भारत का संविधान कार्यपालिका एवं विधायिका के करणत्वों के साथ सुखी संगति में क्रियाशील है। पर यथार्थ में महान बनने के लिये, अपनी जनतांत्रिक शक्ति का प्रयोग करती हुई न्यायपालिका को ऊंचे दर्ज की आजादी हासिल रहनी चाहिये। लेकिन यह आजादी खतरनाक एवं गैरजनतांत्रिक भी हो सकती है, बशर्ते अच्छे आचरण एवं उत्तरदायित्व के नियमों के साथ एक सांविधानिक अनुशासन मौजूद हो - इनके बिना 'चोगा' [यानि जजसाहब का काला चोगा - अनु०0] अहंकारी भी साबित हो सकता है।
स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर सर्वोच्च न्यायालय में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान, सरकार द्वारा न्यायिक आजादी एवं न्यायिक जिम्मेदारी के बीच सन्तुलन बनाये रखने की जरुरत पर मुख्य न्यायाधीश एस एच कापाडिया के किये गये टिप्पणियों का सामंजस्य न्यायिक औचित्य पर कानून मंत्री सलमान खुर्शीद के किये गये टिप्पणियों के साथ उपरोक्त सन्दर्भ में ही हो सकता है। अपनी अपनी क्रियाशीलता में इनके [ यानि कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपाल्रिका - अनु0] करणत्वों की त्रिमुर्ति के बीच सामंजस्य ही संविधान के साथ न्याय करता है। न्यायिक उत्कृष्ट आचरण पर एक महान अध्याय की रचना, जो 'चोगों' को उच्छूखल और अशिष्ट होने से रोके तथा हमेशा संयत रखे, अत्यंत आवश्यक है।
संविधान के तीन करणत्व हैं - कार्यपालिक, विधायिक एवं न्यायिक। राज्यसत्ता के कानूनों एवं नीतियों को लागू करना कार्यपालिका का उत्तरदायित्व है। प्रधानमंत्री के नेतृत्व में केन्द्र का मंत्रीपरिषद एवं मुख्यमंत्री के नेतृत्व में राज्यों का मंत्रीपरिषद, कार्यपालिका की प्रधान एजेंसियाँ हैं। कानून का विधान प्रशासन को संचालित करता है।
अपने दो सदनों के साथ संसद तथा राज्यस्तर पर विधानसभायें कानून बनाते हैं। जब कार्यपालिका एवं विधायिका कुछ ऐसे कार्य करती हैं जो स्वेच्छाचारी हो, या सांविधानिक प्रावधानों के विपरीत हों, तो न्यायपालिका को, निर्देश जारी कर उन्हे सुधारने की शक्ति है। संविधान मौल्रिक अधिकारों को वर्णित करता है,
और अगर राज्य उनकी सुरक्षा नहीं करते हैं तो कोई भी नागरिक अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिये याचिका दायर करने हेतु सर्वोच्च न्यायालय पहुँच सकता है।
इस तरह, तीन करणत्वों के बीच, न्यायपालिका को विशिष्टता प्राप्त है। लेकिन खुद न्यायपालिका को संविधान के अनुसार आचरण करना है तथा संविधान के ढाँचे के अन्तर्गत काम करना है।
फेलिक्स फ्रांकफुर्टर ने युँ कहा, “व्यक्ति के रूप में न्यायाधीशों को या संस्था के रूप में न्यायालयों को आलोचना से, दूसरे व्यक्तियों या संस्थाओं के मुकाबले अधिक छूट कतई नहीं मिलनी चाहिये। न्यायिक पदों के अधिकारी चुँकि न्याय के हित के साथ एकरूपता प्राप्त कर लेते हैं इसलिये वे अपनी आम मानवीय दुर्वलता एवं स्खलनशीलता को भूल जाते हैं। न्यायाधीश के आसन पर कभी कभी कठोर अनुशासन के धारक बैठे दिखे हैं तो कभी अपने अधिकारों के आड़म्बरपूर्ण प्रयोग करनेवाले जो अपने तथाकथित सम्मान के पक्ष में ताकत के साज़ोसामान का इस्तेमाल करते दिखे हैं। इसलिये रुक्षता की परवाह किये बगैर, स्पष्ट आलोचना की सशक्त धारा के माध्यम से न्यायाधीशों को अवश्य ही उनकी सीमाओं का एवं अन्तत: जनता के प्रति उनकी जिम्मेदारी का ध्यान दिलाते रहना चाहिये।”
अंतिम प्राधिकार
संविधान की व्याख्या के मामले में न्यायाधीश अंतिम प्राधिकार हैं, इसलिये उन्हे विधि एवं विश्व की सांस्कृतिक संपत्ति का ज्ञाता होना चाहिये। संविधान एवं कानूनों के क्रियान्वयन में उनकी सर्वोच्च भूमिका होती है। लेकिन न्यायाधीशों की नियुक्ति का तरीका एक गंभीर चिन्ता का विषय है। युँ देखा जाय तो राष्ट्रपति उनकी नियुक्ति करते हैं, लेकिन वास्तव में राष्ट्रपति सिर्फ मंत्रीपरिषद के फैसलों को लागु करते हैं।
संविधान का आमुख सर्वोच्च कानून का आधार स्थापित करता है यह कहकर कि “भारत एक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष जनवादी प्रजातंत्र होगा जो सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय को सुनिश्चित करेगा तथा विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था व पूजन की मुक्ति एवं प्रतिष्ठा व अवसर की बराबरी को सुनिश्चित करेगा; साथ ही व्यक्ति के सम्मान एवं राष्ट्र की एकता व अखंडता को सुनिश्चित करते हुए, उनके बीच भाईचारे को प्रोत्साहित करेगा।”
स्पष्टता की जरूरत
लेकिन न्यायाधीशों को कौन चुनेगा, कौन उनके गुणवत्ता व वर्गीय चरित्र को निर्धारित करेगा? अगर चयन की नीतियों के बारे में स्पष्ट वक्तव्य मौजूद न हो तो चुने गये न्यायाधीश जनतंत्र के लिये आवश्यक चरित्र व आचरण की कसौटी पर खरे नहीं उतरेंगे, क्योंकि अक्सर वे मालिक वर्ग के होंगे और प्रशासन [गवर्नेन्स] मेँ सर्वहारा की कोई आवाज नहीं होगी; मालिक ही शासक वर्ग रहेंगे।
ब्रिटेन के सम्बन्ध में इस स्थिति को विन्स्टन चर्चिल ने युँ स्पष्ट किया था, “आपराधिक मामलों में अदालतों को न्यायसंगत तौर पर उच्च, एवं मेरे विचार से, दुनियाँ में इतनी विशिष्टता प्राप्त हैं जिसकी कोई बराबरी नही। आदमी आदमी के बीच के नागरिक मामलों में भी नि:सन्देह, उन्हे समुदाय के सभी वर्गों का आदर एवं प्रशंसा प्राप्त है एवं प्राप्त होना भी चाहिये। लेकिन जहाँ वर्गीय मुद्दे शामिल हैं, यह स्वांग भरना असंभव है कि अदालतों को उतनी ही सामान्य आस्था हासिल है। वल्कि इसके विपरीत, सच्चाई यही है कि उन्हे यह आस्था हासिल नहीं है, और [उन्हे देखते हुए] हमारी आबादी की एक बड़ी संख्या की राय यही बनी है कि वे, बेशक अनजाने ही, पूर्वाग्रहित हैं।”
भारत में भी हमारे बीच वही कमजोरियाँ हैं जिन्हे चर्चिल ने दर्शाया था। फलस्वरूप, समाजवाद एवं सामाजिक न्याय बस कागज़ी वायदे हैं। फिर, कॉलेजियम के नाम से एक नई चीज़ बनी। न्यायाधीशों के चयन पर सर्वोच्च न्यायालय के एक ऐसे फैसले से यह चीज़ आई जो फैसला 5-4 पर, यानि मात्र । की बहुमत पर ली गई। यह फैसला कार्यपालिका पर वाध्यतामूलक था, और अन्तत: कार्यपालिका के फैसले को ही राष्ट्रपति को लागु करना था।
फलस्वरूप, आज हमारे सामने एक ऐसी अजीब चीज़ है जिसकी मान्यता संविधान में नहीं है, बस, सर्वोच्च न्यायालय का एक फैसला है, वह भी 1 की नाजुक बहुमत पर। आज कॉलेजियम ही चयनकर्त्ता है। चयन की प्रक्रिया में ऐसा कोई ढाँचा मौजूद नहीं है जहाँ आमजनों की राय सुनी जाय। कोई नीति निर्धारित नहीं है, कोई जाँच नहीं की जाती है, और एक किस्म की अराजकता व्याप्त है।
लघुतम शब्दों में, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश कॉलेजियम के सदस्यों द्वारा नीतिविहीन तरीके से, वर्गचरित्र की जाँच या अध्ययन के बगैर चुने जाते हैं। इस तरह चयनित न्यायाधीशों की आलोचनायें होती रही हैं पर कॉलेजियम किसी के प्रति जबाबदेह नहीं है।
इन हालातों में, संघीय कानून मंत्री ने सरकार का प्रस्ताव बताया है कि कॉलेजियम प्रणाली को खत्म कर आयोग का गठन किया जाय। लेकिन आयोग का गठन किस प्रकार किया जायेगा? किसके प्रति जबाबदेह होगा यह आयोग? आयोग कौन सी निर्देशक नीतियों का अनुपालन करेगा? इन मुद्दो पर आम बहस होनी चाहिये। आवश्यक है, न्यायपालिका पर एक विशेष अध्याय के साथ संविधान में सुधार। ऐसा सुधार संसदीय क्रिया के माध्यम से ही हो सकता है।
बेशक, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के चयन के लिये बना आयोग उँचे स्तर का होगा। इसे सबसे उँचे स्तर का होना चाहिये जिसका दर्जा प्रधानमंत्री या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के बराबर हो। भारत के मुख्य न्यायाधीश को इस आयोग का अध्यक्ष होना चाहिये।
चयन की प्रक्रिया में, चरित्र, वर्गीय पूर्वाग्रह, साम्प्रदायिक रुझान एवं आमजनों द्वारा लगाये गये अन्य कोई भी लांछन की जाँच होनी चाहिये। यह जाँच पुलिस के द्वारा नहीं की जायेगी क्योंकि वह सरकार के अधीन कार्यरत है, वल्कि आयोग के नियंत्रण के अधीन कार्यरत एक स्वतंत्र गुप्त जाँच एजेन्सी द्वारा की जायेगी। विशिष्ट आलोचकों द्वारा दिये गये ये एवं अन्य रायों पर विचार करना होगा।
आयोग को पूर्णत: स्वतंत्र होना होगा एवं इसकी विचारधारा संविधान के मूल्यों से आम तौर पर मेल खाती हुई होनी चाहिये। राजनीतिक दलों एवं ताकतवर कार्पोरेशनों द्वारा डाले गये दबावों से आगे जाकर इस आयोग को संविधान की संप्रभुता बनाई रखनी होगी। डर और पक्षपात, राग और द्वेष के बिना इसे कार्य करना होगा। इसकी बनावट एवं संचालन ऐसी होनी चाहिये कि यह स्वतंत्र रूप से कार्य कर सके। आयोग को नागरिक एवं आपराधिक, दोनो किस्म के कानूनी कार्रवाईयों से प्रतिरक्षित होना चाहिये। इसे हटाने की क्षमता सिर्फ एक
उच्चस्तरीय न्यायाधिकरण को होना चाहिये जिस न्यायाधिकरण में भारत का मुख्य न्यायाधीश एवं सभी उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को साथ बैठना चाहिये और सार्वजनिक तौर पर लगाये गये किसी भी आरोप पर निर्णय लेना चाहिये। हमें, भारतीय जनता को, आयोग की प्रक्रिया में निर्वाध अभिव्यक्ति मिलनी चाहिये।
[अंग्रेजी से अनुवाद - विद्युत पाल]
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