घर में शादी हो रही थी। फेरे लग रहे थे। वह बच्चा अपनी दादी के साथ खड़े देख रहा था; दादी उसका हाथ पकड़े हुए थी। बच्चा बहुत ध्यान से बीच में उठ रही आग की लपटों को देख रहा था जिसे बार बार ढक दे रहे थे धीरे धीरे घूमते हुये दुल्हा-दुल्हन के पैर और उन दोनों के बंधे हुये पल्लू। बच्चे की कल्पना भी साथ दौड़ रही थी। बरबस उसके दिमाग में बात आ गई कि झूलता हुआ पल्लू अगर आग पकड़ ले तो? तो क्या होगा, पानी से बुझा दिया जाएगा, बच्चे के दिमाग ने समाधान सोच लिया। लेकिन फेरा तो रुक जाएगा! फिर? उसने दादी से पूछा, “दादी, अगर सात फेरे नहीं लग पाये तो?” दादी शंकित हुईं, “क्या मतलब? क्यों नहीं लग पायेंगे?” “नहीं, अगर पल्लू आग पकड़ ले और उसे बुझाने …”। “चुप, चुप! क्या अशुभ बातें सोचता रहता है तू! छी, छी, ऐसी अशुभ बातें सोचनी भी नहीं चाहिये।”
अच्छा हुआ कि उस शादी में
ऐसी कोई घटना नहीं हुई। होती तो बच्चे पर ख्वामखाह ‘कालाजीभवाला’ होने का सन्देह फैल
जाता। क्योंकि दादी तो बोलती ही, कि बच्चा दो मिनट पहले यही कह रहा था।
फेरे चलते रहे। लोग आनन्द
लेकर गिन रहे थे, “तीन, चार”, …… “ए ए, चार नहीं हुआ है अभी, तीसरा चल रहा है” …… बच्चे
का दिमाग फिर सोचने लगा – अगर सात गिनने में लोग गलती कर दें? फिर उसने दादी से पूछा,
“दादी, दादी, अगर सात की जगह आठ फेरे लग गये तो?” “ओफ! तेरा यह ऊलजलूल सोचना बन्द करना
पड़ेगा। बिना सोचे देख नहीं सकता है? किसी दिन तू किसी अमंगल को बुला लायेगा इस तरह!”
गनीमत है कि दादी थी। अगर
बच्चे का बाप होता तो पिटाई भी पड़ चुकी होती। पूरे प्रसंग को हम एक सामान्य हास्यप्रसंग
के रूप में देख सकते हैं। लेकिन सोचिये कि इस सामान्य प्रसंग में भी बच्चे के दिमाग
को, दिमाग की कल्पनाशक्ति को ‘अशुभ’ कहा गया, ‘ऊलजलूल’ कहा गया, ‘बिना सोचे’ देखने
की हिदायत दी गई और ‘अमंगल’ बुला लाने की आशंका व्यक्त की गई।
यही बर्ताव करते हैं हम
बच्चों के साथ। बच्चियों के साथ और भी ज्यादा। पूजा की जगह पर बिना नहाए या कपड़ा बदले
चला गया, नैवेद्य के लिये रखे गये फल या मिठाई को छू लिया, खा लिया एक उठा कर तब तो
कोहराम मच जाएगा, वैसे सबकुछ ‘अपवित्र’ कर देने का तोहमत तो मिल ही जाता है।
कितने ऐसे काम हैं जिन्हे
करने से, या ऐसे सोच हैं जिन्हे सोचने से ‘पाप लगते हैं’, और फिर कितने ऐसे काम हैं
जिन्हे करने से, या ऐसे सोच हैं जिन्हे सोचने से ‘अमंगल’, अकल्याण’ होता है। कितने
ऐसे काम हैं जिन्हे, या ऐसे सोच हैं जिन्हे, बस करना या सोचना नहीं चाहिये। क्यों?
क्यों क्या? बस कह दिया न? लोग कहते हैं। सदियों से मानते आये हैं। सारे के सारे गलत
थे क्या?
यह सब उस धर्म के पालन का
सामान्य रोजमर्रा है जिसके भीतर से किसी बच्चे या बच्ची को हर दिन गुजरना पड़ता है और
गुजरते गुजरते वे अपने दिमाग में खुद असंख्य अदृश्य दीवारें खड़ी करने लगते हैं – ये
न करो, ये न सोचो, ये न छुओ …। पाप लगने से वे ज्यादा नहीं डरते। बचपन हमेशा साहसी
और खोजी होता है। पाप लगेगा तो लगेगा, अपने ऊपर लगेगा। लेकिन ‘अमंगल’, अकल्याण’ से
वे डरते हैं। ये दोनों ‘चीजें’ तो घर पर मंडरायेंगी। जिसमें माँ रहती हैं, पिताजी रहते
हैं, दादी रहती हैं, दीदी या बहन या भैया या छोटा भाई रहते हैं। हो सकता है कोई बुआ
या मौसी भी रहती हों जो खुद तो किस्मत की होती हों पर घर के बच्चों की दोस्त हो जाती
हैं। कोई दोस्ताना नौकर या दाई भी हो सकता है हो। इनमें से किसी के अमंगल की आशंका,
वह भी उसी के किसी काम या सोच के कारण … बच्चों की रुह काँप जाती है।
सोचिये कि ये डरे हुये बच्चे
जो आज तक बड़े होते रहे उनके डर का क्या इस्तेमाल हुआ भविष्य के जीवन में?
जबकि घर, परिवार सिर्फ फुनगी
या पत्ता होता है उस विशाल विषवृक्ष का जिसे धर्म कहते हैं। गांठ पर सार्वजनिक आराधनास्थल
– मन्दिर, मस्जिद, गिर्जा आदि – होते हैं और तना होता है उसका जीवन-यंत्र। इस तने में
धर्म के ठेकेदारों की बैठका होते हैं – देश और दुनिया-स्तरीय। संगठित धर्म के इस जीवन-यंत्र
की जड़ें गड़ी हुई रहती है सभ्यता की विजयी राज्यसत्ताओं के अहाते में। जिसे असंगठित
धर्म या लोक-जीवन में मौजूद हजारों पंथ के रूप में जानते हैं उनके जीवन-यंत्र की जड़ें
गड़ी रहती है सभ्यता की पराजित सत्ताओं के अहाते में या ऐसे तंत्रों में जिन्हे सत्ता
हासिल नहीं हो सका। मनुष्य के द्वारा मनुष्य के शोषण की जो व्यवस्था है समाज में, जो
उसका ऐतिहासिक यथार्थ है, उसी से राज्यसत्ता को बौद्धिक पोषण मिलता है, और उसी ऐतिहासिक
यथार्थ से धर्मों का भी बौद्धिक पोषण होता है।
जब हम कहते हैं, धर्म अपनी
अपनी आस्था है भाई, मन में मानो, घर में मानो … तब भी दिमाग में खाका वैसे ही किसी
तंत्र का होता है जिसे सत्ता का प्रश्रय हासिल नहीं हो सका, या ज्यादा सही होगा कहना
कि सत्तासीन वर्ग ने उसे काम का नहीं समझा और इसलिये आज वह बिखरा बिखरा, घरों में सिमटा
सा दिखता है। फिर भी हम कहते हैं, कहेंगे क्योंकि उसमें लोकायत जीवन का एक ऐतिहासिक
स्वरूप निहित है, जिसकी जरूरत है, तात्कालिक तौर पर सामाजिक शक्तियों की गति को सही
परिप्रेक्ष्य और सही दिशा देने के लिये।
अक्सर हम धर्म और साम्प्रदायिकता
में फर्क करते हुये सारी बुराई साम्प्रदायिकता के मत्थे मढ़ देते हैं। धर्म को आस्था
और मन की शांति के दायरे में लाकर पूरी तरह निर्दोष साबित कर देते हैं। साम्प्रदायिकता
मेरी समझ से एक आधुनिक ऐतिहासिक परिघटना है जिसका विवेचन अभी प्रासंगिक नहीं होगा।
लेकिन जिस ठोस रूप में धर्म आज हमारे घरों में है वही आतंक की जमीन तैयार करता है;
भविष्य का आतंकित नागरिक भी तैयार करता है और आतंकवादी भी तैयार करता है।
2
धर्म का आतंक मूलत: सत्ता
का आतंक है। क्योंकि धर्म सत्ता का ही सांस्कृतिक हथियार है।
सीधे तौर पर ऐसा कह देने
से बहुत अजीब सा लगता है। इसके विरुद्ध तर्क देनेवाले अपनी बात शुरू ही करते हैं एक
खास नाम का हवाला देकर। कार्ल मार्क्स। “क्यों? कार्ल मार्क्स ने जैसे कहा था कि धर्म
अफीम है, उन्होने यह भी तो कहा था कि धर्म उत्पीड़ित प्राणी की आह है, हृदयहीन दुनिया
का हृदय है, आत्माशून्य परिस्थितियों की आत्मा है”?
बेशक। पर उत्पीड़क है कौन?
दुनिया को हृदयहीन और परिस्थितियों को आत्माशून्य या विवेकशून्य बनाया कौन?
ठीक है, मान लिये कि सत्ता
ने, राज्यसत्ता ने, शासकों ने ही बनाया, तो फिर इसका मतलब है कि उस सुरक्षित मर्मस्थल
को भी उन्होने ही बनाया “हृदयहीन दुनिया का हृदय है, आत्माशून्य परिस्थितियों की आत्मा
है” और जहाँ “उत्पीड़ित प्राणी की आह” निकलती है तो उसे करुणा के प्रलेप से शांत कर
देता है वह हृदय और वह आत्मा!
बिल्कुल! उन्होने ही तो
बनाया! अपने परिश्रम से जीवन-धारण-रत मनुष्यसमाज की उत्पादक शक्तियों के विकास के जिस
मुकाम पर वर्गों का पहला विभाजन सम्पन्न हुआ, एक वर्ग दूसरे वर्ग के परिश्रम से प्रतिपालित
होने को अपना अधिकार घोषित किया, जिस तरह वह वर्ग उत्पादन की भौतिक शक्तियों – उपकरण,
अस्त्र, जमीन, पशु, गुलाम के रूप में मनुष्य आदि – को अपने कब्जे में किया, उसी तरह
वह उत्पादन की आत्मिक शक्तियों – यानि, अनुभवों के द्वारा उस समय तक आहरित सामूहिक
मानव-ज्ञान, संवेदन व कल्पनालोक को भी अपने कब्जे में ले लिया। जिस तरह भौतिक शक्तियों
को अपने कब्जे में रखने के लिये उन्होने अस्त्रशाला, कर्मशाला, गोदाम, आवास या कैदखाने
बनवाये, आत्मिक शक्तियों को भी अपने कब्जे में रखने के लिये उन्होने उपासनागृह बनवाये।
यह प्रवृत्ति आज भी आप थोड़ा
अलग रूप में देख सकते हैं। एक छोटे साहब भी, सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद,
काफी पैसे कमाने के बाद जब सोचते हैं कि अब जरा अपने ‘जड़ों की ओर’ चला जाय, कुछ ‘सेवाकार्य’
किये जायें, पुश्तैनी जमीन-जायदाद को जरा ‘सही काम’ में लगाया जाय … तो सबसे पहले गाँव
पहुँचकर अपने जमीन-जायदाद को ‘गोतिया’ लोगों के, और जमाने के साथ उभरते लफंगों की जबरिया
दखल से सुरक्षित करने में जुट जाते हैं। इस काम में उन्हे प्रशासन एवं स्थानीय लोगों
की मदद की जरूरत पड़ती है। इस मदद को लेने के लिये वह अपनी जमीन पर (जगह के हिसाब से)
एक विद्यालय या एक प्राथमिक (या ऑक्सिलरी) स्वास्थ्य्केन्द्र बनाने की घोषणा करते हैं
और साथ ही साथ एक मन्दिर बनवाने की घोषणा करते हैं। उस मन्दिर में नया कुछ भी नहीं
होता है सिर्फ एक अतिरिक्त सामूदायिक चबूतरे के सिवा, जहाँ सामुदायिक कार्य होते है।
बाकि देवता, मंत्र आदि सब वही होते हैं जो पहले से उस इलाके के घरों में मौजूद है।
घरों की आत्मिक शक्तियों को मन्दिर कैद करता है और धीरे धीरे, सामुदायिक भक्ति को विभिन्न
सांस्कृतिक उपकरणों (जागरण, कीर्तन-भजन) से अपनी ओर खींच कर, किसी एक समय अगर वह ‘जागृत’
देवता या देवी का मन्दिर बन जाता है तब तो संस्थापक महोदय की धाक में चार चांद लग जाती
है। एकाध अपवाद को छोड़ कर ऐसे महानुभवों का सेवाकार्य यहीं तक सीमित रहता है और इसी
की आड़ में वह नव-स्थापित जमींदारी, उसमें ग्रामीण औद्योगीकरण के नाम पर व्यवसाय आदि
को चमकाने में लग जाते हैं।
खैर। मूल बात यह है कि “हृदयहीन
दुनिया का हृदय”, “आत्माशून्य परिस्थितियों की आत्मा” वही बनाते हैं जो परिस्थितियों
को आत्माशून्य एवं दुनिया को हृदयहीन बनाते हैं। और उस आत्मा और हृदय को वे वस्तुत:
जनता की आत्मा और हृदय को सोख कर अपने कब्जे में करते हैं और उसे धर्म का रूप और नाम
देते हैं। और इस बात की गारंटी कर कि “उत्पीड़ित प्राणी की आह” उसी सुरक्षित गर्भगृह
या मर्मस्थल में निकले, वे आह को चिंगारी बनने से रोकने में सफल हो जाते हैं।
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