दक्षिण असम में स्थित बराक की घाटी के उत्तर में है उत्तरी काछार जिला के पहाड़ी इलाके, दक्षिण में हैं त्रिपुरा और मिजोरम के पहाड़, पूरब में मणिपुर एवं अंगामी नागा पहाड़ियाँ और पश्चिम में बांग्लादेश का समतल… । मुख्य नदी है बराक, जिसकी दो शाखाएं – सुरमा और कुशियारा (उन दोनों की कई उपशाखाएं भी हैं) ने घाटी को तीन प्रशासनिक जिलों में विभाजित किया है – काछार, करीमगंज और हाइलाकांदी। बराक की घाटी अपने आप में कोई प्रशासनिक इलाके के रूप में चिन्हित नहीं है फिर भी इसकी भौगोलिक स्थिति इसे अलग चिन्हित कर देती है। असम की ब्रह्मपुत्र घाटी से इसका जुड़ाव या तो उत्तरी काछार पर्वतों के कठिन घुमावों से गुजरते हुए रेलमार्ग के माध्यम से है या मेघालय से गुजरते हुए उतने ही घुमावदार सड़क-मार्ग के माध्यम से है।
सिलचर शहर इस पूरे क्षेत्र का आर्थिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र है। पूरी घाटी में बांग्लाभाषा बोलने वाली आबादी की बहुमत है। इनके अलावे यहाँ विभिन्न जनजातीय आबादी भी मौजूद हैं। ऐतिहासिक तौर पर, यह क्षेत्र अविभाजित बंगाल का हिस्सा था एवं इसका
अधिकांश भाग सिल्हट जिला में पड़ता था जो अभी बांग्लादेश में है।
भारत के किसी भी राज्य में या केन्द्रशासित क्षेत्र में भाषाई अल्पसंख्यकों को किस प्रकार
की सरकारी मान्यता मिलेगी एवं क्या उनके अधिकार होंगे इस बारे में भारत का संविधान बिल्कुल स्पष्ट है। तदोपरान्त, यहाँ एक क्लास-रुम मॉडल (यानि कक्षा में पाठ समझाने हेतु दिखाया जाने वाला रूप) मौजूद है जहाँ भाषाई राज्य की अवधारणा के अनुसार प्रधान भाषाभाषी (असमिया) ब्रह्मपुत्र घाटी में बहुमत में है और अल्पसंख्यक भाषाभाषी (बांग्ला) बराक घाटी में बहुमत में है। अगर गोआलपाड़ा या बरपेटा के छोटे शहर या गाँव में बसे कुछेक बांग्लाभाषी परिवारों की बात होती तो उनके भाषाई अधिकार या अस्मिता की रक्षा, सरकार की ओर से सकारात्मक पक्षपाती हस्तक्षेप या मदद पर निर्भर करता। लेकिन यहाँ, बराक घाटी में, सरकार को सिर्फ, जनता द्वारा स्थापित, दशकों पुराने, सांस्कृतिक/ शैक्षणिक ढाँचे को बाधित नहीं करना था या ध्वस्त नहीं करना था।
लेकिन एक के बाद एक बनी असम की सरकारों ने ठीक यही किया। वह भी क्यों? इस क्षेत्र के नहीं, ब्रह्मपुत्र एवं दूसरे क्षेत्र की असमिया आबादी
को वोट-बैंक
बना कर अपनी झोली में भरने के लिए। राजधानी में पूंजीवादी अवसरवाद का मंत्र बना “असम असमिया बोलने वालों के लिए, बाकी भाड़ में जाए” ! विधान सभा में एवं सड़कों पर इसी मंत्र के अनुसार काम करने के लिये पूरे प्रशासनिक तंत्र को झोँक दिया गया।
बराक की जनता हर बार इन प्रशासनिक
तिकड़मों का विरोध करती रही। उनके एकजुट विरोध के कारण केन्द्र से प्रधान मंत्री, गृह मंत्री एवं अन्य राज्य के मुख्यमंत्रियों को आना पड़ा सिलचर, जनता को आश्वस्त करने के लिए कि उनकी भाषाई अस्मिता की बलि नहीं चढ़ाई जाएगी। जब तक उनके हेलिकॉप्टर राजधानी में वापस उतरते थे यहाँ, राज्य में विपरीत धारा बहा दी जाती थी। सब आदि हो चुके थे इन बातों के।
19 मई 1961 को सिलचर में, सरकार द्वारा किए गए एक नये भाषाई हमले के खिलाफ सत्याग्रह
का कार्यक्रम तय था। सुबह चार बजे से सिलचर रेलस्टेशन में सत्याग्रहियों की भीड़ आने लगी थी क्योंकि पाँच बजे खुलने वाली पहली गाड़ी को रोकना था। धूप चढ़ते चढ़ते सत्याग्रहियों की संख्या 3000 हो गई। पुलिस ने उन्हे हटाने के लिये लाठीचार्ज किया, कई गिरफ्तार किये गए। लेकिन सत्याग्रही डटे रहे। पुलिस द्वारा बीच बीच में लाठीचार्ज चलता रहा। दोपहर तक 20,000 सत्याग्रही जमा हो गये। बारह बजे अचानक सब कुछ शांत हो गया। लोग कहते हैं कि एक साजिश को अंजाम दिया जा रहा था – स्थानीय पुलिस थाने में एक झूठा एफ॰ आई॰ आर॰ दायर किया गया कि भीड़ ने पुलिस से एक बन्दूक (!) छीन ली है। …
खैर, सब लोग शांत थे। यहाँ तक कि कुछ लोग जो सुबह से बैठे सत्याग्रहियों के लिये खाना लेकर आए थे, पुलिस को भी खिला रहे थे। अचानक ढाई-तीन बजे ताबड़तोड़ गोलियाँ चलने की आवाज आई। गोलियाँ पीछे के तरफ से स्टेशन पर बैठे सत्याग्रहियों पर चलाई जा रही थी। लोग लुढ़क
रहे थे, भाग रहे थे स्टेशन के उस पार, जल्ले की ओर। जल्ले में छलांग लगा रहे थे गोलियों
से या लगी गोली की जलन से बचने के लिए। बाद में उस जल्ले से भी लाशें मिलीं।
सरकार की ओर से तो लीपापोती होनी ही थी। एक गैर-सरकारी जाँच आयोग ने इस पूरे घटनाक्रम की जाँच की थी। उस जाँच आयोग ने प्रतिवेदन में लिखा कि दो तरफ से गोलियाँ चलाई जा रही थी ताकि कोई भाग नहीं पाए।
सैंकड़ों इस गोलीकांड में घायल हुए। जिन इग्यारह मातृभाषा-योद्धाओं ने अपने प्राणों का बलिदान दिया उनके नाम निम्नलिखित हैं:
शचीन्द्रमोहन पाल, चन्डीचरण सुत्रधर, हितेश विश्वास, तरणि देवनाथ, कुमुद रंजन दास, सुकोमल पुरकायस्थ, सुनील दे सरकार, सत्येन्द्र कुमार देव, विरेन्द्र सुत्रधर, कानाईलाल नीयोगी एवं कमला भट्टाचार्य।
गौर करने की बात है कि वर्ष 1961
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्मशतवर्ष था एवं उसी मई महीने में दस दिन पहले लोग रवीन्द्रजयन्ती मनाये थे। अगर रवीन्द्रपक्ष (रवीन्द्रजयन्ती कई जगह पन्द्रह दिनों तक मनाया जाता है) का हिसाब लें तो 19 मई की तारीख रवीन्द्रपक्ष के अन्तर्गत होती है। और उन्ही की भाषा को गोलियों और संगीनों से लहुलुहान किया गया।
हम जरूर याद रखें कि अपनी मातृभाषा के अधिकारों के लिये संघर्ष देश की अखण्डता एवं जनतंत्र को मजबूत करने के लिये होता है। जो सरकार या जो ताकत इन अधिकारों के खिलाफ होती है वह देश की अखण्डता और जनतंत्र को क्षति पहुँचाती रहती है।
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