Tuesday, January 15, 2019

॥ 4 ॥ शिक्षा : शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालयों की स्थापना


लगातार मातृभाषा पर आधारित आदर्श विद्यालय एवं आगे बालिका विद्यालय स्थापित करने का सिलसिला शुरू करते ही उन्हे प्रतीत हुआ कि इन विद्यालयों के लिये सही ढंग से प्रशिक्षित शिक्षकों की आवश्यकता होगी और इसके लिये विशेष शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालयों की आवश्यकता होगी। इन विद्यालयों को उस समय नॉर्मल स्कूल कहा जाता था। आज भी बिदेशों में कहा जाता है। भारत में हम इन्हे टीचर्स ट्रेनिंग स्कूल या कॉलेज के नाम से जानते हैं।
नॉर्मल स्कूल खोलने के लिये विद्यासागर ने सरकार से बातचीत शुरू की। संस्कृत कॉलेज के भीतर पहले से एक पाठशाला चल रहा था। वह खुद कॉलेज के सचिव थे। सो, उन्हे बस सरकार से अनुमति प्राप्त करनी थी। अन्तत: कागजी कार्रवाईयों के पूरे होने के बाद, सन 1855 के 17 जुलाई को संस्कृत कॉलेज के परिसर में, हर छ: माह पर 60 शिक्षक प्रस्तुत करने वाला भारत का पहला शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय या नॉर्मल स्कूल खोला गया, जिसमें उच्च श्रेणियों का जिम्मा था स्कूल के प्रधानाध्यापक अक्षय कुमार दत्त (बंगाल भाषा के एक प्रख्यात लेखक) पर एवं निम्न श्रेणियों का भार था शिक्षक मधुसूदन वाचस्पति पर। यह पहला नॉर्मल स्कूल सिर्फ पुरुषों के लिये (एवं तत्कालीन सीमाओं में सिर्फ हिन्दु उँची जातियों के लिये) था।
महिलाओं (शिक्षिकाओं) को प्रशिक्षित करने के लिये नॉर्मल स्कूल बनने की अलग ही कहानी है। एक योरोपीय महिला थी मिस मेरी कार्पेन्टर जो 1866 में भारत आई थी; वह भारतीय नारियों की शिक्षा को लेकर काफी उत्साही एवं प्रयत्नशील थीं। विद्यासागर के बारे में जान कर वह विद्यासागर से मिली, उनसे मित्रता की एवं उनके साथ घूम घूम कर कई बालिका विद्यालयों का परिदर्शन किया। परिदर्शन के दौरान दोनों की बातचीत भी हुई कि महिलाओं को प्रशिक्षित करने के लिये भी एक नॉर्मल स्कूल होना चाहिये। यह भी सोचा गया कि इसके लिये बेथून स्कूल ही बेहतर परिसर होगा। मिस कार्पेन्टर ने अपने उत्साह से इस बात को अपने कुछ ब्राम्हो समाजी मित्रों के बीच रखा। उन्होने इसे सहर्ष स्वीकार लिया एवं जल्दी जल्दी में एक बैठक बुला कर प्रस्ताव बनाया एवं सरकार के पास भेज दिया। उन्होने जो कमिटी सुझाई थी उसमें विद्यासागर का भी नाम था लेकिन उन्होने इस कमिटी से अपना नाम वापस ले लिया। बाद में सरकार के द्वारा उपरोक्त प्रस्ताव पर जब उनकी राय मांगी गई तब उन्होने स्पष्ट कहा कि इस तरीके से जल्दी जल्दी में प्रस्ताव लिये जाने से उनका विरोध है। जो उच्च जाति के हिन्दु परिवार अपनी बेटी को शैशवावस्था में विद्यालय भेजने से कतराते हैं वे युवावस्था में बेटियों को शिक्षिका बनने के लिये नॉर्मल स्कूल भेजेंगे? हाँ, हो सकता है कि कुछ हिन्दु विधवायें आयें। पर क्या उनसे स्कूल संभलेगा? इसीलिये, विद्यासागर ने लिखा, कि उन्होने स्पष्ट राय दी थी कि हिन्दु समाज के कुछ गण्यमान्य व्यक्तियों को आमंत्रित कर, उन से राय विचार कर, उनकी सहमति से प्रस्ताव बनाया जाय। फिर भी, विद्यासागर इस काम में जो भी सहयोग मांगा जायेगा, देंगे। वैसे, वह समझते हैं कि इस तरह बनाया गया महिलाओं का नॉर्मल स्कूल चल नहीं पायेगा।
हुआ भी यही। सरकार द्वारा सहयोग दिये जाने के बावजूद, पढ़ी लिखी लड़कियाँ भी शिक्षिका बनने के लिये कम ही आईं और कुछेक वर्षों के बाद वह महिलाओं का वह फिमेल नॉर्मल स्कूल 1871 में बन्द हो गया।
लेकिन विद्यासागर चाहते थे कि फिमेल नॉर्मल स्कूल चले। इसलिये उनकी मृत्य के बाद कलकत्ता की महिलाओं द्वारा बनाई गई विद्यासागर स्मृतिरक्षा समिति के सम्पदक की ओर से बेथून स्कूल कमिटी को 1670 रुपये भेजे गये। आशय था कि कोई हिन्दु बालिका विद्यालय की छात्रा अगर शिक्षिका बनने के लिये प्रवेशिका परीक्षा देने को आग्रही हो तो इस राशि की आय से उसे अगले दो वर्षों तक वृत्ति दी जाय।      
यहीं पर यह भी बता दें कि उपरोक्त मेरी कार्पेन्टर को विद्यालय परिदर्शन कराने के दौरान ही विद्यासागर एक दुर्घटना का शिकार हुये। घोड़ागाड़ी से गिर पड़े एवं पेट व पैर में गंभीर चोट के कारण बेहोश हो गये। इस चोट ने विद्यासागर को बाकी जीवन के लिये पेट से बीमार एवं एक पैर से थोड़ा कमजोर कर दिया। इस दुर्घटना के बाद वह आजीवन थोड़ा अधिक अस्वस्थ भी रहने लगे।   



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