Saturday, September 18, 2021

19वीं सदी के सामाजिक-बौद्धिक आन्दोलनों में भारतीय भौतिकतावाद के विकास की तलाश

"विश्वजगत के नियमों पर विचार करने से पहले नियमों का स्वरूप समझना जरूरी है। संसार में सभी वस्तुओं के सभी कार्य खास खास निर्धारित रीति के अनुसार घटित होते हैं। सागर का जल सूरज के तेज से वाष्पित होकर ऊपर की ओर धावित होता है, और उसी कारण से वहाँ बादल पैदा होता है जो पृथ्वी पर बारिश करता है। यहाँ जल और तेज, इन दोनों पदार्थों का कार्य है वाष्प या बादल। यह कार्य विश्वजगत के नियमानुसार घटित होता है, यानि जल और तेज की प्रकृति जैसी है, एवं उनका पारस्परिक सम्बन्ध जैसा निरूपित है, उसके चलते उक्त कार्य से उस प्रकार की घटना से भिन्न कुछ नहीं हो सकता है। जल एवं तेज की जिस अवस्था में उक्त कार्य एकबार घटित हुआ, पुन: उसी अवस्था में पहुँचने पर अवश्य ही वही कार्य घटित होगा। यह जो निर्धारित रीति है, इसी को नियम कहा जा सकता है। विश्वजगत के सारे नियम, उस विश्वजगत के अन्तर्गत वस्तुसमुदाय की प्रकृति पर आधारित है, इसलिये ये नियम प्राकृतिक नियम कहे जा सकते हैं। नियम होने पर अवश्य ही उस नियम का आश्रय एक खास वस्तु भी होगा।” [प्राकृतिक नियम, वाह्य-वस्तुओं के साथ मानवप्रकृति के सम्बंधों का आकलन, अक्षय कुमार दत्त]

पुस्तक के रूप में तो ये बातें सन 1852 में आईं; किसी भी भारतीय भाषा में उस समय तक, प्रकृति की इतनी वस्तुपरक अवधारणायें नहीं आई थीं। पाठ्यपुस्तक तो दूर, विद्वत-चर्चा में भी नहीं जबकि, धारावाहिक निबंध के रूप में ये बातें, देवेन्द्रनाथ ठाकुर (रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पिता) द्वारा प्रकाशित ‘तत्वबोधिनी’ पत्रिका में आ चुकी थी। उल्ल्र्खनीय है कि पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के साथ हम अक्षय कुमार दत्त के जन्म का भी दो सौवाँ साल मना रहे हैं। दोनों, और साथ में मदनमोहन तर्कालंकार ने मिल कर 1850 के दशक से प्राथमिक स्तर के छात्र/छात्राओं के लिये बंगलाभाषा में आधुनिक पाठ्यपुस्तकों के लेखन की शुरुआत की। विद्यासागर द्वारा स्थापित छापाखाना एवं प्रकाशनगृह, ‘संस्कृत प्रेस डिपोजिटरी’ से मुद्रित एवं प्रकाशित ये पाठ्यपुस्तक इतने लोकप्रिय हुये कि अगले बीस वर्षों में, अंग्रेजों द्वारा रचित पुराने किस्म के पाठ्यपुस्तक बिक्री में जबर्दस्त मात खा गये। खैर, वह अलग कहानी है। इस निबंध में मेरी प्रस्थापना है कि पूरी उन्नीसवीं सदी के न सिर्फ तर्कवादी आन्दोलन बल्कि सामाजिक सुधार आन्दोलन भी भारतीय भौतिकतावाद के विकास के महत्वपूर्ण चरण थे। उक्त भौतिकतावादी आचार, व्यवहार के सर्वश्रेष्ठ पक्षधर व प्रवक्ता थे पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर। साथ ही, कम उम्र में ही घातक शारीरिक अस्वस्थता के कारण, सामाजिक जुझारूपन से थोड़ा अलग दिखने के बावजूद, उनके समसामयिक मित्र अक्षय कुमार दत्त ने अपनी रचनाओं के माध्यम से भौतिकतावाद एवं निरीश्वरवाद को, विस्मित कर देने वाली स्पष्टता के साथ प्रतिपादित किया। 

भारतीय भौतिकतावाद 

लेकिन सबसे पहले भारतीय भौतिकतावाद पर। इस विषय पर दर्शन के आधुनिक विद्वान व शिक्षक देबीप्रसाद चट्टोपाध्याय द्वारा इतने मौलिक काम हो चुके हैं एवं वह वाङ्मय इतना विशाल है (रूसी भारतविदों का काम ओझल भी कर दूँ तो) कि उस पर चर्चा करना भी मेरे जैसों के लिये अपनी अक्षमता का ढिंढोरा पीटने जैसा होगा। मैं बल्कि, अपने ढंग से एक विषय-प्रवेश में जाने का प्रयास करुंगा।

1 – जो कुछ चल रहा है उसे ईश्वर के विधान के रूप में स्वीकार नहीं करना, यह सोचना कि इस अवस्था से मुक्ति इसी जीवन में सम्भव है और उस मुक्ति के करीब पहुँचने के लिये सक्रिय होना – किसी कल्पलोक की दुनिया को यथार्थ के धरातल पर उतारने का स्वप्न लेकर नहीं; ठोस, वास्तविक परिस्थितियों को समझकर, उसके अनुसार – यही तो है भौतिकतावादी होना! ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण! इसी आकलन के अनुसार कहा जा सकता है कि उन्नीसवीं सदी के भारत में, समाज में बदलाव लाने की सक्रियता में ही निहित है भारतीय वस्तुवाद की धारा। सुधार से शुरु करते हुये शासन्न में बदलाव तक विभिन्न रूपों में मिलते हैं उस भौतिकतावाद के तत्व – कहीं ज्यादा, कहीं थोड़ा कम। जब मेरठ के बागी सिपाही बहादुर शाह जफर को अपना, यानि लक्षित अंग्रेज-मुक्त भारत का सम्राट घोषित करने के बावजूद, युद्ध को चलाने के लिये खुद ही, सम्राट की इजाजत की बगैर परवाह किये एक सैन्य परिषद (मिलिटरी काउंसिल) गठित कर लेते हैं, तो वे ऐतिहासिक यथार्थ की समझदारी प्रदर्शित करते हैं। उधर जब ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जब फीमेल नॉर्मल स्कुल खोले जाने की ऐतिहासिक जरूरत को समझते हुये भी, श्रीमती कार्पेन्टर के अति-उत्साही फैसले (ब्राह्मोसमाज को भी अति-उत्साही बनाते हुये) से खुद को अलग कर लेते हैं, तो वह ऐतिहासिक यथार्थ की गहरी समझदारी प्रदर्शित करते हैं।   

2 – इनमें से किसी ने भी अपनी दार्शनिक सोच या विश्वदृष्टि को लेकर माथा नहीं खपाया। उन्नीसवीं सदी के भारत में  तत्वचिंतक थे, दर्शनवेत्ता थे लेकिन दार्शनिक कहलाने वाले कोई नहीं थे। यानि नीतिशास्त्र, ईश्वरतत्व, प्राचीन भारतीय ज्ञान का पुनर्मूल्यांकन इत्यादि विषयों पर सोचविचार के विपुल ज्वार के बावजूद, दर्शन के बुनियादी दो प्रश्न – तत्वमीमांसा एवं ज्ञानमीमांसा – पर चिन्तन किया हो, ऐसा मुझे मालूम नहीं। (ब्रजेन्द्रनाथ शील दर्शनवेत्ता थे, दार्शनिक नहीं)। कई दिशाओं से लोग उन दो प्रश्नों के करीब आये, आना लाजिमी था, पर टकराये नहीं। जो लोग सबसे करीब आये वे, यह कहते हुये भी कि भौत पदार्थ या भौतिकता ईश्वर का सृजन है, उसके स्वतंत्र, स्वयम्भु, अपने नियमों से एवं करणीय सम्बंधों के अनुसार गतिशील अस्तित्व पर जोर डाले। ज्ञान को, भौतिकता के साथ मनुष्य के या बाह्यजगत के साथ मनोजगत के सृजनात्मक टकराव की उत्पत्ति न कहते हुये भी, ज्ञान भी भौतिकता है, इस सच्चाई को चिह्नित किये। यह तो उनकी बात हुई जो ज्ञान की दुनिया के लोग थे। बागी सिपाहियों के साथ तो ज्ञान की दुनिया से थे कई प्रांतों के लोककवि और कलाकार!

3- लेकिन उनके सम्मिलित प्रयासों में अगर भारतीय भौतिकतावाद की धारा को पुन: आविष्कृत नहीं किया जाय, तब आधुनिक भारतीय दर्शन के प्रमुख नाम बन कर उल्लेखनीय बने रहेंगे फिर कुछ भाववादी दार्शनिक, दर्शन के अध्यापक और गुरु, जैसा पहले हुआ था। प्राचीन काल के भारतीय निरीश्वरवाद एवं भौतिकतावाद को चिन्हित करने के लिये उन्नीसवीं सदी में विदेशी भारतविदों की जरूरत पड़ी थी।

भारत में जागरण की अभिव्यक्तियाँ

4 – लेकिन उसके भी पहले, उन्नीसवीं सदी के जागरण, नवजागरण या नवोन्मेष, या चैतन्य के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष को थोड़ा दूसरे ढंग से देखा जाय।

योरोपीय ‘नवजागरण’ की ‘मनुष्य-केन्द्रीयता’ को ईश्वरपुत्र मनुष्य को बुढ़े ईश्वर का हाथ छोड़ कर (या छुड़ा कर) पृथ्वी पर अवतरित होना पड़ा था (याद करें मिकेलांजेलो कृत, सिस्टीन चैपेल का वह जानापहचाना फ्रेस्को)।  अनकही में यह दावा था कि नीचे की वह धरती वह मर्त्यलोक मेरा है। भारत में जागरण की हर अभिव्यक्ति को ब्राह्मण्यधर्म, पुरोहितवाद एवं खास कर वर्ण-व्यवस्था से मनुष्यता की मुक्ति की बात उठानी पड़ी है। बोलना पड़ा है कि तुम्हारा धर्म, आदमी आदमी में भेद हम नहीं मानते हैं (इस पर नवोन्मेष की सोच विरोध करेगी; राममोहन राय से लेकर रवीन्द्रनाथ ठाकुर तक सभी एवं स्वामी विवेकानन्द भी वेदान्त में प्रतिफलित मनुष्यता को भेदभाव से रहित बताते है और उसके मूल स्रोत के रूप में उपनिषद को चिन्हित करते हैं; लेकिन ‘अमृतस्य पुत्र’ में शुद्र शामिल थे की नहीं, मुझे घोर सन्देह है)।

योरोप का ईश्वर उस मनुष्यता पर दाँत गड़ाना नहीं छोड़ा। निरीश्वरवादी मनुष्य वहाँ अभी भी संख्या में काफी कम है और नाना प्रकार के संस्कारित रूप, विद्रोही तेवरों – प्रोटेस्टैन्ट, कल्विनिस्ट, मेथॉडिस्ट, एवैंजेलिस्ट वगैरह वगैरह के बावजूद ईसाइयों में कैथलिक या रोमन कैथलिक आज भी सबसे विशाल संगठित धर्मसंगठन है।

5- भारत में हर जागरण के तुरन्त बाद (तुरन्त, ऐतिहासिक अर्थ में) ब्राह्मण्यवाद उस जागरण के संदेश को गलत दिशा में ले जाने के लिये ‘सरसों में ही भूत बनकर प्रवेश’ (बंगला मुहावरा) कर गया है और सफल हुआ है। सफल हो सका है क्योंकि ब्राह्मण्यवाद या मनुवाद या वर्णव्यवस्था युगों से चल रही भारत की ग्राम-समुदाय-आधारित अर्थव्यवस्था एवं उससे पैदा हुये स्थानीय शासन का परखा हुआ यंत्र है। इसलामी शासन तो इसे तोड़ा ही नही, अंग्रेज शासनकाल की नई अर्थनीति इसे अगर कुछ तोड़ा भी तो पूंजीवादी बेरोजगारी के भयानक संकट के बीच। (दो साल पहले जुल्म के विरोध में पशु-लाशों को उठाने का काम बन्द करने वाले ऊना के दलितों को एक महीना के अन्दर जिलाधीश से मिल कर फिर से काम शुरु करना पड़ता है, नहीं तो रोटी कैसे मिलेगी!)

6 – तुलना करने में योरोप के लिये मैंने नवजागरण शब्द का इस्तेमाल किया; वह एक स्थापित पारिभाषिक शब्द है। भारत के लिये जागरण शब्द का इस्तेमाल किया क्योंकि बंगाल का नवजागरण स्थापित पारिभाषिक शब्द होते हुये भी जिस रोशनी में मैं देखना चाहता हूँ उसमें एक भारतीय धारावाहिकता है। वैसे, उस धारावाहिकता के तीन कालखण्ड, योरोपीय इतिहास से ही लिये गये हैं। उनके लिये सामान्यत: प्राचीन, मध्ययुगीन एवं आधुनिक होता है (क) यूनानी-रोमक समृद्धि, शिल्प, साहित्य एवं चिन्तन का काल, (ख) मध्यकालीन ‘अंधकार’ और (ग) इटली व योरोप के नवजागरण से इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति, फ्रांसीसी राजनीतिक क्रांति एवं उसके बाद का काल। उसके बाद के किसी घटना को काल-परिवर्तनकारी के रूप में (जैसे पैरिस कम्यून एवं सोवियत क्रांति के बाद का काल) पूंजीवादी इतिहास स्वाभाविक तौर पर स्वीकार नहीं करता है। प्राचीन कालखण्ड को इसलिये मैं लिया क्योंकि ईश्वरता के खिलाफ मनुष्यता की लड़ाई को उसी समय से देखा जाता है। प्रोटागोरस का प्रसिद्ध कथन “मैन इज द मेजर ऑफ ऑल थिंग्स”, प्लेटो की व्याख्या का चादर हटा कर नये अtर्ह में उद्घाटित किया जाता है।  

इन कालखण्डों की शुरुआत राज्य के उदय से होती है। राज्य के उदय के साथ साथ राज्य-धर्म का भी उदय होता है। धर्म राज्य-धर्म बनते ही ईश्वर या देवतायें जुल्म के प्रशासनिक यंत्र बन जाते है। और तब मनुष्यता को कायम करना जरुरी हो जाता है। यूनानी नगर-राज्यों में धर्म के स्वरूप के बारे में मुझे बहुत जानकारी नहीं है। लेकिन देख रहा हूँ, पुरातन एवं कला व चिन्तन से समृद्ध क्लासिकीय युग जिस समय से बाँटा जा रहा है ऐन वही समय प्रोटागोरस का होता है।    

7 – थोड़ा बहुत फर्क के साथ भारत में भी यही कालखण्ड लागू किये जाते हैं। फर्क यह है कि उधर यूनानी क्लासिकीय युग शुरू होने से काफी पहले चिन्तन, दर्शन और महाकाव्यीय साहित्य का एक विशाल अंबार भारत में खड़ा हो जाता है (श्रुत ही सही; जिन्हे लिखित रूप देने की जरूरत बौद्धों, उनके मठों एवं उनके राज्यों के विनाश के बाद ही पड़ती है)। लेकिन, उपरोक्त दृष्टि से उन तीन कालखण्डों में महत्वपूर्ण होगा (क) बौद्ध-जैन मतों के उद्भवकालीन समृद्धि, शिल्प, साहित्य व चिन्तन का काल (पहले राज्य और फिर साम्राज्य के रूप में भी मौर्य साम्राज्य का जिक्र मिलता है); (ख) सूफी-भक्ति कवियों के उदयकालीन समृद्धि, साहित्य व चिन्तन का काल; एवं (ग) अंग्रेज शासन के घात-प्रतिघात से शुरू हुये धार्मिक सुधार, सामाजिक सुधार, साहित्य, शिल्प एवं नवचेतना का प्रारंभ।

उनके जैसा हमारा मध्ययुग अंधकारमय नहीं है। विदेश से आये हुये लुटेरों का आक्रमण, संहार और फिर इस देश का होकर रह जाने की परिघटना तो शुरु से ही भारतीय सभ्यता की विशेषता रही है। लेकिन हमारे मध्ययुग में रोशनी का एक विस्फोट है – अरबी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के आगमन के कारण। आर्थिक समृद्धि का एक समय शुरु होता है। वही अरबी विज्ञान, योरोप पहुँचता है तो वह नवजागरणकालीन वैज्ञानिक चिन्तन के विस्फोट का कारक बनता है।    

भारत इसी मध्ययुग में घोषित करता है “सर्वोपरि मनुष्य सत्य है, उसके बाद कुछ नहीं” (सबार उपरे मानुष सत्य, ताहार उपरे नाइ – बड़ु चंडीदास)। मध्ययुग को यह घोषित करने के लिये पीछे मुड़कर देखना नहीं पड़ा है। बल्कि बाद में, उन्नीसवीं सदी के बंगाल में एवं शायद अन्य प्रदेशों में भी, भारतीय प्राचीन चिन्तन को मानवतावादी परम्परा के अनुसार बताने के लिये “शृन्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा” को उद्धृत करने की जरूरत पड़ी। उसी तरह जैसे योरोपीय नवजागरण, यूनानी क्लासिकीय युग को अपना आइना बनाया।

8 – उपरोक्त बातें, योरोप और भारत में तुलना के लिये नहीं थीं, सिर्फ कुछ परिघटनाओं को समझने के लिये थीं। खास कर ‘ईश्वर एवं मनुष्य की लड़ाई’।

ब्राह्मण्यधर्म तो बहुत चतुर है – पारम्परिक ग्रामसमाज के आर्थिक ढाँचे से शक्तिप्राप्त एवं अनुभवी। ‘ईश्वर’ आदमी को बलि दे रहा है, इस घटना को भी काफी सुन्दर ढंग से समझा दिया कि वह सांकेतिक है। ‘पुरुषमेध’ का अर्थ, मनुष्य को बलि देने का अर्थ है नये रूप में उसका सृजन – जीवजगत एवं चतुर्वर्ण में सृजन। ठीक है! लेकिन इसका तो यह भी मतलब निकलता है कि जो लोग चतुर्वर्ण में विभाजित नये सामाजिक शासन के खिलाफ थे उनका संहार किया गया था? जैसे सुनने में आता है कि चार्वाक एवं चार्वाकपंथियों का संहार किया गया था?

और, बाद में भी होता रहा है। इसलिये, ‘ईश्वर’ के खिलाफ मनुष्य की लड़ाई इस देश में ब्राह्मण्यवाद के खिलाफ लड़ाई है। और, दूसरी ओर, ब्राह्मण्यवादी शासन के खिलाफ लड़ाई के रास्ते ही चिन्तन में निरीश्वरवाद एवं भौतिकतावाद की धारा आगे बढ़ी है। उसी लड़ाई के चरण मानवचेतना या मानवकेन्द्रीयता, मानवतन्मयता या मानवमुखीनता के विकास के चरण हैं। और उन्ही चरणों में ही सुत्रबद्ध है भारत का जागरण-प्रसंग।

फिलहाल इस सवाल में नहीं जा रहा हूँ कि शुरु में तो ब्राह्मण्यधर्म जैसा भी तो कुछ नहीं था! प्रस्तरीभूत वर्णव्यवस्था भी नहीं था। हाँ, नहीं था। लेकिन जो कुछ भी था, उसी में भ्रूण-अवस्था में था। 

तीनों कालखण्ड की विशेषतायें

बौद्धयुग (साथ में जैन मत तो अव्श्य ही, दूसरे, कम लोकप्रिय जैसे मक्खली गोसाल, अजित केशकम्बली आदि दार्शनिक/वैचारिक आलोड़नों को शामिल करते हुये)

1 – एक नया जीवनदर्शन एवं जीवनमार्ग जिसने जातिप्रथा को अस्वीकार किया।

2 – विश्वजगत के कारक अभिप्राय एवं शक्ति को कार्य-कारण या करणीय सम्बन्धों के बीच देखना चाहा जिसमें किसी सर्वशक्तिमान ईश्वर की अवधारणा की आवश्यकता नहीं थी। हालाँकि अलग से, प्राचीनतर मतों में मौजूद किसी ईश्वर या देवताओं की आलोचना शायद नहीं हुआ। (बाद में तो ब्राह्मण्यवाद एवं विदेशों में वहाँ का शोषणतंत्र ऐसा बदला तथागत के एवं उनके समसामयिक शिष्यों के वाङ्मय को कि हजारों देवी, देवता, भूत, प्रेत सब घुस गये बौद्धमत में!)

3 – बुद्ध के जन्मांतर की कहानियों के रूप में प्रचलित जातक कथाओं में आम आदमी के रोजमर्रे के जीवनयापन का एक असाधारण ऐतिहासिक दस्तावेज तैयार हुआ और उसी के माध्यम से समाज में श्रमजीवी शूद्र जनता की व्यापक मौजूदगी पर आलोकपात किया। श्रेष्ठी एवं सार्थवाहों की सामाजिक ताकत जिस तरह आर्थिक समृद्धि के काल को रेखांकित किया, भगवान या देवता के रूप में कथित कोई अगर है तो वह इसी धरती का जीव एवं मनुष्यश्रेष्ठ है, इस बात को जोर मिला बुद्ध के जन्मांतर की धारणाओं में।

सूफी/भक्ति युग   

1 – सूफी मत ईश्वरप्रेम में डूबने की जो अवधारणा अरब से साथ लाई होगी, यहाँ आने के बाद उसमें कोई बदलाव अवश्य आया होगा। जिस किस्म का डरावना आत्मनिग्रह, ईश्वरभक्ति में खुद को न्योछावर कर देने की जो कहानियाँ वहाँ के प्रारम्भिक सूफियों के जीवनप्रसंग में बताई जाती हैं, यहाँ की आबोहवा में भक्ति की अवधारणा के साथ मिल कर वह थोड़ा भिन्न हो गया था प्रतीत होता है। दोनों ने ईश्वरतन्मयता को प्रेम के रंग में रंग लिया।

2 - मनुष्य को ईश्वर या ईश्वर को मनुष्य नहीं बनाया। ईश्वर को ईश्वर की जगह पर ही रखा लेकिन भय जगानेवाले के रूप में नहीं, बिल्कुल अपने प्रियतम के रूप में। सबके अपने प्रियतम के रूप मे।

3 – तीक्ष्ण, तीव्र आलोचना की ध्वनि जगी पहलीबार – जिस तरह ब्राह्मण्यवादी समाज के सारे ढोंग और अमानवीयता के विरुद्ध, उसी तरह मुल्लाओं के ढोंग के विरुद्ध; जातिभेद एवं साम्प्रदायिक भेद के विरुद्ध एवं पवित्रता व आध्यात्मिकता के नाम पर पाखण्ड के विरुद्ध। एक साहित्य का सृजन हुआ जो विश्व में अनुपम था।

4 – साहित्य में परिभाषित इस विचारधारा ने भारतीय अर्थों में आधुनिक मानवतावाद की बुनियाद को तैयार किया। हालाँकि, आर्थिक समृद्धि के काल के रूप में, नीचे के वर्गों – जुलाहा, तांती, लोहार, चमार, बढ़ई … - के आर्थिक उत्थान के काल के रूप में उस जमाने की पहचान साहित्य में नहीं हुई, फिर भी ईश्वर को प्रियतम बनाने एवं चालु धार्मिकता की आलोचना करने के दु:साहस के रूप में वह उत्थान दर्ज रहा।

उन्नीसवीं सदी का नवजागरण, खास कर बंगाल का

1 – धर्म/पंथ के क्षेत्र में : ईसाईयत और इसलाम दोनों के जबाब में जन्म लिया नया पंथ – ब्राह्मोसमाज। वैसे उसके काफी पहले, एक विस्मय-तरुण की उम्र में राममोहन राय, फारसी में ‘तुहफत-उल-मुव्वहिदिन’ लिख कर एकेश्वरवाद की जबर्दस्त वकालत कर चुके थे। ब्राह्मोसमाज ने अपने निराकार एकेश्वर, ब्रह्म की अवधारणा के उद्गम के रूप में प्राचीन भारतीय चिन्तन परम्परा की ओर इशारा किया। ब्राह्मोसमाज में शहरी बुद्धिजीवी वर्ग का एक हिस्सा आकृष्ट हुआ। ब्राह्मोसमाज लोग शिक्षा, स्वास्थ्य, विज्ञान, जनकल्याण आदि के प्रसार में आगे चलकर बड़े काम किये; लेकिन आम हिन्दु धर्मचिन्तन में देवी-देवताओं के प्रभाव, हजार किस्म क रीतिरिवाज, अंधविश्वास आदि का वे कुछ नहीं बिगाड़ पाये। बल्कि वे जगह जगह पर, खास कर दूर दराज के शहरों में हिन्दुसमाज द्वारा अपमानित व प्रताड़ित भी किये जाते रहे। जहाँ तक जातपात का सवाल है, इस पंथ के प्रणेता तथा बाद के कई बड़े व्यक्तित्व द्वारा जातपात को अस्वीकार किये जाने के बावजूद, व्यवहार में यह पंथ ऊँची जातों में ही सीमित रहा।

दूसरी ओर, हालाँकि इस परिघटना को नवजागरण के प्रेक्ष में शामिल नहीं किया जाता है, पूर्वी बंगाल के ग्रामीण इलाकों में, दलित जाति नम:शूद्रों के बीच, उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में ही जन्म लिया ‘मतुआ’ पंथ। इस पंथ के प्रतिष्ठाता थे हरिचाँद ठाकुर। नम:शूद्रों के बीच शिक्षा एवं स्वस्थ्य जीवनचेतना को प्रसारित करने में इस पंथ की बड़ी भूमिका रही।

19वीं सदी के मध्यकाल से ही, धार्मिकता की कुछ नई प्रवृत्तियाँ देखने को मिली। कुछ पुरानी प्रवृत्तियाँ भी नये रूप में आईं। कुछ महत्वपूर्ण गुरुपरम्परा स्थापित हुईं जिन्होने एकेश्वर ब्रह्म एवं देवताबहूल प्रतिमापूजन के बीच समझौता करना चाहा – पूजन पद्धति में भी उन्होने आजादी दी; पुरानी पद्धति से पूजा न कर सको तो कोई बात नहीं, नामगान करो, भक्तिभाव एवं सेवाभाव बनाये रखो। दूसरी ओर बंगाली कालीपूजन को भी एक नया, स्वदेशी आयाम मिला। वीर शुद्राणी रानी रासमणि का अंग्रेजों के साथ टक्कर, जो दन्तकथा बन गया। वही रानी स्थापित की दक्षिणेश्वर कालीबाड़ी जहाँ पुजारी के रूप में बहाल किये रामकृष्ण (बाद में परमहंस कहलाये) का माँ काली के प्रति वात्सल्यपूर्ण भक्ति घर घर में एक अद्भुत संदेश प्रेषित किया – जैसे चैतन्यदेव का प्रेमोन्माद नये रूप में अवतरित हुआ हो। बाद में जब स्वामी विवेकानन्द ने, उन्ही के शिष्य के रूप में, भारतीय आध्यात्मिकता को भारत के राष्ट्रवाद के साथ जोड़ते हुये नया आयाम दिया तो वही बंगाल के धर्म-आधारित सामाजिक सुधार आन्दोलन की सबसे लोकप्रिय अभिव्यक्ति बन गई।

ऐसे चिन्तन जिसके विषयवस्तु थे समाज-सुधार लेकिन रूप थे धर्म-सुधार सिर्फ बंगाल में ही सीमित नहीं रहे। ब्राह्मोसमाज के ही प्रमुख नेता केशवचन्द्र सेन महाराष्ट्र गये तो उनसे प्रेरित होकर सन 1867 में वहाँ बना प्रार्थना-समाज। उसके पहले ही, सन 1859-60 में शुद्र-उत्थान की भावना से महामति ज्योतिबा फूले ने काम करना शुरु किया था – सन 1873 में वह बनाये सत्य-शोधक समाज। सन 1875 में उत्तर भारत में स्वामी दयानन्द सरस्वती के नेतृत्व में स्थापित हुआ आर्य-समाज। सन 1888 में, केरल में नारायण गुरु ने ‘एयव शिव’ की प्रतिष्ठा की। दूसरे प्रांतों में भी ऐसे कई आन्दोलन अवश्य ही पैदा हुये होंगे।

2 – मानववाद या मानव-केन्द्रित चिन्तन की प्रमुखता समाज में बढ़ती गई एवं वह तीन धाराओं में प्रवाहित हुई – (क) समाज-सुधार (तीन उपधाराओं में – उच्चवर्ण एवं निम्नवर्ण के समाजों में आन्तरिक सुधार; किसान, नीलहे किसान, चाय-मजदूर एवं औद्योगिक मजदुर की तरफदारी; राजनीति के प्रांगण में घुसने का प्रयास) और इसे बल प्रदान किया :-

(ख) शिक्षा का विस्तार – जिसके विशेष पहलु थे (i) नये पाठ्यक्रम का निर्माण जिसमें प्राथमिक विज्ञान शामिल हो; (ii) मातृभाषा में पढ़ाई की व्यवस्था, उसके लिये नये पाठ्यपुस्तकों की रचना, नये विद्यालयों की स्थापना; एवं (iii) नारीशिक्षा पर जोर

(ग) नये साहित्य की रचना में गति, नये पत्रिकाओं का प्रकाशन

(घ) विज्ञान एवं तर्कवादी सोचविचार व प्रयोगों को आगे बढ़ाने के लिये संगठनों एवं संस्थाओं का निर्माण   

(ङ) मातृभाषा में पत्रकारिता की धारा का निर्माण

3 – भौतिकतावादी एवं निरीश्वरवादी सोच की धारा का पुन:प्रवाह

इसमें मुख्य नाम अवश्य ही पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, अक्षय कुमार दत्त आदि का होगा लेकिन, राममोहन राय से स्वामी विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ ठाकुर तक, या हरिचाँद ठाकुर से दयानन्द सरस्वती तक, उनके धार्मिक आस्थाओं एवं प्रचारक की भूमिका के बावजूद, समाज-सुधारक की भूमिका में वे व्यवहारिक तौर पर भौतिकतावादी धारा के वाहक रहे – यही मेरा प्रतिपाद्य विषय है।

व्यवहार के तौर पर दर्शन

दर्शन को हम चिन्तन, अध्ययन एवं दृष्टि के क्षेत्र में सीमित देखते हैं। यह अलग बात है कि दृष्टि अन्तत: तदनुसार व्यवहार की ओर ले जायेगा, प्रतिदिन के जीवन के कामकाज को प्रभावित करेगा लेकिन उस दृष्टि-प्रभावित व्यवहार एवं कामकाज को हम दर्शन की निरन्तरता या विकास मानना तो दूर रहा, दर्शन के क्षेत्र से भी दूर रखते हैं।

हमारे जानते, अकेले मार्क्सवाद ही एक दर्शन है जिसमें व्यवहार को ज्ञानमीमांसा के अन्दर लाया गया है। भौतिक दुनिया में मनुष्य के श्रम यानि ‘व्यवहार’ को शामिल कर के ही भौतिकतावाद द्वंद्वात्मक एवं तमाम किस्म के भाववाद को खण्डित करने में सक्षम हुआ (देखें, थिसिस ऑन फायरबाख का पहला थिसिस; वहाँ शब्द के तौर पर व्यवहार या श्रम इस्तेमाल नहीं किया गया है, ‘मानव ऐंद्रीय क्रिया, व्यवहारिक कर्म या ‘आमूल परिवर्तक क्रिया, ‘व्यवहारिक-आलोचनात्मक क्रिया’ इस्तेमाल किया गया है)।

इस सत्य को समझने के तुरंत बाद ब्रसेल्स में एंगेल्स के साथ बैठ कर मार्क्स ने पवित्र परिवार लिखना शुरु किया एवं उसके एक अध्याय में, ब्रुनो बावर के नेतृत्वाधीन जर्मन दार्शनिकों के सोच की आलोचना करते हुये उन्होने फ्रांसीसी व अंग्रेज भौतिकतावाद का प्रसंग छेड़ा। मार्क्स ने लिखा :

“भौतिकतावाद ग्रेट ब्रिटेन का गर्भज पुत्र है। …… फ्रांसीसियों ने अंग्रेज भौतिकतावाद को दिया चातुर्य, मांस और रक्त तथा वाग्मिता। उन्होने इसे वो मिजाज और आकर्षकता दिया जो इसके पास नहीं था। उन्होन इसे सभ्य बनाया। …… जैसे देकार्ते का भौतिकतावाद खास प्रकृति विज्ञान में पहुँच जाता है, फ्रांसीसी भौतिकतावाद की दूसरी धारा सीधे समाजवाद एवं साम्यवाद में पहुँच जाती है। ……

“अगर इन्सान अपना सारा ज्ञान, संवेदना आदि इंद्रियबोध एवं उससे उपलब्ध अनुभवों की दुनिया से प्राप्त करता है, तब करना यही होगा कि अनुभवसिद्ध दुनिया को विन्यस्त करना होगा। इस तरह विन्यस्त करना होगा कि यथार्थ तौर पर मानविक जो कुछ है उस दुनिया में, इन्सान उसका अनुभव कर सके, उसका अभ्यस्त हो सके और सचेत हो सके कि वह एक इन्सान है। …… अगर इन्सान को परिवेश ने रूप दिया है तो उस परिवेश को अवश्य ही मानविक बनाना होगा। अगर इन्सान की प्रकृति सामाजिक है, तो उसकी यथार्थ प्रकृति समाज में ही विकसित होगी। और प्रकृति की शक्ति अलग अलग व्यक्ति की शक्ति से नहीं, अवश्य ही समाज की शक्ति से नापी जायेगी।”

यानि परिवेश को मानविक करना होगा, समाज के सुधार में हाथ लगाना होगा, दार्शनिक को व्यवहार में उतरने होगा – यहाँ तक दार्शनिकलोग मार्क्स के पहले ही पहुँच गये थे; सिर्फ यह नहीं देख पा रहे थे कि व्यवहार भी भौतिकता का अंग है और इसलिये ज्ञान का प्रधान कारक है। यह सत्य पूर्णत: मार्क्स का आविष्कार है।

खैर। अंग्रेज भौतिकतावादी दार्शनिकों में पहला ही नाम आता है फ्रांसिस बेकन का। बेकन के रास्ते पर चलने वाले सुधारक थे जेरेमी बेन्थम एवं बेन्थम के छात्र थे जॉन स्टुअर्ट मिल, जो उन्नीसवीं सदी के भारत की शिक्षित दुनिया में परिचित व्यक्ति थे। खुद विद्यासागर चाहते थे कि मिल का दर्शन छात्रों को पढ़ाया जाय लेकिन बैलेन्टाइन साहब ने विरोध किया था। और अक्षय कुमार दत्त ने तो वजायाफ्ता खेद व्यक्त किया था कि बेकन की तरह कोई व्यक्ति भारत में क्यों नहीं जन्म लिया! यानि, उन्नीसवीं सदी के बंगाल के महानायक, सीमित अर्थों में दार्शनिक न होते हुये भी बेकन की भौतिकतावाद या मिल की उपयोगितावाद से प्रभावित थे। एक ही विभाजनरेखा खींचूंगा कि इन महानायकों में लगभग सभी, धर्म की आलोचना करते हुये उसके गैर-तार्किक रूप की आलोचना में खुद को सीमित रखे, या यूँ कहें कि धर्म का यथासम्भव तार्किक एवं जनकल्याणमुखीन रूप तलाशने का प्रयास किये। जबकि ईश्वरचन्द्र विद्यासागर एवं अक्षय कुमार दत्त (शायद कुछ और भी गैर-प्रमुख नाम हों जिन्हे मैं नहीं जान रहा हूँ) नये धर्म की तलाश में आगे नहीं बढ़े। उनका तर्कवाद उन्हे कमोबेश ले गया निरीश्वरवाद, अज्ञेयतावाद एवं भौतिकतावाद की ओर।

उन दोनों की चर्चा से पहले आइये उस व्यवहार का भी लेखाजोखा लें, जिसके कारण भारतीय भौतिकतावाद को उन्नीसवीं सदी के सुधारक एवं परिवर्तक व्यवहारों में नया जीवन मिला।  क्योंकि, जैसा शुरु में ही कह चुका हूँ, “जो कुछ चल रहा है उसे ईश्वर के विधान के रूप में स्वीकार नहीं करना, यह सोचना कि इस अवस्था से मुक्ति इसी जीवन में सम्भव है और उस मुक्ति के करीब पहुँचने के लिये सक्रिय होना – किसी कल्पलोक की दुनिया को यथार्थ के धरातल पर उतारने का स्वप्न लेकर नहीं; ठोस, वास्तविक परिस्थितियों को समझकर, उसके अनुसार – यही तो है भौतिकतावादी होना! ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण!”

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष

सबसे पहले तो इस भ्रम का मुकाबला करें कि बंगाल का ‘नवजागरण’ अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार का प्रत्यक्ष फल था। कम से कम हिंदी बौद्धिक दुनिया में तो यह सामान्य ज्ञान है कि इस्ट इंडिया कम्पनी की सरकार द्वारा स्थाई बंदोबस्त कानून लागु किये जाने के बाद एवं उसके पहले भी, शासन में फैली अव्यवस्था के कारण किसानों के कई महत्वपूर्ण स्थानीय बगावत होते रहे। ‘भारत का मुक्तिसंग्राम’ में अयोध्या सिंह लिखते हैं, “ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने छल-बल से भारत पर अधिकार जमाया और उसे तरह तरह से लूटकर तबाह कर दिया। क्या भारत की जनता उनकी लूट-खसोट चुपचाप देखती रही? प्राप्त ऐतिहासिक सामग्री से साफ जाहिर है कि उसने ऐसा नहीं किया। उसने बार—बार बिद्रोह कर अंग्रेज लुटेरों और उनके गुर्गों – जमींदारों तथा साहुकारों को मार भगाने की कोशिश की। …… पलासी और बक्सर के युद्धों में ब्रिटिश पूंजीवादियों की विजय के बाद ही हम किसानो और कारीगरों को इन नये लुटेरों और उनके समर्थक जमींदारों तथा साहुकारों से संघर्ष करते पाते हैं।” पुस्तक का सूचीपत्र एक एक विद्रोह के संक्षिप्त इतिहास पर आधारित है – संन्यासी विद्रोह, मेदिनीपुर क विद्रोह, धलभूम का विद्रोह, शमशेर गाजी का विद्रोह, सन्दीप के विद्रोह, मोआमारिया विद्रोह, बुनकरों का संग्राम, रेशम के कारीगरों का संग्राम, अफीम के किसानों का संग्राम, नोनियों का संग्राम, नमक के कारीगरों का संग्राम … आदि। किसान विद्रोहों के प्रधान इतिहासकार सुप्रकाश राय अपने शोधग्रंथ “भारतेर कृषक विद्रोह एवं गणतांत्रिक संग्राम” में दिखा चुके हैं कि बंगाल का नवजागरण इसी के प्रत्युत्तर या प्रतिक्रिया में शहरी मध्यवर्ग की वर्गीय अभिव्यक्ति थी। सवाल यह है कि क्या पूरी की पूरी प्रतिक्रियावादी, अंग्रेजपरस्त, जमींदारपरस्त, समझौतापरस्त प्रतिक्रिया थी या जैसा कि विश्व के हर देश के इतिहास में होता है – निम्नवर्ग में हो रहे क्रांतिकारी उथलपुथल के कारण मध्यवर्ग अस्थिर हो उठता है एवं उस अस्थिरता में उसके दो-फाड़ हो जाते हैं। एक फाड़ स्वाभाविक तौर पर निम्नवर्ग की ओर झुकता है – अब कोई सीधा निम्नवर्ग की आग में गिरता है कि नहीं, आग में तपकर निम्नवर्ग का ही एक बन पाता है कि नहीं, कहाँ तक बनता है … यह तो इतिहास के ध्यानपूर्वक अध्ययन के बाद ही पता चलता है। 

एक बनी हुई बौद्धिक धारणा है कि बंगाल का महानगर-केन्द्रित नवजागरण, पूरे बंगाल (प्रेसिडेन्सी इलाका) में कुछ पहले से होते आ रहे निम्न-वर्गीय बगावतों के फलस्वरूप, जमीन्दारों एवं मध्यवर्गों की ‘प्रतिक्रियावादी’ प्रतिक्रिया थी (1) स्थाई बन्दोबस्त कानून द्वारा सृजित जमीन्दारी व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिये, (2) अंग्रेजी शासन के कारण बन रहे नये समाज का नेतृत्व ग्रहण करने के लिये, तथा (3) व्यवस्था को अंग्रेजी-शिक्षित किरानी मुहैया कराने के लिये।

लेकिन मेरी समझ से, किसी दूसरे देश की तरह ही निम्नवर्गों की इन बगावतों एवं आन्दोलनों (नवाबों के शासन से कम्पनी शासन में संक्रमण-काल की फैली अराजकता, भयानक दुर्भिक्ष, पारम्परिक उद्योगों, दस्तकारी एवं व्यापार का ध्वंस एवं स्थाई बंदोबस्त की कानून के फलस्वरूप किसानों की बढ़ती बदहाली जिसके कारण थे) के चलते आर्थिक रूप से तथा सामाजिक रूप से कुलीन ऊपरी वर्गों में एक विभाजन हुआ। विभाजित एक हिस्सा, विभिन्न दूरी तक अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक उत्तराधिकार के खिलाफ गया तथा निम्नवर्ग की ओर झुका। उस उत्तराधिकार के खिलाफ जाने के क्रम में एक बहुआयामी, सार्थक, युग-परिवर्तक सक्रियता ही नवजागरण का सार है। जिसकी परिणति हुई शासकों के साथ उनका एक आमनासामना हुआ – सुधार एवं सशक्तिकरण की मांगें उठाते हुये, तथा किसानों एवं अन्य श्रमजीवी वर्गों पर हो रहे अत्याचारों एवं उनके दुख-तकलीफों के खिलाफ प्रतिवाद करते हुये। बेशक इन मांगों एवं प्रतिवादों को रूप देने में सहायक हुई उनकी अंग्रेजी शिक्षा, क्योंकि उसी शिक्षा के माध्यम से उन्हे योरोप के ऐतिहासिक विकास के कई महत्वपूर्ण पहलुओं की जानकारी मिली थी। जब आर्थिक एवं सामाजिक कुलीनों की बात कर रहा हूँ तो यह सवाल उठेगा कि हरिचाँद ठाकुर एवं उनके मतुआ आन्दोलन को इसमें कैसे शामिल हो सकता है। लेकिन निम्नवर्गीय बगावत में भी तो उसे शामिल नहीं किया जा सकता है क्योंकि न वह अंग्रेजों के खिलाफ था, ना जमीन्दारों के खिलाफ और न ऊँची जातियों के खिलाफ! वह नम:शुद्र समाज का आन्तरिक सुधार आन्दोलन था। इसीलिये अपवाद की तरह दिखने के बावजूद उसे नवजागरण के दायरे में शामिल करना होगा।

मुख्यत: नज़र में आने वाली दिशायें

नारीमुक्ति – सर्वाधिक जानी पहचानी दिशा है। सतीदाह प्रथा पर वैधानिक प्रतिबंध, विधवाविवाह के लिये कानूनी प्रावधान, बालविवाह का विरोध, वहुविवाह का विरोध, नारीशिक्षा में तेज प्रगति एवं उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ही महिलाओं का उच्चशिक्षित होना, चिकित्सक बनना, साहित्यकार बनना, महिला-पत्रिका एवं महिला संगठन की शुरुआत। मुसलमान समाज में नारीशिक्षा की दिशा में क्रांतिकारी कदम उठाने बेगम रोकेया का आविर्भाव। इस दिशा में सक्रियता का प्रभाव बंगाल तक सीमित नहीं रहा, ज्योतिबा फूले एवं फातिमा शेख इसके ज्वलंत प्रमाण हैं। नि:सन्देह, प्राथमिकता की दृष्टि से यह सबसे महत्वपूर्ण दिशा है। इस निबंध का जो विषय है, ‘सामाजिक-बौद्धिक आन्दोलनों में भारतीय भौतिकतावाद के विकास की तलाश’ – उस दृष्टि से भी यह सबसे महत्वपूर्ण विकास है क्योंकि मनुसंहिता के खिलाफ सीधा विद्रोह है, उसे झूठा साबित करने का सामाजिक व्यवहार है जो एक सौ साल के अन्दर कर दिखाया गया। भाववादी दृष्टियों की ‘नारी’ को तर्कवादी (उसी में भौतिकतावाद निहित है) दृष्टि की ‘नारी’ ने बुरी तरह पछाड़ दिया। यहाँ तक कि, प्राचीन साहित्य में विद्वान, मुक्त नारियों की खोज, वेदों में नारी कवियों की खोज एवं एक मुहावरे की तरह कहा जाना कि “पहले ऐसी स्थिति नहीं थी, यह तो बाद के दिनों का पतन है” … अन्तत: भौतिकतावादी दृष्टि का विजय है। नारीत्व के भौतिक सारतत्व को नारी ने खुद अपने काम, जीवनयापन एवं लेखन से सामने लाना शुरू कर दिया।       

मातृभाषा में शिक्षा खास कर विज्ञान की शिक्षा – इस दिशा में किये गये कामों का महत्व आज ओझल हो गया है। लेकिन यह एक बुनियादी कदम था। विज्ञान के देशी-भाषाई पाठ्यपुस्तकों की रचना एवं तदनुरूप पाठ्यक्रम को अंग्रेज शासकों द्वारा स्वीकृत करवाना नवजागरण के प्रमुख कामों में से एक था। बीसवीं सदी में भारत के आधुनिक नवनिर्माण की जो यात्रा शुरु हुई उसमें नेतृत्व देने वाली लगभग पूरी पीढ़ी – वैज्ञानिक, कलाकार, इंजिनियर, डाक्टर, साहित्यकार, शिक्षक, वकील, राजनीतिज्ञ, यहाँ तक कि स्वामी विवेकानन्द जैसे आध्यात्मिक मार्गदर्शक भी – सिर्फ इसीलिये पैदा हो पाये क्योंकि उन्हे प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर विज्ञान, समाजविज्ञान आदि का ज्ञान मातृभाषा के माध्यम से प्राप्त हुआ। फलस्वरूप अपने देश, अपनी जनता एवं प्राप्त ज्ञान के बीच वे जैविक सुत्रधार बन पाये। और खुद यह नवनिर्माण – भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष से भारत के संवैधानिक स्वरूप के संघर्ष तक एवं स्वतंत्रता के बाद भारतीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की चमत्कारिक विकास तक - तमाम नियतिवाद एवं सनातनी जीवन-व्याख्या के खिलाफ भौतिकतावाद एवं तर्कवाद की विजयगाथा है।     

साहित्य एवं वैचारिक विमर्श में आधुनिकता पर विचार, तर्क-वितर्क एवं परिभाषित करने का प्रयास – इस दिशा में किये गये कामों का बड़ा महत्व है। 18वीं सदी में ही अंग्रेजों ने दो प्रतिष्ठान स्थापित किये। 1784 ई॰ में बना सर्वे ऑफ इन्डिया, जिसने पूरे भारत को भौगोलिक तौर पर नापने-जोखने और नक्शा बनाने का काम शुरु किया। सन 1784 में बना एशियाटिक सोसायटी, जिसके माध्यम से प्राच्य ज्ञान पर शोध का काम शुरु हुआ। इनके काम अलग थे लेकिन समाज में एक जरूरत पैदा होने लगी सभा-समितियों के लिये, जिसमें लोग आयें और ज्ञान-बर्धन हेतु विभिन्न विषयों पर चर्चा करें। नवजागरण की पीढ़ी के सर्वाधिक चर्चित एवं आदरणीय शिक्षक हेनरी लुई विवियन डिरोजिओ ने सन 1818 में स्थापित किया ऐकेडेमिक ऐसोशियेशन और उन्ही के छात्रों ने 1838 में बनाया सोसायटी फॉर द अकुइजिशन ऑफ जनरल नॉलेज। सन 1851 में स्थापित हुई बेथुन सोसायटी, 1853 में बनी विद्योत्साहिनी सभा। मुसलमान भी पीछे नहीं रहे – सन 1863 में बनी मोहमेडन लिटररी सोसायटी और 1863 में बना मदरसा लिटररी ऐंड डिबेटिंग क्लब। महिलायें भी पीछे नहीं थी। हालाँकि सन 1863 में वामाबोधिनी सभा को स्थापित करनेवाले पुरुष थे लेकिन बैठकों में महिलायें जुटने लगीं। सन 1876 में युगपुरुष डा॰ महेन्द्रलाल सरकार ने स्थापित किया इन्डियन ऐसोसियेशन फॉर कल्टिवेशन ऑफ साइंस।

इन सभाओं एवं समितियों में विभिन्न विषयों पर बातचीत होती थी। सभाओं का महत्व इसी में होता है कि बोलनेवाले तो महत्वपूर्ण बुद्धिजीवी होते हैं लेकिन सुनने और सवाल करने वाले अगर आमजन न भी हों तो छात्र, ज्ञान की ईच्छा रखनेवाले नागरिक या कमतर बुद्धिजीवी होते हैं जिनके माध्यम से बातें फैलती हैं। स्वाभाविक तौर पर, विषय जो भी हो अन्तत: आमने सामने खड़ा होता था योरोपीय आधुनिकता एवं मौजुदा या शाश्वत कही जानेवाली देशज परम्परायें। निष्कर्ष में एक प्रयास होता था स्थानीय स्थिति के मुताबिक एक बीच का रास्ता निकालने का।

इस दृष्टि से उतनी ही बड़ी भूमिका रही पत्रपत्रिकाओं की। सामाजिक पत्रिकायें, साहित्यिक पत्रिकायें (जिनमें मुसलमान साहित्यपत्र भी और महिला साहित्यपत्र भी थे), वैज्ञानिक जर्नल … । अंग्रेजों के प्राथमिक प्रयासों को छोड़ दें, तो बंगालियों द्वारा बंगला समाचारपत्र तो सामाजिक व धार्मिक कट्टरपंथ का मुकाबला कर, तर्कपूर्ण एवं वैज्ञानिक दृष्टि फैलाने के लिये ही प्रकाशित किये जाने लगे। जिनमें प्रमुख नाम हैं, राममोहन राय द्वारा प्रकाशित ‘संवादकौमुदी’, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा प्रकाशित ‘सोमप्रकाश’, देवेन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा प्रकाशित ‘तत्ववोधिनी’ एवं बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा प्रकाशित ‘बंगदर्शन’। दूसरी ओर बंगालियों द्वारा प्रतिष्ठित अंग्रेजी समाचारपत्र ‘बेंगॉल स्पेक्टेटर’ या फिर हरीश मुखर्जी के सम्पादन में गिरिश घोष प्रतिष्ठित ‘हिन्दु पैट्रियट’ की ऐतिहासिक भूमिका सब जानते हैं। विभिन्न विषयों पर इन पत्रपत्रिकाओं ने समाज में पोंगापंथ-विरोधी, तर्कवादी, प्रगतिशील नजरिये को आगे बढ़ाया। सन 1857 की बगावत पर सही स्वदेशी समझ बनाने में और आगे नीलहे किसानों पर हो रहे अत्याचारों को उजागर करने में ‘हिन्दु पैट्रियट’ की भूमिका ऐतिहासिक रही। भौतिकतावाद का विकास तो इन्ही कामों के माध्यम से हुआ। आज भी होता है। 

श्रमजीवी जनता से सरोकार – यह भी एक महत्वपूर्ण दिशा रही। भले ही मध्यवर्गीय सोच की अपनी सीमाओं के साथ, पर पक्षधरता बढ़ती गई। स्थाई बन्दोबस्त के कारण रैयतों पर हो रहे जुल्म की बातों को सबसे पहले खुद राममोहन राय ने उठाया। उनके आर्थिक दस्तावेज आज भी प्रासंगिक हैं। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की रचनाओं में बल्कि थोड़ा कम, सिर्फ ‘बांगालार इतिहास’ में इसका जिक्र मिलता है। उनके मित्र अक्षय कुमार दत्ता की एक पूरी रचना है इस विषय पर, ‘पल्लीग्रामस्थ प्रजादेर दुरवस्था’। कंगाल हरिनाथ या हरिनाथ मजुमदार ने अपना ग्रामीण समाचारपत्र ‘ग्रामवार्ता प्रकाशिका’ के पृष्ठों को इन्ही अत्याचारों के चित्रण से रंग दिया। अंग्रेजी समाचारपत्र ‘हिन्दु पैट्रियट’ में नीलहे किसानों पर हो रहे जुल्म पर नियमित लिखा जाने लगा। जबकि शुरु में रैयतों के साथ हो रहे अन्याय एवं उन पर हो रहे अत्याचार की बातें सरकार से शिकायत के रूप में की जाती थी, धीरे धीरे उन अत्याचारों की नंगी तस्वीरें स्थानीय भाषाई समाचारपत्रों में खुल कर आने लगीं – अगर सीधे सीधे अंग्रेज सरकार को नहीं भी तो उसके स्थानीय भ्रष्ट मुलाजिमों को जमीन्दार के साथ साथ दोषी ठहराया गया। अंग्रेजी समाचारपत्र ‘हिन्दु पैट्रियट’ के सम्पादक के रूप में हरीश मुखर्जी तो खुद अत्याचारित नीलहे किसानों को अपने घर पर ठहराकर, उनके रहने खाने का इन्तजाम कर उनके पक्ष में अदालत में मुकदमे लड़े। दीनबंधु मित्र रचित ‘नीलदर्पण’ नाटक के माध्यम से नीलहे किसानों पर हो रहे अत्याचारों को उजागर किया जाना, फादर जेम्स लॉंग के अनुरोध पर महाकवि माइकल मधुसूदन दत्त द्वारा उसका अंगेजी अनुवाद किया जाना एवं फलस्वरूप जेम्स लॉंग का जेल जाना आदि जानीपहचानी कहानियाँ हैं। धीरेन्द्रनाथ गांगुली द्वारा चाय-बागान के श्रमिकों पर हो रहे जुल्म के मुद्दे उठाये गये तो शशीपद बैनर्जी द्वारा औद्योगिक (शुरुआती) मजदूरों के मुद्दों पर, भाववादी तेवर के साथ सही, पत्रिका प्रकाशित किया गया, ‘भारत श्रमजीवी’। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने लिखा कम, लेकिन नवजागरण के शीर्षस्थ इस महानायक ने अपने हाथों से अकाल में, मलेरिया में, कॉलेरा के प्रकोप में जिस तरह बंगाल के गरीब जनसमुदाय की सेवा में खुद को न्योछावर किया, जिस तरह उन्होने, कर्माटाँड़ में बसने के बाद संथाल जनसमुदाय के उत्थान में खुद को नियोजित किया वह बेमिसाल है। कई शताब्दी पूर्व इसी बंगाल से उठा था पूरे भक्ति/सूफी युग का ध्वज-संदेश, “सबार उपरे मानुष सत्य, ताहार उपरे नाइ”। इस वाक्य में निहित यथार्थ बौद्धिक व्यवहार में आया उपरोक्त कामों से और इस तरह सूखे तर्कवाद को मानवतावाद के साथ जोड़ा। यहाँ हम, इस निबंध में पहले उद्धृत किये गये मार्क्स के कथन को दोबारा याद कर सकते हैं:-

“अगर इन्सान अपना सारा ज्ञान, संवेदना आदि इंद्रियबोध एवं उससे उपलब्ध अनुभवों की दुनिया से प्राप्त करता है, तब करना यही होगा कि अनुभवसिद्ध दुनिया को विन्यस्त करना होगा। इस तरह विन्यस्त करना होगा कि यथार्थ तौर पर मानविक जो कुछ है उस दुनिया में, इन्सान उसका अनुभव कर सके, उसका अभ्यस्त हो सके और सचेत हो सके कि वह एक इन्सान है। …… अगर इन्सान को परिवेश ने रूप दिया है तो उस परिवेश को अवश्य ही मानविक बनाना होगा। अगर इन्सान की प्रकृति सामाजिक है, तो उसकी यथार्थ प्रकृति समाज में ही विकसित होगी। और प्रकृति की शक्ति अलग अलग व्यक्ति की शक्ति से नहीं, अवश्य ही समाज की शक्ति से नापी जायेगी।”

एकेश्वरवाद एवं तर्कवाद के बीच द्विअंगिता – द्विअंगिता या बाइनरी इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि नवजागरण की पूरी अवधि के दौरान, एक तरफ प्रखर एकेश्वरवादी समाज में वैज्ञानिक तार्किकता के प्रसार के लिये काम करते हुये दिखते हैं तो दूसरी तरफ प्रखर तर्कवादी, ईश्वर या परमात्मा को लेकर सन्देहवादी होते दिखते हैं।

एकेश्वरवाद, निराकार ब्रह्म के रूप में एक परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकारने एवं उसी की आराधना करने के रूप में, राममोहन राय से शुरु हुआ था। बाद में अनुयायियों की भी संख्या बढ़ी और मूल ब्राह्म-समाज में कई सवालों पर विभाजन भी होते गये। अनुयायी भी शहरी शिक्षित मध्यवर्ग में ही सीमित रहे। लेकिन, सिर्फ बंगाल प्रेसिडेन्सी नहीं उसके बाहर भी, शिक्षा के प्रसार के क्षेत्र में, शिक्षा-प्रतिष्ठान खोलने के क्षेत्र में ब्राह्म-समाजियों की बड़ी भूमिका रही। खुद शांतिनिकेतन (महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा प्रतिष्ठित) एवं विश्वभारती (रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा प्रतिष्ठित) ब्राह्म-समाजियों के कामों के दायरे में आयेगा। भारत के प्रथम विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिक आचार्य जगदीश चन्द्र बसु भी ब्राह्म मतावलम्बी परिवार में पले बढ़े। उन्होने अलग से कहीं ईश्वर के बारे में कुछ कहा कि नहीं, नहीं मालूम, पर घोषित निरीश्वरवादी तो नहीं ही थे।

दूसरी ओर, पारम्परिक हिन्दू विचारधारा में, हिन्दू जीवनरीति में पल रहे वृहत बंगाली समाज के साथ ब्राह्म-समाज के टकराव एवं आध्यात्मिक वादविवाद कई रूप ग्रहण करते गये। खुद हिन्दू परम्पराओं में भी तो शाक्त और वैष्णव के भेद थे। इसी आध्यात्मिक उथलपुथल एवं वैज्ञानिक, तार्किक मानवतावाद के अद्भुत मेल के रूप में हमें राष्ट्रीय पुनर्जागरण का महान सन्त, स्वामी विवेकानन्द हासिल हुआ। भारतीय समाज में बदलाव की ताकतों को प्रेरित करने में, आगे बढ़ाने में स्वामी विवेकानन्द की बड़ी भूमिका रही। 

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर एवं अक्षय कुमार दत्त

इन्ही परिस्थितियों में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर एवं अक्षय कुमार दत्त बाकी सबों से अलग दिखते हैं। सिर्फ काम ही नहीं, अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त विचारों में भी वे सिर्फ वैज्ञानिक तर्कवाद ही नहीं, आधुनिक भौतिकतावाद के सबसे करीब दिखते हैं। अपने सेवामूलक कामों में असीम मानवप्रेम एवं करुणा का एक अद्भुत दृष्टांत हैं ईश्वरचन्द्र और शायद आजतक इस देश में युक्तिपरक मानवतावाद का उनसे बेहतर कोई दृष्टांत स्थापित नहीं हो पाया है। मलेरिया की महामारी के दौरान जब कुइनाइन का अभाव हुआ और किसी ने सुझाव दिया कि राहत शिविरों (उन्ही के बनाये या बनवाये गये) के माध्यम से सिंकोना दिया जाय, उनका जबाब अविस्मरणीय है, “क्यों? गरीब हैं तो उन्हे सही दवा नहीं मिलेगी?” अकाल में उनके सेवा के ऐसे ऐसे किस्से हैं कि आज भी सुनते ही बरबस आँसुओं की धार बह निकलते हैं। साथ ही यह मानवतावाद कितना व्यापक था यह उनकी लेखनी से पता चलता है। अपने ‘जीवन-चरित’ पुस्तक में अफ्रीकी राजकुमार थॉमस जेन्किन्स (विकिपिडिया में आप ‘टॉम जेन्किन्स, ब्रिटेन के पहले काले विद्यालय शिक्षक’ शीर्षक से ढुंढ़ सकते हैं) की जीवनी का अंत करते हुये उन्होने लिखा, “इस अजीब कहानी का अंत जिस तरह से होने पर सभी के मन को भा जाता, वैसा नहीं हुआ।” हालाँकि जेन्किन्स को अंत में मॉरिशस भेजा गया जो काले गुलामों से भरा हुआ अंग्रेज उपनिवेश था। जेन्किन्स को गुलामों में ईसाई धर्म के प्रचार के लिये भेजा गया। विद्यासागर लिखते हैं, “किसी जनहितैषी समाज की मदद से जेन्किन्स को अपने देश में ही वापस भेजना चाहिये था। तब वह वहाँ अपने पुश्तैनी प्रजाओं को सभ्य बना पाते एवं उन्हे शिक्षा प्रदान कर पाते।”

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर नास्तिक थे कि नहीं, इस पर वाद-विवाद को चलते हुये सौ बरस से अधिक हो गये। बेशक नास्तिक वह नहीं थे। नास्तिक या आस्तिक होने पर बहस उनके काम के मुद्दों में ही नहीं था। इतिहास ने जो काम दे रखा है समय के इस मोड़ पर, उसे पूरा करने में जुट जाओ, अब तुम नास्तिक बनके जुटो या आस्तिक बनके जुटो, तुम्हारी मर्जी। एक बार काशी गये। जाते ही रहते थे। एक बूढ़े ब्राह्मण उनके पास आकर बोले, “धर्म के बारे में कुछ पूछने की ईच्छा थी।” विद्यासागर ने जबाब में कहा, “मेरी राय मैंने कभी भी किसी को नहीं बताई है; बस इतना कहूंगा कि गंगाजल से अगर आपको अपना देह पवित्र लगे, शिव की पूजा करने से अगर आपके हृदय को पवित्रता की प्राप्ति हो तो वही आपका धर्म है!” ‘आपका’ शब्द गौर करने लायक है। धर्म एक व्यक्तिगत आस्था है बस। उनके शिष्यों ने तो बहुत निन्दा की है उनकी कि आचार, व्यवहार यहाँ तक कि गायत्रीमंत्र तक भूल कर, नीची जाति का जुठन तक खा कर उन्होने हिन्दू कर्मकान्ड का तेरह बजा दिया था। … लेकिन उन्होने कभी किसी ऐसे धर्माचार की निंदा नहीं की, जिससे मनुष्यता के बोध को क्षति नहीं पहुँच रही हो – नारी, या निचली कही जाने वाली जातियाँ, या दूसरे धार्मिक सम्प्रदाय के लोग अपमानित न हो रहे हों। जहाँ भी धर्म के नाम पर मनुष्यता पर आघात हुआ, वह अपनी पूरी ताकत से उसके खिलाफ खड़े हुये – चाहे सामाजिक आन्दोलन के माध्यम से हो या व्यक्तिगत तौर पर भेदभावहीन सेवा की प्रतिमूर्ति बन कर। पारम्परिक तौर पर चिट्ठियों में भगवतसहाय या ऐसे शब्दबन्ध लिखते रहे लेकिन गहनतम पीड़ा में भी अपने लिये किसी ईश्वर की करुणा की भिक्षा नहीं की।

खैर, उनकी नास्तिकता या आस्तिकता से ज्यादा महत्वपूर्ण यह बात भी है कि जो महापुरुष नारीमुक्ति के अलावे शिक्षा के क्षेत्र में किये गये ऐतिहासिक कामों की वजह से आज भी प्रात:स्मरणीय हैं, वह बच्चों को क्या कहना चाहते थे ईश्वर के बारे में? कैसी शिक्षा वह देना चाहते थे।

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर रचित, सामान्य ज्ञान पर एक पाठ्यपुस्तक है, ‘बोधोदय’। लिखने को तो उन्होने पुस्तक के मुखपृष्ठ पर ही लिख दिया कि यह पुस्तक अमुक अंग्रेजी पुस्तक के आधार पर लिखी गई है, लेकिन दोनों को पढ़ने से पता चलता है कि अंग्रेजी पुस्तक से उन्होने सिर्फ एक ढाँचा लिया कि सामान्य ज्ञान की पुस्तक में विषयों का सिलसिला कैसे बने। बाकी उन्होने अपने ढंग से, देश के छात्र-छात्राओं को ध्यान में रखते हुये पुस्तक की रचना की। अत्यंत लोकप्रिय इस पाठ्यपुस्तक के, उनके जीवित रहते ही एकसौ से अधिक संस्करण हो चुके थे। ‘पदार्थ’, ‘चेतन पदार्थ’, ‘मनुष्यजाति’, ‘ईन्द्रिय’ से शुरू कर ‘परिश्रम-अधिकार’, ‘कोयला-किरासन तेल’, ‘कृषिकर्म’, ‘शिल्प-वाणिज्य-समाज’ तक, जानकारी के योग्य विभिन्न विषयों पर विभाजित इस पुस्तक के पहले संस्करण में ईश्वर का कोई जिक्र नहीं था। कहा जाता है कि उनके अनुरागी एक धर्मगुरु विजयकृष्ण गोस्वामी ने उनसे पूछा, “महाशय, बच्चों के लिये इतने सुन्दर एक पाठ्यपुस्तक की आपने रचना की, बालकों को जानने की सभी बातें हैं उसमें, सिर्फ ईश्वर के बारे में कुछ क्यों नहीं है?” विद्यासागर ने जबाब दिया, “जो लोग तुम्हे ऐसा कहते हैं, उनसे कहना, इसबार जो बोधोदय छापा जायेगा उसमें ईश्वर की बात रहेगी।” अगले संस्करण में ‘पदार्थ’ के बाद एवं चेतन पदार्थ’ के पहले उन्होने एक अनुच्छेद जोड़ा ‘ईश्वर’। उसमें लिखा, “ईश्वर ने प्राणी, उद्भिद, जड़, सभी पदार्थों का सृजन किया है। इसलिये ईश्वर को सृष्टिकर्ता कहा जाता है। ईश्वर को कोई देख नहीं पाता है, लेकिन वह सर्वदा सर्वत्र विद्यमान हैं। हम जो करते हैं, उसे वह देख पाते हैं; हम जो मन में सोचते हैं, उसे वह जान पाते हैं। ईश्वर परम दयालु हैं, सभी जीवों के वह आहारदाता एवं रक्षाकर्ता हैं।”

अगले अनुच्छेद ‘चेतन पदार्थ’ में, प्राणीजगत के खाद्यचक्र (फूड साइकिल) को दर्शाते हुये वह लिखते हैं, “सृष्टिकर्ता की क्या अपार महिमा है! वह सभी जीवों के प्रतिदिन के लिये पर्याप्त आहार की योजना बना रखे हैं।” यह तो गई ईश्वर की बात। इसी अनुच्छेद में वह दर्ज करते हैं कि “हरप्रकार के प्राणियों में मनुष्य सर्वप्रधान है।” [बाकी सारे प्राणी] “किसी भी तरीके से बुद्धि और क्षमता में मनुष्य से तुलनीय नहीं है।” इस अनुच्छेद से आगे चौथा अनुच्छेद ‘मनुष्यजाति’ पर ही है।

आगे, पुस्तक में धातु, तौल, भुगोल, नाप ऐसे ही विभिन्न प्रसंगों से गुजरते हुये पहुंचते है ‘परिश्रम-अधिकार’ पर। स्वाभाविक तौर पर अधिकार के प्रसंग में बातें पूरी तरह व्यक्तिगत सम्पत्ति के अधिकार को जायज ठहराने वाली है, लेकिन वह सम्पत्ति आदमी के श्रम से पैदा हुआ है। ‘अतिरिक्त मूल्य’ की मार्क्सवादी अवधारणा दुनिया में आने से पहले कम से कम इतना उन्होने लिख दिया, कि “लोग जानते हैं, मैं मेहनत कर जिस वस्तु का उपार्जन करुंगा, वह मेरा ही रहेगा, दूसरा ले नहीं पायेगा, इसीलिये उनमें मेहनत करने की प्रवृत्ति होती है। अगर वह जानता, मेरे मेहनत का धन कोई दूसरा लेगा, तब कभी भी उसमें मेहनत करने की प्रवृत्ति नहीं होती।” यह भी लिख दिया, “कुछ सामान्य वस्तु है, उन पर सभी लोगों का बराबर का अधिकार है, सभी को बिना मेहनत मिल सकता है। वायु, सुर्य की रोशनी, बारिश और नदी का पानी, ये सारा कुछ एवं इसी तरह की अन्य वस्तुओं पर भी सभी लोगों का बराबर का अधिकार है। इनके अलावे और किसी वस्तु को पाने की आकांक्षा रखने पर बेशक परिश्रम करना होगा …”

अक्षय कुमार दत्त का एक उद्धरण इस निबंध के शुरु में ही दिया गया है। वह भी मानते थे कि परम सृष्टिकर्ता ईश्वर है नि:सन्देह लेकिन उसी कारण से और आवश्यक बनता है कि हम उनके द्वारा बनाये गये भौतिक जगत को समझें जिसमें हरेक वस्तु के अपने गुण हैं जो उस वस्तु में ही निहित हैं एवं उन्ही गुणों के फलस्वरूप वस्तुओं का आपसी सम्बन्ध विषयनिष्ठ है। प्राचीन पोथियों और रीतिरिवाजों में नहीं, हमे सवालों के जवाब उस ज्ञान में ढूंढ़ना चाहिये जो योरोप ने पिछले कुछेक शताब्दियों में अर्जित किया है। कई भागों में उन्होने सामान्य ज्ञान एवं प्राथमिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों की रचना की जिनमें ‘चारूपाठ’, ‘भुगोल’ एवं ‘वाह्यवस्तु के साथ मनुष्यप्रकृति का सम्बन्ध विचार’ आदि प्रमुख हैं। ईश्वर की प्रार्थना की निरर्थकता को बताते हुये उन्होने एक समीकरण बताया जो लोगों की जुबान पर चढ़ गया:-

चूंकि श्रम = फसल

एवं श्रम + प्रार्थना = (भी) फसल

अत: प्रार्थना = 0

साथ ही, अक्षय कुमार दत्त ने धर्म पर बातचीत में ऐतिहासिक भौतिकता के साथ उसे जोड़ा। कम उम्र में मस्तिष्कपीड़ा की बीमारी से ग्रस्त हो जाने के कारण उनका बाहरी जीवन बन्द हो गया था। लेकिन उसी अवस्था में उन्होने दो खण्डों में एक महान ग्रंथ की रचना की, ‘भारतवर्षीय उपासक सम्प्रदाय’ जिसमें उन्होने खोज खोज कर उन सभी पंथों व साधन परम्पराओं का व्योरा लिखा जो तत्कालीन भारत में उपलब्ध थे। रामानुजपंथी, कबीरपंथी से लेकर सतनामी, औघड़ आदि सभी के वर्णन हैं। दोनों खण्डों की काफी लम्बी उपक्रमणिकायें हैं जिनमें सेन्ट्रल एशिया से एक आदिम जाति का विभिन्न दिशाओं में बहिर्गमन, एक हिस्से का भारत में आगमन, उनके धर्म का उद्भव एवं क्रमविकास, असीरीय धर्म के साथ उसके रिश्ते, विभिन्न सभ्यताओं के बीच रिश्ते दिखाने के लिये अनुरूप शब्दों की लम्बी सूची, भारत में आर्यों के गंगा की समतलभूमि तक पहुँचने की यात्रा का उनके धर्मसाहित्य पर प्रभाव … फिर भारतीय दर्शनों के वर्णन के क्रम में उनमे निरीश्वरवाद के प्रभाव को रेखांकित करना, मनुसंहिता का आविर्भाव, बुद्ध, जैन आदि मतों का आविर्भाव … आदि की विशद चर्चा है। फिलहाल, एक उद्धरण देकर हम निबंध के अंत की ओर बढ़ेंगे।      

“मानवजाति की बुद्धि विद्या जिस समय जिस अवस्था में रहती है, उनका जातीय धर्म भी उसी अवस्था में रहता है। सभ्य एवं असभ्य जातियों को अक्सर एक धर्म मानते हुये देखा जाता है जरूर, लेकिन वह बस नाम के वास्ते होता है; उनके धर्मज्ञान एवं धार्मिक आयोजन के एकरूप होने की कोई गुंजाइश नहीं होती है। अत:, आदिम आर्य-वंशीय लोगों के धर्म की स्थिति जानने के लिये उनकी बुद्धि विद्य एवं सामाजिक स्थिति के बारे में जान लेना बेहतर रहेगा” [भा॰उ॰स॰-1, पृ॰ 13]

फिर आगे ॠग्वेद-कालीन उपासनाओं का जिक्र करने के बाद लिखते हैं:

“वस्तुत:, उस प्राचीन काल में उन्ही वस्तुओं की उपासना प्रचलित होना पूरी तरह सम्भव था। उस समय मानवजाति कि बुद्धि-वृत्ति उतना मार्जित व परिपक्व नहीं हुआ था, इसलिये इस कौशल-सम्पन्न, परम सुन्दर विश्वयंत्र का मर्मभेद करने में वे असमर्थ थे। उन्होने जिन अतिशक्तिसम्पन्न तेजोमय जड़ वस्तुओं का असाधारण प्रभाव एवं उपकारिता-गुण परिलक्षित किया, उन्ही का देवत्व एवं प्रधानत्व स्वीकार कर अर्चना करना आरम्भ कर दिया। मानवजाति के इतिहास के गर्भ में जितना प्रवेश किया जाये, उतना ही, यही सम्भावित प्रतीत होता है।” [भा॰उ॰स॰-1, पृ॰ 25]

आगे इसी तरह जारी रहता है व्याख्या का सिलसिला। उत्पादन व्यवस्था एवं उत्पादक शक्तियों का भी जिक्र आता है।

‘जर्मन विचारधारा’ में मार्क्स ने धर्म की आलोचना को सभी आलोचनाओं में प्राथमिक कहा था। ‘थीसिस ऑन फायरबाख’ में उन्होने यह भी दर्शाया था कि उनके पहले तक के भौतिकतावादियों द्वारा यह बताया जाना काफी नहीं है कि देवों की दुनिया मनुष्यों की दुनिया से ही उत्पन्न हुई है; बताना यह पड़ेगा कि मनुष्यों की दुनिया के किस विभाजन (अन्तर्विरोध) के कारण एक पक्ष ने देवों की दुनिया का सृजन किया। तो भारत में उन्नीसवी सदी के बंगाल में हम देखते हैं कि मार्क्स-पूर्व भौतिकतावादी दृष्टि कि ‘देवों की दुनिया मनुष्यों की दुनिया से ही उत्पन्न हुई है’ की नींव अक्षय कुमार दत्त के हाथों पड़ चुकी थी। यह बताते हुये चलना अप्रासंगिक नहीं होगा कि अंग्रेजी के वैज्ञानिक शब्दावलियों का बंगला रूपान्तरण सबसे पहले और काफी बड़ी संख्या में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने ही किया था। अक्षय कुमार दत्त ने भी उस काम को आगे बढ़ाया। आज भी बहुत सारे वैज्ञानिक पारिभाषिक शब्द जो हम इस्तेमाल करते हैं, उन्ही के बनाये हुये हैं।

भारतीय भौतिकतावाद या भारतीय चिन्तन परम्परा में भौतिकतावाद बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में चर्चा का विषय बना। हालाँकि मैक्समुलर सरीखे जर्मन भारतविद एवं शेरवात्स्की सरीखे रूसी भारतविदों ने प्राचीन भारतीय दार्शनिक मतों में भौतिकतावाद एवं निरीश्वरवाद के तत्व आविष्कार किया था। यहाँ भी यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि उन्होने जिन प्राचीन ग्रंथों एवं पोथियों का अध्ययन किया उनमें एक प्रमुख सारसंग्रह था माधवाचार्य रचित ‘सर्वदर्शनसंग्रह’। इस ग्रंथ का पहला प्रामाणिक संस्करण एशियाटिक सोसायटी के तत्वावधान में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने ही किया था। इसी ग्रंथ से पहली बार लोगों को चार्वाक दर्शन की कुछ मूल बातें जानने को मिली। भारतीय दर्शनों पर बृहत शोधग्रंथ के लेखक सुरेन्द्रनाथ दासगुप्ता ने भी भारतीय दर्शनों में निरीश्वरवाद की व्यापक मौजूदगी को नोट किया। लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में देबीप्रसाद चट्टोपाध्यार रचित ‘लोकायत’ के प्रकाशन के बाद बातचीत का पूरा परिप्रेक्ष ही बदल गया। उसके बाद तो उनके कई सारे ग्रंथ आये भौतिकतावाद पर।

हमने इस निबंध में सिर्फ कड़ियों को जोड़ने की कोशिश की। ऐसा नहीं, कि प्राचीन भारतीय भौतिकतावाद और फिर दो हजार साल के बाद आधुनिक भौतिकतावाद। इतिहास में हमें उस भौतिकतावाद के बढ़ने के स्पष्ट चिन्ह मिलेंगे अगर तीन प्रवृत्तियों – ब्राह्मण्यधर्म/मनुसंहिता/जातपात का विरोध, एक सम्यक मानवतावाद की तलाश एवं निरीश्वरवादी तर्क – जो वास्तव में साथ हैं, साथ लेकर चलें। और उसी की कड़ी के रूप में दिखेगा, योरोपीय भौतिकतावाद (दार्शनिक विवेचन के लिये आवश्यक अन्य नामों से चिन्हित किये जाने के बावजूद वे भौतिकतावाद ही हैं) से प्रभावित पहली पीढ़ी के क्रांतिकारी महानायकों द्वारा किये गये उन्नीसवी सदी के असंख्य समाज-सुधार, विज्ञान आन्दोलन, भाषाई पत्रकारिता, साहित्य-आन्दोलन एवं उनके व्यक्तिगत चिन्तन।





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