Wednesday, November 20, 2019

आवास का प्रश्न, भाग 3 (2) फ्रेडरिक एंगेल्स


II
अब हम मुख्य बिन्दुओं तक पहुँचते हैं। मैंने मुलबर्गर के आलेखों के बारे में आरोप लगाया था कि ये प्रुधों के तरीके से आर्थिक सम्बन्धों को कानूनी शब्दावलियों में अनुदित कर उन्हे झुठला रहे हैं। इसके उदाहरणस्वरूप मैंने मुलबर्गर के निम्नलिखित वक्तव्य को चुना था:
“घर, एकबार बन जाने के बाद, सामाजिक श्रम के निश्चित अंश का शाश्वत कानूनी हक होता है, हालाँकि घर का वास्तविक मूल्य किराये के रूप में काफी पहले और पर्याप्त से अधिक, भुगतान किया जा चुका होता है। इसी लिये ऐसा होता है कि एक घर जो, उदाहरण के तौर पर पचास साल पहले बना था, इस पूरी अवधि में मूल लागत का दो, तीन, पाँच, दस और उससे भी अधिक गुणा किराये की रकम से हासिल कर चुका होता है।”82
अब मुलबर्गर निम्नलिखित शिकायत करते हैं:
“इस सरल, संयमित तथ्य वर्णन के कारण एंगेल्स मुझे समझाते हैं कि घर कैसे ‘कानूनी हक’ बन जाता है इसकी मुझे व्याख्या करनी चाहिये थी – जबकि यह मेरे कार्यभार की सीमाओं के बाहर की बात थी … विवरण एक बात है और व्याख्या दूसरी बात। जब मैं प्रुधों के साथ कहता हूँ कि समाज के आर्थिक जीवन में अधिकार की एक अवधारणा व्याप्त होनी चाहिये, मैं आज के दिन के समाज को वर्णित कर रहा होता हूँ जिस में, यह यथार्थ है कि अधिकार की सारी अवधारणायें अनुपस्थित नहीं हैं, लेकिन क्रांति के अधिकार की अवधारणा अनुपस्थित है; यह एक तथ्य है जिसे एंगेल्स खुद भी स्वीकार करेंगे।”83
अभी फिलहाल हम उसी घर पर रहें जो बन चुका है। वह घर, एक बार किराये पर लगने के बाद, किराये के रूप में निर्माता को भूमि किराया, मरम्मत का खर्च, निवेशित निर्माण-पूंजी पर व्याज के अलावे उस पर मुनाफा भी देता है84। परिस्थिति के अनुसार, उत्तरोत्तर भुगतान किया गया वह किराया, मूल लागत का दो, तीन, पाँच या दस गुना भी हो सकता है। य्ह, मेरे मित्र मुलबर्गर, “तथ्य” का “सरल, संयमित वर्णन” है, एक आर्थिक तथ्य है। अब अगर हम जानना चाहते हों कि “कैसे यह होता है” कि यह होता है, हमें अपना परीक्षण आर्थिक क्षेत्र में संचालित करना पड़ेगा। अत:, थोड़ा करीब जाकर इस तथ्य को देखें ताकि आगे से एक बच्चा भी इसे गलत तरीके से न समझे। जैसा कि जानी हुई बात है, एक माल की बिक्री इस तथ्य में निहित है कि बेचने वाला उस माल का उपयोग मूल्य छोड़ता है एवं विनिमय मूल्य अपने पॉकेट में डालता है। मालों के उपयोग-मूल्य में, भिन्नता के अलग अलग पहलुओं के साथ साथ उपभोग में लगने वाले समय की भी भिन्नता होती है। पावरोटी के एक पिण्ड का एक दिन में उपभोग हो जाता है, एक पतलून एक साल में घिस जाता है और एक घर को जीर्ण होने में, अगर आप माने तो सौ साल लग जाता है। इसीलिये, टिकाऊ मालों के मामलों में, उनके उपयोग-मूल्य को खण्ड-खण्ड में और हर बार एक निश्चित अवधि के लिये बेचने की संभावना बनती है, यानि जिसे किराये पर लगाना कहा जाता है। फलस्वरूप, खण्ड-खण्ड में बिक्री में विनिमय-मूल्य की पावती धीरे धीरे होती है। अग्रिम लगाई गई पूंजी एवं उस पर उपार्जित मुनाफे की अविलम्ब अदायगी को त्यागने की क्षतिपूर्ति के रूप में बिक्रेता को बढ़ी हुई कीमत – व्याज - मिलती है जिसकी दर राजनीतिक अर्थशास्त्र के नियमों द्वारा निर्धारित होती है, किसी मनमाने ढंग से कभी भी नहीं। सौ साल खत्म होने के बाद घर का पूरा उपयोग हो चुका होता है, वह घिस चुका होता है और रहने लायक नहीं रहता। तब, अगर हम घर के लिये चुकाये गये पूरा किराया में से निम्नलिखित घटायें: 1) भूमि-किराया - आलोच्य अवधि में अगर बृद्धि हुई हो तो उस बृद्धि के साथ - एवं 2) चलते मरम्मत के लिये खर्च की गई रकम, तो हम पायेंगे कि शेष औसतन निम्नलिखित चीजों का बना होता है: 1) घर पर मूलत: निवेश की गई निर्माण पूंजी, 2) उस पर मुनाफा, एवं 3) उत्तरोत्तर परिपक्व होते हुये पूंजी और मुनाफे पर व्याज।85 अब, यह सच है कि इस अवधि के बाद किरायेदार के पास कोई घर नहीं होता है, लेकिन मकानमालिक के पास भी कोई घर नहीं होता है। मकानमालिक के पास सिर्फ जमीन का वह टुकड़ा होता है (बशर्ते वह उसका अपना हो) और उस पर रखी मकान की सामग्रियाँ होती हैं जो अब मकान नहीं रहा। हालाँकि, इस बीच वह घर हो सकता है उसके “मूल लागत का पाँच गुना या दस गुना” वापस लाया होगा। लेकिन, हम देखेंगे कि यह एक मात्र भूमि-किराया में बृद्धि के कारण हुआ है। लन्दन जैसे शहरों में जहाँ जमीन का मालिक और मकान का मालिक अधिकांशत: दो अलग अलग व्यक्तियाँ होते हैं, यह कोई छिपी हुई बात नहीं है। तेजी से बढ़ रहे शहरों में ही भूमि-किराया की इतनी तीव्र बृद्धि होती है,86 खेती से जुड़े किसी गाँव में नहीं, जहाँ मकान वाली जमीन का भूमि-किराया व्यवहारिक तौर पर अपरिवर्तित रहता है। यह एक खुला तथ्य है कि भूमि-किराये में बृद्धि के अलावा, मकान का किराया मकानमालिक के लिये, निवेशित पूंजी (जिसमें मुनाफा शामिल है) पर सालाना औसतन सात प्रतिशत से अधिक नहीं पैदा करता है – और उसी रकम में से मरम्मत आदि के खर्च देने पड़ते हैं। संक्षेप में, किराया का समझौता माल का एक सामान्य विनिमय है जो सैद्धांतिक तौर पर श्रमिक के लिये, एक अपवाद - श्रमशक्ति की खरीद और बिक्री – को छोड़कर किसी भी दुसरे माल के विनिमय से अधिक या कम सम्बन्ध नहीं रखता है। व्यवहारिक तौर पर श्रमिक, किराया के समझौता का सामना, उन हजार पूंजीवादी धोखे के रूपों में से एक मान कर करता है, जिनका जिक्र मैं अलग पुनर्मुद्रण के पृष्ठ 4 पर कर चुका हूँ।87 लेकिन, जैसा कि मैंने वहाँ साबित किया था, धोखे का यह रूप भी आर्थिक नियमन के अधीन होता है।
मुलबर्गर एक तरफ, किराया के समझौते को बिल्कुल “मनमानापन” मानते हैं (अलग पुनर्मुद्रण का पृष्ठ 19) और जब मैं इसका विपरीत उन्हे साबित कर देता हूँ तब वह शिकायत करते हैं कि मैं उन्हे “सिर्फ वही चीजें” बता रहा हूँ “जो, उन्हे खेद है कि वह पहले से जानते थे”।
लेकिन आवास के किराये के बारे में किये गये सारे आर्थिक अनुसंधान हमें किराये के घरों के खात्मे को “क्रांतिकारी विचार के गर्भ से पैदा हुये सबसे अधिक फलदायी एवं भव्य आकांक्षाओं में से एक”88 बनाने में सक्षम नहीं कर पायेंगे। ऐसा करने को सक्षम होने के लिये हमें सामान्य तथ्य को संयमित अर्थशास्त्र से न्यायशास्त्र के, वास्तविक ही कहीं अधिक विचारधारात्मक क्षेत्र मे अनुदित करना होगा। “आवास पर” आवास-किराये का एक “शाश्वत कानूनी हक” होता है, और “इसी कारण से” आवास के मूल्य का दो, तीन, पाँच या दस गुना किराये के द्वारा चुका दिया जा सकता है। “कानूनी हक” हमें एक रत्ती भी इस बात की खोज करने में मदद नहीं करता है कि किस तरह वास्तव में “यह होता है”, और इसीलिये मैंने कहा था कि किस तरह वास्तव में “यह होता है” यह मुलबर्गर ढूंढ़ने में सक्षम हो सकते थे  - सिर्फ उन्हे जाँच करनी थी कि एक आवास किस तरह कानूनी हक बनता है। शासक वर्ग जिस कानूनी अभिव्यक्ति के द्वारा इस कानूनी हक की मंजूरी देता है उस पर झगड़ने के बजाय अगर हम आवास किराया के आर्थिक प्रकृति का परीक्षण करें, जैसा कि मैंने किया, हम खोज कर सकते थे कि कानूनी हक बनता किस तरह से है। -- कोई भी जो किराये की समाप्ति के लिये आर्थिक कदम उठाने का प्रस्ताव देता है, उसे निश्चित ही आवास-किराया के बारे में, इससे थोड़ा अधिक जानना होगा कि किराया “किरायेदार द्वारा पूंजी के शाश्वत हक को चुकाये गये भेंट का प्रतिनिधित्व करता है”।89 इस पर मुलबर्गर जबाब देते हैं, “वर्णन एक बात है और व्याख्या दूसरी बात।”
हमने इस तरह, घर को आवास-किराये के श्वाश्वत कानूनी हक में बदल दिया, हालाँकि यह कहीं से भी चिरस्थायी नहीं है। हम पाते हैं कि चाहे जैसे भी “यह आये”, इस कानूनी हक के कारण, घर अपने मूल मूल्य का कई गुना किराये के रूप में वापस लाता है। बातों को कानूनी मुहावरों में अनुदित कर हम अर्थनीति से इतनी दूर चले गये हैं कि अब हम इस परिघटना से आगे कुछ भी नहीं देख पाते हैं कि एक घर का उत्तरोत्तर कई गुना भुगतान थोक किराये के द्वारा हो जाता है। चुँकि हम कानूनी भाषा में सोच और बोल रहे हैं, हम इस परिघटना पर अधिकार को, न्याय को नापने वाली छड़ी का इस्तेमाल करते हैं और पाते हैं कि यह अन्याय है, यह “अधिकार पर क्रांति की अवधारणा” से मेल नहीं खाता है (जो भी इसका अर्थ हो) और इसलिये कानूनी हक सही नहीं है। हम यह भी पाते हैं कि यह बात व्याज-देने-वाली-पूंजी एवं पट्टे पर दी गई कृषि-भूमि पर भी लागू होती है, और अब हमारे पास इन सम्पत्तियों को सम्पत्ति के अन्य वर्गों से अलग करने और अपवादात्मक बर्ताव करने का बहाना है। यह बर्ताव इन मांगों में है: 1) मालिक को उसकी सम्पत्ति छोड़ने की सूचना किरायेदार को देने के अधिकार से, अपनी सम्पत्ति वापस मांगने के अधिकार से वंचित करना; 2) पट्टेदार, कर्जदार या किरायेदार को जो चीज अन्तरित की गई लेकिन जो उनकी नहीं हुई उसे मुफ्त इस्तेमाल करने देना; और 3) मालिक को एक लम्बी अवधि तक किश्तों में चुकाना बिना किसी व्याज के। और इसी के साथ हम इस पहलु पर प्रुधोंवादी “सिद्धांतों” को खाली कर चुके होते हैं। यही है प्रुधों का “सामाजिक विघटन”।      
प्रसंगवश, यह जाहिर है कि सुधार की पूरी योजना कहा जाय तो विशेष तौर पर टुटपूंजियों एवं छोटे किसानों को लाभ पहुँचाने के लिये है क्योंकि ये योजनायें उनकी टुटपूंजिया एवं छोटे किसान के रूप में स्थिति को मजबूत बनाती है। इस तरह “टुटपूंजिया प्रुधों” जो मुलबर्गर के अनुसार एक पौराणिक पात्र हैं, अचानक यहाँ अत्यधिक मूर्त ऐतिहासिक अस्तित्व में आ जाते हैं।
मुलबर्गर आगे बढ़ते हैं:
“जब मैं प्रुधों के साथ कहता हूँ कि समाज के आर्थिक जीवन में अधिकार की एक अवधारणा व्याप्त होना चाहिये, मैं आज के समाज का वर्णन इस रूप में कर रहा हूँ जहाँ, यह सच है कि सभी तरह के अधिकारों की अवधारणायें अनुपस्थित नहीं हैं लेकिन क्रांति के अधिकार की अवधारणा अनुपस्थित है और इस बात को एंगेल्स खुद भी स्वीकारेंगे।”89
दुर्भाग्य से मैं मुलबर्गर पर यह एहसान करने की स्थिति में नहीं हूँ। मुलबर्गर मांग करते हैं कि समाज अधिकार की एक अवधारणा व्याप्त होना चाहिये और इस मांग को वर्णन कहते हैं। अगर कोई अदालत किसी ॠण की अदायगी का सम्मन के साथ एक कारिंदा को मेरे पास भेजे, तो, मुलबर्गर के मुताबिक, अदालत बस एक ऐसे आदमी के रूप में मेरा वर्णन कर रहा है जो अपना कर्ज नहीं चुकाता है, और कुछ नहीं! वर्णन एक चीज है और एक ढीठ मांग दूसरी चीज। और ठीक यहीं पर जर्मन वैज्ञानिक समाजवाद एवं प्रुधों के बीच की मूलभूत भिन्नता है। मुलबर्गर जो भी कहें, किसी भी चीज का वास्तविक वर्णन उस चीज की व्याख्या भी होती है। आर्थिक सम्बन्ध जिस तरह के हैं और जिस तरह वे विकसित हो रहे हैं, हम [जर्मन वैज्ञानिक समाजवादी – अनु॰] उन दोनों प्रकार का वर्णन करते हैं, और हम सबूत पेश करते हैं – कठोर रूप से अर्थशास्त्रीय – कि उनका विकास साथ ही साथ, सामाजिक क्रांति के तत्वों का भी विकास है। एक तरफ एक वर्ग, सर्वहारा, का विकास जिसके जीवन की परिस्थितियाँ आवश्यक तौर पर उसे सामाजिक क्रांति के लिये प्रेरित करती है, दूसरी तरफ, उत्पादक शक्तियों का विकास, जो पूंजीवादी समाज के ढाँचे की सीमाओं से आगे बढ़ने के बाद, आवश्यक तौर पर उस ढाँचे को तोड़ देता है। साथ ही साथ वह, सामाजिक प्रगति के हित में एकबारगी के लिये वर्ग-भेदों को मिटाने का साधन मुहैया करता है। प्रुधों इसके विपरीत, मौजूदा समाज से यह मांग करते हैं कि यह खुद को, आर्थिक विकास के इसके अपने नियमों के अनुसार नहीं बल्कि न्याय के नीतिवचनों (“अधिकार की अवधारणा” वाला मुहावरा प्रुधों का नहीं बल्कि मुलबर्गर का है) के अनुसार बदल डाले। जहाँ हम साबित करते हैं, प्रुधों और उनके साथ मुलबर्गर, उपदेश देते हैं और विलाप करते हैं।
“क्रांति के अधिकार की अवधारणा” किस प्रकार की चीज है, इसका अनुमान करने में मैं पूर्णतया असमर्थ हूँ। यह सही है कि प्रुधों “उस क्रांति” की देवी जैसी कुछ बनाते हैं जो उनके “न्याय” की वाहिका एवं कार्यनिष्पादिका होती है। ऐसा करने में वह सन 1789-94 की पूंजीवादी क्रांति को आनेवाली सर्वहारा क्रांति के साथ मिला देने की अजीब सी गलती कर बैठते हैं। अपनी लगभग सभी रचनाओं में, खास कर सन 1848 के बाद से, वह ये गलती करते हैं। उदाहरण के तौर मैं सिर्फ एक उद्धरण दूंगा – आइडिए जेनेराले द ला रिवोल्युशन के सन 1868 के संस्करण का पृष्ठ 39 और 40। हालाँकि, चूंकि मुलबर्गर प्रुधों की सभी एवं सारी जिम्मेवारी अस्वीकार करते हैं, मेरे पास प्रुधों की रचनाओं से, “क्रांति के अधिकार की अवधारणा” की व्याख्या करने की अनुमति नहीं है, फलस्वरूप गहन अंधकार में हूँ।
मुलबर्गर आगे कहते हैं:
“लेकिन न मैं और न प्रुधों मौजूदा अन्यायपूर्ण परिस्थितियों की व्याख्या के लिये ‘श्वाश्वत न्याय’ के नाम से अपील करता हूँ, या इस न्याय के नाम अपील करके इन परिस्थितियों की बेहतरी की उम्मीद करता हूँ, जैसा कि एंगेल्स मेरे जुबान का हवाला देते हैं।”
मुलबर्गर जरूर अपने इस विचार पर भरोसा कर रहे होंगे कि “जर्मनी में प्रुधों सामान्यत: अज्ञात जैसे ही हैं”। उनकी सभी रचनाओं में प्रुधों अपने “न्याय” की छड़ी लिये हुये सारी सामाजिक, कानूनी, राजनीतिक एवं धार्मिक प्रस्तावों90 को नापते हैं, तथा वह जिसे “न्याय” कहते हैं उसके अनुरूप होने या न होने के अनुसार उन्हे या तो खारिज करते हैं या पहचानते हैं। कॉन्ट्राडिक्शन्स इकॉनोमिक्स 91 तक यह न्याय “श्वाश्वत न्याय” कहलाता है। बाद में शाश्वत के बारे में कुछ और नहीं कहा जाता है लेकिन विचार का साररूप रह जाता है। उदाहरण के तौर पर, द ला दान्स ला रिवोल्युशन एत दान्स ल’इगलिसे [क्रांति एवं गिर्जा में न्याय पर – अनु॰] के सन 1858 संस्करण में निम्नलिखित अंश पूरे तीन खण्डों के उपदेश का कथ्य है (खण्ड 1, पृष्ठ 42):
“समाजों का आधारभूत, जैविक, नियंत्रक एवं संप्रभु सिद्धांत क्या है, वह सिद्धांत जो सभी दूसरों को खुद के अधीन कर लेता है, जो शासन करता है, सुरक्षा देता है, दमन करता है, सजा देता है और जरूरत पड़ने पर विद्रोही तत्वों को कुचल भी देता है? क्या वह धर्म है, या आदर्श या हित?… मेरी राय में वह न्याय का सिद्धांत है। -- न्याय क्या है? यह मानवता का खास सारवस्तु है। दुनिया की शुरूआत से यह क्या है? कुछ नहीं। -- इसे होना क्या चाहिये? सबकुछ।”
वह न्याय जो कि मानवता का खास सारवस्तु है, अगर शाश्वत न्याय नहीं तो और क्या है? वह न्याय जो जैविक, नियंत्रक, संप्रभु आधारभूत सिद्धांत है समाजों का, जो अभी तक खैर कुछ हुआ नहीं है लेकिन सबकुछ होना चाहिये – क्या है वह अगर सारे मानवीय मामलों को नापने की छड़ी नहीं है, अन्तिम पंच नहीं है जिसके पास सारे टकरावों में अपील करना होगा? और क्या मैं इसके अलावा और कुछ दावा किया था कि सारे आर्थिक सम्बन्धों को आर्थिक नियमों के बजाय इस बात से आँक कर कि वे इस शाश्वत न्याय की अवधारणा के अनुरूप हैं या नहीं, प्रुधों अपनी आर्थिक अज्ञानता एवं असहायता को ढक लेते हैं? और क्या भिन्नता है मुलबर्गर और प्रुधों में अगर मुलबर्गर मांग करते हैं कि “आधुनिक समाज के जीवन के इन सारे आदान-प्रदानों” में “कहा जाय तो अधिकार की एक अवधारणा व्याप्त” होनी चाहिये; ये आदान-प्रदान “सभी जगहों पर न्याय की कठोर मांग के अनुरूप किये जाने चाहिये92? क्या मैं पढ़ना नहीं जानता हूँ या मुलबर्गर लिखना नहीं जानते हैं?
मुलबर्गर आगे और कहते हैं:
“प्रुधों मार्क्स और एंगेल्स जैसा ही अच्छी तरह जानते हैं कि मानव समाज में वास्तविक चालक प्रवृत्ति आर्थिक सम्बन्धों से बनती है न कि न्यायिक सम्बन्धों से; वह यह भी जानते हैं कि किसी जनता में मौजूद अधिकार की अवधारणायें सिर्फ आर्थिक सम्बन्धों के अभिव्यक्ति, चिन्ह एवं उपज है – विशेष कर उत्पादन के सम्बन्धों के … एक शब्द में, प्रुधों का अधिकार ऐतिहासिक तौर पर विकसित आर्थिक उपज है।”
अगर प्रुधों यह सब कुछ जानते हैं (मुलबर्गर द्वारा इस्तेमाल की गई सारी अस्पष्ट अभिव्यक्तियों को मैं रास्ता देने को एवं उपरोक्त बातों में निहित उनके अच्छे इरादों को ग्रहण करने को तैयार हूँ), अगर प्रुधों यह सब कुछ “मार्क्स और एंगेल्स जैसा ही अच्छी तरह” जानते हैं तो झगड़े के लिये क्या बचता है? मुश्किल यह है प्रुधों की ज्ञान सम्बन्धित स्थिति कुछ भिन्न है। किसी समाज के आर्थिक सम्बन्ध सबसे पहले हितों के रूप में सामने आते हैं। अब, प्रुधों की प्रधान रचना से उद्धृत किये गये अंश में प्रुधों शब्द-संभार के साथ कहते हैं कि “समाजों का नियंत्रक, जैविक, संप्रभु आधारभूत सिद्धांत, वह सिद्धांत जो सभी अन्य को अपने अधीन करता है” हित नहीं बल्कि न्याय है। और यह बात वह अपनी सभी रचनाओं के निर्णायक अंशों में दोहराते हैं, जिसके चलते मुलबर्गर आगे बढ़ने से रुक नहीं पाते:
“आर्थिक अधिकार का विचार, जिसे सर्वाधिक गहनता के साथ प्रुधों द्वारा ला ग्वेरे एत ला पैक्स [युद्ध एवं शांति – अनु॰] में विकसित किया गया था, लासाल के उन मूलभूत विचारों के साथ पूरी तरह मेल खाता है जिन्हे लासाल ने सिस्टेम डेर एर्वोर्नेन रेख्त [अर्जित अधिकारों की व्यवस्था – अनु॰] के प्राक्कथन में उत्कृष्ट तरीके से अभिव्यक्त किया गया है।”
ला ग्वेरे एत ला पैक्स शायद प्रुधों के अनेकों बालसुलभ रचनाओं में से सर्वाधिक बालसुलभ है। लेकिन मैंने कभी उम्मीद नहीं की थी कि इस रचना को प्रुधों की, इतिहास की जर्मन भौतिकतावादी अवधारणा की समझ के सबूत के रूप में पेश किया जायेगा। इतिहास की जर्मन भौतिकतावादी अवधारणा सभी ऐतिहासिक घटनाओं एवं विचारों, पूरी राजनीति, दर्शन एवं धर्म की व्याख्या, आलोच्य ऐतिहासिक काल के जीवन की भौतिक, आर्थिक स्थितियों से करती है। उपरोक्त पुस्तक इतना कम भौतिकतावादी है कि युद्ध की अवधारणा का निर्माण भी, बनाने वाले विधाता की मदद के बिना कर नहीं पाता है”
“हालाँकि, जिसने हमारे लिये जीवन के इस रूप को चुना, उस बनाने वाले के अपने उद्देश्य थे।” [खण्ड II, पृष्ठ 100, 1869 संस्करण]
किस तरह के ऐतिहासिक ज्ञान पर यह पुस्तक आधारित था इसका निर्णय इस तथ्य से हो सकता है कि यह पुस्तक ‘स्वर्णयुग’ के ऐतिहासिक अस्तित्व पर विश्वास करता है:      
“प्रारंभ में, जब तक मानव जाति का फैलाव पृथ्वी की सतह पर विरल था, प्रकृति इसकी जरूरतों की आपुर्ति बिना कठिनाई के करती थी। यह स्वर्णयुग था, शांति और प्राचुर्य का युग।” (उपरोक्त, पृष्ठ 102)
पुस्तक की आर्थिक समझ सबसे घटिया मैल्थसवाद है:
“जब उत्पादन दोगुना हो जायेगा, जनसंख्या भी जल्द ही दोगुनी हो जायेगी” (पृष्ठ 106)93
तो फिर किस बात में है इस पुस्तक की भौतिकतावाद? इसी घोषणा में कि युद्ध का कारण हमेशा से रही है “कंगाली”, और आगे भी रहेगी (उदहरणस्वरूप पृष्ठ 143)। चाचा ब्रासिग भी उतने ही पहुँचे हुये भौतिकतावादी थे जब सन 1848 के भाषण में उन्होने शांत भाव ये भव्य शब्दों के उच्चारण किये थे: “भयंकर गरीबी का कारण है भयंकर गरीबी [फ्रांसिसी भाषा में – अनु॰]
लासाल रचित सिस्टेम डेर एर्वोर्नेन रेख्त [अर्जित अधिकारों की व्यवस्था] में न सिर्फ एक न्यायशास्त्री की, बल्कि एक पुराने हेगेलवादी की भी भ्रांतियों के छाप हैं। पृष्ठ VII में, लासाल प्रत्यक्षत: घोषित करते हैं कि “अर्थनीति में” भी “अर्जित अधिकारों की अवधारणा आगे की पूरी विकास की चालक शक्ति है” और वह साबित करने का प्रयास करते हैं (पृष्ठ XI) कि “अधिकार, खुद में से विकसित होता हुआ एक तार्किक जीव है” (यानि, आर्थिक पूर्वशर्तों से नहीं)। लासाल के लिये यह अधिकार को, आर्थिक सम्बन्धों से नीत होने का सवाल नहीं था बल्कि
“ईच्छा की उस अवधारणा से, कानून का दर्शन [अधिकार – रेख्ट्सफिलॉसोफी] बस जिसका विकास एवं प्रतिपादन है” (पृष्ठ XII)
पाने का सवाल था। तो, यहाँ यह पुस्तक कहाँ पहुँचता है? प्रुधों एवं लासाल में एक मात्र फर्क है कि लासाल वास्तविक न्यायशास्त्री एवं हेगेलवादी थे जबकि अन्य सभी मामलों की तरह न्यायशास्त्र में भी और दर्शनशास्त्र में भी प्रुधों मात्र एक पल्लवग्राही थे।
मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि यह आदमी प्रुधों, जो लगातार अन्तर्विरोधी बात कहने के लिये कुख्यात है, कभी-कभार एकाध उक्ति ऐसा कर लेता है कि देखने से लगता है गोया वह तथ्यों के आधार पर विचारों की व्याख्या कर रहा  हो। लेकिन जब उनके चिन्तन की बुनियादी प्रवृत्ति के विपरीत वैसी उक्तियाँ महत्वहीन हैं। साथ ही, वैसी उक्तियाँ जहाँ हैं भी, बेहद उलझी हुई एवं भीतर से विसंगतिपूर्ण हैं।
समाज के विकास के एक विशेष, बहुत आदिम चरण में, उत्पादन, वितरण एवं उत्पादों के विनिमय के, प्रतिदिन की आवर्ती क्रियाओं को एक सामान्य नियम के अन्तर्गत लाने की आवश्यकता उत्पन्न होती है ताकि व्यक्ति खुद को उत्पादन एवं विनिमय के सामान्य शर्तों के अधीन करे। यह नियम, जो पहले एक प्रथा होती है, जल्द ही कानून बन जाती है। कानून के साथ, आवश्यक तौर पर वे अंग पैदा होते हैं जिनका कार्यभार उस कानून का अनुपालन हो – लोक-प्राधिकरण, राज्यसत्ता। और अधिक सामाजिक विकास के साथ, कानून कमोबेश एक विस्तृत न्यायिक व्यवस्था में विकसित होती है। यह न्यायिक व्यवस्था जितनी जटिल होती जाती है, इसकी अभिव्यक्तियाँ, समाज के जीवन की सामान्य स्थितियों की अभिव्यक्तियों से उतनी ही अलग होती जाती हैं। यह एक स्वतंत्र तत्व प्रतीत होता है जो अपने अस्तित्व का औचित्य एवं आगे के विकास का प्रमाणीकरण आर्थिक सम्बन्धों से नीत नहीं बल्कि इसके अपने आन्तरिक बुनियादों से या, अगर आपको अच्छा लगे तो, “ईच्छा की अवधारणा” से नीत होता है। लोग भूल जाते हैं कि उनके अधिकार, जीवन की आर्थिक स्थितियों से नीत होते हैं, जिस तरह वे ये भी भूल गये हैं कि वे खुद पशुजगत से नीत हुये हैं। कानूनी व्यवस्था के एक जटिल, विस्तृत पूर्णता में विकसित होने के साथ साथ श्रम का एक नया सामाजिक विभाजन जरूरी हो जाता है; पेशेवर न्यायशास्त्रियों का एक प्रकार विकसित होता है और इन सब के साथ न्यायिक विज्ञान अस्तित्व में आता है। इसके आगे के विकास में यह विज्ञान विभिन्न जनसमूहों एवं विभिन्न कालखण्डों की न्यायिक व्यवस्थाओं की तुलना करता है, लेकिन उन जनसमूहों या कालखण्डों के अलग अलग आर्थिक सम्बन्धों के प्रतिफलन के रूप में नहीं, बल्कि ऐसी व्यवस्थाओं के रूप में जो अपना प्रमाणीकरण खुद में प्राप्त कर लेते हैं। यह तूलना, समान बिन्दुओं का अनुमान कर लेता है और, कमोबेश उन सभी न्यायिक व्यवस्थाओं में समान बिन्दुओं को संग्रह करते हुये एवं उन्हे नैसर्गिक अधिकार नाम देते हुये, न्यायशास्त्री उन्हे खोजते हैं। और, यह नापने के लिये कि नैसर्गिक अधिकार क्या है अथवा क्या नहीं है, जो छड़ी वे इस्तेमाल करते हैं वह अधिकार की ही सबसे अधिक अमूर्त अभिव्यक्ति होती है, जिसे न्याय कहा जाता है। फलस्वरूप इसके बाद, न्यायशास्त्रियों के लिये एवं उनलोगों के लिये जो न्यायशास्त्रियों के बोल को ही सबकुछ मानते हैं, अधिकार का विकास बस मानवीय परिस्थितियों को - जहाँ तक वे न्यायिक शब्दावलियों में अभिव्यक्त होती हैं - न्याय के, शाश्वत न्याय के आदर्श के करीब ले आने के प्रयास के अलावा कुछ भी नहीं होता है। और हमेशा यह न्याय मौजूदा आर्थिक सम्बन्धों की विचारधारात्मक, आदर्शकृत अभिव्यक्ति होती है – कभी रूढ़िवादी दृष्टिकोण से तो कभी क्रांतिकारी दृष्टिकोण से। यूनानी एवं रोमकों का न्याय दासप्रथा को न्यायपूर्ण मानता था; सन 1789 में पूंजीवादियों का न्याय सामन्तवाद का खात्मा इस आधार पर मांगा कि वह अन्यायपूर्ण था। प्रुशियाई जुंकर [सैन्यशाही अभिजात – अनु॰] के लिये जिलों की तुच्छ नियमावली भी शाश्वत न्याय का उल्लंघन है।94 इसलिये, शाश्वत न्याय की अवधारणा न सिर्फ स्थान और काल के साथ बल्कि सम्बन्धित लोगों के साथ भी बदलती जाती है, और यह अवधारणा उन चीजों में शामिल है जिनके बारे में मुलबर्गर सही कहते हैं कि “सभी थोड़ा अलग समझते हैं”। प्रतिदिन के जीवन में, विवेचित सम्बन्धों के मद्देनजर, सही, गलत, न्याय एवं अधिकार के बोध जैसी अभिव्यक्तियाँ, सामाजिक मुद्दों के प्रसंग में भी बिना किसी गलतफहमी के स्वीकार की जाती हैं। लेकिन, जैसा कि हमने देखा, आर्थिक सम्बन्धों के वैज्ञानिक अनुसंधान में वे अभिव्यक्तियाँ उतनी ही लाचार उलझनें पैदा करेंगी जितना, उदाहरण के तौर पर आधुनिक रसायनविज्ञान के अनुसंधान में पैदा होंगे अगर फ्लॉगिस्टन सिद्धांत की पारिभाषिक शब्दावली बनाये रखे जायें। उलझनें और भी बुरी होंगी अगर कोई, प्रुधों जैसा इस “न्याय” सरीखे सामाजिक फ्लॉगिस्टन में विश्वास करे, या कोई, मुलबर्गर जैसा निश्चय के साथ कहे कि फ्लॉगिस्टन सिद्धांत उतना ही सही है जितना ऑक्सिजेन का सिद्धांत।95


[क्रमश:]
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82- देखें यही खण्ड, पृ॰320-21 - स॰र॰स॰
83- ए॰ मूलबर्गर, “ज़ुर वोनांग्सफ्राज”, डेर वोकस्टाट, अंक 86, अक्तूबर 26, 1872 – स॰र॰स॰
84- डेर वोकस्टाट में वाक्य का यह भाग यूँ लिखा है: “एक बार किराये पर लग जाने के बाद घर इसके निर्माता को किराये के रूप में भूमि-किराया, मरम्मत का लागत, और निवेशित निर्माण पूंजी पर मुनाफा देता है”। - स॰र॰स॰
85- “और मुनाफे” यह दो शब्द एंगेल्स द्वारा 1887 संस्करण में जोड़े गये।
86- डेर वोकस्टाट में है “तेजी से बढ़ते बड़े शहरों में” - स॰र॰स॰  
87- यहाँ फ्रेडरिक एंगेल्स रचित जुर वोनांग्सफ्राज, भाग 1, लाइपजिग, 1872 के अलग पुनर्मुद्रण की चर्चा है (देखें यही खण्ड, पृ॰ 318) - स॰र॰स॰
88- देखें यही खण्ड, पृ॰ 327 – स॰र॰स॰
89- यहाँ और आगे, एंगेल्स ए॰ मुलबर्गर के “ज़ुर वोनांग्सफ्राज”, डेर वोकस्टाट, अंक 86, अक्तूबर 26, 1872 से उद्धृत करते हैं - स॰र॰स॰
90- डेर वोकस्टाट में छपा है “सारी सामाजिक, कानूनी एवं राजनीतिक परिस्थितियाँ, सारे सैद्धांतिक, दार्शनिक एवं धार्मिक प्रस्ताव” – स॰र॰स॰
91- संदर्भित है पी॰जे॰प्रुधों, सिस्तियेम द कॉन्ट्राडिक्शन्स इकॉनोमिक्स, अ फिलॉसोफी द ला मिजेरे - स॰र॰स॰
92- तुलना करें, यह खण्ड, पृ॰ 322 - स॰र॰स॰
93- एंगेल्स की पांडुलिपियों में वे अंश बचे हैं जो उन्होने सन 1873 की शुरुआत में प्रुधों रचित ला ग्वेरे एत ला पैक्स (सन 1869 में प्रकाशित) से उद्धृत किया था। उस समय वह आवास के प्रश्न के भाग III की रचना में मग्न थे। एंगेल्स ने इन उद्धरणों के साथ अपनी टिप्पणियाँ भी जोड़ी थी जिनमें उन्होने प्रुधों के आदर्शवादी नजरिये पर, सामाजिक विकास के नियमों के बारे में प्रुधों की गलतफहमी पर एवं प्रुधों के धृष्ट निराधार रायों पर जोर डाला था। “हर जगह पर, सबूत और चिंतन के विकास के बदले धृष्टता है और सिर्फ दावा है,” एंगेल्स ने लिखा। सामाजिक गैरबराबरी के उद्भव की प्रुधों-कृत व्याख्या पर एंगेल्स ने कहा, “आर्थिक एवं ऐतिहासिक विकास के नियमों से नहीं, बल्कि युद्ध सहित अन्य सभी मामलों की तरह, मनोवैज्ञानिक कारणों से निगमित किया गया है …” एंगेल्स ने यह भी दर्शाया कि प्रुधों का जनसंख्या का सिद्धांत मैल्थस के उस झूठे मत के करीब है जो कहता है कि नैसर्गिक कारणों से जनसंख्या, जीवनधारण के साधनों की तुलना में अधिक गति से बढ़ती है, और, इसीलिये दलील देता है कि श्रमजीवी जनता के कष्ट की व्याख्या सामा्जिक स्थितियों से नहीं की जा सकती है।
94- प्रुशिया, ब्रन्डेनबर्ग, पमेरानिया, पोसेन, साइलेसिया एवं सैक्सनी के प्रदेशों के लिये जिला नियमावली दिसम्बर 1872 में गृहित हुये थे और प्रुशिया के प्रशासनिक सुधार के हिस्से थे। इस नियमावली ने जुंकरों के मौरूसी ताकत को खत्म कर दिया था एवं स्थानीय स्वशासन के कुछेक तत्वों को लागू किया था (समुदाय के मुखियों को चुने जाने के नियम बने एवं सरकारी अधिकारियों के अधीन जिला परिषद बनाये गये)। सुधार का लक्ष्य था, सामान्यत: जुंकरों के हित में जुंकर-पूंजीवादी राज्यसत्ता का अधिकतर केन्द्रीकरण और वास्तव में उस वर्ग के सभी व्यक्ति-प्रतिनिधियों की सुविधायें सुरक्षित रखे गये। उन्हे स्थानीय स्वशासन के सभी दफ्तरों में चुने जाने या नामित किये जाने या अपने आश्रितों को वहाँ बिठाने के अवसर दिये गये। फिर भी रूढ़िवादी कुलीनों एवं भूस्वामी अभिजातों ने, खास कर प्रुशियाई उच्च सदन में, सुधारों का जोरदार प्रतिरोध किया। विशद विवरण देखें एंगेल्स रचित “प्रुशिया का ‘संकट’ निबंध में (यही खण्ड, पृ॰ 400-05)
95- ऑक्सिजेन के आविष्कार के पहले रसायनशास्त्री, वायुमंडलीय हवा में पदार्थों के जलने की व्याख्या, फ्लॉगिस्टन नाम के एक विशेष दाह्य पदार्थ के अस्तित्व को मान कर करते थे जो दहन की प्रक्रिया के दौरान निकल जाता था। चूंकि उन्होने पाया कि दहन में साधारण पदार्थ का वजन जलने के उपरांत, जलने के पहले से अधिक हो जाता है, उन्होने घोषणा किया कि फ्लॉगिस्टन का वजन ॠणात्मक है और इसीलिये कोई पदार्थ उसके फ्लॉगिस्टन के साथ कम वजन का होता है जबकि उसके बिना अधिक। इस तरह ऑक्सिजन के सारे मुख्य गुण धीरे धीरे फ्लॉगिस्टन के नाम होते रहे, लेकिन उल्टे रूप में। यह आविष्कार कि जलने वाले पदार्थ का एक अन्य पदार्थ के साथ जुड़ना ही दहन होता हैं और उस ऑक्सिजन का आविष्कार मूल मान्यता को समाप्त कर दिया - लेकिन पुराने रसायनशास्त्रियों के दीर्घकालीन प्रतिरोध के उपरांत ही।


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