वासों से सम्बन्धित, शिक्षा, चिकित्सकीय मदद और बातचीत से दूर हो सकते थे। शिक्षा पर बातें रखी जा चुकी है। चिकित्सकीय मदद या जनस्वास्थ्य के मुद्दे पर अब कुछ बातें रखी जायेगी।
शिक्षाविद, समाजसुधारक विद्यासागर चिकित्सक कैसे बने यह एक अलग कहानी है। और क्यों, होम्योपैथी पर उनका अध्ययन आम प्रचलित घरेलु होम्योपैथिक अध्ययनों से अलग था इस पर भी यहाँ चर्चा अप्रासंगिक होगी (जिस पर ये कहनेवाले भी मिलते हैं कि “अरे, एक उम्र के बाद तो सभी थोड़ी बहुत होम्योपैथी पढ़ने लगते हैं, उससे कोई चिकित्सक थोड़े ही हो जाता है!”)। होम्योपैथी के विज्ञान की बात अलग है। कठिन रोगों के इलाज में इस प्रणाली की क्षमता की बात भी अलग है। होम्योपैथी का इलाज सस्ता हुआ करता है, जिसके कारण सिर्फ भारत ही नहीं लगभग सभी देशों में गरीब जनता इसके शरण में जाती है। ठीक उसी तरह, आयुर्वेद के विज्ञान पर चर्चा अलग है। लोग इसके शरण में थक-हार कर पहुँचते है, बेशक कुछ तो चमत्कार के भरोसे, लेकिन अधिकांश इसलिये कि कई उपचार घरेलु है और सस्ता है। लेकिन और कोई उपाय नहीं बचने पर घर के जेवरात बेचकर भी लोग ऐलोपैथिक उपचार के लिये दौड़ते ही हैं। विद्यासागर भी, होम्योपैथी के अपने स्व-आहरित प्रकांड ज्ञान एवं कुछ कुछ आयुर्वेदिक उपचार की जानकारी के बावजूद, जरूरत पड़ने पर ऐलोपैथिक दवाइयों का इस्तेमाल भी करते ही थे – अपने लिये भी और दूसरों के लिये भी। यह सच्चाई उस कहानी से सामने आती है कि जब वर्धमान में मैलेरिया के प्रकोप से लड़ने के लिये राहत शिविरों से दवाइयाँ बाँटी जा रही थी और कुइनाईन कम पड़ने से सिंकोना देने की बात उठी, विद्यासागर की वह प्रख्यात उक्ति सामने आई – रोगी गरीब हो या अमीर हो बीमारी तो एक ही है, तो दवाई अलग कैसे होगी; सबको कुइनाइन देना होगा। इंसान की बराबरी पर उनकी स्पष्ट दृष्टि का उदाहरण होने से अलग इस उक्ति का यह भी महत्व है कि संश्लेषित रूप कुइनाइन तो निश्चय ही, उसका मूल जैविक रूप सिंकोना भी, दोनों ऐलोपैथी के दवाई के रूप में प्रचलित हैं। यानि चिकित्सक विद्यासागर अपने होम्योपैथी के ज्ञान के प्रयोग को प्रमुखता नहीं देकर रोग के उपचार को प्रमुखता देते थे।   
बंगाल के भूतपूर्व मुख्यमंत्री एवं प्रख्यात चिकित्सक डा॰ विधानचन्द्र राय के नाम से एक बात चलती है कि, “एलोपैथी हो या होम्योपैथी, मुख्य बात है सिम्पैथी (सहानुभूति)”। और विद्यासागर तो दया और करुणा के सागर थे। बीमार लोगों के इलाज में, अकाल और महामारी के प्रकोप में घिरे आदमियों के इलाज में उसी मानवीय करुणा से ओतप्रोत विद्यासागर कभी कलकत्ता में, कभी मेदिनीपुर में, कभी वर्धमान में और कभी कर्माटाँड़ में बदहाल जनता के बीच दिखाई पड़ते रहे।

चिकित्सा, सेवा के संस्मरण
बौद्धशास्त्रों के विद्वान महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री युवावस्था में नौकरी में योगदान सेने हेतु लखनऊ जाने के क्रम में वह अपने एक स्वजन के साथ एक रात के लिये कर्माटाँड़ उतर कर नन्दन कानन में रुके थे। उनका पूरा संस्मरण कर्माटाँड़ में विद्यासागर के जीवन के बारे में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण प्राथमिक स्रोत है। कर्माटाँड़ में विद्यासागर के चिकित्सकीय जीवन की एक झांकि हमें हरप्रसाद शास्त्री के संस्मरण से मिलता है। प्रस्तुत है उक्त संस्मरण में से वह प्रसंग जहाँ शास्त्रीजी विद्यासागर के चिकित्सकीय दिनचर्या का जिक्र करते हैं।
" … किसी दूसरे काम से गया था, लौट कर देखा विद्यासागर नहीं हैं। सारे कमरे छान मारे – नहीं हैं, रसोईघर में नहीं हैं, बगीचे में नहीं हैं, अन्त में बगीचे के पीछे एक दरवाजा देखा खुला है, लगा यहीं से निकले होंगे, तो वहीं खड़ा रहा। थोड़ी देर के बाद देखा तो खेतों के बीच से एक मेड़ पर विद्यासागर महाशय तेज कदमों से चले आ रहे हैं, बदन पसीने से लथपथ है, एक पत्थर का कटोरा है हाथ में। मुझे खड़ा देख कर पूछे, तू यहाँ क्यों? मैंने कहा, आप ही को ढूंढ़ रहा था, कहाँ गये थे? वह बोले, अरे थोड़ी देर पहले एक संथालनी आई थी। बोली, बिद्येसागर, मेरे बच्चे की नाक से हलहल खून गिर रहा है, तू अगर आये, बचाये उसको। उसी लिये मैं एक होमिओपैथिक दवा इस कटोरे में ले गया था। अद्भुत, देखा कि एक खुराक दवा से उसका खून गिरना बन्द हो गया। ये लोग अधिक दवा तो खाते नहीं, इसलिये थोड़ी सी दवा का भी उपकार मिलता है। कलकत्ता के लोगों का तो दवा खा खा कर पेट में रेत जम गया है, काफी मात्रा में दवा नहीं देने पर उन्हे उपकार नहीं मिलता। मैंने पूछा, कितनी दूर गये थे? वह बोले, वह जो गाँव दिख रहा है, डेढ़ मील होगा।"
यह तब की बात है जब मिस कार्पेन्टर को विद्यालयों का परिदर्शन कराने के क्रम में जो दुर्घटना हुई थी, उसके चलते वह लंगड़ा के चलते थे – इतना ही अधिक कि सिर्फ उनके लिये तत्कालीन कर्माटाँड़ रेलस्टेशन के प्लैटफॉर्म को सरकार द्वारा ऊँचा कराया गया था। पेट में लगी चोट भी थी जिसके चलते वह खुद थोड़ा अस्वस्थ रहा करते थे।
बाद के वर्षों में, संस्कृत कॉलेज के भूतपूर्व प्राचार्य महामहोपाध्याय नीलमणि न्यायालंकार महाशय एक बार उनके अतिथि बने। वहाँ रहते न्यायालंकार बीमार पड़े तो विद्यासागर ने अपने हाथों से उनका मलमूत्र साफ किया। कर्माटाँड़ में एक संथाल पीड़ा में था। विद्यासागर खुद उसके सिरहाने बैठ कर उसे दवा पिलाते रहे, पथ्य खिलाते रहे, खुद पकड़ कर मलमुत्र त्याग के लिये ले जाना, पूरे बदन को सहलाना… सब कुछ करते रहे। कर्माटाँड़ से ही एक बार राजनारायण बसु को उन्होने पत्र लिखा, “मैंने तय किया था कि कल या परसों आपको देखने जाउंगा, लेकिन यहाँ मैं दो मरीजों का देखभाल कर रहा हूँ। वे ऐसी स्थिति में हैं कि मुझे उन्हे छोड़ कर नहीं जाना चाहिये। इसलिये मैं देवघर जाना दो या तीन दिनों के लिये स्थगित कर रहा हूँ।”
आज स्वतंत्र भारत में, केन्द्रीय स्तर पर और राज्य के स्तर पर जनस्वास्थ्य से सम्बन्धित कई कार्यक्रम हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, सहायक स्वास्थ्य केन्द्र है, प्रसूतियों की सहायता के लिये योजनाकर्मी हैं, सस्ते में जेनेरिक दवाओं के मिलने के बन्दोबस्त किये गये हैं,… बल्कि केन्द्रीय व राज्य स्तर पर सभी चिकित्सा पद्धतियों के पढ़ाई की व्यवस्था है, आदिवासी लोकश्रुति के अन्तर्गत उपलब्ध परम्परागत दवा और उपचारों पर भी शोध, खास कर झाड़खण्ड में जरूर किये जा रहे होंगे। ऐलोपैथी के अलावे होम्योपैथी एवं आयुर्वेद की दवाओं के मानकीकरण के लिये केन्द्रीय तौर पर प्रकाशित भारत के अपने फार्माकोपिया हैं …। फिर भी स्थिति क्या है? क्या आम आदमी के जीवन में जरूरत पड़ने पर दवा एवं उपचार, प्रशिक्षित सेवायें पहुँचते हैं? क्या सिर्फ वह एक ही तथ्य जिम्मेदार है जिसे हम बार बार दोहराते रहते हैं? कि विदेश में कुल इतने लोगों पर एक डाक्टर उपलब्ध है और भारत में इतने लोगों पर! बीच बीच में यह बात अखबारों की सुर्खियों में आते रहती है कि भारत डाक्टर, विशेषज्ञ एवं पैरामेडिक्स की जबर्दस्त कमी से जूझ रहा है। लेकिन, जितने हैं, सरकारी एवं निजी, वे कितने करीब तक पहुँच पाते हैं जनता के? डाक्टरों को भगवान माना जाता है, पर वह भगवान नहीं, जिसकी कल्याणकारी रूप पर इंसान को भरोसा हो, बल्कि वह भगवान जिसके अकल्याण की शक्ति से इंसान डरता हो। डरते, डरते, मरते मरते वह डाक्टर के पास या अस्पताल में पहुँचता है। पूरी स्वास्थ्यव्यवस्था एवं आम आदमी के बीच एक अजनबीयत है।
पर इसी में वैसे डाक्टर, पैरामेडिक या विभिन्न स्वास्थ्यकर्मी भी हैं जो जनता को अपना समझ कर अपना काम करते रहे हैं। जनता के बीच उनके अपनेपन व जादुई उपचार की अनगिनत कहानियाँ हैं। आज के भारत में सच्चाई यही है कि वैसे लोग असंगठित व्यक्तिमात्र हैं जबकि जनता के स्वास्थ्य को धंधा बनाने वाली ताकतें संगठित हैं, कभी कभी तो माफिया सिंडिकेट के तौर पर। विद्यासागर को उनके द्विशत जन्मवार्षिकी पर याद करते हुये हमें उस पहले वाले दल में आने वाले लोगों के काम करने के तरीकों को रेखांकित करना होगा – विभिन्न तरीकों से। तभी उस राह पर चलने वाले लोग भी बढ़ेंगे और जनता का उन पर भरोसा भी बढ़ेगा। अगर इन दोनों के बीच यानि अच्छे डाक्टर, अच्छे स्वास्थ्यकर्मी एवं स्थानीय जनता के बीच एक बेहतर, भरोसे का रिश्ता बने तो यही माफिया सिन्डिकेटों की ताकत को भी कम करेगा और सरकार की जो भी योजनायें हैं उनका पूरा लाभ लेने के लिये भी काम करेगा। ये सारी बातें उस प्रमुख अखिल भारतीय मांग से अलग हैं कि बजट में स्वास्थ्यसेवा के लिये आवंटित राशि बढ़नी चाहिये।

कृषि में मदद
इस विषय पर प्राथमिक तथ्य अनुपलब्ध हैं। हो सकता है, इस परिचर्चा के अन्य वक्ता इस पर कुछ बेहतर रोशनी डालें। यह चर्चा कुछेक पुराने लोगों, जो पहले कभी इन्ही इलाकों में रहते थे, के संस्मरणों में आया है। उनके पूर्वज विद्यासागर के कर्माटाँड़-जीवन के बारे में बताते हुये कहते थे कि विद्यासागर स्थानीय किसानों से उनके उपज की गुणवत्ता के बारे में चर्चा करते थे एवं कलकत्ता जाने पर किसानों के लिये नये किस्म के, बेहतर उपज वाले बीज ले आते थे।
ऐसे कामों का जिक्र, या कृषि में उनकी रुचि का जिक्र, वीरसिंहो-प्रसंग में नहीं मिलता है। शायद इसलिये, कि वीरसिंहो, या घाटाल अनुमंडल या मेदिनीपुर जिला कलकत्ता से बहुत दूर नहीं है। हो सकता है, अपने गाँव के खेतों की अच्छी फसल से तुलना करते हुये ही उन्हे कर्माटाँड़ की जमीन की कमतर उपज दुखी किया हो। लेकिन विद्यासागर की मनुष्यप्रेमी प्रकृति, लोगों को अपना बना लेने और उन्हे मदद करने की ताकीद इस प्रसंग को स्वाभाविक बना देता है।
सवाल सिर्फ कृषि में मदद का नहीं है। आज झाड़खण्ड राज्य के कृषि विकास मानचित्र में जामताड़ा जिला और कर्माटाँड़ के लिये नि:सन्देह योजनायें होंगी एवं उन पर अमल किया जा रहा होगा। लेकिन सवाल है आमलोगों की आय में, रोजगार में, जीवनस्तर में उन्नति का। विद्यासागर की स्मृति को अपने अन्दर सँजोये हुये यह नन्दनकानन इस दिशा में कई तरीके से मददगार हो सकता है। विद्यासागर स्मृति रक्षा समिति की ओर से सरकार को प्रस्ताव भी दिया हुआ है कि इस परिसर में एक ‘कौशल विकास केन्द्र’ खोला जाय। कृषि को बेहतर बनाने हेतु सुझाव देने या मदद देने के लिये समुचित केन्द्र भी खोला जा सकता है।
सच पूछा जाय तो बाजार-केन्द्रित अर्थनीति का सबसे मारक प्रभाव पूरे देश में किसानों पर ही पड़ा है। किसानों को अपनी स्थिति सुधारने के लिये, जीवन-धारक कृषि (सस्टेनेंस फार्मिंग) से बाजार-केन्द्रित कृषि की ओर मुड़ने को कहा गया। जहाँ लोग माने और कर्ज लेकर नकदी-फसल उगाने लगे वहाँ शुरुआती उन्नति की तेज गति के बाद आज आत्महत्याओं का कहर है। और जहाँ बाजार-प्रभुओं का यह सन्देश नहीं पहुँचा, या कम पहुँचा, वहाँ भूख से हो रहीं मौतें, दीर्घ-कालीन धीमे अकाल का रूप ले रही हैं। एक सीमांत किसान या छोटे किसान को, उसकी जमीन का अध्ययन कर किस तरह की उपज की ओर जाना ठीक रहेगा – जीवन-धारक कृषि को पूरी तरह न त्यागते हुये भी अतिरिक्त कोई नगदी-फसल संभव है या नहीं, उसकी लागत क्या होगी, बाजार कितना दूर होगा …… ये सारी बातें बताने के लिये शायद कुछ नई पहल की जरूरत है।
सन 1952 से आज तक कई किस्म के प्रयोग किये गये हैं। पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत के साथ सामुदायिक विकास प्रखंडों का निर्माण, ग्रामस्तरीय कर्मी या ग्रामसेवकों की नियुक्ति, फिर इधल के दिनों में किसान मित्र आदि की नियुक्तियाँ हुई हैं, स्मार्ट फोन के ऐप्स बनाये गये हैं। लेकिन भीएलडब्लु हो या किसान मित्र, इन सभी का मुख्य कार्यभार सरकार की योजनाओं की जानकारी किसानों को देना है। सरकार ने किसानों के बारे में जो सोचा है वह किसानों को बताना है। किसान खुद अपनी खेती के बारे में सोचें, अपनी योजना बनाये – व्ययक्तिक एवं सामुदायिक – और इस सोच को प्रेरित करने हेतु कोई हो गाँव के करीब – ऐसी पेशकश नहीं दिखती है। लेकिन होनी चाहिये। कर्मियों को, मित्रों को एवं उन्हे नियुक्त करने वाले सरकार व प्रशासन को सही अर्थ में किसान का मित्र होना होगा।
ऐसा सोचना कि नन्दन कानन में ही इस तरह का कोई केन्द्र बने, पूरे कर्माटाँड़ प्रखंड के अन्तर्गत आने वाले सभी गाँवों के लिये – एक ख्याली पुलाव होगा। लेकिन भविष्य में ऐसा कोई किसान सहयोगी केन्द्र हो, प्रायोगिक तौर पर सोचा जा सकता है।

अंत में 
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा किये गये सभी कामों के केन्द्र में है उनकी वैज्ञानिक व तार्किक सोच एवं सोचविचार की पद्धति। उनकी वैज्ञानिक व तर्कपूर्ण सोच उनके सभी कामों में दिखाई पड़ती है। साथ ही, उस सोचपद्धति की छोटी सी झलक ‘बोधोदय’ जैसे पुस्तकों में भी दिखाई पड़ती है।
सामान्य अर्थों में विचारों के प्रचारक वह नहीं थे। इसलिये अंधविश्वासों पर उनका अलग से कोई लेखन या काम बिरले ही मिलेगा। उन्होने सिर्फ उन अंधविश्वासों के खिलाफ लिखा एवं संघर्ष किया जो सामाजिक कुरीतियाँ बन चुकी थीं, नारीजीवन को नरक की आग में धकेल रही थी एवं समाज को आगे बढ़ने से रोक रही थी। जूझे गये सामाजिक संघर्षों के लिये आवश्यक युक्तियों और तर्कों के अलावा उन्होने वैचारिक बातें नहीं के बराबर की।
अब विधवाविवाह जैसे समाजसुधार के कामों को ही लें। यह ध्यान देने योग्य बात है कि खुद जातिगत भेदभाव की भावना से ग्रसित न होकर भी उन्होने यह कह कर शुरुआत नहीं की कि जब 74% को विधवाविवाह से कोई समस्या नहीं तो 26% को क्यों? जातिप्रथा के अन्तर्गत पूरे समाज पर ब्राह्मणवाद के सांस्कृतिक वर्चस्व को वह जानते थे। इसीलिये सबसे पहले उस सांस्कृतिक वर्चस्व का प्रमुख हथियार, शास्त्रों का ही उन्होने अध्ययन किया एवं उसी का इस्तेमाल भी किया गिद्ध बने बैठे ढोंगी शास्त्रज्ञों के खिलाफ। फिर उन्होने समर्थन में खास कर वैसे लोगों को जुटाया जो नामचीन और पैसे वाले होने के कारण सरकार को प्रभावित करने की क्षमता रखते थे। फिर उन्होने सरकार को आवेदन किया। आवेदन की भाषा भी पूरी तरह कार्यनीतिक है, भावनात्मक नहीं। उसके आगे उन्होने एक तरफ वो मुहिम चलाया जिसे आज की भाषा में हम हस्ताक्षर अभियान कहते हैं। दूसरी तरफ अपनी कलम से वह लगातार उन कुतर्कों और व्यक्तिगत लांछनाओं का जबाब देते रहे जो उन्हे रोकने के लिये बरसाये जा रहे थे। आज भी एक व्यक्ति नागरिक, खास कर बुद्धिजीवी के लिये किसी सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दे पर लड़ने, आवाज को आगे बढ़ाने का यह तरीका उतना ही प्रासंगिक और शिक्षणीय है, जितना कल था। आज तो कई संगठन हैं, मंच हैं, उन्नीसवीं सदी के मध्य में तो कुछ भी नहीं था।
अंधविश्वासों, कुरीतियों एवं निरर्थक रिवाजों का विरोध तो उच्छृंखल बन कर भी किया जा सकता है, पर उन्हे समाज से समाप्त करने के लिये वैज्ञानिक सोच के आधार पर अनुशासित सामाजिक आन्दोलन की आवश्यकता होती है, जबकि व्यक्तिजीवन में आचरण में (उस सामाजिक आन्दोलन के सहारे ही सही) चारित्रिक दृढ़ता की जरूरत होती है, बड़बोलापन की नहीं।
कर्माटाँड़ में, यहाँ के स्थानीय जनजीवन के साथ जुड़ते हुये, जनता के विकास के लिये जो भी काम विद्यासागर ने किये उन सब में परिलक्षित होती रही उनकी तार्किक सोच। आज इस सोच और सोच की पद्धति की आवश्यकता बहुत अधिक हो गई है। धार्मिक व साम्प्रदायिक उन्माद से इंसान की चेतना और विवेक को बचाने के संग्राम में, गैर-तार्किक सोच की कूपमंडुकता से बाहर निकालने के संग्राम में विद्यासागर का नाम आज पूरी उन्नीसवीं सदी के सभी भारतीय विभूतियों में सबसे अधिक स्मरणीय है। उसी तरह, ग्रामीण जीवन में व्याप्त अंधविश्वासों व कुरीतियों के विरुद्ध संग्राम में भी विद्यासागर की सोच एवं कार्यपद्धति एक कारगर औजार है।         
सन 1853 में बैलेन्टाइन साहब के एक पत्र के जबाब में विद्यासागर ने लिखा, “जनता में शिक्षा का प्रसार – यह हमारी मुख्य आवश्यकता है। हमें कुछ बंगला विद्यालय स्थापित करने होंगे। इन सब विद्यालयों के लिये आवश्यक एवं शिक्षाप्रद विषयों पर कुछ पाठ्यपुस्तकों की रचना करनी होगी, शिक्षकों का दायित्वपूर्ण कर्तव्य का भार ले सके ऐसे कार्यकर्ताओं का एक दल का सृजन करना होगा – तभी हमारा उद्येश्य सफल होगा। मातृभाषा का पूरी जानकारी, तथ्यों का यथेष्ट ज्ञान, देश में व्याप्त अंधविश्वासों के कब्जे से मुक्ति – शिक्षकों में ये गुण रहने चाहिये। इस तरह के आवश्यक आदमियों का निर्माण ही मेरा उद्येश्य एवं संकल्प है।”
आज विद्यासागर नहीं हैं, लेकिन उनके पूरे जीवन का प्रकाश है हमारी इतिहासचेतना में, हमारे प्रेरणास्रोत के रूप में। अविभाजित बिहार एवं आज के झाड़खण्ड में उनके किये गये काम हैं। उनकी उपस्थिति की उज्ज्वलता है इस प्रांगण में। इसे साथ लेकर हमें अंधविश्वासों एवं सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष जारी रखना होगा। सन 1999 में अविभाजित बिहार में डायनप्रथा विरोधी कानून पारित हुआ था। झाड़खंड राज्य बनने के बाद सन 2001 में झाड़खण्ड विधानसभा ने भी डायनप्रथा विरोधी कानून को पारित किया। उक्त कानून को लागु करने के लिये प्रशासन व पुलिस है। पर अन्य कई अंधविश्वास हैं जो घातक या जीवन के विकास मे बाधक होते हुये भी प्रशासकीय तरीके से हटाया नहीं जा सकता है। उसके लिये शिक्षा के विस्तार के साथ प्रचार अभियान जरूरी है। इन्टरनेट पर हमने जामतारा जिला में एवं कर्माटाँड़ प्रखण्ड में कार्यरत एनजीओ वगैरह के नाम ढूंढ़े। जो नाम मिले वे सब ग्रामविकास या शिक्षा सम्ब्सन्धित हैं। खुद विद्यासागर स्मृति रक्षा समिति की ओर से अंधविश्वास, सामाजिक कुरीति एवं अंधश्रद्धा विरोधी एक एनजीओ बनाने का प्रयास होना चाहिये कि नहीं, उस दिशा में सोचना भी अभी दु:साहस प्रतीत होगा। लेकिन विद्यासागर के जन्म की 200वीं जयन्ती मनाते हुये उनकी वैज्ञानिक व तार्किक सोच की धारा को आगे न बढ़ायें तो अब तक की गई सारी बातें अधुरी ही रह जायेंगी।   


                 
 

 
           


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