नक्षत्रपुंज की तरह
दमकता परचम फहराते हुये तुम
मेरे वजूद में हो।
ममता कहलाती, सराबोर प्रांत का श्यामल
निविड़ रूप से
तुम्हे घेरे रहते हैं हमेशा।
स्याह रात काटने के बाद की घड़ियों में
हरसिंगार के फूल की तरह बचपन में ‘पक्षी सारे
करते शोर’ बोलते हुये मदमोहन तर्कालंकार
कितने धीर उदात्त स्वर में बुलाते थे हर रोज।
तुम और मै
निरंतर एक दूसरे की ममता में लीन
घूमे हैं उनके बगीचों में, नाचते हुये, जहाँ सारे फूलों की कली
खिलते हैं, जुटते हैं भँवरे मौसम के इशारे पर।
आजन्म मेरे साथी हो तुम
हर पल सपनों का पुल बनाकर दिया था तुमने मुझे
तभी तो तीनों लोक आज
मोहक जहाज बनाकर
लगता है मेरे ही बन्दरगाह में।
पिघले हुये काँच की तरह पानी पर
गुल्ली देखते हुये
रंगीन मछली की आस में चिकनी बंसी थामते हुये
बीत गई है बेला। याद आता है
कैंची से नक्शा बनाये गये कागज
और बोतल का कॉर्क फेंक कर
कब मैं हंसी खुशी का खेवन पार कर
पहुँच गया हूँ रत्नद्वीप, बिना कम्पास के।
तुम आती हो मेरी नींद के बगीचे में भी
किसी महाकाय
वृक्ष की खोह से कूदती फांदती उतर आती
आती हो गिलहरी के रूप में
प्रफुल्लित मेघमाला से अचानक
छलांग लगाती
ऐरावत बनकर
सुदूर पाठशाला की, इक्यावन सतत हरित
चेहरे की तरह हिल हिल उठती हो
बार बार,
या सुर्ख मिर्च-होंठ वाला सुग्गा बन कर
किस तरह झुला देती हो
स्वप्नमयता में
चैतन्य की पतवार।
तुम्हे उखाड़ लेने पर
बोलो, तब क्या बचता है मेरा?
उन्नीस सौ बावन के कुछ तरुणों के लहू की
पुष्पांजलि वक्ष में लिये
गौरवान्वित हो तुम महीयसी।
उस फूल की एक भी पंखुड़ी आज
किसी को तोड़ने नहीं दूंगा।
अभी तुम्हे घेर कर नीच लफंगापन बेसुध चल रहा है
अभी तुम्हे लेकर झाड़ु की गन्दगी
अभी तुम्हे घेर कर गालीगलौज की बहार।
तुम्हारे चेहरे की तरफ आज और देखा नहीं जाता
वर्णमाला, मेरी दुखियारी वर्णमाला।
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