Friday, November 4, 2022

सीपीआई(एम) की 50वीं जयन्ती – प्रकाश करात

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) अपनी स्थापना की 50वीं जयन्ती मना रही है । कोलकाता में सम्पन्न 7वें कांग्रेस (31 अक्तूबर से 7 नवम्बर 1964) में जिस पार्टी का जन्म हुआ था, अनेकों इम्तहान एवं कठिनाइयों से गुजरते हुये वह पार्टी आगे बढ़ी है । आज इस अवसर पर हम उन हजारों साथियों को याद करते हैं एवं श्रद्धांजलि देते हैं जो पार्टी एवं आन्दोलन के लिये शहीद हुये । 

सीपीआई(एम) का गठन भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन के एक महत्वपूर्ण एवं निर्णायक चरण को सूचित करता है । सन 1920 में प्रवासी भारतीय कम्युनिस्टों के एक गुट ने कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना ताशखन्द में की थी एवं उस पार्टी को कम्युनिस्ट इन्टरनैशनल ने स्वीकृति दी थी । आगे चलकर, 1920 के दशक में देश के विभिन्न भागों में छोटे छोटे कम्युनिस्ट गुट उभर आये ।  भारत की कम्युनिस्ट पार्टी एक संगठित अखिल भारतीय पार्टी के रूप में काम करना शुरू किया सन 1934 में, जब मेरठ षड़यंत्र मुकदमें के बन्दी जेल से रिहा हुये ।

सीपीआई(एम) का गठन देश की स्वतंत्रता के उपरांत भारतीय क्रांति किस रणनीति के अनुसार बढ़ेगी इस विषय पर दीर्घ आन्तर्पार्टी संघर्ष का परिणाम था । पूरे एक दशक तक संयुक्त पार्टी के अन्दर यह संघर्ष जारी रहा और इसी के कारण कोई कार्यक्रम स्वीकृत नहीं किया जा सका । 

जब 1964 के अप्रैल महीने में, राष्ट्रीय परिषद की बैठक से 32 सदस्यों के निकल आने के बाद पार्टी का विभाजन हुआ, सामान्यत: इसे सोवियत-चीन विभाजन के तर्ज पर लिया गया । तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने भी सीपीआई(एम) पर ‘पीकिंग-समर्थक’ का तमगा लगाया । भ्रम कुछ हद तक तो इस तथ्य से उत्पन्न हुआ कि 1960 के दशक के उत्तरार्ध में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के आह्वान पर कई देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों से गुटेँ निकल कर नई पार्टियाँ बनाईं । इनमें से अधिकांश मूल पार्टी के टुकड़े बने रहे एवं न तो उनका कोई महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रभाव और न जनाधार बन पाया ।

लेकिन भारत में बातें अलग थीं । यद्दपि यह संयोग था कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का अन्दरूनी विभाजन उसी समय हो रहा था जिस समय सोवियत संघ एवं चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों का विवाद बढ़ रहा था लेकिन वह भारत में हो रहे विभाजन का कारण नहीं था । सीपीआई(एम) का गठन पार्टी के दीर्घ अन्दरूनी संघर्ष का परिणाम था और वह संघर्ष कार्यक्रम की रणनीति के बुनियादी सवालों, मसलन, भारतीय राजसत्ता का चरित्र, शासक वर्गों की प्रकृति आदि पर चल रहा था ।


1

नतीजतन, सीपीआई(एम) के गठन को चिन्हित किया अक्तूबर-नवम्बर 1964 में सम्पन्न पार्टी के 7वें कांग्रेस में स्वीकृत एक कार्यक्रम ।

7वें कांग्रेस में स्वीकृत पार्टी कार्यक्रम भारतीय समाज एवं इस समाज में उपलब्ध वर्गों के मार्क्सवादी-लेनिनवादी विश्लेषण के आधार पर पहली बार भारतीय क्रांति के रणनीतिक कार्यभार का वर्णन किया । कार्यक्रम ने भारतीय राजसत्ता के चरित्र को स्पष्टत:, बड़े पूंजीपतियों के नेतृत्वाधीन पूंजीपति-भूस्वामी गँठजोड़ की राजसत्ता के रूप में परिभाषित किया । फलस्वरूप, मौजूदा रणनीति बनाने की दृष्टि से अत्यावश्यक व निर्णायक इस पहलू पर जो धुंध बनी हुई थी वह छँट गई ।

क्रांति का चरण, राजसत्ता का चरित्र एवं जनता की जनवादी क्रांति के लिये जरूरी वर्ग-मैत्री को कार्यक्रम में वर्णित किया गया । समय और व्यवहार दोनों कसौटियों पर यह कार्यक्रम खरा उतर चुका है । सन 2001 में इस कार्यक्रम को अद्यतन किया गया लेकिन उपर दिये गये मूलभूत रणनीतिक पहलू आज भी सही हैं । पिछले पाँच दशकों में पार्टी के राजनीतिक, सांगठनिक एवं वैचारिक गतिविधियों को इसी कार्यक्रम ने निर्देशित किया है ।

इसी कार्यक्रम के आधार पर सीपीआई(एम) देश की प्रधान वाम पार्टी के रूप में विकसित हुई है । पार्टी की सदस्य संख्या 10 लाख से अधिक है और ये सदस्य जिन जनसंगठनों में काम कर रहे हैं उनकी कुल सद्स्य संख्या है 7 करोड़ ।


2

पार्टी के गठन के तुरन्त बाद सीपीआई(एम) ने अपने वैचारिक समझ को सुत्रवद्ध किया । 1960 के दशक की शुरूआत में अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में गंभीर वैचारिक विवाद व बहस छिड़े हुये थे । नये युग के सारतत्व, प्रधान सामाजिक अन्तर्विरोध, दो सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व एवं समाजवाद की ओर शांतिपूर्ण संक्रमण आदि से सम्बन्धित सवाल सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी एवं चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को दो विरोधी खेमें में तब्दील कर चुके थे एवं उनके बीच तीखे मतभेद एवं वैचारिक विवाद चल रहे थे । सीपीआई(एम) का लगभग पूरा नेतृत्व 7वें कांग्रेस के तुरन्त बाद जेल में डाल दिया जा चुका था – फलस्वरूप, विभिन्न वैचारिक मुद्दों पर पार्टी की समझ वर्ष 1968 तक सुत्रबद्ध नहीं हो पाये । इसके कारण कई हलकों में गलत धारणा उपजी कि सीपीआई(एम) चीनी पार्टी की समझ का अनुसरण कर रही है । पार्टी की वैचारिक समझ को स्पष्ट करने में हुआ विलम्ब, देश के कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर वाम संकीर्णतावादी रुझान के पनपने पर पार्टी को क्षति पहुँचाया । 

पार्टी के अन्दर गहन विचार-विमर्श के उपरान्त सीपीआई(एम) ने सन 1968 में हुये बर्धमान प्लेनम में अपनी वैचारिक समझ को स्वीकृत किया । भारतीय एवं अन्तरराष्ट्रीय, दोनों कम्युनिस्ट आन्दोलनों के भीतर मौजूद दक्षिणपंथी संशोधनवाद एवं वाम संकीर्णतावाद से ऐतिहासिक अलगाव को चिन्हित किया यह प्लेनम । सोवियत संघ की एवं चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों के अनेकों वैचारिक प्रस्थापनाओं की आलोचना कर सीपीआई(एम) ने मजबूत स्वतंत्र पहचान कायम किया ।

यही बात सीपीआई(एम) के विशिष्ट चरित्र को दर्शाता है । जब संयुक्त सीपीआई शैशवावस्था में थी तब अपने तत्व एवं व्यवहार दोनों के लिये यह सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी पर निर्भर करती थी (स्वतंत्रता-पूर्व दिनों में कभी कभी यह प्रक्रिया, कम्युनिस्ट इन्टरनैशनल के निर्देशानुसार ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के माध्यम से हुआ करती थी) । देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी यह परम्परा चलती रही । बाद में, साठ के दशक के अन्तिम वर्षों में वाम संकीर्णतावादी रुझान को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से बल मिलता रहा । सीपीआई(एम) ने इस ‘निर्भरता’ से अपने रिश्ते खत्म किये । कार्यक्रम का सुत्रबद्ध किया जाना, उससे निकलता हुआ कार्यनीतिक परिप्रेक्ष एवं स्वीकृत किये गये वैचारिक समझ ने अतीत के व्यवहार से द्वन्दात्मक टूट को चिन्हित किया । इस मौलिक प्रस्थान का आधार था ठोस भारतीय परिस्थितियों में मार्क्सवाद-लेनिनवाद को लागू करने का दृढ़निश्चय प्रयास । इसका मतलब था उधार लिये गये बुद्धिविवेक पर भरोसा नहीं करना और दूसरे मुल्कों, खास कर जहाँ क्रान्तियाँ हुई थीं उनके द्वारा इस्तेमाल किये गये मॉडलों का यांत्रिक नकल नहीं उतारना । 

सोवियत संघ के पतन का पूरी दुनिया के कम्युनिस्ट पार्टियों एवं समाजवादी लक्ष्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ा । भारत में भी कम्युनिस्ट आन्दोलन पर इसका प्रभाव महसूस हुआ । जबकि, एक पार्टी के रूप में सीपीआई(एम) पर इस परिघटना का प्रभाव, राजनीतिक-वैचारिक तौर पर या एक संगठन के तौर पर विश्व की दूसरी कम्युनिस्ट पार्टियों की तूलना में सबसे कम पड़ा । यह इसलिये क्योंकि पार्टी के पास मार्क्सवाद की स्वतंत्र समझ थी । सोवियत-विरोधी समझ रखते हुये भी इस पार्टी ने सीपीएसयु की विचारधारा एवं व्यवहार के प्रति आलोचक रुख अपनाई थी । चुँकि सोवियत संघ एवं सीपीएसयु पर पार्टी की अंधी आस्था नहीं थी, सोवियत संघ के विघटन का सामना करने के लिये वह बेहतर ढंग से लैस थी । फलस्वरूप सीपीआई(एम) को कम क्षति झेलनी पड़ी । भारत की श्रमजीवी जनता एवं मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा में जड़ें गहरी होने के कारण पार्टी, बीसवीं सदी में समाजवाद के निर्माण के अनुभवों का पुनर्मूल्यांकन करने में एवं इक्कीसवीं सदी में नवीकृत समाजवाद के लिये नये विश्वास के साथ काम करने में इसे अपने सिद्धांत एवं व्यवहार से पोषण मिला । तथ्य यह है कि 1991 के बाद जो दशक बीता उसमें पार्टी सदस्यता में निरन्तर वृद्धि देखी गई । 


3

सीपीआई(एम) का कार्यक्रम कहता है कि कृषिक्रांति जनवादी क्रांति की धूरी है । इसलिये कृषि से सम्बन्धित सवाल एवं कृषिक्रांति पार्टी के व्यवहार में केन्द्रीय स्थान लिये रहे हैं ।

सीपीआई(एम) एक ऐसी पार्टी है जिसने जन्म से ही भूमि संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिये सबसे अधिक काम किया है । जमींदारी-प्रथा के खिलाफ, बेनामी जमीन पर कब्जा के लिये, सीलिंग से फाजिल जमीन के वितरण के लिये, खेतमज़दूरों को बासगीत की जमीन का पट्टा दिलवाने के लिये ये संघर्ष ही थे जिनके नतीजे के तौर पर पश्चिम बंगाल, केरल एवं त्रिपुरा की वाम-नेतृत्व वाली सरकारें ऐसी सरकारें बनीं जिन्होने अकेले सार्थक ढंग से भूमि सुधार को लागू किया । जिन भूमि सुधारों के चलते अतिरिक्त जमीन का बँटवारा हुआ; जमीन का ऊँचा लगान और बढ़ा बढ़ा कर सालाना बदली जाती बटाईदारी खत्म कर बटाईदारी की अवधि सुनिश्चित की जा सकी ।    

1960 एवं 1970 के दशक में इन मुद्दों पर संघर्ष की लहरें उठती रहीं । वर्ष 1967 से 1970 तक पश्चिम बंगाल एवं केरल में जो संयुक्त मोर्चे की सरकारें रहीं, सीपीआई(एम) जिन सरकारों में नेतृत्वकारी शक्ति थी, उन सरकारों ने भूमि के मुद्दे पर जोरदार बढ़त बनाई, क्योंकि उनके पीछे थे शक्तिशाली संघर्ष । 

मज़दूरवर्ग की पार्टी के तौर पर सीपीआई(एम) ने मज़दूरवर्ग के आन्दोलन को मज़बूती देने के एवं मज़दूरों को जनवादी आन्दोलन का नेतृत्व करने में सक्षम राजनीतिक ताकत के रूप में संगठित करने के अनवरत प्रयास किये हैं । निजीकरण एवं श्रम के ठेकाकरण के खिलाफ तथा ट्रेड युनियन अधिकारों की रक्षा के लड़ाइयों को पार्टी सक्रिय ढंग से लेती रही है ।

वर्गीय शोषण एवं सामाजिक दमन को सीपीआई(एम) मौजूदा पूंजीपति-भूस्वामी व्यवस्था का दो खंभा मानता हैं । इसलिये, महिलाओं, दलितों, आदिवासियों एवं अल्पसंख्यकों पर हो रहे तमाम किस्म के सामाजिक दमन के खिलाफ पार्टी निरन्तर लड़ती रही है ।


4

सीपीआई(एम) की यह बुनियादी समझ है कि जनतंत्र एवं जनतांत्रिक अधिकार, यहाँ तक कि देश के संविधान द्वारा मुहैया किये गये सीमित अधिकार भी सुरक्षित नहीं हैं क्यों कि देश के शासक वर्गों को अपने हितों की रक्षा के लिये जब भी जरूरी होता है जनतंत्र पर हमला करते हैं एवं उसे कुंठित करते हैं । सीपीआई(एम) पहली पार्टी थी जिसने सन 1972 में अपने नौवें कांग्रेस में एक-पार्टी-प्रभुत्ववाद के संभावित खतरों के वारे में सावधान किया था । पार्टी ने यह बात, पश्चिम बंगाल में वर्ष 1971 के बाद चलाये गये अर्द्ध-फासीवादी आतंक के राज के अपने अनुभवों के आधार पर कही थी । आतंक के इस राज को इन्दिरा गांधी सरकार एवं राज्य में सत्ता के तंत्र का समर्थन प्राप्त था । वर्ष 1975 के जून महीने में आपातकाल की घोषणा तक की अवधि में सीपीआई(एम) जनतंत्र एवं जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा की लड़ाई में सक्रिय थी । आपातकालीन शासन के विरुद्ध पार्टी संघर्षरत रही । पार्टी के सैंकड़ों नेता एवं कार्यकर्त्ता इस अवधि में जेल में डाल दिये गये लेकिन जनतंत्र पर हमले के विरूद्ध कार्रवाइयों में पार्टी अन्य जनवादी ताकतों के साथ शामिल हुई । इसीलिये, आपातकाल हटाये जाने के बाद पार्टी बढ़े हुये सम्मान के साथ उभर आई । वर्ष 1977 में सीपीआई(एम) एवं वाममोर्चा ने पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव में जो दो-तिहाई बहुमत के साथ जीत दर्ज की उसके पृष्ठभूमि में थी राज्य में अर्द्ध-फासीवादी आतंक के विरुद्ध एवं अखिल भारतीय स्तर पर आपातकाल के विरूद्ध लड़ाई ।

जनतंत्र एवं जनवादी अधिकारों पर हमलों का अक्सर निशाना बने हैं सीपीआई(एम) एवं वाम पक्ष की ताकतें । पश्चिम बंगाल में अर्द्ध-फासीवादी आतंक के बाद वर्ष 1988 एवं 1993 में त्रिपुरा में आतंक का दौर रहा । वर्ष 2011 से पुन: पश्चिम बंगाल व्यापक हिंसा एवं तमाम जनतांत्रिक अधिकार पैरों तले रौंद दिये जाने की स्थिति का सामना कर रहा है । जनतांत्रिक अधिकारों एवं लाल झंडे की रक्षा करते हुये सैंकड़ों साथी अपने प्राणों की आहूति दे चुके हैं ।


5

भारत का कम्युनिस्ट आन्दोलन संसदीय जनतांत्रिक प्रणाली में काम करने के अनुभव का धनी है । इस क्षेत्र में सीपीआई(एम) ने सबसे महत्वपूर्ण योगदान दिया है । स्थापना के बाद पार्टी ने संसदीय मंचों पर काम करने के लिये एवं राज्य सरकारों में भागीदारी के लिये एक सृजनात्मक दृष्टि को सुत्रबद्ध किया । इसके लिये कार्यनीतिक निर्देश कार्यक्रम में ही दिये गये । सन 1957 में केरल में सत्तासीन हुये पहले कम्युनिस्ट मंत्रीसभा के अनुभवों को भी पार्टी ने ग्रहण किया । सीपीआई(एम) तभी किसी राज्य सरकार में शामिल होगी जब वाम एवं जनवादी शक्तियाँ विधायिका में मजबूत ताकत होगी। पार्टी की नजरिया थी कि राज्य सरकारों में उसकी भागीदारी, पूंजीपति-भूस्वामी व्यवस्था के अन्दर संभव हो ऐसे सारे राहत जनता को मुहैया कराने के साथ साथ जनसंघर्ष एवं जनवादी आन्दोलन को विकसित करने में मदद के लिये होगी । 1967-70 में पश्चिम बंगाल एवं केरल में बनी संयुक्त मोर्चे की सरकारों के माध्यम से सीपीआई(एम) अपने सिद्धान्त को व्यवहार में लाई ।

पश्चिम बंगाल, केरल एवं त्रिपुरा में वर्ष 1977 के बाद, सीपीआई(एम) के नेतृत्व वाली वामपंथी सरकारों का निर्माण एवं संचालन पूंजीपति-भूस्वामी नीतियों के खिलाफ वैकल्पिक नीतियों (राज्य सरकार की सीमाओं के अन्दर) को उजागर करने के संघर्ष के माध्यम से वाम एवं जनवादी अन्दोलन को विकसित करने के कार्यभार का महत्वपूर्ण हिस्सा था ।

भूमि सुधार, सत्ता का विकेन्द्रीकरण, सामुहिक कार्रवाइयों के लिये श्रमजीवी जनता के अधिकारों का सशक्तिकरण एवं धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के क्षेत्र में इन सरकारों के उपलब्धियों का योगदान, वाम एवं जनवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने में रहा ।


6

उपरोक्त तमाम पहलुओं के साथ साथ राजनीतिक मंच के तौर पर सीपीआई(एम) संघीय प्रणाली की हिमायत करती रही है । राष्ट्रीय प्रश्न पर सीपीआई(एम) की समझ के अनुसार भारत एक बहुराष्ट्रीय देश है । भारतीय संघ की एकता एक संघीय ढाँचे में ही मजबूत हो सकती है जिसमें सभी भाषाई राष्ट्रीयताओं को देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास में उचित हिस्सा मिलेगा । देश के राजनीतिक ढाँचे को संघीय रखना ही होगा ।

क्षेत्रीय, भाषाई एवं नृकेन्द्रिक अंधराष्ट्रवाद का मुकाबला करते हुये संघीय प्रणाली एव जनता की एकता के पक्ष में अडिग शक्ति रही है सीपीआई(एम) । जब 1980 के दशक में देश के विभिन्न भागों में विभाजनकारी शक्तियाँ सक्रिय थीं, राष्ट्रीय एकता के प्रश्न पर सीपीआई(एम) सुदृढ़ रही और पार्टी के सैंकड़ों कॉमरेडों ने पंजाब, असम, त्रिपुरा तथा जम्मु एवं कश्मीर में अपने प्राणों का बलिदान दिया । केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के पुनर्गठन के मामले में पार्टी ने निर्णायक भूमिका निभाई और पार्टी की राय वाम-नेतृत्व वाली राज्य सरकारों के माध्यम से अभिव्यक्त हुई । वर्ष 1983 में श्रीनगर में 15 पार्टियों की जो बैठक (कॉनक्लेव) हुई थी उसमें केन्द्र-राज्य सम्बन्धों पर साझा समझ को सुत्रबद्ध करने में पार्टी की अहम भूमिका रही ।


7

सीपीआई(एम) सबसे अडिग एवं दृढ़निश्चय शक्ति रही है साम्प्रदायिकता के विरुद्ध । ऐतिहासिक तौर पर, ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ाई के दिनों में धार्मिक साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल जनता को बाँटने के हथियार  के रूप में किया गया । यह भी इतिहास है कि देश के बँटवारे के दिनों में साम्प्रदायिक उन्माद के विरुद्ध अडिग खड़े रहे कम्युनिस्ट । जितनी भी कम संख्या में हों, कम्युनिस्ट हिंसा के विरुद्ध खड़े हुये एवं उन्मादी भीड़ के हमलों से लोगों को बचाया । बाद में, स्वतंत्र भारत में भी, जब कभी साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे, कम्युनिस्टों ने उन्हे बचाने की कोशिश की जो हमलों के शिकार बन रहे थे । इसी परम्परा में केरल के सीपीआई(एम) नेता यु.के.कुन्हिरमन 1968 की साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान आक्रांत एक मसजिद की रक्षा करने में मारे गये । सीपीआई(एम) धर्मनिरपेक्षता की नीति पर अडिग है । धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है राजसत्ता एवं राजनीति से धर्म को अलग रखना । पूंजीवादी पार्टियाँ बहुसंख्यक एवं अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता के विभिन्न ताकतों का तुष्टीकरण करती रहती है, जबकि सीपीआई(एम) राजनीति में साम्प्रदायिक शक्तियों के द्वारा किसी भी किस्म के हस्तक्षेप के विरुद्ध है ।

जब 1980 के दशक के उत्तरार्ध में बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता के खतरे बढ़ने लगे, सीपीआई(एम) ने दर्शाया कि भाजपा-रास्वस गँठजोड़ से ही यह खतरा उत्पन्न हो रहा है । हिन्दूत्व की ताकतों का मुकाबला करने और उन्हे राजनीतिक तौर पर अलग-थलग करने के लिये पार्टी ने डट कर अपना काम किया है । पार्टी मानती है कि भाजपा की चढ़त और उसका सत्तासीन होना बड़े पूंजीपति एवं कॉर्पोरेट हितों के साथ जुड़ी हुई है क्योंकि वे भाजपा को नव-उदारपंथी एजेन्डा के प्रति प्रतिबद्ध पार्टी के रूप में देखते हैं । इसीलिये सीपीआई(एम) नव-उदारवादी नीतियों के खिलाफ संघर्ष एवं बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष को अन्तर्सम्बन्धित मानती है । पूरे राजनीतिक परिदृश्य में अकेले सीपीआई(एम) एवं वाम दल ऐसी ताकतें हैं जिन्होने भाजपा एवं साम्प्रदायिक शक्तियों के साथ, चुनावी हो या राजनीतिक, किसी लाभ के लिये कभी समझौते नहीं किये हैं ।


8

पिछले पाँच दशकों की अवधि में सीपीआई(एम) भारत के विकास के वैकल्पिक मार्ग की हिमायत करने वाली उल्लेखनीय राजनीतिक शक्ति रही है; एक ऐसा वैकल्पिक मार्ग जो सामाजिक एवं आर्थिक तौर पर न्यायपूर्ण हो और राजनीतिक तौर पर जनतांत्रिक हो । भारतीय राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में जो भी मुख्य मुद्दे उभर कर आये हैं – धर्मनिरपेक्षता, जनतंत्र, संघीय प्रणाली, बराबरी एवं न्याय – सीपीआई(एम) ने उनमें अपना विशिष्ट योगदान दिया है ।

हाल के चुनावों में सीपीआई(एम) एवं वामपक्ष को गंभीर पराजय का सामना करना पड़ा है । दक्षिणपंथी आक्रमण के फलस्वरूप भाजपा की सरकार आई है जो कॉर्पोरेट ताकत एवं हिन्दुत्व की द्वैत शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती है । धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र, श्रमजीवी जनता के अधिकार एवं वैकल्पिक नीतियों की जरूरत है सशक्त सीपीआई(एम) एवं वामपक्ष । पार्टी इस चुनौती को संजीदगी के साथ स्वीकार रही है । अप्रैल 2015 में होने वाले पार्टी के 21वें कांग्रेस की तैयारी में, केन्द्रीय कमिटी एक ताजा राजनीतिक-कार्यनीतिक लाईन को सुत्रबद्ध कर रही है जो नई राजनीतिक परिस्थिति का असरदार मुकाबला कर सके । दो दशकों से अधिक हो गया नव-उदारवादी पूंजीवाद के आये हुये । इस दौरान भारतीय समाज एवं वर्गों में आये ठोस बदलावों का भी अध्ययन कर रही है केन्द्रीय कमिटी । पार्टी कांग्रेस नई दिशा देगा संगठन एवं जनता के बीच संगठन के कार्यों के लिये । 

हमारे शासक वर्गों के द्वारा लागू किया जा रहा नव-उदारवादी मॉडल देश के सामने पहले से अधिक हिंसक लूटेरा एक पूंजीवादी प्रक्रिया को उजागर कर रहा है । आर्थिक एवं राजनीतिक असमानतायें तीव्रता के साथ बढ़ी हैं । दुनिया में सबसे धनी कुछ व्यक्तियों के साथ साथ भारत, दुनिया में सर्वाधिक दरिद्र लोगों का भी देश है । समाजवाद की ओर जाने वाले वैकल्पिक मार्ग के लिये लड़ाई एक जारी एवं कठोर संघर्ष है ।

सीपीआई(एम) के 50वें वर्षगाँठ पर, विश्वास एवं दृढ़निश्चय के साथ उस लक्ष्य की ओर बढ़ते रहने के लिये हम खुद को पुन: समर्पित करते हैं ।     


[पीपुल्स डेमोक्रेसी में प्रकाशित। अनुवाद - विद्युत पाल]

No comments:

Post a Comment