Tuesday, November 19, 2019

आवास का प्रश्न, भाग 3 (1) फ्रेडरिक एंगेल्स


प्रुधों एवं आवास के प्रश्न पर अनुपूरक
I
वोकस्टाट के अंक 86 में ए॰ मूलबर्गर74 खुद को उन निबंधों के लेखक के रूप में परिचित कराये हैं जिनकी आलोचना उस अखबार के 51वें एवं बाद के अंकों में मेरे द्वारा की गई थी75। अपने प्रत्युत्तर में मुझे अभिभूत करने के लिये उन्होने तिरस्कारों की ऐसी झड़ी लगाई है और साथ ही साथ, सारे मुद्दों को इतना उलझा दिया है कि चाहे जैसे हो उनका जबाब मुझे देना ही पड़ेगा। मुझे खेद है कि जबाब देने में काफी हद तक मुझे उस व्यक्तिगत वाद-विवाद के क्षेत्र में उतरना पड़ेगा जो मुलबर्गर ने मेरे ऊपर थोप दिया है। फिर भी मैं कोशिश करूंगा कि मेरे जबाबी लेखन में आम पाठकों की भी रुचि हो और इसके लिये मुख्य विन्दुओं को मैं पुन: एवं अगर संभव हो तो पहले से अधिक स्पष्टता के साथ प्रस्तुत करुंगा। भले मुलबर्गर मुझे दोबारा कहें कि इन सभी बातों में “सारत: कुछ भी नया नहीं है - न तो उनके लिये और न ही वोकस्टाट के अन्य पाठकों के लिये”।
मुलबर्गर मेरी आलोचना की शैली और अन्तर्वस्तु की शिकायत करते हैं। जहाँ तक शैली की बात है, इतना उत्तर पर्याप्त होगा कि मैं जानता भी नहीं था कि ये आलोच्य निबंध किसने लिखे हैं। इसलिये, इन निबंधों के लेखक के प्रति किसी व्यक्तिगत “पूर्वाग्रह” का प्रश्न ही नहीं उठता है। बेशक, आवास की समस्या का जो समाधान उन निबंधों में पेश किया गया था उसके विरुद्ध में मैं “पूर्वाग्रहित” था। क्योंकि काफी पहले से मैं प्रुधों के माध्यम से इस समाधान को जानता था और इसके बारे में मेरी राय सुदृढ़ और स्थिर थी।
मैं अपने मित्र मुलबर्गर के साथ मेरी आलोचना के “लहजे” पर झगड़ा नहीं करने जा रहा हूँ। कोई जब मेरी तरह इतने लम्बे समय तक आन्दोलन में रहता है, हमलों के खिलाफ उसकी चमड़ी मोटी हो जाती है और इसीलिये, आसानी से वह मान लेता है कि दूसरों की भी वैसी ही हो चुकी होगी। मुलबर्गर की क्षतिपूर्ति के लिये इस बार मैं अपने “लहजे” को उनके अधिचर्म (त्वक की उपरी सतह) की संवेदनशीलता के अनुकूल रखने का प्रयास करुंगा।
मुलबर्गर ने खास कड़वाहट के साथ शिकायत की है कि मैंने उन्हे प्रुधोंवादी कहा है, और वे इसका प्रतिवाद करते हैं, कहते हैं कि वह प्रुधोंवादी नहीं हैं। स्वाभाविक तौर मुझे उन पर विश्वास करना होगा। लेकिन मैं सबूत प्रस्तुत करूंगा कि आलोच्य निबंधों में – और मुझे सिर्फ उन निबंधों से ही मतलब है – विशुद्ध प्रुधोंवाद के सिवा कुछ भी नहीं है।
लेकिन मुलबर्गर का यह भी कहना है कि मैंने प्रुधों की “ओछी” आलोचना की है और उनके प्रति गंभीर अन्याय किया है।
“टुटपूंजिया प्रुधों का सिद्धांत जर्मनी में एक स्वीकृत मताग्रह बन चुका है। वे भी इस सिद्धांत की घोषणा करते हैं जिन्होने कभी प्रुधों की र्क पंक्ति भी नहीं पढ़ी।”
जब मैं खेद व्यक्त करता हूँ कि बीस वर्षों से लातीनी भाषायें बोलने वाले श्रमिकों के पास प्रुधों की रचनाओं के अलावा कोई दूसरा मानसिक खुराक नहीं है, मुलबर्गर जबाब देते हैं कि जहाँ तक लातीनी श्रमिकों की बात है, “प्रुधों द्वारा सुत्रबद्ध किये गये सिद्धांत लगभग सभी जगहों पर आन्दोलन के प्रेरक उत्साह रहे हैं”। इस बात से मैं निश्चित ही इन्कार करुंगा। पहली बात, श्रमिक-वर्ग के आन्दोलन का “प्रेरक उत्साह” कहीं भी “सिद्धांतों” में निहित नहीं रहता है बल्कि बड़े उद्योगों का विकास एवं उसके प्रभावों – एक तरफ पूंजी के तो दूसरी तरफ सर्वहारा के जमाव एवं संकेन्द्रण – में निहित रहता है। दूसरी बात, यह कहना सही नहीं है कि लातीनी देशों में प्रुधों के तथाकथित “सिद्धांतों” की, जैसा कि मुलबर्गर कहते हैं, निर्णायक भूमिका थी – “आर्थिक ताकतों के संगठन, सामाजिक विघटन आदि द्वारा प्रतिपादित अराजकतावाद के सिद्धांत वहाँ … क्रांतिकारी आन्दोलन के सच्चे वाहक बन गये थे”। स्पेन और इटली को अगर छोड़ दें, जहाँ प्रुधोंवादी सर्वरोगहर औषधि - वह भी बाकुनिन द्वारा प्रस्तुत और भी अधकचरे रूप - का कुछ प्रभाव पड़ा था, अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक-वर्ग आन्दोलन को जानने वाले सभी को यह कुख्यात तथ्य पता है कि फ्रांस में प्रुधोंवादी संख्या की दृष्टि से एक तुच्छ संप्रदाय हैं। फ्रांसिसी श्रमिक जनसमुदाय, सामाजिक विघटन एवं आर्थिक शक्तियों का संगठन76 के नाम पर प्रुधों द्वारा बनाई गई सामाजिक सुधार योजना के साथ कोई भी सरोकार रखने से इनकार करता है। पैरिस कम्यून में अन्य बातों के साथ यह भी दिखा था। हालाँकि प्रुधोंवादियों का कम्यून में सशक्त प्रतिनिधित्व था, प्रुधों के प्रस्तावों के अनुसार पुराने समाज को विघटित करने या आर्थिक शक्तियों को संगठित करने की जरा सी भी कोशिश नहीं की गई थी। विपरीत में, यह बात कम्यून के लिये सर्वोच्च सम्मान की है कि अपने सारे आर्थिक कदमों में, कम्यून के “प्रेरक उत्साह” सरल, व्यवहारिक जरूरतें थीं, “सिद्धांतों” के समूह नहीं। और इसी लिये ये कदम – बेकरियों में रात के काम की समाप्ति, कारखानों में आर्थिक दंड पर रोक, बन्द-पड़े कारखानों एवं कर्मशालाओं को जब्त कर श्रमिक समितियों को सौंप दिया जाना – बिल्कुल ही प्रुधोंवाद की भावना के अनुरूप नहीं बल्कि निश्चित तौर पर जर्मन वैज्ञानिक समाजवाद की भावना के अनुरूप है। एक मात्र सामाजिक कदम जो प्रुधोंवादियों ने लागू करवाया वह था बैंक ऑफ फ्रांस को जब्त नहीं करने का फैसला, और यह फैसला कम्यून के पतन के लिये आंशिक तौर पर जिम्मेदार था। उसी तरह, जब तथाकथित ब्लांकीवादियों ने खुद को महज राजनैतिक क्रांतिकारियों से, निर्दिष्ट कार्यक्रम सहित समाजवादी श्रमिकों के एक गुट में बदलने का प्रयास किया – जैसा लन्दन के ब्लांकीवादी भगोड़ों द्वारा अपने घोषणापत्र क्रांति का अन्तरराष्ट्रीय में किया गया था – उन्होने समाज के उद्धार की प्रुधोंवादी योजना के “सिद्धांतों” की घोषणा नहीं की, बल्कि अक्षरश:, जर्मन वैज्ञानिक समाजवाद के नजरिये को अपनाया। सर्वहारा की राजनैतिक कार्रवाई की आवश्यकता पर, वर्गों की समाप्ति एवं उसी के साथ राज्यसत्ता की समाप्ति के संक्रमणकाल में उसकी तानाशाही की आवश्यकता पर जर्मन वैज्ञानिक समाजवाद का जो नजरिया कम्युनिस्ट घोषणापत्र77 में, और उसके बाद अनगिनत अवसरों पर अभिव्यक्त हुआ था, उसी को उन्होने अपनाया। और अगर मुलबर्गर, प्रुधों के प्रति जर्मनों की अवहेलना की दृष्टि के कारण यह निष्कर्ष निकालते हैं कि लातीनी देशों में आन्दोलन के बारे में “पैरिस कम्यून तक” समझ की कमी रही है, तो वह इस कमी के सबूत के रूप में बतायें कि लातीनी तरफ की कौन सी रचना में कम्यून को, जर्मन मार्क्स द्वारा लिखित फ्रांस में गृहयुद्ध पर अन्तरराष्ट्रीय के साधारण परिषद को सम्बोधन जैसा सही (लगभग भी) ढंग से समझा गया है और वर्णित किया गया है।  
एक मात्र देश जहाँ श्रमिक-वर्ग का आन्दोलन प्रत्यक्षत: प्रुधोंवादी “सिद्धांतों” के प्रभाव में है, वह है बेल्जियम। और ठीक इसी के परिणामस्वरूप बेल्जियाई आन्दोलन, जैसा कि हेगेल कहते, “शून्य से शून्य होते हुये शून्य तक”78 पहुँचता है।
जब मैं इसे एक दुर्भाग्य समझता हूँ कि बीस वर्षों से लातीनी देशों के श्रमिकों को बौद्धिक आहार के रूप में प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर सिर्फ प्रुधों की रचनायें ही मिली हैं, मेरा सरोकार प्रुधों की सुधार-विधियों पर हावी उस पूर्णतया पौराणिक आधिपत्य से नहीं होता है जिसे मुलबर्गर “सिद्धांत” नाम देते हैं, बल्कि इस बात से होती है कि प्रुधों की रचनाओं के प्रभाव के कारण लातीनी देशों श्रमिकों द्वारा की गई मौजूदा समाज की आर्थिक आलोचना, पूरी तरह झूठे प्रुधोंवादी मुहावरों से दूषित रही एवं उनकी राजनीतिक कार्रवाईयाँ प्रुधोंवाद के प्रभाव के कारण विफल होती रही। अब इसके चलते “लातीनी देशों के प्रुधों-कृत श्रमिक” जर्मन श्रमिकों से “ज्यादा खड़े हैं क्रांति में” या नहीं, इसका जबाब तो हम तभी दे पायेंगे जब सीख लेंगे कि वास्तव में, “क्रांति में खड़े होने” का अर्थ क्या होता है। वैसे, लातीनी जितना अपने प्रुधों को जानते हैं उससे बहुत बहुत बेहतर ढंग से जर्मन श्रमिक कम से कम वैज्ञानिक जर्मन समाजवाद के अर्थ को जानते हैं। हमने उन लोगों का भाषण सुना है जो “इसाईयत में, सच्ची आस्था में, ईश्वर की कृपा में खड़े रहते हैं” वगैरह, वगैरह। लेकिन क्रांति में, सभी आन्दोलनों में जो सर्वाधिक प्रचंड है उसमें “खड़े रहना”? तो क्या, “क्रांति” एक तत्ववादी धर्म है जिस पर हम अवश्य विश्वास करें?
आगे चल कर मुलबर्गर मुझे तिरस्कार करते हैं कि उनके निबंधों के सुस्पष्ट शब्दावलियों का अनादर करते हुये मैंने दावा किया है कि उन्होने आवास के प्रश्न को विशेष तौर पर श्रमिक-वर्ग के प्रश्न होने की बात कही है।
इस बार मुलबर्गर वास्तविक ही सही हैं। मैंने आलोच्य परिच्छेद की अनदेखी की। इसकी अनदेखी करना मेरी गैरजिम्मेदारी थी क्योंकि यह परिच्छेद उनके दीर्घ विवेचन की पूरी प्रवृत्ति को स्पष्ट करता है। मुलबर्गर वस्तुत: सादे शब्दों में लिखते हैं:
“चुँकि हम बार बार और व्यापक तौर पर, वर्गीय नीति पर चलने, वर्गीय आधिपत्य के लिये प्रयासरत रहने और इसी तरह के अन्य निरर्थक आरोपों से घिरते रहते हैं, सबसे पहले हम स्पष्टता के साथ इस बात पर जोर डालना चाहते हैं कि आवास का प्रश्न कहीं से भी, विशेष तौर पर सर्वहारा को प्रभावित करने वाला प्रश्न नहीं है। बल्कि, इसके विपरीत, वास्तविक मध्य वर्गों को भी काफी महत्वपूर्ण हद तक को, छोटे व्यापारियों को, टुटपूंजियों को, पूरी अफसरशाही को यह प्रश्न प्रभावित करता है … आवास का प्रश्न सामाजिक सुधार का ठीक वह बिन्दु है जो एक तरफ, किसी भी दूसरे बिन्दु से अधिक, सर्वहारा के हितों एवं दूसरी तरफ, समाज के वास्तविक मध्य वर्गों के हितों के बीच की परम आन्तरिक समरूपता को उजागर करने के उपयुक्त प्रतीत होता है। किराये के घरों के उत्पीड़क जंजीरों को सर्वहारा जितना झेलता है, मध्य के वर्ग भी उतना ही, एवं शायद उससे अधिक झेलते हैं … । आज समाज के वास्तविक मध्य के वर्ग इस प्रश्न का सामना कर रहे हैं कि क्या वे … जवान, जोरदार एवं ऊर्जावान श्रमिक-दल के साथ गँठजोड़ बनाकर समाज के बदलाव – ऐसा बदलाव जिसका आशीर्वाद सबसे अधिक वे ही प्राप्त करेंगे – में हिस्सा लेने के लिये … पर्याप्त शक्ति जुटा पायेंगे?”79
इस तरह मित्र मुलबर्गर यहाँ निम्नलिखित बिन्दु प्रस्तुत करते हैं:
1॰ “हम” कोई “वर्गीय नीति” पर नहीं चलते एवं “वर्गीय आधिपत्य” के लिये प्रयासरत नहीं होते। लेकिन जर्मन सामाजिक-जनवादी श्रमिक दल, सिर्फ इसलिये कि यह श्रमिकों का दल है, आवश्यक तौर पर एक “वर्गीय नीति” पर, श्रमिक वर्ग की नीति पर, चलता है। चुँकि प्रत्येक राजनीतिक दल राज्यसत्ता पर अपना शासन प्रतिष्ठित करने के लिये आगे बढ़ता है, जर्मन सामाजिक-जनवादी श्रमिक दल भी आवश्यक तौर पर राज्यसत्ता पर अपना शासन, श्रमिक वर्ग का शासन यानी “वर्गीय आधिपत्य”, प्रतिष्ठित करने के लिये प्रयासरत है। इसके अलावा, अंग्रेज चार्टिस्टों से लेकर आज तक सभी वास्तविक सर्वहारा दलों ने एक वर्गीय नीति प्रस्तुत किया है, कि स्वतंत्र राजनीतिक दल के रूप में सर्वहारा का संगठन-निर्माण इसके संघर्ष का प्राथमिक शर्त है तथा संघर्ष का तात्कालिक लक्ष्य है सर्वहारा का एकनायकत्व। इसे “निरर्थक” घोषित कर मुलबर्गर खुद को सर्वहारा आन्दोलन से अलग कर लेते हैं और टुटपूंजिये समाजवाद के खेमें में चले जाते हैं।
2॰ आवास के प्रश्न को यह फायदा हासिल है कि यह विशेष तौर पर श्रमिक-वर्गीय प्रश्न नहीं है बल्कि ऐसा प्रश्न है जो टुटपूंजिया वर्गों को “काफी महत्वपूर्ण हद तक प्रभावित करता है”। फलस्वरूप, “वास्तविक मध्य के वर्ग भी” इस प्रश्न को, ठीक “उतना ही” झेलते है जितना कि सर्वहारा, “एवं शायद उससे अधिक”। अगर कोई घोषणा करे कि टुटपूंजिये वर्ग, किसी एक मामले में भी “शायद सर्वहारा से भी अधिक” झेलते हैं, तो उसे शिकायत करने की शायद ही कोई गुंजाइश बनती है कि क्यों उसे टुटपूंजिया समाजवादियों में गिना गया। अत:, क्या मुलबर्गर को शिकायत करने का कोई आधार बनता है जब मैं कहता हूँ कि:
“मोटे तौर पर उन्ही तकलीफों को लेकर, जिन्हे श्रमिक वर्ग अन्य वर्गों, और खास कर टुटपूंजिया वर्गों के साथ मिल कर झेलता है, टुटपूंजिया समाजवाद व्यस्त रहता है, और प्रुधों भी टुटपूंजिया समाजवादी ही हैं। और इसलिये यह बिल्कुल ही कोई आकस्मिकता नहीं है कि हमारे जर्मन प्रुधोंवादी मुख्यत: आवास के प्रश्न को पकड़ते हैं जो, जैसा कि हमने देखा, विशेष तौर पर श्रमिक-वर्गीय प्रश्न कहीं से भी नहीं है।”80
3॰ “समाज के वास्तविक मध्य वर्गों” के हितों एवं सर्वहारा के हितों के बीच एक “परम आन्तरिक समरूपता” है, और सर्वहारा नहीं, बल्कि वास्तविक मध्य के वर्गों को “सबसे अधिक”, समाज के बदलाव की आनेवाली प्रक्रिया का “आशीर्वाद” प्राप्त होगा।
यानि श्रमिक, आनेवाली सामाजिक क्रांति, “सबसे अधिक” टुटपूंजिया वर्गों के हितों के लिये करेंगे। उतना ही नहीं, टुटपूंजिया वर्गों के हितों के साथ सर्वहारा के हितों की परम आन्तरिक समरूपता है। अगर टुटपूंजिया वर्गों के हितों की सर्वहारा के हितों के साथ परम आन्तरिक समरूपता है तो सर्वहारा के हितों की भी, टुटपूंजिया वर्गों के हितों के साथ परम आन्तरिक समरूपता होगी। टुटपूंजिया दृष्टिकोण को आन्दोलन में रहने का उतना ही अधिकार है जितना सर्वहारा दृष्टिकोण को – और ठीक यही, अधिकार की बराबरी के दावे को ही टुटपूंजिया समाजवाद कहा जाता है।
इसलिये यह बिल्कुल सुसंगत होता है जब अलग पुनर्मुद्रण के पृष्ठ 25 में मुलबर्गर “समाज के वास्तविक आश्रय” के रूप में “क्षुद्र उद्योग” की स्तुति करते हैं, “क्योंकि, अपनी खास प्रकृति के कारण यह अपने में तीन कारकों – श्रम, प्राप्ति एवं दखल – को सम्मिलित करता है और इन तीन कारकों के सम्मिलन के कारण यह व्यक्ति के विकास की क्षमता में कोई बाधा नहीं डालता है”। और तब भी सुसंगत होता है जब वह, सामान्य मानव पैदा करने के इस पौधा-घर के विध्वंस के लिये तथा “निरन्तर खुद का पुनरुत्पादन करने वाले एक सन्तान उत्पादक वर्ग को मानवों – जो नहीं जानते हैं कि अपनी चिंतित दृष्टि किधर घुमायें - के एक अचेतन ढेर में बदलने के लिये” खास कर आधुनिक उद्योग का तिरस्कार करते हैं। इस तरह, टुटपूंजिया ही मुलबर्गर का आदर्श मानव है और क्षुद्र उद्योग मुलबर्गर का आदर्श उत्पादन प्रणाली। तो, जब मैंने उन्हे टुटपूंजिया समाजवादियों में श्रेणीबद्ध किया, क्या मैंने उन्हे बदनाम किया?
चुँकि मुलबर्गर प्रुधों की सारी जिम्मेदारी अस्वीकार करते हैं, आगे और यह विवेचन जरूरत से ज्यादा होगा कि किस तरह प्रुधों की सुधार योजनायें समाज के सभी सदस्यों को टुटपूंजिया और छोटे किसानों में परिवर्तित करने को लक्ष्य बनाती हैं। टुटपूंजिये वर्ग एवं श्रमिकों के हितों की आरोपित समरूपता का विवेचन भी उतना ही गैरजरूरी होगा। जितना जरूरी है वह कम्युनिस्ट घोषणापत्र (लाइपजिग संस्करण, 1872, पृ॰ 12 एवं 2181) में पहले से मौजूद है। हमारे परीक्षण का परिणाम, अत: यही हुआ कि “टुटपूंजिया प्रुधों की दन्तकथा” के बगल में टुटपूंजिया मुलबर्गर की वास्तविकता का आविर्भाव हुआ।


[क्रमश:]
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74- ए॰ मुलबर्गर, “ज़ुर वोनांग्स्फ्राज”, डेर वोकस्टाट, अंक 86, अक्तूबर 26, 1872 - स॰र॰स॰
75- देखें, इसी खण्ड में, पृ॰ 317-37 – स॰र॰स॰
76- पी॰ जे॰ प्रुधों, आइडिये जेनेराले द ला रिवल्युशन ऑ XIXए सियेक्ल, पैरिस, 1868 – स॰र॰स॰
77- देखें मौजूदा संस्करण, खण्ड 6, पृ॰ 504-506 - स॰र॰स॰
78- जी॰ डब्ल्यु॰ एफ॰ हेगेल, विसेनशाफ्ट डेर लॉजिक, वर्के, खण्ड 4, बर्लिन, 1834, भाग 1, अनुभाग 2, पृ॰ 15, 75, 145 – स॰र॰स॰
79- ए॰ मुलबर्गर, आवास का प्रश्न, एक सामाजिक अध्ययन, अलग से पुनर्मुद्रित वोकस्टाट का अंश, लिपजिग, 1872 - स॰र॰स॰
80-  देखें यह खण्ड, पृ॰ 319 - स॰र॰स॰
81- देखें मौजूदा संस्करण, खण्ड 6, पृ॰ 494 एवं 509-10 - स॰र॰स॰

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