Tuesday, January 15, 2019

॥ 1 ॥ शिक्षा : नया पाठ्यक्रम निर्माण


“हमें आम जनता तक शिक्षा के लाभ को पहुँचाना होगा। हमें मातृभाषा के विद्यालय स्थापित करने दें, उपयोगी एवं शिक्षाप्रद विषयों पर मातृभाषा में लिखित पाठपुस्तकों की शृंखला तैयार करने दें, शिक्षकों की जिम्मेदारी लेने के योग्य लोगों का एक दल बनाने दें तो बस, लक्ष्य की प्राप्ति हो जायेगी।” [विद्यासागर द्वारा अंग्रेज सरकार के शिक्षा परिषद के सचिव डा॰ मोएट को लिखे गये पत्र से उद्धृत]  
सबसे पहले हम उनके द्वारा, शिक्षा के क्षेत्र में किये गये कामों पर नज़र डालें।
नया पाठ्यक्रम निर्माण
शिक्षा के क्षेत्र में किये गये कामों की चर्चा में क्रमानुसार पहला होगा, संस्कृत कॉलेज के नवनियुक्त साहित्य के प्राध्यापक के रूप में नये पाठ्यक्रम के निर्माण का काम। ऐसा नहीं कि शिक्षा या किसी और क्षेत्र में भी, यह उनका पहला काम था। यह उनकी पहली नौकरी भी नहीं थी। पहली नौकरी सन 1841 से 1846 तक फोर्ट विलियम कॉलेज मे करने के बाद एक बार वह इसके पहले संस्कृत कॉलेज की नौकरी कर चुके थे (अप्रैल 1846 – अप्रैल 1847)। उसी समय उन्होने पठन-पाठन में जो सुधार करना चाहा उन सुधारों को कॉलेज के तत्कालीन सचिव द्वारा रोका गया। विरोध में विद्यासागर इस्तीफा दिये और फिर से फोर्ट विलियम कॉलेज में योगदान दिये।
सन 1850 के नवम्बर में संस्कृत कॉलेज में साहित्य के प्राध्यापक का पद रिक्त हुआ। शिक्षा परिषद के सचिव डा॰ मोयेट के अनुरोध पर विद्यासागर फिर से संस्कृत कॉलेज में अपना योगदान दिये। लेकिन विद्यासागर इसी शर्त पर उस पद पर अपना योगदान दिये थे कि उन्हे सचिव की सारी कार्यकारी शक्तियाँ मिलेंगी ताकि वह कॉलेज को सुधार सकें। सरकार की अनुशंसा पर यह शक्ति उन्हे मिल भी गई। स्वाभाविक तौर पर, कुछ ही दिनों बाद सचिव रसमय दत्त ने इस्तीफा दिया। उनके इस्तीफे के बाद विद्यासागर सचिव बने। बाद में, संस्कृत कॉलेज में सचिव के पद को प्राचार्य का पद सन 1851 में बनाये जाने पर विद्यासागर पहले प्राचार्य बने।
उस समय, पुस्तकों का लेखन, पत्रिका का सम्पादन आदि कई काम उनके चल रहे थे। उन कामों की चर्चा जगह पर होगी। नये पाठ्यक्रम निर्माण के काम का ऐतिहासिक महत्व है। इसीलिये इसकी चर्चा हम पहले कर रहे हैं। यह भी बताते चलें कि उस समय के कॉलेज आज के जैसे नहीं थे। जिन्हे आज विद्यालयी शिक्षा कहते हैं उन निचली कक्षाओं की पढ़ाई भी कॉलेज में हुआ करती थी। उच्च शिक्षा के लिये कलकत्ता शहर में हिन्दू कॉलेज और कलकत्ता मदरसा था। पारम्परिक हिन्दूशास्त्रों यानि अंग्रेजों की नजर में ‘प्राच्यविद्या’ के ज्ञान के लिये कलकत्ता एवं बनारस में दो संस्कृत कॉलेज बनाये गये थे। फोर्ट विलियम कॉलेज मुख्यत: अंग्रेजों के लिये था।  
दर असल, सन 1824 में अंग्रेजों द्वारा स्थापित यह संस्कृत कॉलेज, जिसमें ब्राह्मणों के लड़के 15 वर्षों की पूर्ण पाठावधि में संस्कृत के विद्वान बन कर निकलते थे, उन दिनों बन्द होने के कगार पर था। लड़के हर साल घट रहे थे, जबकि शिक्षा परिषद द्वारा स्थापित स्कूलों की संख्या, जो कलकत्ता में सन 1841 में 28 थी, 155 में 151 हो गई थी। छात्रों की संख्या 4632 से बढ़कर 13,162 एवं शिक्षकों की संख्या 191 से बढ़कर 455 हो गई थी। इन स्कूलों में से कईयों में अंग्रेजी एवं देसी भाषायें (बंगला, हिन्दी, उर्दू) पढ़ाई जाती थी। इन स्कूलों से पास करने वालों को नौकरियाँ मिल रही थी। दूसरी ओर संस्कृत कॉलेज से पास कर निकलने वालों को नौकरियाँ नहीं मिल रही थी।
विद्यासागर ने, 16 दिसम्बर 1850 को एक बड़े प्रतिवेदन के द्वारा शिक्षा परिषद को दो तरह के बदलाव सुझाये।
पहला, कि संस्कृत, खासकर व्याकरण की पढ़ाई, प्राचीन संस्कृत व्याकरण के पुस्तकों के द्वारा नहीं बल्कि देसी भाषा में आधुनिक शिक्षा पद्धति को ध्यान में रख कर रचे गये पुस्तकों के द्वारा हो। (यह कहने में जितना आसान लगता है उतना आसान नहीं था। उस समय तक भारतीय इतिहास में पहली बार किसी युवा शास्त्रज्ञ पंडित ने खुद, विद्यार्थियों को ध्यान में रखते हुये संस्कृत के क्लासिकीय पाठों का मूल्यांकन किया, एक एक पाठ को सामने रख कर उनकी समीक्षा की एवं छात्रों के लिये उनकी उपयोगिता को चुनौती दी। साथ ही छात्रों को पढ़ाये जाने वाले भारतीय दर्शनों की पद्धतिगत विसंगतियों की आलोचना की।)
दूसरा, कि संस्कृत के साथ साथ देशीभाषा (मातृभाषा), अंग्रेजी, भुगोल, साधारण व वैज्ञानिक ज्ञान एवं गणित (अंकगणित, बीजगणित एवं ज्यामिति) की पढ़ाई आवश्यक तौर पर हो।
इन दोनों किस्म के बदलावों की विशद व्याख्या एवं स्पष्ट सुझाव आदि उन्होने अपने दीर्घ प्रतिवेदन में दिया। पुरानी पद्धति, पाठ्यपुस्तक एवं पाठ्यक्रम की सटीक आलोचना की। साथ ही, कॉलेज में अनुशासन की बिगड़ी हुई हालत के मद्देनज़र, ठोस कदम सुझाये ताकि उपस्थिति में सुधार हो, क्लास सब के सब हों एवं समय पर हों आदि। इन सुझावों से अलग, संस्कृत कॉलेज में छात्रों की भर्ती से सम्बन्धित जातिगत दायरों को तोड़ने से सम्बन्धित सुझाव की चर्चा आगे अलग से की गई है।  
शिक्षा परिषद ने प्रस्ताव रचयिता की पैनी दूरदृष्टि की प्रशंसा करते हुये सभी बदलावों को सहर्ष स्वीकार लिया।
इन बदलावों के, एवं अगले 18 वर्षों तक विद्यासागर संस्कृत कॉलेज के प्राचार्य रहने के कारण संस्कृत कॉलेज न सिर्फ जीवित रहा बल्कि आज 168 वर्ष पार कर वह संस्कृत विश्वविद्यालय बन कर खड़ा है।
पाठ्यक्रम सम्बन्धी दूसरा काम था, मातृभाषा के विद्यालयों के लिये पाठ्यक्रम का सुझाव। पहले अंग्रेज शासकों की उपेक्षा की नजर थी मातृभाषा की पढ़ाई पर। शासन के लिये जरूरी अंग्रेज साहबों के कनीय कर्मचारी व अधिकारी अंग्रेजी विद्यालयों, मिशनरी स्कूलों एवं कॉलेजों से मिल ही जा रहे थे। साथ ही, कलकत्ता एवं कुछ बड़े शहरों में निजी तौर पर, राजा राधाकान्त देव एवं अन्य कुछ बड़े लोगों ने हिन्दु बालकों के लिये कई विद्यालय खोले थे क्योंकि उनका आरोप था कि मिशनरी स्कुलों में ‘म्लेच्छों’ के साथ बैठना पड़ता है और जबर्दस्ती लोग इसाई भी बना डालते हैं। लेकिन इन विद्यालयों का पाठ्यक्रम वही मोटामोटी अंग्रेजी स्कूलों वाला ही था।  
जैसे जैसे अंग्रेज सरकार का शासन गहराई तक पैठते गया, दुभाषिये से काम चलाना दुभर हो गया। मातृभाषा की वजायाफ्ता पढ़ाई किये हुये कर्मचारी की जरूरत बढ़ती गई। लॉर्ड हार्डिंज ने इस दिशा में काम किया और बंगाल, बिहार व उड़िसा के विभिन्न जगहों में सौ से अधिक विद्यालय या पाठशाला खोले। पर वे चल नहीं पाये। सरकार भी कुछ वर्षों तक इस दिशा में सोचना एवं कोष देना बन्द कर दिया। सरकार ने यह भी सोचा कि क्यों न ग्रामीण पाठशालाओं को ही प्राथमिक विद्यालय में बदल दिया जाय। (बाद में, अपने नोट भेजते वक्त विद्यासागर ने इस प्रस्ताव को बेतुका बता कर खारिज कर दिया था क्योंकि बजट बहुत कम रखा गया था और शिक्षकों के लिये कोई व्यवस्था नहीं की गई थी।)
फिर खबर मिली कि पश्चिमोत्तर राज्यों के कुछ चुनिंदे जिलों में वहाँ के प्रभारी लॉर्ड टोमासन ने इस दिशा में पहल की है और मातृभाषा के विद्यालय वहाँ बढ़िया चल रहे हैं। बंगाल के प्रभारी, छोटा लाट यानी लेफ्टेनैंट गवर्नर थे हैलिडे। वह खुद पहले शिक्षा परिषद में थे एवं शिक्षा में रुचि रखते थे। संस्कृत कॉलेज के प्राचार्य के रूप में विद्यासागर से उनकी अच्छी मित्रता थी तथा उनकी विद्वता एवं व्यवहारिक ज्ञान दोनों से वह प्रभावित थे। टोमासन की सफलता के बारे में जानने के बाद हैलिडे ने अपने सरकार से विचार किया कि क्यों न कुछ मॉडेल बेंगॉली स्कूल खोलने के बारे में सोचा जाय एवं इस काम का पूरा जिम्मा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर को दिया जाय, क्योंकि बहुत दिनों से विद्यासागर मातृभाषा में शिक्षा की वकालत कर रहे हैं। लेकिन वह अंग्रेज नहीं थे। और इन्स्पेक्टर ऑफ स्कूल्स कोई अंग्रेज ही बन सकता था।
हैलिडे भी काफी जिद्दी थे। काफी जद्दोजहद के बाद बात बनी कि विद्यासागर रहेंगे तो सहायक इन्स्पेक्टर, लेकिन मॉडेल बेंगॉली स्कूलों के स्थाई स्वतंत्र प्रभार के साथ, जिसके लिये उन्हे संस्कृत कॉलेज के प्राचार्य की तनख्वाह के साथ अलग से इन्स्पेक्टरी वाली तनख्वाह भी मिलेगी (बाद में इस पद का नाम बदलकर ‘दक्षिण बंगाल के विद्यालयों का विशेष निरीक्षक’ या ‘स्पेशल इन्स्पेक्टर फॉर स्कूल्स ऑफ साउथ बेंगॉल’ कर दिया गया था)। फिर हैलिडे साहब के कहने पर विद्यासागर ने बंगाल के कुछेक जिलों में चप्पा चप्पा छान मारा, गाँववालों से बात की … उन तमाम गाँवों को चिन्हित किया जहाँ मॉडेल बेंगॉली स्कूल खोले जा सकते थे एवं उन गाँवों को भी चिन्हित किया जहाँ आश्वासन मिला कि स्कूल खोले जाने पर गाँववाले खुद अपनी मदद से स्कूल के लिये भवन खड़ा कर देंगे, या मुहैया करा देंगे। फिर उन्होने 19 विन्दुओं का एक विस्तृत नोट दिया जो पूरा का पूरा लेफ्टेनैंट गवर्नर द्वारा अनुशंसित किया गया एवं उनकी अनुशंसा पर दिल्ली सरकार व राजकोष विभाग ने भी स्वीकार कर लिया।
उस नोट के पहले चार विन्दु पाठ्यक्रम से सम्बन्धित हैं जिनका अनुवाद नीचे दिया जा रहा है। आगे के विन्दु, शिक्षक नियुक्ति, शिक्षक, सहायक शिक्षक आदि का वेतन एवं अन्य विषयों पर है।
मातृभाषा में शिक्षा पर नोट:
1-  व्यापक पैमाने पर एवं पूरी सक्षमता के साथ मातृभाषा में शिक्षा अत्यंत आकांक्षित है। क्योंकि सिर्फ इसी के जरिये आमजनता कि स्थिति में सुधार लाया जा सकता है।
2-  इस शिक्षा में सिर्फ, थोड़ा अंकगणित और थोड़ा पढ़ना-लिखना सीखा देना ही काफी नहीं होगा; शिक्षा को सम्पूर्ण करने के लिये भुगोल, इतिहास, जीवनी, अंकगणित, ज्यामिति, नैसर्गिक दर्शन, नैतिक दर्शन, राजनीतिक अर्थशास्त्र एवं देहशास्त्र की शिक्षा भी देनी होगी।
3-  शुरुआती पुस्तकें जो प्रकाशित हो चुके हैं और जिन्हे पाठ्यपुस्तकों के रूप शामिल किया जा सकता है, निम्नलिखित हैं:-
प्रथम – शिशुशिक्षा, पाँच भागों में। पहला तीन भाग वर्णमाला, हिज्जे एवं पाठ सिखाते हैं। चौथा भाग एक निबंध है ज्ञान के मूल बातों पर। पाँचवाँ, ‘चेम्बर्स शिक्षाक्रम’ के नैतिक पाठ्यपुस्तक का स्वच्छंद अनुवाद है।
द्वितीय – पश्वावली, पशुओं का प्राकृतिक इतिहास।
तृतीय – बंगाल का इतिहास, मार्शमैन रचित पुस्तक का स्वच्छन्द अनुवाद।
चतुर्थ – चारुपाठ, आवश्यक एवं मनोरंजक विषयों पर पाठमाला।
पंचम – जीवनचरित, ‘चेम्बर्स एक्जेम्प्लरी बायोग्रफी’ से कोपरनिकस, गैलिलिओ, न्युटन, सर विलियम हेर्शेल, ग्रॉश्यस, लिनॉस, डुवल, सर विलियम जोन्स एवं थॉमस जेन्किन्स के जीवनियों का स्वच्छंद अनुवाद।
4-  अंकगणित, ज्यामिति, नैसर्गिक दर्शन पर पुस्तकें तैयार किये जा रहे हैं। भुगोल, राजनैतिक अर्थशास्त्र एवं देहशास्त्र पर निबंध तथा ऐतिहासिक कार्य एवं जीवनियाँ अभी संगृहित किये जाने हैं। फिलहाल, भारत, युनान, रोम एवं इंग्लैंड का इतिहास काफी होगा।”
इसके बाद भी विद्यासागर पाठ्यक्रम सम्बन्धी सुझाव देते रहे। मुख्य बात यह है कि न सिर्फ बंगाल बल्कि पूरे भारत में शिक्षाविदों द्वारा आम छात्र-छात्राओं के लिये मातृभाषा से लैस, आधुनिक एवं बेहतर रोजगार पाने की दृष्टि से आवश्यक शिक्षा का पाठ्यक्रम तैयार किये जाने का सिलसिला उन्होने ही शुरू किया।



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