Tuesday, January 15, 2019

॥ 11 ॥ नारी सशक्तिकरण : विधवाविवाह


नारी सशक्तिकरण की दिशा में मुख्यत: चार प्रसंगों को ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, समाज-सुधार के अपने कार्यभारों के दायरे में लेते हुये दिखते है। बालविवाह, नारीशिक्षा, विधवाविवाह, बहुविवाह।
इस भाषा में बात को कहने का कारण है कि नवजागरण के पुरोधा-पुरुष कोई ऐसे व्यक्ति तो थे नहीं कि बस यूँ ही काम आते गया और करते गये। अपनी पढ़ाई खत्म कर रोजगार के क्षेत्र में अवतरित होते होते वह छात्रावस्था के अपने उगते विचारों को सुव्यवस्थित करने लग गये होंगे। अपने माता-पिता और परिवार के लिये अन्न की व्यवस्था करने के साथ साथ उन्होने जरूर सोचा होगा अब जीवन में करना क्या है। शैशव से अपने आसपास उन्होने नारियों की नारकीय जीवनस्थिति देखी थी, उन पर निर्मम अनाचार-अत्याचार होते हुये देखे थे। बड़ी बात यह है कि नारियों के आगे बढ़ने के लिये रास्ता बनाना उनके लिये सिर्फ नारीमुक्ति का प्रश्न नहीं था (जैसा कि आज भी कुछ लोग सोचते हैं) वल्कि सामाजिक मुक्ति का प्रश्न था – वह स्पष्ट देखते थे कि नारी मुक्त होगी गुलामी से तो पुरुष भी मुक्त होगा गुलाम-मालिक की मानसिकता से और समाज लैंगिक-गुलामी की दुर्व्यवस्था’ के दौर से आगे बढ़ेगा।
समाज-परिवर्तन को परिप्रेक्ष्य में रखने वाली यह सोच सबसे अधिक प्रतिफलित हुई है ‘बाल्यबिबाहेर दोष’ (बाल्यविवाह का दोष) शीर्षक निबन्ध में जो सन 1850 में ‘सर्वशुभंकरी’ नाम की मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। पर आश्चर्य है कि आगे चलकर विधवाविवाह के मुद्दे पर जिस तरह वह तन-मन-धन न्योछावर करते हुये भिड़ गये, या उसके तुरन्त बाद बहुविवाह के सवाल पर भी उतनी ही आत्यंतिक तीव्रता के साथ जुट गये, बालविवाह के सवाल पर, उपरोक्त दोनों मुद्दों पर जुझना शुरू करने से काफी पहले बिचारने के बावजूद वह उस तरह आगे नहीं बढ़ पाये।
एक बात पर गौर किया जा सकता है। सतीदाह के विरुद्ध एक तरफ राममोहन राय को हिन्दु शास्त्रों से अपने पक्ष का समर्थन जुटाना पड़ा था। दूसरी ओर, अंग्रेज सरकार की आम नीति, हिन्दु रीतिरिवाजों में दखल न देने की होने के बावजूद उसने दखल दिया क्यों कि सतीदाह इंग्लैन्ड के तत्कालीन कानून के तहत हत्या, गैर इरादतन हत्या या आत्महत्या के उत्प्रेरण के रूप में प्रत्यक्षत: अपराध बनता था। उसी तरह, विधवाविवाह के विरुद्ध ईश्वरचन्द्र विद्यासागर को भी हिन्दु शास्त्रों से अपने पक्ष का समर्थन तो जुटाना ही पड़ा था, साथ ही उन्होने अच्छा जनमत भी जुटाया था। दूसरी ओर, हिन्दु विधवाविवाह अंग्रेजों के कानूनों में से सिर्फ एक कानून में सवाल पैदा करता था, सम्पत्ति के उत्तराधिकार का सवाल, जिसे सन 1856 के विधवाविवाह कानून में शुरू में ही स्पष्ट कर दिया गया। बहुविवाह के सवाल पर सरकार के पीछे हटने का मुख्य कारण था 1857 की बगावत एवं अंग्रेजी राज के खिलाफ बंगाल से पेशावर तक जनता के क्षोभ का विस्फोट। जबकि बालविवाह पर रोक उम्र की गुत्थी में उलझा सवाल था। जबकि हिन्दु शास्त्र के विद्वान कहते थे कि कन्या के मासिक की पहली शुरुआत के 16 दिनों के अन्दर सम्भोग विधित है, अंग्रेजों के कानून में स्वीकृति की उम्र का 12 साल होना भी लगभग उसी सोच को प्रतिफलित करता था। विवाहयोग्यता की उम्र तब क्या होगी। विद्यासागर भी अपने निबन्ध में आठ साल, नौ साल, दस साल की उम्र में कन्याओं का विवाह कराने वालों की आलोचना तो करते हैं, लेकिन, उसके उपर? इग्यारह साल, बारह साल या तेरह, चौदह साल? पूरी दुनिया में स्वीकृति की उम्र और विवाहयोग्यता की उम्र पर सोच धीरे धीरे आज की स्थिति में पहुंची है; उन्नीसवीं सदी के मध्य में विद्यासागर भी तत्कालीन सोच में बंधे थे। लेकिन, फिर भी, बालविवाह की आलोचना के क्रम में वास्तविक प्रेम और दाम्पत्य का जो रूपरेखा वह खींचते हैं वह आज भी उतना ही आधुनिक है। वह रूपरेखा हम बाद में, बालविवाह वाले भाग में जानेंगे।   
विधवाविवाह के लिये संघर्ष
आज इतने वर्षों के बाद जब हम विधवाविवाह के लिये ईश्वरचन्द्र के संघर्ष की बात करते हैं तो कुछ दुसरे बहसों से गुजरना पड़ता है। उनके काम का पुनर्मुल्यांकन करने वाले कुछ आधुनिक विद्वान कहते हैं कि विद्यासागर का यह काम कोई ज्यादा महत्व नहीं रखता है क्योंकि विधवाओं के विवाह की समस्या सिर्फ उँची जातियों वह भी खास कर ब्राह्मणों की समस्या  थी, इसीलिये भारतीय समाज के सुधार का जो ब्राह्मणवादी विमर्श है उसी के दायरे में था उनका काम।
उनका पूरा सम्मान करते हुये हम सिर्फ यह कहना चाहेंगे कि पूरे समाज पर अगर सांस्कृतिक वर्चस्व ब्राह्मणवाद का है तो ब्राह्मण या उच्चजातीय समुदाय की किसी कुरीति का प्रभाव पुरे समाज पर नहीं था यह वे कैसे मान लेते हैं? और अगर था तो चोट का असर भी पूरे समाज पर कुछ न कुछ तो जरूर हुआ होगा!
इसी बात को दूसरे ढंग से तत्कालीन एक लेखक कहते हैं। गुरुप्रसाद सेन एक नामी वकील थे एवं सन 1864 में स्थापित बिहार के सबसे पुराने अखबार ‘बिहार हेरल्ड’ के संस्थापक सम्पादक। सन 1893 में प्रकाशित उनकी एक किताब, ‘स्टडी ऑफ हिन्दुइज्म’ में एक जगह पर वह कहते हैं:
“विषय पर इस तरह बहस की गई है जैसे वाध्यतामूलक वैधव्य अपवाद नहीं बल्कि नियम हो। बेशक सिर्फ बंगाल [यानी प्रेसिडेन्सी नहीं अविभाजित बंगप्रदेश – लेखक] के लिये यह नियम था क्योंकि यहाँ हिन्दु जनसंख्या थी 2॰3 लाख, लेकिन बंगाल के बाहर स्थिति बिल्कुल अलग थी। उदाहरणस्वरूप बिहार को लीजिये। यहाँ हिन्दु जनसंख्या थी 1॰8 लाख, जिसमें से 3 लाख या छट्ठा भाग ब्राह्मण, राजपूत, खत्री, बाभन एवं कायस्थ जातियाँ थीं एवं वाध्यतामूलक वैधव्य सिर्फ इन जातियों में लागू था।… इस तरह, विधवाविवाह हिन्दू जनसंख्या के 5/6 भाग में प्रचलित है, और, चुँकि मुसलमान जनसंख्या में विधवाविवाह की अनुमति है, अत: प्रदेश के 6/7 भाग जनसंख्या में विधवाविवाह प्रचलित है…” [An introduction to the study of Hinduism, Guru Prasad Sen, Calcutta, Thacker, Spink and Co., Publishers to the University, 1893. Pages. 60 -63]
आगे यह बताते हुये कि विधवाविवाह की पुरानी प्रचलित ‘संघई’ प्रथा के तहत किसी भी विधवा का विवाह हो सकता था लेकिन अमूमन कम उम्र की, बड़े-हो-चुके बच्चे अगर न हो तो, विधवाओं का ही विवाह होता था खासकर भूतपूर्व पति के छोटे भाई के साथ… और आगे ‘संघई’ विवाह का तौरतरीका बताते हुये… :
“पंडित विद्यासागर का सुधार बंगाल की हिन्दू जनता के, और बचे भारत की जनसंख्या के 1/7 भाग के हित में जरूरी था। बाकियों के लिये सुधार की आवश्यकता नहीं थी, सिर्फ उनकी पूरानी अच्छी प्रथा को बचाये रखने की जरूरत थी। हालाँकि, चुँकि जातियाँ उन जातियों के प्रभाव एवं उदाहरणों से घिरी हैं जो, जातियों की अनुक्रम में स्वीकार्य तौर पर उनसे ऊँची हैं, इसकी आशंका है कि जातियाँ या उनकी पंचायतें किसी बुरे लम्हे में ब्राह्मणवादी छलावा ओढ़ लें और अपने भीतर प्रचलित एक प्रथा को बन्द कर दें…” [पूर्वोक्त]
ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक वर्चस्व के खतरों को बताते हुये लेखक आगे यह भी कहते हैं कि अगर इस प्रभाव का खतरा न होता तो “मुश्किल होता समझना कि क्यों मुसलमान भी अपने समुदाय में आजकल विधवाविवाह की प्रवृत्ति को निरुत्साहित करने लगे हैं।      
तर्क-वितर्क में न जाकर आइये कुछ दिनों पहले की एक खबर पर नजर दौड़ायें। टेलिग्राफ अखबार में दिनांक 25॰8॰2003 को प्रकाशित एक खबरी-कहानी है, गौतम सरकार का लिखी हुई। खबर में जिक्र है कि दो साल पहले एक आदिवासी लड़के को इसलिये मार दिया गया क्योंकि वह एक विधवा से शादी करना चाहता था।
“Vidyasagar had waged a battle to abolish child marriage and advocated widow remarriage among tribals in the village.
“However, two years ago a tribal boy was killed in Karmatar because he wished to marry a widow. The incident was shocking as 130 years ago, 24 child widows were remarried by Vidyasagar here.”
हालाँकि, चुँकि विधवा को नहीं, लड़के को मारा गया, तो हो सकता है कि कहानी का दूसरा पहलू भी हो। लेकिन, रोज का अखबार पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि भले विधवायें अब औरत के रूप में पहले जैसी बन्दिशों में न हों और इसीलिये खुद दूसरी शादी कर लेने की घटनायें पहले की तुलना में अधिक हों लेकिन परिवार की ओर से घर की विधवा बेटी या बहू के दूसरे विवाह का आयोजन एक उल्लेखनीय, अनोखी घटना होती है।
यहाँ प्रसंगवश इस बात की भी चर्चा होनी जरुरी है कि 19वीं सदी के चौथे-पाँचवें दशक तथाकथित उच्च कूल के हिन्दु परिवारों में वालिका, किशोरी एवं युवा विधवाओं की समस्या, समस्या क्यों बनी। 4 दिसम्बर 1829 को अंग्रेज सरकार ने सतीदाह निरोधक कानून पारित किया था। उसके पीछे की कहानी एवं भारत के महान समाज सुधारक राममोहन राय की भूमिका का वर्णन यहाँ जरूरी नहीं है। लेकिन सतीदाह प्रथा बन्द होने से इस नारकीय स्थिति के शुरू होने के कारण तो बन्द नहीं हो जाते। बल्कि वे सभी कारण – विवाह की स्त्रीविरोधी प्रथा, पारिवारिक व्याभिचार, सम्पत्ति हड़पने की साजिशें, विधर्मी लुटेरों का हमला एवं राज, जातिगत बन्दिशें… - बढ़ ही रहे थे। क्योंकि, स्थायी बन्दोबस्त के माध्यम से जो जमीन्दारी प्रथा बंगाल (और बिहार) में लादी गई थी वह भले ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था का कोई पूंजीवादीकरण न किया हो, जमीन को माल बना दिया था एवं सम्पन्न, आधा-सम्पन्न श्रेणियों में पूंजीवादी लालच और अपराधीकरण को बढ़ा दिया था। ऐसी स्थिति में विधवाओं की संख्या बढ़ गई थी और उनका जीना और दूभर हो गया था। खुद राममोहन राय ने भी अपने लेखनों में बालविधवाओं की दुर्दशा का जिक्र किया था।
सन 1926 में पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा रचित ‘विधवाविवाह’ सम्बन्धित पुस्तक का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हुआ था। अनुवादक थे जयदेव शर्मा विद्यालंकार। अपनी भूमिका में वह हिन्दु शास्त्रज्ञों के कट्टरपंथी वर्चस्व की चर्चा करते हुये आम सुधारकों की बात करते हैं जो या तो शास्त्रज्ञो के सामने खड़े होते ही या तो भयभीत होकर झुक जाते हैं या शास्त्र-वास्त्र की परवाह न करते हुये आगे बढ़ जाते हैं। फिर वह कहते हैं, “ऐसे वीर बहुत कम होते हैं जो सब क्षेत्र में विजय कर के अपने सुधारों को जनता में प्रबल रूप से चला दें। ऐसे दुर्द्वय वीरों में हमें स्त्री संसार के सुधार क्षेत्र में दो ही वीर नेताओं के नाम दीखते हैं, एक तो पूज्यपाद श्री 108 महर्षि दयानन्द सरस्वती दुसरे बंगाल के प्रसिद्ध विद्वान स्वनामधन्य स्वर्गीय श्री पं॰ ईश्वरचन्द्र विद्यासागर।” [‘विधवाविवाह’, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, अनुवाद - जयदेव शर्मा विद्यालंकार, कलकत्ता, प्रकाशक: गोविन्दराम हासानन्द, वैदिक पुस्तकालय, 370 अपर चितपुर रोड, कलकत्ता, भूमिका - दिनांक: 6॰5॰1926]
उनकी प्रशस्ति की अपनी सीमायें थी। खैर, चुँकि विद्यासागर के कामों पर लिखे जा रहे इस पुस्तक में यह भाग शुरू से ही सिर्फ तथ्यात्मक होने के बजाय थोड़ा तर्कात्मक भी हो गया है – यही स्वाभाविक भी था क्योंकि मूल प्रसंग हिन्दी जगत में काफी चर्चित है – उसी तरीके से आगे बढ़ें।
यह बात गौरतलब है कि विधवाविवाह होना चाहिये यह बात सबसे पहले कहने वाले विद्यासागर नहीं थे। उनके पहले कई व्यक्तियों ने विधवाविवाह के समर्थन में लिखा भी था एवं कईयों ने अपने ही घरों में विधवा का विवाह कराने का प्रयास भी किया था। विद्यासागर के जीवनीकार इन्द्र मित्र सन 1852 के 23 मार्च के ‘बंगाल हरकरा’ अखबार में छपी एक खबर को उद्धृत करते हैं जिसमें लिखा था कि ‘एक उदारपंथी देसी आदमी (नेटिव) ने एक विधवा से शादी की है। दोनों पक्ष अभी मुफस्सिल में हैं जहाँ यह शादी, लोग कहते हैं कि, रची गई है’।
उसी ‘बंगाल हरकरा’ अखबार में 11 मार्च 1845 को एक पत्र प्रकाशित हुआ था। यह पत्र बंगाल भाषा के पहले शब्दकोष-प्रणेता रामचन्द्र विद्याबागीश के निधन पर प्रकाशित हुआ था। पत्र में लिखा था कि ‘बेंगाल ब्रिटिश इन्डिया सोसायटी’ के आवेदन पर, हिन्दु विधवाओं के पुनर्विवाह के सम्बन्ध में रामचन्द्र विद्याबागीश ने हाल में जो उदार व्यवस्था दिये थे, उसके लागू होने पर वह हिन्दु सुधारकों में शीर्षस्थ गिने जाने चाहिये।  
उस समय बंगाल में विभिन्न सभासमितियों का बनना शुरू हो चुका था। इन्द्र मित्र जिक्र करते हैं कि सन 1854 के 15 दिसम्बर को काशीपुर में किशोरीचांद मित्र के घर पर ‘समाजोन्नतिविधायिनी सुहृद समिति’ स्थापित हुई। अध्यक्ष बने देवेन्द्रनाथ ठाकुर (कविगुरू रवीन्द्रनाथ ठकुर के पिता)। कार्यकारिणी समिति में थे उस समय के कलकत्ता के बौद्धिक व हिन्दु समाज सुधार जगत के कई महत्वपूर्ण हस्तियाँ। सभा में प्रस्ताव लाया गया कि नारीशिक्षा के प्रवर्तन के लिये, हिन्दु विधवाओं के पुनर्विवाह के लिये, बाल्यविवाह की परम्परा त्यागने के लिये एवं बहुविवाह का प्रचलन बन्द करने के लिये समिति की ताकत विशेष तौर पर लगाई जाय। एक दूसरे प्रस्ताव में हिन्दु विधवा के पुनर्विवाह लागु करने में कानूनी अक्षमता को दूर करने के लिये सरकार के पास आवेदन किया जाय।
यानि विद्यासागर ने सवाल को पहली बार नहीं उठाया था। न तो वह इस आशय से पहली बार शास्त्रों का विवेचन करने वाले थे, न वह पहली बार सरकार से आवेदन करने वाले थे और न ही वह पहली बार अपने हाथों से किसी विधवा का विवाह देने वाले थे। लेकिन फर्क ला दिया उनका चरित्र। जिस काम को करते थे बिल्कुल पिल पड़ते थे। यही बात शिक्षा और नारीशिक्षा के प्रसंग में भी लागु होती है। वह पहले व्यक्ति नहीं थे शिक्षा और नारीशिक्षा का प्रयास करने वाले। पर वह विद्यासागर थे। जिस रास्ते पर चलते थे उसका नक्शा ही पलट देते थे। विधवाविवाह के सवाल पर वह भावुक थे। उनके व्यक्तिगत जीवन की वेदनायें जुड़ी थी इससे। फिर भी भावुकता में नहीं बह कर एक सचेत सामाजिक कार्यकर्ता की तरह पहले एक असाधारण वादविवादमूलक पुस्तिका लिख कर जनमत को जागृत किया। जगह जगह बैठकें कर, शास्त्र का दंभ भरने वाले विद्वानों, धर्म के रुढ़िवादियों को परास्त किया, अंग्रेज सरकार के पास अपनी बात पहुँचाई तथा साथ में अपने समर्थन में प्रबल जनमत जुटाये। अन्तत: सरकार को मजबूर किया कि इसके पक्ष में कानून बने।        
अब आइये देखें कि विधवाविवाह के पक्ष और विपक्ष की क्या स्थिति थी।
यह तो सब जानते हैं कि इस दिशा में काम की शुरुआत उन्होने एक पुस्तिका से की थी, जिसके हिन्दी अनुवाद की चर्चा अभी की गई। यह पुस्तिका सन 1855 के जनवरी महीने में प्रकाशित हुई थी। बंगला साहित्य के एक विद्वान ने विद्यासागर को खण्डनात्मक लेखन (polemic) का राजा कहा है। सन 1856 के जुलाई महीने में ‘हिन्दु पैट्रियट’ ने लिखा, “… The first pamphlet by Pundit Issur Chunder Bidyasagur, which initiated the agitation, was written in a clear business like argumentative style. It was graced by none of the ornaments of rhetoric, and owed its unprecedented circulation to the intense interest of the subject and the very becoming manner in which it was introduced. It was just such a statement as a case should be opened with. We have called the cisculation of Pundit Issur Chunder Bidyasagur’s pamphlet unprecedented, for we do not think that the history of Bengali literature presents another instance of so universal, yet so rapid, a dissemination of a writing.”  
इसके बाद उन्होने इस विषय पर फिर से एक पुस्तिका लिखा। साथ ही, अपने आलोचकों एवं निन्दकों को दो तरीके से जबाब दिये। एक तो शास्त्रार्थ विवेचन के साथ, तर्क की शैली में, दूसरा, खास कर कुतर्की और निन्दकों के लिये व्यंग व परिहास की शैली में।
सिर्फ शास्त्रसम्मत प्रमाणित होने पर तो बात नहीं बनेगी, कानूनसम्मत भी करवा लेना होगा! इसीलिये शास्त्रज्ञों को अंतिम तौर पर परास्त करने के बाद विद्यासागर ने अंग्रेज सरकार के नाम एक आवेदन लिखा सन 1855 के 4 अक्तूबर को। यह व्यक्तिगत पत्र नहीं था। कुल 986 लोगों के हस्ताक्षर के साथ विद्यासागर ने इस सामुहिक आवेदन को अग्रसारित किया था।
इन्द्र मित्र द्वारा रचित जीवनी उन्होने भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार में संरक्षित Legislative Paper of Act XV 1856, Vol.I & II से पक्ष और विपक्ष में लिखे गये आवेदनपत्रों की जानकारी एवं प्रतियाँ संगृहित किये हैं। इसलिये इस लड़ाई की आगे की कहानी उन्ही के ग्रंथ से ली गई है।
986 लोगों द्वारा हस्ताक्षरित उपरोक्त आवेदन के बाद 6 दिसम्बर 1855 को एक आवेदन भेजा गया विधवाविवाह के पक्ष में जिसमें महाराज श्रीशचन्द्र रायबहादुर के अलावे कृष्णनगर एवं आसपास के इलाकों के कई निवासियों का हस्ताक्षर है। अगले ही दिन दिनांक 7 दिसम्बर की तारीख में बारासात, हालिशहर, बेलघरिया, महेश्वरपुर आदि इलाकों से कई लोगों के हस्ताक्षर सहित एक आवेदन पत्र दर्ज है जो ‘महामहिम श्रीलश्रीयुक्त भारतवर्षीय व्य्वस्थापक समाजाध्यक्ष महाशय’ को सम्बोधित है।
इस आवेदन में लिखी गई बातों को जीवनीकार ने उद्धृत किया है और सही किया है, क्योंकि सभी आवेदनों के पीछे की भावनाओं को सबसे अधिक स्पष्टता के साथ एवं नंगे सामाजिक यथार्थ के बीच इस पत्र में दर्ज किया गया,
“चुँकि नारीजाति अपने स्वाभाविक गुणों के कारण पुरुषों से तुलनीय है। स्त्री का निधन होने पर पुरुष अनायास विवाह कर सकता है। हमारे देश में विधवाओं के लिये भी ऐसी प्रथा का प्रचलित नहीं रहना स्वभाव के नितान्त विरुद्ध है। सिर्फ इतना ही नहीं कि ईश्वर के नियम को तोड़ने के कारण पतिरहित कामिनियों को असह्य यंत्रणा भोग करना पड़ता है एवं किसी किसी को घोर दुष्कर्म में प्रवृत्त होना पड़ता है, पुरुषों को भी उनके दुख के भागीदार बनने के कारण या कभी कभी दोनों जातियों के सम्मान की रक्षा के लिये असत्य का सहारा लेना पड़ता है। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा रचित पुस्तकद्वय को पढ़, विधवाविवाह शास्त्रविरोधी नहीं है यह जान कर इस निर्दय एवं विधिविरुद्ध अनिष्टकर नियम का उल्लंघन करने को कई लोग तैयार हैं, लेकिन कहीं न्यायालय में ऐसा विवाह विवाह के रूप में स्वीकृत न हो एवं ऐसे विवाह से उत्पन्न सन्तान विधिवत सन्तान के रूप में न गिना जाय इस आशंका से वे प्रवृत्त नहीं हो पाते हैं। समाज से यह भय दूर होने पर अनायास एवं बहुत जल्द ही विधवाविवाह प्रचलित होने की सम्भावना है। …”       
इसके बाद कई आवेदन विधवाविवाह के पक्ष में आने शुरू हो गये।
सन 1855 के 7 दिसम्बर को ही पूना से भी विधवाविवाह के पक्ष में आया हुआ एक आवेदनपत्र दर्ज है। कलकत्ता मिशनरी कॉन्फ्रेन्स के सदस्यगण, 1855 के 22 दिसम्बर को विधवाविवाह के समर्थन मे एक आवेदन जमा दिये। सन 1856 के जनवरी में आया हुआ पक्ष का एक आवेदन दर्ज है जिसमें 685 लोगों का हस्ताक्षर है। सभी कलकत्ता एवं आसपास के रहनेवाले हैं। कुछ नामीगिरामी लोग, राजकृष्ण मुखोपाध्याय, शिवचन्द्र देव, दिगम्बर मित्र, रामनारायण तर्करत्न, प्यारीचरण सरकार, भुदेव मुखर्जी एवं तारिणीचरण सरकार उनमें शामिल हैं।
अगले साल, यानी 1856 का पहला आवेदन दर्ज है भिंचुर [?] के मराठाप्रधान एवं अन्य कई जनों का, 12 जनवरी को किये गये हस्ताक्षर के साथ विधवाविवाह के पक्ष में आवेदन भेजा गया है नासिक से, 18 जनवरी को। 21 फरवरी की तारीख में, मुर्शिदाबाद से आये आवेदन पर अनेकों हस्ताक्षर है। पर मुख्य हस्ताक्षरकर्ता हैं पन्डित मदनमोहन तर्कालंकार। 29 मार्च को मेदिनीपुर के निवासियों द्वारा हस्ताक्षरित एक आवेदन राजनारायण बसु द्वारा भेजा गया है। बाँकुड़ा एवं वर्धमान से विधवाविवाह के पक्ष में आवेदन 15 अप्रैल को भेजा गया है। अहमदनगर [अभी महाराष्ट्र में है] से 34 हिन्दुओं ने आवेदन भेजा है 25 अप्रैल को। 7 मई का एक आवेदन है जिस पर 312 लोगों का हस्ताक्षर है। इस आवेदनपत्र की खास बात यह है कि इसमें एक अलग नजरिया रखा गया है। कहा गया है कि विधवाविवाह देशाचार में प्रचलित नहीं है लेकिन शास्त्रसिद्ध है यह विद्यासागर ने प्रमाणित किया है। शास्त्र देशाचार से बड़ा होता है इसलिये विधवाविवाह लागू किया जाय्। हस्ताक्षरकर्ताओं में प्रमुखतम नाम है दीनबन्धु मित्र [प्रख्यात नाट्यकार, ‘नीलदर्पण’ के रचयिता]। 19 मई को मैमनसिंह से भगवानचन्द्र बसु ने पक्ष में आवेदन भेजा है। 20 जून को बारासात एवं आसपास के इलाकों के 111 हिन्दु निवासियों ने विधवाविवाह लागू किये जाने के लिये आवेदन भेजा है। 24 जुलाई को ढाका से 113 लोगों (हिन्दु) ने आवेदन भेजा है।
कलकत्ता के कुछ नामी बुद्धिजीवियों, रसिककृष्ण मल्लिक, किशोरीचांद मित्र, राधानाथ शिकदार, प्यारीचांद मित्र आदि ने आवेदन में एक अलग सुझाव दिया, “मामले की जरूरत बेहतर ढंग से पूरी होगी अगर विशेष वैधानिक कार्रवाई के माध्यम से सिर्फ हिन्दु विधवाओं के विवाह को विधिसम्मत बनाने के वजाय सामान्य विवाह कानून बनाया जाय।”
अब, जीवनीकार के ग्रंथ में जिक्र किये गये विधवाविवाह-विरोधी आवेदनों की भी चर्चा हो जाये।
विधवाविवाह कानून को पारित न होने देने के लिये सबसे अधिक हस्ताक्षरों वाला आवेदन जमा पड़ा था 1856 के 17 मार्च को। जमा कराने वाले थे राधाकान्त देव और इस आवेदन में 33000 हस्ताक्षर थे। विद्यासागर के जीवनीकार इन्द्र मित्र राष्ट्रीय अभिलेखागार में जाकर इस आवेदन को देखे होंगे। वह लिखते हैं, “सारे हस्ताक्षर दिख नहीं रहे हैं पर बहुत बड़ी संख्या में हस्ताक्षर थे, नि:सन्देह। कितने थे? मूल आवेदन के पीछे पेन्सिल से लिखा है 36764, फिर उसके पहले वाले पृष्ठ पर आवेदनपत्र के हस्ताक्षरों की संख्या के बारे में पेन्सिल से लिखा है – about 33000 signatures। सरकार द्वारा 5 जुलाई 1856 को प्राप्त, राधाकान्त देव का एक दूसरा आवेदन भी है जिसमें 617 लोगों का हस्ताक्षर है। उस आवेदन पर पहले वाले आवेदन के बारे में लिखा है – the one signed by Royal Radhakanta Dev and 33 thousand Hindu inhabitants. (Legislative Paper of Act XV 1856, Vol. I & II, P.1220)
पहला जिक्र है त्रिपुरा से 320 लोगों के हस्ताक्षर सहित आये आवेदन का। हालाँकि इसके साल का जो जिक्र बंगला के हिसाब से है वह सही नही बैठता है। साल अगर 1856 मान लें तो तारीख आती है 13-14 मार्च। बम्बई के सतारा जिले से 141 हिन्दुओं ने 25 मार्च 1956 को विरोध में आवेदन भेजा है। बम्बई के ही अन्तर्गत कसबा कल्लियाँ से 248 व्यक्तियों ने 23 अप्रैल 1856 को विरोध में आवेदन भेजा है। कलकत्ता-प्रवासी 784 उत्तर-भारतीय लोगों ने भी 1856 के अप्रैल में विरोध का आवेदन भेजा है। पुणा से कई हस्ताक्षरकर्ताओं ने 15 अप्रैल 1856 को विधवाविवाह कानून के प्रस्ताव को दबा देने का आवेदन दिया है।
सारे आवेदनों को देखने पर स्पष्ट होता है कि विरोध में पड़े आवेदनों की संख्या पक्ष में पड़े आवेदनों की संख्या से कहीं ज्यादा थे। एक और बात का सन्देह भी होता है। पक्ष के आवेदन पड़ना शुरू होने के लगभग छे महीने के बाद से विपक्ष के आवेदन पड़ने शुरु हुये। इससे प्रतीत होता है कि प्रतिष्ठित हिन्दु समाज को यह भरोसा था कि अंग्रेज सरकार उनसे सलाह मशविरा किये बिना इस दिशा में कोई काम नहीं करेगी। लेकिन बाद में सरकार की गतिविधियाँ देख कर वे हलचल में आये।
यह ऐतिहासिक संग्राम सिर्फ आवेदन-प्रत्यावेदनों तक सीमित नहीं था। साहित्यकार, कवियों का भी दो दल हो गया था। कुछ विद्यासागर की प्रशस्ति में लिख रहे थे तो कुछ उन्हे गालियाँ दे रहे थे। अखबारों और पत्रिकाओं में दोनों तरह के गीत, कविता, निबन्ध आदि छप रहे थे। बल्कि हिन्दु समाज के कुछ संरक्षक तो किराये के गुन्डे लगा दिये विद्यासागर के पीछे, उन्हे जान से मार डालने के लिये। दूसरी ओर बंगाल के मशहूर तांतियों ने नई साड़ी बनाई, जिसके किनारे की पूरी लम्बाई में (बंगला में जिसे ‘पाड़’ बोलते हैं) विधवाविवाह के पक्ष में एवं विद्यासागर की प्रशस्त्ति में एक पूरा गीत उकेरा गया है। विरोधियों ने एक और घटिया तरकीब सोचा। उधर बैरकपुर के हिन्दुस्तानी सिपाहियों में, बन्दूक के टोटे में लगाये जा रहे गाय और सुअर की चर्बी की खबरों को लेकर रोष फैल रहा था। यह सच था कि मुख्यत: आज के उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग से आये हुये उन सिपाहियों के पास जो खबरें पहुँच रही थी वह इसी प्रकार की थी कि अंग्रेज सरकार सिर्फ टोटे में चर्बी मिलाकर ही नहीं बल्कि उधर कलकत्ता में हिन्दु विधवाओं का जबरन विवाह करवा कर धर्म नष्ट कर रहा है। विधवाविवाह के विरोधियों ने इस तथ्य का इस्तेमाल किया प्रचार में। बल्कि बगावत के बाद वे कहते फिरे कि बागी सिपाही इधर ही, कलकत्ता की तरफ आ रहे हैं – विधवाविवाह कराने वालों की और उस विद्यासागर की खबर लेने के लिये।     
जो भी हो, सन 1856 के 26 जुलाई को विधवाविवाह कानून पारित हो गया।
उसके बाद कई विधवाविवाह हुये। कई विवाह तो विद्यासागर ने खुद खड़े होकर अपने खर्चे से करवाये। इतना खर्च किये कि खुद कर्ज के बोझ से दबते चले गये। सरकारी नौकरी छोड़ देने के कई वर्षों बाद दोबारा नौकरी तलाशनी पड़ी। अन्तत: नहीं किये वह नौकरी, वह एक अलग वृत्तान्त है। सिर्फ बंगाल ही नहीं, पूना, चेन्नई सहित कई जगहों पर विधवाविवाह आयोजित होने के खबर मिलते हैं। बंगाल में, कलकत्ता शहर से अधिक, गाँवों और मुफस्सिलों से विधवाविवाह सम्पन्न होने की अधिक खबर्रें आने लगीं।
लेकिन, यह तो सच था कि सतीदाह बन्द करने का कानून एक निरोधक कानून था। सजा का प्रावधान था। विधवाविवाह कानून न तो निरोधक कानून था और न हो सकता था। इसीलिये विधवाविवाहों का कोई ताँता नहीं लगने वाला था। लेकिन न सिर्फ नारियों की मुक्ति वल्कि प्रेम की मुक्ति की दिशा में एक बड़ा शंखनाद पूरे आसमान में ध्वनित हो चुका था। यही इस आन्दोलन की सफलता थी। इसे जातियों के प्रतिशत के आँकड़ों से नहीं विचारा जा सकता है।
और विवाहों का होना बन्द नहीं हुआ। ऐसा नहीं, कि माहौल बदल गया, विद्यासागर दुनिया से चले गये, समाज के सामने दूसरे मुद्दे आ गये और विधवाविवाह के वारे में जो सकारात्मक सोच उभर कर आई थी उसे फिर से गले में पत्थर बाँध कर कूँए में डुबा दिया सनातन हिन्दु समाज के मठाधीशों ने। बंगला साल 1312 के बैसाख (शायद 1905, अप्रैल) अंक में ‘भारती’ पत्रिका का यह मंतव्य सामने है:  
“बहुतों की धारणा है कि विद्यासागर द्वारा लागू किया गया विधवाविवाह सिर्फ कानून में लिखा रह गया है, व्यवहारिक तौर पर हिन्दु समाज इस सुधार के प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखाया है। जबकि यथार्थ में, विधवाविवाह हिन्दुसमाज में क्रमश: शक्ति का संचय कर रहा है और पुष्ट हो रहा है।”
विद्यासागर के जीवनीकार जानकारी देते हैं कि इस उपरोक्त मन्तव्य के साथ पिछले साढ़े तीन सालों में हुये विधवाविवाहों की एक सूची भी भारती पत्रिका के उस निबन्ध में दिया गया है। सूची अखिल भारतीय है। संख्या है 81।
विधवाविवाह कानून लागू होने के सात साल के बाद वामावोधिनी पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ। प्रकाशक व सम्पादक तो पुरूष ही थे लेकिन लिख पढ़ रही महिलाओं के लेखन से यह मंच देखते ही देखते भर उठा। आगे के वर्षों के महिला-लेखन का बुनियाद तैयार किया इस पत्रिका ने। इसी पत्रिका के एक अंक में प्रकाशित निबन्ध से विद्यासागर के जीवनीकार इन्द्र मित्र ने निम्नलिखित अंश उद्धृत किया है:
“विधवाविवाह का प्रस्ताव जब बंगसमाज में उठा, तब अनेकों शिक्षित युवक साहस के साथ विवाह के लिये अग्रसर हुये थे। दो-एक ने विवाह किया भी था। उस समय विधवा कन्या मिलना कठिन था। माता-पिता कन्या का विवाह देनें को आगे नहीं बढ़ रहे थे। इस सुधार पर उनको भरोसा नहीं था। विधवायें खुद भी उतनी तैयार नहीं थीं। लेकिन आज, दस से कुछ अधिक वर्षों की अवधि में हजार वर्षों का काम हो चुका है। लोगों की सोच और झुकाव में काफी परिवर्तन आया है। कष्ट एवं आवश्यकताओं के कारण अंधविश्व्वास मिट गया है। आज विधवाविवाह के सवाल पर समाज की स्थिति बिल्कुल विपरीत है। पहले कन्यायें तैयार नहीं थीं, वर तैयार थे; आज कन्यायें आगे बढ़ रही हैं, वर पीछे हट रहे हैं।…”



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