शिक्षण
सम्बन्धी बदलावों में सिर्फ दो पहलुओं को हम रेखांकित करना चाहेंगे। पहला, छात्रों
की भर्ती में जातिगत प्रतिबंध पर प्रहार – संस्कृत कॉलेज का सचिव बनते ही उन्होने छात्रों
की भर्ती में जातिगत प्रतिबन्ध को हटाने की मांग की थी। आज के कुछ इतिहासकार इस वाकया
को छोटा कर आँकते हैं। उनका कहना होता है कि विद्यासागर ने ऐसा क्या किया। ब्राह्मण,
क्षत्रिय और वैद्य परिवार से छात्र पहले से जा ही रहे थे, उन्होने सिर्फ कायस्थ को
शामिल किया।
संस्कृत कॉलेज में छात्रो की भर्ती कम होती जा रही
है इस पर चिन्ता व्यक्त करते हुये कुछेक सुधारों के साथ साथ भर्ती सम्बन्धित प्रतिबन्ध
को हटाये जाने का प्रस्ताव विद्यासागर ने शिक्षा परिषद को भेजा था। शिक्षा परिषद ने
उनसे प्रतिवेदन मांगा। उन्होने 20 मार्च 1851 को यह प्रतिवेदन सौंपा। इस प्रतिवेदन
के बारे में विद्यासागर के जीवनीकार सुबल चन्द्र मित्र लिखते हैं, “अन्य बातों के अलावा,
उन्होने लिखा, ‘जब वैद्यों को, जो शुद्र से बेहतर नहीं हैं (वैद्य जाति कथित तौर पर प्राचीन चिकित्सकों,
रसायनशास्त्रियों के वंशज हैं और उन्हे शवों के चीड़फाड़ से कोई परहेज नहीं, अत: वे शुद्र
हुये, यही विद्यासागर का श्लेष है), कॉलेज में पढ़ने की अनुमति दी जाती है, तो मुझे कोई
कारण नहीं दिखता है कायस्थों को अनुमति नहीं देने का। आगे यह बात भी है कि जब अमृतलाल
मित्र को, जो शोभाबाज़ार के राजा राधकान्त देव बहादुर के दामाद हैं और हाल तक हिन्दु
स्कूल के छात्र थे, संस्कृत कॉलेज में पढ़ने की अनुमति दी गई है तो कायस्थों को अनुमति
नहीं देने का कोई कारण नहीं है।” जीवनीकार यह भी कहते हैं कि विद्यासागर ने प्रतिवेदन
म्रें यह भी लिखा कि कॉलेज ही क्यों, अन्य शिक्षण संस्थानों के अध्यापक भी उनके इस
प्रयास के विरोध में हैं। और उनका विरोध है कि नीची जातियों के लोग संस्कृत पढ़ेंगे
तो हिन्दु धर्म अपवित्र हो जायेगा। उन्होने शास्त्रों से ही ऐसी गलत व दूषित सोच के
खिलाफ उद्ध्वरण दिये। विद्यासागर ने अध्यापकों से पूछा कि अगर उन्हे लगता है कि शूद्रों
को संस्कृत शिक्षा का अधिकार नहीं है तो फिर कैसे राजा राधाकान्त देव, जो शुद्र हैं,
संस्कृत का पाठ ग्रहण किये और अध्यापक लोग उनके द्वारा किये जा रहे शास्त्रों पर बातचीत
का विरोध नहीं करते? विद्यासागर ने यह भी पूछा अध्यापकों से कि अगर वे शुद्रों एवं
अन्य नीची जातियों लड़कों को को संस्कृत पढ़ाने के विरोधी थे तो कैसे वे योरोपीय लोगों
को देवभाषा सिखाने में विवेक का कोई कचोट नहीं महसूस किये, जबकि वे तो हिन्दु ही नहीं
हैं! सिर्फ यही नहीं, देवभाषा सिखाने की मजदूरी के एवज में पैसे भी लिये!
इतिहास बताता है कि आगे चल कर उनकी सोच भारी पड़ी।
संस्कृत कॉलेज के दरवाजे सभी जातियों के लिये खुल गये। बाद में खोले गये आदर्श विद्यालय
तो सभी जातियों एवं सभी धर्मों के लिये ही बने।
दूसरा बदलाव भी बहुत दूरदर्शी था। सख्त अनुशासन-पसन्द
वो जरूर थे लेकिन छात्रों पर शारीरिक प्रहार करने के उतने ही सख्त विरोधी थे। अनेकों
कहानियाँ हैं जिसमें बच्चों को पीटने वाले मास्टरों के प्रति एवं इस प्रवृत्ति के प्रति
उनकी नापसन्दगी दर्शाई गई है। उनका तरीका था दोस्ती, मेलजोल। जब तक कॉलेज चल रहा हो,
कॉलेज परिसर में वह सख्त रहते थे। समय पर आना, समय से जाना, सभी क्लासों का समय पर
होना… सारा कुछ उन्होने लागू करवा दिया था। लेकिन कॉलेज शुरू होने के पहले और बाद में?
एक कहानी है कि किसी गाँव के विद्यालय का परिदर्शन कर कलकत्ता लौटते हुये देर हो गई।
घर जाने का समय नहीं था। घुस गये लड़कों के हॉस्टल में। कूँये पर भींगे कपड़े ओढ़ कर नहा
लिया, लड़कों के थालियों में से एक एक मुट्ठी चावल लेकर खाना खा लिया और घन्टी बजने
से पहले अपने प्राचार्य वाले चेम्बर में सबसे पहले हाजिर हो गये।
तो यह धारा शुरू किया विद्यासागर ने कि बच्चों से
मित्रवत घुल मिल कर उन्हे अनुशासित किया जाय या पढ़ाई के प्रति ध्यान दिलवाया जाय पर
किसी भी स्थिति में उन पर शारीरिक आघात नहीं किया जाय।
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