किस तरह एक पूंजीवादी आवास के प्रश्न का
समाधान करता है
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आवास के प्रश्न के प्रुधोंवादी
समाधान वाले भाग में यह दर्शाया गया है कि इस प्रश्न से टुटपूंजियों का कितना अधिक
सीधा सरोकार है। हालाँकि, बड़े पूंजीवादी भी, अप्रत्यक्षत: सही, इस प्रश्न से काफी सरोकार
रखते हैं। आधुनिक प्राकृतिक विज्ञान ने प्रमाणित किया है कि तथाकथित “बुरे मोहल्ले”
जहाँ श्रमिक ठूँसे जाते हैं, तमाम उन संक्रामक बीमारियों के जनन स्थल हैं जो हमारे
शहरों को विपदा में डालते हैं। कॉलेरा, टाइफस, टाइफॉयड बुखार, चेचक एवं अन्य विनाशकारी
रोग इन श्रमिक-वर्गीय बस्तियों के मारक हवा एवं विषैले जल में अपने बीजाणु फैलाते हैं।
यहाँ वीजाणु पूरी तरह कभी नहीं मरते और ज्यों ही परिस्थितियाँ अनुकूल होती हैं वे संक्रामक
रोगों के रूप में विकसित होते हैं और अपने जनन स्थल से बाहर शहर के उन हवादार एवं स्वस्थ
हिस्सों में फैलते हैं जहाँ श्रीमान पूंजीपतिगण रहते हैं। पूंजीवादी शासन के लिए इस
बात को लेकर खुशी में रहना संभव नहीं कि श्रमिक वर्ग में संक्रामक बीमारियाँ बेरोकटोक
फैलती रहें, क्योंकि परिणाम में गाज उन्ही पर गिरती है और मौत के दूत पूंजीपतियों के
कतारों में भी उतनी ही प्रचंडता के साथ घूमते हैं जितनी श्रमिकों की कतारों में।
ज्यों ही यह तथ्य वैज्ञानिक तौर पर प्रतिष्ठित
हो गया, अपने श्रमिकों के स्वास्थ्य के लिये व्याकुलता दिखाने में परोपकारी बुर्जुवा
प्रतिस्पर्धा की एक महान उत्साह से संदीप्त हो उठे। बार बार फैलने वाले संक्रामक रोगों
के उद्गमों को बन्द करने के लिए समितियाँ प्रतिष्ठित की गईं, किताबें लिखी गईं, प्रस्ताव
बनाए गए, कानूनों पर वादविवाद हुए और पारित किए गए। श्रमिकों की आवासीय स्थितियों की
जाँच की गई और सबसे अधिक प्रकट बुराईयों का इलाज किया गया। खास कर इंग्लैन्ड में जहाँ
सबसे अधिक संख्या में बड़े शहर थे और फलस्वरूप पूंजीवादी वर्ग खुद सबसे अधिक जोखिम में
था, व्यापक कार्रवाईयाँ शुरू की गईं। श्रमिक वर्गों की स्वास्थ्य सम्बन्धी स्थितियों
की जानकारी के लिए सरकारी आयोग बैठाये गये। उनके प्रतिवेदन जो निष्पक्षता, पूर्णता
और शुद्धता के लिहाज से अन्य सभी महादेशीय स्रोतों से सम्मानजनक रूप से विशिष्ट थे,
नये तथा कमोबेश और अधिक कठोर कानूनों के आधार बने। ये कानून अधूरे जरूर हैं लेकिन फिर
भी, महादेश में इस दिशा में अब तक जो कुछ भी किया गया है उससे बहुत बहुत बेहतर हैं।
जो भी हो, समाज की पूंजीवादी प्रणाली बुराईयों को बार बार पैदा करती हैं जिनका फिर
इलाज करना पड़ता है। और यह काम पूंजीवादी प्रणाली इतने अनिवार्य आवश्यकता के तौर पर
करती है कि इंग्लैन्ड में भी इन बुराईयों का इलाज शायद ही एक कदम आगे बढ़ा होगा।
जर्मनी को स्वाभाविक तौर पर कुछ ज्यादा
ही समय चाहिये था कि वहाँ स्थित संक्रमण के पुराने स्थाई उद्गम उतनी तीव्रता के स्तर
पर सक्रिय हो जाएँ कि उनींदे बड़े पूंजीवादिओं को जगा सके। लेकिन जो धीरे चलता है वह
मजबूत कदमों से चलता है, और इसलिए हमारे बीच भी अन्तत: सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा आवास
के प्रश्न पर पूंजीवादी साहित्य पैदा हो चुका है। यह साहित्य इसके विदेशी और खास कर
अंग्रेज पुर्वजों का पनीला निष्कर्ष है जिन्हे, फरेबी ढंग से, श्रुतिमधुर एवं चिकनेचुपड़े
मुहावरे डाल कर, उच्चतर धारणाओं का आभास दिया जा रहा है। डा॰ एमिल सैक्स द्वारा
लिखित, वियेना से सन 1869 में प्रकाशित डाय वोह्नांग्शुस्टांड डेर आर्बेइटेन्डेन
क्लासेन उन्ड इहरे रिफॉर्म इसी साहित्य की कोटि में आता है।
आवास के प्रश्न के साथ एक पूंजीवादी कैसा
बर्ताव करता है इसे सामने रखने के लिए मैने इस पुस्तक को सिर्फ इसलिए चुना क्योंकि
जितनी दूर तक सम्भव है, सम्बन्धित विषय पर पूंजीवादी साहित्य को यह पुस्तक संक्षेप
में प्रस्तुत करता है। और क्या बेहतरीन साहित्य है यह जो हमारे लेखक को “सन्दर्भसुत्र”
मुहैया कराता है! वास्तविक तौर पर तीन मुख्य एवं सबसे पुराने36 सुत्र, अंग्रेज
संसदीय प्रतिवेदनों में से सिर्फ तीन के नामों का जिक्र किया गया है; पूरा पुस्तक यह
साबित करता है कि लेखक ने उन तीनों प्रतिवेदनों में किसी एक पर भी कभी नज़र नहीं
डाला है। दूसरी तरफ, घिसे-पिटे पूंजीवादी, भला चाहने वाले टुटपूंजिए और पाखंडी
मानवप्रेमी रचनाओं की एक पूरी शृंखला गिनाई गई है: द्युक्पेतिओ, रॉबर्ट्स, होल, हुबेर37,
अंग्रेज सामाजिक विज्ञान (बल्कि सामाजिक बकवास) कांग्रेसों38 के कार्यवृत्त,
प्रशिया से ज़ेइट्स्रिफ्ट देस वेरेइन फ़ुर दास वोह्ल देर अर्बेइटेन्डेन क्लासेन,
पैरिस39 से विश्व प्रदर्शनी पर औपचारिक ऑस्ट्रियाई प्रतिवेदन, उसी विषय40
पर औपचारिक बोनापार्टवादी प्रतिवेदन, सचित्र लन्दन की खबर,41 उबेर
लैन्ड आन्ड मीर,42 और अन्तत: “एक स्वीकृत प्राधिकार”, “तीव्र व्यवहारिक
समझ” वाला एक आदमी, जिनके “भाषण में ठोस प्रभावकारिता” है; नाम, जुलियस फॉशर43!
सन्दर्भ-सुत्रों की सूची में अनुपस्थित हैं तो बस गार्टेनलॉब, क्लैडरडैश एवं
फुसिलिएर कुश्के।44
ताकि हेर सैक्स के नजरिए को लेकर किसी को कोई गलत समझदारी
न हो जाय, वह पृष्ठ 22 में लिखते हैं:
“सामाजिक अर्थव्यवस्था से हमारा
मतलब है राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के सिद्धांत का सामाजिक प्रश्नों पर प्रयोग। या और
सटीक रूप से कहा जाय तो कुल रास्ते और साधन जो यह विज्ञान मौजुदा सामाजिक प्रणाली
के ढाँचे के अन्तर्गत इसके ‘लौहकठिन’ कानूनों के आधार पर, तथाकथित” (!) “सम्पत्तिहीन
वर्गों को सम्पत्तिवान वर्गों के स्तर तक उठाने के लिए हमें देता है।”
हम उस भ्रामक विचार की ओर नहीं भटकेंगे कि सामान्यत:, “राष्ट्रीय
अर्थव्यवस्था के सिद्धांत” या राजनीतिक अर्थनीति “सामाजिक” प्रश्नों से अलग अन्य प्रश्नों
से सरोकार रखता है। हम अविलम्ब मुख्य विन्दु के मुखातिब होंगे। डा॰ सैक्स मांग करते
हैं पूंजीवादी अर्थशास्त्र
के “लौहकठिन कानून”, “मौजुदा सामाजिक प्रणाली का ढाँचा”, यानि पूंजीवादी उत्पादन पद्धति,
बिना बदलाव के मौजूद रहे, लेकिन फिर भी, “तथाकथित सम्पत्तिहीन वर्ग” “सम्पत्तिवान वर्गों
के स्तर तक” उठा दिया जाय। पूंजीवादी उत्पादन पद्धति का एक अपरिहार्य प्राथमिक शर्त
है कि तथाकथित नहीं, वास्तविक एक सम्पत्तिहीन वर्ग मौजूद रहना चाहिए। एक ऐसा वर्ग जिसके
पास सिवाय उसके श्रमशक्ति के और कुछ बेचने को नहीं हो और इसीलिए औद्योगिक पूंजीपतियों
को अपनी श्रमशक्ति बेचने को मजबूर हो। हेर सैक्स द्वारा आविष्कृत सामाजिक अर्थनीति
के नये विज्ञान का कार्यभार है कि – एक तरफ कच्चे माल, उत्पादन के औजार एवं जीवनधारण
के साधन के मालिक पूंजीपति एवं दूसरी तरफ, सिवाय अपनी श्रमशक्ति के और किसी भी चीज
को अपनी न कह सकने वाले सम्पत्तिहीन मजदूरों के बीच की शत्रुता पर आधारित एक समाज में
– मजदूरों को मजदूर बने रहते हुए पूंजीपति बनाने के रास्ते और साधन जुटाए। हेर सैक्स सोचते हैं कि उन्होने इस प्रश्न का समाधान
कर लिया है। शायद वह भला आदमी हमें बतायेंगे कि किस तरह फ्रांसिसी सेना के सभी सैनिक
- जिनमें से हरेक अपने बस्ते में बूढ़े नेपोलियन के जमाने से मार्शल का एक बैटन ढोता
है – पहले जैसा प्राइवेट ही बने रहते हुए फिल्डमार्शल बना दिए जायेंगे। या कौन सा उपाय
लगाने पर जर्मन साम्राज्य के सभी चार करोड़ प्रजा जर्मन सम्राट बना दिए जाएंगे।
वर्तमान समाज की सभी बुराइयों के आधार को बनाए रखते हुए उन
बुराइयों खत्म करने की इच्छा - यही पूंजीवादी समाजवाद का सार है। जैसा कि कम्युनिस्ट
घोषणापत्र में कहा गया है, पूंजीवादी समाजवादी “पूंजीवादी समाज
को लगातार बनाये रखने की गारंटी के लिए सामाजिक शिकायतों को दूर करना” चाहते हैं। वे
“बिना सर्वहारा वर्ग के पूंजीवादी वर्ग”45
चाहते हैं। हमने देखा कि हेर सैक्स भी समस्या को ठीक उसी तरह सुत्रबद्ध करते हैं। इस
समस्या का समाधान उन्हे आवासीय समस्या के समाधान में मिलता है। उनकी राय है कि:
“श्रमजीवी वर्गों के आवासों में
सु्धार लाकर, पूर्व-वर्णित उनकी भौतिक व आत्मिक दरिद्रता का इलाज तथा उसके द्वारा”
– सिर्फ आवासीय स्थिति में आमूल सुधार लाकर – “उन वर्गों के अधिकांश को उनके
अस्तित्व के अक्सर मानवेतर स्थितियों के दलदल से बाहर निकालकर भौतिक एवं आत्मिक तंदुरुस्ती
की विशुद्ध ऊँचाइयों तक पहुँचाना सफलतापूर्वक संभव होगा।” (पृ॰ 14)
संयोग से, उत्पादन के पूंजीवादी सम्बन्धों से पैदा हुए सर्वहारा
का अस्तित्व एवं उसी के होने से निर्धारित उन सम्बन्धों के निरन्तर अस्तित्व की सच्चाई
को झुठलाना पूंजीवादियों के हित में है। इसलिए हेर सैक्स हमें बताते हैं (पृ॰ 21)
कि ‘श्रमजीवी वर्गों’ अभिव्यक्ति के अर्थ में सभी “धनहीन सामाजिक वर्गों” शामिल होना
चाहिए, “और, सामान्यत:, छोटे लोग जैसे हस्तशिल्पकार, विधवाएँ, पेंशनभोगी” (!), “अधीनस्थ
अधिकारी आदि” भी वास्तविक श्रमिकों के साथ शामिल होना चाहिए। पूंजीवादी समाजवाद
टुटपूंजिए किस्म के लोगों की ओर हाथ बढ़ाता है।
तो, किधर से आई आवास की कमी? कैसे पैदा हुई? एक अच्छे पूंजीवादी होने
के नाते हेर सैक्स से यह जानने की उम्मीद की जाती है कि यह पूंजीवादी सामाजिक
व्यवस्था की उपज है। आवास की यह कमी उस समाज में होगी ही जहाँ श्रम पर जीने वाली जनता
की विशाल तादाद सिर्फ मजदूरी पर यानी, अस्तित्व में बने रहने और अपने प्रकार के मनुष्य
की वृद्धि करने के लिए आवश्यक जीवन-धारण के साधनों की परिमाण पर निर्भरशील है। एक ऐसा
समाज जहाँ मशीनरी आदि में उन्नति बारबार श्रमिकों की बड़ी जनता को रोजगार से बाहर फेंक
देता है, जहाँ नियमित तौर
पर होने वाले बेरहम औद्योगिक उतार चढ़ाव एक तरफ बेरोजगार श्रमिकों की एक बड़ी सेना के
वजूद में बने होने को तो दूसरी ओर, समय समय पर श्रमिक-जनता को बेरोजगार कर सड़कों पर
फेंके जाने को तय करते हैं। एक ऐसा समाज जहाँ बड़े शहरों में श्रमिक, उनके लिए बने-बनते
आवासों से कहीं अधिक तेजी के साथ भीड़ बन कर प्रवेश करते हैं और फलस्वरूप, सबसे कुख्यात
सुअर के दरबों के लिए भी किराएदार मिल ही जाते हैं, और अन्तत:, पुंजीपति के हैसियत
में मकानमालिक को न सिर्फ अधिकार बल्कि कर्तव्य होता है कि अपनी सम्पत्ति से आवास-किराए
के रूप में निर्ममता के साथ उतना कमाए जितना उसके लिए सम्भव हो। ऐसे समाज में आवास
की कमी कोई दुर्घटना नहीं एक आवश्यक व्यवस्था है और इस कमी को, स्वास्थ्य आदि पर इसके
दुष्प्रभावों के साथ तभी खत्म किया जा सकता है जब इसे पैदा करने वाली सामाजिक प्रणाली
को आमूल ढंग से परिवर्तित किया जाय। यह बात हालाँकि पूंजीवादी समाजवाद जानने की जुर्रत नहीं करेगा। आवास की
कमी को वह मौजूदा हालात से पैदा होने वाली समस्या के रूप में व्याख्या करने की जुर्रत
नहीं करेगा। और इसलिए उसके पास आवास की कमी की व्याख्या करने का दूसरा कोई रास्ता नहीं
होगा सिवाय नीतिकथाओं के, कि यह आदमी की शैतानी का परिणाम है, आदिम पाप की परिणति है…
यानी इसी तरह की बातें।
“और यहाँ हम देखने से चूक नहीं सकते – और फलस्वरूप इन्कार नहीं कर
सकते” (साहसी निष्कर्ष!) – “कि दोष… अंशत: खुद श्रमिकों का भी है और अंशत:,
बेशक बड़े अंश में, उनका है जो इस आवश्यकता को पूरा करने का जिम्मा लेते हैं या उनका,
जिनके पास पर्याप्त साधन हैं लेकिन आवश्यकतानुसार आपूर्ति का प्रयास नहीं करते, जो
सम्पtतिवान, उच्चतर सामाजिक वर्ग कहे जाते हैं। इन बाद वालों का दोष है … कि
अच्छे आवास की पर्याप्त आपूर्ति मुहैया कराने को यह अपना व्यवसाय नहीं बनाते।” [पृ॰
25]
ठीक जिस तरह प्रुधों
हमें अर्थशास्त्र के क्षेत्र से कानूनी मुहावरों के क्षेत्र में ले चलते हैं, उसी तरह
हमारे पूंजीवादी समाजवादी हमें आर्थिक क्षेत्र से नैतिक क्षेत्र
में ले चलते हैं। यही स्वाभाविक भी है। जो भी यह घोषणा करेगा कि पूंजीवादी उत्पादन
प्रणाली, आज के दिन के पूंजीवादी
समाज के “लौह कानून” अनु्ल्लंघणीय हैं, फिर भी साथ ही साथ वह उस प्रणाली या उस “लौह
कानून” के अनिवार्य दुष्परिणामों को खत्म करना चाहेगा, उसके पास पूंजीपतियों को नैतिक
धर्मोपदेश देने के अलावे कोई रास्ता नहीं दिखेगा। ऐसे धर्मोपदेश जिनके भावनात्मक प्रभाव
निजी हित, या जरूरत पड़े तो, प्रतिस्पर्धा के प्रभाव के आगे तत्काल गायब हो जायेंगे।
ये नैतिक धर्मोपदेश अपने प्रभाव में ठीक उस मुर्गी के उपदेश की तरह हैं जो किनारे खड़े
होकर तालाब में, खुद के ही सेए हुए अंडों से निकले बत्तख के संतानों को खुशी से तैरते
देखती हैं। बत्तख के संतान पानी में चले जाते हैं, जबकि पानी में कोई सहारा नहीं है,
पूंजीपति मुनाफे पर झपटते हैं, जबकि यह निर्दयी काम है। “पैसों के मामलों में भावनाओं
की कोई जगह नहीं है” – यह बात पहले ही बुढ़े हैन्समान46 ने कहा था, जो इस
बारे में हेर सैक्स से अधिक जानते थे।
“अच्छे आवास इतने
खर्चीले हैं कि श्रमिकों के एक बड़े हिस्से के लिए उनका इस्तेमाल करना पूरी तरह असम्भव
है। बड़ी पूंजी … श्रमिक वर्गों के लिए आवास में निवेश करने से कतराती है… नतीजतन
ये वर्ग एवं उनके आवास अक्सर सट्टेबाज़ों का शिकार होने को मजबूर होते हैं।” [पृ॰ 27]
घृणित सट्टेबाज़ी – स्वाभाविक
तौर पर बड़ी पूंजी कभी सट्टा नहीं लगाती! लेकिन दुर्भावना नहीं, महज गैर-जानकारी बड़ी
पूंजी को श्रमिकों के आवासों में सट्टा लगाने से रोकता है:
“मकान-मालिक बिल्कुल जानते नहीं हैं कि कितनी महान और महत्वपूर्ण
भूमिका … आवासीय जरूरतों को कायदे से सन्तुष्ट कर वे निभा सकते हैं; वे नहीं जानते
हैं कि वे जनता के साथ क्या कर रहे होते हैं जब वे उन्हे सामान्य नियम के तौर पर
बुरे और हानिकारक घर देते हैं और अन्तत:, वे नहीं जानते हैं कि इस तरह वे खुद
को कितनी क्षति पहुँचा रहे हैं।” [पृ॰ 27]
खैर, आवास की कमी को
पैदा करने के लिए पूंजीपतियों की अज्ञानता के साथ श्रमिकों की अज्ञानता का भी जुड़ना
जरूरी है। यह स्वीकार करने के बाद कि श्रमिकों के “बहुत ही छोटे हिस्से एक रात का बसेरा
के लिए अनुगृहीत” (!) “होते हैं ताकि उन्हे एकदम ही निराश्रय नहीं रहना पड़े और इस मामले
में वे बिल्कुल बचावरहित एवं असहाय होते हैं”, हेर सैक्स हमें कहते हैं:
“क्योंकि यह जानी हुई बात है कि उनमें” (श्रमिकों में) “से कई, लापरवाही
की वजह से भी, पर मुख्यत: अज्ञानता की वजह से, अपने शरीर को काफी दक्षता के साथ, स्वाभाविक
विकास एवं स्वस्थ अस्तित्व से वंचित रखते हैं – उन्हे तर्कसंगत स्वच्छता की जरा
सी भी सोच नहीं होती और खास कर आवास का इस स्वच्छता में कितना ज्यादा महत्व होता
है।” [पृ॰ 27]
यहाँ हालांकि पूंजीवादी गधे के कान आगे हो जाते हैं। जब पूंजीपति का प्रसंग
था “दोष” अज्ञानता में विलीन हो जाता है, लेकिन जब श्रमिकों का प्रसंग आता है तो अज्ञानता
को उनके अपराध का कारण बना दिया जाता है। सुनिए:
“तो, बात यही होती है” (अज्ञानता के द्वारा) “कि अगर वे किराए में
से थोड़ा भी बचा सकें तो उन अंधेरे, सीलन भरे और अपर्याप्त घरों में चले जायेंगे जो
संक्षेप में, स्वच्छता की सारी मांगों का मजाक बनाते हैं … कि अक्सर कई परिवारें एक
साथ एक घर, यहाँ तक कि एक कमरा किराए पर ले लेते हैं – सिर्फ किराए पर कम से कम खर्च
करने के लिए, जबकि दूसरी ओर वे अपनी आय को शराब और दूसरे तमाम किस्म के निठल्ले
सुखों पर यथार्थत: पापपूर्ण तरीके से बरबाद करते हैं।”
वह पैसा जो श्रमिक “दारू
और तम्बाकु में बरबाद” (पृ॰ 28) करते हैं, “शराबखाने में बिताया गया वह जीवन, अपने
सारे बुरे परिणामों के साथ, जो बार बार श्रमिक को एक मरे वजन की तरह दलदल में घसीटता
है”, सचमुच हेर सैक्स के पेट में एक मरे वजन की तरह पड़ा है। फिर वही बात है कि मौजूदा
हालात में, श्रमिकों में नशे की लत उनके जीवनस्थितियों की आवश्यक पैदाइश है उतनी ही
आवश्यक जितनी टाइफस, अपराध, परजीवी, कारिंदे एवं अन्य सामाजिक बुराईयाँ, वास्तव में
इतनी आवश्यक कि नशाखोरी के चलते मरनेवालों की औसत संख्या की गणना पहले ही की जा सकती
है, यह हेर सैक्स खुद को जानने की अनुमति नहीं दे सकते हैं। मेरे पुराने प्राथमिक विद्यालय
के शिक्षक यूँ ही कहा करते थे, “आम लोग पबों में जाते हैं और कुलीन लोग क्लबों में
जाते हैं”। और, चुंकि मैं दोनो में गया हूँ मैं इस बात की पुष्टि करता हूँ।
दोनों पक्षों की “अज्ञानता
[या नादानी – अनु॰]” पर इस पूरे भाषण का निचोड़ और कुछ नहीं सिर्फ श्रम और पूंजी के
हितों के मेल पर पुराने मुहावरे हैं। अगर पूंजीपति अपने सच्चे हित जानते होते तो वे
श्रमिकों को अच्छे आवास देते तथा सामान्यत: उनकी स्थिति में सुधार लाते। और, अगर श्रमिक
अपने सच्चे हितों को समझते तो वे हड़ताल पर नहीं जाते, वे सामाजिक-जनवाद की तरफ नहीं
जाते, वे राजनीति का खेल नहीं खेलते बल्कि अच्छे होते और अपने से बेहतरों का, पूंजीपतियों
का अनुसरण करते। दुर्भाग्य से दोनो पक्ष अपने हित हेर सैक्स व उनके अनगिनत पुर्ववर्तियों
के धर्मोपदेश से बिल्कुल अलग किसी जगह पर पाते हैं। पूंजी और श्रम के मेल का सुसमाचार
पिछले पचास वर्षों से प्रचारित किया जा रहा है। बुर्जुवा मानव-प्रेम इस मेल को साबित
करने के लिए आदर्श संस्थाओं के निर्माण में बड़ी रकम खर्च कर चुका है। फिर भी, हम बाद
में देखेंगे, हम ठीक वहीं खड़े हैं जहाँ पचास साल पहले थे।
हमारे लेखक अब समस्या
के व्यवहारिक समाधान की ओर बढ़ते हैं। श्रमिकों को उनके घरों का मालिक बनाने
का, क्रांतिकारी प्रुधों का प्रस्ताव कितना छोटा था यह इसी बात से पता चलता है कि पूंजीवादी
समाजवाद उनसे पहले भी इस प्रस्ताव को लागु करने का प्रयास किया और अभी भी कर रहा है। हेर सैक्स इस बात की भी घोषणा करते हैं कि श्रमिकों
के नाम उनके घरों की सम्पत्ति को अन्तरित करने से ही आवासीय समस्या का पूरा समाधान
सम्भव हो जाएगा (पृ॰ 58 एवं पृ॰ 59)। उससे भी अधिक, वह इस सोच पर कवित्व के आवेश में
चले जाते हैं और अपनी अनुभूतियों को उत्साह के निम्नलिखित विस्फोट में सामने लाते हैं:
“आदमी में बसी हुई, जमीन की मिल्कियत की तमन्ना कुछ अजीब सी है; यह
एक ऐसी तमन्ना है जिसे आज के दिन का चढ़ी बुखार की तरह धड़कता व्यवसायिक जीवन भी
कम नहीं कर पाया है। यह उस आर्थिक उपलब्धि के महत्व का अचेत तारिफ है जिसका प्रतिनिधित्व
करता है जमीन की मिल्कियत। इसके साथ एक व्यक्ति को सुरक्षित पकड़ मिलती है; धरती पर
उसकी जड़ें, जो थीं, मजबूत होती है और हरेक उद्यम को” (!) “इसमें स्थाई आधार मिलता है।
हालाँकि जमीन की मिल्कियत के लाभ इन भौतिक सुविधाओं से काफी अधिक हैं। जो भी जमीन के
एक टुकड़े को अपना कहने लायक भाग्यशाली होता है, आर्थिक स्वतंत्रता के उस उच्चतम
स्तर तक पहुँच चुका होता है जहाँ तक सोची जा सकती है। उसके पास एक इलाका
होता है जिस पर वह सम्प्रभु शक्ति के साथ राज कर सकता है। वह खुद अपना मालिक
होता है। जरूरत के समय उसके पास एक निश्चित शक्ति एवं निश्चित समर्थन होता
है। उसका आत्मविश्वास विकसित होता है और साथ में उसका नैतिक बल भी। इसीलिये इस सम्पत्ति
का गहरा महत्व है… आज आर्थिक जीवन के तमाम उलटफेर में असहाय जीने तथा अपने रोजगार-देने-वाले
पर निरन्तर निर्भरशील रहने को मजबूर श्रमिक, इस तरह अपनी अनिश्चित स्थिति से कुछ हद
तक बच जाएगा। जमीन जायदाद के चलते उसे मिले साख के कारण अपनी बेरोजगारी या अक्षमता
के खतरों से वह सुरक्षित होगा और वह एक पूंजीपति बन जाएगा । इस तरह वह सम्पत्तिहीन
की पंक्तियों से सम्पत्तिवान वर्ग में पहुँच जाएगा ।” (पृ॰ 63)
लगता है हेर सैक्स मान
लेते हैं कि आदमी दर असल एक किसान है, नहीं तो हमारे बड़े शहरों के श्रमिकों पर जमीन
की मिल्कियत की झूठी तमन्ना मढ़ नहीं देते – एक ऐसी तमन्ना जिसका आविष्कार आज तक कोई
दूसरा उनमें कर नहीं पाया है। क्योंकि बड़े शहरों में हमारे श्रमिकों के लिए अस्तित्व
का प्रमुख शर्त है जाने-आने की आजादी; जमीन की मिल्कियत उनके लिए बंधन सिद्ध होगी।
उन्हे आप उनके खुद का घर देंगे, मिट्टी के साथ फिर से जंजीर में जकड़ देंगे और कारखाना
के मालिकों के द्वारा मजदूरी काटे जाने के खिलाफ उनके प्रतिरोध की ताकत को आप तोड़ देंगे।
मौका आने पर एक व्यक्ति श्रमिक अपना घर बेच सकता है, लेकिन किसी बड़ी हड़ताल या आम औद्योगिक
संकट47 के दौरान, प्रभावित सारे श्रमिक अपने घरों को बिक्री के लिए लगाएंगे
– तब या तो कोई खरीदार नहीं मिलेगा या लागत से काफी कम कीमत पर बिक जाएंगे। अगर उन सभी
को खरीदार मिल भी गया, हेर सैक्स का पूरा भव्य आवासीय सुधार शून्य हो जाएगा और फिर
शुरू से शुरू करना होगा। खैर, कवि कल्पनालोक में रहते हैं। हेर सैक्स भी रहते हैं और
कल्पना करते हैं कि एक जमीन का मालिक “आर्थिक स्वतंत्रता के उच्चतम स्तर तक पहुँच चुका”
है, उसे “निश्चित समर्थन” प्राप्त है, “वह एक पूंजीपति बन जाएगा और जमीन जायदाद
से मिली साख के चलते बेरोजगारी या अक्षमता के खतरों से सुरक्षित होगा” आदि। हेर सैक्स
को एक नज़र फ्रांसिसी और हमारे राइन नदी के इलाके के किसानों की ओर घुमानी चाहिए। उनके
घर एवं उनके खेतों पर बंधकी का भारी बोझ है, उनके फसल कटने से पहले लेनदार के हो जाते
हैं और अपने “इलाके” पर वे खुद नहीं बल्कि सम्प्रभुता की ताकत के साथ सूदखोर, वकील
और कारिंदा राज करते हैं। बेशक यह स्थिति जहाँ तक सोची जा सकती है उस स्तर तक आर्थिक
स्वतंत्रता का प्रतिनिधित्व करती है – लेकिन सूदखोर के लिए! और, ताकि श्रमिक जितनी
जल्दी हो सके अपने नन्हे घरों को उसी सूदखोर की सम्प्रभुता में ले आएं, हमारे भले आदमी
हेर सैक्स सावधानी से उस साख का ध्यान दिलाते हैं जो उन श्रमिकों की जमीन
जायदाद, बेरोजगारी या अक्षमता के समय सुरक्षित रखती है; यह नहीं कहते कि वह जमीन
जायदाद गरीबी की दर पर एक बोझ बन जाएगी।
जो भी हो, हेर सैक्स
ने शुरू में उनके द्वारा उठाए गए प्रश्न का समाधान कर दिया है। श्रमिक अपना नन्हा सा
घर खरीद कर “पूंजीपति बन जाता है” ।
दूसरों के श्रम के बेगार
हिस्से पर नियंत्रण है पूंजी। श्रमिक का नन्हा घर पूंजी तभी बन सकता है जब वह इस घर
को किसी तीसरे आदमी को किराए पर दे और किराए के रूप में इस तीसरे आदमी के श्रम के उपज
का एक हिस्सा हड़प ले। लेकिन यकीनन इसी वास्तविकता के कारण कि श्रमिक खुद उस घर में
रहता है, घर पूंजी नहीं बन सकता है। ठीक जिस तरह कोट का पूंजी बनना उसी वक्त रुक जाता
है जब मैं उसे दर्जी से खरीद लेता हूँ एवं पहन लेता हूँ। जो श्रमिक हजार थेलर [जर्मन
चाँदी का सिक्का – अनु॰] का मूल्य वाला एक नन्हा घर का मालिक होता है, बेशक वह सर्वहारा
नहीं रह जाता है, पर उसे पूंजीपति कहने के लिए एक हेर सैक्स चाहिए।
खैर, हमारे श्रमिक पर
लगे इस पूंजीवादी दाग का एक दूसरा भी पहलु है। मान लिया जाय कि एक औद्योगिक क्षेत्र
में यह नियम बन चुका है कि हर श्रमिक अपने एक नन्हे से घर का मालिक है। उस स्थिति में
उस क्षेत्र का श्रमिक वर्ग किराए से मुक्त रहता है; आवास का खर्च उसके श्रमशक्ति
के मूल्य में शामिल नहीं होता है। श्रमशक्ति के उत्पादन के लागत में हर कटौती, या यूँ
कहा जाय कि श्रमिक के जीवन की आवश्यकताओं की कीमतों में हर स्थाई कटौती, “राष्ट्रीय
अर्थनीति के सिद्धांत के लौह कानूनों के आधार पर” श्रमशक्ति के मूल्य में गिराव के
समतुल्य होती है, जिसके अंतिम नतीजे में होता है मजदूरी में अनुरूप गिराव। इस तरह मजदूरी
औसतन उतनी गिरेगी जितनी औसतन रकम किराए में बचाई गई होगी। यानी श्रमिक अपने आवास के
लिए भुगतान करेगा लेकिन पहले की तरह पैसों के रूप में नहीं, मकानमालिक को नहीं, बल्कि
जहाँ वह काम करता है उस कारखाना मालिक को, बेगार श्रम के रूप में। इस तरीके से श्रमिक
का, नन्हे से घर में निवेश किया गया बचत एक अर्थ में पूंजी तो बन जाएगा, लेकिन वह उसकी
पूंजी नहीं बल्कि उसे काम पर लगाने वाले पूंजीपति की पुंजी होगी।
अत: हेर सैक्स अपने श्रमिक
को कागज पर भी पूंजीपति बनाने में अक्षम साबित होते हैं।
प्रसंगवश, जो कुछ ऊपर
कहा गया वह उन तमाम सामाजिक सुधारों पर लागू होता है जिनके निचोड़ होते हैं बचत योजनायें
या श्रमिक के जीवनधारण के साधनों को सस्ता किया जाना। या तो वे सामान्यीकृत हो जाते
हैं जिसके बाद आती है मजदूरी में अनुरूप गिरावट या वे नितान्त अलग-थलग प्रयोग मात्र
रह जाते हैं और तब, एकान्त के अपवाद के रूप में उनका अस्तित्व ही इस बात का प्रमाण
होता है कि उसे बड़े पैमाने पर यथार्थ के धरातल पर लाना मौजूदा पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली
में नामुनासिब है। माना जाय कि किसी क्षेत्र में उपभोक्ता सहकारिताओं का सामान्यत:
शुरू किया जाना श्रमिकों के जीवनधारण के साधनों की लागत में 20 प्रतिशत गिरावट लाने
में सफल होता है। अत:, एक अवधि के उपरांत, उस क्षेत्र में मजदूरी लगभग 20 प्रतिशत की
दर से यानी, श्रमिकों के बजट में जीवनधारण के उस विशेष साधन के अनुपात में गिरेगी।
अगर श्रमिक, उदाहरण के तौर पर, अपनी साप्ताहिक मजदूरी का तीन चौथाई जीवनधारण के उपरोक्त
साधनों पर खर्च करता है, तो उसकी मजदूरी अन्तत: ¾ X 20 = 15 प्रतिशत गिर जायेगी। संक्षेप
में, ज्यों ही इस किस्म के किसी बचत सुधार का सामान्यीकरण होगा, श्रमिक की मजदूरी उतनी
घट जायेगी जितने सस्ते में, अपनी बचत के कारण, वह गुजारा कर रहा था। सभी श्रमिक
को आप उनकी बचत से उपलब्ध, 52 थेलर [सालाना – अनु॰] की स्वतंत्र आय दें, उनकी साप्ताहिक
मजदूरी अन्तत: निश्चित तौर पर एक थेलर घट जायेगी। इसलिए, जितना ही वह बचत करेगा उतना
ही कम उसे मजदूरी में मिलेगा। इसलिए, वह अपने हित में नहीं, पूंजीपति के हित में बचत
करता है। और क्या चाहिए उसमें “प्राथमिक आर्थिक गुण, बचत की इच्छा …सर्वाधिक शक्तिशाली
तरीके से … उत्तेजित” करने के लिए? (पृ॰ 64)
संयोगवश, हेर सैक्स तदोपरांत
अविलम्ब हमें बता देते हैं कि श्रमिक अपने हित में नहीं बल्कि मालिकों के हित में मकानमालिक
बनेंगे:
“हालांकि, श्रमिक वर्ग के यथासंभव अधिक से अधिक सदस्यों को जमीन से
बांधना,” (!) “न सिर्फ श्रमिक वर्ग बल्कि पूरे समाज के हित में है” (मैं कम से कम एक
बार के लिए हेर सैक्स को खुद इस दशा में देखना चाहूंगा)।48 “… वे सारे गुप्त
बल जो हमारे पैरों के नीचे दीप्त रहने वाली सामाजिक प्रश्न नाम की ज्वालामुखी, सर्वहारा
की तिक्तता, घृणा को आग उगलने वाली बनाते हैं, … विचारों का खतरनाक उलझन … एकबारगी
सुबह के सूरज के सामने धुंध की तरह अदृश्य हो जायेंगे, जब … श्रमिक खुद इस तरीके से
सम्पत्तिवान वर्ग की श्रेणी में प्रवेश करेंगे।” (पृ॰ 65)
दूसरे शब्दों में, हेर
सैक्स उम्मीद करते हैं कि एक आवास की प्राप्ति के फलस्वरूप सर्वहारा जब अपनी सामाजिक
स्थिति से हट जाएगा, तो उनका सर्वहारा चरित्र भी समाप्त हो जायेगा और वे फिर अपने पूर्वजों
की तरह – वे भी अपने आवास के मालिक थे – आज्ञाकारी खुशामदी हो जायेंगे। प्रुधोंवादियों
को दिल में यह बात बैठा लेनी चाहिए।
हेर सैक्स को विश्वास
होता है कि इस तरह उन्होने सामाजिक प्रश्न का समाधान कर लिया है:
“क्या अब वस्तुओं का अधिक न्यायसंगत वितरण, नरसिंह की पहेली
जिसे कईयों ने व्यर्थ ही सुलझाने की कोशिश की थी, हमारे सामने एक मूर्त तथ्य के रूप
में नहीं पड़ा है? और इस तरह, क्या इसे आदर्शों के क्षेत्रों से निकाल कर यथार्थ की
दुनिया में नहीं लाया गया है? और अगर यह कर लिया गया है, तो क्या इसका अर्थ उस सर्वोच्च
लक्ष्य की उपलब्धि नहीं है, जिसे, यहाँ तक कि सबसे उग्र प्रवृत्ति वाले समाजवादी
भी अपने सिद्धान्तों का चरम बिन्दु के रूप में प्रस्तुत करते हैं ? (पृ॰ 66)
सच में हमारा सौभाग्य
रहा कि हम यहाँ तक पहुँचने को अपना रास्ता निकाल पाए, क्योंकि विजय की यह चीख, सैक्स
के पुस्तक की “चोटी” है। यहाँ से आगे हम फिर आराम से, “आदर्शों के क्षेत्रों” से सतही
यथार्थ पर उतरते हैं, और जब हम नीचे उतर जायेंगे तब पता चलेगा कि हमारी अनुपस्थिति
के दौरान वहाँ कुछ भी, कुछ भी नहीं बदला है।
हमारे
गाइड हमें यह सूचना देकर एक कदम नीचे उतारते हैं कि श्रमिकों के आवास की दो प्रथाएँ
हैं: एक कुटीर प्रथा, जिसमें हर श्रमिक-वर्गीय परिवार का अपना एक छोटा सा मकान
होता है जिसके साथ, संभव हो तो एक छोटा सा बगीचा भी होता है – जैसा कि इंग्लैंड में
है; दूसरी होती है बैरक प्रथा जिसमें किराए के बड़े घर होते हैं और उन घरों में कई मजदूरों
के आवास होते हैं – जैसा पैरिस, विएना वगैरह में है। इन दोनों के बीच की एक प्रथा उत्तरी
जर्मनी में चल रही है। अब, यह सच है कि – वह कहते हैं – कुटीर प्रथा ही एकमात्र
सही प्रथा है, और यही एक प्रथा है जिसमें श्रमिक अपने घर का स्वामित्व प्राप्त
कर सकता है। इसके अलावा – उनका तर्क है कि – स्वास्थ्य, नैतिकता एवं घरेलू शांति के
मद्देनजर बैरक प्रथा में काफी नुकसान हैं। लेकिन हाय, अफसोस! वह कहते हैं, कि कुटीर
प्रथा आवासीय कमी के केन्द्रों में, बड़े नगरों में, जमीन की ऊँची कीमत के कारण
सम्भव नहीं है और इसीलिए, अगर बड़े बैरकों की जगह चार से छे फ्लैट वाले घर बने या विभिन्न
कुशल निर्माण उपकरणो के द्वारा बैरक प्रथा के प्रमुख नुकसान कम कर दिये जायेँ तो हमें
प्रसन्न होनी चाहिए। (पृ॰ 71-92)
हमलोग
काफी नीचे आ गये हैं, है न? श्रमिकों का पूंजीपतियों में रूपान्तर, सामाजिक प्रश्न
का समाधान, हरेक श्रमिक के लिए उसका अपना एक घर – ये सारी चीजें पीछे, ऊपर, “आदर्शों
के क्षेत्रों” में छोड़ दी गई हैं। अब जो बचा है हमारे करने के लिए वह है, ग्रामीण इलाकों
कुटीर प्रथा चालू करना और शहरों में श्रमिकों के बैरकों को यथासम्भव सहनीय बनाना।
तो उनकी अपनी ही स्वीकृति
के आधार पर कहा जाय तो आवास के प्रश्न का पूंजीवादी
समाधान धक्का खा गया – शहर एवं गाँव की प्रतिपक्षता के कारण धक्का खा गया। और
इसी के साथ हम इस समस्या के सार तक पहुँच गये हैं। गाँव एवं शहर के बीच के प्रतिपक्षता
को मौजूदा पूंजीवादी समाज ने अन्तिम विन्दु तक पहुँचा दिया है। आवास के प्रश्न का समाधान
तभी हो पाएगा जब समाज का पर्याप्त रूपान्तर हो चुका होगा। इतना पर्याप्त रूपान्तर हो
चुका होगा कि उस प्रतिपक्षता को खत्म करने की ओर हम कदम बढ़ा पायेंगे। गाँव और शहर के
बीच की प्रतिपक्षता को खत्म करना तो दूर, पूंजीवादी समाज बाध्य है दिन प्रति दिन उसे
और गहराने के लिए। जबकि दूसरी ओर, पहले आधुनिक आदर्शलौकिक समाजवादी, ओवेन और फ्युरियर
ने इसे सही पह्चाना था। उनके बनाए नमूना ढाँचों में यह प्रतिपक्षता अनुपस्थित है। फलस्वरूप,
हेर सैक्स की समझ से बिल्कुल विपरीत वहाँ घटित होता है: आवास के प्रश्न का समाधान साथ
ही साथ सामाजिक प्रश्न का समाधान नहीं कर देता है, बल्कि सामाजिक प्रश्न के समाधान
से ही, यानी पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली की समाप्ति से ही, आवास के प्रश्न का समाधान
सम्भव होता है। आवास के प्रश्न का समाधान खोजना और साथ ही साथ आधुनिक बड़े नगरों को
बनाये रखने की ईच्छा रखना एक असंगति है। आधुनिक बड़े नगर अन्तत: पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली
के खत्म होते ही खत्म होंगे, और एक बार अगर यह शुरू हो जाये तो हर एक श्रमिक के लिए
उसका अपना एक घर की आपुर्ति करने के बजाय कई अन्य मुद्दे रहेंगे।
शुरूआत में हालाँकि,
हर सामाजिक क्रांति को हालात उसी रूप में स्वीकारने पड़ते है जिस रूप में वे थे, और
जो भी साधन उपलब्ध हों उनका इस्तेमाल कर सबसे बड़ी बुराइयों से छु्ट्टी पानी पड़ती है।
और हमने पहले ही देखा कि सम्पत्तिवान वर्गों के विलासितापूर्ण मकानों के एक हिस्से
को उनके कब्जे से लेकर तथा सिर्फ बाकी बचे हिस्से में ही उन्हे रहने के लिये बाध्य
कर, आवास की कमी का तत्काल इलाज किया जा सकता है।
अगर हेर सैक्स आगे बढ़ते
हुए, फिर से बड़े नगरों को छोड़ दें और शहरों के करीब श्रमिक-वर्ग का कॉलोनी स्थापित
करने पर वाचाल भाषण दें, अगर वे वैसे कॉलोनियों की खूबसूरतियों का बखान करें – “सार्वजनिक
पानी की आपुर्ति, गैस की रोशनी, हवा एवं गर्म पानी की सुविधा, धोबी-घर, सुखाने के घर,
स्नान-घर आदि” एवं कई “बाल-घर, विद्यालय, प्रार्थना के हॉल” (!) “पाठ-कक्ष, पुस्तकालय
… शराब और बीयर पीने के हॉल, पूरी इज्जतदारी वाले नृत्य एवं संगीत के हॉल”, सभी घरों
वाष्पशक्ति लगी हुई ताकि “कुछ हद तक उत्पादन कारखाने से घरेलु कर्मशाला में अंतरित
किया जा सके” – यह सब कुछ भी स्थिति को बिल्कुल ही नहीं बदल पाती है। उनके द्वारा वर्णित
कॉलोनी, हेर हुबर49 द्वारा सीधा समाजवादी ओवेन एवं फ्युरियर से उधार लिया
गया है और उससे समाजवादी सारी विशेषताओं को हटा कर पूरी तरह पूंजीवादी बना दिया गया है। इस तरह हालाँकि, यह वास्तविक
तौर पर आदर्शलौकिक बन गया है। किसी पूंजीपति को ऐसी किसी कॉलोनी की स्थापना में कोई
दिलचस्पी नहीं है और यथार्थ में ऐसा कोई कॉलोनी पूरी दुनिया में कहीं नहीं है सिवाय
फ्रांस में स्थित गीज़ के कॉलोनी के। वह भी फ्युरियर50 के एक अनुयायी द्वारा,
मुनाफे के सट्टे के तौर पर नहीं समाजवादी प्रयोग51 के तौर पर निर्मित किया
गया था। हेर सैक्स अपने बुर्जुवा परियोजनाओं को बुनने के क्रम में कम्युनिस्ट कॉलोनी
हार्मोनी हॉल52 का भी उदाहरण दे सकते थे, जिसकी स्थापना, चालीस के
दशक की शुरुआत में ओवेन ने हैम्पशायर में किया था और जो लम्बे समय पहले निष्क्रिय हो
चुका है।
किसी भी सूरत में, कॉलोनी
बनाने की ये सारी बातें, पुन: “आदर्शों के क्षेत्रों” मे उड़ने की लंगड़ी कोशिश अलावा
कुछ भी नहीं। और, तत्काल उस क्षेत्र को त्याग भी दिया जाता है। हम फिर तेजी से नीचे
उतरते हैं। सरलतम समाधान अब है
“कि नियोक्ता, कारखानों के मालिक, श्रमिकों को उपयुक्त आवास पाने में
मदद करें। या तो वे खुद ही मकान बनाकर उन्हे मुहैया करायें या श्रमिकों को अपना मकान
बनाने में मदद करें, उनके लिये जमीन का प्रावधान कर, भवन-निर्माण की पूंजी ॠण देकर
इत्यादि” (पृ॰ 106)
इस के साथ हम फिर बड़े
शहरों के बाहर आ गये - क्यों कि वहाँ तो इस तरह का कुछ हो नहीं सकता – और गाँव में वापस चले गये। हेर सैक्स अब यह साबित
करते हैं कि श्रमिकों को सहनीय आवास पाने में मदद करना कारखाना-मालिकों के हित में
है। एक तो इसलिये क्यों कि यह अच्छा निवेश है और दूसरा इसलिये क्योंकि इसका अनिवार्य
“फल होगा श्रमिकों का उद्धार … उनकी मानसिक और शारीरिक कार्यक्षमता
में बृद्धि होगी, जो कि स्वाभाविक तौर पर … रोजगार देने वालों के लिये … कोई कम … लाभदायक
नहीं होगा। इसी के साथ हालाँकि, आवास के प्रश्न के समाधान में, रोजगार-देने-वालों की
भागीदारी का सही परिप्रेक्ष रखा गया है। स्पष्ट होता है कि यह गुप्त सम्बन्ध
का नतीजा है, अपने श्रमिकों के शारीरिक, आर्थिक, मानसिक व नैतिक सेहत के प्रति रोजगार-देने-वालों
के खयाल करने का नतीजा है जो अधिकांशत: मानवतावादी प्रयासों के लबादे में ढका रहता
है। यह प्रयास खुद ही अपने सफल परिणामों – एक मेहनती, कुशल, इच्छुक, सन्तुष्ट एवं वफादार
श्रमिक वर्ग को पैदा करने एवं बनाये रखने – के कारण अपना आर्थिक पुरस्कार है।” (पृ॰
108)
अपने पूंजीवादी परोपकारी बकवास को “उच्चतर महत्व”54
का बनाने के प्रयास में हुबर के “गुप्त सम्बन्ध” के मुहावरे के इस्तेमाल से स्थिति
बिल्कुल ही नहीं बदलती है। इस मुहावरे के बिना भी खासकर इंग्लैंड के बड़े ग्रामीण कारखानेदार
काफी पहले समझ गये थे श्रमिकों के आवासों का निर्माण न सिर्फ एक आवश्यकता है, कारखाना
के औजारों का ही एक हिस्सा है, बल्कि इसमें फायदा भी है। इंग्लैंड में पूरे के पूरे
गाँव इसी तरह से बने हैं, उनमें से कुछेक बाद में विकसित होकर शहर बन गये हैं। श्रमिकों
ने हालाँकि, परोपकारी पूंजीपतियों के प्रति कृतज्ञ होने के बजाय हमेशा इस “कुटीर
प्रणाली” के खिलाफ कई आपत्तियाँ उठाई हैं। न सिर्फ वे इन मकानों की इजारेदार कीमत
देने के लिये मजबूर किये जाते हैं – क्योंकि कारखानेदार का कोई प्रतिस्पर्धी नहीं है
– बल्कि हड़ताल शुरु होते ही तत्काल वे बेघर हो जाते हैं; बिना किसी झमेले के कारखानेदार
उन्हे उसके मकानों से बाहर फेंक देता है। इस तरह किसी भी प्रकार का प्रतिरोध मुश्किल
हो जाता है। इसका विशद वर्णन का अध्ययन मेरे इंग्लैंड में श्रमिक-वर्ग की स्थिति,
पृ॰ 224 एवं 22855 में किया जा सकता है। हेर सैक्स हालाँकि सोचते हैं
कि ये आपत्तियाँ “खण्डित किये जाने लायक भी नहीं हैं” (पृ॰ 111)। लेकिन क्या वह श्रमिक
को अपने नन्हे आवास का मालिक बनाना नहीं चाहते हैं? निश्चित चाहते हैं। लेकिन इस तरह:
“नियोक्ता हमेशा
इस स्थिति में होने चाहिए कि किसी श्रमिक को बर्खास्त करने पर वे उस घर को खाली कर
उसे जगह दे सकें जो उस बर्खास्त श्रमिक के बदले आयेगा”। तो इसमें कोई बात नहीं, बस
“वैसे मामलों का प्रावधान रखा जायेगा कि मालिकाना आपसी रजामन्दी से खण्डनयोग्य होगा।”
(पृ॰ 113)56
इस बार हम इतना अचानक
उतर आये कि सोच भी नहीं पाये। पहले यह कहा गया था कि श्रमिक अपने नन्हे घर का निश्चय
ही मालिक हो। तब हमें सूचना दी गई कि यह शहरों में असम्भव है और सिर्फ गाँवों में किया
जा सकता है। और अब हमें कहा जा रहा है कि गाँव में मिला वह मालिकाना भी “आपसी समझौते
के द्वारा खण्डनयोग्य” होगा! हेर सैक्स द्वारा आविष्कृत इस नये किस्म की सम्पत्ति
के साथ, श्रमिकों के पूंजीपतियों में “आपसी समझौते से खण्डनयोग्य” रूपान्तर के साथ,
हम सुरक्षित समतल जमीन पर उतर आये हैं और यहाँ हमे जाँच करनी है कि पूंजीपतियों एवं
अन्य परोपकारियों ने, आवास के प्रश्न के समाधान के लिये वास्तविक तौर पर क्या
किया है।
[क्रमश;]
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36- सन 1837, 1839 एवं 1842 के लिए – स॰र॰स॰
37- [संकलित रचनाओं की सम्पादकमंडली ने
यहाँ उन तमाम सन्दर्भ-सुत्रों के नाम दर्ज किए हैं जिसकी सूची एमिल सैक्स के पुस्तक
में दी गई थी -अनु॰]
38- समाज विज्ञान की उन्नति के लिए
राष्ट्रीय समिति के कार्यवृत्त, लन्दन, 1859-1865 – स॰र॰स॰
39- बेरिख्ट उबर डाय वेल्ट-ऑस्टेलुंग
ज़ु पैरिस इम जाहरे 1867, विएना, 1869 – स॰र॰स॰
40- लएनक्वेत द्यु दिक्सिएम ग्रुप,
पैरिस, 1867 - स॰र॰स॰
41- चैडविक सम्पादित “रिपोर्ट ऑन ड्वेलिंग्स
कैरेक्टराइज्ड बाइ चीपनेस कॉम्बाइन्ड विथ द कॉन्डिशन्स नेसेसरी फॉर हेल्थ ऐन्ड कॉम्फर्ट”,
द इलस्ट्रेटेड लन्दन न्युज, खण्ड॰51, संख्या 1434/1435, जुलाई 6, 1867 - स॰र॰स॰
42- एल॰ वेल्सरोड, “आइने आर्बेइटर-हेमस्टैट
इन श्वाबेन”, उबेर लैन्ड उन्ड मीर, संख्या 35, 36, 44 एवं 45, 1868 - स॰र॰स॰
43- जे॰ फॉशर, “डाय बेवेगंग फुर वोनांग्सरिफॉर्म”,
भिर्टेलज़ह्रश्रिफ्ट फुर भोक्सविर्थशैफ्ट उन्ड कलचर्गेशिश्ट, खण्ड 4, 1865 एवं
खण्ड 3, 1866; “भेरिख्ट उबेर डाय भेरहैन्ड्लुंगेन देस नेउन्टेन कॉंग्रेसेस ड्युशर भोक्स्विर्थ
ज़ु हैमबुर्ग ऐम 26, 27, 28 उन्ड 29, ऑगस्ट 1867”, उपरोक्त, खण्ड 3, 1867 - स॰र॰स॰
44- गॉटहेल्फ हॉफमैन का छद्मनाम, राष्ट्रवादी
सैनिक गीतों के लेखक - स॰र॰स॰
45- देखिए
मौजूदा संस्करण, खण्ड 6, पृ॰ 513 – स॰र॰स॰
46- जून 8, 1847 के पहले एकीकृत डाएट [जर्मन संसद –
अनु॰] की 34वीं बैठक में डी॰ हैन्समान का भाषण, प्र्युसेन्स अर्स्टर राइखस्टैग,
भाग 7, बर्लिन 1847, पृ॰ 55 – स॰र॰स॰
47- “या एक आम औद्योगिक संकट” एंगेल्स द्वारा 1887 के संस्करण
में जोड़ा गया था - स॰र॰स॰
48- सन 1887 के संस्करण
में एंगेल्स ने निम्नलिखित वाक्य को हटाकर उद्धरण को छोटा किया था: “भूस्वामित्व …
उनकी संख्या कम कर देती है जो सम्पत्तिवान वर्ग के शासन के खिलाफ संघर्ष करते हैं”
- स॰र॰स॰
49- वी॰ ए॰ हुबर, “ऊबर
इनर कॉलोनाइजेशन”, जानुस, 1846, भाग 7 एवं 8, - स॰र॰स॰
50- सन 1859 में एक फ्रांसिसी
कारखानेदार, जाँ बैप्तिस्त आँद्रे गोद्याँ ने गीज़ (उत्तरी फ्रांस के आयने विभाग) में
फ्युरियर के फैलान्स्टेरी (झुंड) के मॉडल पर एक समाजवादी कॉ्लोनी स्थापित किया था,
जि्समें उत्पादन एवं रोजमर्रे का जीवन सहकारिता के आधार पर संगठित था। 1880 के दशक
आते आते फैमिलिस्तिएर नाम का यह कॉलोनी, पूंजीवादी ज्वाइंट स्टॉक उद्यम बन चुका था।
51- और यह अन्तत: एक
और जगह बन गया था श्रमिक-वर्ग के शोषण के लिये। देखिये सन 1886 के वर्ष का, पैरिस का
सोश्यलिस्ते53 [सन 1887 के संस्करण में एंगेल्स की टिप्पणी]
52- हार्मोनी हॉल
एक कम्युनिस्ट कॉलोनी था। रॉबर्ट ओवेन के नेतृत्व में अंग्रेज आदर्शलोकीय समाजवादियों
ने इस कॉलोनी को सन 1839 के अन्त में हैम्पशायर (दक्षिण इंग्लैंड) में स्थापित किया
था। सन 1845 तक यह वजूद में था। पूर्वलिखित एक निबन्ध में एंगेल्स ने इसे “हाल में
स्थापित एवं अभी तक वजूद में रह र्हे कम्युनिस्ट कॉलोनियों का विवरण” अन्तर्गत चिन्हित
किया था। (देखिए समग्र रचनाएं, मौजूदा संस्करण, खण्ड 4, पृ॰ 223-227)
53- “ला फैमिलिस्तिएर
द गीज़” एवं “ला प्रोग्राम द एम॰ गोद्याँ”, ला सोश्यलिस्ते, संख्या 45 एवं
48, जुलाई ईंटों एवं 24, 1886 - स॰र॰स॰
54- वी॰ ए॰ हुबर, सोश्यल
फ्रैजेन, IV, डाय लैटेन्ट एसोसियेशन, नॉर्डहाउसेन, 1866 - स॰र॰स॰
55- दे्खिये मौजूदा संस्करण,
खण्ड 4, पृ॰ 471-72, 477 - स॰र॰स॰
56- इस मामले मे भी अंग्रेज
पूंजीपति हेर सैक्स के सारे संजोये ईच्छाओं को अर्से पहले, न सिर्फ पूरा कर चुके हैं
बल्कि बहुत आगे बढ़ चुके हैं। 2000 खदान-श्रमिकों के नाम संसदीय मतदाताओं की सूची में
शामिल करने के उपरांत ही उक्त मतदाता सूची को अंतिम रूप देने के लिये, उन श्रमिकों
की तरफ से पेश एक आवेदन पर मोरपेथ के अदालत को सोमवार, 14 अक्तूबर, 1872 को फैसला करना
पड़ा था। उसी क्रम में पता चला कि अधिकांश खदान-श्रमिक, जिस खदान में वे कार्यरत हैं
उसके नियमावली के अनुसार, अपने आवासों के पट्टेदार नहीं बल्कि सिर्फ अनुमतिप्राप्त
बन कर उन घरों में रह रहे हैं और किसी भी समय बिना पूर्व-सूचना के निकाल दिये जा सकते
हैं (स्वाभाविक तौर पर खदान-मालिक और मकान-मालिक दोनों एक ही आदमी थे)। न्यायाधीश ने
फैसला किया कि ये लोग पट्टेदार नहीं बल्कि नौकर हैं, इसलिये उन्हे मतदाता सूची
में शामिल होने का अधिकार नहीं है। ([“खदान-श्रमिकों का मतदान का अधिकार”,] द डेली
न्यूज, [संख्या 8258,] अक्तूबर 15, 1872)
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