III
मुलबर्गर आगे शिकायत
करते हैं कि उनके “दृढ़” कथन,
“हमारी प्रशंसित सदी की पूरी संस्कृति का, इस तथ्य से अधिक भयानक उपहास
कुछ हो नहीं सकता कि बड़े शहरों में आबादी के 90 प्रतिशत या उससे अधिक के पास कोई जगह
नहीं है जिसे वे अपनी कह सकें”96
को मैंने प्रतिक्रियावादी
विलाप कहा। स्पष्ट करना जरूरी है: अगर मुलबर्गर, जैसा कि वह छल करते हैं, खुद को “वर्तमान
समय की भयावहताओं” के वर्णन तक सीमित रखते तो निश्चित ही मुझे “उनके या उनके शालीन
शब्दों” के बारे में एक भी बुरा शब्द कहना नहीं चाहिये होता। लेकिन, सच्चाई यही है
कि वह कुछ अलग ही करते हैं। वह इन “भयावहताओं” का वर्णन इस तथ्य के परिणामस्वरूप
करते हैं कि श्रमिकों के पास “कोई जगह नहीं है जिसे वे अपनी कहें”। कोई इस कारण से
“वर्तमान समय की भयावहताओं” का वर्णन करे कि आवासों पर श्रमिकों की मिल्कियत खत्म हो
चुकी है या इस कारण से, जैसा कि जुंकर करते हैं, कि सामन्तवाद एवं संघ [शिल्पी या कारिगरों
का – अनु॰] खत्म हो गये हैं, दोनों ही स्थिति में इससे प्रतिक्रियावादी विलाप के अलावा
- अनिवार्य के, ऐतिहासिक तौर पर आवश्यक के आने पर शोक के गीत के अलावा कुछ भी पैदा
नहीं हो सकता है। इसका प्रतिक्रियावादी चरित्र ठीक इस तथ्य में है कि मुलबर्गर श्रमिकों
के लिये व्यक्तिगत गृह-स्वामित्व पुनर्स्थापित करना चाहते हैं; यह एक ऐसा मामला है
जिसे इतिहास ने काफी पहले खत्म कर दिया है। दोबारा उन सभी को अपने घरों के मालिक बनाने
के अलावे मुलबर्गर श्रमिकों की मुक्ति का कोई दूसरा मार्ग नहीं सोच पाते।
और आगे:
“मैं दृढ़ता के साथ घोषणा करता हूँ कि पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के
खिलाफ वास्तविक संघर्ष में उतरना पड़ेगा; इसके बदलाव से ही आवासीय स्थितियों
की बेहतरी की उम्मीद की जा सकती है। एंगेल्स यह सब देख ही नहीं पाते … मैं मानता हूँ
कि सामाजिक प्रश्न के पूर्ण समाधान होने के बाद ही किराये के आवासों की समाप्ति की
ओर अग्रसर होने में हम सक्षम होंगे।”97
दुर्भाग्य से, अभी भी
मैं इन सभी बातों का कुछ भी नहीं देख पा रहा हूँ। जिनका नाम मैंने कभी नहीं सुना, वैसे
किसी व्यक्ति ने अपने मन के गुप्त तहों में क्या मान रखा है उसे जान पाना निश्चित ही
मेरे लिये असम्भव है। मैं सिर्फ मुलबर्गर के छपे हुये आलेखों में सीमित रह सकता हूँ।
और उनमें मुझे आज भी दिखता है कि (पुनर्मुद्रण का पृष्ठ 15 एवं 16) मुलबर्गर, किराये
के आवासों के खात्मे की ओर बढ़ने के लिये, सिवाय किराये के आवासों के, किसी भी दूसरी
बात का पूर्वानुमान नहीं करते। सिर्फ पृष्ठ 17 में वह “पूंजी की उत्पादकता को सिंग
से” पकड़ते हैं, जिस पर हम बाद में लौट आयेंगे। अपने उत्तर में भी वह अपनी बात की पुष्टि
करते हैं जब वह कहते हैं:
“बल्कि यह दिखाने का सवाल था कि किस तरह मौजूदा स्थितियों से
आवास के प्रश्न में पूरा बदलाव लाया जा सकता है।”
मौजूदा स्थिति से और
पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के बदलाव (पढ़ें: अन्त) से निश्चय ही दो बिल्कुल विपरीत बातें
हैं।
श्रमिकों को उनका अपना
आवास प्राप्त कराने के लिये एम॰डॉलफस एवं अन्य कारखानादारों के परोपकारी प्रयासों को
जब मैं, प्रुधोंवादी परिकल्पनाओं का एकमात्र सम्भव व्यवहारिक सम्पादन मानता हूँ तो
कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मुलबर्गर शिकायत करते हैं। अगर वह समझ जाते कि समाज
की मुक्ति के लिये प्रुधों की योजना पूरी तरह पूंजीवादी समाज पर आधारित एक कल्पकथा
है, तो वह स्वाभाविक तौर पर इस पर विश्वास नहीं करते। मैंने कभी भी उनके अच्छे इरादों
पर सवाल नहीं उठाया। लेकिन फिर क्यों वह डा॰ रेशॉअर98 का इस बात के लिये
तारीफ करते हैं कि डा॰ रेशॉअर ने वियेना सिटी काउंसिल को डॉलफस की परिकल्पनाओं
का नकल करने का प्रस्ताव दिया?
मुलबर्गर आगे चल कर घोषणा
करते हैं:
“जहाँ तक खास कर शहर एवं गाँव के बीच की प्रतिपक्षता का सवाल है, इसका
अन्त चाहना आदर्शलोकीय है। यह प्रतिपक्षता नैसर्गिक है, या और सही ढंग से कहा जाय तो ऐतिहासिक तौर
पर उत्पन्न हुआ है।… सवाल इस प्रतिपक्षता का अन्त करने का नहीं, उन राजनीतिक
एवं सामाजिक रूपों को ढूँढ़ने का है जहाँ वह प्रतिपक्षता हानिरहित होगी, बल्कि
यहाँ तक कि फलदायक भी होगी। इस तरह एक शांतिपूर्ण सामंजस्य, हितों का एक उत्तरोत्तर
संतुलन की उम्मीद करना सम्भव होगा।”
तो, शहर एवं गाँव के
बीच की प्रतिपक्षता की समाप्ति आदर्शलोकीय है क्योंकि यह प्रतिपक्षता नैसर्गिक
है, या और सही ढंग से कहा जाय तो ऐतिहासिक तौर पर उत्पन्न हुआ है। चलिये, इस तर्क को
हम आधुनिक समाज की दूसरी विषमताओं पर लागू करें और देखें कि हम कहाँ पहुँचते हैं। उदाहरण
के तौर पर, “जहाँ तक खास तौर पर” पूंजीपतियों एवं मजदूरों “के बीच प्रतिपक्षता का सवाल
है, इसका अन्त चाहना आदर्शलोकीय है। यह प्रतिपक्षता नैसर्गिक है, या और सही ढंग से
कहा जाय तो ऐतिहासिक तौर पर उत्पन्न हुआ है। सवाल इस प्रतिपक्षता का अन्त करने
का नहीं, उन राजनीतिक एवं सामाजिक रूपों को ढूंढ़ने का है जिसमें यह हानिरहित होगी,
बल्कि यहाँ तक कि फलदायक भी होगी। इस तरह एक शांतिपूर्ण सामंजस्य, हितों का एक उत्तरोत्तर संतुलन की
उम्मीद करना सम्भव होगा।”
और इसके साथ हम फिर शुल्ज़-डेलिश
के पास पहुँच गये।
शहर एवं गाँव के बीच
की प्रतिपक्षता का अन्त, पूंजीपति एवं मजदूरों के बीच की प्रतिपक्षता के अन्त से न
तो ज्यादा और न कम आदर्शलोकीय है। दिन प्रति दिन यह, औद्योगिक एवं कृषि उत्पादन का
अधिकाधिक व्यवहारिक मांग बनता जा रहा है। सबसे ज्यादा ऊर्जा के साथ लीबिग ने, कृषि
के रसायनशास्त्र पर अपनी रचनाओं में इस मांग को उठाया है। उनकी पहली मांग हमेशा से
रही है कि आदमी जमीन से जितना प्राप्त करता है उतना जमीन को वापस करे; इस मांग को प्रस्तुत
करते हुये वह साबित करते हैं कि शहरों की, खास कर बड़े शहरों की मौजूदगी इसे रोकता है।99
जब कोई गौर करता है कि लन्दन में, सैक्सनी के पूरे राजत्व से अधिक मात्रा में उत्पन्न
खाद प्रति दिन भारी रकम के खर्च पर समन्दर में उड़ेल दिया जाता है और कितने भारी भरकम
ढाँचे जरूरी होते हैं इस खाद को पूरे लन्दन में जहर फैलाने से रोकने के लिये, तब शहर
और गाँव के बीच की प्रतिपक्षता के अन्त के आदर्शलोक को उल्लेखनीय व्यवहारिक आधार मिल
जाता है। यहाँ तक कि तुलनात्मक तौर पर महत्वहीन बर्लिन का भी कम से कम तीस वर्षों से,
अपनी ही गंदगी के दूषित गंध से दम घुट रहा है। दूसरी ओर, प्रुधों की तरह, किसानों को
ज्यों का त्यों रखते हुये वर्तमान पूंजीवादी समाज में उथल-पुथल चाहना पूर्णत: आदर्शलोकीय
है। अगर पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का अन्त हो जाय तो पूरे देश में जहाँ तक सम्भव आबादी
का समरूप वितरण, औद्योगिक एवं कृषि उत्पादन के बीच नजदीकी सम्पर्क एवं साथ ही, उसके
चलते संचार के साधनों का आवश्यक होता विस्तार, ग्रामीण आबादी को उस अलगाव एवं जड़ता
से मुक्त करेगा जिसमें वह हजारों वर्ष से लगभग एक ही तरह से निरर्थक जीवन जीती रही
है। आदर्शलोकीय होने का मतलब यह मानना नहीं है कि अपनी ऐतिहासिक अतीत द्वारा गढ़ी गई
जंजीरों से मानवता की मुक्ति तभी पूरी होगी जब शहर एवं गाँव के बीच की प्रतिपक्षता
का अन्त हो जायेगा; आदर्शलोक तभी शुरू होता है जब कोई “मौजूदा स्थितिओं से” उस रूप
का नुस्खा बताने की जोखिम उठाता है जिसमें आज के समाज की यह या दूसरी कोई प्रतिपक्षता
का हल हो जायेगा। और मुलबर्गर, आवास के प्रश्न के समाधान के लिये प्रुधोंवादी सुत्र
को अपना कर यही करते हैं।
आगे मुलबर्गर शिकायत
करते हैं कि मैंने उन्हे एक हद तक “पूंजी और व्याज पर प्रुधों के विकट दृष्टिकोण” के
लिये सह-जिम्मेदार ठहराया है, और घोषणा करते हैं:
“उत्पादन के सम्बन्धों में तब्दीली को मैं एक साधित स्थिति
के तौर पर पूर्वानुमान कर लेता हूँ, व्याज की दर को नियन्त्रित करता संक्रमणकालीन कानून
उत्पादन के सम्बन्धों से नहीं बल्कि सामाजिक कारोबार, परिचालन के सम्बन्धों से निपटता
है … उत्पादन के सम्बन्धों में तब्दीली, या जैसा कि जर्मन विद्वत-समाज अधिक सटीक ढंग
से कहते हैं, पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का अन्त निस्सन्देह व्याज का अन्त करने वाला
किसी संक्रमणकालीन कानून के परिणामस्वरूप नहीं होता है, जैसा एंगेल्स मुझसे कहलवाना
चाहते हैं, बल्कि श्रमिक जनता द्वारा श्रम के सारे औजारों की वास्तविक जब्ती,
पुरे उद्योग की जब्ती के परिणामस्वरूप होता है। वैसा घटित हो जाने पर श्रमजीवी
जन अविलम्ब बेदखली के बजाय पापमुक्ति की पूजा” (!) “करेंगे की नहीं, इसका फैसला न तो
मैं कर सकता हूँ और न एंगेल्स।”
मैं अचरज में अपनी आँखें
मलता हूँ। मैं मुलबर्गर के अन्वेषण
को शुरु से अन्त तक फिर से पूरा पढ़ता हूँ उस अंश को ढूंढ़ने के लिये जिसमें वह कहते
हैं कि किराये के घरों से उनके द्वारा सुझाई गई पापमुक्ति, “श्रमिक जनता द्वारा श्रम
के औजारों की वास्तविक जब्ती, पूरे उद्योग की जब्ती” को एक साधित स्थिति के तौर पर
पूर्वानुमान कर लेती है। लेकिन वैसा कोई अंश ढूंढ़ पाने में मैं अक्षम होता हूँ। वैसा
कोई अंश है ही नहीं। कहीं भी “वास्तविक जब्ती” का जिक्र नहीं है, लेकिन पृष्ठ 17 पर
निम्नलिखित अंश है:
“उदाहरण के तौर पर अब मान लिया जाय कि एक संक्रमणकालीन कानून के
द्वारा जो सारे प्रकार की पूंजियों व्याज की दर एक प्रतिशत पर स्थिर कर दे, पूंजी
की उत्पादकता से वास्तविक तौर पर निर्णायक टक्कर लिया गया [मुहावरा ‘सींग
से पकड़ा गया’ – अनु॰] - जैसा कि होगा ही देर-सवेर। लेकिन ध्यान रहे, इस स्थिरिकरण
में उस एक प्रतिशत को भी ज्यादा से ज्यादा शून्य तक ले जाने की प्रवृत्ति रहेगी। …
सभी दूसरे उत्पादों की तरह, आवास और घरों को भी स्वाभाविक तौर पर इस कानून के दायरे
में शामिल किया जायेगा। … इसलिये, हम पाते हैं कि किराये के घरों की पापमुक्ति भी पूंजी
की उत्पादकता की सामान्यत: समाप्ति का आवश्यक नतीजा है।”100
इस तरह, मुलबर्गर के
हाल की पल्टी के विपरीत, यहाँ सादे शब्दों में कहा गया है कि श्रम की उत्पादकता – इस
भ्रामक मुहावरे से उनका स्वीकृत अर्थ है पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली – को वास्तव में
व्याज की समाप्ति करने वाले एक कानून के द्वारा “सींग से पकड़ा गया” है और ठीक उसी कानून
के फलस्वरूप, “पूंजी की उत्पादकता की सामान्यत: समाप्ति का आवश्यक परिणाम होता है किराये
के घरों की पापमुक्ति”। बिल्कुल नहीं, अब मुलबर्गर कहते हैं। वह संक्रमणकालीन कानून
“उत्पादन के सम्बन्धों पर नहीं, परिचालन के सम्बन्धों पर लागू होता है”।
जैसा कि ग्येठे कहे होते101 “ज्ञानी और मूर्ख दोनों के लिये समान रहस्यमय”
इस मूर्खतापूर्ण अन्तर्विरोध को देखते हुये मेरे लिये बस इतना ही मान लेना बचता है
कि मैं दो अलग अलग और भिन्न मुलबर्गरों के मुखातिब हूँ जिनमें से एक सही ही शिकायत
करता है कि मैंने “उनसे” वह बात “कहलवाने की कोशिश की” जो दूसरा छपवा देता है।
यह निश्चित ही सत्य है
कि श्रमजीवी जनता न मुझे और न मुलबर्गर को पूछेगी कि वास्तविक जब्ती के समय वे “अविलम्ब
बेदखली से ज्यादा जल्दी पापमुक्ति की पूजा” करेंगे या नहीं। सारी संभावनायें हैं कि
वे “पूजा” ही करना नहीं चाहेंगे। जो भी हो, सिवाय (पृष्ठ 17 पर) मुलबर्गर के दावा के
अलावे कि “आवास के प्रश्न के समाधान की पूरी सामग्री पापमुक्ति शब्द में निहित
है”, श्रमजीवी जनता द्वारा श्रम के सारे औजारों की वास्तविक जब्ती का कोई सवाल कभी
था ही नहीं। अब अगर वह घोषणा करते हैं कि पापमुक्ति अत्यन्त सन्देहास्पद है, हम दोनों
को और हमारे पाठकों को बेमतलब इतना परेशान करने की क्या जरूरत थी?
साथ ही, यह बता देना
जरूरी है कि श्रमजीवी जनता द्वारा श्रम के सारे औजारों की “वास्तविक जब्ती”, पूरे उद्योग
का दखल लिया जाना, प्रुधोंवादी “पापमुक्ति” के ठीक विपरीत है। दूसरे वाले मामले में
व्यक्ति श्रमिक अपने घर का, किसानी के लिये खेत का, श्रम के औजारों का मालिक
बनता है; पहले वाले मामले में आवासों, कारखानों एवं श्रम के औजारों पर श्रमजीवी जनता
का सामूहिक मालिकाना रहता है, जिनका इस्तेमाल, कम से कम एक संक्रमणकाल में वे किसी
भी व्यक्ति या संघ को, बिना लागत की क्षतिपूर्ति के, करने शायद ही दें। उसी तरह से,
जमीन में सम्पत्ति की समाप्ति का मतलब भूमि-किराये की समाप्ति नहीं होगी बल्कि समाज
के हाथों में जमीन का अन्तरन होगा, भले ही संशोधित रूप में हो। इसलिये, श्रमजीवी जनता
द्वारा श्रम के सारे औजारों की जब्ती कहीं से भी किराये के सम्बन्धों को बने रहने से
रोक नहीं देता।
सत्ता में आने पर सर्वहारा
क्या बस जबर्दस्ती उत्पादन के औजारों, कच्चे मालों और जीवनधारण के साधनों को जब्त करेगा,
क्या उनके लिये तत्काल क्षतिपूर्ति का भुगतान करेगा या उन सम्पत्तियों को छोटे किश्तों
में भुगतान कर छुड़ायेगा – यह सामान्यत:, कोई सवाल नहीं है। ऐसे सवाल का या और सभी सवालों
का अग्रिम जबाब देने का प्रयास कल्पलोक का सृजन होगा और वह मैं दूसरों के लिये छोड़
देता हूँ।
[क्रमश]
_______________________________
96- देखें यह खण्ड, पृ॰
323 – स॰र॰स॰
97- यहाँ और आगे एंगेल्स
ए॰ मुलबर्गर कृत “जुर वोनांग्सफ्राज”, डेर वोकस्टाट, अंक 86, अक्तूबर 26,
1872 से उद्धृत करते हैं – स॰र॰स॰
98- एच॰ रेशॉअर, डाय
वोनांग्स्नोथ उन्ड इह्र शाडलिखेर एइन्फ़्लाब ऑफ डाय क्लेइंगेवेर्बेट्रेइबेन्डेन उन्ड
लोह्नार्बेइटर [आवास का संकट एवं छोटे व्यवसाय के मालिकों तथा मजदूरों पर उसका
हानिकारक प्रभाव – अनु॰], वियेना, 1871 - स॰र॰स॰
99- जस्टस वॉन लीबिग,
डाय केमी इन इह्रेर अन्वेन्डुंग ऑफ एग्रिकल्टुर अन्ड फिसिओलोजी, [कृषि एवं शरीरविज्ञान
में प्रयोग के लिये रसायनशास्त्र – अनु॰] भाग 1, ब्रुन्सविक, 1862, पृ॰ 128-29, - स॰र॰स॰
100- ए॰मुलबर्गर, डाय
वोनांग्सफ्राज, (यह खण्ड देखें, पृ॰ 331) – स॰र॰स॰
101- तुलना करें, ग्येठे, फाउस्ट, भाग 1, दृश्य
6 (“हेक्सेनकुचे”) - स॰र॰स॰
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