Tuesday, January 15, 2019

॥ 14 ॥ बंगलाभाषा व साहित्य का विकास


यह काम पूरी तरह बंगाल भाषा एवं साहित्य से सम्बन्धित है। अत: इसके पहलुओं पर यथासंभव संक्षिप्त चर्चा की जायेगी।
नई व आधुनिक गद्यरीति की शुरुआत – कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर विद्यासागर के वारे में कवितायें और गद्य दोनों लिखे। ‘विद्यासागर चरित’ में वह लिखते हैं, “विद्यासागर बंगलाभाषा के प्रथम, वास्तविक कलाकार थे। उनसे पहले बंगला गद्यसाहित्य की शुरुआत हो चुकी थी, लेकिन वही सबसे पहले बंगला गद्य में कला की निपुणता ले आये।    
अपनी विख्यात आत्मजीवनी ‘जीवनस्मृति’ में वह ‘वर्णपरिचय’ पढ़ने के अपने शैशवकालीन अनुभव के बारे में बताते हैं। विद्यासागर द्वारा रचित ‘वर्णपरिचय’ में, शिशुओं को बंगला वर्णमाला, शब्द गठन और वाक्य निर्माण सिखाते हुये वह बिना युक्ताक्षर का पहला वाक्य पढ़ने के लिये देते हैं, “जल पड़े, पाता नड़े’। [पानी गिरता है, पत्ता हिलता है]। रवीन्द्रनाथ कहते हैं, “केवल याद आता है, ‘जल पड़े, पाता नड़े’। उस समय तक ‘कर खल’ इत्यादि शब्दों के हिज्जे का तूफान पार कर बस किनारे पहुँचा ही था। उस दिन पढ़ रहा था, ‘जल पड़े, पाता नड़े’। मेरे जीवन में यही आदि कवि की पहली कविता थी। उस दिन का आनन्द आज भी जब याद आता है तब समझता हूँ कि कविता में मेल [तुक] क्यों जरुरी है। मेल है इसीलिये वह पंक्ति खत्म होकर भी खत्म नहीं होती है – जब उसका वक्तव्य खत्म हो जाता है तब भी उसकी झंकार खत्म नहीं होती है, मेल को लेकर ज्ञान के साथ मन के साथ खेल चलते रहता है। इसी तरह घूम घूम कर उस दिन मेरे समस्त चैतन्य में पानी गिरते और पत्ते हिलते रहे… “ [रवीन्द्रनाथ ठाकुर, जीवनस्मृति, पृ॰ 3]    
बंगला साहित्य के प्रख्यात इतिहासकार सुकुमार सेन कहते हैं, “उनके पहले राममोहन राय ने लिखा था कामकाज का गद्य, मृत्युंजय तर्कालंकार ने लिखा था पंडिताउ गद्य। इन दोनो स्टाइलों में से किसी में भी सभी अर्थों की अभिव्यक्ति देने, सभी काम संभव करने और भावों के वजन को ढोने की क्षमता नहीं थी। बंगला भाषा की, हिलने-डुलने वाली इस गद्यरीति का सुधार कर विद्यासागर नें इसे स्थायी सामान्य व सार्वजनिक रूप दिया। (‘सर्वजन’ कह कर यहाँ थोड़ा बहुत शिक्षित बंगाली की ही बात कर रहा हूँ)। … आज के अर्थों में विद्यासागर शायद ‘साहित्यिक’ नहीं थे, साहित्यसेवक भी नहीं थे, लेकिन उन्होने साहित्य के रथ के लिये रास्ता बना दिया था। वह थे साहित्य के यथार्थ मार्गनिर्माता।” [विद्यासागरिका, सुकुमार सेन, प्रसंग: विद्यासागर, सम्पादक: विमान बसु, प्रकाशक: बंगीय साक्षरता प्रसार समिति, 1970]
बंगला साहित्य व नाट्यसाहित्य के विद्वान आलोचक अजित कुमार घोष ‘शकुन्तला’ एवं सीतार वनवास’ की समीक्षा करते हुये कहते हैं कि दोनों रचनाओं की “भाषा बिल्कुल आधुनिक बंगला साधुभाषा है। संस्कृत शब्दों के नपेतुले इस्तेमाल में, पढ़ने में तृप्ति के लिहाज से, अर्थपूर्णता में एवं छन्द के स्वाभाविक माधुर्य में इन रचनाओं की समसामयिक कोई तुलना नहीं है। बंगला गद्य के इस स्वाभाविक छन्द का आविष्कार साहित्यिक विद्यासागर की प्रधानतम कीर्ति है।”
आगे कहते हैं, “साथ ही, और एक बात गौर करने वाली है। शकुन्तला का लालित्य सीतार वनवास में नहीं है, बल्कि उसकी जगह ली है गंभीरता। यानी भाषा विषय के अनुरूप है। … विषय के अनुरूप भाषा का गठन किसी भी साहित्यकार के लिये एक चुनौती है। उनकी शक्ति का वास्तविक परीक्षण उसी में होता है। … [उस चुनौती को स्वीकारने के कारण ही] उनमें सहजात रस का जो बोध था, जो अर्जित प्रज्ञा थी एवं जो दुर्लभ सामाजिक जागरूकता थी, उन सभी चीजों की परिणति हुई उनके लेखन की साहित्यिक सिद्धि।” [गद्यसाहित्ये विद्यासागर, अजित कुमार घोष, विद्यासागर स्मारकग्रंथ, सम्पादक गोलाम मुर्शिद, प्रकाशक: विद्योदय लाइब्रेरी प्राइवेट लिमिटेड, पहला भारतीय संस्करण, 1970]
वर्णमाला एवं वर्ण-शिक्षण का शोधन – प्रोफेसर गुरुचरण सामन्तो पटना स्थित कॉमर्स कॉलेज के प्राचार्य थे। साथ ही, बिहार के बंगलाभाषियों की अस्मिता के संघर्ष के वह मार्गदर्शक रहे। बंगलाभाषा के पठनपाठन, पाठ्यपुस्तक लेखन आदि के क्षेत्र में उनकी बड़ी भूमिका रही। उन्होने विद्यासागर द्वारा किये गये बंगला वर्णमाला के शोधन के बारे में कहा:
“90 के दशक में बिहार सरकार साल में 33 लाख रुपयों का बंगला पाठ्यपुस्तक छापती थी। अब झाड़खंड सरकार यह भार लेने को राजी हुई है। … बंगला पाठ्यपुस्तक के सरकारीकरण के बाद पहली कक्षा एवं दूसरी कक्षा के रिडर तैयार करने की जिम्मेदारी मुझे दी गई थी। उन ग्रंथों को रचने में गाइड लाइन हमलोग जरूर NCERT का अनुसरण किये थे पर सैद्धांतिक पद्धति के लिये जिन दो पुस्तकों से हमने सबसे अधिक मदद ली थी वे थे विद्यासागर का ‘वर्णपरिचय’ एवं रवीन्द्रनाथ का ‘सहजपाठ’। बिहार के लिये बंगला रिडर लिखते हुये हमने विस्मय के साथ गौर किया कि प्राथमिक भाषा-पाठ की रचना के लिये केन्द्रीय सरकार के NCERT ने जो गाइड लाइन भेजा था वैसे ही गाईड लाइन का उपयोग लगभग डेढ़ सौ साल पहले विद्यासागर ने अपना ‘वर्णपरिचय’ लिखने में किया था। उन्होने क्या अंग्रेजी किताब से यह पद्धति ली थी? आधुनिक काल की मुख्य पद्धति: शब्द एवं वाक्यों के क्रम में वर्णमाला की शिक्षा प्रदान, पहले शब्द सीख कर फिर शब्दों को जोड़ जोड़ कर वाक्यों का निर्माण, वर्ण एवं शब्दों की पुनरावृत्ति आदि विज्ञानसम्मत पद्धति का उपयोग उन्होने किया था। ‘वर्णपरिचय’ की रचना में उनके द्वारा किये गये कुछ और क्रांतिकारी प्रयोगों का जिक्र करना जरूरी है। वे थे: प्राचीन विद्वानों की धमकियों को अनसुनी करते हुये वाक्य में कॉमा, सेमिकोलॉन, प्रश्नचिन्ह, हाइफेन, डैश आदि विराम एवं विच्छेद चिन्हों का उपयोग करना, पैराग्राफ बाँट कर लिखना इत्यादि। यह सब उन्होने बलपूर्वक बंगला भाषा में प्रचलित किया था। उनके वैज्ञानिक व क्रांतिकारी बलप्रयोग का एक और दृष्टांत है बंगला वर्णमाला का सुधार। जैसे:
(क)  बंगला वर्णमाला से दीर्घ-ॠ तथा दीर्घ-ॡ को निर्वासित करना,
(ख)  अनुस्वार एवं विसर्ग को स्वरवर्ण से हटाकर व्यंजन वर्ण में ले आना,
(ग)  ड़, ढ़ एवं य को स्वतंत्र वर्ण के तौर पर व्यंजन वर्ण में जगह देना,
(घ)  क्ष वर्ण को युक्त-वर्ण के रूप में चिन्हित कर वर्णमाला से बाहर करना,
(ङ)  खंड-त को [बंगला में ‘’] आधा व्यंजन मान कर पाठ्यांश में कोई स्वतंत्र पाठ न देना एवं   अन्त में ‘’ एवं ’ का युक्त पाठ देना; आज कल भी कई लोग खंड-त को समाप्त कर त पर हलन्त लिखने के पक्ष में हैं,
(च)  चन्द्र विन्दु को स्वतंत्र व्यंजन वर्ण की स्वीकृति देना,
इस तरह विद्यासागर ने पहले के 16 + 34 = 50 वर्णों को नये ढंग से सजा कर 12 + 40 = 52 वर्णों में सीमित कर दिये जो आज भी बंगला भाषा में इस्तेमाल हो रहा है (हालाँकि बहुतों ने आज कल ॡ का वर्जन किया है)। उन दिनों का अखबार खोलने पर दिखेगा कि इन ‘म्लेच्छ’ सुधारों के विरोध में पोंगापंथी पंडितों ने जो हल्ला मचाया था उससे विद्यासागर विचलित नहीं हुये।” [गुरुचरण सामन्तो, ‘बिहारे विद्यासागर ओ वर्णपरिचय’, प्रतर्क, दिसम्बर 2005]
प्राइमर की रचना – उपर में ही ‘वर्णपरिचय’ का जिक्र है। वर्णपरिचय के प्रकाशन के पहले भी बंगला के कई मुद्रित प्राइमर बंगाल के बाजार में उपलब्ध थे। लेकिन वे लोकप्रिय नहीं बन पाये थे। पाठशालाओं और विद्यालयों में गुरुजी अपने स्मरण से ही बच्चों को वर्णमाला एवं भाषा की प्राथमिक पढ़ाई करा देते थे। लेकिन विद्यासागर उस वर्णमाला एवं उसकी पढ़ाई में क्रांतिकारी परिवर्तन ले आये। इसलिये 2 पैसे कीमत का यह नन्हा सा पुस्तक आने के कुछ वर्षों बाद से ही बाजार में ऐसा छाया कि आज भी छाया हुआ है। कहा जाता है कि जब विद्यासागर गाँवों में विद्यालय परिदर्शन के लिये जाते थे, उसी दौरान पाल्की में बैठे बैठे उन्होने इस पुस्तक की पाण्डुलिपि तैयार की।      
आज, डेढ़ सौ साल बाद भी बंगला सीखने का सबसे अधिक मानक प्राइमर है ‘वर्णपरिचय’। इसके पहले भाग एवं दूसरे भाग, दोनों का पहला संस्करण सन 1855 में प्रकाशित हुआ था। पहले भाग का अन्तिम संस्करण जो खुद विद्यासागर के हाथों किया गया था, उसका प्रकाशन उनके कर्माटाँड़ के पते से सन 1875 के जाड़े में हुआ था। वह संस्करण साठवाँ था, यानि, बीस वर्षों में इस पुस्तक के साठ संस्करण प्रकाशित हुये थे। जबकि दूसरे भाग का बासठवाँ संस्करण एक साल बाद यानि 1876 में विद्यासागर के हाथों सम्पन्न हुआ था। आज भी पश्चिम बंगाल सरकार इस पुस्तक को मुख्य प्राईमर का दर्जा दिये हुये है।    



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