बहुविवाह के खिलाफ संघर्ष
भी विधवाविवाह के खिलाफ संघर्ष के साथ ही शुरु हुआ था।
यह एक सच्चाई है कि नई
शिक्षा से लैस होकर शहरी हिन्दु मध्यवर्ग के युवाओं की नजर (मुख्यत: ‘उच्चजातीय’) अपने
ही समुदाय के भीतर व्याप्त सामाजिक बुराईयों की ओर पड़ने लगी। उन्होने बगावत किया। इस
बगावत की कई धारायें आगे बढ़ीं। मुख्यत: चार धारायें हमें दिखती है। पहला, वे लोग जो
हिन्दु धर्म की सभी रीतिरिवाजों का सिर्फ विरोध ही नहीं किये बल्कि योरोपीय जीवनधारा
को अपना लिये; कुछ ने तो धर्म ही त्याग दिया और इसाई बन गये। दूसरा, जो औपनिवेशिक प्रशासन
और न्यायव्यवस्था में उनके समकक्ष होने के लिये विभिन्न गैर-बराबरियों के सवाल ब्रिटिश
कानूनों के आइने में खड़े किये। तीसरा, जो अपने समाज में सुधार लाकर उसे आधुनिक बनाने
की कोशिश किये। और चौथा, जो गरीब किसानों पर किये जा रहे जुल्म के खिलाफ आवाज उठाये।
चारों धाराओं में से बड़े समाज-सुधारक भी आये, बड़े लेखक-कवि भी आये, बड़े पत्रकार भी
आये। और इन सभी धाराओं के आगे की पीढ़ियाँ राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल भी हुईं। इस
तीसरी और कुछ हद तक चौथी धारा में से ही ईश्वरचन्द्र विद्यासागर आये। लेकिन अपने चरित्र
की ज्योति, अपनी कर्मदक्षता और कर्मशक्ति, मानवप्रेम, दया, करुणा, और खास तौर पर अपने
समूचे व्यक्तित्व के अनोखेपन से वह अनन्य बन गये।
बहुविवाह के सवाल पर विद्यासागर
का पहला हस्तक्षेप सन 1871 में लिखे गये एक पुस्तिका के द्वारा हुआ। उसी पुस्तिका के
विज्ञापन में उन्होने 16 साल पहले बहुविवाह के खिलाफ शुरु किये गये कामों का जिक्र
करते हैं।
“इस देश में बहुविवाह
प्रचलित रहने के कारण, नारीजाति को सीमाहीन क्लेश का सामना करना पड़ रहा है एवं समाज
का अनगिनत प्रकार से अनिष्ट हो रहा है। सरकारी कानून के बिना उस क्लेश व अनिष्ट के
निवारण की संभावना नहीं है। इस कारण से देश के लोग, समय समय पर, इस कुत्सित प्रथा के
निवारण की प्रार्थना करते हुये राजद्वार पर आवेदन करते रहते हैं। सर्वप्रथम, 16 वर्ष
पूर्व, श्री किशोरीचाँद मित्र महाशय के उद्यम पर ‘बन्धुवर्गसमबाय’ [विद्यासागर के जीवनीकार
के अनुसार इस संस्था का नाम अलग था – सुहृद समिति] नाम के समाज से भारतवर्ष के प्रशासकीय
समाज [कम्पनी की सरकार] को एक आवेदन दिया गया। प्रतिपक्ष का भी एक आवेदन पड़ा कि बहुविवाह
शास्त्रसम्मत है, इसे बन्द करने पर हिन्दुओं का धर्म लुप्त होगा, अत: इस मामले में
सरकार का हस्तक्षेप उचित नहीं होगा। इन दो आवेदनों के सुपुर्द किये जाने के अलावे उस
समय और कोई कार्यक्रम होते हुये दिखाई नहीं पड़ा।
“दो वर्षों के बाद बर्धमान,
नवद्वीप, दिनाजपुर, नाटोर, दिघापति आदि स्थानों के राजा एवं देश के लगभग सभी मुख्य
लोगों ने बहुविवाह के निवारण के लिये प्रशासकीय समाज को आवेदन किया। कहा जा सकता है
कि इस समय तक देश के लोग इस विषय पर एकमत हुये थे क्योंकि निवारण की प्रार्थना करते
हुये लगभग सभी स्थानों से आवेदन आया था; जबकि खिलाफ की बातें किसी भी पक्ष से नहीं
आई थी। सुप्रसिद्ध बाबु दिवंगत रमाप्रसाद राय महाशय ने इस समय, इस कुत्सित प्रथा के
निवारण हेतु जिस तरह जतन किया था और पूरी उत्साह के साथ विभिन्न तरीके से जितना परिश्रम
किया था, उसके लिये उन्हे हजारों बार साधुवाद देना चाहिये। पूर्णत: यह विश्वास हुआ
था कि व्यवस्थापक समाज द्वारा बहुविवाह निवारण की व्यवस्था करते हुये कानून बनायेगी।
लेकिन, हतभाग्य देश के दुर्भाग्य के कारण उसी समय सरकार के विरुद्ध विद्रोह हुआ। सारे
सरकारी अधिकारी विद्रोह के निवारण में पूर्णत: व्यस्त हो गये। बहुविवाह के निवारण की
तरफ ध्यान देने की उन्हे अवकाश नहीं मिला।”
पुस्तक के विज्ञापन में
इसके आगे भी विधवाविवाह के खिलाफ कानून बनवाने के लिये हुये प्रयासों का बिन्दुवार
जिक्र है। उसमें विद्यासागर पाँच साल पहले इस पुस्तक की रचना की शुरुआत और फिर बीमार
पड़ जाने के कारण काम अधुरा रह जाने की चर्चा करते हैं।
अन्तत: इस पुस्तक के लिखे
जाने का कारण वह बताते हैं जो काफी रोचक है।
“इधर के दिनों में सुनने
को मिला है कि कलकत्ता स्थित सनातनधर्मरक्षिणी सभा के सदस्यों ने बहुविवाह के निवारण
हेतु विलक्षण उद्यम ग्रहण किया है। उनकी नितान्त इच्छा है कि यह अति जघन्य, अति नृशंस
प्रथा बन्द हो जाय। इस प्रथा के बन्द होने पर शास्त्र की अवमानना होगी कि नहीं एवं
धर्म का अपवाद होगा की नहीं इस आशंका को समाप्त करने के लिये सभा के अध्यक्षगण धर्मशास्त्र
के व्यापारी बड़े बड़े पंडितों की राय ले रहे हैं एवं सरकार की चौखट पर आवेदन करने के
लिये, दूसरों के द्वारा किये जा रहे उद्यमों का जायजा ले रहे हैं। वे लोग अच्छे अभिप्राय
से प्रेरित होकर जो इतने उत्तम, देश के लिये हितकर मामले में हस्तक्षेप कर रहे हैं,
उसमें उन्हे थोड़ी सहुलियत होगी, यह सोच कर मैंने इस पुस्तक को मुद्रित एवं प्रचारित
किया।
“पिछली बार जो उद्यम लिये
गये थे, तो कुछ लोगों ने कहा था कि सरकार ने ही परामर्श देकर किसी व्यक्ति को इस मामले
मे सक्रिय किया है और उसी लिये बहुविवाह के निवारण की प्रार्थना करते हुये आवेदनपत्र
दिया गया है। किसी किसी ने कहा था कि जिनके उद्यम से आवेदनपत्र दिया गया है वे हिन्दुधर्म
से द्वेष रखने वाले हैं, हिन्दु धर्म का लोप करने के अभिप्राय से उन्होने ऐसा उद्यम
किया है। लेकिन सनातनधर्मरक्षिणी सभा के उद्यम में वैसा आरोप लगने की बिल्कुल संभावना
नहीं है। इस देश में हिन्दु धर्म की रक्षा हो, इसी के लिये सन्नातनधर्मरक्षिणी सभा
स्थापित हुआ है।”
फिर भी विरोध करने वाले
लोगों पर कटाक्ष करते हुये अन्तत: कहते हैं, “…सनातनधर्मरक्षिणी सभा से प्रार्थना है
कि जब इस मामले में उन्होने हस्तक्षेप किया ही है तो बिना विशेष जतन एवं यथोचित प्रयास
किये वे काम खत्म न समझें।”……
मूल पुस्तक में पहले वह
धर्मशास्त्र के अनुसार किस किस स्थिति में एक से अधिक विवाह का प्रावधान है उसकी व्याख्या
करते हैं। फिर वह एक एक कर हिन्दु समाज की आपत्तियों को उठाते हैं और उनका जबाब देते
हैं। पहली आपत्ति जिसे वह उठाते हैं वह है कि ‘बहुविवाह शास्त्रानुसार एवं धर्मानुसार
अभ्यास है’। और शास्त्रार्थों के बंधन में प्रतिपक्ष को ऐसा बांधते हैं कि उसे निकलने
का रास्ता नहीं मिले। शास्त्रों का विवेचन कर वह अर्थ निकालते हैं कि पहली पत्नी के
जीवित रहते इतर जाति में विवाह करने के तो विधान हैं पर अपनी जाति में नहीं।
दूसरी आपत्ति उठाते हैं
कि ‘बहुविवाह बन्द होने पर कुलीन ब्राह्मणों का जातिपतन और धर्मनाश होगा’। बंगाल का
इतिहास एवं लोकश्रुतियों के द्वारा पहले वह दिखाते हैं कि ‘कुलीन’ ब्राह्मणों की उत्पत्ति
कैसे हुई, कितने प्रकार के ‘कुलीन’ मध्ययुगीय शासक द्वारा तय किये गये एवं क्यों किये
गये। उसके बाद वह दिखाते हैं कि सभी ‘कुलीन’ कैसे कैसे धर्मभ्रष्ट और जातिभ्रष्ट हुये।
फलत: अब वे कुलीन कहलाने योग्य हैं ही नहीं। उनका धर्मनाश बहुविवाह करने या न करने
की प्रतीक्षा नहीं कर रहा है।
तीसरी आपत्ति में विद्यासागर
‘भंगकुलीन’ की बात को उठाते हैं कि बहुविवाह रहित होने पर भंगकुलीनों की कुलीन-मर्यादा
खत्म हो जायेगी, क्योंकि
शास्त्र के अनुसार कुलीनों की कन्या से विवाह करने पर ही उनकी ‘भंग’पन अगली पीढ़ी में
खत्म हो पायेगी। इस आपत्ति पर विचार करने के क्रम में वह भंगकुलीनों के, विवाह के बाद
व्याहता पत्नियों के प्रति किये गये व्यवहार की चर्चा करते है, उन व्याहता पत्नियों
के भयावह, नारकीय जीवन का वर्णन करते हैं और कहते हैं कि इन भंगकुलीनों से नीच तो कोई
है ही नहीं। ये ब्राह्मण क्या, मनुष्य कहलाने तक के योग्य नहीं हैं। क्या ऐसे नीचों
के अनुरोध पर बहुविवाह चालु रहना चाहिये?
चौथी आपत्ति वह उठाते
हैं कि ‘बेशक एक समय कुलीनों का अत्याचार था, वे लोग बहुत सारे विवाह करते थे लेकिन
अब वह प्रथा खुद व खुद खत्म हो रही है, कुछ दिनों में पूरी तरह समाप्त हो जायेगा। इसलिये
इस प्रथा को बन्द करने हेतु कानून की आवश्यकता नहीं है’। इस आपत्ति के खण्डन के क्रम
में विद्यासागर पूरी सूची पेश करते हैं यह दिखाने के लिये कि बहुविवाह की प्रथा यथावत
है, थोड़ी सी भी कमी नहीं आई है। आदमी का नाम, गाँव, जिला बताते हुये वह सूचीबद्ध करते
हैं कि किस तरह 55 वर्ष की उम्र वाला कुलीन ब्राह्मण 80 विवाह किये हुये है, 64 वर्ष
की उम्र वाला कुलीन ब्राह्मण 72 विवाह किये हुये है और 18 वर्ष की वाला युवा कुलीन
भी 11 विवाह किये हुये है। यह एक लम्बी सूची है जिसमें सिर्फ वे ही नाम हैं जो चिन्हित
किये जा सके हैं और जिन्होने दस या उससे अधिक विवाह किये हैं। दस के नीचे वालों की
तो कोई गिनती संभव ही नहीं है। आगे एक अलग सूची में सिर्फ एक गाँव के 64 ब्राह्मणों
का नाम और उम्र और विवाह की संख्या (एक से अधिक) उन्होने दिया है।
पाँचवीं आपत्ति कायस्थों
की थी कि बहुविवाह बन्द होने पर उनका ‘आद्यरस’ की प्रथा में विघ्न उत्पन्न होगी। पहले
तो विद्यासागर स्पष्ट कह देते हैं कि इस प्रथा के न होने से न तो ‘कायस्थों का जातिपतन
एवं धर्मनाश होता है’ और न ही उनके ‘विवाह इत्यादि में कोई असुविधा’ होती है। उसके
बाद वह इस ‘आद्यरस’ का अर्थ एवं वास्तविक स्थिति का विश्लेषण करते हैं। तत्कालीन जाति-नियमों
के अनुसार बंगाल के कायस्थ दो भाग – कुलीन व मौलिक – में विभाजित है, वह दिखाते हैं।
फिर विवाह के नियमों का वर्णन करते हुये वह बताते हैं कि एक तरफ कायस्थ विवाह की व्यवस्था
कहती है कि कुलीन ज्येष्ठपुत्र का विवाह कुलीन कन्या से ही होना चाहिये। दूसरी ओर,
मौलिक कायस्थ कुलमर्यादा बढ़ाने के लिये अपनी कन्या का विवाह कुलीन ज्येष्ठपुत्र से
ही करना चाहते हैं। फलस्वरूप, पहला विवाह कुलीन घर में कर कुलरक्षा कर चुके ज्येष्ठपुत्र
से ही मौलिक कायस्थ अपनी कन्या का विवाह करते हैं। कुलीन कायस्थ ज्येष्ठपुत्र जो मौलिक
कायस्थ घर में दूसरा विवाह करता है उसे ही ‘आद्यरस’ कहते हैं और वह वर, मौलिक घर में
‘आद्यरस का वर’ कहलाता है। आगे विद्यासागर दिखाते हैं कि एक तरफ इस ‘आद्यरस के वर’
को प्राप्त करने और अपने घर में आवभगत करने में मौलिक कायस्थ आर्थिक रूप से खस्ताहाल
हो जाते हैं और दूसरी तरफ, ‘आद्यरस का वर’ बना पति के न रहने से अकेली व्याहता कुलीनकन्या
की क्या हालत होती है।
छठी आपत्ति ये होती थी
कि बहुविवाह एक सामाजिक व्याधि है, सामाजिक तरीके से ही इसका रोध होना चाहिये; सरकार
को इसमें हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये। विद्यासागर व्यंग करते हुये
हिन्दु समाज की कुछ कुरीतियों को गिनाते हैं जो न तो समाप्त हुआ न किसी ने प्रयास किया
समाप्त करने के लिये। इसी में वह दहेज प्रथा को भी गिनाते हैं और दिखाते हैं पढ़े लिखे
घरों में, पढ़े लिखे लड़के विवाह के लिये अधिक से अधिक कीमत में बेचे जाते हैं और यह
बीमारी गाँवों से अधिक कलकत्ता शहर में है।
सातवीं आपत्ति है कि जब
भारत के सभी प्रान्तों में, हिन्दु और मुसलमान दोनों सम्प्रदाय के लोगों में बहुविवाह
प्रचलित है, तब सिर्फ बंगाल के हिन्दु सम्प्रदाय के लोगों ने क्यों आवेदन किया है।
विद्यासागर कहते हैं कि बंगाल के हिन्दु सम्प्रदाय का जितना अनिष्ट इस प्रथा के कारण
हो रहा है, शायद अन्य प्रान्तों में उतना नहीं हो रहा है। बंगाल के मुसलमान सम्प्रदाय
में भी उतना दोष या अनिष्ट दिखाई नहीं पड़ता है। बंगाल के हिन्दु सम्प्रदाय में यह प्रथा
बन्द हो जाने से न तो यहाँ का मुसलमान समाज विरोध करेगा और न ही अन्य प्रान्त के लोग्।
और कहीं नही हुआ इसलिये बंगाल के हिन्दु सम्प्रदाय के लोग आवेदन करने पर भी कुछ न करें
यह राजधर्म नहीं है। आगे थोड़ी आलोचना के स्वर में वह कहते हैं कि जो अंग्रेज सरकार
कई प्रान्तों के लोगों के विरोधों के बावजूद सतीप्रथा को बन्द कर दिया था आह बहुविवाह
के रोध हेतु बार बार लिखे जाने के बावजुद कोई कदम नहीं उठा रहा है।
अन्त में कुछ और प्रासंगिक
बातों को कहते हुये उस आपत्ति को काटते हैं जो कहता है कि कुछ लोग नाम कमाने के लिये
सरकार के पास आवेदन किये हैं। विद्यासागर जिक्र करते हैं कि बीस हजार से अधिक लोग आवेदन
करने में शामिल हैं, इतने सारे लोग सिर्फ कुछ लोगों को नाम कमाने देने के लिये हस्ताक्षर
करेंगे, इतने मूर्ख और और बेकार नहीं हैं। फिर वह कुछ बड़े महत्वपूर्ण लोगों का नाम
गिनाते हैं जिन्होने हस्ताक्षर किया है।
पर बात यहीं खत्म नहीं
हुई। क्योंकि हिन्दु समाज के अकर्मण्य उच्चजातीय समुदाय में बहुविवाह कुछ के लिये आय
का जरिया था तो कुछ के लिये दैहिक हवस का। इसलिये बड़े बड़े नामी कुछ पंडित कूद पड़े बहुविवाह
के समर्थन में शास्त्रों की व्याख्या में। उन्होने किताब लिखे, पर्चे बाँटे। विद्यासागर
के खिलाफ हर तरीके से झूठा प्रचार किया। तब विद्यासागर ने पहले तो छोटा एक पर्चा लिखा।
फिर पहले से काफी बड़ा एक पुस्तक लिखना पड़ा जिसमें बहुविवाह के समर्थन में लिखी गई एक
एक पुस्तिका को सामने रखकर उनमें जिक्र किये श्लोकों और कथनों को पूरा का पूरा उद्धृत
कर दिखाया गया कि किस तरह वे चतुर पंडित आधा अधुरा उद्धरण प्रस्तूत कर अपने भोगलालसा
के समर्थन में व्याख्या कर रहे थे।
एक वर्ष बाद सन 1872 में
लिखे गये पुस्तक के आगे विद्यासागर कुछ कर नहीं पाये। वास्तविकता यही है कि कोई भी
कुछ नहीं कर पाया। स्वतंत्रता की प्राप्ति के पूर्व बहुविवाह के खिलाफ कोई कानून बना
ही नहीं। हिन्दु समाज के लिये पहला कानून सन 1956 में बना।
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