Wednesday, November 6, 2019

आवास का प्रश्न, भाग – 2 (2), फ्रेडरिक एंगेल्स


किस तरह एक पूंजीवादी आवास के प्रश्न का समाधान करता है
अगर हम हमारे डा॰ सैक्स पर विश्वास करें, आवास की कमी को दूर करने के लिये बहुत कुछ अब तक इन भद्रमहाशयों, पूंजीपतियों द्वारा किया जा चुका है, और इस बात का प्रमाण दिया जा चुका है कि पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के आधार पर आवास की समस्या का समाधान हो सकता है।
सबसे पहले हेर सैक्स हमें ‘बोनापार्टवादी57 फ्रांस’ का उदाहरण पेश करते हैं! जाना हुआ तथ्य है कि लुई बोनापार्ट ने पैरिस विश्व प्रदर्शनी के समय, दिखावे के लिये फ्रांस के श्रमिक वर्गों की स्थिति पर प्रतिवेदन हेतु एक आयोग गठित किया था। वास्तव में आयोग का काम था, साम्राज्य की महानता को बढ़ाने के लिये श्रमिकों की स्थिति को परम आनन्दमय बताना। और हेर सैक्स इसी आयोग के प्रतिवेदन का, जो बोनापार्टवाद57 के सबसे भ्रष्ट औजारों की समष्टि है, जिक्र करते हैं खासकर क्योंकि, प्रतिवेदन पर किये गये कार्य के परिणाम “अधिकृत कमिटी के अपने वक्तव्य के अनुसार, पूरे फ्रांस का चित्र है”। और क्या हैं वे परिणाम? सूचना देने वाले नवासी बड़े उद्योगपतियों या ज्वॉइंट स्टॉक कम्पनियों में से एकत्तिस ने श्रमिकों के लिये कोई घर बनाया ही नहीं है। सैक्स के अपने अनुमान के अनुसार, जो घर बनाये गये हैं उनमें 50,000 से 60,000 लोग रहते हैं और लगभग उन सभी घरों में हर परिवार के लिये दो कमरे से अधिक की जगह नहीं है!
जाहिर है कि हर पूंजीपति, जो अपने उद्योग की शर्तों – जलशक्ति, कोयलाखदानों, लौह-अयस्क व अन्य खदानों की भौगोलिक स्थिति इत्यादि - के कारण एक खास ग्रामीण इलाके से बंधा है, अपने श्रमिकों के लिये घर बनाने को, अगर उपलब्ध नहीं है तो, बाध्य है। इसे “गुप्त सम्बन्ध”, “प्रश्न के प्रति बढ़ती हुई समझदारी और इसके व्यापक महत्व का सुवर्णित साक्ष्य”, “बहुत सम्भावनापूर्ण शुरुआत” (पृ॰ 115) का सबूत मानने के लिये खुद को धोखे में रखने की अति विकसित आदत की जरूरत होगी। बाकी यही है कि विभिन्न देशों के उद्योगपति एक दूसरे से इस बिन्दु पर भी भिन्नता रखते हैं, उनके राष्ट्रीय चरित्र के अनुसार। उदाहरणस्वरूप हेर सैक्स हमें सूचित करते हैं (पृ॰ 117):
इंग्लैंड में बस हाल में इस दिशा मे नियोक्ताओं की गतिविधियाँ बढ़ी हुई हैं। खास कर ग्रामीण इलाकों के, रास्ते से हट कर बसे हुए छोटे गाँवों में। सबसे अधिक करीब के गाँवों से भी श्रमिकों को अक्सर कारखाना तक पैदल आना पड़ता है और पहुँचने में इतना थक जाते हैं कि कारखाने में पर्याप्त काम नहीं कर पाते हैं - यही नियोक्ताओं द्वारा श्रमिकों के लिये इन घरों के निर्माण के मुख्य उद्देश्य है। हालाँकि, जिन्हे स्थितियों की अधिक गहरी समझ है और जो आवासीय सुधार के मुद्दे को गुप्त सम्बन्ध के कमोबेश सभी अन्य तत्वों के साथ जोड़ कर देखते हैं, वे भी संख्या में बढ़ रहे हैं और इन्ही लोगों के प्रयास से ये फलती-फूलती कॉलोनियाँ स्थापित हो पाई हैं … पूरे युनाइटेड किंगडम [इंग्लैंड का द्वीपपुंज – अनु॰] में इस काम के लिये हाइड के ऐशटन, टर्टन के ऐशवर्थ, बरी के ग्रांट, बोलिंगटन के ग्रेग, लीड्स के मार्शल, बेल्पर के स्ट्रट, साल्टेयर के सॉल्ट, कोप्ले के ऐक्रॉयेड एवं अन्य लोग काफी जाने जाते हैं।
आशीर्वाद-धन्य है सरलता, उससे भी अधिक आशीर्वाद-धन्य है अज्ञान! इंग्लैंड के ग्रामीण कारखानेदार “बस हाल में” श्रमिकों के घर बनाने शुरू किये हैं। नहीं मेरे प्रिय हेर सैक्स, इंग्लैंड के पूंजीपति वास्तव में बड़े उद्योगपति हैं, सिर्फ उनके पैसों की थैली से नहीं बल्कि दिमाग से। सच में जिसे बड़ा उद्योग कहा जाय वैसा एक भी जर्मनी में बनने से काफी पहले वे समझ गये थे कि ग्रामीण जिलों में कारखाना उत्पादन के लिये श्रमिकों के घरों पर खर्च, पूर पूंजि-निवेश का आवश्यक हिस्सा है, एवं प्रत्यक्षत: व परोक्षत: काफी फायदेमंद हिस्सा है। बिसमार्क एवं जर्मन बुर्जुवा के बीच संघर्ष के कारण जर्मन श्रमिकों को संगठन बनाने की आजादी58 मिलने के काफी पहले इंग्लैंड के कारखाना, खदान एवं ढलाई-घरों के मालिकों को यह व्यवहारिक अनुभव हो चुका था कि अगर वे अपने श्रमिकों के मकान-मालिक भी रहें तो हड़ताल कर रहे श्रमिकों पर कितना दबाव डाल सकते हैं। एक ग्रेग, एक ऐशटन एवं एक ऐशवर्थ की “फलती-फुलती कॉलोनियाँ” इतने “हाल के” हैं कि चालीस साल पहले भी उनकी तारीफ बुर्जुवा के द्वारा मॉडल के तौर पर की जाती थी, जैसा कि मैने खुद अट्ठाइस साल पहले लिखा। (इंग्लैंड में श्रमिक वर्ग की स्थिति, पृ॰ 228-30 पर टिप्पणी59।) मार्शल और ऐक्रॉयड (हिज्जे यही हैं जो इस नाम के लिए यह आदमी इस्तेमाल करता है) की कॉलोनियाँ भी लगभग उतनी ही पुरानी हैं, स्ट्रट की कॉलोनी और भी पुरानी है – इसकी शुरुआत पिछली सदी तक पहुँच जाती है। चूँकि इंग्लैंड में एक श्रमिक के घर का औसत मीयाद चालीस साल माना जाता है, हेर सैक्स उंगलियों पर हिसाब लगा सकते हैं कि आज इन “फलती-फूलती कॉलोनियों” की कैसी जीर्ण दशा है। यह बात भी है कि ये कॉलोनियाँ अब ग्रामीण इलाके में नहीं हैं। उद्योग के प्रचंड विस्तार ने इन कॉलोनियों के अधिकांश को कारखानों और मकानों से इस कदर घेर लिया है कि अब वे 20,000, 30,000 या उससे भी अधिक निवासियों को लिये हुये गंदे, धूँएदार शहरों के बीच में स्थित हैं। लेकिन, इन सारी बातों के बावजूद जर्मन बुर्जुवा विज्ञान को, हेर सैक्स के प्रतिनिधि्त्व में, सन 1840 की प्रशंसा में इंग्लैंड का वह जयगान गाने से नहीं रोकता है, जो अब किसी काम का नहीं है।
और फिर बूढ़े ऐक्रॉयड को उदाहरण के रूप में पेश किया जाना!60 यह महानुभव तो अव्वल दर्जे के परोपकारी थे। ये अपने श्रमिकों से, खास कर महिला श्रमिकों से इतना प्यार करते थे कि यॉर्कशायर में इनके कम-परोपकारी प्रतिस्पर्धी इनके बारे में कहा करते थे कि ये अपने कारखाने सिर्फ अपने बच्चों से ही चलाते थे। सही है, हेर सैक्स का यह कहना कि इन फलती फूलती कॉलोनियों में “नाजायज बच्चे अधिक से अधिक दुर्लभ होते जा रहे हैं” (पृ॰ 118)। हाँ, विवाह से पहले जन्मे नाजायज बच्चे, क्योंकि इंग्लैंड के औद्योगिक जिलों में कम उम्र में ही सुन्दर लड़कियों का विवाह हो जाता है।
इंग्लैंड में हर बड़े ग्रामीण कारखाने के करीब और कारखाने के साथ ही साथ, श्रमिकों के घरों की स्थापना पिछले साठ वर्षों से एक नियम सा बन चुका है। जैसा कि पहले ही जिक्र किया गया है, ऐसे कई सारे कारखाना-गाँव के बीज-रूप के ही चारों ओर, बाद के पूरे कारखाना-शहर विकसित हुए हैं और अपनी सारी बुराईयाँ साथ ले आये हैं। अत:, इन कॉलोनियों ने आवास के प्रश्न का समाधान नहीं किया है। बल्कि इन्ही शहरों के इलाकों में इस प्रश्न का पहली बार वास्तविक तौर पर सृजन हुआ है
दूसरी ओर, इन देशों में, जो बड़े उद्योग के क्षेत्र में इंग्लैंड के पीछे पीछे लंगड़ाते हुये आगे बढ़े हैं और जो – फ्रांस और खास कर61 जर्मनी -  सन 1848 के बाद ही जान पाये हैं कि बड़ा उद्योग होता क्या है, स्थिति बिल्कुल भिन्न है। यहाँ सिर्फ विशाल ढलाई-घर और कारखाने थे जिन्होने काफी असमंजस के बाद कुछेक संख्याओं में श्रमिकों का घर बनाने का फैसला लिया – उदाहरण के तौर पर क्र्युसोत के श्रमिक बस्तियों में श्नैडर वर्क्स या एस्सेन का क्रप्प वर्क्स। ग्रामीण उद्योगपतियों के अधिकांश अपने श्रमिकों को हर सुबह, गर्मी, बर्फीला जाड़ा और बरसात में मीलों दूर से पैदल आने, फिर शाम को अपने घरों तक लौटने के लिये छोड़ देते थे। खास कर यह पहाड़ी जिलों में, फ्रांसिसी और ऐलसैशे के वोस्ज जिलों में, राइनलैंड-वेस्टफैलियन नदियों के वुपर, सीज, ऐगर, लेन एवं अन्य घाटियों में ज्यादा होता था। एर्जेबर्ज में स्थिति शायद इससे बेहतर नहीं है। एक ही तरह की ओछी कंजूसी जर्मन और फ्रांसि्सियों में पाई जाती है।
हेर सैक्स अच्छी तरह जानते हैं कि अति सम्भावनापूर्ण शुरुआत या फलती फूलती कॉलोनियाँ जैसी चीजें हैं ही नहीं। इसलिए अब वह पूंजीपतियों के समक्ष यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि श्रमिकों के घर बना कर वे भव्य किराये वसूल सकते हैं। दूसरे शब्दों में वह, पूंजीपतियों को, श्रमिकों को धोखा देने का एक नया जरिया दिखाना चाहते हैं।
सबसे पहले वह उनके सामने, कई लन्दन भवन-निर्माण समितियों का उदाहरण पेश करते हैं जो अंशत: परोपकारी और अंशत: सट्टेबाज हैं, जिन्होने कुल लाभ चार से छे प्रतिशत या उससे अधिक दर्ज किया है। हेर सैक्स के लिये यह साबित करना बिल्कुल जरूरी नहीं है कि श्रमिकों के आवासों में निवेश की गई पूंजी अच्छा मुनाफा देती है। पुंजीपतिलोग श्रमिकों के घरों पर जितना निवेश करते हैं उससे अधिक नहीं करने का कारण है कि ज्यादा खर्चीला घर उनके मालिकों ले लिये और अधिक मुनाफा ले आते हैं। इसलिये हेर सैक्स का, पूंजीपतियों से किया गया आग्रह अन्त में फिर से, नैतिक उपदेश के अलावा कुछ भी नहीं है।
अब जहाँ तक लन्दन भवन-निर्माण समितियों की बात है - जिनकी चमकदार सफलताओं का हेर सैक्स इतनी जोर आवाज में बखान करते हैं - उन समितियों ने, उनके अपने आँकड़ों के आधार पर, भवन-निर्माण के सारी सट्टेबाजियों को शामिल करते हुये, कुल 2132 परिवारों एवं 706 अकेले पुरुषों को आवास मुहैया कराये हैं, यानी 15000 लोगों से भी कम! क्या गंभीरता के साथ यह माना जाता है कि इस किस्म के बचपने को जर्मनी में महान सफलता के रूप में पेश किया जायेगा, जबकि सिर्फ लन्दन के इस्ट एन्ड में दसियों लाख श्रमिक आवासों की अत्यंत दयनीय स्थिति में जीते हैं? ये सारी परोपकारी कोशिशें दर असल इतनी बुरी तरह निरर्थक हैं कि श्रमिकों की स्थिति पर चर्चा करने वाले इंग्लैंड के संसदीय प्रतिवेदन इनका जिक्र तक नहीं करते हैं।
हेर सैक्स के पुस्तक के इस पूरे भाग में लन्दन की जानकारी के अभाव में जो ऊटपटांग बातें लिखी दिखती है हम उस पर बात नहीं करेंगे। सिर्फ एक विन्दु पर हालाँकि बोलना जरूरी है। हेर सैक्स की राय है कि सोहो स्थित अकेले पुरुषों का लॉजिंग हाउस पासपड़ोस में “एक भी ग्राहक मिलने की उम्मीद नहीं होने” के कारण कारोबार से बाहर हो गया। हेर सैक्स कल्पना करते हैं कि लन्दन का वेस्ट एन्ड बड़ा सा एक विलासितापूर्ण शहर है। वह नहीं जानते हैं कि सर्वाधिक सुरुचिपूर्ण रास्तों के ठीक पीछे श्रमिकों के सबसे गन्दी बस्तियाँ देखने को मिलेंगी, जिनमें से एक है सोहो। सोहो के आदर्श लॉजिंग हाउस में, जिसका वह जिक्र करते हैं और मैं जिसे 23 साल पहले जानता था, शुरु में काफी लोग जाते थे। लेकिन बन्द कर दिया गया क्योंकि कोई उसका उस जगह पर होना सह नहीं पा रहा था। फिर भी, वह सबसे अच्छों में से एक था।
लेकिन आल्साशे में मुलहाउज का श्रमिक-शहर? वह तो निश्चित ही सफल है, है न?
मुलहाउज का श्रमिक-शहर महादेशीय पूंजीवादियों के लिये दिखाने का एक प्रदर्शन-वस्तु है, ठीक जिस तरह ऐशटन, ऐशवर्थ, ग्रेग ऐन्ड को॰ की एक समय फलती फुलती कॉलोनियाँ अंग्रेज पूंजीवादियों के लिए थीं। दुर्भाग्यवश, मुलहाउज का उदाहरण “गुप्त” सम्बन्ध नहीं बल्कि द्वितीय फ्रांसिसी साम्राज्य एवं ऐलसैशे के पूंजीपतियों के खुले सम्बन्ध की उपज था। यह लुई बोनापार्ट के समाजवादी प्रयोगों में से एक था जिसके लिये लगी पूंजी का एक तिहाई राज्यसत्ता ने अग्रिम के रूप में दिया था। चौदह वर्षों में (सन 1867 तक) इस प्रयोग के तहत, एक त्रुटिपूर्ण प्रणाली के द्वारा 800 छोटे घर बनाये गये। इस तरह के त्रुटिपूर्ण प्रणाली द्वारा घरों का बनना इंग्लैंड में असम्भव था क्योंकि वहाँ लोग इन चीजों को बेहतर जानते हैं। वे 800 घर भी, तेरह से पन्द्रह वर्षों तक बढ़ते हुये किराये के मासिक भुगतान के उपरांत श्रमिकों को उनकी सम्पत्ति के रूप दिये गये। ऐलसैशे के बोनापार्टवादियों के लिये, सम्पत्ति प्राप्त करने के इस तरीके का आविष्कार करने की आवश्यकता नहीं थी; आगे हम देखेंगे कि बहुत पहले ही यह तरीका अंग्रेज सहकारिता भवन-निर्माण समितियों द्वारा चालु किया गया था। अगर इंग्लैंड से तुलना की जाय तो फ्रांस में इन भवनों की खरीद के लिये भुगतान किया गया अतिरिक्त किराया काफी अधिक थे। उदाहरणस्वरूप, पन्द्रह वर्षों में 4,500 फ्रां किश्तों में चुकाने के बाद श्रमिक को एक घर मिलता है जिसकी कीमत पन्द्रह वर्ष पहले 3,300 फ्रां हुआ करती थी। श्रमिक अगर घर छोड़ कर जाना चाहे या अगर उसका एक मासिक किश्त भी बकाया हो (जिस स्थिति में उसे घर से निकाला जा सकता है), तो घर के शुरुआती मुल्य का छे पूर्णांक दो बटा तीन प्रतिशत वार्षिक किराये के रूप में वसूल कर (जैसे, 3,000 फ्रां की कीमत वाले एक घर के लिये 17 फ्रां प्रति माह) बाकी पैसा उसे भुगतान कर दिया जायेगा, लेकिन बिना एक पैसा व्याज के। यह अति स्पष्ट है कि इस परिस्थिति में बिना “राज्यसत्ता की मदद” के भी समिति मोटी हो सकती है। यह भी उतना ही स्पष्ट है कि इन परिस्थितियों में, इस तरह मुहैया किये गये घर अगर शहर के अन्दर बने किराये के घरों से बेहतर कहे जा सकते हैं तो बस इसलिये कि ये घर शहर के बाहर अर्द्ध-ग्रामीण अड़ोस-पड़ोस में बने हैं।       
जर्मनी में किये गये कुछेक दयनीय प्रयोगों के बारे में हमें कुछ नहीं कहना है; हेर सैक्स भी खुद, पृष्ठ 157 में, उन प्रयोगों की बुरी स्थिति को स्वीकार करते हैं।
तो फिर, इन तमाम उदाहरणों से क्या साबित होता है? सरलता से बस इतना ही कि श्रमिकों का घर बनाना पूंजीपति के दृष्टिकोण से मुनाफे वाला काम है, तब भी जब स्वच्छता के सारे कानून पैरों तले न रौंदे जायें। लेकिन कभी इससे इन्कार भी नहीं किया गया है; हम सब काफी पहले से यह सब जानते हैं। पूंजी का कोई भी निवेश जो किसी मौजूदा जरूरत को पूरी करे, फायदेमन्द होगा अगर तर्कसंगत ढंग से किया जायेगा। यकीनन सवाल यही है कि क्यों आवास की कमी फिर भी बनी हुई है, क्यों पूंजीपतिलोग फिर भी श्रमिकों को पर्याप्त स्वस्थ्य आवास उपलब्ध नहीं कराते। और यहां भी फिर से हेर सैक्स बस पूंजी से आग्रह करते हैं लेकिन उत्तर देने में असफल होते हैं। प्रश्न का वास्तविक उत्तर हम उपर में पहले ही दे चुके हैं।
भले ही क्षमता में हो लेकिन आवास की कमी को पूंजी खत्म नहीं करना चाहती है, यह अब अन्तिम तौर पर स्थापित हो चुका है। तो अन्तत: दो ही उपाय बचते हैं: श्रमिकों की स्वयं-सहायता या राज्यसत्ता से सहायता।
हेर सैक्स, स्वयं-सहायता के उत्साही पूजक होने के कारण, आवास के प्रश्न पर इस दिशा में जादुई कारनामों की खबर दे सकते हैं। दुर्भाग्यवश, शुरू में ही वह स्वीकारने के लिये वाध्य हो जाते हैं कि स्वयं-सहायता वहीं कुछ असर कर सकता है जहाँ कुटीर प्रणाली या तो पहले से विद्यमान हो या जहाँ यह सम्भव हो, यानी फिर वही ग्रामीण इलाकों में। बड़े शहरों में, यहाँ तक कि इंग्लैंड में भी, यह सीमित तौर पर असरदार हो सकता है। हेर सैक्स तब आह भरते हैं:
“इस प्रकार से (स्वयं-सहायता के माध्यम से) सुधार सिर्फ फेरदार तरीके से, और फलस्वरूप हमेशा अधूरे ढंग से हो सकता है, यानी निजी स्वामित्व की नीति इतनी सशक्त हो कि आवास के गुणवत्ता पर सक्रिय हो सके।” [पृ॰ 170]
इसमें भी सन्देह है, क्योंकि “निजी स्वामित्व की नीति” का कोई सुधारकारी प्रभाव लेखक की लेखन-शैली के “गुणवत्ता” पर नहीं पड़ा है। इन सारी बातों के बावजूद, इंग्लैंड में स्वयं-सहायता की उपलब्धियाँ विस्मयकारी हैं
“कि वहाँ आवास की समस्या के समाधान के लिये दूसरे रास्तों से जो भी किये गये हैं वे कहीं अधिक हैं”
हेर सैक्स अंग्रेज भवन-निर्माण समितियों का हवाला दे रहे हैं और इन समितियों के बारे में खास कर इसलिये विस्तार से चर्चा करते हैं क्योंकि
“सामन्यत: इनके स्वरूप एवं गतिविधियों के बारे में बहुत ही अपर्याप्त एवं गलत धारणायें बनी हुई हैं। अंग्रेज भवन-निर्माण समितियाँ कहीं से भी … भवन-निर्माण सहकारी या मकान बनाने की समितियाँ नहीं हैं, वे, अगर जर्मन में कहा जाय तो ‘हाउसेर्वेर्वेरीन’ (घर अर्जित करने की समितियाँ हैं। ये ऐसी समितियाँ हैं जिनका उद्देश्य है नियमित तौर पर अपने सदस्यों से नियत-कालीन अंशदान लेकर कोष इकठ्ठा करना, फिर मकानों की खरीद के लिये, उनकी आकृतियों के अनुसार इस कोष से सदस्यों को कर्ज देना… भवन-निर्माण समिति इस तरह अपने सदस्यों के एक हिस्से के लिये एक बचत बैंक है तो दूसरे हिस्से के लिये ॠण बैंक है। अत: भवन-निर्माण समितियाँ, बंधकी ॠण संस्थायें हैं जो श्रमिकों की जरूरतों को पूरी करने के लिये बनाई गई हैं। ये समितियाँ मुख्यत: … श्रमिकों की बचत का इस्तेमाल करती हैं … जमाकर्ताओं के बराबर के सामाजिक ओहदे वले लोगों को मकान बनाने या खरीदने में मदद करती हैं। जैसा कि अनुमान लगाया जा सकता है, ये ॠण, सम्बन्धित जायदाद को बंधक रख कर दिये जाते हैं, और इस शर्त पर दिये जाते हैं कि अल्पकालीन अन्तराल में इनकी अदायगी होगी जिसमें व्याज एवं ॠण-परिशोध दोनो शामिल रहेगा … व्याज जमाकर्त्ताओं को भुगतान नहीं किया जाता है पर हमेशा उसके खाते में जमा होता है एवं इसकी चक्रबृद्धि हो्ती है… सदस्य व्याज सहित अपनी जमा रकम की वापसी मांग सकते हैं … किसी भी समय, एक महीने की सूचना देकर।” (पृष्ठ 170 से 172) “इंग्लैंड में 2,000 से अधिक ऐसी समितियाँ हैं; … इनकी सकल संगृहित पूंजी लगभग 15,000,000 पौन्ड है। इस तरह लगभग 100,000 श्रमिक-वर्गीय परिवारों को अभी तक अपना घर मिल चुका है – एक ऐसी सामाजिक उपलब्धि है जिसकी बराबरी करना नि:सन्देह कठिन है।” (पृष्ठ 174)
दुर्भाग्य से यहाँ भी इसके तुरन्त बाद “लेकिन” लंगड़ाते हुये आ पहुँचता है:
“लेकिन किसी भी तरह समस्या का पूर्णत: दोषहीन समाधान इस तरीके से प्राप्त नहीं होता है। इसका अन्य कोई कारण न भी हो तो एक कारण तो है ही कि आवास का अर्जन कुछ ऐसा काम है कि जिसे करने में बेहतर स्थिति में रह रहे श्रमिक ही … समर्थ हो सकते हैं … खास कर सफाई की हालत पर अक्सर पर्याप्त विचार नहीं किया जाता है।” (पृ॰ 176)
महादेश में “ऐसी समितियों… के विकास की बहुत कम गुंजाइश है”। उनके विकसित होने के लिये कुटीर प्रणाली का विद्यमान होना जरूरी है, जो यहाँ सिर्फ ग्रामीण इलाकों में मौजूद है, और गाँवों में स्वयं-सहायता के लिये पर्याप्त तौर पर विकसित नहीं है। दूसरी तरफ, शहरों में, जहाँ वास्तविक भवन-निर्माण सहकारी समितियाँ बन सकती थी वहाँ इन समितियों को “विभिन्न किस्म की विचारणीय एवं गंभीर कठिनाइयों” का सामना करना पड़ता है। (पृ॰ 179) वे सिर्फ कुटीर बना सकते हैं और वह काम बड़े नगरों में हो नही सकता है। संक्षेप में, “मौजूदा हालात में”…“इस किस्म की सहकारी स्वयं-सहायता”… “हमारे सामने की समस्या के समाधान में मुख्य भूमिका नहीं निभा सकता है और निकट भविष्य में भी इसके निभा पाने की शायद ही कोई संभावना है”। ये भवन-निर्माण समितियाँ, आप समझ रहें हैं न, अभी भी “अपने प्रारंभिक, अविकसित स्तर” पर हैं। “इंग्लैंड के लिये भी यही सच है।” (पृ॰ 181)
अत:, पूंजीपति करेंगे नहीं और श्रमिक कर पायेंगे नहीं। और इसी के साथ हम इस भाग को बन्द कर सकते थे अगर इन अंग्रेज भवन-निर्माण समितियों - जिन्हे शुल्ज-डेलिश किस्म के पूंजीवादी हमेशा श्रमिकों के समक्ष आदर्श के रूप में पेश करते हैं – के बारे में थोड़ी सूचनायें देनी जरूरी नहीं होती।62
ये भवन-निर्माण समितियाँ श्रमिकों की समितियाँ नहीं हैं, न ही श्रमिकों को उनका अपना घर मुहैया कराना इनका प्रधान उद्देश्य है। इसके विपरीत, हम देखेंगे कि यह काम बहुत ही कम, बल्कि अपवाद के तौर पर होता है। भवन-निर्माण समितियाँ मूलत: छप्पर-फोड़ मुनाफे की लालच से खोली गई व्यापारिक संस्थायें हो्ती हैं। जो शुरुआती छोटी समितियाँ थीं वो भी, उनकी नकल कर खोली गई बड़ी समितियाँ की तरह इसी उद्देश्य से खोली गई थी। एक सार्वजनिक घर में, अमूमन इसके मालिक के उकसावे पर, कई नियमित ग्राहक एवं उनके दोस्त, दुकानदार, दफ्तर के किरानी, वाणिज्यिक यात्री, उस्ताद कारीगर एवं अन्य टुटपूंजिये - कुछेक शायद मेकैनिक एवं दूसरे श्रमिक भी जो उनके वर्ग में कुलीन हों – एक साथ जुटते हैं और एक भवन-निर्माण सहकारी संस्था की स्थापना करते हैं। संस्था की आगे की साप्ताहिक बैठकें भी उसी घर में होती रहती हैं। अमूमन तात्कालिक कारण होता है कि उस मालिक ने अड़ोस-पड़ोस में या और कहीं जमीन का, तुलनात्मक तौर पर सस्ते एक टुकड़े का आविष्कार किया होता है। अधिकांश सदस्य अपने पेशे से किसी खास मुहल्ले से बंधे नहीं होते हैं। दुकानदार एवं कारीगरों का भी शहर में सिर्फ अपने व्यवसाय का परिसर होता है लेकिन रहने की जगह नहीं होती। हर वो आदमी जिसकी क्षमता होती है, धुँआ से भरे शहर के केन्द्र के बजाय उपनगरों में रहना ज्यादा पसंद करता है। जमीन का वह प्लॉट खरीदा जाता है और जितनी संख्या में सम्भव हो कुटीर वहाँ बनाये जाते हैं। अधिक समर्थ सदस्यों की साख जमीन की खरीद को सम्भव करती है, तथा साप्ताहिक अंशदान एवं कुछेक छोटा कर्ज निर्माण के साप्ताहिक खर्च को निभाते हैं। जो सदस्य अपना घर पाना चाहते हैं, कुटीरों के बनने के बाद एक साथ पा जाते हैं; यथोचित अतिरिक्त किराया खरीद की कीमत के ॠण-परिशोधन में लगता है। बाकी बचे कुटीर बेचे जाते हैं या किराए पर लगाये जाते हैं। हालाँकि, अगर कोई भवन-निर्माण समिति अच्छा व्यवसाय करे तो उसके पास अच्छी खासी रकम संगृहित हो जाती है। यह रकम सदस्यों की सम्पत्ति बनी रहती है, बशर्ते वे अपना अंशदान बनाये रखें। यह रकम सदस्यों को समय समय पर मिलती रहती है या समिति के भंग होने पर मिल जाती है। दस अंग्रेज भवन-निर्माण समितियों में से नौ की यही जीवनकथा है। बाकी जो बड़ी समितियाँ हैं, कभी कभी राजनीतिक या परोपकारी छल के तहत बनी हुई, अन्त में उनका भी मुख्य उद्देश्य होता है खुदरे पूंजीवादी वर्ग [टुटपूंजिए] की बचत के लिए अच्छे व्याज पर एवं जायदाद पर छप्पर-फाड़ लाभांश की सम्भावना के साथ ज्यादा मुनाफेदार बंधकी निवेश मुहैया कराना।
किस तरह के मुवक्किलों पर ये समितियाँ अपने फायदे की बाजी लगाती हैं वह, अगर सबसे बड़ी नहीं तो सबसे बड़ी समितियों में से एक की विवरण-पुस्तिका को देख कर पता लगाया जा सकता है। बर्कबेक बिल्डिंग सोसायटी, 29 एवं 30, साउदम्पटन बिल्डिंग्स, चैन्सरी लेन, लन्दन, जिसकी स्थापना के बाद से सकल प्राप्ति 10,500,000 पौंड (70,000,000 थेलर) से अधिक है, 416,000 पौंड बैंक में या सरकारी प्रतिभूतियों में निवेशित है तथा वर्तमान में जिसके 21,441 सदस्य एवं जमाकर्ता हैं, जनता के सामने खुद को यूँ पेश करती है:
“अधिकांश लोग प्यानो बनानेवालों की तथाकथित त्रिवर्षीय प्रणाली से परिचित हैं जिसके तहत जो भी तीन साल के लिये प्यानो भाड़े पर लेता है, अवधि पूरी होने के बाद प्यानो उसका हो जाता है। इस प्रणाली के लागू होने के पहले सीमित आय वाले लोगों के लिये प्यानो खरीदना उतना ही कठिन था जितना अपना एक घर खरीदना। साल दर साल ऐसे लोग प्यानो का भाड़ा देते रहे और प्यानो की कीमत का दो गुना या तीन गुना पैसा खर्च कर दुये। जो बात प्यानो पर लागू होती है वही घर पर भी लागू होती है … हाँ, चूँकि एक घर की लागत प्यानो से अधिक होती है … भाड़े के भुगतान पर खरीद की कीमत चुकता होने में ज्यादा समय लगता है। फलस्वरूप, समिति के निदेशकों ने लब्दन के विभिन्न हिस्सों में एवं उपनगरों में मकान-मालिकों के साथ समझौते किए हैं। इन समझौतों के उपरांत बर्कबेक बिल्डिंग सोसायटी के निदेशक अपने सदस्यों एवं अन्य लोगों को शहर के विभिन्न हिस्सों में चुनिंदा मकानों की खरीद का प्रस्ताव देने में सक्षम हैं। निदेशक-मंडक ने जो व्यवस्था लागू करने के बारे में सोचा है वह इस प्रकार है: समिति इन मकानों को साढ़े बारह साल के लिये किराये पर देगी जिसके बाद, अगर किराये का भुगतान नियमित तौर पर किया गया हो तो, बिना किसी प्रकार से कुछ और भुगतान किये, किराएदार मकान का पूरा मालिक होगा … किराएदार अगर चाहे तो अधिक किराये के भुगतान के शर्त पर कम अवधि का या कम किराये के भुगतान के शर्त पर अधिक अवधि का अनुबंध भी कर सकता है … सीमित आय वाले लोग, किरानी, दुकान सहायक एवं अन्य लोग बर्कबेक बिल्डिंग सोसायटी का सदस्य बन तत्काल खुद को भुस्वामियों से मुक्त कर सकते हैं।”
बिल्कुल स्पष्ट है। श्रमिकों का कोई जिक्र नहीं है, लेकिन सीमित आय वाले लोगों का जिक्र है – किरानी, दुकान सहायक आदि। साथ ही, एक सामान्य नियम के जैसा यह मान लिया गया है कि सभी आवेदक पहले से ही प्यानो रखते होंगे। दर असल, हमें यहाँ श्रमिकों से बिल्कुल कुछ लेनादेना नहीं बल्कि टुटपूंजियों से और उनसे जो टुटपूंजियों जैसे हैं और होने में सक्षम हैं। वैसे लोग जिनकी आय एक नियम की तरह धीरे धीरे बढ़ती है, भले ही एक निश्चित सीमा के अन्दर – जैसे किरानी या उसी किस्म के कर्मचारी। जबकि श्रमिक की आय, बहुत होती है तो रकम में बराबर रहती है और यथार्थ में उसके परिवार की होती बृद्धि और बढ़ती जरूरतों के अनुपात में घटती रहती है। वास्तव में बहुत थोड़े से श्रमिक, अपवाद के रूप में ऐसी समितियों का सदस्य बन सकते हैं। एक तरफ उनकी आय बहुत कम है तो दूसरी तरफ यह आय इतनी अनिश्चित प्रकृति की होती है अगले साढ़े बारह सालों की जिम्मेदारी उठाना उनके लिये सम्भव नहीं होता है। कुछेक अपवाद जिन पर ये बातें लागू नहीं होती वे या तो सबसे अधिक आय वाले श्रमिक होते हैं या फोरमैन होते हैं।63     
बाकी के लिये, यह सभी के सामने स्पष्ट है कि मुलहाउज स्थित श्रमिक नगरी के बोनापार्टवादी इन टुटपूंजिये अंग्रेज भवन-निर्माण समितियों दयनीय नकलचियों के अलावा कुछ भी नहीं हैं। एक मात्र भिन्नता है कि ये बोनापार्टवादी, राज्यसत्ता से मंजूर की गई सहायता के बावजूद अपने ग्राहकों को भवन-निर्माण समितियों की तुलना में बहुत अधिक ठगते हैं। समग्रत:, उनकी शर्तें इंग्लैंड में मौजूद औसत शर्तों से कम उदार हैं। साथ ही, जहाँ इंग्लैंड में व्याज एवं चक्रबृद्धि व्याज दोनों की गणना हर जमा राशि पर होती है और एक महीने की सूचना पर जमाकर्ता द्वारा निकाली जा सकती है, मुलहाउज के कारखाना-मालिक व्याज और चक्रबृद्धि व्याज दोनों अपने पॉकेट में डाल लेते हैं और श्रमिकों द्वारा, उनकी अपनी मेहनत की कमाई से जमा किये गये पाँच-फ्रां के नोटों के बराबर रकम के अलावे कुछ भी वापस नहीं करते। कोई भी दूसरा व्यक्ति इस भिन्नता को जानकर उतना अचरज में नहीं पड़ेंगे जितना हेर सैक्स खुद, जबकि ये सारी बातें उनके अनजाने उनकी किताब में है।
तो इस तरह, श्रमिकों की स्वयं सहायता भी काम की नहीं है। अब बचता है राज्यसत्ता की मदद। इस दिशा में हेर सैक्स हमें क्या दे सकते हैं? तीन चीजें:
“सबसे पहले, राज्यसत्ता को ध्यान देनी होगी कि अपने कानून व प्रशासन के द्वारा उन सारी चीजों को जो श्रमिक वर्गों में आवास की कमी को बढ़ावा दे, खत्म किया जाय या यथोचित ढंग से सुधार दिया जाय।” (पृ॰187)
फलस्वरूप, भवन-निर्माण कानून में सुधार और भवन-निर्माण व्यापार में आजादी ताकि भवन सस्ते हों। लेकिन इंग्लैंड में भवन-निर्माण कानून नहीं के बराबर कर दी गई है, भवन-निर्माण का व्यापार उतना ही आजाद है जितना आसमान में पक्षी; फिर भी, आवास की कमी मौजूद है। ऊपर से, भवन आज कल इतने सस्ते में बनाये जा रहे हैं कि बगल से गाड़ी गुजरने पर हिलते हैं और हर दिन कुछेक ढह जाते हैं। कल ही (25 अक्तूबर 1872) उनमें से छे एक साथ मैंचेस्टर में गिरे और छे श्रमिकों को गंभीर रूप से घायल किया।64 इसलिये, वह भी कोई इलाज नहीं है।
“दूसरा, राज्यसत्ता को, संकीर्ण-चित्त व्यक्तिवाद वाले व्यक्तियों को बुराई फैलाने से या नये तौर पर बुलाने से रोकना होगा।” [पृ॰187]
फलस्वरूप, श्रमिकों के घरों का स्वच्छता एवं भवन-पुलिस जाँच; टूटे-फूटे और गंदे आवासों में रहने पर रोक लगाने की ताकत का प्राधिकारों के हाथों में अन्तरण, जैसा इंग्लैंड में सन 1857 से है। लेकिन कैसे आई ये सब बातें, वहाँ? पहला कानून, सन 1855 का विघ्न निवारण कानून “अप्रचलित” रह गया, यह हेर सैक्स खुद ही स्वीकारते हैं। दूसरे कानून, सन 1858 का स्थानीय सरकार कानून का भी एक ही हाल हुआ (पृ॰197)। दूसरी ओर, हेर सैक्स मानते हैं कि तीसरा कानून, कारीगर आवास कानून, जो सिर्फ 10,000 के ऊपर की आबादी वाले शहरों पर लागू होता है, “निश्चित ही, सामाजिक मुद्दों पर ब्रिटिश संसद की जबर्दस्त समझ का अनुकूल साक्ष्य देता है” (पृ॰199)। लेकिन सच्चाई ये है कि यह दृढ़वचन बस इंग्लैंड के “मामलों” में हेर सैक्स के पूर्ण अज्ञान का “अनुकूल साक्ष्य देता है”। यह एक तथ्य है कि “सामाजिक मुद्दों पर” इंग्लैंड सामान्यत: महादेश से बहुत आगे है। इंग्लैंड आधुनिक बड़े उद्योगों की जननी है। पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली वहाँ सबसे अधिक उन्मुक्त एवं व्यापक तौर पर विकसित हुआ है। इसके परिणाम भी वहाँ सबसे अधिक प्रकट हैं और इसीलिये यह स्वाभाविक था कि कानून के क्षेत्र में इस विकासक्रम की प्रतिक्रियायें भी सबसे पहले उत्पन्न हुई। इसका सबसे अच्छा प्रमाण है कारखाना कानून। हालाँकि, अगर हेर सैक्स सोचते हैं कि संसद द्वारा पारित किसी कानून का तत्काल व्यवहार में आ जाने के लिये भी बस कानूनी तौर पर प्रभावी होना जरूरी है, तो वह गंभीर रूप से गलत हैं। और किसी भी दूसरे कानून से ज्यादा (वर्कशॉप कानून को अपवाद के रूप में छोड़ कर) यह बात स्थानीय सरकार कानून में दिख जाती है। इस कानून को लागू करवाने का प्रशासनिक दायित्व नगर प्राधिकारों को दिया गया था। पूरे इंग्लैंड में ये नगर प्राधिकार तमाम तरह के भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और स्वार्थदोहन65 के स्वीकृत केन्द्र हैं। इन नगर प्राधिकारों के दलाल, जो अपने ओहदे विभिन्न किस्म के पारिवारिक रिश्तों के द्वारा बनाये होते हैं, इन सामाजिक कानूनों को लागू करवाने में असमर्थ भी होते हैं और उनकी अनिच्छा भी रहती है। दूसरी ओर इंग्लैंड में ही, सामाजिक कानूनों को तैयार करने वाले और लागू करने वाले सरकारी अधिकारी, कठोर कर्त्तव्य-भावना के कारण अलग पहचान रखते हैं (हालाँकि बीस तीस साल पहले के मुकाबले थोड़ा कम हो गई है)। नगर परिषदों में सभी जगह प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर, गड़बड़ और टूटे-फूटे घरों के मालिकों का सशक्त प्रतिनिधित्व मौजूद रहता है। छोटे वार्डों के माध्यम से इन नगर परिषदों के चुने जाने की प्रणाली के कारण, चुने गये सदस्य संकीर्णतम स्थानीय स्वार्थ एवं प्रभावों पर निर्भर रहते हैं। फलस्वरूप, कोई भी नगर पारिषद जो दोबारा चुने जाने की ईच्छा रखता है, अपने चुनाव-क्षेत्र में इस कानून को लागू किये जाने के पक्ष में मतदान करने की हिम्मत नहीं करेगा। इसलिए यह समझा जा सकता है कि कितने द्वेष के साथ इस कानून को स्थानीय प्राधिकारों ने ग्रहण किया। अभी तक इस कानून का इस्तेमाल सिर्फ सर्वाधिक बदनाम मामलों में हुआ है – और वह भी, एक सामान्य नियम के तौर पर, कोई महामारी फैलने के परिणामस्वरूप। जैसा कि पिछले साल मैंचेस्टर एवं सैलफोर्ड में चेचक की महामारी फैलने के कारण हुआ था। गृह सचिव को किया गया आवेदन भी सिर्फ वैसे ही मामलों में प्रभावकारी हुआ है क्योंकि, सामाजिक सुधार कानूनों को तभी प्रस्तावित करना जब करना मजबूरी हो जाय और अगर सम्भव हो तो मौजूद कानूनों को लागू होने से रोका जाय, इंग्लैंड की सभी उदार सरकार की यही नीति रही है। अभी जिस कानून की चर्चा हो रही है वह या इंग्लैंड के अन्य बहुत सारे कानूनों का यही महत्व है कि श्रमिकों के दबाव में या श्रमिकों के आधिपत्यवाली कोई सरकार जब वास्तव में इसे लागू करेगी, यह कानून एक ताकतवर हथियार होगा समाज की मौजूदा स्थिति में दरार डालने के लिये। ,    
तीसरी बात”, हेर सैक्स के अनुसार राज्यसत्ता को चाहिये कि वह, “आवासों की मौजूदा कमी को दूर करने के लिये अपने नियंत्रण के सारे सकारात्मक उपायों का यथासंभव व्यापक इस्तेमाल करे।” [पृष्ठ 187]
यानी, इसे “अपने अधीनस्थ अधिकारी व नौकरों (लेकिन फिर ये श्रमिक नहीं है!) के लिये” बैरक और “यथार्थ में आदर्श भवन” बनाने चाहिये तथा “नगरपालिकायें, समितियों एवं निजी व्यक्तियों को भी, श्रमिक वर्गों की आवासीय स्थिति को सुधारने हेतु … ॠण मंजूर करना चाहिये” (पृष्ठ 203) – जैसा कि इंग्लैंड में लोक निर्माण ॠण कानून के अन्तर्गत किया गया है और जैसा लुई बोनापार्ट ने पैरिस और मुलहाउस में किया था। लेकिन लोक निर्माण ॠण कानून सिर्फ कागज पर विद्यमान है। सरकार आयुक्तों के नियंत्रण में अधिकतम 50,000 पौन्ड रखती है जिससे अधिक से अधिक 400 कुटीर बन सकते हैं, या अधिक से अधिक 80,000 लोगों के लिये चालीस वर्षों में 16,000 कुटीर या घर – बाल्टी में एक बूंद! अगर हम यह मान भी लें कि बीस वर्षों के बाद, अदायगियों के फलस्वरूप आयोग के नियंत्रण में दी जा रही रकम दोगुनी हो जायेगी तथा इसके चलते अगले बीस सालों में और 40,000 लोगों के लिये घर बन जायेंगे, तब भी वह बाल्टी में एक बूंद ही रहेगी। और, चुँकि कुटीर औसतन सिर्फ चालीस साल टिकते हैं, चालीस सालों के बाद सबसे पुराने और सबसे अधिक टूटे-फूटे कुटीरों को बदलने के लिये सालाना 50,000 या 100,000 पौन्ड तरल परिसम्पत्ति लगानी होगी। यह व्यवस्था, हेर सैक्स पृष्ठ 203 में घोषित करते हैं कि नीतियों को सही ढंग से “और असीमित दायरों तक” व्यवहार में ला रही है! और इस स्वीकारोक्ति के साथ इंग्लैंड में भी राज्यसत्ता की, “असीमित दायरों तक” उपलब्धि शून्य के करीब है हेर सैक्स अपने पुस्तक को समाप्त करते हैं, लेकिन पहले, सम्बन्धित सभी को एक और धर्मोपदेश दिये बिना नहीं।67
यह बिल्कुल स्पष्ट है कि राज्यसत्ता आज जैसा है, यह आवासीय विपत्ति को सुलझाने में न तो सक्षम है और न ही कुछ करना चाहता है। राज्यसत्ता और कुछ नही सिर्फ, शोषित वर्गों - किसान व श्रमिको - के खिलाफ सम्पत्तिवान वर्गों - भूस्वामियों व पूंजीपतियों - की संगठित सामूहिक शक्ति है। जो व्यक्ति पूंजीपति नहीं चाहेंगे वह उनकी राज्यसत्ता भी नहीं चाहेगी। और पूंजीपति की बात इसलिये क्योंकि इस मामले में सम्बन्धित भूस्वामी की सक्रियता भी, प्राथमिक तौर पर, पूंजीपति के रूप में उसकी क्षमता पर होती है। इसलिये अगर व्यक्ति पूंजीपति आवास की कमी की निंदा करे, लेकिन उसके आतंकित करने वाले परिणामों को कम से कम सतही तौर पर भी कम करने में प्रयत्नशील न हो तो सामूहिक पूंजीपति, यानी राज्यसत्ता भी उससे अधिक कुछ नहीं करेगी। अधिक से अधिक वह इतना भर नज़र रखेगी कि जितना सतही इलाज रिवाज बन चुका है उतना सभी जगहों पर बराबर ढंग से किया जाय। हम देख चुके हैं कि मामला यही है।     
लेकिन किसी की आपत्ति हो सकती है कि जर्मनी में तो पूंजीवादियों का शासन अभी नहीं आया है, जर्मनी में राज्यसत्ता अभी भी एक हद तक समाज के ऊपर स्वतंत्र विचरण करती हुई एक ताकत है, और इसी कारण से यह राज्यसत्ता एक वर्ग का नहीं बल्कि समाज के सामूहिक हितों का प्रतिनिधित्व करती है। ऐसी एक राज्यसत्ता निस्सन्देह काफी अधिक कुछ कर सकती है जो एक पूंजीवादी राज्यसत्ता नहीं कर सकती, और सामाजिक क्षेत्र में भी ऐसी राज्यसत्ता से बिल्कुल भिन्न कुछ की अपेक्षा करनी चाहिये।
ये प्रतिक्रियावादियों की भाषा है। हालाँकि यथार्थ में जर्मनी में जो राज्यसत्ता है वह उसी सामाजिक आधार की आवश्यक उत्पत्ति है जिससे वह विकसित हुई है। प्रशिया में – और प्रशिया अभी निर्णायक है – अभी भी ताकतवर एक भूस्वामी अभिजातवर्ग के साथ साथ, तुलनात्मक तौर पर युवा एव अत्यंत भीरु एह पूंजीवादी वर्ग है जो अभी तक फ्रांस जैसा, या कमोवेश परोक्ष आधिपत्य वाले इंग्लैंड जैसा प्रत्यक्ष राजनीतिक आधिपत्य जीत नहीं पाया है। इन दोनो वर्गों के साथ साथ, हालाँकि एक तेजी से बढ़ता हुआ सर्वहारा वर्ग भी मौजूद है जो बौद्धिक तौर पर अत्यंत विकसित है और दिन प्रतिदिन अधिक से अधिक संगठित होता जा रहा है। इसीलिये हमें यहाँ, पुराने निरंकुश राजतंत्र की बुनियादी शर्त - भूस्वामी अभिजात वर्ग एवं पूंजीवादी वर्गों के बीच बलसाम्य - के साथ साथ आधुनिक बोनापार्टवाद की बुनियादी शर्त - पूंजीवादी वर्गों एवं सर्वहारा वर्ग के बीच बलसाम्य – देखने को मिलता है। लेकिन पुराने निरंकुश राजतंत्र और आधुनिक बोनापार्टवादी राजतंत्र दोनों में वास्तविक सरकारी अधिकार सेना के अधिकारियों एवं राज्यसत्ता के अधिकारियों की एक विशेष जाति के पास होता है। प्रशिया में इस जाति में में नई भर्ती अंशत: तो जाति से ही होती है और अंशत: कमतर अग्राधिकारप्राप्त अभिजात वर्ग से होती है। उच्चतर अभिजात वर्ग से बहुत कम और पूंजीवादी वर्गों से सबसे कम होती हैं। इस जाति की स्वतंत्रता, जो लगता है कि समाज से बाहर और कहा जाय तो, समाज से ऊपर अपना स्थान बनाये हुये है, राज्यसत्ता को समाज से स्वतंत्र होने का सादृश्य देता है।        
इन अन्तर्विरोधी सामाजिक परिस्थितियों से प्रशिया में आवश्यक सुसंगति के साथ (और प्रशिया के दृष्टान्त का अनुसरण करते हुए जर्मनी के बादशाही संविधान में भी) राज्यसत्ता का जो रूप विकसित हुआ है वह है छद्म-संविधानवाद, एक ऐसा रूप जो पुराना निरंकुश राजतंत्र के विसर्जन का भी वर्तमान रूप है और बोनापार्टवादी राजतंत्र के अस्तित्व का भी रूप है। सन 1848 से 1866 तक प्रशिया में छद्म-संविधानवाद, निरंकुश राजतंत्र की धीमी क्षय को सुगम करता रहा और छिपाये रखा। लेकिन सन 1866 से, एवं सन 1870 से और भी अधिक, सामाजिक परिस्थितियों में आई उथलपुथल की एवं उसके साथ पुरानी राज्यसत्ता के विसर्जन की प्रक्रिया सबकी नजरों के सामने और तेजी से बढ़ते हुये पैमाने पर घटित होता रही है। उद्योग का और खास कर शेयर बाजार की ठगी का तेज विकास सारे शासक वर्गों को सट्टे के भँवर में घसीट लाया है। सन 1870 में फ्रांस से आया हुआ थोक भ्रष्टाचार अभूतपूर्व दर से विकसित हो रहा है। स्ट्रोसबर्ग और पेरिर एक दूसरे के सामने टोपी उतारते हैं। मंत्री, सेनानायक, राजकुमार और छोटे सामन्तलोग, शेयर बाजार के सबसे चतुर भेड़ियों का प्रतिस्पर्धी बन कर शेयर का जुआ खेलते हैं और राज्यसत्ता उनकी बराबरी को स्वीकृति देते हुये थोक भाव से शेयर बाजार के उन भेड़ियों को छोटे नवाबीयत का खिताब देकर सम्मानित करता है। ग्रामीण कुलीनजन, जो एक लम्बे समय से चुकन्दर की चीनी के उत्पादक तथा ब्रांडी प्रस्तुतकारक के रूप में उद्योगपति रहे हैं, काफी पहले पुराने सम्मानजनक दिनों को पीछे छोड़ चुके हैं और अब तमाम किस्म के मजबूत और कमजोर ज्वॉइंट स्टॉक कम्पनियों के निदेशकों की सूची में भीड़ लगाये हुये हैं। अफसरशाही अब गबन को अपनी आय बढ़ाने के एक मात्र माध्यम मानने से अधिक से अधिक नफरत करने लगे हैं; राज्यसत्ता से अपना मुँह मोड़ कर वे औद्योगिक उद्यमों के प्रशासन में ज्यादा लाभदायक पद जुटाने के पीछे लग रहे हैं। जो अभी भी सरकारी दफ्तरों में हैं वे अपने ऊपरवालों के दृष्टान्त का अनुसरण करते हैं और शेयर में सट्टा लगाते हैं, या रेलवे में “हितों का अधिग्रहण” [हिस्सापूंजी या ॠणपत्र की खरीद – अनु॰] करते हैं, आदि। अगर कोई यह माने कि कुछ सट्टों में लेफ्टेनैंट लोगों का भी हाथ है तो वह भी न्यायसंगत होगा। संक्षेप में, पुरानी राज्यसत्ता के सारे तत्वों के सड़ने की प्रक्रिया और निरंकुश राजतंत्र से बोनापार्टवादी राजतंत्र की ओर संक्रमण जोर-शोर से चल रही है। अगली बड़ी  व्यवसायिक व औद्योगिक संकट के साथ न सिर्फ वर्तमान ठगी का कारोबार ढहेगा बल्कि पुरानी प्रशियाई राज्यसत्ता भी ढहेगी।68
और यह राज्यसत्ता जिसमें गैर-पूंजीवादी तत्व हर दिन और अधिक पूंजीवादी होते जा रहे हैं, “सामाजिक प्रश्नों” या सिर्फ आवास के प्रश्न का भी समाधान करेगी? बल्कि विपरीत होगा। सारे आर्थिक प्रश्नों पर प्रशियाई राज्यसत्ता अधिकाधिक पूंजीवादी वर्गों के नियंत्रण में आती जा रही है। फिर भी, अगर सन 1866 से आर्थिक क्षेत्र के कानून पूंजीवादी वर्गों के हित में ज्यादा पारित नहीं हुये हैं तो यह किसकी गलती है? पूंजीवादी वर्ग खुद मुख्यत: उत्तरदायी हैं, पहला तो इसलिये कि अपनी भीरुता के कारण वे अपनी मांगो को ऊर्जा के साथ आगे बढ़ाने में अक्षम रहे हैं और दूसरा इसलिये कि उस हर एक छूट का वह प्रतिरोध करते हैं जो साथ ही साथ खतरनाक सर्वहारा को भी नया हथियार मुहैया कराता हो। और अगर राजनीतिक शक्ति, यानी बिसमार्क, पूंजीवादी वर्गों की राजनीतिक सक्रियता को रोके रखने के अपने उद्देश्य से सर्वहारा को संगठित करने की कोशिश कर रहा हो तो उस एकमात्र सुपरिचित बोनापार्टवादी नुस्खे से अच्छा क्या होगा, जिस नुस्खे के तहत श्रमिकों के लिये राज्यसत्ता को कुछेक हितैषी मुहावरे दोहराने और लुई बोनापार्ट की तर्ज पर समितियों के निर्माण के लिए राज्यसत्ता से न्यूनतम सहायता देने के सिवा करना कुछ भी नहीं है?
प्रशियाई राज्यसत्ता से श्रमिकों को क्या अपेक्षा रखनी चाहिये इसका सबसे बढ़िया उदाहरण फ्रांसिसी अरबों69 के इस्तेमाल में है। इन पैसों ने प्रशियाई राज्यसत्ता की मशीनरी को, समाज से अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने [के अपराध में – अनु॰] में एक नई छोटी सी दंडस्थगन की अवधि जोड़ी है। क्या उन अरबों में से एक अधेला थेलर भी बर्लिन के उन श्रमिक-वर्गीय परिवारों को आश्रय मुहैया कराने में इस्तेमाल किया गया है जिन्हे घरों से बाहर सड़कों पर फेंक दिया गया? ठीक विपरीत। जैसे जैसे शरद आता गया, राज्यसत्ता ने उन कुछेक दीन-दुखी झोपड़ियों को भी गिरवा दिया जो गर्मी में उनके माथों पर अस्थाई छत दिये हुये थी। वे पाँच अरबों को तेजी से पंचतत्व की प्राप्ति हो रही है – किलों में, तोपों में और सैनिकों में; और वागनर की मूर्खताओं के बावजूद तथा ऑस्ट्रिया के साथ स्टीबर के सम्मेलनों के बावजूद70, लुई बोनापार्ट द्वारा फ्रांस से चुराये गये दसियों लाखों में से जितना फ्रांसिसी श्रमिकों को दिया गया था, उससे कम ही इन अरबों में से जर्मन श्रमिकों को दिया जायेगा।    
[क्रमश:]

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57- ल’एन्क्वेत द्यु दिसिमे ग्रुप, पैरिस, 1867 - स॰र॰स॰

58- सन 1866 के आंग्ल-प्रशीय युद्ध में प्रशिया के विजय के बाद स्थापित उत्तरी जर्मन महासंघ के राइखस्टैग [साम्राज्य की प्रतिनिधिसभा – अनु॰] ने जून, 1869 में नये व्यापारिक नियमावली बनाए थे जो 1 अक्तुबर 1869 को लागू हुए। प्रशिया एवं अन्य जर्मन राज्यों में मुक्त उद्यम की जो हदें पहले थी, इस नियमावली के द्वारा उन सारी हदों को समाप्त कर दिया गया। लम्बे समय से बुर्जुवाजी बिसमार्क की सरकार से इस रियायत के लिये दबाव डाल रहे थे। उसी वक्त राइखस्टैग को पूर्व व्यापार नियमों की उन धाराओं को समाप्त करना पड़ा जो श्रमिकों के गठबंधनों (ट्रेड युनियनों) को प्रतिबंधित करते थे।   
59- देखें, मौजुदा संस्करण, खण्ड 4, पृ॰ 477 - स॰र॰स॰
60- 1887 के संस्करण में एंगेल्स ने इस वाक्य को बदल दिया था; पहले यह यूँ था: “और फिर बूढ़े ए॰ को उदाहरण के तौर पर हमारे समक्ष पेश करना – मैं उनका नाम नहीं लेना चाहता हूँ क्योंकि एक अर्सा पहले वह मर चुके हैं और कब्र में जा चुके हैं।” – स॰र॰स॰
61- यह शब्द एंगेल्स द्वारा सन 1887 के संस्करण में जोड़ा गया था। - स॰र॰स॰
62- एंगेल्स यहाँ शुल्ज-डेलिश नाम के एक जर्मन अर्थशास्त्री द्वारा फैलाये गये एक विचार का हवाला दे रहे हैं.। विचार यह था कि श्रमिकों की सहकारी समितियों का सृजन शांतिपूर्ण ढंग से, पूंजीवादी समाज के ढाँचे के अन्दर सामाजिक प्रश्न का समाधान कर देगा। शुल्ज-डेलिश एवं उनके समर्थक इस विचार को, सर्वहारा क्रांतिकारी आन्दोलन से श्रमिकों को ध्यान हटाने के लिये इस्तेमाल कर रहे थे तथा इसे व्यवहार में ला रहे थे।
63- इन भवन-निर्माण समितियों, खास कर लन्दन भवन-निर्माण समितियों के प्रबन्धन के बारे में हम यहाँ कुछ बातें रख रहे हैं। जैसा कि लोग जानते हैं, वह पूरी जमीन जिस पर लन्दन बना है, कुछ एक दर्जन अभिजातों का है, जिनमें कुछेक सर्वाधिक प्रख्यात जैसे वेस्टमिन्स्टर के ड्युक, बेडफोर्ड के ड्युक, पोर्टलैन्ड के ड्युक आदि भी शामिल हैं। शुरुआत में इन्होने अलग अलग भवनों के लिये जगहें निन्यानवे सालों के लिये पट्टे पर दिये थे। अवधि समाप्त होने के उपरांत उन्होने जमीन को, उस पर की सभी चीजों के साथ दखल में ले लिया। फिर उन्होने उन जमीनों पर बने मकानों को कम अवधि, मसलन उनत्तिस सालों, के लिये पट्टे पर दिया। पट्टा तथाकथित मरम्मत का पट्टा कहलाया, जिसके अनुसार पट्टेदार को मकान का बढ़िया मरम्मत करा कर उसी स्थिति में उसका रखरखाव करना था। ज्यों ही अनुबन्ध यहाँ तक पहुँचता था, भूस्वामी अपने वास्तुकार एवं जिला सर्वेक्षक को मकान का जाँच करने के लिये एवं कितनी मरम्मत जरूरी है देखने के लिये भेजता था। ये मरम्मतें अच्छी खासी होती थी – मकान के सामने वाले पूरे हिस्से का या छत आदि का नवीकरण शामिल होता था। पट्टेदार अब वह पट्टा, जमानत के रूप में किसी भवन-निर्माण समिति के पास जमा करता था और उस समिति से आवश्यक रकम का ॠण लेता था, अपने खर्च से मकान का मरम्मत कराने के लिये; यह ॠण, 130 - 150 पौन्ड तक के सालाना किराये के पट्टे पर 1000 पौन्ड तक के हिसाब से होता था। ये भवन-निर्माण समितियाँ इस तरह एक व्यवस्था की महत्वपूर्ण मध्यवर्ती कड़ी बन गईं। एक ऐसी व्यवस्था जिसका उद्देश्य होता था लन्दन के मकानों का, रहने लायक बनाये रखने के लिये, निरन्तर नवीकरण एवं मरम्मत करवाना - उन मकानों के मालिक भूस्वामी अभिजातों को कष्ट न पहुँचाकर और आम लोगों के खर्च पर। और इन समितियों को श्रमिकों के आवास के प्रश्न का समाधान माना जा रहा है! [सन 1887 के संस्करण में एंगेल्स द्वारा की गई टिप्पणी।]  
64- “मैंचेस्टर में छे घरों का गिरना”, द डेली न्युज, संख्या 8268, अक्तूबर 26, 1872 – स॰र॰स॰
65- सरकारी अधिकारी द्वारा सरकारी कार्यालय का निजी या पारिवारिक लाभ के लिये इस्तेमाल स्वार्थदोहन है। उदाहरण के तौर पर अगर किसी देश के सरकारी तार घर का निर्देशक किसी कागज के कारखाने का निष्क्रिय साझेदार बन जाये, कारखाने को जंगल से लकड़ी दिलाये, और फिर कारखाने को तार कार्यालयों में कागज की आपुर्ति करने का ऑर्डर दिलाये - मतलब छोटा ही हो लेकिन प्यारा सा “काम” जो स्वार्थदोहन की नीतियों की समझ को प्रदर्शित करे,66 जैसा कि बिसमार्क के दिनों में आम बात थी और उम्मीद की जाती थी – एंगेल्स कृत मूल लेखन की टिप्पणी
66- टिप्पणी के वाक्य का यह अन्तिम भाग एंगेल्स द्वारा सन 1887 के संस्करण में जोड़ा गया था - स॰र॰स॰
67- इंग्लैंड के संसद द्वारा पारित हाल के उन कानूनों में, जो लन्दन भवन-निर्माण प्राधिकारों को नये सड़कों के निर्माण के लिये लोगों को घरों से बेदखल करने के अधिकार देते हैं, कुछ विचार बेदखल होने वाले श्रमिकों के लिये भी किया गया है। एक प्रावधान डाला गया है कि जो नये भवन बनेंगे वो अवश्य ही आबादी के उन वर्गों के रहने लायक होंगे जो पहले से वहाँ रह रहे थे। अत:, श्रमिकों के लिये सबसे कम कीमत वाली जमीन पर बड़े पाँच-छे मंजिला मकान किराये के आवास के लिये बना दिये जाते हैं और कानून में लिखे हुये का अनुपालन हो जाता है। यह देखना बाकी है कि यह व्यवस्था किस तरह काम करेगी क्योंकि श्रमिक ऐसे आवासों से परिचित नहीं हैं और लन्दन की पुरानी अवस्था के बीच में ये भवन पूरी तरह एक बाहरी विकास दिखते हैं। तब भी, निर्माणकार्यों के कारण वास्तविक तौर पर घरों से बाहर किये गये श्रमिकों के मात्र एक-चौथाई को किसी तरह ये भवन नये आवास मुहैया करायेंगे। [एंगेल्स द्वारा सन 1887 के संस्करण में दी गई टिप्पणी]           
68-  आज, सन 1886 में भी, वह एक मात्र चीज जो पुरानी प्रशियाई राज्यसत्ता एवं इसके आधार – सुरक्षात्मक शुल्क का मुहर लगा हुआ, बड़ी जमीन्दारी एवं औद्योगिक पूंजी का गँठजोड़ - को एक साथ बांधी हुई है, वह है डर - संख्या और वर्गचेतना में सन 1872 से तेजी से बढ़ रही सर्वहारा वर्ग का डर। [सन 1887 के संस्करण में एंगेल्स द्वारा की गई टिप्पणी ]
69- यह उन 5000 मिलियन फ्रांक के हर्जाना का प्रसंग है जो फ्रांस को, 10 मई, 1871 को हुये फ्रांकफुर्ट शांति समझौते के शर्तों के तहत जर्मनी को देना पड़ा था। - स॰र॰स॰
70- एंगेल्स यहाँ, एडॉल्फ वागनर द्वारा अपने किताबों और भाषणों में दिये गये वक्तव्यों की ओर ध्यान दिला रहे हैं (उदाहरण स्वरूप देखें, रीड उबर डाय सोश्यल फ्राज, बर्लिन, 1872, पृ॰ 55-58)। वक्तव्यों का सार था कि 5000 फ्रां का हर्जाना मिलने के बाद जर्मनी की आर्थिक गतिविधियों को जो पुनर्जीवन मिलेगा, उससे श्रमजीवी जनता की स्थिति में काफी बेहतरी आयेगी।
सन 1871 के अगस्त-सितम्बर के दौरान गैस्टेन और सॉल्जबर्ग में, बिसमार्क और ऑस्ट्रिया-हंगरी के चैंसेलर, बेउस्ट के बीच तथा सम्राट विलियम 1 और सम्राट फ्रांसिस जोसेफ के बीच हुई बातचीत [सन 1871 में योरप के श्रमिक संगठनों और खास कर प्रथम अन्तरराष्ट्रीय के खिलाफ संयुक्त कार्रवाइयों के लिये योरप के सरकारों में बातचीत का सिलसिला चला था… उसी का एक हिस्सा थी यह बातचीत – अनु॰]। स्टीबर नाम के एक वरीय पुलिस अधिकारी के नाम पर उस बातचीत का नाम स्टीबर सम्मेलन रखते हुये एंगेल्स ने उसके श्रमिक-विरोधी और पुलिसिया चरित्र को रेखांकित किया था। - स॰र॰स॰  


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