Thursday, September 20, 2018

कर्माटाँड़ के विद्यासागर

पटना-कोलकाता मेन लाईन पर एक्स्प्रेस ट्रेनें आम तौर पर मधुपुर के बाद सीधा जामताड़ा में रुकती हैं । बीच में एक स्टेशन है विद्यासागर । आज से चार दशक पहले इस स्टेशन का नाम था करमाटाँड़। कस्बा आज भी करमाटाँड़ के नाम से ही जाना जाता है । सवारी और कुछ एक्सप्रेस गाड़ियाँ रुकती हैं । बसें आती हैं जामताड़ा से । इसी कस्बें में स्टेशन से थोड़ी ही दूरी पर है एक बड़ा सा अहाता । टूटे हुए प्रवेश-द्वार के दाहिने खंभे पर संगमरमर का छोटा सा फलक लगा है ‘नन्दन कानन’ । अन्दर प्रवेश करने पर देखेंगे कि चारदिवारी से घिरी फैली हुई जमीन पर जहाँ तहाँ दो-चार घर-मकान खड़े हैं । दो तीन जो नये हैं आप देखने से ही समझ जायेंगे । दो पुराने हैं । एक, घुसते ही बाँये और दूसरा बिल्कुल नाक की सीध पर, अहाते के बीचोबीच । यह दूसरावाला ढाँचा ही ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का बंगला, या निवास-भवन है । इसमें कुल 11 कमरे थे । इस दूसरे वाले ढाँचे के अन्दर एक कमरे में अभी भी विद्यासागर जिस पर सोते थे वह पलंग रखा है – बांग्ला के इस भाषातीर्थ का दर्शन को आने वाले लोग इस पलंग को स्पर्श कर प्रणाम करते हैं ।
जो पहला ढाँचा प्रवेशद्वार से बाँये है उसका नाम है भगवती भवन, विद्यासागर की माँ के नाम पर । इसे 1994 में कलकत्ता स्थित ‘विश्वकोष परिषद’ एवं ‘पथेर पाँचाली’ संस्था के आर्थिक सहयोग से बनाया गया । थोड़ा आगे बढने पर बांयी ओर विद्यासागर की प्रतिमा दिखेगी – ठीक उसी जगह पर जहाँ वह शाम को बैठते थे ।… इस प्रतिमा को बिहार बांगाली समिति ने 1993 में बनवाया । पटना के प्रख्यात वकील श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने इसके खर्च का भार उठाया था । पटना उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश बिमल चन्द्र बसाक ने इसका अनावरण किया था ।
वर्ष 1994 में विद्यालय के लिये भी एक भवन का निर्माण अधूरे तौर पर किया गया, स्थानीय विधायक शशांक शेखर भोक्ता के ‘विधायक फंड’ से । उसी साल पश्चिम बंगाल सरकार के खेल व परिवहन मंत्री सुभाष चक्रवर्ती ने विद्यालय चलाने के लिये एक लाख रुपये दिये ।
बाकी ढाँचे भी उसके बाद बिहार या झारखंड की बांगाली समिति या उसकी जमशेदपुर इकाई एवं कई व्यक्तियों के अनुदानों से बने हैं । इनमें उल्लेखनीय है झारखंड के सांसद एवं भूतपूर्व मुख्यमंत्री शिबु सोरेन के एम॰पी॰फन्ड से विद्यालय भवन निर्माण के लिये चार लाख रुपये, रमला चक्रवर्ती, ‘पथेर पाँचाली’ की ओर से विद्यालय अमानत कोष में पाँच लाख रुपये, होमिओपैथी चिकित्सालय का घर बनाने के लिये जमशेदपुर निवासी चमेली चटर्जी द्वारा चालीस हजार रुपये तथा चिकित्सालय की दवाओं के लिये पार्वती किंकर राय द्वारा दस हजार रुपये । चारदिवारी भी कई व्यक्तियों या परिवारों के दस-दस हजार रूपये या उससे अधिक के अनुदानों से बने हैं; बन रहे हैं । एक नि:शुल्क होम्योपैथिक चिकित्सालय अभी भी चल रहा है । एक बालिका विद्यालय चलाया जा रहा था जिसे पैसों के अभाव में कुछ दिनों के लिये बन्द कर दिया गया । अब फिर नये तरीके से चलने वाला एक स्कूल खोला गया है । आगे इस भाषातीर्थ को विकसित करने की कई योजनायें हैं । कोष के अभाव के कारण उन योजनाओं पर काम आगे नहीं बढ़ पा रहा है ।

हिन्दी जगत में विद्यासागर कोई अपरिचित नाम नहीं है । खास कर उन्नीसवीं सदी के बांग्ला नवजागरण के दो युगनायक के नाम हिन्दी राज्यों के प्राथमिक स्तर के पाठ्यपुस्तकों में भी पाये जाते हैं । वे हैं राजा राममोहन राय एवं इश्वरचन्द्र विद्यासागर ।
लेकिन यह आलेख न तो बांग्ला नवजागरण को वारे में है और न ही नवजागरण के उपरोक्त दो शिखरों में से एक, विद्यासगर के जीवन और कर्म का कोई सम्यक आकलन है । यह आलेख महज एक कोशिश है यह बताने की कि किस तरह अपनी मातृभाषा सम्बन्धित अधिकारों के लिये लड़ते हुये बिहार एवं झारखंड (उस समय दोनों प्रदेश एक थे) के बांग्लाभाषियों ने मातृभाषा के प्रथम गुरू के जीवन-संध्या के निवास को अपने ही धरोहर के रूप में आविष्कार किया – उस धरोहर को बचाया और अपने उत्तराधिकार में शामिल किया ।
गर्वोन्नत होकर बंगाल के निवासियों से हम कहते भी हैं – आपने तो सांस्कृतिक मूलभूमि को होने और महानगर के होने के अहंकार से खोजना भी छोड़ दिया था कि सन 1873 के आसपास ईश्वरचन्द्र विद्यासागर अगर कलकत्ता या उनका गाँव वीरसिंह छोड़ कर पश्चिम की ओर आये तो कहाँ आये, कहाँ बसे, क्या करते रहे ! अपनी महानागरिक बौद्धिकता में यह भी सोचा होगा कि परिवार व आसपास के लोगों के व्यवहार से खिन्न होकर, टूटे हुये हृदय लेकर कहीं गये तो नवजागरण के विमर्श से ही बाहर चले गये होंगे! तब उनके बारे में क्या सोचना ?… आप देख ही नहीं पाये कि उन्नीसवीं सदी की भारतीय मनीषा का यह स्वर्णिम शिखर चरम विपत्ति में भी टूटनेवाला नहीं था, टुच्चे मध्यवर्गीय भौंकों का तो हिसाब भी नहीं रखता था । हाँ, उस दोमुहेपन के परिवेश से विरक्त होकर खुद को अलग जरूर कर लिया था, अपने परिवार को लेकर भी वह भ्रममुक्त हो गये थे । इतिहास की दृष्टि से देखिये तो विद्यासागर का पश्चिम की ओर यात्रा वास्तव में बंगाल के नवजागरण की एक धारा की अगली यात्रा का हिस्सा था – सामान्यत: दरिद्र और श्रमजीवी वर्गों की ओर ।
शशिपद मुखर्जी ने 1874 में ‘भारत श्रमजीवी’ पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया । स्वदेशी अखबारों में लगभग उसी दशक से असम के चाय-बगीचों के मजदूरों पर हो रहे जुल्म की खबरें आने लगीं । 1878 में ब्राह्मो समाज ने ‘वर्किंग मेन्स मिशन’ शुरू किया । दीनबन्धु मित्र का सुविख्यात नाटक 1959 में लिखा जरूर गया था लेकिन कलकत्ता के वाणिज्यिक मंच पर पहली बार खेला गया 1872 में । बल्कि, कलकत्ता के वाणिज्यिक थियेटर का यह पहला नाटक था । इस नाटक को विद्यासागर देखने गये थे और सब जानते हैं वह मार्मिक कहानी – नाटक में अत्याचारी अंग्रेज नीलहे साहब वुड को देखते हुये विद्यासागर ने अपना जूता फेंक कर मारा । वुड की भूमिका निभा रहे कलाकार ने जूते को सर से लगा कर आशिर्वाद स्वरूप स्वीकार किया ।

वर्तमान में आगे बढ़ने से पहले प्रस्तुत है इस तीर्थ की खोज की कहानी एवं पुरानी पत्रिकायें खंगाल कर कुछ विद्वतजनों का स्मृति-लेख ।
“कर्माटाँड़ में विद्यासागर के मकान का पता हमें कलकत्ता विश्वविद्यालय के कूलपति डा॰ सत्येन सेन से मिला । डा॰ सेन विश्वविद्यालय के काम से पटना आये थे 70 के दशक की शुरुआत में । यहाँ रुके थे उनके रिश्तेदार एवं पटना के सुविख्यात डाक्टर अजीत सेन के घर में । [अजीत सेन यानि ए॰ के॰ सेन या सेनसाहब जो कभी पटना के विधायक भी थे – वर्तमान लेखक] डाक्टर सेन ने एक दिन मुझे बुलवाया सत्येन सेन से भेँट करने के लिये । सत्येनबाबु ने विद्यासागर स्मृतिरक्षा, वयस्क शिक्षा आदि के कामों में हमारी सहयोगिता मांगी । उनकी अध्यक्षता में पश्चिम बंगाल में उस समय साक्षरता अभियान, विद्यासागर के रचनाओं के संग्रह का प्रकाशन आदि का काम चल रहा था । बातचीत के दौरान उन्होने बताया कि विद्यासागर की स्मृति को संजोये रखने लायक कुछ भी अब नहीं बचा है । कलकत्ता के घर दूसरे लोगों के हाथों में चला गया है – उन्हे अब निश्चित तौर पर चिन्हित करना भी संभव नहीँ हो पा रहा है । वीरसिंह [उनका जन्मस्थल – व॰ले॰] का घर, विद्यालय आदि ध्वस्त हो गया है । बचा है सिर्फ कर्माटाँड़ का घर । हालाँकि उसका मालिकाना अभी दूसरे लोगों के हाथ में है । कर्माटाँड़ के घर के साथ विद्यासागर की बहुत सारी स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं । इसी घर से उन्होने भारत में पहली बार वयस्क एवं नारी शिक्षा, होमियो-चिकित्सा आदि काम प्रारंभ किया था । …
“… डाक्टर सेन को मैंने कहा कि इस काम का उद्यम बिहार बांगाली समिति ले, इसके लिये कोशिश की जा सकती है । बांगाली समिति के सर्वमान्य नेता डाक्टर शरदिन्दू घोषाल [पटना के दंतकथाओं में शामिल हो चुके घोषाल डाक्टर जिनकी बहुत सारी मजेदार कहानियाँ अभी भी चर्चे में आ जाती हैं – व॰ले॰] को राजी कराने पर काम होने की उम्मीद है सुन कर डाक्टर सेन ने तत्काल अपने गुरू डाक्टर घोषाल को फोन किया और फिर मुझे भेज दिया उनके पास विस्तार से बातचीत के लिये । घोषाल साहब साहब को कई सारे तर्कों के सहारे राजी कराया गया । तय हुआ कि बांगाली समिति को इस काम के साथ जोड़ा जायेगा । समिति के नये स्वीकृत कार्यक्रम के अनुसार बिहार में बंगला शिक्षा को फिर से पटरी पर लाने से सम्बन्धित कामों को कर्माटाँड़ एवं विद्यासागर स्मृति-रक्षा को केन्द्र में रख कर क्रियान्वित किया जायेगा । उन्होने मुझे एवं नरेन मुखर्जी को कर्माटाँड़ जाकर इस दिशा में विस्तृत रूप से जाँचपड़ताल करने को कहा। उन्होने यह भी खबर लिया कि कर्माटाँड़ में रेलस्टेशन तो है पर पटना से जाने वाली कोई भी ट्रेन वहाँ रुकती नहीं है । इसीलिये नरेन मुखर्जी की गाड़ी पर ही कर्माटाँड़-अभियान का जिम्मा उन्होने हम दोनों को दिया । पॉकेट में 300/- रुपये ठूँस कर कहा – यह रहा पेट्रॉल का खर्च ।” –
‘बिहार में विद्यासागर एवं वर्णपरिचय’, गुरूचरण सामन्तो, प्रतर्क, पौष 1412 (दिसम्बर 2005) में प्रकाशित ।

गाड़ी का रास्ता भी टेढ़ा था उस समय । जसिडीह, दुमका, मिहिजाम, जामताड़ा होकर कर्माटाँड़ पहुँचा जा सकता था । आगे सुनिये नरेन मुखर्जी के जबानी:
“डाक्टर एस॰ एम॰ घोषाल के निर्देशानुसार अधोहस्ताक्षरी एवं प्रो॰ गुरूचरण सामन्तो दिनांक 20॰9॰72 को पटना से रवाना हुये…। 20 तारीख की रात को हम दुमका में रुक गये । 21 को जामताड़ा के लिये रवाना होकर 23 तक वहीं रुक गये । 21 को मिहिजाम जाकर हमने विद्यासागर के मकान के बारे में खोजबीन की पर निराशा ही हाथ लगा ।
“… 22 तारीख की शाम को हम कर्माटाँड़ गये स्टेशन-मास्टर श्री शिवदास मुखर्जी से मिले जिन्होने काफी सहयोग किया । रेलवे स्टेशन के करीब हम श्री रमा रंजन दत्ता से उनके फार्मेसी में मिले और उनसे जानकारी लेते समय श्री बीरेन्द्र नाथ सेन, सेवानिवृत्त शिक्षक, गवर्नमेन्ट सिनियर बेसिक स्कूल, गाँव: चारघरा, जिला: जामताड़ा हमारी तरफ आये ।
“हमारे आने का उद्येश्य जान कर वह बेहद प्रेरित और उत्साहित हुये और हमें उस जगह पर ले गये जहाँ महान विद्यासागर रहते थे ।”  
[बिहार बांगाली समिति के विचारार्थ नरेन्द्र नाथ मुखर्जी द्वारा सौंपा गया प्रतिवेदन, दिनांक 26॰9॰72]


2
तीर्थस्थल का दर्शन तो हो गया पर इसे वास्तव में तीर्थस्थल बनाने का काम तो अब शुरू होना था । दिनांक 26॰9॰72 को छपरा में बिहार बांगाली समिति की केन्द्रीय कमिटी की बैठक हुई जिसमें कर्माटाँड़ में स्थित ‘नन्दन कानन’ की खरीद, रखरखाव एवं विकास हेतु ‘विद्यासागर स्मृतिरक्षा समिति बनाई गई जिसके सदस्य हुये: -
1॰ श्री देवकान्त बड़ुआ                -           राज्यपाल, बिहार (पदेन)              -                       मुख्य संरक्षक
2॰ श्री विभूतिभूषण मुखोपाध्याय   -           लेखक, दरभंगा                            -                       अध्यक्ष
3॰ डा॰ सत्येन्द्रनाथ सेन              -           कुलपति, कलकत्ता वि॰वि॰           -                       उपाध्यक्ष
4॰ डा॰ एस॰ एम॰ घोषाल            -           चिकित्सक, पटना                        -                       उपाध्यक्ष
5॰ श्री पार्थ सेनगुप्त                      -           प॰बंगाल निरक्षरता                      -                       संयुक्त सचिव                                                                     दूरीकरण समिति
6॰ डा॰ योगेशचन्द्र बनर्जी            -           प्राध्यापक, पटना                         -                       सहसचिव
7॰ श्री सन्तोष कुमार मजुमदार      -           पटना                                         -                       कोषाध्यक्ष
8॰ डा॰ परिमल बन्दोपाध्याय        -           होम्यो॰ चिकित्सक, मिहिजाम        -                       सदस्य
9॰ श्री अरुण बसु                        -           वकील, जामताड़ा                        -                       सदस्य
10॰ श्री ध्रुवज्योति गुप्त                 -           वकील, दुमका                             -                       सदस्य
11॰ श्री हनुमान साव                   -           मुखिया, कर्माटाँड़                        -                       सदस्य

उपरोक्त समिति के सचिव चुने गये श्री सत्येन्द्र नाथ चक्रबर्ती ।

गुरुचरण सामन्तो एवं नरेन्द्र नाथ मुखर्जी ने जो प्रतिवेदन रखा बांगाली समिति की केन्द्रीय कमिटी के समक्ष, उसके अनुसार रबीन्द्र नाथ मल्लिक और जीतेन्द्र नाथ मल्लिक, दो भाई नन्दन कानन के तत्कालीन मालिक थे जो कलकत्ता में रहते थे । यहाँ देख रेख करने वाला था 40 रुपये वेतन और अहाते के 10/11 बीघे में खेती कर खाने वाला रखवाला कार्तिक मंडल । इस 10/11 बीघे से अतिरिक्त चार बीघा जमीन और भी था जो बेच दिया गया था । स्वाभाविक था कि बाकी कहानियाँ भाँति भाँति के धंधेबाजों की थीं जो इस जमीन या इसके हिस्से को हड़पने के लिये हर तरह के दाँव अपना रहे थे । लब्बोलुबाव, बात यह थी कि वहाँ कोई नहीं था जो इस सम्पत्ति को स्मारक बनाने का बीड़ा उठा सके । फलस्वरूप इसे अपना काम समझते हुये, गुरूचरण सामन्तो एवं नरेन्द्र नाथ मुखर्जी ने जामताड़ा में बसे बांग्लाभाषियों से मिलते हुये उनकी कई बैठकें आयोजित की एवं खगेन्द्र नाथ सरखेल, सेवानिवृत्त अनुवादक, पटना उच्च न्यायालय को अध्यक्ष तथा विभूति चौबे, प्राध्यापक, बांग्ला विभाग जामताड़ा कॉलेज को सचिव बनाते हुये बिहार बांगाली समिति, जामताड़ा की एक तदर्थ कार्यकारिणी का गठन किया । स्थानीय लोकप्रिय वकील अरुण कुमार बोस तथा अन्य कई उस समिति में थे । उन बैठकों में नन्दन कानन का महत्व, मौजुदा स्थिति एवं उसे बचाने को बिहार बांगाली समिति का नैतिक दायित्व आदि पर चर्चा हुई । सभी स्थानीय लोगों ने भरपूर सहयोग का आश्वासन दिया । इन सारी बातों को सुन कर तीन फैसलों का होना लाजमी था :-
1॰ अविलम्ब नन्दन कानन के मौजुदा मालिक से सम्पर्क किया जाय और पता किया जाय कि वे सम्पत्ति को बेचना चाहेंगे या नहीं ;
2॰ जामताड़ा में विद्यासागर स्मृतिरक्षा समिति की एक बैठक की जाय ; और
3॰ अगर सम्पत्ति के मालिक से सकारात्मक जबाब मिलता है तो बिहार सरकार से अपील की जाय कि वह जमीन को खरीद कर इसे स्मारक कारूप देनें में पहल करे ।

इसी अनुसार, बिहार बांगाली समिति के तत्कालीन सचिव दीपेन्द्र नाथ सरकार ने 5 अक्तूबर 1972 को नन्दन कानन के मालिक मल्लिक भाईयों को चिट्ठी लिखा । इस चिट्ठी का जबाब जितेन्द्र नाथ मल्लिक ने 11 अक्तूबर 1972 को दिया । 23 अक्तूबर को यह चिट्ठी प्राप्त होने पर सबों ने राहत का साँस लिया । मल्लिक भाईयों का जबाब बहुत ही सकारात्मक था । अब कलकत्ता जाकर मिलने की जरूरत थी ।
तीन महीने बाद 28 जनवरी 1973 को जामताड़ा और कर्माटाँड़ के गण्यमान्य 28 नागरिकों ने सामूहिक हस्ताक्षर से बिहार के मुख्यमंत्री को एक पत्र दिया । सरकार से आग्रह किया गया कि इस सम्पत्ति का अधिग्रहण कर इसे विद्यासागर के नाम से राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया जाय । यह भी सुझाया गया कि स्मारक बनाये जाने के बाद विद्यासागर की स्मृति की रक्षा के लिये यहाँ इलाके के आदिवासियों के लिये एक विद्यालय तथा महिलाओं के लिये कारिगरी एवं व्यवसायिक प्रशिक्षण का एक विद्यालय स्थापित किया जाय । 6 फरवरी को पुन: वैसा ही एक पत्र अन्य 21 नागरिकों ने सामूहिक हस्ताक्षर कर मुख्यमंत्री को भेजा ।
27 अप्रैल को विद्यासागर स्मृतिरक्षा समिति की कार्यकारिणी की बैठक जामताड़ा में हुई । फिर 29 अप्रैल को समिति की आम बैठक हुई । मुख्यत: एक ही मुद्दे के इर्दगिर्द बातचीत हुई, ‘नन्दन कानन’ की सम्पत्ति की खरीद । चर्चे में सचिव द्वारा रिपोर्ट किया गया कि वर्तमान मालिकों ने सम्पत्ति की कीमत 40,000/- रुपये लगाई है । इधर से दाम कम करने की कोशिश का कोई नतीजा नहीं निकला । स्थानीय नागरिकों की ओर से मुख्यमंत्री को दिये गये पत्रों की भी चर्चा हुई । फिर उसी दिन, यानि 29 की सुबह समिति के लोगों ने कर्माटाँड़ जाकर स्थानीय मुखिया व समिति के सदस्य हनुमान साव की मदद से परिसर की नापी करवाई थी, 10 बीघा होने का दावा सही निकला और बाजार-भाव 40,000/- के आसपास ही होने की बात भी सही निकली, यह भी रिपोर्ट किया गया ।
पटना लौटने के बाद समिति के पदाधिकारियों ने एक प्रतिष्ठित सरकारी वैल्युअर से भी सम्पत्ति की संभावित कीमत का आकलन कराया । उन्होने कीमत लगाई 50,000/- रुपये । लेकिन तब तक सम्पत्ति के मालिकों से 24,000/- रुपयों पर बात तय हो गई थी । पंजीकरण का खर्चा कुछ और । 26 सितम्बर 1973 को, विद्यासागर की जयंती के अवसर पर, एक रुपये का कूपन छपवाकर कोष संग्रह अभियान शुरू किया गया । पटना स्थित आई॰एम॰ए॰हॉल में बिहार बांगाली समिति की बैठक में बतौर अतिथि आये हुये बिहार विधान सभा के स्पीकर पंडित हरिनाथ मिश्र ने इस अभियान का उद्घाटन किया । बल्कि उन्होने ही, इसी बैठक में सुझाया कि कर्माटाँड़ रेलवे स्टेशन का नाम ‘विद्यासागर’ होना चाहिये । उनके सुझाव से प्रेरित होकर बैठक ने तत्काल इसी आशय से एक प्रस्ताव लिया । इस बैठक की विस्तारित खबर 28 सितम्बर 1973 को आनन्दबाजार पत्रिका में छपी थी । उसी खबर से पता चलता है कि एक रुपये के कूपन की बिक्री की शुरूआत करते ही 2565/- रुपये तकाल संगृहित हुये । यह भी पता चलता है कि विद्यासागर की जयंती पर आयोजित उक्त बैठक में पंडित हरिनाथ मिश्र के अलावे डा॰ अनन्त लाल ठाकुर, श्री के॰पी॰जायसवाल, प्रो॰ मृणालिनी घोष, प्रख्यात लेखक गोपाल हालदार, श्री चन्द्रशेखर सिंह एवं अन्य कई लोगों ने अपने विचार रखे । 
एक रुपये के कूपन पर कोष संग्रह अभियान बिहार (झारखंड सहित), बंगाल एवं पूरे भारत में चलता रहा । इसी बीच, बिहार सरकार ने 15,000/- रुपयों का अनुदान भी स्वीकृत किया । 29 मार्च 1974 को सम्पत्ति की खरीद की प्रक्रिया एवं पंजीकरण बिहार बांगाली समिति या अंग्रेजी में ‘बेंगॉली एसोसियेशन, बिहार’ के पक्ष में पूरी हो गई ।
31 मार्च 1974 को पी॰टी॰आई॰ ने खबर जारी की कि बिहार बांगाली समिति ने संथाल परगना स्थित कर्माटाँड़ में पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का स्मृति-शेष ‘नन्दन कानन’ का अधिग्रहण कर लिया है । यह भी खबर दी कि अगले महीने बिहार के मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर जायेंगे कर्माटाँड़, समिति द्वारा ‘नन्दन कानन’ के विकास हेतु लिये गये कार्यक्रमों के उद्घाटन करने । आगे यह भी कहा पी॰टी॰आई॰ ने कि समिति ने कर्माटाँड़ रेलवे स्टेशन का नाम बदल कर ‘विद्यासागर’ करने का अनुरोध करते हुये रेलमंत्री एल॰एन॰मिश्र को एक ज्ञापन सौंपा है । यही खबर लगभग सभी अखबारों में छपी ।


3
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर । प्रवर्तक थे वह । आधुनिक बंगला भाषा के, आधुनिक बंगला गद्य के, शिक्षा के आधुनिक पाठ्यक्रम और प्राथमिक पाठ्यपुस्तकों के । पिछले एकसौ साठ वर्षों से पूरी दुनिया में बांग्लाभाषी परिवारों का शिशु ‘वर्णपरिचय’ पढ़कर ही बांग्ला अक्षरज्ञान एवं भाषा का ज्ञान पा रहा है । इतने आधुनिक थे उनके विचार । 1858 में प्रकाशित ‘बोधोदय’ (सामान्यज्ञान की पुस्तिका) में, उल्लेखनीय है कि उन्होने ‘मेहनत-अधिकार’ शीर्षक एक विषय बनाया और उसमें श्रम को परिभाषित करते हुये लिखा :
“अगर कोई भी आदमी कभी श्रम नहीं करता, तब गृहनिर्माण, कृषिकार्य होता नहीं, खाद्यसामग्री, पहनने का वस्त्र और पाठ्यपुस्तक, कुछ भी नहीं मिलता, सभी लोग दुख में समय बिताते, पृथ्वी अभी, अपेक्षाकृत तौर पर जितना सुख का स्थल बना है, वैसा कदापि नहीं होता ।”
स्कूल-कॉलेजों के बच्चों के लिये उन्होने संस्कृत और शास्त्र के बजाय प्रकृतिविज्ञान और अंग्रेजी पर जोर डाला, नया पाठ्यक्रम बनवाया, उसे लागू करवाया । तो मातृभाषा के प्रति उनका रुख क्या था ? इस बात से अलग कि उनका लगभग पूरा वाङमय (संस्कृत के व्याकरण व पाठ्यपुस्तकों एवं अंग्रेजी में लिखी सरकारी चिट्ठियों को छोड़कर) मातृभाषा में है, देखिये ‘बोधोदय’ में वह क्या कहते हैं :-
“अंग्रेज लोग अभी हमारे देश के राजा हैं, अत: अंग्रेजी हमारी राजभाषा है । इस कारण से सभी आग्रह के साथ अंग्रेजी सीखते हैं । लेकिन पहले जातिभाषा [बांग्लाभाषा में ‘जाति’ शब्द का प्रयोग बंगाली राष्ट्रीयता के अर्थ में होता है – व॰ले॰] नहीं सीख कर दूसरे की भाषा सीखना किसी भी तरह उचित नहीं है ।” 
अपनी आत्मजीवनी लिखते हुये वह दो अध्यायों से आगे नहीं बढ़ पाये थे । सिर्फ उनके पिता और माता के तरफ के पूर्वजों की जानकारी मिलती है उनमें । उसी में वह विनोदी भाव से बताते हैं कि जब उनका जन्म हुआ था तो पिता घर पर मौजूद नहीं थे । दादाजी ने उन्हे खबर दिया कि घर में एक ‘एँड़े’ बछड़ा पैदा हुआ है । पिताजी आये तो सीधे घर की गाय जहाँ बंधी रहती थी और जो गर्भवती थी वहाँ पहुँच गये ।
बांग्ला में ‘ऐंड़े’ का तीन अर्थ होता है । बछड़े के साथ लगा तो वह पुलिंगसूचक होता है । बच्चा के साथ लगा तो पेट से कमजोर होने का सूचक होता है । स्वतंत्र रूप से उसका अर्थ होता है जिद्दी, साँड़ जैसा बेरोक धावा बोलने वाला । विद्यासागर अपने विनोदी स्वभाव के कारण आजीवन इस शब्द का इस्तेमाल अपने लिये किये । और, नि:सन्देह सही किये । सही अर्थों में पौरुषमय था उनका व्यक्तित्व । इसीलिये सामन्ती पुरुष-सत्ता के खिलाफ नारी-मुक्ति के तमाम प्रासंगिक सवालों पर उन्होने मोर्चा खोला और आजीवन लड़े । बचपन से पेट के कमजोर तो नहीं थे पर 46 साल की उम्र में एक दूर्घटना का शिकार हुये जिससे उनके लीवर में चोट लगी । इस चोट से फिर कभी वह उबर नहीं पाये । और तीसरा तो वह थे ही । अपने उसूलों को लेकर जिद्दी भी थे और बछड़े जैसा सरल, सुन्दर भी वे रहे आजीवन ।
पूरे बंगाल में लगभग दो सौ विद्यालयों की स्थापना उन्होने तत्सम्बन्धित सरकारी पद पर कार्य करते  हुए किया । जिस महाविद्यालय के वे प्राचार्य बने, उस महाविद्यालय में भर्ती होने में गैर-ब्राह्मणों पर लगी रोक को उन्होने हटाया । जिस मध्यवर्गीय सवर्ण समाज में वह रह रहे थे उस समाज की एक कुरीति – कुलीन ब्राह्मणों की बहुविवाह प्रथा – को उन्होने किसी योरोपीय आधुनिकता के सहारे नहीं बल्कि उन्ही ब्राह्मणों का अस्त्र शास्त्रार्थ का इस्तेमाल करते हुये खत्म किया । और दूसरी कुरीति, कम उम्र में विधवा होकर पूरा जीवन आत्मनिग्रह और लांछना की कालकोठरी में बिताने की ब्राह्मण की बेटियों की मजबूरी को विधवाविवाह की रीति का प्रचलन कर मिटाया – उसी शास्त्रार्थ के सहारे । बालविवाह के खिलाफ जनमत तैयार करने तथा कानून बनवाने में वे संघर्षरत रहे । सनातन धर्म के ध्वजाधारक हिन्दू पंडितों ने उन्हे लांछित करने के लिये क्या नहीं किया । अपने परिवारवालों ने भी उनका साथ नहीं दिया । पर वे विचलित नहीं हुये । जिनका उन्होने भला किया वही आदमीं उनका बुरा करने में लग गया । आगे चल कर उनकी यह मुस्कान भरी टिप्पणी प्रसिद्ध हो गई, “उसका तो मैनें कोई भला नहीं किया कभी, फिर वह मेरे पीछे क्यों पड़ा है?”
सबकुछ छोड़ कर कर्माटाँड़ आकर बस गये । हालाँकि, सब कुछ छोड़ कर कहना गलत होगा । क्योंकि कल्याणकारी कामों का सिलसिला छूटा नहीँ, ना तो कलकत्ता में और ना वीरसिंह में, बस रिश्ते छूटे या वह खुद ही कुछ दूर चले गये । और यहाँ कुछ और काम उन्होने अपने कंधों पर ले लिया । होम्योपैथिक चिकित्सा, आदिवासी जनों की मदद, वयस्कों एवं बालिकाओं की शिक्षा – कलकत्ता से नये किस्म के बीज भी लाकर आदिवासी किसानों को देते रहे और खेती के उन्नत तरीकों के बारे में उन्हे बताते रहे ।
खुद घोर अनुशासन में जीने वाले व्यक्ति होकर एवं अनुशासित जीवनादर्श की शिक्षा देने वाले कठोर शिक्षक होकर भी वह घनघोर शराबी, उच्छृंखल जीवन जीने वाले कवि माईकल मधुसूदन दत्त को लगातार मदद करते रहने से कभी पीछे नहीं हटे । क्योंकि वह जानते थे कि उनके समय का यही एक शख्स है जो शिक्षित, बिलायत से वकालत पास होने के बावजूद सब कुछ त्याग कर घोषणा करने की हिम्मत रखता है कि वह सिर्फ कवि होगा, नहीं तो कुछ नहीं । वह जानते थे कि बांग्ला काव्यभाषा, नाटक, काव्यशैली आदि का क्रांतिकारी बदलाव जो माईकल कर रहे हैं, आने वाले पथिकों के लिये मशाल साबित होगा ।
साधक रामकृष्ण परमहंस खुद उनसे मिलने उनके घर पर आये । जिस श्रद्धापूर्ण भाषा से रामकृष्ण ने उनका सम्भाषण किया कि अब तक वह यानि रामकृष्ण सिर्फ नाला, तालाब या नदी के पास गये थे  अब समुद्र के पास आये हैं, वह विनयोक्ति अवश्य है पर अतिशयोक्ति नहीं । विद्यासागर के निधन पर कविगुरू रवीन्द्रनाथ ठाकुर की वह टिप्पणी प्रसिद्ध हो चुकी है कि सात करोड़ बंगालियों के बीच भगवान ने, आश्चर्य है कि कैसे एक इन्सान को पैदा कर दिया ।… बात बंगाली या हिन्दुस्तानी की नहीं है । विद्यासागर अपने कर्म, चरित्रबल, दृष्टि, करुणा सभी गुणों में आम इन्सानों से इतना उपर थे कि बांग्ला नवजागरण का ही शिखर होते हुए भी थे नवजागरण के दायरे से मीलों आगे !
दर्जनों कहानियाँ हैं उनके बारे में, उनकी दानशीलता, करुणा और मूल्यों पर अडिग रहने को लेकर । दानसागर भी कहे जाते हैं वह । छात्र जीवन से लेकर कर्मजीवन के अन्त तक जो भी कमाये, छात्रवृत्ति से लेकर वेतन या प्रकाशित पुस्तकों की रॉयल्टी तक, सब दूसरों को बाँटते रहे । छात्रावास में रहते वक्त खीर बना कर गरीबों को खिलाते थे । अन्त समय में भी इच्छा-पत्र बनाने के बहाने वे लम्बी सूची दे गये, किसे कितनी रकम देते रहना है । कर्माटाँड़ में उनकी इसी आदत के मजेदार प्रसंग आगे पढ़ेंगे ।
संस्कृत कॉलेज में सहायक सचिव के पद पर कार्य करने के समय उनका बनाया हुआ नया पाठ्यक्रम सचिव रसमय दत्ता को पसन्द नहीं आया । उन्होने उसे लागू नहीं होने दिया । विद्यासागर ने तत्काल इस्तीफा दिया । लोगों ने पूछा, क्या करोगे ? जिओगे कैसे ? विद्यासागर ने जबाब दिया, सब्जी बेचूंगा, किराना का दुकान खोलूंगा, कुछ भी कर लूंगा । साहब आदमी केर ने अपने कमरे में विद्यासागर के प्रवेश करने पर भी जूता सहित पैर टेबुल से नीचे नहीं उतारा तो विद्यासागर ने भी, केर के उनके कमरे में प्रवेश करने पर जूता सहित पैर टेबुल पर चढ़ा लिया
हिन्दी के युगान्तरकारी लेखक, कवि, नाट्यकार एवं पत्रकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र न सिर्फ विद्यासागर के कामों एवं विचारों से प्रभावित थे बल्कि खुद भी उन तमाम कुरीतियों के खिलाफ आजीवन संघर्षरत रहे, नारी-शिक्षा एवं नारी-मुक्ति के पक्ष में एक प्रबल योद्धा-नाट्यकार एवं पत्रकार के रूप में सक्रिय रहे । उन्होने विद्यासागर के लिये कहा:
सुन्दर वानी कहि समुझावै ।
विधवागन सों नेह बढ़ावै ॥
दयानिधान परम गुन आगर ।
सखि सज्जन नहिं विद्यासागर ॥
पारिवारिक कारणों से भारतेन्दू का कलकत्ता आनाजाना था । कथित है कि एक बार विद्यासागर से उनकी मुलाकात भी हुई । दोनों को एक साथ गवर्नर जेनरल से मिलने जाना था किसी मुद्दे को लेकर । भारतेन्दू तो औपचारिक उत्तर-भारतीय पोषाक में सजधज कर पहुँचे, विद्यासागर को उन्होने देखा वही पुराना चप्पल, धोती, कमीज में आते हुये ।
सन 1898 के 30 जुलाई की शाम को कलकत्ता स्थित एमेरल्ड थियेटर में विद्यासागर की स्मृति में एक सभा का आयोजन किया गया था । उस सभा में बोलते हुये गुरूदेव रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने शुरू में ही कहा :
विद्यासागर के चरित्र में जो प्रधानतम गुण है – जिस गुण के कारण वह ग्रामीण रूढ़ियों की क्षुद्रता, बंगाली जीवन की जड़ता को अपने बल से भेदते हुये, कठिन प्रतिकूलता का वक्ष सिर्फ अपने गतिवेग की प्रबलता से विदीर्ण करते हुये, हिन्दूत्व की ओर नहीं, साम्प्रदायिकता की ओर नहीं, करूणा के अश्रुजल से पूर्ण उन्मुक्त अपार मनुष्यता की ओर अपने दृढ़निष्ठावान एकाग्र एकक जीवन को प्रवाहित कर ले गये थे – आज अगर मैं उनके इस गुण की प्रशंसा करने से पीछे हटूँ तो मेरा कर्तव्य बिल्कुल ही अधूरा रह जायेगा ।”

उनके जीवन पर नज़र डालते ही जो प्रभावित करता है वह है एक योद्धा का रुख, अपने काम के प्रति वैज्ञानिक दृष्टि और अपने शत्रुओं को नापती हुई पेशेवर शीतलता । अगर दुशमन आप किसी व्यक्ति को मानें तो बात समझ में नहीं आयेगी । व्यक्ति को तो उन्होने दुश्मन नहीं माना कभी । दुशमन थी कुरीति, दुशमन था अज्ञान, दुशमन था रूढ़ी के ध्वजाधारियों का हिंसक कूपमंडुक अहंकार ।   

4
बांग्ला साहित्यजगत में बहुत बड़े विद्वान के रूप में प्रसिद्ध हुये महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री । वे विद्यासागर के बहुत करीबी शिष्य थे । चर्यापद की बौद्ध गीतिकाओं का इन्होने आविष्कार किया, जिससे हम बंगला का प्राचीनतम स्वरूप जान पाये । तो यह शास्त्रीजी एक बार कर्माटाँड़ गये थे । उन्ही की जबानी सुनिये कर्माटाँड़ी विद्यासागर के वारे में ।
“हमलोग कर्माटाँड़ पहुँच कर अपना सामान वगैरह स्टेशनमास्टर के जिम्मे में रख कर विद्यासागर महाशय के बंगले में गये ।… तीन बजे के बाद गाड़ी पहुँची थी – शाम तक गपशप में बीत गया ।   
“मैं लखनऊ जा रहा हूँ संस्कृत पढ़ाने – एम॰ए॰ क्लास को भी पढ़ाना होगा – खास कर हर्षचरित पूरा पढ़ाना होगा – सुन कर थोड़ा चिन्तित हुये, बोले – बहुत कठिन है यह पुस्तक । उन्होने खुद ही इस पुस्तक का आठ फर्मा छपवाया था और पहले ही मुझे दिया था कलकत्ता में । उन्होने कहा – बाकी हिस्से में झमेला है । मैंने कहा, राजकुमार सर्वाधिकारी महाशय कहते हैं कि इसका संस्कृत बड़ा कच्चा है । उन्होने कहा, अच्छा ! राजकुमार इतना बड़ा पंडित हो गया है कच्चा और पक्का संस्कृत की पहचान कर लेता है ? खैर, उन्होने मुझे हर्षचरित एवं दूसरे पुस्तकों को पढ़ाने का कुछ कुछ कौशल बता दिया जिससे मुझे काफी उपकार मिला था ।…
“अगले दिन… बाहर आकर जिस घर में प्रवेश हुआ, दिखा कि … विद्यासागर महाशय बरामदे में चलफिर रहे हैं और बीच बीच में टेबुल पर जाकर कथामाला या बोधोदय का प्रुफ देख रहे हैं । प्रुफ में खूब काट-कूट कर रहे हैं। जिस तरह प्रुफ सब पड़ा था, देखने से लगा कि वह रात को भी प्रुफ देखते रहे हैं । मैंने पूछा, कथामाला का प्रुफ आप क्यों देखते हैं ? और रात में जग कर भी देखते हैं, क्यों ? उन्होने कहा – भाषा एक ऐसी चीज है, किसी भी तरह मन स्पष्ट नहीं होता है, शायद कोई दूसरा शब्द मिलने से बेहतर होता – इसीलिये बार बार काटकूट करता हूँ । मैंने सोचा, बाप रे ! इस बूढ़े उम्र में भी बांग्ला इडियम पर इतनी नज़र !
“धूप निकलते निकलते एक संथाल पाँच-छे भुट्टा लेकर आ गया । बोला – ओ बिद्देसागर, पाँच गन्डा पैसा नहीं मिलेगा तो बच्चे का इलाज नहीं होगा; तु ई भुट्टा रख और पाँच गन्डा पैसा दे हमको । विद्यासागर महाशय तत्काल पाँच आना पैसा देकर भुट्टे ले लिये और अपने हाथों से ताख पर उठा कर रख दिये । फिर और एक संथाल आया, उसके टोकरे में बहुत सारे भुट्टे थे; उसने कहा, मुझे आठ आने की जरूरत है । विद्यासागर आठ आना देकर उसका टोकरा खरीद लिये । मैंने कहा, वा: क्या अद्भुत बात है ! खरीदने वाला मोल नहीं करता है, मोल करता है वह जो बेच रहा है । विद्यासागर महाशय थोड़ा मुस्कुराये । उसके बाद मैंने देखा कि जो जितना भी भुट्टा ला रहा है और जो भी दाम कह रहा है, विद्यासागर महाशय उसी दाम में भुट्टे खरीद रहे हैं और ताख पर रखे जा रहे हैं । आठ बजे तक चारो तरफ का ताख भर गया लेकिन भुट्टा खरीदना बन्द नहीं हुआ । मैंने पूछा, इतने सारे भुट्टे लेकर आप करेंगे क्या ? उन्होने कहा, खुद ही देख लोगे । इसी तरह भुट्टा खरीदना जारी था तभी बीस-बाइस साल की दो संथाल युवती आकर आंगन में खड़ी हुई । बोली, ओ बिदेसागर, कुछ खाने को दे हमलोगों को । दोनों आंगन में ही दौड़ादौड़ी मचाती रही, बरामदे पर नहीं चढ़ी । मैंने कहा, वे कुछ खाने को मांग रही है, आप इतने सारे मोतिचुर के लड्डु, छेने की मिठाई मंगाये हैं, दिजिये उसी में से दो-एक । उन्होने कहा, धत्, वे न स्वाद जानती है न रस जानती है । बस खाद्य होना चाहिये, स्वादिष्ट खाना वे नही समझती है । उसके लिये फिर दूसरे किस्म के लोग हैं । यहाँ से एक कोस दूर कोरा नाम का एक गाँव है जहाँ एक मराठी राजा है । बर्गियों के हंगामे के समय उसने यहाँ छोटामोटा एक राज बसाया । अभी भी वहाँ बहुत सारे मराठी हैं; ब्राह्मण हैं, दूसरे जात भी हैं । लेकिन संथालों के साथ रह कर संथाल जैसे हो गये हैं । उन्हे स्वादिष्ट चीजें देने पर वे एक कौर खा कर जाँचते हैं, पूछते हैं किन किन चीजों से बना है, कहाँ से मंगाया गया है; तब मैं समझता हूँ कि उनके जीभ हैं । और इनका कुछ भी नहीं है । मुड़ी-चुड़ा जिस तरह खाती है, सन्देश-रसगुल्ला भी उसी तरह खाती है ।
“मेरे कहने पर मोतिचुर-छेनाबड़ा नहीं दिये तो मैंने कहा, एक काम करता हूँ, मेरे साथ परसों की पकाई हुई कुछ पूड़ियाँ हैं, वो इन्हे दे देता हूँ । उन्होने कहा, है तेरे साथ ? कहाँ, देखूँ । मैं दौड़ कर स्टेशन गया, गठरी खोल कर केले के पत्ते में बंधी लगभग दो दर्जन पूड़ियाँ ले आया । कहा, दो दिनों से बंधी हुई है, पत्ते भी पसीज गये हैं और पूड़ियों में केले के पत्ते का महक चढ़ गया है । बोल कर लड़कियों को देने जा रहा था, विद्यासागर महाशय बोले, मुझे दे, उन्हे इस तरह दिया जाता है क्या ? बोल कर पूड़ियों को केले के पत्ते से खोल कर थोड़ी देर के लिये हवा में रख दिये । फिर बोले, देख अब महक नहीं है । बीच से चार पूड़ी निकालकर वह सावधानी के साथ उठाकर रख दिये । मैंने पूछा, यह क्या कर रहे हैं ? वह बोले, खाऊंगा रे । तेरी मां के हाथों की तली हुई है ? मैंने कहा, नहीं, बड़ी बहू की । वह बोले, तब तो और भी अच्छा है । नन्दकुमार न्यायचंचु की विधवा पत्नी की ? नन्दु मेरा बड़ा प्रियपात्र था । उसके बाद ऊपर से दो पूड़ी उठा कर संथालनियों की ओर बढ़ाये । वे गपागप खा गई । विद्यासागर बोले, देखा तुमने ? वे न स्वाद समझती है न रस !
“भुट्टा खरीदना जारी रहा । किसी दूसरे काम से गया था, लौट कर देखा विद्यासागर नहीं हैं । सारे कमरे छान मारे – नहीं हैं, रसोईघर में नहीं हैं, बगीचे में नहीं हैं, अन्त में बगीचे के पीछे एक दरवाजा देखा खुला है, लगा यहीं से निकले होंगे, तो वहीं खड़ा रहा । थोड़ी देर के बाद देखा तो खेतों के बीच से एक मेड़ पर विद्यासागर महाशय तेज कदमों से चले आ रहे हैं, बदन पसीने से लथपथ है, एक पत्थर का कटोरा है हाथ में । मुझे खड़ा देख कर पूछे, तू यहाँ क्यों ? मैंने कहा, आप ही को ढूंढ़ रहा था, कहाँ गये थे ? वह बोले, अरे थोड़ी देर पहले एक संथालनी आई थी । बोली, बिद्येसागर, मेरे बच्चे की नाक से हलहल खून गिर रहा है, तू अगर आये, बचाये उसको । उसी लिये मैं एक होमिओपैथिक दवा इस कटोरे में ले गया था । अद्भुत, देखा कि एक खुराक दवा से उसका खून गिरना बन्द हो गया । ये लोग अधिक दवा तो खाते नहीं, इसलिये थोड़ी सी दवा का भी उपकार मिलता है । कलकत्ता के लोगों का तो दवा खा खा कर पेट में रेत जम गया है, काफी मात्रा में दवा नहीं देने पर उन्हे उपकार नहीं मिलता । मैंने पूछा, कितनी दूर गये थे ? वह बोले, वह जो गाँव दिख रहा है, डेढ़ मील होगा । मैं पहले से जानता था कि विद्यासागर महाशय खूब पैदल चल सकते थे ।
“बंगले में आकर देखा सामने का आंगन संथाल लोगों से भर गया है – मर्द, औरत, बच्चे, बूढ़े – सभी उम्र के संथाल । वे लोग झुंड में बैठे हैं, कहीं पाँच, कहीं आठ, कहीं दस । हर झुंड के बीच कुछ सूखे पत्ते और लकड़ी । विद्यासागर को देखते ही सारे बोल उठे, ओ बिद्येसागर, खाने को दे । विद्यासागर भुट्टा बाँटने बैठे । वे लोग उस सूखे पत्ते और लकड़ी में आग सुलगा रहे थे, उसमें भुट्टे सेंक रहे थे, और खा रहे थे – क्या मस्ती थी । फिर मांगते रहे – किसी ने दो, किसी ने तीन, किसी ने चार भुट्टे खा लिये । ताख पर रखे भुट्टे लगभग खत्म होने को आये । वे उठ कर कहे, खूब खिलाया तूने बिद्येसागर । फिर जाने लगे । विद्यासागर बरामदे में खड़ा होकर देखने लगे ; मैं भी विस्मय से देखते हुये सोचने लगा कि शायद यह दृश्य फिर कभी नहीं देख पाऊंगा ।”


5
सन 1978 में कर्माटाँड़ रेलवे स्टेशन का नाम विद्यासागर किया गया । उस समय रेल मंत्री थे मधु दंडवते । विद्यासागर स्मृतिरक्षा समिति की ओर से दिनांक 15 जून 1977 को जो पत्र दिया गया उसे पढ़ने से पता चलता है आपातकाल की घोषणा के पहले तक समिति लगातार रेल मंत्रालय सहित विभिन्न केन्द्रीय व राज्यस्तरीय मंत्रालयों से अनुरोध करता रहा, ज्ञापन देता रहा लेकिन कर्माटाँड़ रेलवे स्टेशन के नाम को ‘विद्यासागर’ करने का प्रस्ताव विभागीय अनुशंसाओं के मकड़जाल में फँसा रहा । अन्तत: विज्ञप्ति जारी हुआ 1978 में ।
बिहार के विभाजन के बाद अब बिहार बांगाली समिति एवं झारखंड बांगाली समिति ने संयुक्त तौर पर नये रूप में विद्यासागर स्मृतिरक्षा समिति का निर्माण किया है । उसके अन्तर्गत एक नन्दन कानन परिचालन समिति भी बनाया है ।
कोषसंग्रह का अभियान चल रहा है । अभाव-जनित समस्यायें भी चल रही हैं । अब तो बिभूति भूषण मुखोपाध्याय, डा॰ ए॰के॰सेन, डा॰ शरदिन्दु मोहन घोषाल जैसे अभिभावक नहीं रहे ।
बामियान की बुद्धमूर्ति को मॉर्टर से ध्वस्त किये जाने या मेसोपोटामिया की सभ्यता के समय के शिल्प और ग्रंथागार को मिट्टी में मिला दिये जाने की डींग हाँकने वाले जमाने में बिहार व झारखंड के बांग्लाभाषियों की दो समितियाँ अर्थाभाव के बीच ही कोशिश कर रही है कि नन्दन कानन को एक धरोहर, एक भाषातीर्थ के रूप में विकसित किया जाय ।
………………………
संभव हो तो 26 सितम्बर को या फिर सबकी सुविधा देखते हुये किसी और दिन की घोषणा होती है । डाक, ईमेल, फेसबुक के माध्यम से सूचना पहुँच जाती है । भोर में निकल पड़ते हैं लोग । पटना-हावड़ा जनशताब्दी एक्सप्रेस 6 बजे खुलती है । जामताड़ा पहुँचती है साढ़े दस/ग्यारह बजे तक । फिर उल्टी दिशा से आती हुई एक सवारी गाड़ी 18 किलोमीटर पीछे लाकर विद्यासागर स्टेशन उतार देती है । टाटा सुपर से गये तो दोपहर तक सीधा कर्माटाँड़ ही उतरेंगे । थोड़ी देर में या कभी पहले ही टाटानगर, जमशेदपुर से आने वाली ट्रेन से भी लोग आ जाते हैं । आ जाते हैं राँची और दुमका से लोग । कलकत्ता या मेनलाइन के दूसरे शहरों, श्रीरामपुर, बर्द्धमान आदि से आने के लिये कई ट्रेनें हैं । आसनसोल और धनबाद तो पड़ोस है । नन्दन कानन परिसर स्थित विद्यालय भवन में बड़ी डेकची और कड़ाही चढ़ती है चुल्हे पर, दोपहर के भोजन के लिये । फिर स्कूल के बच्चे, बच्चियाँ पहुँचती हैं प्रतियोगिताओं भाग लेने के लिये । जामताड़ा से वीरुबाबु, अन्य लोग । कर्माटाँड़ तथा आसपास के स्कूलों के शिक्षक । अन्य विशिष्ट जन । कभी कभार कोई बड़ा उद्घाटनकर्ता भी – विधायक, प्रशासक…। गायन, वाद्य या नाट्य मंडलियाँ । विद्यासागर की प्रतिमा पर माल्यार्पण कर शुरू होता है ‘गुरूदक्षिणा’ कार्यक्रम । देर शाम तक चलता रहता है । प्रश्नोत्तरी, गीत, कविता - कहानियों का पाठ, नाटक, कुछ बातें । रात को कुछ लोग वहीं सोते हैं तो कुछ जामताड़ा में । फिर अगले दिन सुबह प्रभात फेरी ।

शान्त शहर कर्माटाँड़ का बाजार, हाट, चौराहा होकर गुजरता है नारा और यह आत्मविश्वास कि बांग्ला मातृभाषा के आदिगुरू, उन्नीसवीं सदी के महानतम शिक्षाविद व सुधारक, करूणासागर विद्यासागर की स्मृति, इस धरोहर को न सिर्फ हम बचायेंगे बल्कि इस परिसर में विभिन्न शैक्षणिक व प्रौद्योगिक प्रकल्पनाओं को साकार कर, इसे देश के भविष्य के साथ जोड़ेंगे ।

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