Thursday, February 3, 2022

राणा बनर्जी

मुझे याद नहीं है कि मैं पहली बार राणा से कब मिला था। लेकिन राणा जिस बात के लिये जाना जाता था – हेमंत मुखर्जी की टिम्बर वाली उसकी आवाज और सुरीलापन – उस बात के साथ पहली मुलाकात तो मेरी शादी के दौरान हुई थी। सामान्य बंगाली परम्परा के अनुसार शादी के रस्मों के बाद देर रात तक अड्डाबाजी और गीत-संगीत के कार्यक्रम में मैं अगर लड़केवालों की ओर से गाया था, वह लड़कीवालों की ओर से, क्योंकि वह मेरे छोटे साले के दोस्त के रूप में आया था। मैं शायद एक रवीन्द्रसंगीत गाया था (खुद का बंगाली ब्रांडिंग पूरी करने के लिये) और वह गाया था, “जाने वे कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला”।

लेकिन मुझे लगता रहता है कि शायद उसके पहले भी मैं उससे मिल चुका था और यह भी जानकारी थी कि रमना रोड से चलनेवाले एक बंगला नाट्यसंस्था में मेरे अन्य कुछेक दोस्तों के साथ वह भी शामिल था। 

मुझसे उम्र में वह दस साल छोटा रहा होगा। अलग अलग राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के कारण एक दूरी बनी रहती थी। उससे घनिष्ठता बढ़ी जब प्रेमचंद रंगशाला को सीआरपीएफ के कब्जे से खाली कराने के लिये एक मंच – कलाकार संघर्ष समिति – का जन्म हुआ और संघर्ष समिति की गतिविधियों के साथ मुझे जोड़ने वाला सांस्कृतिक कार्यकर्ता राणा ही बना। 

मैं भी तब तक पूर्वी पटना में भिखना पहाड़ी और उसके आस पास रहने लगा था। राणा का घर ढूंढ कर पहुँचने के क्रम में मुसल्लहपुर, चाँईटोला की उस गली का नाम जाना – स्वीटहार्ट लेन!

कदमकुआँ से भिखनापहाड़ी तक के इलाकों में बड़ा हुआ बंगाली लड़का और मीठापुर, जक्कनपुर, यारपुर में बड़ा हुआ बंगाली लड़के में फर्क तो होता ही था। रामकृष्ण मिशन, बंगाली अखाड़ा, पटना विश्वविद्यालय एवं बंगला विद्यालयों के होने से पूर्वी पटना के बंगली थोड़ा अधिक रमे होते थे बंगाली संस्कृति में। जबकि रेलवे लाइन के दक्षिण तरफ की पूरी पट्टी में रहनेवाले बंगाली संस्कृति के हाशिये पर रहनेवाले जान पड़ते थे। तो बीबी, बच्चे के साथ मेरे नये ठौर में सांस्कृतिक जीवन के साथ साथ बंगालीपन का भी प्रमुख सहारा बन गया राणा।

अस्सी के दशक के अन्त में भिखनापहाड़ी मोड़ के दक्षिण तरफ पड़ने वाले मकान की चारदिवारी पर साम्प्रदायिकता विरोधी अभियान के तहत पोस्टर प्रदर्शनी लगा, मैंने भी पोस्टर बनाये, राणा ही लगवाया। पुस्तक मेला में, भगत सिंह चौक पर जब तब मुलाकात हो जाती थी उससे। मेरे दफ्तर में भी चला आया करता था, साथ में चाय, सिगरेट पीते थे हम। पटना की सड़कों पर गाने की फरमाइश होने पर वह अक्सर गाता था – “लाखों शहीदों के खून से रंगा निशान हम, हाथ में उठाये हुये हैं …”! क्या था उसके बाद? “विघ्न-बाधा तोड़ कर, तूफानों से टकरा कर … बढ़ते चले हैं कॉमरेड”? एक बंगला गाना का ही हिन्दी अनुवाद है यह। प्रेरणा (जसामो) कार्यालय में आयोजित किसी एक कार्यक्रम में (आलोकधन्वा अध्यक्षता कर रहे थे) हम दोनों साथ गाये थे। वह शायद यही गाना गाया था और मैं, उस किस्म का कोई जनगीत याद न रहने के कारण गाया था ‘दो बिघा जमीन’ वाला गाना, “ओ भाई रे …”। उसी समय शायद, यानी नब्बे के दशक की शूरुआत में बंगाल में धूम मचाने लगे सुमन चट्टोपाध्याय (आज के विवादित व्यक्तित्व कबीर सुमन) के गीत। राणा के घर पर एक दोपहर बिताने की याद है सुमन के गीतों के साथ; बॉब डीलन या पीट सीगर के गीत, हेमांग विश्वास एवं अन्य बंगाली जनगीतकारों के गीत तथा तत्कालीन जनवादी गीतों के साथ उन गीतों की तूलना करते हुये।    

राणा अपने ढंग से जीने की कोशिश कर रहा था। शायद छोटीमोटी नौकरी उसे मिल भी जाती। बीच बीच में उसने कोशिश भी की करने की। लेकिन मुझे लगता है वह उस मेल की तलाश में रहता था जिस मेल की तलाश में सफल हुये लोग तो आइकन बनाये जाते हैं लेकिन असफल हुए लाखों, अन्तत: कैसे जिये, जिये भी या फिर नहीं जी पाये, हमें मालुम नहीं हो पाता है। वह मेल है, जिसे लोग कहते हैं पैशन और पेशे का मेल। नहीं हीरो-वीरो बनने का पैशन नहीं, क्रांतिकारी राजनीतिक गतिविधियों से जुड़े रहते हुये रोटी की तलाश (और फिर, उसी रोटी के सहारे प्यार भी पाने की चाहत! शायद; मैं बहुत नहीं जान सका उसके दिल की बात)। 

इसी क्रम में एक दिन उठ कर वह चला गया लखनऊ। लखनऊ से भेजा गया उसका पोस्टकार्ड मुझे मिला था। बंगला के प्रसिद्ध कवि, गीतकार व संगीतकार अतुल प्रसाद सेन के मकान का कुछ भी नहीं बचा, इस बात का दुख जाहिर किया था पोस्टकार्ड में। 

फिर चला गया राजपिपला, गुजरात। और भी कहीं कहीं गया होगा, मुझे याद नहीं। फिर लौट भी आया पटना। एक दो बार कलकत्ता भी गया – शायद उसकी मौसी रहती थी वहाँ, कलकत्ता या चन्दननगर में। 

सिलसिलेवार बता नहीं पाउंगा। लेकिन दो चार पल आज भी मेरे लिये यादगार हैं।

पहला तो हाथ से लिखी हुई साहित्यिक पत्रिका/फोल्डर प्रकाशित करने से सम्बन्धित। उस समय तक जेरॉक्स फोटो-कॉपियर्स आ चुके थे। हाथ से लिखी पत्रिका की परम्परा तो पुरानी थी। हम भी जक्कनपुर से निकाला करते थे। एक मोटे गत्ते के पन्ने को मोड़ कर फोल्डर छापना भी पुराना काम था। सन 1974 में पूर्णेन्दुदा (पूर्णेन्दु नारायण मुखर्जी) के दिशानिर्देश पर मैं धनबाद में प्रकाशित कर चुका था। लेकिन एक पन्ने को तीन तह में मोड़ कर छ: पृष्ठ का फोल्डर तैयार करना और उसका 100/200 कॉपी जेरॉक्स (या पैसे कुछ अधिक रहे तो स्क्रीन प्रिंट) कर बेचना, प्रौद्योगिकी के विकास के अनुरूप नया सांस्कृतिक काम बन गया। राणा एक दिन मिल गया आयुर्वेदिक कॉलेज (बुद्धमूर्ति) के पास, पत्रिका बेचते हुये। अगले अंक में मेरी भी एक कविता छपी उस फोल्डर में। वह फोल्डर द्विभाषिक था – बंगला और हिन्दी; सम्पादकों में मुख्य थे नादुदा – विश्वजीत सेन। बाद में फिर एक कविता फोल्डर और शुरु किया गया, सिर्फ बंगला में। उसमें भी नादुदा थे, राणा था, मैं, पूर्णेन्दूदा और कुमार राणा भी थे। दीपन मित्र तब तक कलकत्ता चला गया था, नहीं तो वह भी रहता।

दूसरा पल है सुहृद परिषद और हेमचन्द्र पाठागार को बचाने की कोशिश करने से सम्बन्धित। सुहृद परिषद और हेमचन्द्र पाठागार अब कहीं नहीं है। लेकिन था। बंगाली अखाड़ा के परिसर के ठीक विपरीत। एक समय पटना के बंगालियों के बीच वह एक महत्वपूर्ण संस्था थी। सन 1938 के 12 फरवरी को जब बिहार के बंगलाभाषियों की एक बैठक बुलाई गई तत्कालीन मशहूर बैरिस्टर पी॰ आर॰ दास के द्वारा, (जिस बैठक में बिहार बंगाली समिति की स्थापना हुई थी) वह बैठक शू में उसी सुहृद परिषद में बुलाई गई थी। खैर, ईक्कीसवीं सदी में, पुस्तकालयों के रसातल में जाने की लाइन में वही संस्था सबसे पहले खड़ी थी, या खड़ी कर दी गई थी, प्रॉपर्टी डीलरों के विकास के कारण।

तो, सदी की शुरुआत में राणा को ही जिम्मा दिया गया उसके जीर्णोद्धार का। किसने दिया, क्यों दिया, मालूम नहीं। एक दिन उसका निमंत्रण आया – सुहृद परिषद में बातचीत है, साहित्यसभा है, भोजभात भी है। पहुँचा तो वहाँ कई लोग थे। उस मुहल्ले के बच्चे और किशोर भी थे। जम कर साहित्यसभा हुआ, भोजभात के पहले गीत-संगीत भी हुआ, (नादुदा के कहने पर मैं शायद गाया था, “गोधूलिगगने मेघे ढेके छिलो तारा”। राणा क्या गाया था? याद नहीं। बाद में वहाँ से, यानि सुहृद परिषद से भी एक हस्तलिखित पत्रिका का प्रकाशन हुआ था राणा के सम्पादन में; एक कहानी मेरी भी छपी (सॉरि, हस्तलिखित) थी उस पत्रिका में। 

अन्तिम वर्षों में उसमें ऐल्कोहलिज्म बहुत बढ़ गया था। कहानियाँ मालूम नहीं लेकिन निष्कर्ष साफ दिखने लगे थे उसके चेहरे पर। कई बार मैंने मना किया। हर बार पक्के ऐल्कोहलिक की तरह वह झुठलाता गया कि उसने पीना छोड़ दिया है। 

आखरी मुलाकात हुई थी जब वह मेरे दफ्तर में आया था। साइंस कॉलेज, केमिस्ट्रि डिपार्टमेन्ट के मैदान में घुसने के लिये, पश्चिमी दीवार में एक बड़ा सा छेद बना लिया था इलाके के लड़कों ने। वहीं से वे घुसते थे मैदान में खेलने के लिये। उसी छेद से मैदान में घुस कर एक पेड़ के नीचे हम दोनों बातचीत करते रहे। बेमतलब की शिकायतों और दूर दूर की आलोचनाओं से भरी हुई बातें थी उसकी, ठीक जैसा ऐल्कोहलिकों का होता है, अन्त में कुछ पैसे कर्ज मांगने के लिये। मुझे याद नहीं है, लेकिन गुस्से से शायद उस दिन मैंने उसे कुछ दिया भी नहीं। शर्ट के बटन खुले हुये थे और छाती, पेट सब जगह पर पीलापन और सुजन था अत्यधिक शराब पीने के चलते।

फिर तो उसके मौत की ही खबर मिली वहीं, दफ्तर में बैठे बैठे। कोई दौड़ कर आया और कहा कि राणा दा की मौत हो चुकी है गंगा में डूब कर! क्या कह गया वह इस अजीब मौत के द्वारा? और किन्हे कह गया? हमें? घर पर उसकी माँ, पिताजी, चाचा, भाई … उन्हे? या जिंदगी को? जिसमें शायद उसे सफलता नहीं ही मिली – न अपने ढंग से जीने में, न किसी के द्वारा पूरा अपना बना लिये जाने में! और बेकार जीवन को ढोते रहने की थकान, जिसे अक्सर लोग सह लेते हैं, वह शायद सह भी नहीं पा रहा था। उसी थकान को मिटाने के लिये शायद पानी के भीतर अपने सांसों को कुछ ज्यादा ही देर तक रोके रहा! 

मैं नहीं जानता हूँ। पिछली सदी के आखरी दशक की घटनाओं ने – सोवियत संघ और वहाँ की समाजवादी व्यवस्था का अंत, भारत में साम्प्रदायिक राजनीति का उभार, मेहनतकश होने की अन्तरराष्ट्रीय पहचान को तोड़ने के लिये जात और धर्म की बुनियाद पर पहचान के नया फर्जी संघर्षों को प्रेरित किया जाना … यह सब कुछ - कई तरीके से आदमी को तोड़ा, बौना बनाया, मारा। मानसिक मौत, शायद शारीरिक मौत भी। राणा की मौत राणा के लिये जो कुछ भी रहा हो, मैं अपने लिये इस मौत को उन घटनाओं से अलग कर, बिल्कुल व्यक्तिगत पैमाने पर देख नहीं पाता हूँ।       

2.2.22

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