Tuesday, October 12, 2021

दलितों पर बढ़ते जुल्म एवं उनके अधिकारों के हनन के सात साल

राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिये, धीरे धीरे, मेहनतकशों के हासिल अधिकारों को कुन्द करने एवं संवैधानिक जनतंत्र पर हमले तेज करने के लिये हिन्दुत्व की जिस अवधारणा को गठित किया गया था, मनुवादी सवर्ण-आधिपत्य उसका आवश्यक अंग था। स्वाभाविक परिणाम के तौर पर, सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर दलितों के मुद्दे पर जो भी कहा जाय, कितनी भी विकास योजनाओं का ढिंढोरा पीटा जाय, जिस सामाजिक शक्ति-समीकरण पर इस सत्ता का निर्माण हुआ था, उसका अवश्यम्भावी परिणाम था दलितों पर बढ़ते हुये हमले और हासिल दलित अधिकारों का हनन ।

एक बात और समझना जरूरी है । इस सरकार के जिस नारे में बीज-मंत्र के तौर पर कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के हितों के साथ इनके हितों का जुड़ाव है, वह है, हकदारी (एनटाइटिलमेंट) नहीं, सशक्तिकरण (एमपावरमेंट) । सुनने में यह नारा बहुत सकारात्मक लगता है। सही बात तो है, सालोंसाल कुछ लोगों को आर्थिक तौर पर लाचार और अपाहिज मान कर कुछ टुकड़ों का मोहताज बनाये रखना कहाँ की बात है ? उन्हे ताकत दो ! ऐसी मदद करों कि वे खुद स्वावलम्बी और सशक्त हो जायें ! … लेकिन हिन्दुत्व के सत्ताबाजों को और सन 2008 के बाद नव-उदारवाद के पैरोकार कॉर्पोरेट पूंजी की दुनिया को स्पष्टत: मालूम था कि यह संभव नहीं । यह तब संभव होता है जब आर्थिक नीतियों की मुख्यधार उस सशक्तिकरण को बनाया जाय और उसे धारण करने लायक उछाल भी होती है अर्थनीति में ! बल्कि वह एक अलग उछाल होती है – ‘मांग प्रबंधन’, यानि रोजगार बढ़ाने की अर्थनीति की; बाजारवाद की नहीं ! लेकिन आर्थिक नीतियों की धार यहाँ तो पूंजी को सशक्त करने की थी ! मजदूरी और किसानों की आय कम कर, गरीबों का पेट काटकर मुनाफा बढ़ाने की थी ! और अर्थनीति में उतनी उछाल भी नहीं थी कि कुछ बचे, गरीबों के किसी छोटे हिस्से को भी सशक्त करने के लिये ! तो बचा क्या ? हकदारी पर हमला ! बीपीएल पर हमला, मनरेगा पर हमला, आरक्षण पर हमला, रोस्टर पर हमला, श्रम-अधिकारों पर हमला, कृषि-अधिकारों पर हमला, स्त्री-अधिकारों पर हमला, सूचना के अधिकार पर हमला, व्यक्ति के अधिकारों पर हमला – आधे हमले कॉर्पोरेट पूंजी के हित में और आधे हमले मनुवादी-हिन्दुत्व के हित में !

तथ्य

14 अप्रैल 2018 को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक खबर में लिखा गया, “सन 2014 से, अनुसूचित जातियों के खिलाफ अपराध कुल एक प्रतिशत बढ़े, हालांकि सन 2016 में यह बृद्धि बहुत अधिक, 5॰5% की थी । 2016 के आँकड़ों के अनुसार, इन अपराधों के एक-चौथाई (25॰6%) उत्तर प्रदेश में हुये; क्रम में उसके बाद आता है बिहार एवं राजस्थान ।”

ढाई वर्षों के बाद, 2 अक्तूबर 2020 को टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक खबर बता रही है, “नैशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्युरो द्वारा हाल में जारी किये गये आँकड़ों के अनुसार, पूरे देश में दलितों के खिलाफ हुये कुल अपराधों का 84% नौ राज्यों में हुये, जबकि वहाँ अनुसूचित जाति की आबादी का मात्र 54% रहती है । अधिकतम दर (दलितों की हर एक लाख की आबादी पर अपराधों की संख्या) हैं राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार एवं गुजरात में । राष्ट्रीय औसत के ऊपर दूसरे राज्य हैं तेलंगाना, युपी, केरल, ओडिशा एवं आंध्र प्रदेश ।”

अगर हम नैशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्युरो के आँकड़ों को देखें तो पूरे देश में (सभी राज्य एवं केन्द्रशासित क्षेत्र का जोड़) अनुसूचित जातियो के खिलाफ हुये दर्ज अपराधों की संख्या 2017 में थे 43203, 2018 में कुछ घट कर हुये 42793 जबकि 2019 हो गये 45935 । ये सारे अपराध एससी/एसटी ऐक्ट के तहत हैं, ऐक्ट के दायरे में नहीं आने वाले अपराध हटा दिये गये हैं । यानि सारे अपराध, दलितों पर अदलितों (सवर्ण या पिछड़ी जातियाँ) द्वारा किये गये हैं ।

वर्ष 2020 के 25 मार्च को कोविड-19 के संक्रमण के फैलाव को रोकने के लिये पहला लॉकडाउन जारी हुआ । तो क्या उसके बाद दलितों पर अत्याचार कम हुये ? 16 सितम्बर 2021 के हिन्दुस्तान टाइम्स में छपी एक खबर में दर्ज किया गया कि, “सिवाय कोविड उल्लंघनों के, पिछले साल कुछ मुख्य किस्म के अपराधों में कमी देखी गई, लेकिन अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजतियों के खिलाफ होने वाले अपराधों में बृद्धि पर कमी की उस सामान्य प्रवृत्ति का कोई असर नहीं पड़ा …” । डेक्कन हेराल्ड में 21 मई 2021 को छपी एक खबर बताती है कि यह बृद्धि 9% है।

अपराधों में बृद्धि के साथ साथ यह भी चिंताजनक प्रवृत्ति है कि अपराध साबित नहीं हो पाते । बड़े रसूख वाले सवर्ण, पुलिस एवं अदालतों की भी मिलीभगत होती है । एक आँकड़ा देखिये:

एन॰सी॰आर॰बी॰ के 2019 वाले प्रतिवेदन (खण्ड 2, पृष्ठ 541, टेबुल संख्या 7ए॰5) के अनुसार वर्ष 2019 में, साल भर में कुल वैसे मामलों जिनमें अपराध प्रमाणित हुआ की संख्या रही 3583 । डिसचार्ज कर दिये गये मामलों की संख्या 986 एवं प्रमाण के अभाव में अभियुक्त छोड़ दिये गये ऐसे मामलों की संख्या 6410 !

यही आँकड़ा अगर बिहार का लें (खण्ड 2, पृष्ठ 549, टेबुल संख्या 7ए॰6) तो पायेंगे कि कुल मामलों जिनमें जुर्म साबित हुआ, की संख्या रही 44, डिस्चार्ज किये गये 13 और बिना सबूत के छोड़ दिये गये आरोपी ऐसे मामलों की संख्या है 305 ! हालाँकि कई दूसरे राज्य बिहार से आगे हैं ! आंध्र प्रदेश है 38 495। लेकिन जरा मॉडल स्टेट गुजरात का हालत देखिये – 7 ≤ 362 !

आगे वही प्रतिवेदन और क्या बताता है ? उपरोक्त टेबुल में ही आगे है कि साल 2019 में अदालत द्वारा पूरा किये गये ट्रायलों/सुनवाइयों की संख्या रही 362 (44+13+305), जबकि साल के अन्त में लम्बित मामलों की संख्या रही 43455 ! यानि, साबित जुर्म (कॉन्विक्शन) की दर 12॰2% और मामलों के लम्बित रहने की दर 99॰2% !

 

बिहार

अब थोड़ा विस्तार से आयें बिहार की बात पर।

यहाँ जिक्र करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि नीतीश कुमार के नेतृत्वाधीन बिहार सरकार के फैसले एवं बाद में हुये संशोधनों के तहत लगभग दो दर्जन जातियों को दलित से अलग कर महादलित परिभाषित किया गया है । कहा जाता है कि उन्हे सुविधायें एवं अवसर अधिक मिलते हैं । दलित व महादलित, दोनों की ही सूचियाँ ‘धर्मनिरपेक्ष’ हैं, यानि हिन्दु एवं मुसलमान दोनों धर्म के अन्तर्गत आने वाले जातियों का जिक्र है ।

7 मार्च 2016 को थी महाशिवरात्रि की रात । नवादा जिला के कछिया गाँव में महादलितों के सैंकड़ों झोपड़ियों में आग लगा दी गई । 24 मार्च, होली । मुजफ्फरपुर जिला के सांगोपट्टी गाँव में दलित बस्ती में आग लगा दी गई, एक दलित बच्ची उस आग में जल कर मर भी गई ।

उसी साल, होली के दो दिनों के बाद बेगुसराय के बलिया दियारा में दो दलित युवक को गोली दाग कर मार दिया गया । फरवरी 2016 में सहरसा जिले के नौहट्टा बरियारी एवं बबुनिया गाँव में सरकारी जमीन पर बरसों से बसे हुये सैंकड़ों दलित परिवार को जमीन से बेदखल करने के लिए हमला चलाया गया था । नवादा जिले के खँटारी गाँव में भी इस प्रकार का हमला हुआ था ।  

2017 की जनवरी में वैशाली जिले में, अम्बेदकर कन्या विद्यालय छात्रावास में रहने वाली 10वीं कक्षा की एक महादलित छात्रा के साथ सामूहिक दुष्कर्म कर उसे मार डाला गया । फरवरी महीने में राजधानी के दानापुर अंचल  में एक महादलित महिला को घर से उठा कर उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म कर बेहोशी की हालत में छोड़ दिया गया।

इसी साल, कोविड-19 की दूसरी लहर के बीच पुर्णिया के नियामतपुर गाँव में, 19 मई को 100-150 की संख्या में स्थानीय उपद्रवियों ने मिलकर दलित समुदाय की बस्ती को जला दिया।  

वर्ष 2005 से ही दलित उत्पीड़न की घटनायें बढ़ रही थीं। इन्डियन एक्सप्रेस में 19 अक्तूबर 2014 को प्रकाशित एक प्रतिवेदन में पत्रकार सन्तोष सिंह ने लिखा कि नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री रहने के पहले पाँच साल (2005 – 10) में दलित उत्पीड़न के 10798 मामले दर्ज किये गये जबकि अगले मात्र चार साल (2011 – अगस्त 2014) में दर्ज किये गये मामलों की संख्या हुई 19097 । नवम्बर 2015 में राजद + जद(यु) + कांग्रेस के महागठबन्धन की सरकार सत्ता में आने के बाद इस संख्या में और बृद्धि हुई है । 2016 में हिन्दु अखबार में प्रकाशित एक प्रतिवेदन में दिखाया गया कि अनुसुचित जातियों के खिलाफ किये गये आपराधिक कृत्यों की संख्या में उत्तर प्रदेश पहले स्थान पर है जबकि बिहार दूसरे स्थान पर । बिहार की जनसंख्या का 15॰9% दलित है जबकि दर्ज मामलों का 40-41% दलितों पर किये गये आपराधिक कृत्यों का है।

इससे स्वाभाविक तौर पर एक अवधारणा बनाई जा सकती है कि सरकारी अनुसूची में पिछड़ी जाति के रूप में चिह्नित समुदाय के लोग सवर्णों से भी अधिक दलितविरोधी हैं । बुद्धिजीवियों के कई तबकों में, यहाँ तक कि दलित बुद्धिजीवियों में भी यह अवधारणा काफी प्रचलित है । और यह भी तो तथ्य है कि बिहार के मुख्यमंत्री पिछड़ी जाति के ही हैं एवं उत्तर प्रदेश के भी (इस चुनाव के पहले तक) मुख्यमंत्री पिछड़ी जाति के ही थे। इसलिये बात में आंशिक सच जरूर है । जातपात की सामाजिक बीमारी तो पिछड़ी जातियों में भी है और दलित जातियों में भी ।

लेकिन, कम-से-कम बिहार की स्थिति के पीछे तो उससे बड़ी और कई बात है । उसमें से एक है पिछड़ी जातियों के नव-धनिकों के साथ राज्य के भूस्वामी समुदाय (जिनमें से बहुसंख्यक सवर्ण हैं) का समझौता । इस समझौते को जिन्दा रखने के लिये ही नीतीश-जमाने के शुरूआती दौर में वह अजीबोगरीब घटना सामने आई – सरकार ने खुद ही भूमिसुधार के प्रश्न पर डी॰ बन्दोपाध्याय आयोग का गठन किया लेकिन उस आयोग का प्रतिवेदन एवं की गई अनुशंसायें विधानसभा में पेश नहीं कर सकी । प्रसंगवश जिक्र किया जा सकता है, लालू-जमाने की शुरूआत में भी ऐसी ही घटना हुई थी । सरकार ने भूस्वामियों के खिलाफ खूब तर्जन-गर्जन किया । विधानसभा में 29 सबसे बड़े भूस्वामियों के नामों एवं उनकी जमीन के कुल क्षेत्रफल की सूची पेश की गई । बस्… उसके बाद चुप्पी !

नीतीश-जमाने में इस समझौते का खेल देखा गया राजधानी के सड़कों पर, ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद । मुखिया के समर्थक गाड़ियों के कॉन्वॉय पर, हथियार लेकर आरा से पटना आये, कोतवाली थाने के सामने गाड़ी में आग लगाई गई, खुले तलवारों के साथ घन्टों तक पूरे शहर में उन्होने तांडव मचाया, लोग डर कर घरों की ओर भागे और पुलिस खामोश बैठी रही । पुलिस प्रधान ने कहा, “उन्हे रोकने की कोशिश करने पर कुछ और अधिक खतरनाक बारदातें हो जातीं”!

दूसरी बात है नौकरी का अभाव । भूमंडलीकरण के बाद से सरकारी-अर्द्धसरकारी संस्थाओं एवं विभागों में नियुक्तियाँ घट गई हैं । आखिर, ‘आराम’ की नौकरी, सवर्णों की कुछेक जमात को पैसे और पैरवी पर पुश्त-दर-पुश्त मिलने वाली नौकरियाँ तो वहीं रखी थीं । अनारक्षित पूरी रिक्तियों पर उन्हे नौकरी मिलती थी और आरक्षित रिक्तियाँ बस रोस्टर में बैकलॉग बन कर रह जाती थी । प्राइवेट नौकरियों में भी कमोवेश वही स्थिति है । एक दिन पटना में हुये एक सेमिनार में, एक लड़के ने उनके एक ग्रुप द्वारा किये गये शॉर्ट सर्वे के रिपोर्ट से उद्धृत किया कि पटना के मीडिया हाउजों में पत्रकारों की संख्या है 290 । उसमें दलित है सिर्फ एक । यही पैटर्न सभी जगहों पर है । छोटे-मझौले व्यापारिक संस्थाओं में भी । स्वाभाविक तौर पर तथाकथित विकास की अर्थनीति का नकारात्मक प्रभाव ही ज्यादा है । यही नकारात्मक प्रभाव उनके स्कूली शिक्षा एवं उच्चशिक्षा पर भी पड़ता है । अत्याचारी सामन्तवादी मानसिकता का और कोमल लक्ष (सॉफ्ट टार्गेट) बन जाते हैं दलित, उनके घरों की महिलायें ।

तीसरी बात है गाँवों से पलायन । या बहिर्गमन । कृषि के काम, कृषि-सम्बन्धित काम, कलकारखानों में काम, शहरों में मकान-सड़क-पुल आदि बनाने के काम के लिये लाखों की संख्या में लोग बिहार के गाँवों से पूरे देश में फैल जाते हैं । इनमें से अधिकांश पिछड़ी जातियों या दलित जातियों के गरीब होते हैं । गाँव का गाँव सूना हो जाता है । लेकिन गाँव के सवर्ण धनिकों के घरों में ऐसे बहुत से काम रहते हैं जो वो खुद नहीं करेंगे । तब वे दलित टोले पर हमला बोलते हैं । जो कुछ बचे होते हैं अगर वे काम न करना चाहें तो हमले का शिकार बनते हैं ।

एक बात है कहने की । एक कल्पकथा है कि विकास की अर्थनीति के कारण दलितों का भी आर्थिक सशक्तिकरण कुछ सम्भव हुआ है – इसीलिये वे पहले से अधिक प्रतिवाद कर पा रहे हैं और उन पर हमले की हिंस्रता भी उसी कारण से बढ़ी है । यह महज एक कल्पकथा ही है । प्रौद्योगिकी में हुये क्रांतिकारी परिवर्तनों का एक प्रभाव जरूर पड़ा है । किसी के घर में सेकन्ड हैंड टीवी, हाथ में मोबाइल ! कोई उसी के बल पर शायद बोलने का हिम्मत करता होगा, “नहीं करूंगा” ! लेकिन यह प्रवृत्ति भी तो नई नहीं है । इतिहास के पन्नों में बार बार देखा गया है । लेकिन आर्थिक विकास ? बिल्कुल ही नहीं । बल्कि, और पिछड़ गये हैं वे; इसके आँकड़े भी उपलब्ध हैं । और इसीलिये, बात बात पर हमला ज्यादा आसान हो गया है ।

अन्त में

20 मार्च 2018 को सर्वोच्च न्यायालय ने अ॰जा॰ एवं अ॰जजा॰ (अत्याचारों का रोकथाम) कानून 1989 में कुछ संशोधन की जरूरत को रेखांकित किया । एक तरफ जहाँ दलितों के खिलाफ हो रहे जुल्म के मामलों में पूरे देश का कॉन्विक्शन रेट (आरोप सिद्ध होने की दर) मात्र 32॰1% हो, वहाँ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस बात पर चिन्ता जताना कि कानून का इस्तेमाल गलत उद्देश्य से हो रहा है, निर्दोष लोग फँस रहे हैं …आदि, पूर्णत: विवेकशून्यता का परिचायक था, भले ही ऐसी घटनायें कुछेक होती हों । एक पृष्ठभूमि भी तैयार हो रही थी । केन्द्रीय सरकार में आसीन व्यक्तियों की मनुवादी सोच, सरकारी आयोजनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं की उपस्थिति, दलितों पर हमलों की बढ़ती घटनायें … । फलस्वरूप 2 अप्रैल 2018 को एक अभूतपूर्व भारत बंद संघटित हुआ । किसी बड़े राजनीतिक दल के प्रत्यक्षत: शामिल न होने के बावजूद बंद पूर्णत: सफल रहा । मार्के की बात तो यह कि सरकार भी पशोपेश में पड़ गई । आज जिस तरह वह किसानों के आन्दोलन को कुचलकर लहुलुहान कर रही है, उन दिनों दलित आन्दोलन को कुचलने में आगे नहीं बढ़ी, बल्कि संसद के मॉनसून सत्र में विधेयक लाकर कानून को पूर्ववत बना दी क्योंकि अगले साल की शुरुआत में ही संसदीय चुनाव होने थे और भाजपा को दलित वोटों की सख्त जरूरत थी ।

लेकिन, मौके मौके पर इतने ताकतवर दिखने वाले दलित संगठन क्यों नहीं एकजुट होकर कोई निर्णायक कदम उठा पाते? बड़े दलित नेताओं का स्वार्थीपन, भ्रष्टाचार, परिवारवाद आदि से अलग सिर्फ एक बात को रखना चाहुंगा।

गुजरात के ऊना शहर वाली घटना याद है? चार दलित युवकों को नंगे बांधकर बेरहमी से पीटे जाने के विरोध में पूरे ऊना शहर में हड़ताल हुआ। मुर्दा पशुओं की लाश सड़क पर से हटाना बंद कर दिया गया। त्राहि त्राहि मच गया शहर में। सड़कों पर, तबेलों में लाश सड़ने लगे – हटाने वाला कोई नहीं। ऐसा लगने लगा था कि आम नागरिकों की गुहार सुनते हुये जिलाधीश या अन्य उच्च अधिकारी दलितों से बात करेंगे, कुछ आश्वासन देंगे, ऊँची जाति के दबंग बनने वाले शोहदों को कुछ पाठ पढ़ायेंगे … उसके पहले खुद दलित ही पहुँच गये उनके पास, कि वह अपना काम फिर से शुरू करना चाहते हैं, नहीं तो उन्हे भूखा मरना पड़ रहा है, दूसरा रोजगार है कहाँ, – बस, मरे हुये पशुओं को उठाने का काम शुरू हो गया ! जबकि, याद होगा उस साल, यानि 2016 के 15 अगस्त को ऊना में ‘आजादी कुन’ (आजादी मार्च) में 350 किलोमीटर पैदल चल कर आये लाखों दलित ने, देश का झंडा फहराकर शपथ लिया था कि वे मरे हुये पशु को सड़क पर से हटाने, चमड़ा काटने, माथे पर या गाड़ी से टट्टी ले जाने को अपनी जाति की पेशा के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे।

यही जाति और वर्ग के एक दूसरे में मिले होने की विड़म्बना है। आर्थिक या वर्गीय सवालों को साथ लिये बगैर सामाजिक न्याय की लड़ाई एक सीमा के बाद कमजोर पड़ने लगती है। दलितों की जाति आधारित राजनीतिक पार्टियाँ इस सच्चाई के प्रति अंधी बनी रहती है। और अन्तत: उनमें पैदा होता है एक एक पूंजीवादी स्वयम्भू नेता जो अमूमन भ्रष्ट होता जाता है। सिर्फ कम्युनिस्ट विचारधारा इस सच्चाई को स्वीकारती है एवं उसी के अनुरूप आगे बढ़ती है।

 

 


 

 

         

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